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श्रीमद राजचन्द्र
शिक्षापाठ ८१ : पंचमकाल
कालचक्रके विचार अवश्य जानने योग्य हैं। जिनेश्वरने इस कालचक्र के दो भेद कहे हैं१ उत्सर्पिणी, २ अवसर्पिणी। एक-एक भेदके छ छ आरे है । आधुनिक प्रवर्तमान आरा पंचमकाल कहलाता है और वह अवसर्पिणी कालका पाँचवा आरा है । अवसर्पिणी अर्थात् उतरता हुआ काल । इस उतरते हुए कालके पाँचवें आरेमे इस भरतक्षेत्रमे कैसा वर्तन होना चाहिये इसके बारेमे सत्पुरुषोंने कुछ विचार बताये है, वे अवश्य जानने योग्य है ।
वे पचमकालके स्वरूपको मुख्यत इस आशयमे कहते है । निर्ग्रथ प्रवचनमे मनुष्योकी श्रद्धा क्षीण होती जायेगी। धर्मके मूल तत्त्वोमे मतमतातर बढेंगे । पाखडी और प्रपची मतोका मडन होगा । जनसमूहको रुचि अधर्म की ओर जायेगी । सत्य, दया धीरे-धीरे पराभवको प्राप्त होगे । मोहार्दिक दोषोकी वृद्धि होती जायेगी । दभी और पापिष्ठ गुरु पूज्य होगे । दुष्टवृत्तिके मनुष्य अपने प्रपचमे सफल होगे । मीठे परंतु घू वक्ता पवित्र माने जायेंगे | शुद्ध ब्रह्मचर्य आदि शीलसे युक्त पुरुष मलिन कहलायेगे । आत्मिक ज्ञानके भेद नष्ट होते जायेंगे । हेतुहौन क्रियाएँ वढती जायेंगी । अज्ञान क्रियाका बहुधा सेवन किया जायेगा । व्याकुल करनेवाले विपयोके साधन वढते जायेंगे । एकातिक पक्ष सत्ताधीश होगे । शृगारसे धर्म माना जायेगा ।
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सच्चे क्षत्रियोके बिना भूमि शोकग्रस्त होगी । निस्सत्त्व राजवंशी वेश्याके विलास मे मोहित होगे । धर्म, कर्म और सच्ची राजनीतिको भुल जायेगे, अन्यायको जन्म देगे, जैसे लूट सकेंगे वैसे प्रजाको लूटेंगे। स्वयं पापिष्ठ आचरणोका सेवन करके प्रजासे उनका पालन करायेंगे । राजबीजके नामपर शून्यता आती जायेगी । नोच मत्रियोकी महत्ता बढती जायेंगी । वे दीन प्रजाको चूसकर भडार भरनेका राजाको उपदेश ' देंगे । शील भग करनेका धर्म राजाको अगीकार करायेंगे। शौर्य आदि सद्गुणोका नाश करायेंगे। मृगया आदि पापोमे अध बनायेंगे । राज्याधिकारी अपने अधिकारसे हजारगुना अहंकार रखेंगे । विप्र लालची और लोभो हो जायेंगे। वे सद्विद्याको दवा देगे, ससारी साधनोको धर्मं ठहरायेंगे । वैश्य मायावी, केवल स्वार्थी और कठोर हृदयके होते जायेंगे । समग्र मनुष्यवर्गकी सद्वृत्तियाँ घटती जायेगी । अकृत्य और भयकर कृत्य करते हुए उनकी वृत्ति नही रुकेगी। विवेक, विनय, सरलता इत्यादि सद्गुण घटते जायेंगे । अनुकप्रात्रे नामपर हीनता होगी। माताकी अपेक्षा पत्नीमे प्रेम बढेगा, पिताकी अपेक्षा पुत्रमे प्रेम बढेगा, नियमपूर्वक पतिव्रत पालनेवाली सुन्दरियां घट जायेंगी । स्नानसे पवित्रता मानी जायेगी, धनसे उत्तम कुल माना जायेगा । शिष्य गुरुसे उलटे चलेंगे। भूमिका रस घट जायेगा । सङ्क्षेपमे कहनेका भावार्थ यह है कि उत्तम वस्तुओकी क्षीणता होगी और निकृष्टं वस्तुओका उदय होगा । पंचमकालका स्वरूप इनका प्रत्यक्ष सूचन भी कितना अधिक करता है ?
मनुष्य सद्धर्मतत्त्वमे परिपूर्ण श्रद्धावान नही हो सकेगा, सपूर्ण तत्त्वज्ञान नही पा सकेगा, जम्बुस्वामी - के निर्वाणके बाद दस निर्वाणी वस्तुओका इस भरतक्षेत्रसे व्यवच्छेद हो गया ।
पचमकालका ऐसा स्वरूप जानकर विवेकी पुरुष तत्त्वको ग्रहण करेंगे, कालानुसार धर्मतत्त्वश्रद्धाको पाकर उच्चगतिको साधकर परिणाममे मोक्षको साधेंगे। निर्ग्रन्थ प्रवचन, निर्ग्रन्थ : प्राप्ति साधन है । इनकी आराधना से कर्मकी विराधना है ।
गुरु इत्यादि धर्मतत्त्वकी
शिक्षापाठ ८२ : तत्त्वावबोध - भाग १
दशवैकालिकसूत्रमे कथन है कि जिसने जीवाजीवके भावोको नही जाना वह अब सयममे कैसे स्थिर रह सकेगा ? इस वचनामृतका तात्पर्य यह है कि तुम आत्मा एव अनात्माके स्वरूपको जानो, इसे जाननेकी परिपूर्ण आवश्यकता है ।