Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 09 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
-
-
प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १० उ० ३ सू० ३ भाषाविशेषनिरूपणम् ९७ आसइस्सामो तं चेव जाव न एसा भासा मोसा' हे गौतम ! हन्त, सत्यम् , 'आश्र यिष्यामः १, तदेव यावत् शयिष्यामहे स्थास्यामः, निषेत्स्यामः, स्ववर्तयिष्यामः, इत्यादिका भाषा प्रज्ञापनी खलु एपा बोध्या, न एषा भाषा मृषा भवति, तथा च 'आश्रयिष्यामः' इत्यदिका भाषा अनवधारणत्वात् वर्तमानयोगेन इत्येतद् विकल्पगर्भत्वाद् आत्मनि गुरौचैकार्थत्वेऽपि बहुवचनानुमतत्वेन प्रज्ञापन्येव भवति, तथा आमन्त्रण्यादिकापि भाषा वस्तुनोविधि प्रतिषेधाकारकत्वेऽपि निरवधपुरुषार्थसाधकत्वात् प्रज्ञापन्येव भवतीति भावः। अन्ते गौतमो भगवद्वाक्यं सत्यापयन्नाहचाहिये. ऐसा प्रश्न गौतम का है ? इस प्रकार के इस प्रश्नके उत्तर में प्रभु कहते हैं "हंता गोयमा! आसइस्सामो तं चेव जाव न एसा भासा मोसा" हे गौतम! हम आश्रय लेंगे, यावत् सोएँगे, खडे रहेंगे, बैठेगे, लेटेंगे" इत्यादि रूप जो भविष्यकाल विषयक भाषा है वह प्रज्ञापनी भाषा है. यह भाषा असत्य नहीं है। तथा 'आश्रयिष्यामः' इत्यादिक भाषा वर्तमानके योग को लेकर अनवधारण रूप है-फिर भी "आश्रय लेगे" इत्यादि रूप विकल्प गर्भवाली है. इस कारण से तथा गुरुमें और अपने में एक होने पर भी बहुवचनका प्रयोग अनु. मत माना गया है-इस कारण से यह भाषा प्रज्ञापनी-अर्थाख्यायिकाअपने वाच्यार्थ को कहनेवाली ही है। तथा आमंत्रणी आदि जो भाषा है वह यद्यपि वस्तु का न विधान करती है और न उसका प्रतिषेध करती है, फिर भी वह निरवद्य-निर्दोष पुरुषार्थ की साधक होती हैइस कारण वह भी प्रज्ञापनी ही है। अब अन्तमें गौतम भगवान् के
महावीर प्रसुने। उत२-"हंता, गोयमा ! आसइस्सामो तं चेव जाव न एमा भासा मोसा" गौतम ! हुमाश्रय ४रीश, सू, असे यश, सी. પડ્યો રહીશ” ઈત્યાદિ રૂપ જે ભવિષ્યકાળ વિષયક ભાષા છે, તે પ્રજ્ઞાપની ભાષા छ. ते भाषा असत्य नथी. तथा “ आश्रयिष्यामः" त्या भाषा त मानना રોગની અપેક્ષાએ અનવધારણરૂપ છે, છતાં પણ “આશ્રય કરીશ” ઈત્યાદિરૂપ વિક૯૫ ગર્ભવાળી છે. તે કારણે તથા ગુરુ અથવા પિતે એક હોવા છતાં બહુ વચનને પ્રયોગ યોગ્ય (અનુમત–સ્વીકાર્ય) માનેલ હોવાથી તે ભાષાને પ્રજ્ઞાપની –અર્થાખ્યાયિકા પિતાના વાગ્યાર્થીને પ્રકટ કરનારી કહેલ છે. તથા આમંત્રિણી આદિ જે ભાષા છે તે જો કે વસ્તુનું વિધાન કરતી નથી અને તેને પ્રતિષેધ પણ કરતી નથી, છતાં પણ તે નિરવદ્ય (નિર્દોષ) પુરુષાર્થ સાધક હોય છે. તેથી તે પણ પ્રાપિની જ છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯