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आदिपुराण
इनके बनाये हुए निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं :
उत्तरपुराण – यह महापुराण का उत्तर भाग है । इसमें अजितनाथ को आदि लेकर २३ तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, ६ नारायण, ६ बलभद्र और ६ प्रतिनारायण तथा जीवन्धर स्वामी आदि कुछ विशिष्ट पुरुषों के कथानक दिये हुए हैं । इसकी रचना भी कवि परमेश्वर के गद्यात्मक पुराण के आधार पर हुई होगी । आठवें, सोलहवें, बाइसवें, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकर को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों के चरित्र बहुत ही संक्षेप से लिखे गये हैं । इस भाग में कथा की बहुलता ने कवि की कवित्वशक्ति पर आघात किया। जहाँतहाँ ऐसा मालूम होता है कि कवि येन-केन प्रकारेण कथा भाग को पूरा कर आगे बढ़ जाना चाहते हैं । पर फिर भी बीच-बीच में कितने ही ऐसे सुभाषित आ जाते हैं जिससे पाठक का चित्त प्रसन्न हो जाता है। गुणभद्राचार्य के उत्तरपुराण की रचना के विषय में एक दन्तकथा प्रसिद्ध है :
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जब जिनसेन स्वामी को इस बात का विश्वास हो गया कि अब उनका जीवन समाप्त होने वाला है और वह महापुराण को पूरा नहीं कर सकेंगे तब उन्होंने अपने सबसे योग्य दो शिष्य बुलाये । बुलाकर उनसे कहा कि यह जो सामने सूखा वृक्ष खड़ा है इसका काव्यवाणी में वर्णन करो। गुरुवाक्य सुनकर उनमें से पहले ने कहा – “शुष्कं काष्ठं तिष्ठत्यग्रे ।” फिर दूसरे शिष्य ने कहा, "नीरसतरुरिह विलसति पुरतः।" गुरु को द्वितीय शिष्य की वाणी में रस दिखा, अतः उन्होंने उसे आज्ञा दी कि तुम महापुराण को पूरा करो । गुरु-आशा को स्वीकार कर द्वितीय शिष्य ने महापुराण को पूर्ण किया। वह द्वितीय शिष्य गुणभद्र ही थे ।
आत्मानुशासन - यह भर्ती हरि के वैराग्यशतक की शैली से लिखा हुआ २७२ पद्यों का बड़ा सुन्दर ग्रन्थ है। इसकी सरस और सरल रचना हृदय पर तत्काल असर करती है। इसकी संस्कृत टीका प्रभाचन्द्राari ने की है । हिन्दी टीकाएँ भी श्री स्व० पण्डित टोडरमलजी तथा पं० वंशीधरजी शास्त्री सोलापुर ने की हैं। जैन समाज में इसका प्रचार भी खूब है । यदि इसके ग्लोक कष्ठ कर लिये जायें तो अवसर पर आत्मशान्ति प्राप्त करने के लिए बहुत बल देने वाले हैं । इसके अन्त में प्रशस्तिस्वरूप निम्न श्लोक ही पाया जाता है :
“जिनसेनाचार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम् । गुणभद्र भदन्तानां कृतिरात्मानुशासनम् ॥”
अर्थात् जिनका चित्त श्रीजिनसेनाचार्य के चरणस्मरण के अधीन है उन गुणभद्रभदन्त की कृति यह आत्मानुशासन है ।
जिनदत्तचरित्र - यह नवसर्गात्मक छोटा-सा काव्य है, अनुष्टुप् श्लोकों में रचा गया है। इसकी कथा बड़ी ही कौतुकावह है । शब्दविन्यास अल्प होने पर भी कहीं-कहीं भाव बहुत गम्भीर है। श्रीलालजी काव्यतीर्थं द्वारा इसका हिन्दी अनुवाद भी हो चुका है ।
समकालीन राजा
जिनसेन स्वामी और भदन्त गुणभद्र के सम्पर्क में रहने वाले राजाओं में अमोघवर्ष ( प्रथम ) का नाम सर्वोपरि है । ये जगत्तुंगदेव (गोविन्द तृतीय) के पुत्र थे । इनका घरू नाम बोद्दणराय था । नृपतुंग, शर्व, शण्ड, अतिशयधवल, वीरनारायण, पृथिवीवल्लभ, लक्ष्मीवल्लभ, महाराजाधिराज, भटार, परमभट्टारक आदि इनकी उपाधियाँ थीं । यह भी बड़े पराक्रमी थे। इन्होंने बहुत बड़ी उम्र पायी और लगभग ६३ वर्ष राज्य किया | इतिहासज्ञों ने इनका राज्य काल शकसंवत् ७३६ से ७६६ तक निश्चित किया है। जिनसेन स्वामी का स्वर्गवास शकसंवत् ७६५ के लगभग निश्चित किया जा चुका है, अतः जिनसेन के शरीरत्याग के समय अमोघवर्ष ही राज्य करते थे। राज्य का त्याग इन्होंने शकसंवत् ८०० में किया है जब कि आचार्य पद पर गुणभद्राचार्यं विराजमान थे। अपनी दानशीलता और न्यायपरायणता से अमोघवर्ष ने अपने अमोघवर्ष' नाम १. "अर्थिषु यथार्थतां यः समभीष्टफलाप्तिलम्ध तोषेषु । वृद्धि निनाय परमाममोघवर्षाभिधानस्य ॥” -- ( ध्रुवराज का दानपत्र, इण्डियन एण्टिक्वेरी १२-१५१)