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आदिपुराण
सम्भव है कि समन्तभद्र का दीक्षानाम कुछ दूसरा ही रहा हो । और वह दूसरा नाम जिननन्दो हो अथवा इसी से मिलता-जुलता अन्य कोई। यदि उक्त अनुमान ठीक है तो शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य हो सकते हैं और तब इनका समय भी समन्तभद्र का समकालीन सिद्ध हो सकता है। आराधना की गाथाओं में समन्तभद्र के बृहत्स्वयंभूस्तोत्र के एक पद्य का अनुसरण भी पाया जाता है। अस्तु, यह विषय विशेष अनुसन्धान की अपेक्षा रखता है।
जटाचार्य सिंहनन्दी-यह जटाचार्य 'सिंहनन्दी' नाम से भी प्रसिद्ध थे। यह बड़े भारी तपस्वी थे। इनका समाधिमरण 'कोप्पण' में हुआ था। कोप्पण के समीप की 'पल्लवकीगुण्डु' नाम की पहाड़ी पर इनके चरणचिह्न भी अंकित हैं और उनके नीचे दो पंक्ति का पुरानी कनड़ी का एक लेख भी उत्कीर्ण है जिसे 'चापय्य' नाम के व्यक्ति ने तैयार कराया था। इनकी एकमात्र कृति 'वरांगचरित' डॉ० ए० एन० उपाध्ये द्वारा सम्पादित होकर 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। राजा वरांग बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के समय हुआ है। वरांगचरित धर्मशास्त्र की हितावह देशना से ओत-प्रोत सुन्दर काव्य है। कन्नड साहित्य में वरांग का खूब स्मरण किया गया है। कुवलयमाला के कर्ता उद्योतन सूरि और उभय जिनसेनों ने इनका बड़े आदर के साथ स्मरण किया है। अपभ्रंश भाषा के कतिपय कवियों ने भी वरांग चरित के कर्ता का स्मरण किया है। इनका समय उपाध्येजी ने ईसा की ७वीं शताब्दी निश्चित किया है।
काणभिक्षु-यह कथालंकारात्मक ग्रन्थ के कर्ता हैं। यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है। आचार्य जिनसेन ने इनके ग्रन्थ का उल्लेख करते हुए लिखा है कि धर्मसूत्र का अनुसरण करने वाली जिनकी वाणीरूपी निर्दोष एवं मनोहर मणिया ने पुराणसंघ को सुशोभित किया वे काणभिक्षु जयवन्त रहें । इस उल्लेख से यह स्पष्ट जाना जाता है कि काणभिक्षु ने किसी कथा-ग्रन्थ अथवा पुराण की रचना अवश्य की थी। खेद है कि वह अपूर्व ग्रन्थ अनुपलब्ध है। काणभिक्षु की गुरुपरम्परा का भी कोई उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया। यह भी नवीं शती से पूर्व के विद्वान् हैं । कितने पूर्व के ? यह अभी अनिश्चित है ।
देव-देव, यह देवनन्दी का संक्षिप्त नाम है। वादिराज सूरि ने भी अपने पार्श्वचरित में इसी संक्षिप्त नाम का उल्लेख किया है। श्रवणबेलगोल के शिलालेख क्र. ४० (६४) के उल्लेखानुसार इनके देवनन्दी, जिनेन्द्रबुद्धि और पूज्यपाद ये तीन नाम प्रसिद्ध हैं। यह आचार्य अपने समय के बहुश्रुत विद्वान् थे। इनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। यही कारण है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने बड़े सम्मान के साथ इनका संस्मरण किया है। दर्शनसार' के इस उल्लेख से कि वि० सं० ५२६ में दक्षिण मथुरा या मदुरा में पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने द्राविडसंघ की स्थापना की थी, आप ५२६ वि० सं० से पूर्ववर्ती विद्वान् सिद्ध होते हैं । श्रीजिनसेनाचार्य ने इनका संस्मरण वैयाकरण के रूप में किया है । वास्तव में आप अद्वितीय वैयाकरण थे। आपके 'जैनेन्द्र ब्याकरण' को नाममालाकार धनंजय कवि ने अपश्चिम रत्न कहा है। अब तक आपके निम्नांकित ग्रन्थ उपलब्ध हो चुके हैं :
१. जैनेन्द्रव्याकरण-अनुपम, व्याकरण ग्रन्थ । २. सर्वार्थसिद्धि-आचार्य गृढ पिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र पर सुन्दर सरस विवेचन । है. समाधितन्त्र-आध्यात्मिक भाषा में समाधि का अनुपम ग्रन्थ । ४. इष्टोपदेश-उपदेशपूर्ण ५१ श्लोकों का हृदयहारी प्रकरण । ५. दशभक्ति-पाण्डित्यपूर्ण भाषा में भक्तिरस का पावन प्रवाह। ।
१. "सिरि पुज्जपावसीसो दाविडसंघस्स कारणो बुट्ठी । नामेण वज्जणवी पाहुडवेदी महासत्थो।
पंचसए डब्बीसे विक्कमरायरस मरणपतरस । दक्विणमहुरा जादो दाविइसघो महामोहो॥"