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श्रीमद राजचन्द्र
मै विनयपूर्वक इतना कहना है कि प्रिय भव्यो । जेन जैसा एक भी पूर्ण और पवित्र दर्शन नहीं है, वीतराग जेगा एक की देव नहीं है, तैरकर अनत दुखसे पार पाना हो तो इस सर्वज्ञ-दर्शनरूप कल्पवृक्षका सेवन
कग।
शिक्षापाठ ९५ : तस्वावबोध-- भाग १४
दर्शन इतनी अधिक सूक्ष्म विचारसकलतासे भरा हुआा दर्शन है कि जिसमे प्रवेश करनेमे भी बहुत उक्त चाहिये। ऊपर-ऊपरसे या किसी प्रतिपक्षीके कहनेसे अमुक वस्तुसबधी अभिप्राय वना लेना या अभिप्राय दे देना, यह विवेकीका कर्तव्य नहीं है । एक तालाव सपूर्ण भरा हुआ हो, उसका जल ऊपरसे समान लगता है, परन्तु ज्योज्यो आगे चलते हे त्यो त्यो अधिक-अधिक गहराई आती जाती है, फिर भी ऊपर तो जल सपाट ही रहता है, इसी प्रकार जगतके सभी धर्ममत एक तालाबरूप है । उन्हें ऊपरसे सामान्य सतह देखकर समान कह देना यह उचित नही है । यो कहनेवाले तत्त्वको पाये हुए भी नही है । जैन एक एक पवित्र सिद्धान्तपर विचार करते हुए आयु भी पूर्ण हो जाये तो भी पार न पाये, ऐसी स्थिति है। बाकी के सभी धर्ममतोके विचार जिनप्रणीत वचनामृतसिंधुके आगे एक बिन्दुरूप भी नहीं हैं । जिसने जैनदर्शनको जाना और सेवन किया वह सर्वथा नीरागी और सर्वज्ञ हो जाता है । इसके पवर्तक कैसे पवित्र पुरुष थे ? इसके सिद्धात कैमे अखड, संपूर्ण और दयामय है ? इसमे दूषण कोई भी नही है । सर्वथा निर्दोष तो मात्र इनका दर्शन है। ऐसा एक भी पारमार्थिक विषय नही है कि जो जैनदर्शनमे न हो और ऐसा एक भी तत्त्व नहीं है कि जो जैनदर्शन नहीं है । एक विषयको अनत भेदोंसे परिपूर्ण कहनेवाला तो जैनदर्शन ही है । प्रयोजनभूत तत्त्व इसके जेसे कही भी नही हैं। एक देहमे दो आत्मा नही है इसी प्रकार सारी सृष्टिमे दो जैन अर्थात् जैनके तुल्य एक भी दर्शन नही है मात्र उसकी परिपूर्णता, नोरागिता, सत्यता और जगद्द्द्द्तैिषिता ।
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ऐसा कहनेका कारण क्या ?
शिक्षापाठ ९६ : तत्त्वावबोध - भाग १५
न्यायपूर्वक इतना मुझे भी मान्य रखना चाहिये कि जब एक दर्शनको परिपूर्ण कहकर बात सिद्ध करनी हो तब प्रतिपक्षको मध्यस्थवुद्धिसे अपूर्णता दिखानी चाहिये। और इन दो बातो पर विवेचन करने जितना यहा स्थान नही है, तो भी थोड़ा थोडा कहता आया हूँ | मुख्यत. जो बात है वह यह है कि मेरी यह बात जिसे रुचिकर न लगती हो या असम्भव लगनी हो' उसे जनतत्त्वविज्ञानी शास्त्रोको और अन्य तत्त्वविज्ञानी शास्त्रोको मध्यस्थबुद्धिसे मनन करके न्यायके काँटेपर तौलना चाहिये । इसपरसे अवश्य हो इतना महावाक्य फलित होगा कि जो पहले डकेकी चोटसे कहा गया था वह सच था ।
गत भेडियाधसान है । धर्मके मतभेदसम्बन्धी शिक्षापाठमे प्रदर्शित किये अनुसार अनेक धर्ममतोका जाल फैला हुआ है । विशुद्ध आत्मा कोई ही होता है । विवेकसे कोई ही तत्त्वको खोजता है ! इसलिये मुझे कुछ विशेष खेद नही है कि अन्य दार्शनिक जैनतत्त्वको किसलिये नही जानते ? यह आशका करने योग्य नही है ।
फिर भी मुझे बहुत आश्चर्य लगता है कि केवल शुद्ध परमात्मतत्त्वको पाये हुए, पकल दूषणरहित, मृपा कहनेका जिन्हे कोई निमित्त नही है ऐसे पुरुषोके कहे हुए पवित्र दर्शनको स्वयं तो जाना नही, अपने आत्माका हित तो किया नही, परन्तु अविवेकसे मतभेदमे पडकर सर्वथा निर्दोष और पवित्र दर्शनको नास्तिक किसलिये कहा होगा ? मैं समझता हूँ कि ऐसा कहनेवाले इसके तत्त्वोको जानते न थे । तथा इसके तत्त्वोको जाननेसे अपनी श्रद्धा बदल जायेगी, तब लोग फिर अपने पहले कहे हुए मतको नही मानेंगे,