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अर्हन्तादि पंच परम पद हैं, उनका स्वरूप इस प्रकार है
अर्हन्त-जिन्होंने गृहस्थपना त्यागकर, मुनिधर्म अंगीकार कर, निज स्वभाव साधन द्वारा, चार घाति कर्मों का क्षय करके अनन्त चतुष्टय (अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्त वीर्य) रूप अवस्था पायी है, वे अर्हन्त हैं। ___ जिनांगम में अर्हन्त के 46 गुणों (विशेषताओं) का वर्णन है, उनमें से कुछ विशेषण तो शरीरादि से सम्बन्ध रखते हैं और कुछ आत्मा से। 46 गुणों में से 10 तो जन्म के अतिशय हैं, जो शरीर से सम्बन्ध रखते हैं। 10 केवलज्ञान के अतिशय हैं, वे बाह्य पुण्य-सामग्री से सम्बन्धित हैं तथा 14 देवकृत अतिशय हैं जो स्पष्ट ही देवों के द्वारा किए हए हैं। ये सब गुण तीर्थंकर अर्हन्तों के ही होते हैं, सब अर्हन्तों के नहीं। आठ प्रतिहार्य भी बाह्य-विभूति हैं; किन्तु अनन्त-चतुष्टय आत्मा से सम्बन्ध रखते हैं, अत: वे प्रत्येक अर्हन्त के होते हैं। अतः निश्चय से वे ही अर्हन्त के गुण हैं।
सिद्ध-जो गृहस्थ अवस्था का त्यागकर, मुनिधर्म की साधना द्वारा चार घाति कर्मों का नाश होने पर अनन्त चतुष्टय प्रकट करके, कुछ समय बाद अघाति कर्मों के नाश होने पर, समस्त अन्य द्रव्यों का सम्बन्ध छूट जाने पर, पूर्ण मुक्त हो गये हैं। लोक के अग्रभाग में किंचित न्यून पुरुषाकार में विराजमान हो गये हैं। जिनके द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म का अभाव होने से समस्त आत्मिक गुण प्रकट हो गये हैं, वे सिद्ध हैं। उनके 8 गुण कहे गये हैं
समकित दर्शन ज्ञान अगुरुलघु अवगाहना।
सूक्षम वीरजवान निराबाध गुण सिद्ध के।। ___ (1) क्षायिक सम्यक्त्व, (2) अनन्त दर्शन, (3) अनन्तज्ञान, (4) अगुरुलघुत्व, (5) अवगाहनत्व, (6) सूक्ष्मत्व, (7) अनन्तवीर्य और (8) अव्याबाध । आचार्य, उपाध्याय और साधु का सामान्य स्वरूप __आचार्य, उपाध्याय और साधु सामान्यतः साधु रूप में ही पूज्य हैं। जो विरागी होकर, समस्त परिग्रह का त्याग करके, शुद्धोपयोग रूप मुनिधर्म अंगीकार करके, अंतरंग में शुद्धोपयोग द्वारा अपने को आप रूप अनुभव करते हैं, अपने उपयोग को बहुत नहीं भ्रमाते हैं, जिनके कदाचित् मन्दराग के उदय में शुभ-उपयोग भी होता है, परन्तु उसे भी हेय मानते हैं, तीव्र कषाय का अभाव होने से अशुभोपयोग का तो अस्तित्व ही नहीं रहता है-ऐसे मुनिराज ही सच्चे साधु हैं।
आचार्य-जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की अधिकता से प्रधान पद प्राप्त करके मुनिसंघ के नायक हुए हैं, तथा जो मुख्य रूप से तो निर्विकल्प स्वरूपाचरण में ही मग्न रहते हैं, पर कभी-कभी रागांश के उदय से करुणा बुद्धि हो,
56 :: जैनधर्म परिचय
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