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आपिपुराण
"उस अमोघवर्ष के बाद वह अकालवर्ष सार्वभौम राजा हुआ जिसके कि प्रताप से भयभीत हुमा सूर्य आकाश में चन्द्रमा के समान आचरण करने सगता था।"
यह भी अकालवर्ष के समान बड़ा भारी वीर और पराक्रमी था । कृष्णराज तृतीय के दानपत्र में, जो कि वर्धा नगर के समीप एक कुएं में प्राप्त हुआ है, इसकी वीरता की बहुत प्रशंसा की गयी है । तत्रागत श्लोक का भाव यह है :
"उस अमोघवर्ष का पुत्र श्रीकृष्णराज हुना जिसने गुर्जर, गौड़, द्वारसमुद्र, अंग, कलिंग, गांग, मगध आदि देशों के राजाओं को अपने वशवर्ती कर लिया था।"
उत्तरपुराण की प्रशस्ति में गुणभद्राचार्य ने भी इसकी प्रशंसा में बहुत कुछ लिखा है कि इसके उत्तुंग - हाथियों ने अपने ही मदजल के संगम से कलंकित गंगानदी का पानी पिया था। इससे यह सिर होता है कि इसका राज्य उत्तर में गंगातट तक पहुंच चुका था और दक्षिण में कन्याकुमारी तक।
यह शकसंवत् ७६७ के लगभग सिंहासन पर बैठा और शक सं० ८३३ के लगभग इसका देहान्त
हुआ।
लोकावित्य-लोकादित्य का उल्लेख उत्तरपुराण की द्वितीय प्रशस्ति में श्रीगुणभद्र स्वामी के शिष्य लोकसेन मुनि ने किया है और कहा है कि जब अकालवर्ष के सामन्त लोकादित्य वंकापुर राजधानी से सारे बनबास देश का शासन करते थे तब शक सं० २२० के अमुक मुहूर्त में इस पवित्र सर्वश्रेष्ठ पुराण की भव्यजनों के द्वारा पूजा की गयी । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकांदित्य अकालवर्ष या कृष्ण (तृतीय) का सामन्त और वनवास का राजा था। इसके पिता का नाम वंकेयरस था। यह चेल्लध्वज था अर्थात् इसकी ध्वजा पर चिल्ल या चील का चिह्न था। इसकी राजधानी बंकापुर में थी। शक सं०८२० में बंकापुर में जब महापुराण की पूजा की गयी थी उस समय इसी का राज्य था। यह राज्यसिंहासन पर कब से कब तक बारुद रहा इसका निश्चय नहीं है।
"आचार्य जिनसेन और गुणभद प्रकरण' में जहाँ-तहाँ जिस उत्तरपुराण की प्रशस्ति का बहुत उपयोग हुआ है वह उक्त ग्रन्थ के अन्तिम अर्थात् सत्रहवें पर्व में पायी जाती है। आरिपुराण में उल्लिखित पूर्ववर्ती विद्वान्
आचार्य जिनसेन ने अपने से पूर्ववर्ती इन विद्वानों का अपने आदिपुराण में उल्लेख किया है१ सिक्सेन, २ समन्तभद्र, ३ श्रीदत्त, ४ यशोभन, ५ प्रभाचन्द्र, ६ शिवकोटि, ७ जटाचार्य (सिहनन्दी), ८ कागभिक्षु, ६ देव (देवनन्दी), १० भट्टाकलंक, ११ श्रीपाल, १२ पात्रकेसरी, १३ वादिसिंह, १४ वीरसेन, १५ जयसेन और १६ कविपरमेश्वर ।
उक्त आचार्यों का कुछ परिचय दे देना यहाँ आवश्यक जान पड़ता है।
सिखसेन-इस नाम के अनेक विद्वान् हो गए हैं पर यह सिद्धसेन वही मात होते हैं जो सन दि. प्रकरण नामक प्राकृत ग्रन्य के कर्ता हैं। ये न्यायशास्त्र के विशिष्ट विद्वान् थे। इनका समय विक्रम की ६-७वीं शताब्दी होना चाहिए।
१. "तस्मावकालवर्षोऽभूत् सार्वभौमक्षितीश्वरः । यत्प्रतापपरित्रस्तो व्योम्नि चन्द्रायते रविः ॥" २. "तस्योतजितगूर्जरो हतहटल्सासोभटश्रीमदो गौडानां विनयनतार्पणगुरुः सामुनिबाहर. : .
द्वारस्थाङ्गकलिङ्गगाङ्गमगधरभ्यचिताजश्चिरं सूनुः सुमृतवाग्भुवः परिवृढः श्रीकृष्णराजोऽभवत् ।" ३. उ० पु., प्र० श्लो० २६ ।