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१७ वाँ वर्ष ससारके नाममात्रके सुख' है, उनमे तेरा परिपूर्ण प्रेम है, यह कैसी विचित्रता है | अहो चेतन | अब तू अपने न्यायरूपी नेत्रोको खोलकर देख | रे देख | || देखकर शीघ्रमेव निवृत्ति अर्थात् महावैराग्यको धारण कर, और मिथ्या कामभोगकी प्रवृत्तिको जला दे ।
ऐसी पवित्र महानिवृत्तिको दृढीभूत करनेके लिये उच्च विरागी युवराज मृगापुत्रका मनन करने योग्य चरित्र यहाँ प्रस्तुत करते है । तूने कैसे दुखको सुख माना है ? और कैसे सुखको दुःख माना है ? इसे युवराजके मुखवचन तादृश सिद्ध करेंगे ।
दृष्टान्त-नाना प्रकारके मनोहर वृक्षोंसे भरे हुए उद्यानोंसे सुशोभित सुग्रीव नामक एक नगर है। उस नगरके राज्यासनपर बलभद्र नामका एक राजा राज्य करता था। उसकी प्रियवदा पटरानीका नाम मृगा था। इस दम्पतीसे बलश्री नामके एक कुमारने जन्म लिया था। वे मृगापुत्रके नामसे प्रख्यात ये । वे मातापिताको अत्यन्त प्रिय थे। उन युवराजने गृहस्थाश्रममे रहते हुए भी सयतिके गुणोको प्राप्त किया था, इसलिये वे दमीश्वर अर्थात् यतियोमे अग्रेसर गिने जाने योग्य थे। वे मृगापुत्र शिखरबद आनन्दकारी प्रासादमे अपनी प्राणप्रिया सहित दोगुदक देवताकी भाँति विलास करते थे। वे निरतर प्रमुदित मनसे रहते थे। प्रासादका दीवानखाना चद्रकातादि मणियो तथा विविध रत्नोसे जड़ित था। एक दिन वे कुमार अपने झरोखेमे बैठे हुए थे। वहाँसे नगरका परिपूर्ण निरीक्षण होता था । जहाँ चार राजमार्ग मिलते थे ऐसे चौकमे उनकी दृष्टि वहाँ पड़ी कि जहाँ तीन राजमार्ग मिलते थे। वहाँ उन्होने महातप, महानियम, महासयम, महाशील, और महागुणोके धामरूप एक शान्त तपस्वी साधुको देखा । ज्योज्यो समय बीतता जाता है त्यों-त्यो मृगापुत्र उस मुनिको खूब गौरसे देख रहे हैं।
इस निरीक्षणसे वे इस प्रकार बोले-"जान पडता है कि ऐसा रूप मैंने कही देखा है।" और यो बोलते-बोलते वे कुमार शुभ परिणामको प्राप्त हुए । मोहपट दूर हुआ और वे उपशमताको प्राप्त हुए । जातिस्मृतिज्ञान प्रकाशित हुआ। पूर्वजातिको स्मृति उत्पन्न होनेसे महाऋद्धिके भोक्ता उन मुगापुत्रको पूर्वके चारित्रका स्मरण भी हो आया। शीघ्रमेव वे विषयमे अनासक्त हुए और सयममे आसक्त हुए। मातापिताके पास आकर वे बोले, "पूर्व भवमे मैंने पाँच महाव्रत सुने थे, नरकमे जो अनन्त दुख है वे भी मैंने सुने थे, तिर्यंचमे जो अनन्त दुख हैं वे भी मैंने सुने थे। उन अनन्त दु खोसे खिन्न होकर मै उनसे निवृत्त होनेका अभिलाषी हुआ हूँ। ससाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये हे गुरुजनो | मुझे उन पांच महाव्रतोको धारण करनेकी अनुज्ञा दीजिये।" _ कुमारके निवृत्तिपूर्ण वचन सुनकर मातापिताने उन्हे भोग भोगनेका आमत्रण दिया । आमत्रण-वचनसे खिन्न होकर मृगापुत्र यो कहते है-"अहो मात । और अहो तात | जिन भोगोका आप मुझे आमत्रण देते हैं उन भोगोको मै भोग चुका हूँ। वे भोग विषफल-किंपाक वृक्षके फलके समान हैं, भोगनेके बाद कडवे विपाकको देते है और सदैव दुखोत्पत्तिके कारण है । यह शरीर अनित्य और केवल अशुचिमय है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है, यह जीवका अशाश्वत वास है, और अनन्त दुखोका हेतु है। यह शरीर रोग, जरा और क्लेशादिका भाजन है, इस शरीरमे मैं कैसे रति करूँ ? फिर ऐसा कोई नियम नही है कि यह शरीर बचपनमे छोडना है या बुढापेमे । यह शरीर पानीके फेनके बुलबुले जैसा है, ऐसे शरीरमे स्नेह करना कैसे योग्य हो सकता है ? मनुष्यभवमे भी यह शरीर कोढ, ज्वर आदि व्याधियोसे तथा जरा-मरणमे ग्रसित होना सम्भाव्य है । इससे मैं कैसे प्रेम करूं?
जन्मका दुख, जराका दुख, रोगका दुःख, मृत्युका दुख, इस तरह केवल दु खके हेतु संसारमे हैं। भूमि, क्षेत्र, आवास, कंचन, कुटुम्ब, पुत्र, प्रमदा, वाधव, इन सबको छोडकर मात्र क्लेशित होकर इस शरीरसे अवश्यमेव जाना है। जैसे किंपाक वृक्षके फलका परिणाम सुखदायक नही है वैसे भोगका परिणाम