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१७वाँ वर्ष
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तो भी तत्संबधी यथामति में कुछ स्पष्टता करता हूँ। यह स्पष्टता सत्य और मध्यस्थ भावनाकी है, एकातिक या मताग्रही नही है, पक्षपाती या अविवेकी नही है, परन्तु उत्तम और विचार करने योग्य है । देखनेमे यह सामान्य लगेगी, परन्तु सूक्ष्म विचारसे बहुत मर्मवाली लगेगी ।
शिक्षापाठ ५९ धर्मके मतभेद – भाग २
इतना तो तुम्हे स्पष्ट मानना चाहिये कि कोई भी एक धर्म इस सृष्टिपर संपूर्ण सत्यता रखता है । अब एक दर्शनको सत्य कहते हुए बाकीके धर्ममतोको सर्वथा असत्य कहना पड़े, परन्तु मैं ऐसा नही कह सकता। शुद्ध आत्मज्ञानदाता निश्चयनयसे तो वे असत्यरूप सिद्ध होते है, परन्तु व्यवहारनयसे वे असत्य नही कहे जा सकते । एक सत्य और वाकीके अपूर्ण और सदोष है ऐसा में कहता हूँ । तथा कितने ही कुतर्कवादी और नास्तिक है वे सर्वथा असत्य है, परन्तु जो परलोकसंबंधी या पापसंबंधी कुछ भी बोध या भय बताते हैं उस प्रकारके धर्ममतोको अपूर्ण और सदोष कहा जा सकता है। एक दर्शन जिसे निर्दोष और पूर्ण कहनेका है उसकी बात अभी एक ओर रखे ।
अब तुम्हे शंका होगी कि सदोष और अपूर्ण कथनका उपदेश उसके प्रवर्तकने किसलिये दिया होगा ? उसका समाधान होना चाहिये। उन धर्ममतवालोकी जहाँ तक बुद्धिकी गति पहुँची वहाँ तक उन्होने विचार किये । अनुमान, तर्क और उपमा आदिके आधारसे उन्हे जो कथन सिद्ध प्रतीत हुआ वह प्रत्यक्षरूपसे मानो सिद्ध है ऐसा उन्होने बताया । जो पक्ष लिया उसमे मुख्य एकातिकवाद लिया, भक्ति, विश्वास, नीति ज्ञान या क्रिया इनमेसे एक विषयका विशेष वर्णन किया, इससे दूसरे मानने योग्य विषयोको उन्होने दुषित कर दिया। फिर जिन विपयोका उन्होने वर्णन किया वे सर्व भावभेदसे उन्होने कुछ जाने नही थे, फिर भी अपनी महाबुद्धिके अनुसार उनका बहुत वर्णन किया । तार्किक सिद्धात तथा दृष्टात आदिसे सामान्य बुद्धिवालो या जडभरतोके आगे उन्होने सिद्ध कर बताया । कीर्ति, लोकहित या भगवान मनवानेकी आकाक्षा इनमेसे एकाध भी उनके मनका भ्रम होनेसे अत्युग्र उद्यमादिसे वे विजयको प्राप्त हुए। कितनोने शृगार और लहरी' साधनोसे मनुष्योक मन जीत लिये । दुनिया मोहिनीमे तो मूलत. डूबी पडी है, इसलिये ऐसे लहरी दर्शनसे भेडियाधसानरूप होकर उन्होने प्रसन्न होकर उनका कहना मान्य रखा । कितनोने नीति तथा कुछ वैराग्य आदि गुण देखकर उस कथनको मान्य रखा। प्रवर्तककी बुद्धि उनकी अपेक्षा विशेष होनेसे उसे फिर भगवानरूप ही मान लिया । कितनोने वैराग्यसे धर्ममत फेलाकर पीछे से कुछ सुखशील सावनोका बोध घुसेड़ दिया । अपने मतका स्थापन करनेके महान भ्रमसे और अपनी अपूर्णता इत्यादि चाहे जिस कारणसे दूसरेका कहा हुआ स्वयको न रुचा इसलिये उसने अलग ही मार्ग निकाला । इस प्रकार अनेक मतमतातरोका जाल फैलता गया । चार-पांच पीढियो तक एकका एक धर्मका पालन हुआ इसलिये फिर वह कुलधर्म हो गया। इस प्रकार स्थान-स्थानपर होता गया ।
शिक्षापाठ ६० : धर्मके मतभेद -- भाग ३
यदि एक दर्शन पूर्ण और सत्य न हो तो दूसरे धर्ममतोको अपूर्ण और असत्य किसी प्रमाणसे नही कहा जा सकता, इसलिये जो एक दर्शन पूर्ण और सत्य है उसके तत्त्वप्रमाणसे दूसरे मतोकी अपूर्णता और एकातिकता देखे ।
इन दूसरे धर्ममतोमे तत्त्वज्ञानसवधी यथार्थ सूक्ष्म विचार नही है । कितने ही जगत्कर्ताका उपदेश करते हैं, परन्तु जगत्कर्त्ता प्रमाणसे सिद्ध नही हो सक्ता । कितने ज्ञानसे मोक्ष है ऐसा कहते हैं वे एकातिक है, इसी प्रकार क्रियासे मोक्ष है, ऐसा कहनेवाले भी एकातिक है । ज्ञान और क्रिया इन दोनोसे मोक्ष १ द्वि० आ० पाठा० लोकेच्छित ।