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श्रीमद् राजचन्द्र उत्तर-यह कहना न्यायपूर्वक है, ऐसा मैं मानता हूँ। प्रश्न-इसे किस कारणसे न्यायपूर्वक कहा जा सकता है ?
उत्तर-हाँ। यह मै तुम्हे समझाता हूँ-मनके निग्रहके लिये एक तो सर्वोत्तम जगद्भूषणके सत्य गुणोका यह चिन्तन है तथा तत्त्वसे देखनेपर अर्हतस्वरूप, सिद्धस्वरूप, आचार्यस्वरूप, उपाध्यायस्वरूप और साधुस्वरूप, इनका विवेकपूर्वक विचार करनेका भी यह सूचक है। क्योकि वे किस कारणसे पूजने योग्य है ? ऐसा विचार करनेपर इनके स्वरूप, गुण इत्यादिका विचार करनेको सत्पुरुषको तो सच्ची आवश्यकता है । अब कहो कि इससे यह मन्त्र कितना कल्याणकारक है ?
प्रश्नकर्ता-सत्पुरुष नवकारमन्त्रको मोक्षका कारण कहते है, इसे इस व्याख्यानसे मै भी मान्य रखता हूँ।
अर्हत भगवान, सिद्ध भगवान, आचार्य, उपाध्याय और साधु इनका एक-एक प्रथम अक्षर लेनेसे "असिआउसा" यह महान वाक्य बनता है। जिसका ॐ ऐसा योगबिन्दुका स्वरूप होता है । इसलिये हमे इस मन्त्रका अवश्य ही विमलभावसे जाप करना चाहिये।
शिक्षापाठ ३६ : अनानुपूर्वी
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पिता-इस प्रकारके कोष्ठकसे भरी हुई एक छोटी पुस्तक है उसे तूने देखा है ? पुत्र-हाँ, पिताजी। पिता-इसमे उलटे-सीधे अक रखे हैं उसका कुछ भी कारण तेरी समझमे आता है ? पुत्र-नही पिताजी, मेरी समझमे नही आता | इसलिये आप वह कारण बताइये।
पिता-पुत्र | यह प्रत्यक्ष है कि मन एक बहुत चंचल वस्तु है, और इसे एकाग्न करना अत्यन्त विकट है। वह जब तक एकान नही होता तब तक आत्ममलिनता नही जाती, पापके विचार कम नही होते । इस एकाग्रताके लिये बारह प्रतिज्ञा आदि अनेक महान साधन भगवानने कहे हैं। मनकी एकाग्रतासे महायोगकी श्रेणिपर चढने के लिये और उसे अनेक प्रकारसे निर्मल करनेके लिये सत्पुरुषोने यह एक कोष्ठकावली बनायी है । इसमे पहले पचपरमेष्ठी मन्त्रके पांच अक रखे है, और फिर लोमविलोमस्वरूपमे लक्ष्यबद्ध इन्ही पाँच अकोको रखकर भिन्न-भिन्न प्रकारसे कोष्ठक बनाये हैं। ऐसा करनेका कारण भी यही है कि मनकी एकाग्रता प्राप्त करके निर्जरा की जा सके।
पुत्र-पिताजी, अनुक्रमसे लेनेसे ऐसा क्यो नही हो सकता?
पिता-यदि लोमविलोम हो तो उन्हे व्यवस्थित करते जाना पडे और नाम याद करते जाना पडे । पाँचका अक रखनेके बाद दोका अंक आये कि 'नमो लोए सव्वसाहूण के बाद 'नमो अरिहन्ताणं'