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प्रस्तावना
इनके सिवाय आपके 'शब्दावतारन्यास' और 'जैनेन्द्रन्यास' आदि कुछ ग्रन्थों के उल्लेख और भी मिलते हैं परन्तु वे अभी तक प्राप्त नहीं हो सके है।
अकलंकभट्ट--यह 'लघुहम्ब' नामक राजा के पुत्र थे और भट्ट इनकी उपाधि थी। यह विक्रम की ८वीं शताब्दी के प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे। अकलंकदेव जैनन्याय के व्यवस्थापक और दर्शनशास्त्र के असाधारण पण्डित थे। आपकी दार्शनिक कृतियों का अभ्यास करने से आपके तलस्पर्शी पाण्डित्य का पदपद पर अनुभव होता है । उनमें स्वमत-संस्थापन के साथ परमत का अकाट्य युक्तियों द्वारा निरसन किया गया है । ग्रन्थों की शैली अत्यन्त गूढ़, संक्षिप्त, अर्थबहुल एवं सूत्रात्मक है इसी से उत्तरवर्ती हरिभद्रादि आचार्यों द्वारा अकलंकन्याय का सम्मानपूर्वक उल्लेख किया गया है। इतना ही नहीं, जिनदासगणी महत्तर जैसे विद्वानों ने उनके 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रन्थ के अवलोकन करने की प्रेरणा भी की है। इससे अकलंकदेव की महत्ता का स्पष्ट आभास मिल जाता है। वर्तमान में उनकी निम्न कृतियाँ उपलब्ध हैं-लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, अष्टशती (देवागम टीका), प्रमाणसंग्रह-सोपज्ञ भाष्यसहित, तत्त्वार्थराजवार्तिक, स्वरूपसम्बोधन और अकलंकस्तोत्र ।
अकलंकदेव का समय विक्रम की सातवीं-आठवीं शताब्दी माना जाता है क्योंकि विक्रम संवत् ७०० में उनका बौद्धों के साथ महान् वाद हुआ था, जैसा कि निम्न पद्य से स्पष्ट है :
"विक्रमार्कशकाग्दीयशतसप्तप्रमाजुषि । कालेऽकलंकयतिनो बौद्धर्वादो महानभूत ॥"
नन्दिसूत्र की चूणि में प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् श्री जिनदासगणी महत्तर ने 'सिद्धिविनिश्चय' नाम के ग्रन्थ का बड़े गौरव के साथ उल्लेख किया है जिसका रचनाकाल शक संवत् ५६८ अर्थात् वि० सं०७३३ है, जैसा कि उसके निम्न बाक्य से प्रकट है : "शकराजः पञ्चस वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवतिषु नन्द्ययनचणिः समाप्ता।" चुगि का यह समय मुनि जिनविजयजी ने अनेक ताडपत्रीय प्रतियों के आधार से ठीक बतलाया है। अतः अकलंकदेव का समय विक्रम की सातवीं शताब्दी सुनिश्चित है।
श्रीपाल-यह वीरस्वामी के शिष्य और जिनसेन के सधर्मा गुरुभाई अथवा समकालीन विद्वान थे। जिनसेनाचार्य ने जयधवला को इनके द्वारा सम्पादित बतलाया है। इससे यह बहुत बड़े विद्वान् आचार्य जान पड़ते हैं । यद्यपि सामग्री के अभाव से इनके विषय में विशेष जानकारी नहीं है फिर भी यह विक्रम की हवीं शताब्दी के विद्वान् अवश्य हैं।
पात्रकेसरी-आपका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। आप बड़े ही कुशाग्र बुद्धि विद्वान थे। आचार्य समन्तभद्र के देवागमस्तोत्र को सुनकर आपकी श्रद्धा जैन धर्म पर हुई थी । पात्रकेसरी न्यायशास्त्र के पारंगत और 'त्रिलक्षणक दर्शन' जैसे तर्कग्रन्थ के रचयिता थे। यद्यपि यह ग्रन्थ इस समय अनुपलब्ध है तथापि तत्त्व-संग्रह के टीकाकार बौद्धाचार्य कमलशील ने पात्रकेसरी के इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है। उसकी कितनी ही कारिकाएँ 'तत्त्वसंग्रहपञ्जिका' में पायी जाती हैं । इस ग्रन्थ का विषय बौद्धसम्मत हेतु के त्रिरूपास्मक लक्षण का विस्तार के साथ खण्डन करना है। इनकी दूसरी कृति 'जिनेन्द्रगुणस्तुति' है, जो 'पात्रकेसरी स्तोत्र' के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्तोत्र भी दार्शनिक चर्चा से ओतप्रोत है। इसमें स्तुति के द्वारा अपनी तर्क एवं गवेषणा पूर्ण युक्तियों द्वारा वस्तुतत्त्व का परिचय कराया गया है । स्तोत्र के पद्यों की संख्या कुल ५० है। उसमें अर्हन्त भगवान् के सयोगकेवली अवस्था के असाधारण गुणों का सयुक्तिक विवेचन किया गया है और केवली के वस्त्र-अलंकार, आभरण तथा शस्त्रादि से रहित प्रशान्त एवं वीतराग शरीर का वर्णन करते हुए कषायजय, सर्वज्ञता और युक्ति तथा शास्त्र-अविरोधी वचनों का सयुक्तिक विवेचन किया गया है। प्रसंगानुसार सांख्यादि दर्शनान्तरीय मान्यताओं की आलोचना भी की है। इस तरह ग्रन्थकार ने स्वयं इस म्तोत्र को मोक्ष का माधक बतलाया है। पात्रकेमरी देवनन्दी मे उत्तरवर्ती और अकलंकदेव से पूर्ववर्ती हैं।