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श्रीमद् राजचन्द्र
हमे अपने आत्माकी सार्थकताके लिये मतभेदमे नही पडना चाहिये । उत्तम और शात मुनिका समागम, विमल आचार, विवेक, दया, क्षमाका सेवन करना चाहिये। हो सके तो महावीर तीर्थके लिये विवेकी वोध कारण सहित देना चाहिये । तुच्छ बुद्धिसे शक्ति नही होना चाहिये, इसमे अपना परम मगल है, इसका विसर्जन नही करना चाहिये ।
शिक्षापाठ ५४ : अशुचि किसे कहना ?
जिज्ञासु -- मुझे जैन मुनियोंके आचारकी बात बहुत अच्छी लगी है । इनके जैसा सतोका आचार नही है । चाहे जैसे जाडेकी ठडमे इन्हे अमुक वस्त्रोसे निभाना पड़ता है, जैसा ताप पडनेपर भी ये पैरमे जूते अथवा सिरपर छत्री नही रख सकते। इन्हे गरम रेतमे पडता है । यावज्जीवन गरम पानी पीते है । गृहस्थके घर ये बैठ नही सकते । शुद्ध ब्रह्मचर्यं पालते है । फूटी कौडी भो पासमे नही रख सकते । ये अयोग्य वचन नही बोल सकते । ये वाहन नही ले सकते । ऐसे पवित्र आचार, सचमुच । मोक्षदायक है । परंतु नो बाड़मे भगवानने स्नान करनेका निषेध किया है यह वात तो मुझे यथार्थ नही जँचती ।
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सत्य - किसलिये नही जँचती ?
जिज्ञासु - क्योकि इससे अशुचि बढ़ती है । सत्य - कौनसी अशुचि बढ़ती है ?
किसी दर्शनके गरमी मे चाहे आतप लेना
जिज्ञासु - शरीर मलिन रहता है यह ।
सत्य - भाई । शरीरकी मलिनताको अशुचि कहना, यह बात कुछ विचारपूर्ण नही है । शरीर स्वय किसका बना है, यह तो विचार करो । रक्त, पित्त, मल, मूत्र, श्लेष्मका यह भडार है । इसपर मात्र त्वचा है तब फिर यह पवित्र कैसे हो ? और फिर साधुओने ऐसा कोई ससारी कर्तव्य किया नही होता जिससे उन्हें स्नान करनेकी आवश्यकता रहे ।
जिज्ञासु - परतु स्नान करनेसे उन्हे हानि क्या है ?
सत्य -- यह तो स्थूल वुद्धिका ही प्रश्न है । नहानेसे असख्यात जन्तुओका विनाश, कामाग्निकी प्रदीप्तता, व्रतका भग, परिणामका बदलना, यह सारी अशुचि उत्पन्न होतो है और इससे आत्मा महा मलिन होता है । प्रथम इसका विचार करना चाहिये । शरीरकी, जीवहसायुक्त जो मलिनता है वह अशुचि है । अन्य मलिनतासे तो आत्माकी उज्ज्वलता होती है, इसे तत्त्वविचारसे समझना है । नहाने से व्रत भग होकर आत्मा मलिन होता है, और आत्माकी मलिनता ही अशुचि है ।
जिज्ञासु - मुझे आपने बहुत सुन्दर कारण बताया । सूक्ष्म विचार करनेसे जिनेश्वरके कथनसे बोध ओर अत्यानद प्राप्त होता है । अच्छा, गृहस्थाश्रमियोको जीवहिंसा या ससार कर्तव्यसे हुई शरीरकी अशुचि दूर करनी चाहिये या नही ?
सत्य - - समझपूर्वक अशुचि दूर करनी ही चाहिये। जैन जैसा एक भी पवित्र दर्शन नही है, और वह अपवित्रताका बोध नही करता । परन्तु शौचाशौचका स्वरूप समझना चाहिये ।
शिक्षापाठ ५५ : सामान्य नित्यनियम
प्रभातसे पहले जागृत होकर नमस्कार मंत्रका स्मरण करके मन विशुद्ध करना चाहिये । पापव्यापारको वृत्तिको रोककर रात्रि-सवधी हुए दोपोका उपयोगपूर्वक प्रतिक्रमण करना चाहिये ।
प्रतिक्रमण करनेके वाद यथावसर भगवानकी उपासना, स्तुति तथा स्वाध्यायसे मनको उज्ज्वल
करना चाहिये ।