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१७वाँ वर्ष
शिक्षापाठ ५ : अनाथी मुनि--भाग १
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अनेक प्रकारकी ऋद्धिवाला मगधदेशका श्रेणिक नामक राजा अश्वक्रीडाके लिये मडिकुक्ष नामके वनमे निकल पडा । वनकी विचित्रता मनोहारिणी थी । नाना प्रकार के वृक्ष वहाँ नज़र आ रहे थे, नाना प्रकारकी कोमल वेले घटाटोप छायी हुई थी, नाना प्रकार के पक्षी आनदसे उसका सेवन कर रहे थे; नाना प्रकारके पक्षियोके मधुर गान वहाँ सुनायी दे रहे थे, नाना प्रकार के फूलोसे वह वन छाया हुआ था; नाना प्रकारके जलके झरने वहाँ बह रहे थे, संक्षेपमे वह वन नदनवन जैसा लग रहा था। उस वनमे एक वृक्षके नीचे महान् समाधिमान्, पर सुकुमार एवं सुखोचित मुनिको उस श्रेणिकने बैठे हुए देखा । उसका रूप देखकर वह राजा अत्यन्त आनदित हुआ । उपमारहित रूपसे विस्मित होकर मनमे उसकी प्रशसा करने लगा - "इस मुनिका कैसा अद्भुत वर्ण है । इसका कैसा मनोहर रूप है । इसकी कैसी अद्भुत सौम्यता है । यह कैसी विस्मयकारकं क्षमाका धारक है । इसके अगसे वैराग्यका केसा उत्तम प्रकाश निकल रहा है । इसकी कैसी निर्लोभता मालूम होती है ! यह सयति कैसी निर्भय नम्रता धारण किये है । यह भोगसे कैसा विरक्त है ।" यो चितन करते करते मुदित होते-होते, स्तुति करते-करते, धीरेसे चलते-चलते, प्रदक्षिणा देकर उस मुनिको वन्दन करके, न अति समीप और न अति दूर वह श्रेणिक बैठा । फिर अजलिबद्ध होकर विनयसे उसने उस मुनिसे पूछा - "हे आर्य | आप प्रशसा करने योग्य तरुण हैं; भोगविलासके लिये आपकी वय अनुकूल है, ससारमे नाना प्रकारके सुख हैं, ऋतु ऋतुके कामभोग, जलसबधी विलास, तथा मनोहारिणी स्त्रियोके मुखवचनोका मधुर श्रवण होनेपर भी इन सबका त्याग करके मुनित्वमे आप महान् उद्यम कर रहे है, इसका क्या कारण ? यह मुझे अनुग्रहसे कहिये ।” राजाके ऐसे वचन सुनकर मुनिने कहा - "हे राजन् | में अनाथ था । मुझे अपूर्व वस्तुको प्राप्त करानेवाला तथा योगक्षेमका करनेवाला, मुझ पर अनुकंपा लानेवाला, करुणासे परम सुखका देनेवाला ऐसा मेरा कोई मित्र ही हुआ, यह कारण था मेरी अनाथताका ।”
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शिक्षापाठ ६ : अनाथी मुनि - भाग २
श्रेणिक, मुनिके भाषणसे मुस्कराकर बोला - "आप जैसे महान ऋद्धिमानको नाथ क्यो न हो ? यदि कोई नाथ नही है तो मैं होता हूँ । हे भयत्राण । आप भोग भोगये । हे सयति । मित्र, जातिसे दुर्लभ ऐसे अपने मनुष्यभवको सफल कीजिये ।" अनाथीने कहा - "अरे श्रेणिक राजन् ! परंतु तू स्वय अनाथ है तो मेरा नाथ क्या होगा ? निर्धन धनाढ्य कहाँसे बना सके ? अबुध बुद्धिदान कहाँसे दे सके ? अज्ञ विद्वत्ता कहाँसे दे सके ? वध्या सतान कहांसे दे सके ? जब तू स्वयं अनाथ है, तब मेरा नाथ कहाँसे होगा ?" मुनिके वचनोसे राजा अति आकुल और अति विस्मित हुआ । जिन वचनोका कभी श्रवण नही हुआ उन वचनोंका यति मुखसे श्रवण होनेसे वह शक्ति हुआ और बोला - "मैं अनेक प्रकारके अश्वोंका भोगी हैं; अनेक प्रकारके मदोन्मत्त हाथियोका धनी हूँ; अनेक प्रकारकी सेना मेरे अधीन है, नगर, ग्राम, अन्तःपुर और चतुष्पादको मेरे कोई न्यूनता नही है, मनुष्य संबंधी सभी प्रकारके भोग मैंने प्राप्त किये हैं; अनुचर मेरी आज्ञाका, भलीभाँति आराधन करते हैं, पाँचों प्रकारकी सपत्ति मेरे घरमे हैं, अनेक मनोवालित वस्तुएँ मेरे पास रहती है। ऐसा मे महान् होते हुए भी अनाथ कैसे हो सकता हूँ ? कही हे भगवन् । आ मृषा बोलते हो ।” मुनिने कहा - " राजन् । मेरा कहना तू न्यायपूर्वक समझा नही है | अब में जैसे अनाथ हुआ; और जैसे मैंने ससारका त्याग किया वह तुझे कहता हूँ । उसे एकाग्र एवं सावधान चित्तसे सुन, सुनकर फिर अपनी शंकाके सत्यासत्यका निर्णय करना
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कौशाम्बी नामको अति प्राचीन और विविध प्रकारकी भव्यतासे भरी हुई एक सुन्दर नगरी थी । वहाँ ऋद्धिसे परिपूर्ण धनसचय नामके मेरे पिता रहते थे । हे महाराजन् । योवनवयके प्रथम भागमे मेरी