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१७वाँ वर्ष
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८ ज्ञान, ध्यानमे प्रवर्त्तमान होकर जीव नये कर्म नही बाँधता, ऐसा चिन्तन करना, यह आठवी 'सवरभावना' ।
९ ज्ञानसहित क्रिया करना यह निर्जराका कारण है, ऐसा चिन्तन करना, यह नौवी 'निर्जराभावना' । १० लोकस्वरूपकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाशके स्वरूपका विचार करना, यह दसवी 'लोकस्वरूपभावना' ।
११ संसारमे परिभ्रमण करते हुए आत्माको सम्यग्ज्ञानकी प्रसादी प्राप्त होना दुर्लभ है, अथवा सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ तो चारित्र - सर्वविरतिपरिणामरूप धर्म-प्राप्त होना दुर्लभ है, ऐसा चिन्तन करना, यह ग्यारहवीं 'बोधिदुर्लभ भावना' ।
१२ धर्मके उपदेशक तथा शुद्ध शास्त्रके बोधक गुरु तथा उनके उपदेशका श्रवण मिलना दुर्लभ है, ऐसा चिन्तन करना, यह बारहवी 'धर्मदुर्लभभावना' ।
इन बारह भावनाओका मननपूर्वक निरन्तर विचार करनेसे सत्पुरुष उत्तम पदको प्राप्त हुए है, प्राप्त होते हैं, और प्राप्त होगे ।
शिक्षापाठ २२ : कामदेव श्रावक
महावीर भगवानके समयमे द्वादश व्रतको विमल भावसे धारण करनेवाला, विवेकी और निग्रंथवचनानुरक्त कामदेव नामका एक श्रावक उनका शिष्य था । एक समय इन्द्रने सुधर्मासभामे कामदेवकी धर्म - अचलताकी प्रशंसा की । उस समय वहाँ एक तुच्छ बुद्धिमान देव बैठा हुआ था । " वह बोला"यह तो समझमे आया, जब तक नारी न मिले तब तक ब्रह्मचारी तथा जब तक परिषह न पडे होत तक सभी सहनशील और धर्मदृढ ।' यह मेरी बात में उसे चलायमान करके सत्य कर दिखाऊँ ।” धर्मदृढ कामदेव उस समय कायोत्सर्गमे लीन था । देवताने विक्रियासे हाथीका रूप धारण किया, और फिर कामदेवको खूब रौदा, तो भी वह अचल रहा, फिर मूसल जैसा अंग बनाकर काले वर्णका सर्प होकर भयकर फुंकार किये, तो भो कामदेव कायोत्सर्गंसे लेशमात्र चलित नही हुआ । फिर अट्टहास्य करते हुए राक्षसकी देह धारण करके अनेक प्रकारके परिषह किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्गसे डिगा नही । सिंह आदिके अनेक भयकर रूप किये, तो भी कामदेवने कायोत्सर्गमे लेश हीनता नही आने दी । इस प्रकार देवता रात्रिके चारो प्रहर उपद्रव करता रहा, परतु वह अपनी धारणामे सफल नही हुआ । फिर उसने उपयोगसे देखा तो कामदेवको मेरुके शिखरकी भाँति अडोल पाया । कामदेवकी अद्भुत निश्चलता जानकर उसे विनयभावसे प्रणाम करके अपने दोषोकी क्षमा माँगकर वह देवता स्वस्थानको चला गया ।
'कामदेव श्रावककी धर्मदृढता हमे क्या बोध देती है, यह बिना कहे भी समझमे आ गया होगा । इसमेसे यह तत्त्वविचार लेना है कि निग्रंथ-प्रवचनमे प्रवेश करके दृढ रहना । कायोत्सर्ग इत्यादि जो ध्यान करना है उसे यथासंभव एकाग्र चित्तसे और दृढतासे निर्दोष करना ।' चलविचल भावसे कायोत्सर्ग बहुत दोषयुक्त होता है । 'पाईके लिये धर्मंकी सौगन्ध खानेवाले धर्ममे दृढता कहाँसे रखें ? और रखें तो कैसी रखें ?” यह विचारते हुए खेद होता है ।
द्वि० आर पाठा०-- १ 'उसने ऐसी सुदृढताके प्रति अविश्वास बताया और कहा कि जब तक परिपह न पडे हो तब तक सभी सहनशील और धर्मदृढ मालूम होते हैं ।' २ 'कामदेव श्रावककी धर्मदृढता ऐसा वोघ करती है कि सत्य धर्म और सत्य प्रतिज्ञामें परम दृढ रहना और कायोत्सर्गादिको यथासंभव एकाग्र चित्तसे और सुदृढ़तासे निर्दोष करना ।' ३ 'पाई जैसे द्रव्यलाभके लिये धर्मकी सौगन्ध खानेवालेकी धर्म में दृढता कहांसे रह सके ? और रह सके तो कैसी रहे ?"