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श्रीमद् राजचन्द्र
आँखें अति वेदनासे ग्रस्त हुईं, सारे शरीरमे अग्नि जलने लगी, शस्त्रसे भी अतिशय तीक्ष्ण वह रोग वैरीकी भाँति मुझ पर कोपायमान हुआ । आँखोकी उस असह्य वेदनासे मेरा मस्तक दुखने लगा । वज्रके प्रहार सरीखी, दूसरेको भी रौद्र भय उत्पन्न करानेवाली उस दारुण वेदनासे मैं अत्यन्त शोकमे था । वहुतसे वैद्यशास्त्र-निपुण वैद्यराज मेरी प्य वेदनाका नाश करनेके लिये आये, अनेक औषधोपचार किये, परन्तु वे वृथा गये । वे महानिपुण गिने जानाले वैद्यराज मुझे उस रोगसे मुक्त नही कर सके, यही है राजन् । मेरी अनाथता थी । मेरी आँखकी वेदको दूर करनेके लिये मेरे पिता सारा धन देने लगे; परन्तु उससे भी मेरी वह वेदना दूर नही हुई, हे राजन् यही मेरी अनाथता थी । मेरी माता पुत्रके शोकसे... अति दुःखार्त हुई, परन्तु वह भी मुझे उस रोगसे छुडा नह यको, यही हे राजन् । मेरी अनायता थी । एक पेटसे जन्मे हुए मेरे ज्येष्ठ और कनिष्ठ भाई भरसक प्रयत्न पर चुके, परन्तु मेरी वह वेदना दूर नही हुई, हे राजन् । यही मेरी अनाथता थी । एक पेटसे जन्मी हुई मेरी उठा और कनिष्ठा भगिनियों से मेरा वह दुख दूर नही हुआ, हे महाराजन् । यही मेरी अनाथता थी। मेरी स्वे जो पतिव्रता, मुझपर अनुरक्त और प्रेमवती थी वह ऑसुओसे मेरे हृदयको भिगोती थी । उसके अन्न-पाग देनेपर भी और नाना प्रकारके उबटन, चूवा आदि सुगंधी पदार्थों तथा अनेक प्रकारके फूल-चदनादिके ज्ञात अज्ञात विलेपन किये जानेपर भी मै उन विलेपनोसे अपना रोग शात नही कर सका, क्षणभर भी दूर न रहता थी ऐसी वह स्त्री भी मेरे रोगको मिटा न सकी, यही हे महाराजन् । मेरी अनाथता थी । इस प्रकार किसीके रेमसे, किसीके औषधसे, किसीके विलापसे या किसीके परिश्रमसे वह रोग शान नही हुआ । उस समय मैंने पुनः पुनः असह्य वदना भोगी । फिर मै प्रपची ससारसे खिन्न हो गया । एक वार यदि इस महान् विडम्बनामय वेदनासे मुक्त हो जाऊँ तो खती, दती और निरारंभी प्रव्रज्यको धारण करूँ, यो चिन्तन करके में शयन कर गया । जब रात्रि व्यतीत हो गयी तब हे महाराजन् । मेरो उस वेदनाका क्षय हो गया, और में नीरोग हो गया। माता, पिता, स्वजन, बाधव आदिसे पूछकर प्रभातमे मैने महाक्षमावान, इन्द्रियनही, और आरंभोपाधिसे रहित अनगारत्वको धारण किया ।
शिक्षापाठ ७
अनाथी मुनि--भंग ३
हे श्रेणिक राजन् । तदनन्तर मै आत्मा परात्माका नाथ हुअ । अब मैं सर्वं प्रकारके जीवोका नाथ हूँ । तुझे जो शका हुई थी वह अब दूर हो गयी होगी । इस प्रकार सारा जगत चक्रवर्ती पर्यन्त अशरण और अनाथ है । जहाँ उपाधि है वहाँ अनाथता है । इसलिये जो कहता हूँ उस कथनको तू मनन कर जाना । निश्चयसे मानना कि अपना आत्मा ही दुखसे भरपूर वैतरणीको करनेवाला है, अपना आत्मा ही क्रूर शाल्मली वृक्षके दुखको उत्पन्न करनेवाला है । अपना आग ही वाछित वस्तुरूपी दूध देनेवाली कामधेनु गायके सुखको उत्पन्न करनेवाला है, अपना आत्मा ही नन्दावनकी तरह आनन्दकारी है; अपना आत्मा ही कर्मको करनेवाला है, अपना आत्मा ही इस कर्मको दूर करनेवाला है । अपना आत्मा ही दुखोपार्जन करनेवाला है । अपना आत्मा ही सुखोपार्जन करनेवाला है । पना' आत्मा ही मित्र ओर अपना आत्मा ही वैरी है । अपना आत्मा ही निकृष्ट आचारमे स्थित और अपन आत्मा ही निर्मल आचारमे स्थित रहता है ।"
इस प्रकार उन अनाथी मुनिने श्रेणिकको आत्मप्रकाशक वोध दिया। श्रेणिक बहुत सतुष्ट हुआ । अजलिवद्ध होकर वह इस प्रकार बोला - "हे भगवन् । आपने मुझे भलीभाँति उपज दिया । आपने जैसी थी वैसी अनायता कह सुनायी। महर्षि । आप सनाथ, आप सवाधव, और आप सर्म है, आप सर्व अनाथोंके नाथ है। हे पवित्र सयति । मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ । आपकी ज्ञानपूर्ण शि