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श्रीमद राजचन्द्र
६७७ वस्तुमे मिलावट नही करूँ । ६७८ जीवहिंसक व्यापार नही करूँ । ६७९ निषिद्ध अचार आदि नही खाऊ । ६८० एक कुलमे कन्या नही दूं, नही लूं । ६८१. दूसरे पक्ष के सगे (सबंधी) स्वधर्मी ही ढूंढूंगा ।
६८२ धर्मकर्त्तव्यमे उत्साह आदिका उपयोग करूंगा ।
६८३ आजीविकाके लिये सामान्य पाप करते हुए भी डरता रहूँगा ।
६८४ धर्ममित्रसे माया नही करूँ ।
६८५. चातुर्वर्ण्य धर्मको व्यवहारमे नही भूलूँगा ।
६८६ सत्यवादीका सहायक बनूंगा ।
६८७ धूर्त त्यागका त्याग करता हूँ ।
६८८ प्राणीपर कोप नही करना ।
६८९ वस्तुका तत्त्व जानना ।
६९०. स्तुति, भक्ति और नित्यकर्मका विसर्जन नही करूँ ।
६९१. अनर्थ पाप नही करूँ ।
६९२ आरभोपाधिका त्याग करता हूँ ।
६९३ कुसगका त्याग करता हूँ ।
६९४. मोहका त्याग करता हूँ । ६९५ दोषका प्रायश्चित्त करूँगा ।
६९६. प्रायश्चित्त आदिको विस्मृति नही करूँ ।
६९७. सबकी अपेक्षा धर्मवर्गको प्रिय मानूंगा ।
६९८. तेरे धर्मका त्रिकरण शुद्ध सेवन करनेमे प्रमाद नही करूँगा ।
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७००.
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aft | मुझे आपके लिये एकातवाद ही ज्ञानकी अपूर्णताका लक्षण दिखाई देता है, क्योकि “नौसिखिये” कवि काव्यमे जैसे तैसे दोष दबानेके लिये 'ही' शब्दका उपयोग करते हैं, वैसे आप भी 'ही' अर्थात् 'निश्चितता', 'नौसिखिया' ज्ञानसे कहते हैं । मेरा महावीर ऐसा कभी नही कहेगा, यही इसकी सत्कविकी भाँति चमत्कृति है !!!
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वचनामृत
१. इसे तो अखण्ड सिद्धात मानिये कि सयोग, वियोग, सुख, दुःख, खेद, आनन्द, अराग, अनुराग इत्यादिका योग किसी व्यवस्थित कारणपर आधारित है ।
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२ एकात भावी अथवा एकात न्यायदोषका सन्मान न कीजिये ।
३. किसीका भी समागम करना योग्य नही है, फिर भी जब तक वैसी दशा न हो तब तक सत्पुरुषका समागम अवश्य करना योग्य है ।