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१७वां वर्ष
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महत्ता है, ऐसा तुम मानते होगे, परन्तु इतनेसे उसे महत्ता माननेकी जरूरत नही है। लक्ष्मी अनेक पापोसे पैदा होती है। आनेके बाद यह अभिमान, बेभानता और मूढता लाती है। कुटुम्बसमुदायकी महत्ता पानेके लिये उसका पालन-पोषण करना पडता है। उससे पाप और दु ख सहन करने पड़ते हैं। हमे उपाधिसे पाप करके उसका उदर भरना पडता है। पुत्रसे कोई शाश्वत नाम नही रहता। इसके लिये भी अनेक प्रकारके पाप और उपाधि सहने पड़ते हैं, फिर भी इससे अपना क्या मगल होता है ? अधिकारसे परतत्रता या सत्तामद आता है और इससे जुल्म, अनीति, रिश्वत तथा अन्याय करने पडते हैं अथवा होते हैं। तव कहिये, इसमेसे महत्ता किसकी होती है ? मात्र पापजन्य कर्मकी । पापकर्मसे आत्माकी नीच गति होती है, जहाँ नीच गति है वहाँ महत्ता नही है परन्तु लघुता है।
आत्माकी महत्ता तो सत्य वचन, दया, क्षमा, परोपकार और समतामे रही है। लक्ष्मी आदि तो कर्ममहत्ता है । ऐसा होने पर भी सयाने पुरुष लक्ष्मीको दानमे देते है, उत्तम विद्याशालाएँ स्थापित करके परदु खभजन होते हैं । १‘एक स्त्रीसे विवाह करके' मात्र उसमे वृत्ति रोककर परस्त्रीकी ओर पुत्रीभावसे देखते हैं । कुटुम्ब द्वारा अमुक समुदायका हितकाम करते हैं । पुत्र होनेसे उसे ससारभार देकर स्वय धर्ममार्गमे प्रवेश करते हैं। अधिकार द्वारा चतुराईसे आचरण करके राजा-प्रजा दोनोका हित करके धर्मनीतिका प्रकाश करते हैं। ऐसा करनेसे कुछ सच्ची महत्ता प्राप्त होती है, फिर भी यह महत्ता निश्चित नही है। मरण-भय सिर पर सवार है। धारणा धरी रह जाती है। योजित योजना या विवेक शायद हृदयमेसे चला जाय, ऐसी ससारमोहिनी है, इसलिये हमे यह नि सशय समझना चाहिये कि सत्य वचन, दया, क्षमा, ब्रह्मचर्य और समता जैसी आत्ममहत्ता किसी भी स्थलमे नही है। शुद्ध पच महाव्रतधारी भिक्षुकने जो ऋद्धि और महत्ता प्राप्त की है उसे ब्रह्मदत्त जैसे चक्रवर्तीने लक्ष्मी, कुटुब, पुत्र या अधिकारसे प्राप्त नही की, ऐसा मेरा मानना है |
शिक्षापाठ १७ : बाहुबल वाहुबल अर्थात् अपनी भुजाका बल यह अर्थ यहाँ नही करना है, क्योकि बाहुबल नामके महापुरुषका यह एक छोटा परन्तु अद्भुत चरित्र है।
ऋषभदेवजी भगवान सर्वसगका परित्याग करके भरत और बाहुबल नामके अपने दो पुत्रोको राज्य सौंप कर विहार करते थे। तब भरतेश्वर चक्रवर्ती हुआ। आयुधशालामे चक्रको उत्पत्ति होनेके वाद उसने प्रत्येक राज्य पर अपना आम्नाय स्थापित किया और छः खडकी प्रभुता प्राप्त की। मात्र बाहुबलने ही यह प्रभुता अगीकार नही की। इससे परिणाममे भरतेश्वर और बाहुबलके बीच युद्ध शुरू हुआ । बहुत समय तक भरतेश्वर या वाहुबल इन दोनोमेस एक भी पीछे नही हटा, तब क्रोधावेशमे आकर भरतेश्वरने वाहुवल पर चक्र छोडा । एक वीर्यसे उत्पन हुए भाई पर वह चक्र प्रभाव नही कर सकता, इस नियमसे वह चक्र फिरकर वापस भरतवरके हालम आया । भरतके चक्र छोडनेसे वाहुवलको बहुत क्रोध आया । उसने महावलवत्तर मुष्टि उठायी। तत्काल वहाँ उसकी भावनाका स्वरूप बदला । उसने विचार किया, "मैं यह बहुत निदनीय कर्म करता हूँ। इसका परिणाम कैसा दुखदायक है। भले भरतेश्वर राज्य भोगे । व्यर्थ ही परस्परका नाश किसलिये करना? यह मुष्टि मारनी योग्य नहीं है, तथा उठायी है तो इसे अब पीछे हटाना भी योग्य नहीं है।" यो कहकर उसने पचमुष्टि केशलुचन किया, और वहासे मुनित्वभावसे चल निकला । उसने, भगवान आदोश्वर जहाँ अठानवे दीक्षित पुत्रो और आर्यआयकि साथ विहार करते थे, वहा जानेकी इच्छा की, परन्तु मनमे मान आया। 'वहाँ मैं जाऊँगा तो अपनेसे छोटे
१ द्वि. का. पाग-एक विवाहिता स्त्री हो ।'