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१७वाँ वर्ष
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जो सर्व प्रकारके आरभ और परिग्रहसे रहित हुए हैं, द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे जो अप्रतिवधरूपसे विचरते है, शत्रु-मित्र के प्रति जो समान दृष्टिवाले है और शुद्ध आत्म ध्यानमे जिनका समय व्यतीत होता है, अथवा स्वाध्याय एव ध्यानमे जो लीन है, ऐसे जितेन्द्रिय और जितकषाय निग्रंथ परम सुखी है। सर्व घनघाती कर्मोंका जिन्होने क्षय किया है, जिनके चार कर्म दुर्बल पड गये हैं, जो मुक्त है, जो अनतज्ञानी और अनतदर्शी हैं, वे तो सम्पूर्ण सुखी ही है । वे मोक्षमे अनत जीवनके अनत सुखमे सर्व कर्मविरक्ततासे विराजते हैं ।
इस प्रकार सत्पुरुषो द्वारा कहा हुआ मत मुझे मान्य है । पहला तो मुझे त्याज्य है, दूसरा अभी मान्य है, और प्राय इसे ग्रहण करने का मेरा बोध है। तीसरा बहु मान्य है । और चौथा तो सर्वमान्य तथा सच्चिदानदस्वरूप ही है ।
इस प्रकार पण्डितजी । आपकी और मेरी सुखसबधी बातचीत हुई । प्रसगोपात्त इस बातकी चर्चा करते रहेगे और इसपर विचार करेगे । ये विचार आपको कहने से मुझे बहुत आनन्द हुआ है । आप ऐसे विचारोंके अनुकूल हुए इससे तो आनदमे और वृद्धि हुई है । परस्पर यो बातचीत करते करते हर्षंके साथ वे समाधिभावसे शयन कर गये ।
जो विवेकी यह सुखसम्बन्धी विचार करेंगे वे बहुत तत्त्व और आत्मश्रेणिकी उत्कृष्टताको प्राप्त करेंगे। इसमे कहे हुए अल्पारभी, निरारभी और सर्वमुक्तके लक्षण लक्ष्यपूर्वक मनन करने योग्य है । यथासभव अल्पारभी होकर समभावसे जनसमुदायके हितकी ओर लगना, परोपकार, दया, शान्ति, क्षमा और पवित्रताका सेवन करना यह बहुत सुखदायक है । निग्रंथताके विषयमे तो विशेष कहने की जरूरत ही नही है । मुक्तात्मा तो अनतं सुखमय ही है ।
शिक्षापाठ ६७ अमूल्य तत्त्वविचार (हरिगीत छद)
* बहु पुण्यकेरा पुंजथी शुभ देह मानवनो मळयो, तोये अरे ! भवचक्रनो आटो नहि एक्के टळयो; सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो, क्षण क्षण भयंकर भावमरणे' का अहो राची रहो ? ॥१॥ लक्ष्मी भने अधिकार वघतां, शुं वध्युं ते तो कहो ? शुं कुटुंब के परिवारथी वघवापणु, ए नय ग्रहो; वधवापणुं संसारनु नर देहने हारी जवो, एनो विचार नहीं अहोहो ! एक पळ तमने हवो !!! ॥२॥
* भावार्थ - वहुत पुण्यके पुजसे यह शुभ मानवदेह मिली, तो भी यह खेदकी बात है कि भवचक्रका एक भी चक्कर दूर नही हुआ । इसे जरा ध्यानमे लो कि सुख प्राप्त करते हुए सुख दूर होता है । यह आश्चर्य है कि क्षणक्षणमें होनेवाले भावमरणमें तुम क्यो खुश हो रहे हो ? ॥१॥
भला यह तो बताओ कि लक्ष्मी और अधिकार वढनेसे तुम्हारा क्या वढा ? कुटुम्ब और परिवार बढ़नेसे तुम्हारी क्या बढ़ती हुई? इस रहस्य को समझो । क्योकि ससारका बढना तो मनुष्यदेहको हार जाना है । यह कितना आश्चर्य है कि तुम्हें इसका विचार एक क्षणभरको भी नही हुआ ! ! ॥२॥
निर्दोप सुख और निर्दोष आनद चाहे जहांसे भले लो, जिससे यह दिव्य शक्तिमान आत्मा बघनसे मुक्त हो ।