________________
१७ वो वर्ष
१२७ मैंने पहले कहा था कि इन नामोके रखनेमे जीव और मोक्षकी निकटता है। फिर भी यह निकटता तो न हुई, परन्तु जीव और अजीवकी निकटता हुई, परन्तु ऐसा नही है। अज्ञानसे तो इन दोनोकी ही निकटता है । ज्ञानसे जीव और मोक्षकी निकटता है, जैसे कि :
पुण्य
अजीव
hin
नवतत्त्वनामचक्र
आस्रव
अब देखो, इन दोनोमे कुछ निकटता आई है ? हाँ, कही हई निकटता आ गई है। परतु यह निकटता तो द्रव्यरूप है। जब भावसे निकटता आये तब सर्व सिद्धि हो। इस निकटताका साधन सत्परमात्मतत्त्व, सद्गुरुतत्त्व और सद्धर्मतत्त्व है। केवल एक ही रूप होनेके लिये ज्ञान, दर्शन और चारित्र है।
___ इस चक्रसे ऐसी भी आशंका हो सकती है कि जब दोनो निकट हैं तब क्या बाकीका त्याग करना? उत्तरमे यो कहता हूँ कि यदि सबका त्याग कर सकते हो तो त्याग कर दो, जिससे मोक्षरूप ही हो जाओगे। नही तो हेय, ज्ञेय, उपादेयका बोध लो, इससे आत्मसिद्धि प्राप्त होगी।
शिक्षापाठ ९४ : तत्त्वावबोध-भाग १३ जो जो मैं कह गया हूँ वह सब केवल जैनकुलमे जन्म पानेवाले पुरुषोके लिये नही है परन्तु सबके लिये है। इसी तरह यह भी निशक माना कि मै जो कहता हूँ वह अपक्षपातसे और परमार्थबुद्धिसे कहता हूँ।
तुमसे जो धर्मतत्त्व कहना है वह पक्षपात या स्वार्थबुद्धिसे कहनेका मुझे कोई प्रयोजन नही है। पक्षपात या स्वार्थसे मैं तुम्हे अधर्मतत्त्वका बोध देकर अधोगतिको किसलिये साधू ? वारवार में तुमसे निर्ग्रन्थके वचनामृतके लिये कहता हूँ, उसका कारण यह है कि वे वचनामृत तत्त्वमे परिपूर्ण हैं । जिनेश्वरोके लिये ऐसा कोई भी कारण न था कि जिसके निमित्तसे वे मृपा या पक्षपाती बोध देते, और वे अज्ञानी भी न थे कि जिससे मृषा उपदेश दिया जाय । आशका करेंगे कि वे अज्ञानी नही थे यह किस प्रमाणसे मालूम हो ? तो इसके उत्तरमे कहता हूँ कि उनके पवित्र सिद्धान्तोंके रहस्यका मनन करो; और जो ऐसा करेगा वह तो फिर लेश भी आशका नही करेगा। जैनमतप्रवर्तकोने मुझे कोई भूरसी दक्षिणा नही दी है, और वे मेरे कोई कुटुम्ब-परिवारी भी नही हैं कि उनके पक्षपातसे मैं तुम्हे कुछ भी कह दूं। इसी तरह अन्यमतप्रवतंकोके प्रति मेरी कोई वैरबुद्धि नही है कि मिथ्या ही उनका खडन करूँ। दोनोके प्रति मैं तो मदमति मध्यस्थरूप हूँ। बहुत बहुत मनन करनेसे और मेरी मति जहाँ तक पहुंची वहाँ तक विचार करनेसे