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श्रीमद् राजचन्द्र इसी प्रकार बौद्धमुनि मासादिक अभक्ष्य और सुखशील साधनोंसे युक्त हैं। जैनमुनि तो इनसे सर्व विरक्त हो हैं।
शिक्षापाठ १०६ : विविध प्रश्न-भाग ५ प्र०-वेद और जैनदर्शनमे प्रतिपक्षता है क्या ?
उ०-जैनदर्शनकी वेदसे किसी द्वेषसे प्रतिपक्षता नही है, परन्तु जैसे सत्यका असत्य प्रतिपक्ष गिना जाता है वैसे जैनदर्शनसे वेदका सबध है।
प्र०-इन दोनोमे आप किसे सत्यरूप कहते हैं ? उ०-पवित्र जनदर्शनको। - प्र०-वेददर्शनवाले वेदको कहते हैं, उसका क्या ?
उ०--यह तो मतभेद और जैनदर्शनके तिरस्कारके लिये है। परन्तु न्यायपूर्वक दोनोंके मूलतर आप देख जाइये।
प्र०-इतना तो मुझे लगता है कि महावीरादिक जिनेश्वरोका कथन न्यायके कॉटे पर है, परन जगतकर्ताका वे निषेध करते है, और जगत अनादि अनत है ऐसा कहते है, इस विषयमे कुछ कुछ शव होती है कि यह असख्यात द्वीप-समुद्रयुक्त जगत बिना बनाये कहाँसे हुआ ?
उ०-आपको जब तक आत्माकी अनत शक्तिकी लेश भी दिव्य प्रसादी नही मिली तब तक ऐस लगता है, परन्तु तत्त्वज्ञानसे ऐसा नही लगेगा। 'सम्मतितर्क' ग्रन्थका आप परिशीलन करेंगे तो यह शंक दूर हो जायेगी।
प्र०-परतु समर्थ विद्वान अपनी मृषा बातको भी दृष्टातादिकसे सैद्धान्तिक कर देते है, इसलिए वह खडित नही हो सकती, परन्तु वह सत्य कैसे कही जाये ?
उ०—परन्तु उन्हे कुछ मृषा कहनेका प्रयोजन न था, और थोडी देरके लिये यो मानें कि हमे ऐसे शंका हुई कि यह कथन मृषा होगा तो फिर जगतकाने ऐसे पुरुषको जन्म भी क्यो दिया ? नामडुबाउ पुत्रको जन्म देनेका क्या प्रयोजन था ? और फिर वे सत्पुरुष सर्वज्ञ थे, जगतकर्ता सिद्ध होता तो ऐस कहनेसे उन्हे कुछ हानि न थी।
शिक्षापाठ १०७ : जिनेश्वरकी वाणी
( मनहर छन्द) *अनंत अनंत भाव भेदथी भरेली भली, अनंत अनंत नय निक्षेपे व्याख्यानी छे; सकल जगत हितकारिणी हारिणी मोह, तारिणी भवाब्धि मोक्षचारिणी प्रमाणी छे; उपमा आप्यानी जेने तमा राखवी ते व्यर्थ,
आपवाथी निज मति मपाई मे मानी छे; *भावार्थ-जिनेश्वरकी वाणी अनतानत भावभेदोंसे भरी हुई है, इसलिये मनोहर है, अनतानत नय-निक्षेपोसे जिसकी व्याख्या की गई है, जो सकल जगतका हित करनेवाली, मोहको हरनेवाली, भवसागरसे तारनेवाली है और जिसे मोक्ष देनेके लिये समर्ध एव प्रमाणभूत माना है, जिसे उपमा देनेकी लालसा रखना व्यर्थ है, और उपमा देनेसे