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आदिपुराण
वादसिंह — यह उच्चकोटि के कवि और वादिरूपी गजों के लिए सिंह थे । इनकी गर्जना वादिजनों के मुख बन्द करने वाली थी । एक वादीर्भासह मुनि पुष्पसेन के शिष्य थे। उनकी तीन कृतियाँ इस समय उपलब्ध हैं जिनमें दो गद्य और पद्यमय काव्यग्रन्थ हैं तथा 'स्याद्वादसिद्धि' न्याय का सुन्दर ग्रन्थ है । पर खेद है कि वह अपूर्ण ही प्राप्त हुआ है । यदि नामसाम्य के कारण ये दोनों ही विद्वान् एक हों तो इनका समय विक्रम की ८ वीं शताब्दी हो सकता है ।'
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वीरसेन – ये उम मूलसंघ पंचस्तूपान्वय के आचार्य थे, जो सेनसंघ के नाम से लोक में विश्रुत हुआ है । ये आचार्य चन्द्रसेन के प्रशिष्य और आर्यनन्दी के शिष्य तथा जिनसेनाचार्य के गुरु थे । वीरसेनाचार्य ने चित्रकूट में एलाचार्य के समीप षट्खण्डागम और कषायप्राभृत- जैसे सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था और षट्खण्डागम पर ७२ हजार श्लोक प्रमाण 'धवला टीका' तथा कषायप्राभृत पर २० हजार श्लोक प्रमाण 'जयधवला टीका' लिखकर दिवंगत हुए थे। जयधवला की अवशिष्ट ४० हजार श्लोकं प्रमाण टीका उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने बनाकर पूर्ण की। इनके सिवाय 'सिद्ध भूपद्धति' नामक ग्रन्थ की टीका भी आचार्य वीरसेन ने बनायी थी जिसका उल्लेख गुणभद्राचार्य ने किया है। यह टीका अनुपलब्ध है । वीरसेनाचार्य का समय विक्रम की ध्वीं शताब्दी का पूर्वाधं है ।
जयसेन -- यह बड़े तपस्वी, प्रशान्तमूर्ति, शास्त्रश और पण्डितजनों में अग्रणी थे । हरिवंशपुराण के कर्ता पुन्नाटसंघी जिनसेन ने शतवर्षजीवी अमितसेन के गुरु जयसेन का उल्लेख किया है और उन्हें सद्गुरु इन्द्रिय व्यापार- विजयी, कर्मप्रकृतिरूप आगम के धारक, प्रसिद्ध वैयाकरण, प्रभावशाली और सम्पूर्ण शास्त्रसमुद्र के पारगामी बतलाया है जिससे वे महान् योगी-तपस्वी और प्रभावशाली सैद्धान्तिक आचार्य मालूम होते हैं। साथ ही कर्मप्रकृति रूप आगम के धारक होने के कारण सम्भवतः वे किसी कर्मग्रन्थ के प्रणेता भी रहे हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । परन्तु उनके द्वारा किसी ग्रन्थ के रचे जाने का कोई प्रामाणिक उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। इन उभय जिनसेनों द्वारा स्मृत प्रस्तुत जयसेन एक ही व्यक्ति जान पड़ते हैं । हरिवंशपुराण के कर्ता ने जो अपनी गुरुपरम्परा दी है उससे स्पष्ट है कि शतवर्षजीवी अमितसेन और शिष्य कीर्तिषेण का यदि २५-२५ वर्ष का समय मान लिया जाये जो बहुत ही कम है और उसे हरिवंशपुराण के रचनाकाल (शकसंवत् ७०५ वि० ८४० ) में से कम किया जाये तो शक संवत् ६५५ वि० सं० ७६० के लगभग जयसेन का समय हो सकता है। अर्थात् जयसेन विक्रम को आठवीं शताब्दी के विद्वान् आचार्य थे । कविपरमेश्वर - आचार्य जिनसेन, कवियों के द्वारा पूज्य तथा कविपरमेश्वर प्रकट करते हुए उन्हें 'वागर्थसंग्रह' नामक पुराण के कर्ता बतलाते हैं और आचार्य गुणभद्र ने इनके पुराण को गद्यकथारूप, सभी छन्द और अलंकार का लक्ष्य, सूक्ष्म अर्थ तथा गूढ़ पदरचना वाला बतलाया है, जैसा कि उनके निम्न पद्य से स्पष्ट है-
"कवि परमेश्वर निगवितगद्यकथामात्रकं (मातृकं ) पुरोश्चरितम् । सकलच्छन्दोलङ, कुतिलक्ष्यं सूक्ष्मार्थगूढपदरचनम् ॥ १६८ ॥ "
आदिपुराण के प्रस्तुत संस्करण में जो संस्कृत टिप्पण दिया है उसके प्रारम्भ में भी टिप्पणकर्ता ने यही लिखा है तदनु कविपरमेश्वरेण प्रहृद्यगद्यकथारूपेण संकथितां त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिताश्रयां परमार्थबृहत्कथां संगृह्य'।
चामुण्डराय ने अपने पुराण में कविपरमेश्वर के नाम से अनेक पद्य उद्धृत किये हैं जिससे डॉ० ए०
१. देखो, अनेकान्त वर्ष ६ किरण ८ में प्रकाशित दरबारीलालजी कोठिया का 'वादीर्भासह सूरि की एक अधूरी अपूर्व कृति' शीर्षक लेख ।