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तो धर्म के लोभी अन्य जीवों को धर्मोपदेश देते हैं, दीक्षा लेने वाले को योग्य जान दीक्षा देते हैं, अपने दोष प्रकट करने वाले को प्रायश्चित विधि से शुद्ध करते हैंऐसा आचरण करने और कराने वाले आचार्य कहलाते हैं ।
आचार्य के 36 गुण विशेष हैं
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12 तप अनशन, ऊनोदर, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्तशैयासन, काय क्लेश रूप 6 बहिरंग तप तथा प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान रूप 6 अंतरंग तप ।
6 आवश्यक • सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, और कायोत्सर्ग |
5 आचार - दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य ।
10 धर्म - उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ।
3 गुप्ति – मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति ।
उपाध्याय
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- जो बहुत जैन शास्त्रों के ज्ञाता होकर संघ में पठन-पाठन के अधिकारी हुए हैं तथा जिनकी समस्त शास्त्रों के सार आत्मस्वरूप में एकाग्रता है, अधिकतर तो उसमें लीन रहते हैं, कभी-कभी रागांश- कषायांश के उदय से यदि उपयोग वहाँ स्थिर न रहे, तो उन शास्त्रों को स्वयं पढ़ते हैं, औरों को पढ़ाते हैं - वे उपाध्याय हैं। ये मुख्यतः द्वादशांग के पाठी होते हैं ।
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उपाध्याय परमेष्ठी के 25 गुण विशेष कहे जाते हैं
11 अंग - आचारांगज्ञान, सूत्रकृतांगज्ञान, स्थानांगज्ञान, समवायांगज्ञान, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंगज्ञान, ज्ञातृ धर्मकथांगज्ञान, उपासकाध्ययनांगज्ञान, अन्तः कृद्दशां गज्ञान, अनुत्तरोपपादिकदशांगज्ञान, प्रश्नव्याकरणांगज्ञान, विपाकसूत्रांगज्ञान ।
14 पूर्व ज्ञान – उत्पादपूर्व, आग्रायणीयपूर्व, वीर्यानुवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणनामधेयपूर्व, प्राणावायपूर्व, क्रियाविशालपूर्व, लोकबिन्दुसारपूर्व ।
साधु - आचार्य, उपाध्याय को छोड़कर अन्य समस्त जो मुनिधर्म के धारक हैं और आत्मस्वभाव को साधते हैं, बाह्य 28 मूलगुणों को अखण्डित पालते हैं, समस्त आरम्भ और अंतरंग - बहिरंग परिग्रह से रहित होते हैं। सदा ज्ञान-ध्यान में लवलीन रहते हैं, सांसारिक प्रपंचों से सदा दूर रहते हैं, उन्हें साधु परमेष्ठी कहते हैं ।
साधु परमेष्ठी के ये 28 मूलगुण प्रसिद्ध हैं
5 महाव्रत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत ।
5 समिति – ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापना समिति । 5 इन्द्रियविजय - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, और कर्णेन्द्रियविजय ।
तीर्थंकर परम्परा, जिनागम और अनुयोग :: 57
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