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१७ वर्षसे पहले
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आप इस सज्जनताका सन्मान करते है यह सचमुच इस लेखकके अतःकरणको ठंडा करनेके लिये पवित्र औषध है ।
प्यारे भाई। इस सज्जनता सबंधी मुझमे कुछ भी ज्ञान नही है, तो भी जो स्वाभाविक रूपसे लिखना सूझा उसे यहाँ प्रदर्शित करता हूँ ।
वृन्दसतसईमे एक दोहा ऐसे भावार्थसे सुशोभित है कि - " कानको बीध कर बढ़ाया जा सकता है । परतु आँखके लिये वैसा नही हो सकता ।" इसी तरह विद्या बढानेसे बढती है, परंतु सज्जनता बढाये नही बढती ।
इस महान कविराज मतका बहुधा हम अनुसरण करेगे तो कुछ अयोग्य नही माना जायेगा । मेरे के अनुसार तो सज्जनता जन्मके साथ ही जोडी जानी चाहिये । ईश्वरकृपासे अति यत्नसे भी प्राप्त अवश्य होती है । मन जीतनेकी यह सच्ची कसोटी है ।
सज्जनताके लिये शंकराचार्यजी एक श्लोकमे ऐसा भावार्थ प्रदर्शित करते है कि (सत्सगका) एक क्षण भी, मूर्खके जन्मभरके सहवासकी अपेक्षा, उत्तम फलदायक सिद्ध होता है ।
ससारमे सज्जनता ही सुखप्रद है ऐसा यह श्लोक बताता हैसंसारविषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे ।
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काव्यामृतरसास्वाद आलापः सज्जनैः सह ॥ *
इसके बिना भी यह समझा जा सकता है कि जो नीति है वह सकल आनदका विधान है ।
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श्री शांतिनाथ भगवान
स्तुति
* परिपूर्ण ज्ञाने परिपूर्णं ध्याने, परिपूर्ण चारित्र बोधित्व दाने; नीरागी महाशांत मूर्ति तमारी, प्रभु प्रार्थना शाति लेशो अमारी । ऊ उपमा तो अभिमान मारु, अभिमान टाळ्या तणुं तत्त्व तारु; छतां बालरूपे रह्यो शिर नामी, स्वीकारो घणी शुद्धिए शांतिस्वामी । स्वरूपे रही शातता शाति नामे, बिराज्या महा शाति आनंद घामे ।
(अपूर्ण)
*ससाररूपी विषवृक्षके अमृततुल्य दो फल हैं- एक काव्यामृतका रसास्वाद और दूसरा सज्जनोके साथ वार्तालाप |
• भावार्थ - हे शातिनाथ भगवन् । आप ज्ञान, ध्यान, और चारित्रमें परिपूर्ण है एव बोधित्व देनेमें परिपूर्ण हैं, आप वीतराग हैं और आपकी मूर्ति महाशात है । है शाति प्रभो । हमारी प्रार्थना स्वीकार करें। यदि मैं आपके लिये कोई उपमा हूँ, तो यह मेरा अभिमान ठहरता है, और आपका तत्त्ववोध तो अभिमानका नाशक है । फिर भी मैं बालरूपमें अति शुद्ध भावसे सिर झुकाकर वन्दना कर रहा हूँ । है शातिनाथ । मेरी वन्दना स्वीकार करें | आपके स्वरूप में शातता है, आपके नाममें शाति है, और आप महाशाति एव आनन्दके धाम में विराजमान है ।