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प्रस्तावना
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समन्तभद्र – समन्तभद्र क्षत्रिय राजपुत्र थे । इनका जन्मनाम शान्तिवर्मा था किन्तु बाद में आप 'समन्तभद्र' इस श्रुतिमधुर नाम से लोक में प्रसिद्ध हुए । इनके गुरु का क्या नाम था और इनकी क्या गुरुपरम्परा थी यह ज्ञात नहीं हो सका। वादी, वाग्मी और कवि होने के साथ आद्य स्तुतिकार होने का श्रेय आपको ही प्राप्त है । आप दर्शनशास्त्र के तल-द्रष्टा और और विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न थे । एक परिचय-पद्य में तो आप को देवज्ञ, वैद्य, मान्त्रिक और तान्त्रिक होने के साथ आशासिद्ध और सिद्धसारस्वत भी बतलाया है। आपकी सिंह-गर्जना से सभी वादिजन काँपते थे । आपने अनेक देशों में विहार किया और वादियों को पराजित कर उन्हें सन्मार्ग का प्रदर्शन किया। आपकी उपलब्धं कृतियाँ बड़ी ही महत्त्वपूर्ण, संक्षिप्त, गूढ़ तथा गम्भीर अर्थ की उद्भाविका हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं : १ बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, २ युक्त्यनुशासन, ३ आप्तमीमांसा, ४ रत्नकरण्ड श्रावकाचार और ५ स्तुतिविद्या । इनके जीवसिद्धि और तत्त्वानुशासन ये दो ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। इनका समय विक्रम की २-३ शताब्दी माना जाता है ।
श्रीबस यह अपने समय के बहुत बड़े वादी और दार्शनिक विद्वान् थे । आचार्य विद्यानन्द ने आपके 'जल्पनिर्णय' ग्रन्थ का उल्लेख करते हुए आपको ६३ वादियों को जीतने वाला बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि श्रीदत्त बड़े तपस्वी और वादिविजता विद्वान् थे । विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान् देवनन्दी ( पूज्यपाद) ने जैनेन्द्र व्याकरण में 'गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रियाम् १।४।३४' सूत्र में एक श्रीदत्त का उल्लेख किया है । बहुत सम्भव है कि आचार्य जिनसेन और देवनन्दी द्वारा उल्लिखित श्रीदत्त एक ही हों। और यह भी हो सकता है कि दोनों भिन्न-भिन्न हों। आदिपुराणकार ने चूंकि श्रीदत्त को तपः श्री दीप्तमूर्ति और वादिरूपी गजों का प्रभेदक सिंह बतलाया है, इससे श्रीदत्त दार्शनिक विद्वान् जान पड़त है। जैनेन्द्र व्याकरण में जिन छह विद्वानों का उल्लेख किया है वे प्रायः सब दार्शनिक विद्वान् हैं । उनमे केवल भूतबली सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ थे । व्याकरण में विविध आचार्यों के मत का उल्लेख करना महावैयाकरण पाणिनि का उपक्रम है । श्रीदत्त नाम के जो भारतीय आचार्य हुए हैं वे इनसे भिन्न जान पड़ते हैं ।
यशोभद्र – यशोभद्र प्रखर तार्किक विद्वान् थे। उनके सभा में पहुँचते ही वादियों का गर्व खर्व हो जाता था । देवनन्दी ने भी जैनेन्द्र व्याकरण में 'क्व' वृषिमृजां यशोभद्रस्य २।१।६६' सूत्र में यशोभद्र का उल्लेख किया है । इनकी किसी भी कृति का समुल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। देवनन्दी द्वारा जैनेन्द्र व्याकरण में उल्लिखित यशोभद्र यदि यही हैं तो आप छठी शती के पूर्ववर्ती विद्वान् सिद्ध होते हैं ।
प्रभाचन्द्र - प्रस्तुत प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र से भिन्न हैं और बहुत पहले हुए हैं। यह कुमारसेन के शिष्य थे । वीरसेन स्वामी ने जयधवला टीका में नय के लक्षण का निर्देश करते हुए प्रभाचन्द्र का उल्लेख किया है । सम्भवतः ये वही हैं । हरिवंशपुराण के कर्ता पुन्नाटसंघीय जिनसेन ने भी इनका स्मरण किया है।' यह न्यायशास्त्र के पारंगत विद्वान् थे ओर चन्द्रोदय नामक ग्रन्थ की रचना से इनका यश चन्द्रकिरण के समान उज्ज्वल और जगत् को आह्लादित करने वाला हुआ था। इनका चन्द्रोदय ग्रन्थ उपलब्ध नहीं अतः उसके वर्णनीय विषय के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा जा सकता । आपका समय निश्चित नहीं है । हाँ, इतना ही कहा जा सकता है कि आप जिनसेन के पूर्ववर्ती हैं।
शिवकोटि - यह वही जान पड़ते हैं जो 'भगवती आराधना' के कर्ता हैं । यद्यपि भगवती आराधना ग्रन्थ के कर्ता 'आर्य' विशेषण से युक्त 'शिवार्य' कहे जाते हैं पर यह नाम अधूरा प्रतीत होता है । आदिपुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य ने इन्हें सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप रूप आराधनाओं की आराधना से संसार को शीतीभूत प्रशान्त सुखी करने वाला बतलाया है। शिवकोटि को समन्तभद्र का शिष्य भी बतलाया जाता है परन्तु भगवती आराधना में जो गुरु-परम्परा दी है उसमें समन्तभद्र का नाम नहीं है । यह भी
५. "आकृपार यशो लोके प्रभाचन्द्रयोजनम् । गुरोः कुमारस्य निवारयनिवात्मकम् ॥"