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श्रीमद् राजचन्द्र शिक्षापाठ २० संसारकी चार उपमाएँ--भाग २ ४ ससारको चौथी उपमा शकटचक्र अर्थात् छकड़ेके पहियेकी छाजती है। चलता हुआ शकटचक्र जैसे घूमता रहता है, वैसे ससारमे प्रवेश करनेसे वह फिरता रहता है। शकटचक्र जैसे धुराके बिना नही चल सकता, वैसे ससार मिथ्यात्वरूपी धुराके बिना नहीं चल सकता। शकटचक्र जैसे आरोसे टिका हुआ है, वैसे संसार शका, प्रमाद आदि आरोंसे टिका हुआ है। इस तरह अनेक प्रकारसे शकटचक्रकी उपमा भी ससारको लागू हो सकती है।
"ससारको' जितनी हीन उपमाएँ दे उतनी थोडी हैं। हमने ये चार उपमाएँ जानी। अब इनमेसे तत्त्व लेना योग्य है।
१ जैसे सागर मजबूत नाव और जानकार नाविकसे तैरकर पार किया जाता है, वैसे सद्धर्मरूपी नाव और सद्गुरुरूपी नाविकसे ससारसागर पार किया जा सकता है। सागरमे जैसे चतुर पुरुषोने निर्विघ्न मार्ग खोज निकाला होता है, वैसे जिनेश्वर भगवानने तत्त्वज्ञानरूप उत्तम मार्ग बताया है, जो निर्विघ्न है।
२ जैसे अग्नि सबका भक्षण कर जाती है परन्तु पानीसे बुझ जाती है, वैसे वैराग्यजलसे संसाराग्नि बुझाई जा सकती है।।
३ जैसे अधकारमे दीया ले जानेसे प्रकाश होनेपर देखा जा सकता है, वैसे तत्त्वज्ञानरूपी न बुझनेवाला दीया ससाररूपी अधकारमे प्रकाश करके सत्य वस्तुको बताता है।
४. जैसे शकटचक्र बैलके बिना नहीं चल सकता, वैसे ससारचक्र रागद्वेषके बिना नही चल सकता।
इस प्रकार इस ससार रोगका निवारण उपमा द्वारा अनुपानके साथ कहा है। आत्महितैषी निरतर इसका मनन करे और दूसरोको उपदेश दे।
- शिक्षापाठ २१: बारह भावना वैराग्यकी और ऐसे आत्महितैषी विषयोकी सुदृढताके लिये तत्त्वज्ञानी बारह भावनाओका चिन्तन करनेको कहते हैं
१ शरीर, वैभव, लक्ष्मी, कुटुम्ब, परिवार आदि सर्व विनाशी हैं। जीवका मूल धर्म अविनाशी है, ऐसा चिन्तन करना, यह पहली 'अनित्यभावना'।
२. संसारमे मरणके समय जीवको शरण देनेवाला कोई नही है; मात्र एक शुभ धर्मकी ही शरण सत्य है, ऐसा चिन्तन करना, यह दूसरी 'अशरणभावना' ।
३ इस आत्माने ससारसमुद्रमे पर्यटन करते-करते सर्व भव किये है । इस संसारकी बेडीसे मैं कब छूटूगा ? यह ससार मेरा नही है, मैं मोक्षमयी हूँ, ऐसा चिंतन करना, यह तीसरी 'ससांरभावना' । - ४ यह मेरा आत्मा अकेला है, यह अकेला आया है, अकेला जायेगा, अपने किये हुए कर्मोंको अकेला भोगेगा, ऐसा चिंतन करना, यह चौथी 'एकत्वभावना' ।
५ इस संसारमे कोई किसीका नहीं है, ऐसा चिन्तन करना, यह पाँचवी 'अन्यत्वभावना' ।
६ यह शरीर अपवित्र है, मलमूत्रकी खान है, रोग-जराके रहनेका धाम है, इस शरीरसे मैं भिन्न हूँ, ऐसा चिन्तन करना, यह छठी 'अशुचिभावना'।
७ राग, द्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व इत्यादि सर्व आस्रव हैं, ऐसा चिन्तन करना, यह सातवी 'आस्रवभावना
१ द्वि० आ० पाठा०--'इस प्रकार ससारको' ।