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को इतना प्रसिद्ध किया कि पीछे से वह एक प्रकार की पदवी समझी जाने लगा और उसे राठौर वंश के तीनचार राजाओं ने तथा परमारवंशीय महाराज मुंज ने भी अपनी प्रतिष्ठा का कारण समझकर धारण किया । इन पिछले तीन-चार अमोघवर्षों के कारण इतिहास में ये 'प्रथम' के नाम से प्रसिद्ध हैं। जिनसेन स्वामी के ये परमभक्त थे । जैसा गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण की प्रशस्ति में उल्लेख किया है और उसका भाव यह है कि महाराज अमोघवर्ष जिनसेन स्वामी के चरणकमलों में मस्तक रखकर अपने आपको पवित्र मानते थे और उनका सदा स्मरण किया करते थे ।
प्रस्तावना
ये राजा ही नहीं विद्वान् थे और विद्वानों के आश्रयदाता भी । आपने 'प्रश्नोत्तर रत्नमालिका की रचना की थी और वह तब जब कि अपनी भुजाओं से राज्य का भार विवेकपूर्वक दूर कर दिया था । 'प्रश्नोतररत्नमालिका' के सिवाय 'कविराजमार्ग' नाम का अलंकार-ग्रन्थ भी इनका बनाया हुआ है जो कर्णाटक भाषा में है और विद्वानों में जिसकी अच्छी ख्याति है । इनकी राजधानी मान्यखेट में थी जो कि अपने वैभव से इन्द्रपुरी पर भी हँसती थी । ये जैन मन्दिरों तथा जैन वसतिकाओं को भी अच्छा दान देते थे । शक सं० ७८२ के ताम्रपत्र से विदित होता है कि इन्होंने स्वयं मान्यखेट मे जैनाचार्य देवेन्द्र को दान दिया था । यह दानपत्र इनके राज्य के ५२वें वर्ष का है । शक सं० ७६७ का एक लेख कृष्ण (द्वितीय) के महासामन्त पृथ्वीराय का मिला है जिसमें इनके द्वारा सौन्दत्ति के एक जैन मन्दिर के लिए कुछ भूमिदान करने का उल्लेख है ।
शाकटायन ने अपने शब्दानुशासन की टीका अमोषवृत्ति इन्हीं अमोघवर्ष के नाम से बनायी । घवला और जयधवला टीकाएँ भी इन्हीं के धवल या अतिशयधवल नाम के उपलक्ष्य में बनीं तथा महावीराचार्य ने अपने गणितसारसंग्रह में इन्हीं की महामहिमा का विस्तार किया है। इससे सिद्ध होता है कि ये विद्वानों तथा खासकर जैनाचार्यों के बड़े भारी आश्रयदाता थे ।
'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' के मंगलाचरण में उन्होंने "प्रणिपत्य वर्धमानं प्रश्नोत्तररत्नमालिकां वक्ष्ये । नागनरामरबन्द्य ं देवं देवाधिपं वीरम् ।" श्लोक द्वारा श्री महावीर स्वामी का स्तवन किया है और साथ ही उसमें कितने ही जैनधर्मानुमोदित प्रश्नोत्तरों का निम्न प्रकार समावेश किया है :
"त्वरितं किं कर्तव्यं विदुषां संसारसन्ततिच्छेदः । किं मोक्षतरोर्बीजं सम्यग्ज्ञानं क्रियासहितम् ॥४॥ को नरकः परवशता कि सौख्यं सर्वसंगविरतिर्वा । किं रत्नं भूतहितं प्रेयः प्राणिनामसवः ॥ १३॥" इससे सिद्ध होता है कि अमोघवर्ष जैन थे और समग्र जीवन में उन्हें जैन न माना जाये तब भी रत्नमाला की रचना के समय में तो वह जैन ही थे यह दृढ़ता से कहा जा सकता है । हमारे इस कथन की पुष्टि महावीराचार्यकृत गणितसारसंग्रह की उत्थानिका के – “विध्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवेदिनः । देवस्य नृपतुङ्गस्य वर्धतां तस्य शासनम् ।।" श्लोक से भी होती है ।
अकालवर्ष – अमोघवर्ष के पश्चात् उनका पुत्र अकालवर्ष, जिसको इतिहास में 'कृष्ण द्वितीय' भी कहा है, सार्वभौम सम्राट् हुआ था। जैसा कि द्वितीय कर्कराज के दानपत्र में अमोघवर्ष का वर्णन करने के पश्चात् लिखा है :
१. उ० पु० प्र० श्लो० ८ ।
२. "विवेकास्य क्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । रचितामोघवर्षेण सुधिया सदलकृतिः ॥"
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३. "यो मान्यख टममरेन्द्रपुरोपहासि, गीर्वाणगर्वमिव खर्वयितुं व्यधत्त ।"
- ए० इं०जि०, पृ० १६२-१९६