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प्राचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार जीवकाण्ड की
प्राचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमलजीकृत भाषा टीका
पापा
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका
(प्रथम खण्ड)
गोम्मटसार जीवकाण्ड एवं उसको भाषा टीका
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सम्पादक: ० यशपाल जैन, एम. ए.
प्रकाशक: साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट
ए-४, बापूनगर, जयपुर-३०२०१५
प्रथम संस्करण: २२०० [७ मई, १९८६ अक्षय त
मूल्य : चालीस रुपये मात्र मुद्रक : श्री बालचन्द्र यन्त्रालय मानवाश्रम', जयपुर
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प्रकाशकीय
आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार जीवकाण्ड की प्राचार्यकल्प पण्डित प्रवर टोडरमलजी कृत भाषा टीका, जो सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका के नाम से विख्यात है, के प्रथम खण्ड की प्रकाशन करते हुए हमें हार्दिकता का अनुमन हो रहा है।
ferravert नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती करणानुयोग के महान याचाय थे | गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार तथा द्रव्यसंग्रह ये महत्वपूर्ण कृतियाँ आपकी प्रमुख देन हैं। पण्डित प्रवर टोडरमलजी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड तथा लब्धिसार और क्षपणासार की भाषा टीकाएँ पृथक्-पृथक् बनाई थीं। चूंकि ये चारों टीकाएँ परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित तथा सहायक थीं। अत: सुविधा की दृष्टि से उन्होंने उक्त चारों टीकाओं को मिलाकर एक ही ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत कर दिया तथा इस ग्रन्थ का नामकरण उन्होंने 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका किया। इस सम्बन्ध में टोडरमलजी स्वयं लिखते हैं
या विधि गोम्मटसार, लब्धिसार ग्रन्थनिकी, free-fra भाषाटीका कीनी अर्थ गायके । इनिकै परस्पर सहायकपती देख्यो,
तात एक कर दई हम तिनको मिलायके ।। सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका धर्यो है थाको नाम,
सोई होत है सफल ज्ञानानन्द उपजायकें । कलिकाल रजनी में अर्थ को प्रकाश करें,
बातें निज काज कीर्ज इष्ट भाव भायकें ॥
इस ग्रन्थ की पीठिका के सम्बन्ध में मोक्षमार्ग प्रकाशक की प्रस्तावना लिखते हुए डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल लिखते हैं
"सम्यग्ज्ञानचन्द्रा विवेचनात्मक गद्य शैली में लिखी गई है। प्रारंभ में इकहत्तर पृष्ठ की पीठिका है। आज नवीन शैली से सम्पादित ग्रन्थों में भूमिका का बड़ा महत्त्व माना जाता है । शैली के क्षेत्र में लगभग दो सौ बीस वर्ष पूर्व लिखी गई सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की पीठिका आधुनिक भूमिका का प्रारंभिक रूप हैं । किन्तु भूमिका का आच रूप होने पर भी उसमें प्रौढ़ता पाई जाती है, उसमें हलकापन कहीं भी देखने को नहीं मिलता। इसके पढ़ने से ग्रन्थ का पूरा हार्द खुल जाता है एवं इस गूढ़ ग्रन्थ के पढ़ने में आने वाली पाठक की समस्त कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं। हिन्दी प्रात्मकथा साहित्य में जो महत्त्व महाकवि पण्डित बनारसीदास के 'अर्द्धकथानक' को प्राप्त है, वही महत्व हिन्दी भूमिका साहित्य में सम्यग्ज्ञान efer की पीठिका का है ।"
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इस ग्रन्थ का प्रकाशन बड़ा ही श्रम साध्य कार्य था, चूंकि प्रकाशन के लिए समाज का दबाव भी बहत था; नम: इसे सम्पादित करने हेतु ब्र० यशपाल जी को तैयार किया गया। उन्होंने अथक परिश्रम कर इस गुरुतर भार को वहन किया, इसके लिए यह दृस्ट सदैव उनका ऋणी रहेगा।
पुस्तक का प्रकाशन इस विभाग के प्रभारी श्री अखिल बंसल ने बखूबी सम्हाला है। अतः उनका आभार मानते हुए जिन महानुभावों ने इस ग्रन्थ की कीमत कम करने में प्राधिक सहयोग दिया है उन्हें धन्यवाद देता हूँ।
इस ट्रस्ट के विषय में तो अधिक क्या कहूँ इसकी गतिविधियों से सारा समाज परिचित है ही; तीर्थ क्षेत्रों का जीरगोंद्वार एवं उनका सर्वेक्षण तो इस ट्रस्ट के माध्यम से हुआ ही है। इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है श्री टोडरमल दि० जैन सिद्धान्त महाविद्यालय जिसके माध्यम से सैकड़ों विद्वान जैन समाज को मिले हैं और निरन्तर मिल रहे हैं।
साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग के माध्यम से भी अनुकरणीय कार्य इस ट्रस्ट द्वारा हो रहा है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के पंचपरमागम समयसार, अवचनसार, नियमसार, अष्टपाड़ तथा पंचास्तिकाय जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन तो इस विभाग द्वारा हुमा ही है साथ ही-मोक्षशास्त्र, मोक्षमार्ग प्रकाशक, श्रावकधर्म प्रकाशक, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ज्ञान स्वभाव-ज्ञेयस्वभाव, छहढाला, समयसार-नाटक, चिविलास प्रादि का भी प्रकाशन इस विभाग ने किया है। प्रचार कार्य को भी गति देने के लिए पांच विद्वान नियुक्त किये गए हैं , जो गांव-गांव जाकर विभिन्न माध्यमों से तत्त्वप्रचार में रत हैं।
इस अनुपम ग्रन्य के माध्यम से आप अपना प्रात्म कल्याण कर भव का अभाव करें ऐसो मंगल कामना के साथ
- नेमीचन्द पाटनी
श्री कुन्दकुन्द कहान दि० जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित reatmentDHAMANANEL महत्त्वपूर्ण साहित्य .come १. समयसार
२०.०० रु. १०. श्रावधर्म प्रकाश २. प्रवचनसार
१६.०० रु. ११. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ३.नियमसार १५.०० रु. १२. चिविलास
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२०.०० रु. (छहाला प्रवचन) ७. मोक्षमार्ग प्रकाशक १०.०० रु. १५. ज्ञानस्वभाव-ज्ञेयस्वभाव १२.०० रु. ८, समयसार नाटक १५.०० रु. १६. युगपुरुष कानजी स्वामी २.०० रु.।
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सम्पादकीय
करणानुयोग के महान आचार्य श्री नेमीचन्द्र सिद्धान्तुचक्रवर्ती ने ग्यारहवीं सताब्दि में गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार और क्षपणासार ग्रन्थों की रचना प्राकृत गाथाओं में को, जिस पर प्राचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने अठारहवीं शताब्दि में ढारी भाषा में “सम्याज्ञानचन्द्रिका" नामक भाषा टीका लिखी है। त्रिलोकसार एवं सुप्र ग्रन्थ द्रव्यसंग्रह भी प्राचार्य श्री नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती को ही रचनाएँ हैं।
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SAIL
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका का प्रकाशन इससे पूर्व मात्र एक ही बार जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकर: हुमागा, जोकित रह से अनुपलब्ध है. इसलिए पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ने इसका पुनर्प्रकाशन करके करणानयोग के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण शास्त्र की दीर्घकालीन सुरक्षा का उत्तम उपाय किया है। सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की महिमा के सम्बन्ध में पण्डित टोडरमलजी के समकालीन स्वाध्यायशील ७० पण्डित राजमल्लजी ने अपने "चर्चा संग्रह" में जो विचार व्यक्त किये हैं, वे द्रष्टव्य हैं :
"सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की महिमा वचन अगोचर है, जो कोई जिन धर्म की महिमा और केवलज्ञान की महिमा जाणी चाही तो, या सिद्धान्त का अनुभव करो। घरमी कहिता करि
कहा।"
इस ग्रन्थ की महिमा एवं विशेषता को समझने के लिए उपरोक्त विभार ही पर्याप्त है, अपनी ओर से और कुछ लिखने की प्रावश्यकता प्रतीत नहीं होती है।
संपूर्ण सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका का एकसाथ एक ही खण्ड में प्रकाशन करने से इसका आकार वहत ही बड़ा हो जाता, जिससे स्वाध्याय में असुविधा हो सकती थी। इसलिए इसका तीन भागों में प्रकाशन करने का निर्णय लिया गया। उनमें से प्रस्तुत संस्करण में गोम्मटसार जीवकाण्ड की सम्परज्ञानचन्द्रिका टीका को प्रथम भाग के रूप में प्रकाशित किया है।
इस ग्रन्थ के संपादन के लिए सर्वप्रथम हमने छह हस्तलिखित प्रतियों से इसका मिलान किया । मिलान करते समय हमारे सामने जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित और पं. गंगाधरलाल जैन, न्यायतीर्थ एवं श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ द्वारा संपादित प्रति ही मूल आधार रही है । अन्य छह हस्तलिखित प्रतियों का विवरण इसप्रकार है:१. (अ) प्रति -- श्री दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर तेरह पंथियान, जयपुर (राज.)
काल -पण्डित टोडरमलजी की स्वहस्तलिखित विक्रम संवत १८१० की प्रति के आधार से विक्रम संवत् १८६१ में लिखी हुई प्रति । लिपिकार--अजाल (अक्षर सुन्दर व स्पष्ट हैं)
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२. (च) प्रति - श्री दिगम्बर जैन मन्दिर भदीचंदजी, जयपुर (राज.)
काल-अज्ञात
लिपिकार--अनेक लिपिकारों द्वारा लिखित एवं पण्डित टोडरमलजी द्वारा संशोधित प्रति । ३. (क) प्रति-श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, पादर्शनगर, जयपुर (राज.)
काल-विक्रम संवत् १८२६, आषाढ़ सुदी तीज, गुरुवार ।
लिपिकार-गोविन्दराम। ४. (ख) प्रसि–श्री चन्द्रप्रभ दिगम्बर जैन मन्दिर, फिरोजाबाद (उ० प्र०)
काल-विक्रम संवत् १८१८
लिपिकार-अज्ञात । t. प्रति श्री विशाबर जैन मन्दिर संघीजी, जयपुर (राज.)
काल-विक्रम संवत् १९७०, माघ शुक्ला पंचमी।
लिपिकार-श्री जमनालाल पार्मा । ६. (घ) प्रति-श्री दिगम्बर जैन मन्दिर दीवान भदीचंदजी, जयपुर (राज.)
काल-विक्रम संवत् १८६१, पौष बदी बारस । लिपिकार-श्री लालचन्द महात्मा देहा, श्री सीताराम के पठनार्थ ।
इस ग्रंथ का संपादन करते समय हमने जिन बातों का ध्यान रखा है, उनका उल्लेख करना उचित होगा । वे बिन्दु इसप्रकार हैं :
(१) छह हस्तलिखित प्रतियों से मिलान करते समय जहाँ पर भी परस्पर विरुद्ध कथन. आये, उनमें से जो हमें शास्त्र सम्मत प्रतीत हुआ उसे ही मूल में रखा है और अन्य प्रतियों के कथन को फुटनोट में दिया है। और जहाँ निर्णय नहीं कर पाये हैं, वहीं छपी हुई प्रति को ही मूल में रखकर अन्य प्रतियों का कथन फुटनोट में दिया है।
(२) पीठिका में विषयवस्तु के अनुसार सामान्य प्रकरण, मोम्मटसार (जीवकाण्ड संबंधी प्रकरण, मोम्मटसार कर्मकाण्ड संबंधी प्रकरण, लब्धिसार-क्षपणासार संबंधी प्रकरण - ये शीर्षक हमने अपनी तरफ से दिये हैं, मूल में नहीं।
(३) संपूर्ण ग्रंथ में स्वाध्याय को सुलभता के लिए विषयवस्तु के अनुसार बड़े-बड़े अनुच्छेदों (पैराग्राफों) को विभाजित करके छोटे-छोटे (पैराग्नाफ) बनाये हैं। साथ ही टीका में समागत प्रश्नोत्तर अथवा शंका-समाधान भी अलग अनुच्छेद बनाकर दिये हैं।
(४) गाथा के विषय का प्रतिपादक जीर्षकात्मक वाक्य मूल टीका में गाथा के बाद टीका के साथ दिया है, लेकिन गाथा पढने से पूर्व उसका विषय ध्यान में पाये -- इसीलिए उस वाक्य को हमने गाथा से पहले दिया है।
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(५) मूल गाथा तो बड़े टाइप में दो ही है, साथ ही टीका में भी जहाँ पर संस्कृत या प्राकृत के कोई सूत्र अथवा गाथा, श्लोक प्रादि पाये हैं, उनको भी ब्लेक टाइप में दिया है।
(६) माथा का विषय जहाँ भो धवलादि ग्रंथों से मिलता है, उसका उल्लेख श्रीमद राजचंद्र प्राधम, अगास से प्रकाशित गोम्मटसार जोधकाण्ड के आधार से फुटनोट में किया है। . अनेक जगह अलौकिक गणितादि के विषय अति सूक्ष्मता के कारण से हमारे भी समझ में नहीं आये हैं -- ऐसे स्थानों पर मूल विषय यथावत ही दिया है। अपनी तरफ से अनुच्छेद भी नहीं बदले हैं।
सर्वप्रथम मैं पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के महामन्त्री श्री नेमीचन्दजी पाटनी का हार्दिक प्राभारी हूँ, जिन्होंने इस ग्रंय के संपादन का कार्यभार मुझे देकर ऐसे महान ग्रंथ के सूक्ष्मता से अध्ययन का सुअवसर प्रदान किया ।
डॉ. हुकमचंद भारिल्ल का भी इस कार्य में पूरा सहयोग एवं महत्त्वपूर्ण सुझाब तथा मार्गदर्शन मिला है, इसलिए मैं उनका भी हार्दिक आभारी हूँ।
हस्तलिखित प्रतियों से मिलान करने का कार्य अतिशय कष्टसाध्य होता है। मैं तो हस्तलिखित प्रति पढ़ने में पूर्ण समर्थ भी नहीं था। ऐसे कार्य में शांतस्वभावी स्वाध्यायप्रेमी साधर्मी भाई श्री सौभागमलजी बोहरा दूदूवाले, बापूनगर जयपुर का पूर्ण सहयोग रहा है । ग्रंथ के कुछ विशेष प्रकरण अनेक बार पुन:-पुनः देखने पड़ते थे, फिर भी आप पालस्य छोड़कर निरन्तर उत्साहित रहते थे ! मुद्रण कार्य के समय भी आपने प्रत्येक पृष्ठ का शुद्धता की दृष्टि से अवलोकन किया है। एतदर्थ प्रापका जितना धन्यवाद दिया जाय, वह कम ही है। माशा है भविष्य में भी आपका सहयोग इसीप्रकार निरन्तर मिलता रहेगा। साथ ही ब्र० कमलाबेन जयपुर, श्रीमती शीलाबाई विदिशा एवं श्रीमती श्रीवती जैन दिल्ली का भी इस कार्य में सहयोग मिला है. अतः वे भी धन्यवाद की पात्र हैं।
योम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड तथा लब्धिसार-क्षपणासार के "संष्टि अधिकार" का प्रकाशन पृथक ही होगा। गरिगत सम्बन्धी इस क्लिष्ट कार्य का भार ब्र० बिमलाबेन ने अपने ऊपर लिया तथा शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद भी अत्यन्त परिश्रम से पूर्ण करके मेरे इस कार्य में अभूतपूर्व योगदान दिया है, इसलिए मैं उनका भी हार्दिक आभारी हूँ।
हस्तलिखित प्रतियो जिन मंदिरों से प्राप्त हुई हैं, उनके ट्रस्टियों का भी मैं आभारी हैं, जिन्होंने ये प्रतियां उपलब्ध कराई । इस कार्य में श्री बिनयकुमार पापड़ीवाल तथा सागरमलजी
लल्लुजी) का भी सहयोग प्राप्त हुना है, इसलिए वे भी धन्यवाद के पात्र हैं।
अन्त में इस ग्रंथ का स्वाध्याय करके सभी जन सर्वज्ञता की महिमा से परिचित होकर अपने सर्वशस्वभाव का प्राश्रय लेवें एवं पूर्ण कल्याण करें - यही मेरी पवित्र भावना है । अक्षय तृतीया
-० यशपाल जैन ७ मई, १९८६
साना
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प्रस्तुत संस्करण की कीमत कम कराने वाले दातारों की सूची १. श्रीमती विभा जैन, प.प. श्री अरुणकुमारजी जैन मुजफ्फरनगर २००१.०० २. श्रीमती भंवरीदेवी सुपुत्री स्व. श्री ताराचन्दजी मंगवाल जयपुर २०००.०० ३. श्रीमती शकंतलादेवी व.प. श्री विजय प्रतापजी जैन कानपुर १००१.०० ४. श्री के. सी. सोगानी
ब्यावर १००१,०० ५. श्री छोटाभाई भीखाभाई मेहता
बम्बई
१००१.०० ६. श्रीमती प्यारीबाई ध.प. श्री मारणकचन्दजी जैन मुंगावली १०००.०० ७. श्रीमती किरण कुमारी जैन
चण्डीगढ़ १००.०० ८. श्री दिगम्बर जैन मन्दिर
लवासा ६. श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मण्डल
कानपुर ५५१.०० १०. श्री महिला मुमुक्षुमण्डल श्रीबुधु ब्याँ सिंघईजी का मन्दिर सागर' ११. श्रीमती भंवरीदेवी घ.प. श्री घीसालालजी छाबड़ा सीकर
५०१.०० १२. श्रीमती बसलीदेवी घ.प. श्री हरकचन्दजी छाबड़ा बम्बई
५०१.०० १३. श्रीमती नारायणीदेवी ध.प. श्रीगुलाबचन्दजी रारा दिल्ली १४. श्री हुलासमलजी कासलीवाल
कलकत्ता ५०१.०० १५. श्री भैयालालजी बंद
उजनेर
५०१.०० १६. श्री प्रमोदकुमार विनोदकुमारजी जैन
हस्तिनापुर ५०१.०० १७. श्री माणकचन्द माधोसिंहजी सांखला
जयपुर
५०१.०० १८. श्री चतरसेन अमीतकुमारजी जैन
रुड़की १६. श्री सोहनलालजी जैन, जयपुर प्रिण्टर्स
जयपुर
५०१,०० २०. श्री इन्दरचन्दजी विजयकुमारजी कौशल
छिन्दवाड़ा ५०१.०० २१. श्रीमती सुमित्रा जैन ध.प. श्री नरेशचन्दजी जैन मुजफ्फरनगर ५०१.०० २२. श्रीमती किरण जैन ध.प. श्री सुरेशचन्दजी जैन मुजफ्फरनगर ५०१.०० २३. श्रीमती त्रिशला जैन ध.प. श्री रमेशचन्दजी जैन मुजफ्फरनगर ५०१:०० २४. श्रीमती उषा जैन घ.प. श्री अनिलकुमारजी जैन मुजफ्फरनगर ५०१.०० २५. श्री राजेश जैन (टोनी)
मुजफ्फरनगर ५०१.०० २६. श्री राजकुमारजी कासलीवाल
तिनसुखिया ५०१.०० २७. श्रीमती धादेवी घ.प. स्व. श्री केसरीमलजी सेठी नई दिल्ली ५०१.०० २८. श्री अजितप्रसादजी जैन
दिल्ली २६. श्री सुमे रमलजी जैन
तिनसुखिया ३०. श्री पूनमचन्द नेमचन्द जैन
बडौत
५०१.०० ३१, श्रीमती मोतीदेवी बण्डी ध.प. स्व. श्री उग्रसेनजी बण्डी उदयगर
५०१.००
२११२२.००
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३२. श्री कपूरचन्द राजमल जैन एवं परिवार
लवारण ३३. श्री छोटेलाल सतीशचन्दजी जैन
इटावा ३४. श्रीमती रंगूबाई ध.प. श्री उम्मेदमलजी भण्डारी सायला ३५. श्रीमती केसरदेवी घ.प. श्री जयनारायणजी जैन फिरोजाबाद ३६. श्री सुहास वसंत मोहिरे
बेलगांव ३७. श्री वीरेन्द्रकुमार बालचन्द जैन
पारोला ३८. श्रीमती केसरदेवी बण्डी
उदयपुर ३६. श्री मारणकचन्द प्रभुलालजी
कुरावड़ ४०. श्रीमती रत्नप्रभा सुपुत्री स्व. श्री ताराचन्दजी गंगवाल जयपुर ४१. श्री मारणकचन्द प्रभलालजी भगनोत
कुरावड़ ४२. श्री नेमीचन्दजी जैन भगरोनी वाले
शिवपुरी ४३. स्व. श्रीमती कुसुमलता एवं सुनंद बंसल रमति निधि हस्ते डॉ. राजेन्द्र बंसल
अमलाई ४४. श्री जयन्ति भाई धनजी भाई दोशी
दादर बम्बई ४५. श्रीमती धुडीबाई खेमराज गिडिया
बैंगगढ़ ४६. चौ० फूलचन्दजी जैन
बम्बई ४७. फुटकर
५०१.०० ५०१.०० ५००.०० ५००.०० ५००.०० ५००.०० ५००.०० ५००.०० ५००.०० ५००.०० ५००.००
१११.०० १०१.०० १०१.०० ५७७२.००
योग ३२८२०.००
हे भव्य हो ! बास्त्राभ्यास के अनेक अंग हैं। शब्द या अर्थ का वाचन या सीखना, सिखाना, उपदेश देना, दिद्यारना, सूनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, बारम्बार चर्चा करना इत्यादि अनेक अंग हैं.-वहाँ जैसे बने तसे अभ्यास करना । यदि सर्व शास्त्र का अभ्यास न बने तो इस शास्व में सुगम या दुर्गम अनेक प्रयों का निरूपण है, यहां जिसका बने उसका अभ्यास करमा । परन्तु अभ्यास में पालसी न होना।
-पं० भागचन्द जी
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका
मंगलाचरण, सामान्य प्रकरण प्रथमानुयोग पक्षपाती का निराकरण
योग पक्षपात का निराकरण द्रव्यानुयोग पक्षपाती का निराकरण शब्दशास्त्र पक्षपाती का निराकरण
पक्षपाती का निराकरण काम भोगादि पक्षपाती का निराकरण areerयास की महिमा
taurus संबंधी प्रकरण
कर्मकाण्ड संबंधी प्रकरण
प्रकरण
वणारा जंबंधी प्रम परिकर्माष्टक संबन्धी प्रकरण मंगलाचरण व प्रतिशा
भाषा टीकाकार का मंगलाचरण ग्रन्थकर्ता का मंगलाचरण व प्रतिज्ञा बीस प्ररूपणार्थी के नाम व सामान्य कथम
पहला अधिकार :
गुणस्थान- प्ररूपणा
गुलस्थानं और तद fare श्रदायिक
भावों का कथन
मिध्यात्व का स्वरूप
सासादने का स्वरूप
सम्यग्मिया का स्वरूप
असंगत का स्वरूप
संपत का स्वरूप
प्रमत का स्वरूप अप्रमत का स्वरूप
पूर्वकरण का स्वरूप प्रवृत्तिकरण का स्वरूप
सूक्ष्मसराय का स्वरूप
विषय-सूची
१-६८
१
५.
६
&
११
१२
१३
१५
१७-३०
३१-४०
४६-४७
८० (५
५५-६८
६६-८६
६६०७५
७५-८१
८१-८६
८६-१७६
८६-- ६१
६१-६५
६५-६६
६६-१८
६८-१०३
१०५-१०४
१०४-१३२
१३२-१५३
१५३-१५६
१५६-१६०
१६०-१६७
उपशतिकषाय का स्वरूप
क्षीकषाय का स्वरूप सयोगकेवली का स्वरूप
प्रयोगकेवली का स्वरूप
सिद्ध का स्वरूप
"
दूसरा अधिकार : जीवसमास-प्ररूपणा
जीवसमास का लक्षण
जीवसमास के भेद
योनि अधिकार श्रवगाना अधिकार
तीसरा अधिकार : पर्याप्ति प्ररूपणा
प्राण-प्ररूपणा
प्राण का लअण, भेद, उत्पत्ति की सामग्री, स्वामी सधा एकेन्द्रियादि जीवों के प्राणों का नियम
पांचवा अधिकार :
संज्ञा - प्ररूपणा
१६७-१६० १६८
१६८ - १६९
१६६-१७६
१७६-१७९
१५०-२३४
१००-१८२
१८३-१९१
rettes aftera
ein द्वारा पर्याप्त अपर्याप्त का
स्वरूप व भेद
२६८-२७० पर्याप्ति मिति श्रपर्याप्ति का स्वरूप २७०-२७२ लब्धि तक का स्वरूप चौथा अधिकार :
२७२-२७६
gori अधिकार : गतिमार्ग-प्ररूपणा
१६१-१६८
१६८-२३४
२३५-२७६
२३५ - २६८
२७७-२८०
संज्ञा का स्वरूप, भेद, श्राहारादि संज्ञा
का स्वरूप तथा संज्ञाओं के स्वामी
मंगलाचरण और मार्गणाधिकार
के वर्णन की प्रतिज्ञा
मार्गणा शब्द की निरुक्ति का लक्षण
२७७-२८०
२६१-२८३
२५१-२८३
२४-३०६
२८४
२०४
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२८५
-=-.-.-...
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अंह मारपायों के नाम
प्रयोग केवली को मनोयोग की सातरमागणा, उसका स्वरूप व संध्या २८५-२६७ संभावना.
३६१-३६२ नारकादि मतिमार्गखा का स्वरूप २९७-३००... काययोग का स्वरूप व भेद सिद्धगति का स्वरूप
योग रहित प्रारमा का स्वरूप मारको जीपों की संख्या का कथन ३०२-३००
शरीर में कर्म नोफर्म का भेद
३७१ साता अधिकार:
प्रौधारिकादि शरीर के समयबद्ध की संख्या
३७२-३७४ इन्द्रिय मार्गणा प्ररूपणा ३०१-३२१
विनसोपचय का स्वरूप
३७५-३७६ मंगलाचरस, इन्द्रिय पाद की
प्रौदारिक पांछ शरीरों की निरुक्ति, इन्द्रिग के भेद ३०६-३१२ उत्कृष्ट स्थिति
३७६-३८ एकेन्द्रियादि जीवों की इन्द्रिय संन्या
औशरिक समय प्रबद्ध का स्वरूप ३८८-३८६ उनका विषय तथा क्षेत्र
औदारिकादि शरीर विषयक इन्दिय रहित जीवों का स्वरूप
विशेष कथन
३८६-४०० एकेन्द्रियापि जीवों की संस्था
योग मार्ग खानों में जीवों की संख्या ४०१-४०५ पाठक अधिकार :
दसवा अधिकार : ' कायमार्गणा-प्ररूपमा
वेदमार्गरपा-प्ररूपणा ४०६-४१३ मंगलाचरण, कायमार्गला का:
तीन वेद और उनके कारण व भेद ४०- स्वरूप. व भेद
३२२
वेद रहित जीव स्थावरकाय की उत्पति का कारण
३२३
वेद को अपेक्षा जीवों की संख्या सरीर के भेद, लक्षण और संख्या ३२४-३२८ ग्यारहवां अधिकार: सप्रतिष्टिस, प्रतिष्ठित जीवों का
कषायमार्गखा प्ररूपमा ४१४-४३५ स्वरूप
३२-३३०
मंगलाचरण तथा कथाय के साधारण वनस्पति का स्वरूप
निरूक्तिसिद्ध लक्षण, वसकायका प्ररूपण
शक्ति को अपेक्षा क्रोधादि के ४ वनस्पतियत् अन्य जीवों के प्रतिष्ठित
भेद तथा दृष्टांत गतियों के प्रथम तथा अप्रतिष्ठितपना
समय में श्रोधादि का नियम ४१४-४१६ स्थावरबास तथा प्रकाय जीवों के
कषाय रहित जीव
४१६-४२० शरीर का मस्कार
कषायों का स्थान कायरहित-सिद्धों का स्वरूप
कषायस्थानों का यन्त्र, कपास की पृथ्वीकायिक आदि जीवों की संख्या ३४१-३५१
अपेक्षा ीय संस्था
४३०-४३५ नव अधिकार :
बारहवां अधिकार: योगमार्गणा-अरूपणा ३५२-४०५ शाममागणा-अरूपमा ४३६-५७१ योग का सामान्य लक्षण,
ज्ञान का निरूक्तिसिद्ध सामान्य सक्षण, योग का विशेष लक्षण,
पोच ज्ञानों का भायोपशभिक क्षायिकयोग विशेषों का लक्षण
स्प से विभाग, मिथ्याज्ञान का यस प्रकार के राम का उदाहरण
कारण और स्वामी पूर्वक कथन
३५६-३५६ मिश्रमान का कारण और मनःपर्ययमन-वचन-योग के भेदों का कार
जाम का स्वामी, दृष्टांत द्वारा तीन
-amir
.-.
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मिथ्याशान का स्वरूप, मतिज्ञान का स्वरूप, उत्पत्ति प्राधि
४३८-४५० श्रुतज्ञान का सामान्य लक्षण, भेद ४५०-४ पविज्ञान, पर्यायसमास, अक्षरात्मक शुसज्ञान
४५३-४८१ श्रुतनिबद्ध विषय का प्रमाणा, अक्षरसमास, पदज्ञान, पद के अक्षरों का प्रमाण, प्रतिपत्तिक शुतज्ञान ४८१४६४ अनेक प्रकार के श्रुतज्ञान का विस्तृत स्वरूप, अंगजाह्य श्रुत के भेद, अक्षरों का प्रमाण, अंगों व यूकों के पदों की संख्या, श्रुतशाग का माहात्म्य, अवविज्ञान के भेद,
४८४-५२१ उसके स्वामी और स्वरूप, अवधि का द्रव्यादि चतुष्टय को अपेक्षा वर्णन, अवधि का सबसे अघन्य अध्य ५३७-५५४ नरकादि में अवधिका क्षेत्र मनःपर्ययज्ञान का स्वरूप, भेद, स्वामी और उसका द्रव्य फेवसझाल का स्वरूप, शानमाणा में जीवसंख्या
५६८-५७१ सेरहया अधिकार : संयममार्गरगा-प्ररूपणा ५७२-५८० संयम का स्वरूप और उसके पांच भेद, संयम की उत्पति का कारण देश संयम और असंयम का कारण, सामायिकादि ५ संयम का स्वरूप ५७४-५७७ देशधिरत, इन्द्रियों के अट्ठाईस विषय, संयम की अपेक्षा जीवसंख्या ५७७-५८० चौदहवां अधिकार : दर्शममार्गणा-प्ररूपणा ५५१-५५४ दर्शन का लक्षण, चक्षुदर्शन प्राबि ४ भेदों को कम से स्वरूप, दर्शन को अपेक्षा जीव संख्या
५८१-५२४ पंद्रहवी अधिकार: लेश्यामार्गणा-अरूपणा ५८५-६४४ लेश्या का लक्षण, लेश्यायों के निर्देश
मादि १६ अधिकार
५१५-१६ निर्वेषण, परी परिणाम, संश्रम, कर्म,
नया. ग, समानीक्षा लेण्या का कथन
__ ५८६-६१० संख्या, क्षेत्र, स्पर्श, काल, अन्तर, भाष और प्रल्पबहुत्व अपेक्षा लेश्या का कथन
६१०-६४३ लेण्या रहित मीच
१४३-६४४ सोलहवां अधिकार : भव्यमागणा-प्ररूपणा ६४५--६५७ भव्य, अभय का स्वरूप, मठयत्व प्रभव्यत्व से रहित जीव, भव्य गार्गस्था में जीवसंस्था
६४५-६४६ पांच परिवर्तन सतरहवां अधिकार : : सम्यक्त्यमार्गरणा-अरूपरा ६५-७२३ सम्यक्ष का स्वरूप, सात अधिकारी के द्वारा छह द्रव्यों के निरूपण का मिदेश
६५८-६५६ नाम, उपलक्षण, स्थिति, क्षेत्र, संख्या, स्थानस्वरूप, फलाधिकार द्वारा यह द्रव्यों का निरूपण
६५६-७०१ पंचास्तिकाय, नवपदार्थ, गुणस्थान श्रम से जीवसंख्या, राक्षिक यन्त्र ७०२-७०७ सपकादि की युगपत् सम्भव विशेष संख्या, सर्व संयमियों की संख्या, क्षायिक सम्यक्त्व, वेदक सम्यवत्व, उपशम सम्यक्ष
७०-७१६ पांच लब्धि, सभ्यवस्व ग्रहण के योग्य जीव, सम्यक्त्वमार्गणा के दूसरे भेद, सम्यक्त्यमार्गसा में जीवसंख्या ७१९-७२३ अठारहवां अविकार : संशीमार्गरगा-प्ररूपणा
७२४-७२५ मंझी, असंझी का स्वरूप, संशी असंशी की परीक्षा के चिन्ह
७२४ संशी मागणा में जीवसंख्या
७२५
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उन्नीसा अधिकार : श्राहारमारणा-अरूपरणा
७२६-७२४
साहार का स्वरूप आहारक नाहारक भेद, समुवात के भेद, समुद्घात का स्वरूप माहारक और अनाहारक का काल प्रमाण, आहारमार्गणा में जीवसंख्या ७२८-७२६ बीसवां अधिकार : जपयोग-प्ररूपणा
७३०-७३२ उपयोग का स्वरूप, भेद तथा सत्तर भेद, सातार मनाकार उपयोग की विशेषता उपयोगाधिकार में जीवसंख्या ७३०-७३२ इवकीसवां अधिकार: अन्तर्भावाधिकार
७३३-७५० गुणस्थान और मागंणा में मेष
प्ररूपणाओं का अन्तर्भाव, मार्गणाओं में जीवसमासादि
७२३-७४१ गुरास्थानों में जीवसमासादि मार्गणाओं में जीवसमास
७४१-७५० बाईसवां अधिकार: आरमायाधिकार
७५१-८५८ नमस्कार और मालापाधिकार के कहने की प्रतिज्ञा
७५१ गुणस्थान और भाषाओं के पालापों की संख्या, गुरवस्थानों में पालाप, नीम की विशेषता. बीस भेदों की योजना प्रावश्यक नियम - ७५१-७६५ बंध रचना
७६७-०५५ गुणस्थानातीत सिद्धों का स्वरूप, धीस भेदों के जानने का उपाय, अन्तिम आशीर्वाद
विषयजनित जो सुख है वह दुस्ख ही है क्योंकि विषय-सुख परनिमित्त से होता है, पूर्व और पश्चात् तुरन्त ही याकुलता सहित है और जिसके नाश होने के अनेक कारण मिलते ही हैं, आगामी नरकादि दुर्गगति प्राप्त करानेवाला है""ऐसा होने पर भी वह तेरी चाह अनुसार मिलता ही नहीं, पूर्व पुण्य से होता है, इसलिए विषम है। जैसे खाज से पीड़ित पुरुष अपने अंग को कठोर वस्तु से खुजाते हैं वैसे ही इन्द्रियों से पीड़ित जीव उनको पीड़ा सही न जाय तब किंधितमात्र जिनमें पीडा का प्रतिकार सा भासे ऐसे जो विषयसूख उनमें झपापात करते हैं, वह परमार्थ रूप सुख नहीं, और शास्त्राभ्यास करने से जो सम्बरज्ञान हुआ उससे उत्पन्न प्रानन्द, यह सच्चा सुख है। जिससे वह सुख स्वाधीन है, भाकुलता रहित है, किसी द्वारा नष्ट नहीं होता, मोक्ष का कारण है, विषम नहीं है। जिस प्रकार खाज की पीड़ा नहीं होती तो सहज ही सूखी होता, उसी प्रकार वहाँ इन्द्रिय पीड़ने के लिए समर्थ नहीं होती तब सहज ही सुख को प्राप्त होता है। इसलिए विषयसुख को छोड़कर शास्त्राभ्यास करना, यदि सर्वथा न छूटे तो जितना हो सके उतना छोड़कर शास्त्राभ्यास में तत्पर रहना।
इसी ग्रन्थ से
प्ठ- १३३१४
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प्राचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमलजीकृत सम्यतज्ञानचन्द्रिका
पीठिका
॥ मंगलाचरण ॥ बंदौं ज्ञानानंदकर, नेमिचन्द गुणकंद । माधव बंदित विमलपद, पुण्यफ्योनिधि नंद ।। १ ।। दोष दहन गुन गहन धन, परि करि हरि अरहंत । स्वानुभूति रमनी रमन, जगनायक जयवंत ॥२॥ सिद्ध सुद्ध साधित सहज, स्वरससुधारसधार। . समयसार शिव सर्वगत, मर्मत होहु सुखकार ॥ ३ ॥ जैनी वानी विविध विधि, वरनत विश्वप्रमान । स्यात्पद-मुद्रित अहित-हर, करहु · सफल कल्यान ॥ ४ ॥
मैं नमो नगन जैन जन, झान-ध्यान धन लीन । ... मैन मान बिन दान धन, एन हीन तन छीन ।। ५॥१
.. इहबिधि मंगल करन तै, सबविधि मंगल होत । . :. : होत उदंगल दूरि सब, तम ज्यौं भानु उदोत ।। ६ ।।
-:: : : सामान्य प्रकरण . . .
अथ मंगलाचरण करि श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ, ताकी देशभाषामयी टीका करने को उद्यम, करी हौं । सो यहु ग्रंथसमुद्र तौ ऐसा है जो 'सतिशय बुद्धि-बल संयुक्त जीवनि करि भी जाका अवगाहन होना दुर्लभ है । पर मैं मर्दबुद्धि अर्थ प्रकाशनेरूप याकी टीका करनी विचारौं हौं ।
.. सो यह विचार ऐसा भया जैसे को अपने मुख ते जिनेंद्रदेव' का सर्व गुण वर्णन किया चाहै, सो कैसे बने ?
इहां कोऊ कहै - नाहीं बन है तो उद्यम काहे कौं करौ हौ ? - . .ताकौं कहिये है - जैसे जिनेंद्रदेव के सर्व गुरग कहने की सामध्ये नाही, तथापि भक्त पुरुष भक्ति के वश तें अपनी बुद्धि अनुसार गुरण वर्णन कर, तैसें इस ग्रथ का संपूर्ण अर्थ प्रकाशने की सामर्थ्य नाहीं। तथापि अनुराग के वशं ते मैं अपनी बुद्धि अनुसार ( गुण )२ अर्थ प्रकाशोगा। १. यह चित्रालंकारयुक्त हैं। २. गुण शब्द ए प्रति में मिला।
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[सामान्य करा
बहुरि कोऊ कहे कि - अनुराग है तो अपनी बुद्धि अनुसार ग्रंथाभ्यास करो, ifafa harer करने का अधिकारी होना युक्त नाहीं ।
ता कहिये है जैसे किसी शिष्यशाला विषे बहुत बालक पढ़ें हैं । तिनिविषै कोऊ बालक विशेष ज्ञान रहित हैं, तथापि अन्य बालकनि तैं अधिक पढ़ा है, सो आप थोरे पढ़ने वाले बालकनि कौं अपने समान ज्ञान होने के अर्थि किछू लिखि देना श्रादि कार्य का अधिकारी हो है । तैसे मेरे विशेष ज्ञान नाहीं, तथापि काल दोष ते मोतें भी मंदबुद्धि हैं, पर होंहिगे । तिनिकै मेरे समान इस ग्रंथ का ज्ञान होने के अथ टीका करने का अधिकारी भया हो । बहुरि कोऊ कहें कि यह कार्य करना तो विचारचा, परन्तु जैसे छोटा मनुष्य बड़ा कार्य करना विचारे, तहां उस कार्य विषं चूक होई ही, तहां वह हास्य कीं पात्र है। तुम भी मंदबुद्धि होय, इस ग्रंथ की टीका करनी विचारी हों सो चूक होगी, तहां हास्य को पावोगे ।
"
२]
ता कहिये है यह तो सत्य है कि मैं संदबुद्धि होइ ऐसे महान ग्रंथ की टीका करनी विचास हौं, यो चूक तो हो, परन्तु सज्जन हास्य नाहीं करेंगे । जैसे श्रीरनि ते अधिक पढ़या बालक कहीं भूले तब बड़े ऐसा विचार हैं कि बालक है, भूल ही भूल, परंतु और बालकनि तै भला है, ऐसे विचारि हास्य नाहीं करे हैं । तैसे मैं इहां कहीं भूलोंगा तहां सज्जन पुरुष ऐसा विचारेंगे कि मंदबुद्धि था, सो भूल ही भूले, परंतु केलेइक श्रुतिमंदबुद्धीनि तं भला है, ऐसे विचारि हास्य न करेंगे । करेंगे, परन्तु दुर्जन तो हास्य करेंगे ?
सज्जन तो हास्य न ताकौं कहिये है कि
दुष्ट तो ऐसे ही हैं, जिनके हृदय विषै औरनि के निर्दोष भले गुण भी विपरीतरूप ही भासे । सो उसका भय करि जायें अपना हित होय ऐसे कार्य को कौन त करेगा ?
बहुरि कौक कहै कि - पूर्व ग्रंथ थे ही, तितिका अभ्यास करने करावने ते ही हित हो है, मंदबुद्धि करि ग्रंथ की टीका करने की महतता काहेको प्रगट कीजिये ? ता कहिये है कि ग्रंथ अभ्यास करते ते ग्रंथ की टीका रचना करने विषै उपयोग विशेष लाई है, अर्थ भी विशेष प्रतिभ्रास है । बहुरि अन्य जीवनि को प्रथ अभ्यास कराव का संयोग होना दुर्लभ है। घर संयोग होइ तो कोई ही जीव के अभ्यास होइ । श्रर ग्रंथ की टीका बने तो परंपरा अनेक जीवति के अर्थ का ज्ञान होइ । ता अपना र अन्य जीवनि का विशेष हित होने के साथ टीका करिये है, मतता का तो कछू प्रयोजन नाहीं ।
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सम्यानचन्द्रिका पीठिका
बहुरि कोऊ कहै कि इस कार्य विर्षे विशेष हित. हरे है सो सत्य, परंतु मंदबुद्धि तें कहीं भूलि करि अन्यथा अर्थ लिखिए, तहां मह्त् पाप उपजने ते अहित भी तो होइ ?
ताकौं कहिए है - यथार्थ सर्व पदार्थनि का ज्ञाता तो केवली भगवान हैं। औरनि के ज्ञानावरण का क्षयोपशम के अनुसारी ज्ञान है, तिनिकौं कोई अर्थ अन्यथा भी प्रतिभासै, परंतु जिनदेव का ऐसा उपदेश है: - कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रनि के वचनाकी प्रतीति करि वा हठ करि वा क्रोध, मान, माया; लोभ करि का हास्य, भयादिक: करि जो अन्यथा श्रद्धान. करै वा उपदेश-देइ, सो-महापापी है । पर विशेष ज्ञानवान गुरु के निमित्त बिना, वा अपने विशेष भयोपशम बिना कोई सूक्ष्म अर्थः अन्यथा प्रतिभास पर यहु ऐसा जाने कि जिनदेव का उपदेश ऐसे ही है, ऐसा जानि कोई सूक्ष्म अर्थ कौं अन्यथा श्रद्धे है वा उपदेश दे तो याकौं महत् पाप न होइ । सोइ इस ग्रंथ विय भी प्राचार्य करि कहा है -
सम्माइट्ठी जोवो, उपइट्ठ पवयणं तुः सद्दहदि ।
सद्दहदि असम्भावं, प्रजारामाणो गुरुरिणयोगा ॥२७॥ जीवकांड ।।
बहुरि को कहै कि - तुम विशेष ज्ञानी ते ग्रंथ का यथार्थ सर्व अर्थ का निर्णय करि टीका करने का प्रारंभ क्यों न कीया ?
ताकौं कहिये है - काल दोष तें केवली श्रुतकेवली का तौ इहां अभाव ही भया । बहुरि विशेष ज्ञानी भी विरले पाइए । जो कोई है तो दुरि क्षेत्र विर्षे हैं, तिनिका संयोग दुर्लभ । पर आयु, बुद्धि, बल, पराक्रम प्रादि तुच्छ रहि गए: । ताते जो बन्या सो अर्थ का निर्णय कीया, अवशेष जैसे है तैसे प्रमाण हैं।
बहुरि को कहै कि - तुम कही सो सत्य, परंतु: इस ग्रंथ विर्षे जो चूक होइगी, ताके शुद्ध होने का किछु उपाय भी है ? .
ताकौं कहिये है - एक उपाय यहु कीजिए है. - जो विशेष ज्ञानवान पुरुधनि का प्रत्यक्ष तौ संयोग नाहीं, तातै परोक्ष ही तिनिस्यों ऐसी बीनती करौ हौं कि मैं मंद बुद्धि हौं, विशेषज्ञान रहित हौं, अविवेकी हौं, शब्द, न्याय, गणित, धार्मिक आदि ग्रंथनि का विशेष अभ्यास मेरे नाहीं हैं, तातो शक्तिहीन हों; तथापि धर्मानुराग के वंश से टीका करने का विचार कीथा, सो यतः विर्षे जहां-जहां चूक होइ, अन्यथा अर्थ होई, तहां-तहां मेरे ऊपरि क्षमा करि तिस अन्यथा अर्थ की दुरि करि यथार्थ अर्थ लिखना ऐसे विनती करि जो चूक होइगी ताके शुद्ध होने का उपाय कीया है।
___बहुरि कोऊ कहै कि तुम टीका करती विचारी सो तो भला कीया, परंतु ऐसे महान ग्रंथनि की टीका संस्कृत ही चाहिये । भाषा विष याकी गंभीरता भास नाहीं।
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[ सामान्य प्रकरण शास्त्र विष कथन कहीं सामान्य है, कहीं विशेष है, कहीं सुगम है, कहीं कठिन है; तहां जो सर्व अभ्यास बने तो नीकै ही है, पर जो न बने तो अपनी बुद्धि के अनुसार और बने देखा ही अपास परी । अपने उपाय में आलस्य करना नाहीं ।
बहुरि से कहा - प्रथमानुयोग संबंधी कथादिक सूनै पाप से डर हैं, पर धर्मानुरागरूप हो हैं।
सो तहां तो दोऊ कार्य शिथिलता लीए हो हैं । इहां पाप-पुण्य के कारणकार्यादिक विशेष जानने ते ते दोऊ कार्य दृढता लिए हो हैं । ताते याका अभ्यास करना । ऐसें प्रथमानुयोग के पक्षपाती कौं इस शास्त्र का अभ्यास विर्षे सन्मुख कीया।
अब चरणानुयोग का पक्षपाती को है कि- इस शास्त्र विष कद्या जीव-कर्म का स्वरूप, सो जैसे है तैसें है ही, तिनिको जानें कहा सिद्धि हो है ? जो हिंसादिक का त्याग करि व्रत पालिए, वा उपवासादि तप करिए, बा अरहंतादिक की पूजा, नामस्मरण' प्रादि भक्ति करिए, वा दान दीजिए, वा विषयादिक स्यों उदासीन हूज इत्यादि शुभ कार्य करिए तो प्रात्महित होइ ! तातै इनका प्ररूपक चरणानुयोग का उपदेशादिक करना ।
ताकौं कहिए है - हे स्थूलबुद्धि ! ते प्रतादिक शुभ कार्य कहे, ते करने योग्य । ही हैं । परंतु ते सर्व सभ्यत्व विना अस है जैसे अंक बिना बिंदी । पर जीवादिक का स्वरूप जाने बिना सम्यक्त्व का होना ऐसा जैसे बांझ का पुत्र ! तातें जीवादिक जानने के अथि इस शास्त्र का अभ्यास अवश्य करना । बहुरि से जैसे व्रतादिक शुभ कार्य कहे अर तिनितें पुण्यबंध हो है । तैसें जीवादिक का स्वरूप जाननेरूप ज्ञानाभ्यास है, सो प्रधान शुभ कार्य है । यात सातिशय पुण्य का बंध हो है। बहुरि तिन व्रतादिकनि विर्षे भी ज्ञानाभ्यास की ही प्रधानता है, सो कहिए है
जो जीव प्रथम जीव समासादि जीवादिक के विशेष जान, पीछे यथार्थ ज्ञान करि हिंसादिक करें त्यागि व्रत धार, सोई व्रती है । बहुरि जीवादिक के विशेष जाने बिना कथंचित् हिंसादिक का त्याग तें आपकौं व्रती माने, सो प्रती नाहीं । ताते प्रत पालने विष ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है।
बहुरि तप दोय प्रकार है - एक बहिरंग, एक अंतरंग । तहां जाकरि शरीर का दमन होइ, सो बहिरंग तप है, अर जात मन का दमन होइ, सो अंतरंग तप है । इनि विर्षे बहिरंग तप से अंतरंग तप उत्कृष्ट है। सो उपवासादिक तौ बहिरंग तप है । ज्ञानाभ्यास अंतरंग तप है। सिद्धांत विर्षे भी छह प्रकार अंतरंग तपनि वि चौथा स्वाध्याय नाम तप का है । तिसत
--jrati
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-सभ्यरज्ञानन्तिकर पीठिका ]
उत्कृष्ट व्युत्सर्ग पर ध्यान ही है । तातै तप करने विधं भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है। बहुरि जीवादिक के विशेषरूप गुणस्थानादिकनि का स्वरूप जान ही अरहंतादिकनि का स्वरूप नीकै पहिचानिए है, वा अपनी अवस्था पहिलानिए है। ऐसी पहिचानि भए जो तीव्र अंतरंम भक्ति प्रकट हो है, सोई बहुत कार्यकारी है। बहुरि जो कुलक्रमादिक ते भक्ति हो है, सो किंचिन्मात्र ही फल की दाता है । तातै भक्ति विर्षे भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है ।
बहुरि दान चार प्रकार है -तिनिविर्षे आहारदान, औषधदान, अभयदान तौ तात्कालिक क्षुधा के दुःख कौं वा रोग के दुःख कौं, वा मरणादि भय के दुःख ही कौं दूर करै है । पर ज्ञानदान है सो अनंत भव संतान संबंधी दुःख दूर करने कौं कारण है । तीर्थकर, केवली, प्राचार्यादिकनि के भी शानदान की प्रवृत्ति है । तातै ज्ञानदान उत्कृष्ट है, सो अपने ज्ञानाभ्यास होइ तो अपना भला कर, पर अन्य जीवनि कौं ज्ञानदान देव । ज्ञानाभ्यास बिना शानदान देना कस होइ ? ताते दान विर्षे भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है।
बहुरि जैसे जन्म से ही केई पुरुष लिंगनि के घर गए - तहां तिन ठिगनि कौं अपने मान हैं । बहुरि कदाचित् कोऊ पुरुष किसी निमित्त स्यों अपने कुल का वा , लिंगनि का यथार्थ ज्ञान होने ते ठिगनि स्यों अंतरंग विर्ष उदासीन भया, तिनिकों पर जानि संबंध छुड़ाया चाहै है। बाह्य जैसा निमित्त है तैसा प्रवत्तँ है । बहुरि कोऊ पुरुष तिन ठिगनि कौं अपना ही जानै है अर किसी कारण से कोऊ ठिग स्यों अनुरागरूप प्रवर्ते है । कोई ठिग स्यों लड़ि करि उदासीन भया श्राहारादिक का त्यागी होइ है ।
तैसें अनादि ते सर्व जीव संसार विर्षे प्राप्त हैं, तहां कर्मनि की अपने माने हैं ! बहुरि कोइ जीव किसी निमित्त स्यों जीव का अर कर्म का यथार्थ ज्ञान होने से कर्मनि स्यों उदासीन भया, तिनिकों पर जानने लगा, तिनस्यों संबंध छुड़ाया चाहै है। बाह्य जैसे निमित्त है तैसें वत्त है। ऐसें जो ज्ञानाभ्यास तें उदासीनता होइ
सोई कार्यकारी है । बहुरि कोई जीव तिन कर्मनि कौं अपने जान है । पर किसी . कारण तें कोई शुभ कर्म स्यों अनुराग रूप प्रयतॆ है । कोई अशुभ कर्म स्यों दुःख का कारण जानि उदासीन भया विषयादिक का त्यागी हो है । ऐसें ज्ञान बिना जो उदासीनता होई सो पुण्यफल की दाता है, मोक्ष कार्य कौं न साधे है । तातै उदासीनता विष भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है । याही प्रकार अन्य भी शुभ कार्यनि विर्षे ज्ञानाभ्यास ही प्रधान जानना । देखो ! महासुनीनि के भी ध्यान-अध्ययन दोय ही कार्य मुख्य हैं । तात शास्त्र अध्ययन ते जीव-कर्म का स्वरूप जानि स्वरूप का ध्यान करना।
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८]
[ सामान्य प्रकर
बहुरि इहां कोऊ तर्क करें कि कोई जीव शास्त्र अध्ययन तो बहुत करें है । अर विषयादि का त्यागी न हो हैं, तार्क शास्त्र अध्ययन कार्यकारी है कि नाही ? जो है तो महंत पुरुष काहेको विषयादिक तजें, घर नाहीं हैं तो ज्ञानाभ्यास का महिमा कहां रह्या ?
ताका समाधान - शास्त्राभ्यासी दोय प्रकार हैं, एक लोभार्थी, एक धर्मार्थी । तहां जो अंतरंग अनुराग बिना ख्याति-पूजा- लाभादिक के अथि शास्त्राभ्यास करें, सो लोभार्थी है, सो विषयादिक का त्याग नाही करें है । अथवा ख्याति, पूजा, लाभादिक अथिविषयादि का त्याग भी करें है, तो भी ताका शास्त्राभ्यास कार्यकारी नाहीं ।
बहुरि जो अंतरंग अनुराग से आत्म हित के अथि शास्त्राभ्यास करें है, सो धर्मार्थी है । सो प्रथम तो जैन शास्त्र ऐसे हैं जिनका धर्मार्थी होइ अभ्यास करें, सो विषयादिक का त्याग करें ही करें। तार्क लौ ज्ञानाभ्यास कार्यकारी है ही । बहुरि कदाचित् पूर्वकर्म का उदय की प्रबलता तें न्यायरूप विषयादिक का त्याग न बने है तौ भी ताकेँ सम्यग्दर्शन, ज्ञान के होने ते ज्ञानाभ्यास कार्यकारी हो है । जैसे असंयत गुणस्थान विषैदिक को संभव है ।
sri प्रश्न - जो धर्मार्थी होइ जैन शास्त्र अभ्यास, ताकै विषयादिक का त्याग न होइ सो यहु तौ बने नाहीं । जातै विषयादिक के सेवन परिणामनि तें हो है, परिणाम स्वाधीन हैं ।
तहाँ समाधान - परिणाम ही दोय प्रकार है । एक बुद्धिपूर्वक, एक प्रबुद्धिपूर्वक | तहां अपने अभिप्राय के अनुसारि होइ सो बुद्धिपूर्वक । अर देव - निमित्त तं अपने अभिप्राय तें अन्यथा होइ सो अबुद्धिपूर्वक जैसे सामायिक करतें धर्मात्मा का अभिप्राय ऐसा है कि मैं मेरे परिणाम शुभरूप राखों । तहां जो शुभपरिणाम ही हो सो तो बुद्धिपूर्वक । र कर्मोदय ते स्वयमेव अशुभ परिणाम होइ, सो अबुद्धिपूर्वक जानने । तैसे धर्मार्थी होइ जो जैन शास्त्र अभ्यासे है ताको अभिप्राय तौ विषयादि का त्याग रूप वीतराग भाव का ही होइ, तहां वीतराग भाव होइ, तो बुद्धिपूर्वक है । यर चारित्रमोह के उदय ते सराग भाव हो तो अबुद्धि पूर्वक है । तातें बिना वश जे सरागभाव हो हैं, तिनकरि ताकेँ विषयादिक की प्रवृत्ति देखिये है । जातें बाह्य प्रवृत्ति को कारण परिणाम है।
इहां तर्क- जो ऐसे हैं तो हम भी विषयादिक सेवेंगे अर कहेंगे - हमारे उदयाधीन कार्य हो है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
ताकौं कहिये है - रे मूख ! किंछ कहने से होता नाहीं ! सिद्धि ती, अभिप्राय के अनुसारि है । तातें जैन शास्त्र के अभ्यास तें अपना अभिप्राय करें सम्यकरूप करना । पर अंतरंग विष विषयादिक सेबन का अभिप्राय होत तौ धर्मार्थी नाम पावै नाहीं।
ऐसें चरणानुयोग के पक्षपातो कौं इस शास्त्र का अभ्यास विर्षे सन्मुख कीया।
अब द्रव्यानुयोग का पक्षपाती कहै हैं किं - इस शास्त्र विष जीव के गुणस्थानादिक रूपं विशेष अर कर्म के विशेष वर्णन किए; तिनकौं जाने अनेक विकल्प तरंग उ, अर किछु सिद्धि नाहीं । तातें अपने शुद्ध स्वरूप की अनुभवना वा अपना अरे पर का भेदविज्ञान करना -- इतना ही कार्यकारी हैं। अथवा इनके उपदेशक जे अध्यात्मशास्त्र, तिनका ही अभ्यास करना योग्य हैं ।।
ताकौं कहिये है - हे सूक्ष्माभासबुद्धि ! हैं कहाँ सो सत्य, परंतु अपनी अवस्थी देखनी । जो स्वरूपानुभव विष वा भेदविज्ञान विष उपयोग निरंतर रहै, तो काहेकौं अन्य विकल्प करने । तहां ही स्वरूपानंदसुधारस को स्वादी होइ संतुष्ट होना । परन्तु नीचली अवस्था वि तहाँ निरन्तर उपयोग रहै नाहीं । उपयोग अनेक अवलंबनि कौं चाहै है । तातै जिर्स काल तहां उपयोग न लागै, तब गुरणस्थानादि विशेष जानने की अभ्यास करना । .
बहुरि तें कहा कि - अध्यात्मशास्त्रनि का ही अभ्यास करना, सो युक्त ही है। परन्तु तहां भेदविज्ञान करने के अथि स्व-पर का सामान्यपर्ने स्वरूप निरूपण है । और विशेष ज्ञान बिना सामान्य का जानना स्पष्ट होइ नाहीं । तातै जीव के अर कर्म के विशेष नीक जाने ही स्व-पर का जानना स्पष्ट हो है । तिस विशेष जानने की इस शास्त्र का अभ्यास करना । जातै सामान्य शास्त्र ते. विशेष शास्त्र बलवान है । सो ही कह्या है- “सामान्यशास्त्रतो नून विशेषो बलवान् भवेत् ।" .
_ इहाँ वह कहै है कि - अध्यात्मशास्त्रनि विर्षे तो गुणस्थानादि विशेषनिकरि रहित शुद्धस्वरूप का अनुभवना उपाय कह्या है । इहाँ गुणस्थानादि सहित जीव का वर्णन है । तात अध्यात्मशास्त्र अर इस शास्त्र विर्षे तो विरुद्ध भास है, सो कैसे है ?
.. ताकौं कहिये है नय दोय प्रकार है - एक निश्चय, एक व्यवहार । तहां निश्चयनय करि जीव का स्वरूप गुणस्थानादि विशेष रहित अभेद वस्तु मात्र ही हैं । अर व्यवहारनयं करि गुणस्थानादि विशेष संयुक्त अनेक प्रकार है । तहां जे जीव सर्वोत्कृष्ट, अभेद, एक स्वभाव' कौं अनुभव हैं; तिनकों तौ तहां शुद्ध उपदेश रूप जो शुद्ध निश्चयनयं सो ही कार्यकारी है।
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[ सामान्य प्रकरही.
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meani---
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बहुरि जे स्वानुभव दशा कौं न प्राप्त भए, वा स्वानुभवदशा त छुटि सविकल्प दंशा कौं प्राप्त भए ऐसे अनुस्कृष्ट जो अशुद्ध स्वभाव, तिहि विष तिष्ठते जीव, तिनको व्यवहारनय प्रयोजनवान है। सोई प्रात्मख्याति अध्यात्मशास्त्र विर्षे कहा है
सुखो सुद्धादेसो, णादव्यो परमभावदरसोहि । . ... ववहारदेसिदो पुरण जे दु अपरमेट्टिवा भावे ॥१ . . इस सूत्र की व्याख्या का अर्थ विचारि देखना। ... , बहुरि सुनि ! तेरे परिणाम स्वरूपानुभव दशा विर्षे तौ प्रवर्ते नाहीं। अर विकल्प जानि गुणस्थानादि भेदनि का विचार न करेगा तो तू इतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट होय अशुभोपयोग ही (विर्षे) प्रवर्तगा, तहां तेरा बुरा होयगा ।
बहुरि सुनि ! सामान्यपनें तो वेदांत आदि शास्त्राभासनि विर्षे भी जीय का स्वरूप शुद्ध कहैं हैं, तहां विशेष जाने बिना यथार्थ-अयथार्थ का निश्चय कैसे होय ? ताते गुणस्थानादि विशेष जाने जीव की शुद्ध, अशुद्ध, मिश्र अवस्था का ज्ञान होइ, तब निर्णय करि यथार्थ का अंगीकार करैः । बहुरि सुनि ! जीव का गुण ज्ञान है, सो विशेष जाने प्रात्मगुगत प्रकट होइ, अपना श्रद्धान भी हद होय । जैसें सम्यक्त्व है, सो केवलज्ञान भए परमावगाट नाम पाये है। तात विशेष जानना। -
बहुरि यह कहै है – तुम कहा सो सत्य, परंतु करणानुयोग से विशेष जाने भी द्रव्यलिंगी अनि अध्यात्म श्रद्धान बिना संसारी ही रहै। अर अध्यात्म अनुसारि तिर्यंचादिक के स्तोक श्रद्धान ते भी सम्यवत्व हो है। वा तुषमाष भिन्न इतना ही श्रद्धान तै शिवभूति मुनि मुक्त भया । ताते हमारी तो बुद्धि तें विशेष विकल्पचि का साधन होता नाहीं । प्रयोजनमात्र अध्यात्म अभ्यास करेंगे। __ याकौं कहिये है - जो द्रव्यलिंगी जैसें करणानुयोग ते विशेष जान है, तैसें अध्यात्मशास्त्रनि का भी ज्ञान वाक होय, परंतु मिथ्यात्व के उदय ते अयथार्थ साधन करै तौं शास्त्र कहा करै ? शास्त्रनि विर्षे तौ परस्पर विरुद्ध है नाहीं। कैसे ? सो कहिये है - करणानुयोगशास्त्रनि विर्षे भी अंर अध्यात्मशास्त्रनि विर्षे भी रागादिक भाव प्रात्मा के कर्म निमित्त ते उपजे कहे । द्रव्यलिंगी तिनका पाप कर्ता हुवा प्रवर्ते है । बहुरि शरीराश्रित सर्व शुभाशुभ क्रिया पुद्गलमय कहीं। द्रव्यलिंगी अपनी जानि बिनविर्षे स्यजन, ग्रहण बुद्धि करै है । बहुरि सर्व ही शुभाशुभ भाव, आस्रव बंध के कारण कहे। द्रव्यलिंगी शुभभावन को संवर, निर्जरा, मोक्ष का कारण मान है । बहुरि १. समयसार, गाथा १२
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सभ्यशामतिका पोठिका। शुद्धभाव संवर, निर्जरा, मोक्ष का कारण कहा, ताकौं व्यलिंगी पहिचान ही माहीं । बहुरि शुद्धात्मस्वरूप मोक्ष कह्या, ताका द्रव्यलिंगी के यथार्थ ज्ञान नाहीं । ऐसे अन्यथा साधन करै तौ शास्वनि का कहा दोष है ?
बहुरि ते तिर्यंचादिक के सामान्य श्रद्धान ते कार्यसिद्धि कही, सो उनके भी अपना क्षयोपशम अनुसारि विशेष का जानना हो हैं । अथवा पूर्व पर्यायनि विर्षे विशेष धीरः था, जिस संस्कार के बल ते हो हैं । बहुरि जैसे काहने कहीं गडचा धन पायर, सो हम भी ऐसे ही पावैगे, ऐसा मानि सब. ही कौं व्यापारादिक का त्यजम न करना । तैसें काहून स्तोक श्रद्धान ते ही कार्य सिद्ध किया तो हम भी ऐसे ही कार्य सिद्धि करेंगे - ऐसे मानि सर्व ही को विशेष अभ्यास का त्यजन करना योग्य नाही, जाते यह राममार्ग नाहीं । राजमार्ग तो बहु ही है - नानाप्रकार विशेष जानि तत्त्वनि का निर्णय भए ही कार्यसिद्धि हो हैं। . . ' बहुरि से कहा, मेरी बुद्धि में विकल्पसाधन होता नाहीं, सो जेता बने तेता ही अभ्यास कर । बहुरि तू पापकार्य विषं तो प्रवीण, पर इस अभ्यास विर्षे कहै. मेरी बुद्धि नाहीं, सो यहु लौ पापी का लक्षरण है ।
ऐसे द्रव्यानुयोग का पक्षशती कौं इस शास्त्र का अभ्यास विर्ष सन्मुख कीया ! अय अन्य विपरीत विचारवालों कौं समझाइए है ।
तहां शब्द शास्त्रादिक का पक्षपाती बोल है कि - व्याकरण, न्याय, कोश, छंद, अलंकार, काव्यादिक ग्रंथनि का अभ्यास करिए तो अनेक ग्रंथान का स्वयमेव ज्ञान होय वा पंडितपना प्रगट होय । अर इस शास्त्र के अभ्यास तें तो एक याही का ज्ञान होय वा पंडितपना विशेष प्रकट न होय, तातै शब्द-शास्त्रादिक का अभ्यास करना।
ताकौं कहिये है - जो तु लोक विर्षे ही पंडित कहाया चाहै है तो तू तिन ही का अभ्यास किया करि । पर जो अपना कार्य किया चाहै है तो ऐसे जैनग्रन्थनि का अभ्यास करना ही योग्य है । बहुरि जैनी तो ज़ीवादिक तत्त्वनि के निरूपक जे जैनग्नन्थ तिन ही का अभ्यास भए पंडित मानये ।
बहरि वह कह है कि -- मैं जैनग्रंथनि का विशेष ज्ञान होने ही के अधिक व्याकरणादिवनि का अभ्यास करौं हौं । ..ताकौं काहिए है - ऐसे है तो भले ही है, परंतु इतना है जैसे स्याना खितहर अपनी शक्ति अनुसारि हलादिक तं थोड़ा बहुत · खेत कौं संवारि समय विर्षे बीज
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[ सामान्य प्रकरण बोवै तौ ताकी फल की प्राप्ति होइ । वैसे तू भी जो अपनी शक्ति अनुसारि व्याकरणादिक का अभ्यास ते थोरी बहुत बुद्धि को संबारि यावत् मनुष्य पर्याय वा इंद्रियनि की प्रबलता इत्यादिक वर्ते हैं, तायत् समय विर्षे तत्वज्ञान को कारण जे शास्त्र, तिनिका अभ्यास करेगा तो तुझको सम्यक्त्वादि की प्राप्ति होगी।
बहरि जैसे अयाना खितहर हलादिक तें खेत कौं संवारता संवारता ही समय कौं खोवै, तौ ताकौं फलप्राप्ति होने की नाही, वृथा ही खेदखिन्न भया । तैसें तू भी जो व्याकरणादिक तें बुद्धि कौं संवारता संवारता ही समय खोवेगा तौ सम्यक्त्वादिक की प्राप्ति होने की नाहीं । वृथा ही खेदखिन्न भया । बहुरि इस काल विर्षे आयु बुद्धि आदि स्तोक हैं, तातै प्रयोजनमात्र अभ्यास करना, शास्त्रनि' का तौ पार है नाहीं। बहुरि सुनि ! केई जीव व्याकरणादिक का ज्ञानबिना भी तत्त्वोपदेशरूप भाषा शास्त्रनि करि, वा उपदेश सुनने करि, दा सीखने करि तत्त्वज्ञानी होते देखिये हैं । अर केई. जीव केवल व्याकरणादिक का ही अभ्यास विर्षे जन्म गमाव हैं, अर तत्त्वज्ञानी न होते देखिये हैं।
___ बहुरि सुनि ! व्याकरणादिक का अभ्यास करने ते पुण्य न उपजै है । धर्मार्थी होइ तिनका अभ्यास करै तौ किचित् पुण्य उपज । बहुरि तत्त्वोपदेशक शास्त्रनि का अभ्यास ते सातिशय महत् पुण्य उपजै है ! तातें भला यहु है - असे तत्त्वोपदेशक शास्त्रानि का अभ्यास करना । ऐसे शब्द शास्त्रादिक का पक्षपाती को सम्मुख किया ।
बहुरि अर्थ का पक्षपाती कहै है. कि - इस शास्त्र का अभ्यास किए कहा है ? सर्व कार्य धन ते बने हैं, धन करि ही प्रभावना आदि धर्म निपज हैं। धनवान के निकट अनेक पंडित आनि (आय) प्राप्त होइ । अन्य भी सर्वकार्यसिद्धि होइ । ताते धन उपजावने का उद्यम करना । . ताकौ कहिए है • रे पापी ! धन किछू अपना उपजाया तौ न हो है । भाग्य ते
हो है, सो ग्रंथाभ्यास प्रादि धर्म साधन तें जो पुण्य लिपजै, ताही का नाम भाग्य हैं। बहुरि धन होना है तो शास्त्राभ्यास किए कैसे न होगा ? अर न होना है तो शास्त्राभ्यास न किए कैसे होगा? तातें धन का होना, न होना तो उदयाधीन है। शास्त्राभ्यास विर्षे काहे की शिथिल हजै । बहुरि सुनि ! धन है सो तो विनाशीक है, भय संयुक्त है, पाप ते निपज है, नरकादिक का कारण है ।
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सम्यग्जान मन्दिका पीठिका
पर यह शास्त्राभ्यासरूप ज्ञानधन है. सो अविनाशी है, भय रहित है, धर्मरूप है, स्वर्ग मोक्ष का कारण है । सो. महंत पुरुष तो धनकादिक को छोड़ि शास्त्राभ्यास विषं लगे हैं । तु पापी शास्त्राभ्यास को छुड़ाय धन उपजावने की बड़ाई करै है, सो तु अनंत संसारी है।
बहरि ते. का. - प्रभावना आदि धर्म भी धन ही त हो हैं । सो प्रभावना आदि धर्म है सो किंचित सावद्य क्रिया संयुक्त हैं । तिसते. समस्त सावा रहित शास्त्राभ्यास रूप धर्म है, सो प्रधान है । ऐसें त होइ तो गृहस्थ अवस्था विर्षे प्रभावना अादि धर्म साधते थे, तिनि कौं छांडि संजमी होइ शास्त्रास्यास विर्षे काहे को लाग है ?. बहुरि शास्त्राभ्यास से प्रभावनादिक भी विशेष हो है ।
बहुरि से कहा - धनवान के निकट पंडित भी प्राति प्राप्त होइ । सो लोभी पंडित होई, अर अविवेकी धनवान होइ तहां ऐसे हो है । पर शास्त्राभ्यासवालों की तौ इंद्रादिक सेवा कर हैं । इहां भी बड़े बड़े महंत पुरुष दास होते देखिए हैं । ताते शास्त्राभ्यासवालौं हैं धनवान कौं महंत मत्ति जान ।
बहुरि तें कह्या - धन ते सर्व कार्यसिद्धि हो है । सो धन लें तो इस लोक संबंधी किछ विषयादिक कार्य ऐसा सिद्ध होइ, जातें बहुत काल पर्यत नरकादि दुःख सहने होइ । घर शास्त्राभ्यास ते ऐसा कार्य सिद्ध हो है जाते इहलोक विर्षे अर परलोक विषं अनेक सुखनि की परंपरा पाइए । तातें धन उपजायने का विकल्प छोड़ि शास्त्राभ्यास करना । पर जो सर्वथा ऐसें न बन ती संतोष लिए धन उपजादने का साधनकरि शास्त्राभ्यास विषं तत्पर रहना । ऐसें अर्थ उपजाबने का पक्षपाती कौं सन्मुख किया ।
बहरि कामभोमादिक का पक्षपाती बोले है कि - शास्त्राभ्यास करने विषं सुख नाहीं, बड़ाई नाहीं । तातें जिन करि इहां ही सुख उपजै ऐसे जे स्त्रीसेवना, खाना, पहिरना, इत्यादि विषम, तिनका सेवन, करिए । अथवा जिन करि यहां ही बड़ाई होइ ऐसे विवाहादिक कार्य करिए । - ताकौं कहिए है - विषयजतित जो सुख है तो दुःख ही है । जाते विषय..
सुख है, सो परनिमित्त त हो है । पहिले, पीछे, तत्काल प्राकुलता लिए है, जाके नाश होने के अनेक कारण, पाइए है । आगामी नरकादि दुर्गति कौं प्राप्त करणहारा है। ऐसा है तो भी तेरा चाह्या. मिले नाही, पूर्व पुण्य ते हो है, तातै विषम है । जैसे खालि करि पीडित पुरुष अपना अंग कौं. कठोर वस्तु तें खुजावे, तसे इंद्रियनि कारि
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[ सामान्य प्रकरण
पीड़ित जीव, तिनकी पीड़ा सही न जाय तब किंचिन्मात्र तिस पीडा के प्रतिकार से भासे - ऐसे जे विषयसुख तिन विर्षे झापात लेब है, परमार्थरूप सुख है नाहीं ।
बहुरि शास्त्राभ्यास करने से भया जो सम्यग्ज्ञान, तांकरि निपज्या जो प्रानन्य, सो सांचा सुख है । जातं सो सुख स्वाधीन है, आकुलता रहित है, काहू करि नष्ट न हो है, मोक्ष का कारण है. विषम नाहीं । जैसे खाजिन पौडै, तब सहज ही सुखी होइ, तैसें तहां इंद्रिय पोड़ने की समर्थ न होइ, तब सहज ही, सुख कौं प्राप्त हो है । तातै विषय सुख छोड़ि शास्त्राभ्यास करना । (जो) सर्वथा न छूटें तौ जेता बने तेता छोड़ि, शास्त्राभ्यास वि तत्पर रहना।
बहुरि से विवाहादिक कार्य विर्षे बड़ाई होने की कहो, सो केतेक दिन बड़ाई रहेगी ? जाकै अथि महापापारंभ करि नरकादि विषं बहुतकाल दुःख भोगना होइगा । अथवा तुझ से भी तिन कार्यनि विषं धन लगावनेवाले बहुत हैं, तासे विशेष बड़ाई भी होने की नाहीं।
बहुरि शास्त्राभ्यास से ऐसी बडाई हो है, जाकी सर्वजन महिमा करें, इंद्रादिक भी प्रशंसा करें अर परंपरा स्वर्ग मुक्ति का कारण है । तातै विवाहादिक कार्यनि का विकल्प छोड़ि, शास्त्राभ्यास का उद्यम राखना । सर्वथा न छूट तो बहुत बिकल्प न करना । ऐसें काम भोगादिक का पक्षपाती कौं शास्त्राभ्यास विर्षे सन्मुख किया । या प्रकार अन्य जीव भी जे विपरीत विचार तें इस ग्रंथ अभ्यास विर्षे अरुचि प्रगट करें, तिनकौं यथार्थ विचार से इस शास्त्र के अभ्यास विर्षे सन्मुख होना योग्य है।
इहां अन्यमती कहै है कि - तुम अपने ही शास्त्र अभ्यास करने की दृढ किया। हमारे मत विष नाना युक्ति आदि करि संयुक्त शास्त्र हैं, तिनका भी अभ्यास क्यों न कराइए ?
ताकौं कहिए है - तुमारे मत के शास्त्रनि विर्षे आत्महित का उपदेश नाहों । जाते कहीं शृगार का, कहीं युद्ध का, कहीं काम सेवनादि का, कहीं हिसादि का कथन है । सो ए तो बिना ही उपदेश सहज ही बनि रहें हैं। इनकौं तजै हित होई, ते तहां उलटे पोषे हैं, तातै तिनतै हित कैसे होइ ?
तहां वह कह है - ईश्वरने अस लीला करी है, ताकौं गावं हैं, तिसतै भला हो हैं ।
तहाँ कहिये है -- जो ईश्वर के सहज सुख न होगा, तब संसारीवत् लीला करि सुखी भया । जो (वह) सहज सुखी होता तो काहेको विषयादि सेवन वा
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शाद्रिका पीठिका |
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युद्धादिक करता ? जातें मंदबुद्धि हू बिना प्रयोजन चिमात्र भी कार्य न करें । ता जानिए है - वह ईश्वर हम सारिखा ही है, ताका जस गाएं कहा सिद्धि है ? aft ह क है कि हमारे शास्त्रनि विषै वैराग्य, त्याग, अहिंसादिक का भी तो उपदेश है।
तह कहिए है - सो उपदेश पूर्वापर विरोध लिए हैं । कही विषय पोषे हैं, कहीं निषेधे हैं । कहीं वैराग्य दिखाय, पीछे हिंसादि का करना पोष्या है । तहां वातुलवचन-वत् प्रमाण कहा ?
aft वह है है कि वेदांत यादि शास्त्रनि विषै तो तत्व ही का निरूपण है ।
तहां कहिए है - सो निरूपण प्रमाण करि बाधित, अयथार्थ है । ताका निराकरण जैन के न्यायशास्त्राने विष किया है, सो जानना । तातै श्रन्यमत के शास्त्र को अभ्यास न करना ।
ऐसे जीवन को इस शास्त्र के अभ्यास विषे सम्मुख किया, तिनको कहिए है
हे भव्य ! शास्त्राभ्यास के अनेक अंग हैं । शब्द का वा अर्थ का वांचना, या सीखना सिखावना, उपदेश देना, विचारता, सुनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, बार बार चरचा करना, इत्यादि अनेक अंग हैं। तहां जैसे बने तेसे अभ्यास करना । जो सर्व शास्त्र का अभ्यास न बने तो इस शास्त्र विषै सुगम वा दुर्गम अनेक... अनि का निरूपण है। तहां जिसका बनं तिसही का अभ्यास करना । परंतु अभ्यास विषै आलसी न होना ।
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देखो ! शास्त्राभ्यासकी महिमा, जार्कों होतें परंपरा श्रात्मानुभव दशा कौं प्राप्त होइ सो मोक्ष रूप फल निपजै है; सो तो दूर ही तिष्ठौ । शास्त्राभ्यास तें तत्काल ही इतने गुरा हो हैं । १ कोवादि कषायनि की तो मंदता हो हैं । २. पंचइंद्रियनि की विषयनि विषे प्रवृत्ति रुके है । ३. प्रति चंचल मन भी एकाग्र हो है । ४. हिंसादि पंच पाप न प्रवर्ते हैं । ५. स्तोक ज्ञान होतें भी त्रिलोक के त्रिकाल संबंधी चराचर पदार्थनि का जानना ही है । ६. हेयोपादेय की पहिचान हो है । ७. श्रात्मज्ञान सन्मुख हो है ( ज्ञान आत्मसन्मुख हो है ) । ८. श्रविक - अधिक ज्ञान होतें आनंद निपजे है । ६. लोकविषै महिमा, यश विशेष हो है । १०. सातिशय पुण्य का मंत्र हो है - इत्यादिक गुण शास्त्राभ्यास करतें तत्काल ही प्रगट होई हैं ।
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[ सामान्य प्रकरण सात शास्त्राभ्यास अवश्य करना । बहुरि है भव्य ! शास्त्राभ्यास करने का समय पावना महादुर्लभ है । काहे त ? सो कहिए हैं--
एकेद्रियादि अर्सझो पर्यंत जीवनि तौ मन ही नाही. । अर नारकी वेदना पीड़ित, तिर्यच विवेक रहित, देव विषयासक्त, तातै मनुष्यनि के अनेक सामग्री मिले शास्त्राभ्यास होइ । सो मनुष्य पर्याय का पावना ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि महादुर्लभ है।
तहां द्रव्य करि लोक विर्षे मनुष्य जीव बहुत थोरे हैं, तुच्छ; संख्यास मात्र ही हैं । अर अन्य जीवनि विर्षे निगोदिया अनंत हैं, और जीव असंख्याते हैं।
बहुरि क्षेत्र करि मनुष्यनि का क्षेत्र बहुत स्तोक है, अढाई द्वीप मात्र ही है। और अन्य जीवनि विर्षे एकैद्विनि का सर्व लोक हैं, औरनिका केते इक राजू प्रमाण है। बहुरि काल करि मनुष्य पर्याय विर्षे उत्कृष्ट रहने का काल स्तोर्क है, कर्मभूमि अपेक्षा पृथक्त्व कोटि पूर्व मात्र ही है । पर अन्य पर्यायनि विष उत्कृष्ट रहने का काल -- एकद्रिय विर्षे तो असंख्यात पुद्गल परिर्वतन मात्र, और और विर्ष संख्यातपल्यै मात्र है।
बैहरि भाव करि ती शुभाशुभपनी कार रहित ऐसें मनुष्य पर्याय को कारण परिणाम होने अति दुर्लभ हैं। अन्य पर्याय को कारण अशुभैरूप' वा शुभरूफ परिणाम होने सुलभ हैं। ऐसे शास्त्राभ्यास को कारण जो पर्याप्त कमभूमियों मनुष्य पर्याय, ताका दुर्लभंपनी जाना।
तहाँ सुवास, उच्चकुल, पूर्णायु, इंद्रियनि की सामर्थ्य, नीरोगपना, सुसंगति धर्मरूप अभिप्राय, बुद्धि की प्रबलता इत्यादिक का पावना उत्तरोत्तर महादुर्लभ है । सो प्रत्यक्ष देखिए है । पर इतनी सामग्री मिले बिना ग्रंथाभ्यास बनै नाहीं । सो तुम भाग्यकरि यहु अवसर पाया है ! तातें तुमको हठ करि भी तुमारे हित होने के अथि प्रेरै हैं । जैसे बने तैसें इस शास्त्र का अभ्यास करो। बहुरि अन्य जीवनि को जैसे बने तैसे शास्त्राभ्यास करावौ । बहुरि जे जीव शास्त्राभ्यास करते होइ, तिनकी अनुमोदना करहुँ । बहुरि पुस्तक लिखावना, वा पढ़ने, पढावनेवालों की स्थिरता करनी, इत्यादिक शास्त्राभ्यास की बाह्य कारण, तिनका साधन करना । जाते इनकरि भी परंपरा कार्यसिद्धि हो है वा महत्पुण्य उपजे है ।
ऐसें इस शास्त्र का अभ्यासादि विषं जीवनि को रुचिवान किया।
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गोम्मटसार जोक्काण्ड सम्बन्धी प्रकरण बहुरि जो यहु सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नामा भाषा टीका, तिहिविर्षे संस्कृत टीका ते कहीं अर्थ प्रकट करने के अथि, वा कहीं प्रसंगरूप, वा कहीं अन्य ग्रंथ का अनुसारि लेह अधिक भी कथन करियेगा। पर कहीं अर्थ स्पष्ट न प्रतिभासंगा, तहां न्यून कथन होइगा ऐसा जानना । सो इस भाषा टीका विर्षे मुख्यपनै जो-जो मुख्य व्याख्यान है, ताकौ अनुक्रमते संक्षेपता करि कहिए है ! जात याके जाने अभ्यास करनेवालों के सामान्यपनै इतना तो जानना होइ जो या वि ऐसा कथन है । अर ऋम जाने जिस व्याख्यान को जानना होइ, ताकौ तहां शीघ्र अवलोकि अभ्यास कर, बा जिनने अभ्यास किया होइ, ते याकौं देखि अर्थ का स्मरण करें, सो सर्व अर्थ की सूचनिका कीए तो विस्तार होई, कथन प्रागै है ही, तात मुख्य कथन की सूचनिका कम से करिए है।
तहाँ इस भाषा टीका विर्षे सुचनिका करि कर्माष्टक आदि गणित का स्वरूप दिखाइ संस्कृत टीका के अनुसारि मंगलाचरणादि का स्वरूप कहि मूल गाथानि की टीका कीजिएगा ! तहां इस शास्त्र विषं दोय महा अधिकार हैं - एक जीवकांड, एक कर्मकांड । तहां जीवकांड विधैं बाईस अधिकार हैं।
तिनिविर्षे प्रथम गुणस्थानाधिकार है । तिस विषं गुणस्थाननि का नाम, या सामान्य लक्षण कहि तिनिविर्षे सम्यक्त्व, चारित्र अपेक्षा प्रौदयिकादि संभवते भावनि का निरूपण करि क्रम मिथ्यादृष्टि आदि गुणास्थाननि का वर्णन है । तहां मिथ्यादृष्टि विष पंच मिथ्यात्वादि का सासादन विर्षे ताके काल वा स्वरूप का, मिश्र विर्षे ताके स्वरूप का वर मरमा न होने का, असंयत विष वेदकादि सम्यक्त्वनि का का ताके स्वरूपादिक का, देश संयत विर्षे ताके स्वरूप का वर्णन है । बहुरि प्रमत्त का कथन विषं ताके स्वरूप का अर पंद्रह बा अस्सी वा साढ़े सैंतीस हजार प्रमाद भेदनि का पर तहां प्रसंग पाइ संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट, समुद्दिष्ट करि बा गुढ यंत्र करि अक्षसंचार विधान का कथन है। जहाँ भेदनि को पलटि पलटि परस्पर लगाइए तहां अक्षसंचार विधान हो है । बहुरि अप्रमत्त का कथन विर्षे स्वस्थान . अर सातिशय दोय भेद कहि, सातिशय अप्रमत्त के अधःकरण हो है, ताके स्वरूप या काल वा परिणाम वा समय-समय संबंधी परिणाम वा एक-एक समय विष अनुकृष्टि विधान, वा तहां संभवते च्यारि आवश्यक इत्यादिक का विशेष वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ श्रेएी व्यवहार रूप गणित का कथन है । तिसविर्षे सर्वधन, उत्तरधन, मुख,
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[ সকলৰ জীৱষার ফী অক্ষয়
भूमि, चय, गच्छ इत्यादि संज्ञानि का स्वरूप वा प्रमाण ल्यावने कौ करणसूत्रनि का वर्णन है । बहुरि अपूर्वकरण का कायन विष ताके काल, स्वरूप, परिणाम, समयसमय संबंधी परिणामादिक का कथन है । बहुरि अनिवृत्तिकरण का कथन विर्षे ताकै स्वरूपादिक का कथन है । बहुरि सूक्ष्मसम्पराय का कथन विष प्रसंग पाइ कर्मप्रकृतिनि के अनुभाग अपेक्षा अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, गणहानि, नानागुणहानिनि का अर पूर्वस्पर्द्धक, अपूर्वस्पर्धक, बादरकृष्टि, सूक्ष्मकृष्टि का वर्णन है । इत्यादि विशेष कथन है सो जानना । बहुरि उपशांतकषाय, क्षीणकषाय का कथन विर्षे तिनके दृष्टांतपूर्वक स्वरूप का, सयोगी जिन का कथन विर्षे न केवललब्धि
आदिक का, अयोगी विष शैलेश्यपना आदिक का कथन है। ग्यारह गुणस्थाननि विर्षे गुणश्रेणी निर्जरा का कथन है। तहां द्रव्य की अपकर्षमा करि उपरितन स्थिति अर गुणश्रेणी प्रआयाम अर उदयावली विर्षे जैसे दीजिए है, ताका वा गुणश्रेणी आयाम के प्रमाण का निरूपण है। तहां प्रसंग पाइ अंतर्मुहुर्त के भेदनि का वर्णन है । बहुरि सिद्धनि का वर्णन है।
बहुत दूसरा धिकार विष - जीवसमास का अर्थ वा होने का विधान कहि चौदह, उगरणीस, वा सत्तावन, जीवसमासनि का वर्णन है । बहुरि च्यारि प्रकारि जीवसमास कहि, तहां स्थानभेद विर्षे एक आदि उगणीस पर्यंत जीवस्थाननि का, वा इन ही के पर्याप्तादि भेद करि स्थाननि का वा अठ्याणवै वा च्यारि से छह जीवसमासनि का कथन है । बहुरि योनि भेद विर्षे शंखावर्तादि तीन प्रकार योनि का, अर सम्मूर्च्छनादि जन्म भेद पूर्वक नव प्रकार योनि के स्वरूप वा स्वामित्व का अर चौरासी लक्ष योनि का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ च्यारि गतिनि विर्ष सम्मूर्छनादि जन्म वा पुरुषादि वेद संभव, तिनका निरूपण है । बहुरि अवगाहना भेद विर्षे सूक्ष्मनिमोद अपर्याप्त आदि जीवनि की जघन्य, उत्कृष्ट शरीर की अवगाहना का विशेष वर्णन है । तहां एकेद्रियादिक की उत्कृष्ट अवगाहना कहने का प्रसंग पाइ गोलक्षेत्र, संखक्षेत्र, पायत, चतुरस्रक्षेत्र का क्षेत्रफल करने का, अर अवगाहना विर्षे प्रदेशनि की वृद्धि जानने के अथि अनंतभाग अादि चतुःस्थानपतित वद्धि का, पर इस प्रसंग ते दृष्टांतपूर्वक षट्स्थानपतित आदि वृद्धि-हानि का, सर्व अवगाहना भेद जानने के अर्थि मत्स्यरचना का वर्णन है । बहुरि कुल भेद विर्षे एक सौ साढा निण्याणवै लाल कोडि कुलनि का वर्णन है।
बहुरि तीसरा पर्याप्त नामा अधिकार विष - पहले मान का वर्णन है। तहाँ लौकिक-अलौकिक मान के भेद कहि । बहुरि द्रव्यमान के दोय भेदनि विर्षे, संख्या
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1640MMeen
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सम्पज्ञानचन्द्रका पीठिका
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[ १९
मान विष संख्यात, असंख्यात, अनंत के इकईस भेदनि का वर्णन है । बहुरि संख्या के विशेष रूप चौदह धारानि का कथन है। तिनि विर्षे द्विरूपवर्गवारा, द्विरूपचनधारा द्विरूपधनाधनधारानि के स्थाननि विर्षे जे पाइए हैं, तिनका विशेष वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ पट्टी, बादाल, एकट्ठी का प्रमाण, अर बर्गशलाका,
अ दमि का स्वरूप, र अविभागप्रतिच्छेद का स्वरूप, वा उक्तम् च माथानि करि अर्धच्छेदादिक के प्रमाण होने का नियम, वा अग्निकायिक जीवनि का प्रमाण ल्यावने का विधान इत्यादिकनि का वर्णन है। बहुरि दूसरा उपमा मान के पल्य आदि आठ भेदनि का वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ व्यवहारपल्य के रोमनि की संख्या ल्यावने कौं परमाणू ते लगाय अंगुल पर्यंत अनुक्रम का, पर तीन प्रकार अंगुल का, पर जिस जिस अंगुल करि जाका प्रमाण वरिगए ताका, अर गोलगर्त के क्षेत्रफल ल्यावने का वर्णन है । पर उद्धारपल्य करि द्वीप-समुद्रनि की संख्या ल्याइए है । अद्धापल्यं करि प्रायु आदि वर्णिए है, ताका वर्णन है। पर सागर की सार्थिक संज्ञा जानने कौं, लवण समुद्र का क्षेत्रफल कौं मादि देकर वर्णन है । पर सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगत्त्रेणी, जगत्प्रतर, (जगत्थन)लोकनि का प्रमाग ल्याबने कौं बिरलन आदि विधान का वर्णन है। बहुरि पल्यादिक की वर्गशलाका अरु अर्धच्छेदनि का प्रमाण वर्णन है । तिनिके प्रमाण जानने को उक्तम् च गाथा रूप करणसूत्रनि का कथन है । बहुरि पीछे पर्याप्ति प्ररूपणा है । तहां पर्याप्त, अपर्याप्त के लक्षण का, पर छह पर्याप्तिनि के नाम का, स्वरूप का, प्रारंभ संपूर्ण होने के काल का, स्वामित्व का वर्णन है। बहुरि लब्धिअपर्याप्त का लक्षण, वा ताके निरंतर क्षुद्रभवनि के प्रमाणादिक का वर्णन है । तहां ही प्रसंग पाइ प्रमाण, फल, इच्छारूप त्रैराशिक गणित का कथन है । बहुरि सयोगी जिन के अपर्याप्तपना संभवने का, अर लब्धि अपर्याप्त, निर्वृति अपर्याप्त, पर्याप्त के संभवते गुणस्थाननि का वर्णन है ।
बहुरि चौथा प्राणाधिकार विर्षे - प्रागनि का लक्षरण, अर भेद, अर कारण पर स्वामित्व का कथन है। ... बहुरि पाँचमा संज्ञा अधिकार विर्षे - च्यारि संज्ञामि का स्वरूप, अर भेद, अर कारण, अर स्वामित्व का वर्णन है ।' - बहुरि छट्ठा मार्गणा महा अधिकार विषं - मार्गरणा की निरुक्ति का, अरः चीदह भेदनि का, अर सांतर मार्गणा के अंतराल का, अर प्रसंग पाइ तत्त्वार्थसूत्र टीका के अनुसारि नाना जीव, एक जीव अपेक्षा गुणस्थाननि विषै, अर गुणस्थान
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३० ]
[गोम्मटसार जीषकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण
अपेक्षा लिऐं मार्गणानि विर्षे काल का, अर अंतर का कथन करि छटा गति मार्गरणा अधिकार है । तहां गति के लक्षण का, अर भेदनि का अर च्यारि भेदनि के निरुक्ति लिए लक्षानि का, अर पाँच प्रकार तिर्यच , च्यारि प्रकार मनुष्यनि का अर सिद्धनि का वर्णन है । बहुरि सामान्य नारकी, जुदे-जुदे सात पृथ्वीनि के नारकी, अर पाँच प्रकार तिर्यच, च्यारि प्रकार मनुष्य, अर व्यंतर, ज्योतिषी, भवनवासी, सौधर्मादिक देव, सामान्य देवराशि इन जीवनि की संख्या का वर्णन है। तहां पर्याप्त मनुष्यनि की संख्या कहने का प्रसंग पाइ "कटपयपुरस्थवण" इत्यादि सूत्र करि ककारादि अक्षररूप अंक बा बिंदी की संख्या का वर्णन है ।
बहुरि सातमा इंद्रियमार्गणा अधिकार विर्ष - इंद्रियनि का निरुक्ति लिए लक्षरण का, अर-लब्धि उपयोगरूप भावेंद्रिय का, अर बाह्य अभ्यन्तर भेद लिए निवृत्ति-उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय का, अर इन्द्रियनि के स्वामी का, अर तिनके विषयभूत क्षेत्र का, अर तहां प्रसंग पाइ सूर्य के चार क्षेत्रादिक का अर इंद्रियनि के आकार का वा अवगाहना का, अर अतींद्रिय जीवनि का वर्णन है। बहुरि एकेन्द्रियादिकनि का उदाहरण रूप नाम कहि, तिनकी सामान्य संख्या का वर्णन करि, विशेषपने सामान्य एकेन्द्री, अर सूक्ष्म बादर एकेंद्री, बहुरि सामान्य अस, अर बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइंद्रिय, पंचेन्द्रिय इन जीवनि का प्रमाण, अर इन विर्षे पर्याप्त-अपर्याप्त जीवनि का प्रमाण वर्णन है।
बहरि पाठमा कायमार्गणा अधिकार विर्षे - काय के लक्षण का वा भेदनि का वर्णन है । बहुरि पंच स्थावरनि के नाम, अर काय, कायिक जीवरूप भेद, पर बादर, सूक्ष्मपने का लक्षणादि, पर शरीर की अवगाहना का वर्णन है। . .
___ बहुरि वनस्पती के साधारण प्रत्येक भेदनि का, प्रत्येक के सप्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित भेदनि का, पर तिनको अवगावहना का पर एक स्कंध विर्षे तिनके शरीरनि के प्रमाण का, अर योनीभूत बीज विर्षे जीव उपजने का, वा तहां सप्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित होने के काल का, अर प्रत्येक वनस्पती विर्षे सप्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जानने कौं तिनके लक्षण का, बहुरि साधारण वनस्पती निमोदरूप तहां जीवनि के उपजने, पर्याप्ति घरने, मरने के विधान का, अर निगोद शरीर की उत्कृष्ट स्थिति का, अरं स्कंध, अंडर, पुलवी, आवास, देह, जीव इनके लक्षण प्रमाणादिक का अर नित्यनिगोदादि के स्वरूप का वर्णन है । बहुरि श्रस जीवनि का अर तिनके क्षेत्र का वर्णन है। बहुरि वनस्पतीवत् औरनि के शरीर विर्षे सप्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठितपने का, अर स्थावर, बस
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सम्यग्शानका पीठिका।
जीवनि के आकार का, अर काय सहित, काय रहित जीवनि का वर्णन है। बहुरि अग्नि, पृथ्वी, अप, वात, प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित प्रत्येक-साधारण वनस्पती जीवनि की, अर तिनविर्षे सूक्ष्म-बादर जीवनि की, अर तिनविर्षे भी पर्याप्त-अपर्याप्त जीवनि की संख्या का वर्णन है। तहां प्रसंग पाई पृथ्वी आदि जीवनि की उत्कृष्ट प्रायु का वर्णन है। बहुरि त्रस जीवनि की, पर तिनविर्षे पर्याप्त-अपर्याप्त जीवनि की संख्या का वर्णन है । बहुरि बादरं अग्निकायिक आदि की संख्या का विशेष निर्णय करने के अथि तिनके अर्धच्छेदादिकं का, पर प्रसंग पाइ "विष्णछेदेणवाहिद" इत्यादिक करणसूत्र का वर्णन है।
बहुरि नवमा योगमार्गरणा अधिकार विर्षे - योग के सामान्य लक्षण का अर . सत्य आदि ज्यारि-च्यारि प्रकार मन, वचन योग का वर्णन है। तहां सत्य वचन का विशेष जानने कौं दश प्रकार सत्य का, अर अनुभय वचन का विशेष जानने कौं मामंत्रशी आदि भाषानि का, अर सत्यादिक भेद होने के कारण का, अर केवली के मन, वचन योग संभवने का अर द्रव्य मन के आकार का इत्यादि विशेष वर्णन है । बहुरि काय योग के सात भेदनि का वर्णन है। तहां प्रौदारिकादिकनि के. निरुक्ति पूर्वक लक्षण का, पर मिश्रयोग होने के विधान का, अर प्राहारंक शरीर होने के विशेष का, अर कार्माणयोग के काल का विशेष वर्णन है । बहुरि युगपत् योगनि की प्रवृत्ति होने का विधान वर्णन है । अर योग रहित प्रात्मा का वर्णन है । बहुरि पंच शरीरनि विर्षे कर्म-नोकर्म भेद का, अर पंच शरीरनि की वर्गणा वा समय प्रबद्ध विर्षे परमाणूनि का प्रमाण वा क्रम ते सूक्ष्मपना वा तिनकी अवमाहना का वर्णन है। बहुरि विस्नसोपचय का स्वरूप वा तिनकी परमारण नि के प्रमाण का वर्णन है। बहुरि कर्म-नोकर्म का उत्कृष्ट संचय होने का काल या सामग्री का वर्णन है । बहुरि औदारिक प्रादि पंच शरीरनि का द्रव्य तौ समय प्रबद्ध मात्र कहि । तिनकी उत्कृष्ट स्थिति, अर तहाँ संभवती गुरगहानि, नाना गुणहानि, अन्योन्याभ्यस्तराशि, दो गणहानि का स्वरूप प्रमाण कहि, करणसूत्रादिक तें तहां क्यादिक का प्रमाण ल्याय समय-समय संबंधी निषेकनि का प्रमाण कहि, एक समय विष केते परमाणु उदयरूप होइ निर्जरै, केते सत्ता विर्षे अवशेष रहैं, ताके जानने कौं अंकसंदृष्टि की अपेक्षा लिये त्रिकोण यंत्र का कथन है । बहुरि वैक्रियिकादिकनि का उत्कृष्ट संचय कौनकै कैसै होइ सो वर्णन है । बहुरि योगमार्गणा विर्षे जीवनि की संख्या का वर्णन विर्षे वैक्रियिक शक्ति करि संयुक्त बादर पर्याप्त अग्निकायिक, वातकायिक अर पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्यनि के प्रमाण का, पर भोगभूमियां आदि
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२२ ]
[ गोम्मटसार जोनका सम्बन्धी प्रकर
traft के पृथक् विक्रिया, और औरदि के अपृथक् विक्रिया हो है, ताका कथन है । बहुरि त्रियोगी, द्वियोगी, एकयोगी जीवनि का प्रमाण कहि त्रियोगीनि विषै माठ प्रकार मन-वचनयोगी पर काययोगी जीवन का, अर द्वियोगीनि विषै वचन काययोगीनि का वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ सत्यमनोयोगादि वा सामान्य मन-वचन-काय योगft के काल का वर्णन है । बहुरि काययोगीनि विषै सात प्रकार काययोगीनि का जुदा-जुदा प्रमाण वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ प्रदारिक, प्रौदारिकमिश्र, कार्माण के काल का, वा व्यंतरनि विषे सोपक्रम, अनुपक्रम काल का वर्णन है । बहुरि यहु कथन है ( जो ) जीवनि की संख्या उत्कृष्टपने युगपत् होने की अपेक्षा कही है ।
विधान का
बहुरि दशवां वेदमार्गमा अधिकार विषै - भाव-द्रव्यवेद होने
र तिनके लक्षण का, अर भाव-द्रव्यवेद समान वा असमान हो है ताका, अर वेदनि का कारण दिखाई ब्रह्मचर्य अंगीकार करने का अर तीनों वेदनि का निरुक्ति लिये लक्षण का, अर अवेदी जीवनि का वर्णन है । बहुरि तहां संख्या का वर्णन विषै देवराशि कही । तहां स्त्री-पुरुषवेदीनि का, अर तियंचनि विषे द्रव्य-स्त्री आदि का प्रमाण कहि समस्त पुरुष, स्त्री, नपुंसक वेदीनि का प्रमाण वर्णन है । बहुरि सैनी पंचेन्द्री गर्भज, नपुंसकवेदी इत्यादिक ग्यारह स्थानति विषे जोवनि का प्रमाण वर्णन है ।
बहुरि ग्यारहवां कषायमागंणा अधिकार विषं कषाय का निरुक्ति लिये लक्षरण का, वा सम्यक्त्वादिक घातने रूप दूसरे अर्थ विषै अनन्तानुबंधी आदि का निरुक्ति लिए लक्षण का वर्णन है । बहुरि कषायति के एक, व्यारि, सोलह असंख्यात लोकमात्र भेद कहि क्रोधादिक की उत्कृष्टादि व्यारि प्रकार शक्तिनि का दृष्टांत वा फल की मुख्यता करि वर्णन है । बहुरि पर्याय धरने के पहले समय कषाय होने का नियम है वा नाहीं है सो वर्णन है । बहुरि अकषाय जीवनि का वर्णन है । बहुरि क्रोधादिक के शक्ति अपेक्षा व्यार, लेश्या अपेक्षा चौदह, आयुबंध पर प्रबंध अपेक्षा बीस भेद हैं, तिनका श्रर सर्व कषायस्थाननि का प्रमाण कहि तिन भेदनि विषे जेतेजेते स्थान संभव तिनका वर्णन है । बहुरि इहां जीवनि की संख्या का वर्णन विष नारकी, देव, मनुष्य, तियंच गति विषै जुदा-जुदा क्रोधी आदि जीवनि का प्रमाण वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ तिन गतिनि विषे क्रोधादिक का काल वर्णन है ।
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बहुरि बारहवां ज्ञानमार्गणा अधिकार विषै - ज्ञान का निरुक्ति पूर्वक लक्षण कहि, ताके पंचभेदनि का अर क्षयोपशम के स्वरूप का वर्णन है । बहुरि तीन मिथ्या ज्ञाननि का अर मिश्र ज्ञातनि का श्रर तीन कुज्ञान्ति के परिणमन के उदाहरण का
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सम्यानानचन्द्रिका पोलिका
वर्णन है । बहुरि मतिज्ञान का वर्णन विर्षे याने नामांतर का, अर इंदिय-मन तें. उपजने का पर तहां अवग्रहादि होने का, अर व्यंजन-अर्थ के स्वरूप का, अर व्यंजन विर्षे नेत्र, मन वा ईहादिक न पाइए ताका, अर पहले दर्शन होइ पीछे अवग्रहादि होने के क्रम का अर अवग्रहादिकनि के स्वरूप का, अर अर्थ-व्यंजन के विषयभूत बहु, बहुविध आदि बारह भेदनि का, तहां अनिमृति विर्षे च्यारि प्रकार परोक्ष प्रमाण गर्भितपना आदि का, अर मतिज्ञान के एक, च्यारि, चौबीस, अट्ठाईस पर इनतें बारह मुणे भेदनि का वर्णन है । बहुरि श्रुतज्ञान का वर्णन विर्षे श्रुतज्ञान का लक्षण निरुक्ति आदि का, अर अक्षर-अनक्षर रूप श्रुतज्ञान के उदाहरण वा भेद वा प्रमाण का वर्णन है। बहुरि भाव श्रुतज्ञान अपेक्षा बीस भेदनि का वर्णन है. । तहां पहिला जघन्यरूप पर्याय ज्ञान का वर्णन विर्षे ताके स्वरूप का, अर तिसका आवरण जैसे उदय हो है ताका, पर यह जाकै हो है ताका, पर याका दूसरा नाम लब्धि अक्षर है, ताका वर्णन है । पर पर्यायसमास ज्ञान का वर्णन विर्ष षट्स्थानपतित वृद्धि का वर्णन है। तहां जघन्य ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण कहि । अर अनंतादिक का प्रमाण अर अनंत भामादिक की सहनानी कहि, जैसे अनंतभागादिक षट्स्थानपतित वृद्धि हो है, ताके ऋम का यंत्रद्वार वन करिअनंत भागादि दद्धिरूप स्थाननिविर्षे अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण ल्यावने को प्रक्षेपक आदि का विधान, पर तहाँ प्रसंग पाइ एक बार, दोय बार, आदि संकलन धन ल्यावने का विधान, अर साधिक जघन्य जहां दुरसा हो है, ताका विधान, अर पर्याय समास विर्षे अनंतभाग आदि वृद्धि होने का प्रमाण इत्यादि विशेष वर्णन है । बहुरि अक्षर आदि अठारह भेदनि का क्रम तें वर्णन है । तहाँ अर्थाक्षर के स्वरूप का, पर तीन प्रकार अक्षरनि का अर शास्त्र के विषयभूत भावनि के प्रमाण का, अर तीन प्रकार पनि का अर चौदह पूर्वनि विर्षे वस्तु वा प्राभूत नामा अधिकारनि के प्रमाण का इत्यादि वर्णन है । बहुरि बीस भेदनि विर्ष अक्षर, अनक्षर श्रुतज्ञान के अठारह, दोय भेदनि का पर पर्यायज्ञानादि की निरुक्ति लिए स्वरूप का वर्णन है। .: बहरि द्रव्यश्रुत का वर्णन विर्षे द्वादशांग के पदनि की अर प्रकीर्णक के अक्षरनि
की संख्यानि का, बहुरि चौसठ मूल अक्षरनि की प्रक्रिया का, पर अपुनरुक्त सर्व अक्षरनि का प्रमाण वा अक्षरनि विर्षे प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भंगनि करि तिस प्रमाण ल्यावने का विधान पर सर्वश्रुत के अक्षरनि का प्रमाण वा अक्षरनि विर्षे अंगानि के पद पर प्रकीर्णकनि के अक्षरनि के प्रमाण ल्याबने का विधान इत्यादि वर्णन है । बहुरि प्राचारांग आदि ग्यारह अंग, अर दृष्टिबाद अंग के पांच भेद, तिनमैं परिकर्म के पांच
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काण्ड सम्बन्धी प्रकर
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भेद, तहां सूत्र अर प्रथमानुयोग का एक-एक भेद, घर पूर्वगत के चौदह भेद, चूलिका के पांच भेद इन सबनि के जुदा-जुदा पदति का प्रमाण अर इन विषै जो-जो व्याख्यान पाइए, ताकी सूचना का कथन है । तहां प्रसंग पाइ तीर्थंकर की दिव्यध्वनि होने का विधान, अर वर्द्धमान स्वामी के समय दश दश जीव अंतः कृत केवली अर अनुत्तरगामी भए तिनकानाम अर तीन सौ तिरेसठ कुवादनि के धारकनि विषे केई कुबादीनि के नाम घर सप्त भंग का विधान, घर अक्षरनि के स्थान - प्रयत्नादिक, अर बारह भाषा पर आत्मा के जीवादि विशेषण इत्यादि बने कथन हैं । बहुरि सामायिक श्रादि चौदह aara का स्वरूप वर्णन है । बहुरि श्रुतज्ञान की महिमा का वर्णन है ।
बहुरि विज्ञान का वर्णन विषै निरुक्ति पूर्वक स्वरूप कहि, ताके भवप्रत्ययगुणप्रत्यय भेदनि का, अर ले भेद कौन होय, कौन श्रात्मप्रदेशनि तें उपजै ताका, छह भेदनि का, तिनविषै अनुगामी, अननुगामी के तीन-तीन अर तहां गुणप्रत्यय, भेदनि का वर्णन है । बहुरि सामान्यपने अवधि के देशावधि, परमावध, सर्वाधि भेदनि का, भर तिन विषै भवप्रत्यय-गुणप्रत्यय के संभवपने का अर ए कौनकै होइताका, र तहां प्रतिपाती, अप्रतिपाती, विशेष का, पर इनके वर्णन है । बहुरि जघन्य देशावधि का विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का वर्णन करि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा द्वितीयादि उत्कृष्ट पर्यंत क्रम ते भेद होने का विधान, र तहां द्रव्यादिक के प्रमाण का पर सर्वे भेदनि के प्रमाण का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ बहार, वर्ग, वर्गरणा, गुरणकार इत्यादिक का अनेक वर्णन है । अर तां ही क्षेत्र का पेक्षा तिस देशावधि के उगणीस कांडकनि का वर्णन है ।
भेदनि के प्रमारण का,
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बहुरि परमावधि के विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा जघन्य तें उत्कृष्ट पर्यन्त क्रम भेद होने का विधान, वा तहां द्रव्यादिक का प्रमाण या सर्व भेदनि के प्रमाण का वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ संकलित धन ल्यावने का अर ""इच्छिदरासिच्छेद" इत्यादि दोय करणसूत्रनि का आदि अनेक वर्णन है ।
बहुरि सर्वाधि प्रभेद है । ता विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का वर्णन है । बहुरि जघन्य देशावधि ते सर्वार्वाध पर्यंत द्रव्य पर भाव अपेक्षा भेदनि की समानता का वर्णन है । बहुरि नरक विषै अवधि का वा ताके विषयभूत क्षेत्र का, अर मनुष्य, तिर्यच विषै जघन्य - उत्कृष्ट अवधि होने का, पर देव विषै भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषीनि Harrier क्षेत्रकाल का, सोधर्मादि द्विकनि विषं क्षेत्रादिक का, या द्रव्य का भी वर्णन है ।
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न
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सम्मानचन्द्रिका पोटिसा 1
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बहुरि मन:पर्ययज्ञान का वर्णन विषै ताके स्वरूप का, अर दोय भेदनि का अर तहां ऋजुमति तीन प्रकार, विपुलमति छह प्रकार ताका घर मन:पर्यय जहातें उपज है पर जिनके हो है ताका, अर दोय भेदनि विषे विशेष है ताका, वर जीव करि चितया हुवा द्रव्यादिक कौं जाने ताका, यर ऋजुमति का विषयभूत द्रव्य का अर मन:पर्यय संबंधी धवहार का अर विपुलमति के जघन्य तें उत्कृष्ट पर्यन्त द्रव्य अपेक्षा भेद होने का विधान, वा भेदनि का प्रमाण वा द्रव्य का प्रमाण कहि, जघन्य उत्कृष्ट क्षेत्र का भाव का ग है ।
बहुरि केवलज्ञान सर्वज्ञ है, ताका वर्णन हैं । बहुरि इहां जीवनि की संख्या का aft विषै मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञानी का र प्यारों गति संबंधी विभंगज्ञानीनि का, पर कुमति- कुश्रुत ज्ञानीति का प्रमाण वर्णन है ।
बहुरि तेरहवां संयममार्गगा अधिकार विषै - ताके स्वरूप का, अर संयम के भेद के निमित्त का वर्णन है । बहुरि संयम के भेदनि का स्वरूप वर्णन है। तहां परिहारविशुद्धि का विशेष, अर ग्यारह प्रतिमा, अट्ठाईस विषय इत्यादि का वर्णन हैं । बहुरि इहां जीवनि को संख्या का वर्णन विषै सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सुक्ष्मपराय, यथाख्यात संयमधारी, श्रर संयतासंयत, वर संपत जीवनि का प्रमाण वर्णन है ।
बहुरि strai दर्शनमार्गणा अधिकार विषै ताके स्वरूप का अर दर्शन भेदनि के स्वरूप का वर्णन है । बहुरि इहां जीवनि की संख्या का वर्णन विषै शक्ति चक्षुर्दर्शनी, व्यक्त चक्षुर्दर्शनीनि का अर अवधि, केवल, प्रचक्षुर्दर्शनीनि का प्रमाण वर्णन है ।
बहुरि पंद्रहवां श्यामार्गरपा अधिकार विषै- द्रव्य, भाव करि दोय प्रकार लेश्या कहि, भावलेश्या का निरुक्ति लिए लक्षण अर ताकरि बंध होने का वर्णन है । बहुरि सोलह अधिकारनि के नाम है । बहुरि निर्देशाधिकार विषै वह लेश्यानि के नाम है | अर वर्णाधिकार विषे द्रव्य लेश्यानि के कारण का, अर लक्षण का अर छहों द्रव्य यानि के वर्ण का दृष्टांत का, वर जिनके जो-जो द्रव्य लेश्या पाइए, ताका व्याख्यान है । बहुरि प्रमाणाधिकार विष कषायनि के उदयस्थाननि विषै infra स्थान के प्रमाण का, अर तिनविर्ष भी कृष्णादि लेश्यानि के स्थाननि के प्रमाण का, अर संक्लेशविशुद्धि की हानि, वृद्धि ते अशुभ, शुभलेश्या होने के
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गोम्मटसार जीवका सम्बन्धी प्रकरण अनुक्रम का वर्णन है। बहुरि संक्रमणाधिकार विर्षे स्वस्थान परस्थान संक्रमण कहि संक्लेशविशुद्धि का वृद्धि-हानि से जैसे संक्रमण हो है ताका, अर संक्लेशविशुद्धि विर्षे जैसे लेश्या के स्थान होइ, पर तहां जैसै षट्स्थानपतित वृद्धि हानि संभव, ताका वर्णन है । बहुरि कर्माधिकार विर्षे छहों लेश्यावाले कार्य विर्षे जैसे प्रवत, ताके उदाहरण का वर्णन है । बहुरि लक्षणाधिकार विर्षे छहो लेश्यावालेनि का लक्षण वर्णन है ।
बहुरि गति अधिकार विर्षे लेश्यानि के छब्बीस अंश, तिमविर्षे आठ मध्यम अंश प्रायुबंध की कारण, ते पाठ अपकर्षकालनि विर्षे हौइ, तिन अपकर्षनि का उदाहरणपूर्वक स्वरूप का अर तिनविर्षे आयु न बंधै तो जहां बंधै ताका, अर सोपश्रमायुष्क, निरुपक्रमायुष्क, जीवनि के अपकर्षणरूप काल का वा तहां आयु बंधने का विधान वा गति आदि विशेष का, अर अपकर्षनि विर्षे प्रायु बंधनेवाले जीवनि के प्रमाण का वर्णन करि पीछे लेश्यानि के अठारह अंशनि विर्षे जिस-जिस अंश विर्षे मरण भए, जिस-जिस स्थान विर्षे उपजै ताका वर्णन है।
बहरि स्वामी अधिकार विर्षे भाव लेश्या की अपेक्षा सात नरकनि के नारकीनि विर्ष, अर मनुष्य-तिथंच विषै, तहां भी एकेंद्रिय-विकलत्रय विर्षे, असैनी पचेंद्रिय विर्षे लब्धि अपर्याप्तक तिर्यंच-मनुष्य विर्षे, अपर्याप्तक तिर्यंच-मनुष्य-भवनत्रिकदेव सासादन वालों विष, पर्याप्त-अपर्याप्त भोगभूमियां विर्षे, मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानिनि विर्षे, पर्याप्त भवनत्रिक-सौधर्मादिक आदि देवनि विष जो-जो लेश्या पाइए ताका वर्णन है । तहां असैनी के लेश्यानिमित्त तें गति विर्षे उपजने का आदि विशेष कथन है।
बहुरि साधन अधिकार विर्षे द्रव्य लेश्या अर भाव लेश्यानि के कारण का वर्णन है।
बहुरि संख्याधिकार विर्षे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, मान करि कृष्णादि लेश्यावाले जीवनि का प्रसाण वर्णन है ।
बहुरि क्षेत्राधिकार विर्षे सामान्यपने स्वस्थान, समुद्घात, उपपाद अपेक्षा, विशेषपने दोय प्रकार स्वस्थान, सात प्रकार समुद्घात, एक उपपाद इन दश स्थाननि विर्षे संभवतै स्थाननि की अपेक्षा कृष्णादि लेश्यानि का (स्थान वर्णन कहिए) क्षेत्र वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ विवक्षित लेश्या विर्षे संभवत स्थान, तिन विर्षे जीवनि के प्रमाण का, तिन स्थाननि विर्षे क्षेत्र के प्रमाण का, समुद्घातादिक के विधान का, क्षेत्रफलादिक का, भरने वाले प्रादि देवनि के प्रमाण का, केवल समुद्घात विष दंड-कपाटादिक का, तहां लोक के क्षेत्रफल का इत्यादिक का वर्णन है ।
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साद्रिका पोलिका
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बहुरि स्पर्शाधिकार विषै पूर्वोक्त सामान्य विशेषपने करि लेश्यानि का तीन काल संबंधी क्षेत्र का वर्णन है । वहाँ संग सहा पवन के सद्भाव का, पर जंबूद्वीप समान लवणसमुद्र के खंड, लवणसमुद्र के समान अन्य समुद्र के खंड करने के विधान का अर जलचर रहित समुद्रनि का मिलाया हुआ क्षेत्रफल के प्रमाण का घर देवादिक के उपजने, गमन करने का इत्यादि वर्णन है ।
बहुरि काल अधिकार विषै कृष्णादि लेश्या जितने काल रहे ताका वर्णन हैं । बहुरि अंतराधिकार विषै कृष्णादि लेश्या का जघन्य, उत्कृष्ट जितने कालश्रभाव रहे, ताका वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ एकेंद्री, विककेंद्री विषै उत्कृष्ट रहने के काल का वर्णन है ।
बहुरि भावाधिकार विषे छहीं लेश्यानि विषै प्रदयिक भाव के सद्भाव का वर्णन है ।
बहुरि पबहुत्व अधिकार विषै संख्या के अनुसारि लेश्यानि विषै परस्पर अल्पबहुत्व का व्याख्यान है, ऐसें सोलह अधिकार कहिलेश्या रहित जीवनि का व्याख्यान है । बहुरि सोलहवां भव्यमार्गणा अधिकार विषै दोय प्रकार भव्य अर अभव्य र भव्य अभव्यपना करि रहित जीवनि का स्वरूप वर्णन है । बहुरि इहां संख्या का कथन विषै भव्य - अभव्य जीवनि का प्रमाण वर्णन है । बहुरि इहां प्रसंग पाइ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पंचपरिवर्तननि के स्वरूप का, वा जैसे क्रम तें परिवर्तन हो है ताका श्रर परिवर्तननि के काल का अनादि ते जेते परिवर्तन भए, तिनके प्रमाण का वर्णन है । वहां गृहीतादि पुद्गलनि के स्वरूप संदृष्टि का, वा योग स्थान श्रादिकनिका वन पाइए है ।
बहुरि सतरहव सम्यक्त्वमार्गणा अधिकार विषै सम्यक्त्व के स्वरूप का, अरसराग वीतराग के भेदनि का अर षट् द्रव्य, नव पदार्थनि के श्रद्धानरूप लक्षण का वर्णन है । बहुरि षट् द्रव्य का वर्णन विषै सात अधिकारनि का कथन हैं ।
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ari नाम अधिकार विषे द्रव्य के एक वा दोय भेद का, थर जीव- अजीव के दो-दो भेदनिका, अर तहां पुद्गल का निरुक्ति लिए लक्षण का, पुद्गल परमाणु के प्रकार का वर्णनपूर्वक रूपी अरूपी जीव द्रव्य का कथन है ।
बहुरि उपलक्षणानुवादाविकार विषै छहों द्रव्यनि के लक्षणनि का वर्णन है । तहां गति आदि क्रिया जीव-पुद्गल के है, ताका कारण धर्मादिक हैं, ताका दृष्टांत
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२८]
[ गोम्मतहार जीवका सम्बन्धी प्रकरण
पूर्वक वर्णन है । अर वर्तनाहेतुत्व काल के लक्षण का दृष्टांतपूर्वक वर्णन है । अर मुख्य काल के निश्चय होने का, काल के धर्मादिक को कारणपने का, समय, पावली आदि व्यवहारकाल के भेदनि का, तहां प्रसंग पाइ प्रदेश के प्रमाण का, वा अंतमुहूर्त के भेदनि का, वा व्यवहारकाल जानने को निमित्त का, व्यवहारकाल के प्रतोत, अनागत, वर्तमान भेदनि के प्रमाण का, वा व्यवहार निश्चय काल के स्वरूप का वर्णन है।
. बहुरि स्थिति अधिकार विर्षे सर्व अपने पर्यायनि का समुदायरूप अवस्थान का बर्णन है।
बहुरि क्षेत्राधिकार विषं जीवादिक जितना क्षेत्र रोकें, ताका वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ तीन प्रकार प्राधार वा जीव के समुद्धातादि क्षेत्र का वा संकोच विस्तार शक्ति का वा पुद्गलादिकनि की अवगाहन शक्ति का वा लोकालोक के स्वरूप का वर्णन है ।
____ बहुरि संख्याधिकार विर्षे जीव द्रव्यादिक का वा तिनके प्रदेशनि का, वा व्यवहार काल के प्रमाण का, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मान करि वर्णन है ।
बहुरि स्थान स्वरूपाधिकार विर्षे (द्रव्यनि का वा ) द्रव्य के प्रदेशनि का चल, अचलपने का वर्णन है । बहुरि अणुवर्गणा आदि तेईस पुद्गल वर्गणानि का वर्णन है । तहां तिन वर्गणानि विर्षे जेती-जेती परमाणू पाइए, ताका आहारादिक वर्गणा ते जो-जो कार्य निपज है ताका जघन्य, उत्कृष्ट, प्रत्येकादि वर्गणा जहां पाईए ताका, महास्कंध वर्गणा के स्वरूप का, अणुवर्गणा आदि का वर्गग्गा लोक विर्षे जितनी जितनी पाइए ताका इत्यादि का वर्णन है । बहुरि पुद्गल के स्थूल-स्थूल प्रादि छह भेदनि का, वा स्कंध, प्रदेश, देश इन तीन भेदनि का वर्णन है ।
बहुरि फल अधिकार विर्षे धर्मादिक का गति प्रादि साधनरूप उपकार, जीवनि के परस्पर उपकार, पुद्गलनि का कर्मादिक वा सुखादिक उपकार, तिनका प्रश्नोत्तरादिक लिए वर्णन है। तहा प्रसंग पाइ कर्मादिक पुद्गल ही हैं ताका, पर कर्मादिक जिस-जिस पुद्गल वर्गणा ते निपजें हैं ताका, पर स्निग्ध-रूक्ष के गुणनि के अंशनि करि जैसे पुद्गल का संबंध हो है, ताका वर्णन है ! असें षट् द्रव्य का वर्णन करि तहां काल विना पंचास्तिकाय हैं, ताका वर्णन है। बहुरि नव पदार्थनि का वर्णन विर्षे जीव-अजीव का तौ षट् द्रव्यनि विर्षे वर्णन भया । बहुरि पाप जीव पुण्य जीवनि का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ चौदह मुरण-स्थाननि विर्षे जीवनि का
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सम्यज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ २६ प्रमाण वर्णन है । तहां उपशम, क्षपक थेरगीवाले निरंतर अष्ट समयनि विर्षे जेते जेते होइ ताका, वा युगपत् बोधितबुद्धि आदि जीव जेते-जेते होंइ ताका, अर सकल संयमीनि के प्रमाण का वर्णन है। बहुरि सात नरक के नारकी, भवनत्रिक, सौधर्मद्विकादिक देव, तिर्यच, मनुष्य ए जेते-जेते मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थाननि विर्षे पाइए, तिनका वर्णन है । बहुरि गुणस्थाननि विर्षे पुण्य जीव, पाप जीवनि का भेद वर्णन है । बहुरि पुद्गलीक द्रव्य पुण्य-पाप का वर्णन है । बहुरि पासव, बंध, संवर निर्जरा, मोक्षरूप पुद्गलनि का प्रमाण वर्णन है । ऐसें षट् द्रव्यादिक का स्वरूप कहि, तिनके श्रद्धानरूप सम्यक्त्व के भेदनि का वर्णन है।
__ तहां क्षायिक सम्यक्त्व के भेदनि का वर्णन है ।१ तहां क्षायिक सम्यक्त्व होने के कारण का, ताके स्वरूप का, ताकौं पाएं जेते भवनि वि मुक्ति होइ ताका, तिसकी महिमा का, अर तिसका प्रारंभ, निष्ठापन जहां होइ, ताका वर्णन है।
बहुरि बेदकसम्यक्त्व के कारण का वा स्वरूप का वर्णन है । बहुरि उपशम समयमय के स्वरूप का, कारण का, पंचलब्धि आदि सामग्री का, वा जाके उपशम सम्यक्त्व होइ ताका वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ आयुबंध भए पीछे सम्यवत्व, व्रत होने न होने का वर्णन है । बहुरि सासादन, मिश्र, मिथ्यारुचि का वर्णन है । बहुरि इहां जीवनि की संख्या का वर्णन विर्षे क्षायिक, उपशम, वेदक सम्यग्दृष्टिनि का अर मिय्यादृष्टि, सासादन, मिश्र जीवनि का प्रमाण वर्णन है । बहुरि नव पदार्थनि का प्रमाण वर्णन है...तहां जीव अर अजीव विर्षे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल अर पुण्य-पाप रूप जीव, भर पुण्य-पाप
प रूप अजीव पर पासव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष इनके प्रमाग का निरूपण है। ... बहुरि अठारहवां संशी मार्गरणा अधिकार विर्क - संझी के स्वरूप का, संज्ञी असंशी जीवनि के लक्षण का वर्णन है । अर इहां संख्या का वर्णन वि संजी-प्रसंझी जीवनि का प्रमाण वर्णन है।
बहुरि उगरणीसवां प्राहारमार्गणा अधिकार विर्षे -- आहारक के स्वरूप वा निरुक्ति का अर अनाहारक जिनके हो है ताका, तहां प्रसंग पाइ सात समुद्धातनि. के नाम या समुद्धात के स्वरूप का, अर आहारक अनाहारक के काल का वर्णन है । बहुरि तहाँ आहारक-अनाहारक जीवनि का प्रमाग वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ प्रक्षेपयोगोद्धतिमिश्रपिंड इत्यादि सूत्र करि मिश्र के व्यवहार का कथन है ।
१. यह वाक्य छपी प्रति में मिलता है, किन्तु इसका अर्थ स्पष्ट नहीं होता।
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[गोम्पसार जीवका सम्बन्धी प्रकरण
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बहुरि बीसवां उपयोग अधिकार विर्ष - उपयोग के लक्षण का, साकारअनाकार भेदनि का, उपयोग है सो व्याप्ति, अव्याप्ति, असंभवी दोष रहित जीव का लक्षण है ताका, अर केवलज्ञान-केवलदर्शन बिना साकार-अनाकार उपयोगनि का काल अंतर्मुहुर्त मात्र है, ताका वर्णन है । बहुरि इहां जीवनि की संख्या साकारोपयोग विषं ज्ञानमार्गणावत् अर अनाकारोपयोग विर्षे दर्शनमार्गणावत् है ताका वर्णन है।
बहुरि इक्कीसवां प्रोधादेशयो प्ररूपणा प्ररूपरस अधिकार विर्ष - गति आदि मार्गणानि के भेदनि विर्षे यथासंभव गुणस्थान पर जीवसमासनि का वर्णन है । तहाँ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व विषै पर्याप्त-अपयप्ति अपेक्षा गुणस्थाननि का विशेष कह्या है । बहुरि गुणस्थाननि विर्षे संभवते जे जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणानि के भेद, उपयोग, तिनका वर्णन है। तहां मार्गणा या उपयोग के स्वरूप का भी किछ वर्णन है । तहां योग भव्यमार्गरणानि के भेदनि का, वा सम्यक्त्वमार्गणा विष प्रथम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का इत्यादि विशेष-सा वर्णन है । अर गति आदि केई मार्गणानि क्र्षेि पर्याप्त, अपर्याप्त अपेक्षा कथन है ।
बहुरि बावीसवां पालाप अधिकार विष - मंगलाचरण करि सामान्य, पर्याप्त, अपर्याप्त फरि तीन पालाप, अर अनिवृत्तिकरण विषं पंच भागनि की अपेक्षा पंच . पालाप, तिनका मुरगस्थाननि विर्षे वा गुणस्थान अपेक्षा चौदह मार्गा के भेदनि विर्षे यथासंभव कथन है । तहां गतिमार्गणा विर्षे किछू विशेष-सा कथन है । बहुरि गुणस्थान मार्गरणास्थाननि विर्षे गुणस्थानादि बीस प्ररूपणा यथासंभव आलापनि की अपेक्षा निरूपण करनी । लहां पर्याप्त, अपर्याप्त एकेंद्रियादि जीवनी के संभवते पर्याप्ति, प्रारण, जीवसमासादिक का किछ वर्णन करि यथायोग्य सर्व प्ररूपणा जानने का उपदेश है । बहुरि तिनके जानने की यंत्रनि करि कथन है। तहां पहिल यंत्रनि विर्षे जैसे अनुक्रम है, वा समस्या है, वा विशेष है सो कथन है । पीछे एक-एक रचना विर्षे वीस-वीस प्ररूपणा का कथन स्वरूप छह सौ चौदह यंत्रनि की रचना है। तहां केई रचना समान जानि बहुत रचनानि की एक रचना है । बहुरि मनःपर्यय ज्ञानादिक विर्षे एक होते अन्य न होय ताका, उपशम श्रेणी से उतरि मरणा भए उपजने का, सिद्धनि विर्षे संभवती प्ररूपणानि का निक्षेपादिक करि प्ररूपणा जानने के उपदेश का वर्णन है । बहुरि पाशीर्वाद है । बहुरि टीकाकार के वचन हैं।
ऐसें जीवकाण्ड नामा महा अधिकार के बावीस अधिकारनि घिर्ष कम तें व्याख्यान की सूचनिका जाननी।
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण
ॐ नमः । अथ कर्म (अजीवकांड) नामा महाअधिकार के नव अधिकार हैं। तिनके व्याख्यान की सूचना मात्र क्रम ते कहिए है -
तहां पहिला प्रकृतिसमुत्कीर्तन-अधिकार विर्षे मंगलाचरणापूर्वक प्रतिज्ञा करि प्रतिज्ञा के स्वरूप का, जीव-कर्म के संबंध का, तिनके अस्तित्व का, दृष्टांतपूर्वक कर्मपरमाणूनि के ग्रहण का, बंध, उदय, सत्त्वरूप कर्मपरमारणनि के प्रमाण का वर्णन है । बहुरि ज्ञानावरणादिक पाठ मूल प्रकृतिनि के नाम का, इन विर्षे धाती-प्रघाती भेद का, इनकरि कार्य हो है ताका, इनके क्रम संभवने का, दृष्टांत निरुक्ति लिए इनके स्वरूप का वर्णन है । बहुरि इनकी उत्तर प्रकृतिमि का कथन है। तहां पंच निद्रा का, तीन दर्शनमोह होने के विधान का, पंच शरीरनि के पंद्रह मंगनि का, विवक्षित संहननवाले देव-नरक गतिविर्षे जहां उपजें ताका, कर्मभूमि की स्त्रीनि के तीन संहनन हैं ताका, आताप प्रकृति के स्वरूप वा स्वामित्व का विशेष-व्याख्यान सा है।
बहुरि मतिज्ञानावरणादि उत्तर प्रकृतिनि के निरुक्ति लिए स्वरूप का वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ अभव्य के केवलज्ञान के सद्भाव विर्षे प्रश्नोत्तर का, सात धात, सात उपधातु का इत्यादि वर्णन है । बहुरि अभेद विवक्षाकरि जे प्रकृति गभित हो हैं, तिनका वर्णनकरि बंध-उदय-सत्तारूप जेती-जेती प्रकृति हैं, तिनका वर्णन है । बहुरि घातियानि विर्षे सर्वधाती-देशघाती प्रकृतिनि का, अर सर्व प्रकृतिनि विर्षे प्रशस्तअप्रशस्त प्रकृतिनि का वर्णन है । बहुरि अनंतानुबंधी आदि कषायनि का कार्य वा वासनाकाल का वर्णन है। बहुरि कर्म-प्रकृतिनि विर्षे पुद्गल विपाकी, भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी प्रकृतिनि का वर्णन है।
बहुरि प्रसंग पाइ संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय का वर्णनपूर्वक तीन प्रकार श्रोतानि का वर्णनकरि प्रकृतिनि के चार निक्षेपनि का वर्णन है। तहां नामादि निक्षेपनि का स्वरूप कहि नाम निक्षेप का अर तदाकार-मतदाकाररूप दोय प्रकार स्थापना निक्षेप का अर पागम-नोआगम रूप दोय प्रकार द्रव्य निक्षेप का; तहां नो
आगम के ज्ञायक, भावी, तद्व्यतिरिक्तरूप तीन प्रकार का, तहां भी भूत, भावी, वर्तमानरूप ज्ञायकशरीर के तीन भेदनि का, तहां भी च्युत, च्यावित, त्यक्तरूप भूत शरीर के तीन भेदनि का, तहां भी त्यक्त के भक्त, प्रतिज्ञा, इंगिनी, प्रायोपगमनरूप भेदनि का, तहां भी भक्त प्रतिज्ञा के उत्कृष्ट, मध्य, जघन्यरूप तीन प्रकारनि का पर तद्वयतिरिक्त नो-पागम द्रव्य के कर्म-नोकर्म भेदनि का, बहुरि भावनिक्षेप के प्रागम,
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[ गोगटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रशारण
नोमागम भेदनि का वर्णन हैं । तहां मूल प्रकृतिनि विर्षे इनकौं कहि उत्तर प्रकृतिनि विर्षे वर्णनहै । तहां औरनि का सामान्यपन संभवपना कहि, नोकर्मरूप तद्वयतिरिक्तनो-आगम-द्रव्य का जुदी-जुदी प्रकृतिनि विर्षे वर्णन है। पर नोआगमभाव का समुच्चयरूप वर्णन है ।
बहुरि दूसरा बंध-उदय-सत्ययुक्तस्तवनामा अधिकार है । तहां नमस्कार पूर्वक प्रतिज्ञाकरि स्तवनादिक का लक्षण वर्णन है । बहुरि बंध-व्यायान विर्षे बंध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप भेदनि का, अर तिनविष उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजधन्यपने का; अर इनविर्षे भी सादि, अनादि, ध्र व, अध्र व संभवने का वर्णन है।
बहरि प्रकृतिबंध का कथन विधै गुणस्थाननि विर्षे प्रकृतिबंध के नियम का; तहां भी तीर्थंकरप्रकृति बंधने के विशेष का, अर गुणस्थाननि विषै व्युच्छित्ति, बंध, अबंध प्रकृतिनि का, तहां भी व्युच्छित्ति के स्वरूप दिखायने कौं द्रव्याथिक-पर्यायाथिकनय की अपेक्षा का, अर गति आदि मार्गणा के भेदनि विर्षे सामान्यपर्ने वा संभवते गुणस्थान अपेक्षा व्युच्छित्ति-बंध-प्रबंध प्रकृतिनि के विशेष का, अर मूलउत्तर प्रकृतिनि विर्षे संभवते सादिन आदि देकर बंध का, तहां अध्रुव-प्रकृतिनि विर्षे सप्रतिपक्ष-निःप्रतिपक्ष प्रकृतिनि का, अर निरंतर बंध होने के काल का वर्णन है ।
बहुरि स्थितिबंध का वर्णन विर्षे मल-उत्तर प्रकृतिनि के उत्कृष्ट स्थितिबंध का, अर उत्कृष्ट स्थितिबंध संज्ञी पंचेंद्रिय ही के होय. ताका, अर जिस परिणाम तें वा जिस जीव के जिस प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध होय ताका, तहां प्रसंग पाय उत्कृष्ट ईषत् मध्यम संक्लेश परिणामनि के स्वरूप दिखावने कौं अनुकृष्टि आदि विधान का, अर मल-उत्तर प्रकृतिनि के जघन्य स्थितिबंध के प्रमाण का, अर जघन्य-स्थितिबंध जाक होय ताका वर्णन है । पर एकेंद्रो, बेइंद्री, तेइंद्रो, चौइंद्री, असंझी, संजी पंचेंद्री जीवनि के मोहादिक की उत्कृष्ट-जघन्यस्थिति के प्रमाण का, तहां प्रसंग पाइ तिनके प्राबाधा के कालभेदकाण्डकनि के प्रमाण कौं कहि भेद प्रमाण करि गुणितकांडक प्रमाण कौं उत्कृष्टस्थिति विर्षे घटाएं जघन्य स्थिति का प्रमाण होने का वर्णन है ।
बहुरि एकेंद्रियादि जीवनि के स्थितिभेदनि कौं स्थापनकरि तहां चौदह जीवसमासनि विर्षे जघन्य-उत्कृष्ट-स्थितिबंध पर अबाधा पर भेदनि के प्रमाण पर तिनके जानने का विधान वर्णन है । तहां प्रकृतिनि का जघन्य स्थितिबंध जिनके होइ
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पोठिका
साका, अर जघन्य आदि स्थितिबंध विर्षे सादि नैं आदि देकर संभवपने का, अर विशुद्ध-संक्लेशपरिणामनि जैसे जघन्य-उत्कृष्ट स्थितिबंध होय ताका, अर पाबाधा के लक्षण का, मोहादिक की पाबाधा के काल का, आयु की आबाधा के विशेष का, तहां प्रसंग पाइ देव, नारकी, भोगभूमियां, कर्मभूमियांनि के प्रायुबंध होने के समय का, उदीर्ण अपेक्षा आबाधाकाल के प्रमाण का, प्रसंग पाई अचलावली, उदयावली, उपरितन स्थिति विर्षे कर्मपरमाणु खिरने का, उदी के स्वरूप का, आयु वा अन्य कर्मनि के निषेकनि के स्वरूप का, अंकसंदृष्टिपूर्वक निषेकनि विर्षे द्रव्यप्रमाण का, तहाँ गुणहानि आदि का वर्णन है ।
___ बहुरि अनुभागबंध का व्याख्यान विर्षे प्रकृतिनि का अनुभाग जैसे. संक्लेश-विशुद्धिपरिणामतिकरि बंधे है ताका, पर जिस प्रकृति का जाके तीव्र वा जघन्य अनुभाग बंधे है ताका, हा प्रसंग म मनिपलर, परिवर्तन मध्यम परिणामनि के स्वरूपादिक का अर उत्कृष्टादि अनुभागबंध विर्षे सादि में प्रादि देकरि भेदनि के संभवपने का वर्णन है। बहुरि घातियानि विर्षे लता, दारु, अस्थि शैलभागरूप अनुभाय का, तहां देशघातिया स्पर्द्धकनि का मिथ्यात्व वि विशेष है ताका, अर जिन प्रकृतिनि विर्षे जेते प्रकार अनुभाग प्रवर्तं ताका, अर अधातियानि विर्षे प्रशस्त प्रकृतिनि का गुड़, खांड, शर्करा, अमृतरूप; अप्रशस्त प्रतिनि का निब, कांजीर, विष, हलाहलरूप अनुभाग का, अर इन प्रकृतिनि के तीन-तीन प्रकार अनुभाग प्रवत्तें, ताका वर्णन है।
. बहुरि प्रदेशबंध का कथन विषं एकक्षेत्र, अनेकक्षेत्रसंबंधी वा तहाँ कर्मरूप होने कौं योग्य-अयोग्यरूप; तिनविर्क भी जीव का ग्रहण की अपेक्षा सादि-अनादिरूप पुद्गलनि का प्रमाणादिक कहि, तहां जिन पुदगलनि कौं समयप्रबद्ध . विष ग्रहै है ताका, अर ग्रहे जे परमाणु तिनके प्रमाण कौं कहि तिनका पाठ वा सात मूल प्रकृतिनि विर्षे जैसे विभाग हो है ताका, तहां हीनाधिक विभाग होने के कारण का वर्णन है । पर उत्तर प्रकृतिनि विष विभाग के अनुक्रम का अर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय विर्षे सर्वधाती-देशघाती द्रव्य के विभाग का, तहां प्रसंग पाइ मतिज्ञानावरणादि प्रकृतिनि विर्षे सर्वधाती-देशघाती स्पर्द्धकनि का, तहां अनुभागसंबंधी नानागुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त-द्रव्य स्थिति-गुरणहानि का प्राण कहि, तहां वर्गरणानि का प्रमाण ल्याइ तिनविर्षे जहां सर्वधाती-देशघातीपना पाइए ताका वर्णनकरि च्यारि घातिया कर्मनि की उत्तर प्रकृतिनि वि कर्मपरमाणुनि के विभाग का वर्णन है ।
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I मोम्मटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण
तहां संज्वलन अर नोकषाय वि विशेष है ताका, अर नोकषायनि विर्षे जिनका युगपत् बंध होइ तिनका, अर तिनके निरंतर बंधने के काल का, अर अंतराय की प्रकृतिनि विर्षे सर्वघातीपना नाहीं ताका वर्णन है । बहुरि युगपत् नामकर्म की तेईस आदि प्रकृति बंधै तिनविष विभाग का, अर वेदनीयादिक की एक-एक ही प्रकृति बंधैः तातें तहां विभाग न करने का वर्णन है ।
बहुरि मूल-उत्तर प्रकृतिनि का उत्कृष्टादि प्रदेशबंध विर्षे सादि इत्यादि भेद संभवने का, अर जिस प्रकृति का उत्कृष्ट-जघन्य प्रदेशबंध जाके होय ताका, अर तहां प्रसंग पाइ स्तोकसा एक जीव के युगपत् जेते-जेते प्रकृति बंधे, ताका वर्णन है । बहुरि इहां प्रसंग पाइ योगनि का कथन है । "तहां उपपाद, एकांतवृद्धि, परिणामरूप योगनि के स्वरूपादिक का वर्णन है । पर योगनि के अविभागप्रतिच्छेद, बर्ग, वर्गरणा, स्पर्द्धक, गुणहानि, नानागुणहानि स्थाननि के स्वरूप, प्रमाण, विधान का योगशक्ति या प्रदेश अपेक्षा विशेष वर्णन है। अर योगनि का जघन्य स्थान ते लगाय स्थाननि विर्षे वृद्धि के अनुक्रम कौं आदि देकरि वर्णन है.। अर सूक्ष्मनिगोदिया लेब्धि-अपर्याप्तक का जघन्य उपपादयोगस्थान की प्रादि देकरि चौरासी स्थाननि का, अर बीचि-बीचि जिनका स्वामी न पाइए तिनका, अर तिनविर्षे गुणकार के अनुक्रम का, अर जघन्य स्थान तै उत्कृष्ट स्थान के गुणकार का वर्णन है । अर तीन प्रकार योग निरंतर जेते काल प्रवत्तै ताका, अर पर्याप्त अस संबंधी परिणामयोगस्थाननि विर्षे जे-जे जेते-आते योगस्थान दोय आदि आठ समयपर्यंत निरंतर प्रवत्त तिनके प्रमाण ल्यावने कौं कालयवमध्य रचना का, पर पर्याप्त ससंबंधी परिणामयोगस्थाननि विर्षे जेते-जेते जीव पाइए तिनके प्रमाण जोनने कौं गुणहानि आदि विशेष लीए जीवयवमध्य रचना का अर योगस्थाननि ते जेता-जेता प्रदेशबंध होय ताका; पर जघन्य ते उत्कृष्ट स्थान पर्यत बंधने के क्रम का बोवि-बीचि जेते अविभागप्रतिच्छेद होइ तिनका वर्णन है।
बहुरि च्यारि प्रकार बंध के कारणनि का वर्णन है । बहुरि योगस्थानादिक के अल्पाबहुत्व का वर्णन है। तहां योगस्थान श्रेणी के असंख्यातवां भागमात्र तिनका वर्णनकरि तिनते असंख्यात लोकगुणे कर्मप्रकृतिनि के भेदनि का वर्णन . विर्षे मत्तिज्ञानादिकनि के भेदनि का, अर क्षेत्र अपेक्षा प्रानुपूर्वी के भेदनि का कथन है । बहुरि तिनते असंख्यातगुरो कर्मस्थिति के भेदान का वर्णन विष-तिन एक-एक प्रकृति
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: सम्यग्जानधन्द्रिका धाठिका ]
[ ३५ की जघन्यादि उत्कृष्ट पर्यंत स्थिति भेदनि का कथन है । बहुरि तिनते असंख्यातगुणे स्थितिबंधाध्यवसायनि का वर्णन विर्षे द्रव्यस्थिति, गुणहानि, निषेक, चयादिककरि स्थितिबंध कौं कारण परिणामनि का स्तोकसा कथन है । बहुरि तिमतें असंख्यात लोकमुरणे : अनुभागबंधाध्यवसायस्थावनि का वर्णन विर्षे 'द्रव्यस्थितिगुणहान्यादिककरि अनुभाग को कारण परिणामनि का स्तीका कथन है । बहुरि तिनतें अनंतगुणे कर्मप्रदेशनि का वर्णन विर्षे द्रव्यस्थिति, गुणहानि, नानागुणहानि, चय, निषेकनि का अंकसंदृष्टि वा अर्थकरि कथन है । तहां एक समय विर्षे समयप्रबद्धमात्र पुदगल बंधे, एक-एक निषेक मिलि समयप्रबद्धमात्र ही निर्जरै, असे होते द्वयर्द्धगुणहानिगुणित समयप्रबद्धमात्र सत्त्व रहे, ताका विधान जानने के अर्थि त्रिकोणयंत्र की रचना करी है ।
बहुरि असें बंध वर्णनकरि उदय का वर्णन विष उदय-प्रकृतिनि.का नियम कहि गुणस्थाननि विर्षे व्युच्छित्ति, उदय, अनुदय प्रकृतिनि का वर्णन हैं । बहुरि इहां ही उदीर्ण विषं विशेष कहि गुणस्थाननि विर्षे व्युच्छित्ति, उदीर्णा, अनुदीर्णारूप प्रकृतिनि का वर्णन है । बहुरि मार्गरणा विर्षे उदय प्रकृतिनि का नियम कहि गति आदि मार्गणानि के भेदनि विर्षे संभवते मुरणस्थाननि की अपेक्षा लीए व्युच्छित्ति, उदय, अनुदय प्रकृतिनि का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ अनेक कथन है ।
बहुरि सत्त्व का कथन विर्षे तीर्थंकर, आहारक की सत्ता का, मिथ्यादृष्टयादि विष विशेष पर प्रायुबंध भए पीछे सम्यक्त्व-व्रत होने का विशेष, क्षायिक-सम्यक्त्व होने का विशेष कहि मिथ्यादृष्टि प्रादि सात गुणस्थाननि विर्षे सन्थ प्रकृतिनि का वर्णन करि, ऊपरि क्षपकश्रेणी अपेक्षा व्युच्छित्ति, सत्त्व, असत्त्व प्रकृतिनि का वर्णन है। बहरि मिथ्यादष्टि प्रादि गुणस्थाननि वि सत्त्व, असत्य प्रकृति नि का वर्णनकरि उपशम श्रेणी विर्षे इकईस मोहप्रकृति उपशमावने का क्रम का, अर तहां सत्त्वप्रकृतिनि का कथन है । बहुरि मार्गणानि विर्षे सत्ता-असत्ता प्रकृतिनि का नियम कहि गति प्रादि मार्गणानि के भेदनि विर्षे संभवते गुणस्थाननि की अपेक्षा लीए व्युनिछत्ति, सत्त्व, असत्त्व प्रकृतिनि का वर्णन है। तहाँ प्रसंग पाइ इन्द्रिय-काय मार्गमा विष प्रकृतिनि की उद्वेलना का इत्यादि अनेक वर्णन है। . . ... बहुरि विवेष सत्तारूप तीसरा सस्वस्थान-अधिकार विर्ष एक जीव के एक कालि प्रकृति पाइए तिनके प्रमाण की अपेक्षा स्थान, अरं स्थान विर्षे प्रकृति बदलने की अपेक्षा भंग, तिनका वर्णन है। तहां नमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञाकरि स्थानभंगनि का
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। गोम्मटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण स्वरूप कहि गुणस्थाननि विर्षे सामान्य सत्त्व प्रकृतिनि का वर्णन करि विशेष वर्णन वि मिथ्यादृष्ट्यादि गुणस्थाननि विर्षे जेते स्थान वा भंग पाइए तिनकौं कहि जुदा-जुदा कथन विर्षे तिनका विधान वा प्रकृति घटने, बधने, बदलने के विशेष का बद्धायु-प्रबद्धायु अपेक्षा वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ मिथ्यादृष्टि विथें तीर्थंकर सत्तावाले के नरकायु ही का सत्त्व होइ ताका, बा एकेंद्रियादिक के उद्वेलना का पर सासादन विर्षे प्राहार सत्ता के मिशेर का, गा बि सराहगुएंधी हि लत्वस्थान जैसे संभव ताका, असंयत विर्ष मनुष्यायु-तीर्थकर सहित एक सौ अडतीस प्रकृति की सत्तावाले मैं दोय वा तीन ही कल्याणक होइ ताका, अपूर्वकरणादि वि उपशमक-क्षपक श्रेणी अपेक्षा का इत्यादि अनेक वर्णन है । बहुरि प्राचार्यनि के मतकरि जो विशेष है ताकी कहि तिस अपेक्षा कथन है।
बहुरि चौथा त्रिचूलिका नामा अधिकार है । तहां प्रथम नव प्रश्नकरि चूलिका का व्याख्यान है । तिसविर्षे पहिले तीन प्रश्नकरि तिनका उत्तर विर्षे जिन प्रकृतिनि की उदयव्युच्छित्ति ते पहिले बंधव्युच्छित्ति भई तिनका, अर जिनकी उदयव्युच्छित्ति से पीछे बंधव्युच्छित्ति भई तिनका, अर जिनकी उदयव्युच्छित्ति-बंधव्युमिछत्ति युगपत् भई तिनका वर्णन है । बहुरि दूसरा - तीन प्रश्नकरि तिनका उत्तर विषं जिनका अपना उदय होते ही बंध होइ तिनका, अर जिनका अन्य प्रकृतिनि का उदय होते ही बंध होइ तिनका, पर जिनका अपना वा अन्य प्रकृतिनि का उदय होते बंध होय तिन प्रकृतिनि का वर्णन है । बहुरि तीसरा - तीन प्रश्नकरि तिनका उत्तर विषै, जिनका निरन्तर बंध होइ तिनका, अर जिनका सांतर बंध होइ तिनका, अर जिनका सांतर वा निरंतर बंध होइ तिनका कथन है । इहां तीर्थंकरादि प्रकृति निरंतर बंधी जैसे है ताका, पर सप्रतिपक्ष-निःप्रतिपक्ष अवस्था विर्षे सांतर-निरंतर बंध जैसे संभव है ताका वर्णन है। .
बहुरि दूसरी पंचभागहारचूलिका का व्याख्यान वि मंगलाचरणकरि उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम, सर्वसंक्रम - इन पंच भागहारनि के नाम का, पर स्वरूप का, अर ते भागहार जिनि-जिनि प्रकृतिनि विर्षे वा गुणस्थाननि विर्षे संभवें ताका वर्णन है । पर सर्वसंक्रमभागहार, गुणसंक्रमभागहार, उत्कर्षण वा अपकर्षणभागहार, अधःप्रवृत्तभागहार, योगनि विर्षे गुणकार, स्थिति विर्षे नानागुणहानि, पल्य के अर्धच्छेद, पल्य का वर्गमूल, स्थिति विषं गुणहानि-पायाम, स्थिति विर्षे अन्योन्याभ्यस्त राशि, पल्य, कर्म की उत्कृष्ट स्थिति, विध्यातसंक्रमभागहार, उद्वेलन भागहार,
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[
सभ्य शाम का पोटिका )
[ ३७
प्रभाग विषै नानागुणहानि, गुणहानि, द्वयर्द्धगुणहानि, दो गुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त इनका प्रमाणपूर्वक अल्पबहुत्व का कथन है ।
बहुरि तीसरी दशकरणचूलिका का व्याख्यान विषे बंध, उत्कर्षरण, संक्रम, are सत्त्व उन उपवन, विधि, निचना - इन दशकरणनि के नाम का स्वरूप का, जिनि-जिनि प्रकृतिनि विषै वा गुणस्थाननि विषे जैसे संभव free aa है |
बहुरि पांचवां गंध उदय सस्यसहित स्थानसमुत्कीर्तन नामा अधिकार विषै मंगलाचरण कर एक जीव के युगपत् संभवतां बंधादिक प्रकृतिनि का प्रमाणरूप स्थान वा तहां प्रकृति बदलने करि भये भंगनि का वर्णन है । तहां मूल प्रकृतिनि के बंधस्थाननि का अर तहां संभवते भुजाकारादि बंध विशेष का अर भुजाकार, अपर अवस्थित अवक्तव्यरूप बंध विशेषनि के स्वरूप का, अर मूल प्रकृतिनि के उदयस्थान, उदीरास्थिान, सस्वस्थाननि का वर्णन है । बहुरिउत्तर प्रकृतिनि का कथन विषे दर्शनावरण, मोहनीय, नाम की प्रकृतिनि विषै विशेष है ।
तहां दर्शनावरण के बंधस्थाननि का, अर तहां गुरणस्थान अपेक्षा भुजाकारादि विशेष संभवने का, पर दर्शनावरण के गुणस्थाननि विषै संभवते बंधस्थान, उदयस्थान, सत्त्वस्थानति का वर्णन है ।
बहुरि मोहनीय के बंघस्थाननि का, घर ते गुणस्थाननि विषै जैसे संभव ताका, र तहां प्रकृतिति के नाम जानने की ध्रुवबंधी प्रकृति, वा कूटरचना आदिक का, सर तहां प्रकृति बदलने ते भए संगति का, अर तिन बंबस्थाननि विषै संभवते भुजाकारादि विशेषनि का, वा भुजाकारादिक के लक्षण का, वा सामान्य अवक्तव्य भंग की संख्या का, मर भुजाकारादि संभवने के विधान का, अर इहां प्रसंग पाइ गुणस्थाननि विषै चढना उतरना इत्यादि विशेषनि का वर्णन है । बहुरि मोह के उदयस्थाननि का, अर गुणस्थाननि विषें संभवता दर्शनमोह का उदय कहि तहां संभवते मोह के उदयस्थाननि का, अर तहां प्रकृत्यादि के जानने कूं कूटरचना आदि का, श्रर तहां प्रकृति बदलने तैं भए भंगनि का, पर अनिवृत्तिकरण विषै वेदादिक के उदयकालादिक का, अर सर्वमोह के उदयस्थान, घर तिनकी प्रकृतिनि का विधान : वा संख्या वा मिलाई हुई संख्या का, भर गुणस्थाननि विषै संभवते उपयोग, योग, संयम, लेश्या, सम्यक्त्व तिनकी अपेक्षा मोह के उदयस्थाननि का, वा तिनकी प्रकृतिनि
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३६ ]
[ गोमतसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण का विधान, संख्या प्रादिक का, तहां अनंतानुबंधी रहित उदयस्थान मिथ्यादृष्टि की अपर्याप्त-अवस्था में न पाइए इत्यादि विशेष का वर्णन है ।
बहुरि मोह के सन्धम्थाननि का वा तहां प्रकृति घटने का, अर ते स्थान गुणस्थाननि विर्षे जैसे संभवै ताका, अर अनिवृत्तिकरण विर्षे विशेष है ताका वर्णन है।
बहुरि नामकर्म का कथन विर्षे आधारभूत इकतालीस जीवपद, चौंतीस कर्मपदनि का व्याख्यान करि नाम के बंधस्थाननि का अर ते गुणस्थाननि विर्षे जैसे संभवै ताका, अर ले जिस-जिस कर्मपदसहित बंधै हैं ताका, अर तिनविषैः क्रम तें नवध्र वबंधी प्रादि प्रकृतिनि के नाम का, अर तेइस के नै आदि दै करि नाम के बंधस्थाननि विर्षे जे-जे प्रकृति जैसे पाइए ताका, पर तहां प्रकृति बदलने ते भए भंगनि का वर्णन है। पर इहां प्रसंग पाइ जीव मरि जहां उपजै ताका वर्णन विर्षे प्रथमादि पृथ्वी नारकी मरि जहां उपज वा न उपजे ताका, तहां प्रसंग पाइ स्वयंभूरमरण-समुद्रपरै कूरणानि विर्षे कर्मभूमियां तिर्यंच हैं इत्यादि विशेष का, अर बादरसूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त अग्निकायिक आदि जीव जहां उपजें ताका, तहां सूक्ष्मनिगोद तैं पाए मनुष्य सकल संयम न प्रहै इत्यादि विशेष का, अर अपर्याप्त मनुष्य जहां उपजै ताका. अर भोगमि-भोगभमि के तिर्यंच-मनुष्य, पर कर्मभमि के मनुष्य जहां उपजै ताका, अर सर्वार्थसिद्धि से लगाय भवनत्रिक पर्यंत देव जहां उपजै ताका वर्णन है। बहुरि जैसैं च्यवन-उत्पाद कहि चौदह मार्गणानि विर्ष गुणस्थाननि की अपेक्षा लीएं जैसे जे-जे नामकर्म के बंधस्थान संभवै तिनका वर्णन है ।
. तहां गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद मार्गणानि विर्षे तो लेश्या अपेक्षा बंधस्थाननि का कथन है। कषाय मार्गणा विर्षे अनंतानुबंधी आदि जैसे उदय हो है. ताका, वा इनके देशघाती-सर्वघाती स्पर्द्धकनि का, वा सम्यक्त्व-संयम धातने का, वा लेश्या अपेक्षा बंधस्थाननि का कथन है । पर ज्ञान मार्गणा विर्षे गति आदिक की अपेक्षा करि बंधस्थाननि का कथन है । पर संयम मार्गणा वि सामायिकादिक के स्वरूप का, अर संयतासंयत विर्षे दोय गति अपेक्षा, अर असंयम वि च्यारि गति अपेक्षा बंधस्थाननि का कथन है । तहां नित्यपर्याप्त देव के बंधस्थान कहने की देवर्गति विर्षे जे-जे जीव जहां पर्यंत उपजै ताका, पर सासादन विर्षे बंधस्थान कहने कौं जे-जे जीव जैसे उपशम-सम्यक्त्व कौं छोडि सासादन होइ ताका इत्यादि कथन है । अर दर्शन मार्गणा विर्षे गति अपेक्षा बंधस्थाननि का कथन है। ..
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चन्द्रिका पोटिका 1
| Te
अर लेश्या मार्गणा विषै प्रथमादि नरक पृथ्वीनि विषै लेश्या संभवने का, जिस-जिस संहनन के धारी जे-जे जीव जहां-जहां पर्यंत नरकविषै उपजे ताका, नरकनिर्विषं पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था अपेक्षा बंधस्थानंनि कर का, तिर्यच विषै एकेंद्रियादिक के वा भोगभूमियां तिर्यच के जो-जो लेश्या पाइए ताका, श्रर जे-जे जीव जिस-जिस लेश्याकरि तियंच विषे उपजे ताका, अर तिनके निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था वि
स्थानft का अर जहां तें आए सासादन वा असंयत होइ अर तिनके जे बंधस्थानहोइ ताका, अर शुभाशुभलेश्यानि विर्षे परिणामनि का, तहां प्रसंग पाइ कषायनि के स्थान वा तहां संक्लेश-विशुद्धस्थान वा कषायनि के च्यारि शक्तिस्थान, चौदह लेश्या स्थान, बीस ग्रायु बन्धाबन्धस्थानः- तिनका श्रर लेश्यानि के छब्बीस अंश तहां पाठ मध्यम अंश श्रायुबन्ध को कारण, ते आठ अपकर्षकालनि विष होइ, अन्य मठारह अंश च्यारि गतिनि विषै गमन को कारण तिनके विशेष का, घर लेश्यानि के पलटने के क्रम का वर्णन करि तिर्थच के मिथ्यादृष्टि आदि विषै जैसे मिथ्यात्व कषायनि का उदय पाइए है ताकी कहि, तहां जे बंधस्थान पाइए ताका, अर भोगभूमियां तिर्यंच के वा प्रसंग पाई औरनि के जैसे निर्वृत्यपर्याप्त वा पर्याप्त मिथ्यादृष्टि आदि विषं जैसे श्याकरि बंधस्थान पाइए, वा भोगभूमि विषै जैसे उपजना होइ ताका वर्णन है ।
बहुरि मनुष्यमति विषै लब्धिपर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त, पर्याप्त दशा विषे जो-जो लेश्या पाइए वा तहां संभवते गुणस्थाननि विषे बंधस्थान पाइए ताका वर्णन है ।
बहुरि देवगति विष भवनत्रिकादिक के निर्वृ त्य पर्याप्त वा पर्याप्त दशा दिषै जो-जो लेश्या पाइए, वा देवनि के जहां जन्मस्थान हैं वा जे जीव जिस-जिस लेश्याकरि जहां-जहां देवगति विषै उपजे वा निर्वृत्यर्याप्त वा पर्याप्त दशर विषै मिथ्यादृष्टि आदि जीवनी के जे-जे बंधस्थान पाइए तिनका घर तहां प्रासंगिक गाथानिकरि जे-जे जीव जहां-जहां पर्यंत देवगति विषै उपजै, वा श्रनुदिशादिक विमाननि तैं चयकरि जे पद न पावें, वा जे जीव देवगति ते वयकरि मनुष्य होइ निर्वारण ही जाय, वा जहां के श्राये तिरेसठ शलाका पुरुष न होइ वा देवपर्याय पाइ जैसे जिनपूजादिक कार्य करें तिनका वर्णन है ।
बहुरि भव्यमार्गणा विषे बंधस्थानति का वर्णन है ।
बहुरि सम्यक्त्व मार्गणा विषै सम्यक्त्व के लक्षण का, भेदति का, जहां मरण न होय ताका, वर प्रथमोपशम सम्यक्त्व जाऊँ होइ ताका, वा वार्क जिन प्रकृतिनि
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४० ]
[ गोम्मटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण :
का उपशम होइ ताका, तहां लब्धि यादि होने का अर प्रथमोपशम सम्यक्त्व भए मिथ्यात्व के तीन खंड हो हैं ताका, तहां नारकादिक के जे बंधस्थान पाइए तिनका, तहां नरक विषें तीर्थंकर के बंध होने के विधान का, वा साकार - उपयोग होने का, ar free- farnज के स्वरूप का अर द्वितीयोपशम सम्यक्त्व जाकेँ होइ ताका, तहां पूर्वकरणादि विषै जो-जो क्रिया करता चढे वा उतरे ताका, तहां जे बंधस्थान संभवें ताका, वा तहां मरि देव होय ताकेँ बंधस्थान संभव ताका वर्णन है । बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व का प्रारंभ - विष्ठापन जाकें होइ ताका, वा तहां तीन करण हो हैं तिनका, thani गुणश्रेणी श्रादि होने का अर अनंतानुबंधी का विसंयोजनकरि पीछे केई क्रिया करि करणादि विधान तँ दर्शनमोह क्षपावने का, घर तहां प्रारंभ - निष्ठापन के काल का, वा तिनके स्वामीनि का, वा तहां तीर्थंकर सत्तावाले के तद्भव श्रन्यभव विषै मुक्ति होने का वर्णनकरि क्षायिक सम्यक्त्व विषै संभवते बंधस्थाननि का वर्णन है । बहुरि वेदक- सम्यक्त्व जिनकें होइ भर प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ते वा मिथ्यात्व तें जैसे वेदक सम्यक्त्व होइ, अर तिनकेँ जे बंधस्थान पाइए तिनका वर्णन है ।
बहुरि सासादन, मिश्र, मिध्यात्व जहां-जहां जिस-जिस दशा विषै संभवै अर सहां जे बंधस्थान पाइए तिनका वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ विवक्षित गुणस्थान तें जिस-जिस गुणस्थान को प्राप्त होइ ताका वर्णन है ।
बहुरि संशी पर श्राहार मार्गणा विषे बंधस्थाननि का वर्णन है । बहुरि नाम के बंधस्थाननि विषै भुजाकारादि कहने को पुनरुक्त, अपुनरुक्त भंगनि का, अर स्वस्थानादि तीन भेदनि का, प्रसंग पाइ गुणस्थाननि तें चढ़ने-उतरने का, जहां मरण न होइ ताका, कृतकृत्य - वेदक सम्यग्दृष्टि मरि जहां उपजै ताका, भुजाकारादिक के लक्षण का घर इकतालीस जीव पदनि विषै भंगसहित बंधस्थाननि का वर्णन करि मिथ्यादृष्टचादि गुणस्थाननि विषै संभवते भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित, अवक्तव्य भंगति का वर्णन है ।
बहुरि नाम के उदयस्थाननि का वर्णन विषै कार्माण १, मिश्रशरीर, : शरीरपर्याप्ति, उच्छ्वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति इन पंचकालनि का स्वरूप प्रमाणादिक कहि, वा केवली के समुद्घात अपेक्षा इनका संभवपना कहि नाम के उदयस्थान हानि १. 'होने का ' ऐसा ख पुस्तक में पाठ है ।
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सम्मका पोटिका
[ ४१
का विधान विषै ध्रुवोदयी आदि प्रकृतिनि का वर्णन करि तिन पंचकानि की अपेक्षा लीए जिस-जिस प्रकार वीस प्रकृति रूप स्थान तें लगाया संभवते नाम के उदयस्थाननि का, श्रर तहां प्रकृति बदलने करि संभवते भंगति का वर्णन है । बहुरि नाम के स्वस्थानविवर्णन दिपैं तिरागवे प्रकृतिरूप स्थान आदि जैसे जै सत्त्वस्थान है तिनका श्रर तहां जिन प्रकृतिनि की उद्वेलना हो है तिनके स्वामी वा क्रम वा कालादिक विशेष का, अर सम्यक्त्व, देशसंयम, अनंतानुबंधी का विसंयोजन, उपशमश्रेणी चढना, सकलसंयम धरना, ए उत्कृष्टपने केती वार होइ तिनका, अर च्यारि गति की अपेक्षा लीए गुरणस्थाननि विषै जे सत्त्वस्थान संभव तिनका, अर इकतालीस जीवपदनि विषै सस्वस्थान संभव तिनका वर्णन है ।
1
बहुरि त्रिसंयोग विषै स्थान वा भंगति का वर्णन है । तहां मूल प्रकृतिनि विषै जिस-जिस बंधस्थान होतें जो-जो उदय वा सस्वस्थान होइ ताका, अर ते मुरणस्थाननि विधें जैसे संभवें ताका वर्णन है । बहुरि उत्तर प्रकृतिनि विषै ज्ञानावरण, अंतराय का तो पांच-पांच ही का बंध, उदय, सत्त्व होइ तातें तहां विशेष वर्णन नाहीं । अर दर्शनावरण विषै जिस-जिस बंघस्थान होतैं जो-जो उदय वा सत्त्वस्थान गुणस्थान अपेक्षा संभव ताका वर्णन है, घर वेदनीय विषं एक-एक प्रकृति का उदयबंध होतें भी प्रकृति बदलने की अपेक्षा, वा सत्त्व दोय का वा एक का भी हो है, arit अपेक्षा गुणस्थान विषै संभवते भंगति का वर्णन है । बहुरि गोत्र विषे नीच उच्च गोत्र के बंध, उदय, सत्व के बदलने की अपेक्षा गुणस्थाननि विषं संभवते भंगनि का वर्णन है । बहुरि श्रायु विषै भोगभूमियां आदि जिस काल विषे प्रायुबंध करें ताका, एकेंद्रियादि जिस श्रायु कीं बांध ताका नारकादिकति कैं आयु का उदय, सत्त्व संभव ताका घर आठ अपकर्ष विषे बंधे ताका, वहां दूसरी, तीसरी बार आयुबंध होने विषे घटने बधने का, पर बध्यमान- भुज्यमान श्रायु के घटने रूप अपवर्तनघात, कंदलीघात का वर्णन करि बंध, प्रबंध, उपरितबंध की अपेक्षा गुणस्थाननि विषै संभवते भंगति का वर्णन है । बहुरि वेदनीय, गोत्र, आयु इनके भंग मिथ्यादृष्टयादि विषै जेते जेते संभवें, वा सर्व भंग जेते जेते हैं तिनका वर्णन है ।
बहुरि मोह के स्थाननि की सस्वस्थान जैसे पाइए ताका वर्णन प्राधेय, तीन प्रकार, तहां जिस-जिस
अपेक्षा भंग कहि गुणस्थाननि विषे बंध, उदय, करि मोह के त्रिसंयोग विषै एक आधार, दोय बंधस्थान विषै जो-जो उदयस्थान, वा
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४२ }
[ गोम्मटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण
मान्य
सत्त्वस्थान संभकै, अर जिस-जिस उदयस्थान विर्षे जो-जो बंधस्थान वा सत्त्वस्थान संभव, अर जिस-जिस सत्त्वस्थान विर्षे जो-जो बंधस्थान वा उदयस्थान संभवै तिनका वर्णन है । बहुरि मोह के बंध, उदय, सत्त्वनि विर्षे दोय आधार, एक प्राधेय तीन प्रकार, तहां जिस-जिस बंधस्थानसहित उदयस्थान विर्षे जो-जो सत्त्वस्थान जिसप्रकार संभव, अर जिस-जिस बंधस्थानसहित सत्त्वस्थान विर्षे जो-जो उदयस्थान संभवे पर जिस-जिस उदयस्थाने सहित सस्वस्थान विषं जो-जो बंधस्थान पाइए ताका वर्णन है । बहुरि नामकर्म के स्थानोक्त भंग कहि गुणस्थाननि विर्षे, पर चौदह जीवसमासनि विर्षे अर गति आदि मार्गरणानि के भेदनि विर्ष संभवते बंध, उदय, सत्त्वस्थाननि का वर्णनकरि एक प्राधार, दोय प्राधेय का वर्णन विर्षे जिस-जिस बंधस्थाननि दिई जो-जो उदयस्थान वा सत्त्वस्थान जिसप्रकार संभवै, पर जिस-जिस उदयस्थान विर्षे जो-जो बंधस्थान वा सत्त्वस्थान जिसप्रकार संभवै, पर जिस-जिस सत्त्वस्थान विर्षे जो-जो बंधस्थान वा उदयस्थान जिस-जिसप्रकार संभव तिनका वर्णन है । बहुरि दोय आधार, एक प्राधेय विर्षे जिस-जिस बंधस्थानसहित उदय स्थान विर्षे जो-जो सत्त्वस्थान संभवै, अर जिस-जिस बंधस्थानसहित सत्त्वस्थान विर्षे जो-जो उदयस्थान संभ पर जिस-जिस उदयस्थानसहित सत्त्वस्थान विर्षे जो-जो बंधस्थान पाइए तिमका वर्णन है।
बहुरि छठा प्रत्यय अधिकार है, तहां नमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञा करि च्यारि भूल आस्रव अर सत्तावन उत्तरास्रवनि का, अर ते जेसै गुणस्थाननि विधैं संभवै ताका, तहां व्युच्छित्ति वा प्रास्रवनि के प्रमाण, नामादिक का वर्णन करि, तहां विशेष जानने कौं पंच प्रकारनि का वर्णन है। तहां प्रथम प्रकार विर्षे एक जीव के एक काल संभवें ऐसे जघन्य, मध्यम, उत्कृष्टरूप प्रास्त्रवस्थान जेते-जेते गुणस्थाननि विष पाइए तिनका वर्णन है।
बहुरि दूसरा प्रकार विर्षे एक-एक स्थान विर्षे आस्रवभेद बदलने से जेते-जेते प्रकार होइ तिनका वर्णन है ।
बहुरि तीसरा प्रकार विर्षे तिन स्थाननि के प्रकारनि विर्षे संभवते प्रास्रवनि की अपेक्षा कूटरचना के विधान का वर्णन है ।
___ बहुरि चौथा प्रकार विर्षे तिनहूं कूटनि के अनुसारि प्रक्षसंचारि विधान हैं जैसें आलवस्थाननि कौं कहने का विधानरूप कूटोच्चारण विधान का वर्णन है । वहां
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for
{ ૪૩
अविरत विषै युगपत् संभवत हिंसा के प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भेदनि का, श्रर ते भेद जेते होइ ताका वर्णन है ।
बहुरि पांचवां प्रकार विषै तिन स्थाननि विषै भंग ल्यावने के विधान का वाग का वहाँ अविरत विषे हिंसा के प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भंग ल्यावने कौं गणितशास्त्र के अनुसार प्रत्येक द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी यादि भंग केल्यावने के विधान का वर्णन है । बहुरि सवति के विशेषभूत जिनि-जिनि भाव तें स्थिति अनुभाग की विशेषता लीयें ज्ञानावरणादि जुदि-जुदि प्रकृति का बंध होइ तिनका क्रम तैं वर्णन है ।
बहुरि सातवां भावचूलिका नामा अधिकार हैं। तहां नमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञा करि भावनि तँ गुणस्थानसंज्ञा हो है ऐसे कहि पंच मूल भावनि का, पर इनके स्वरूप का, १ अर तिरेपन उत्तर भावनि का, अर मूल-उत्तर भावनि विषै अक्षसंचार विधान से प्रत्येक परसंयोगी, स्वसंयोगी, द्विसंयोगी आदि भंग जैसे होइ ताका, श्रर नाना जीव, नाना काल अपेक्षा गुणस्थान विषै संभवते भावनि का वर्णन है ।
बहुरि एक जीव के युगपत् संभवते भावनि का वर्णन है । तहां गुणस्थाननि विषै मूल 'भावनि के प्रत्येक, परसंयोगी, द्विसंयोगी आदि संभवते भंगति का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ प्रत्येक, द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि भंग ल्यावने के गणितशास्त्र अनुसार विधानं वर्णन है । बहुरि गुणस्थाननि विषै मूल भावनि की वा तिनके मंगनि की संख्या का वर्णन है ।
बहुरि उत्तर भावनि के भंग स्थानगत, पदगतं भेद तें दोय प्रकार कहे हैं । तहां एक जीव के एक काल संभवते भावनि का समूह सो स्थान । तिस अपेक्षा जे स्थानगत भंग, तिन विषे स्वसंयोगी भंग के अभाव का अर गुणस्थाननि विषै संभवते श्रीपशमिकादिक भावनि का पर श्रदयिक के स्थाननि के भंगनि का वर्णन करि तहां संभवते स्थाननि के परस्पर संयोग की अपेक्षा गुण्य, गुणकार, क्षेपादि विधान तें जैसे जेते प्रत्येक भंग पर परसंयोगी विषै द्विसंयोगी आदि भंग होइ तिनका, और हां गुण्य, गुणकार, क्षेत्र का प्रमाण कहि सर्वभंगनि के प्रमाण का वर्णन है ।
बहुरि जातिपद, सर्वपद भेदकर पदगत भंग दोय प्रकार, तिनका स्वरूप कहि गुणस्थाननि विषे जेते जेते जातिपद संभवें तिनका भर तिनको परस्पर
१ ख पुस्तक में यह पाठ नहीं है ।
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AREN
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| गोम्मटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण लगावने की अपेक्षा गुण्य, गुणकार, क्षेप आदि विधान से जेते-जेते प्रत्येक स्वसंयोगी परसंयोगी, द्विसंयोगी आदि भंग संभ तिनका, अर तहां गुण्य, गुणकार, क्षेप का प्रमाण कहि सर्व मंगनि के प्रमाण का वर्णन है ।
बहुरि पिडपद, प्रत्येकपद भेदकरि सर्वपद भंग दोय प्रकार है । तिनके स्वरूप का, अर गुणस्थान वि ए जेतै जैसे संभवे ताका, अर तहां परस्पर लगाबने ते प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भंग कीए जे भंग होहि तिनका, तहां मिथ्यादृष्टि का पन्द्रहवां प्रत्येक पद लिए भंग ल्याउने का, प्रसंग पाइ गणितशास्त्र के अनुसार एकवार, दोयवार
आदि संकलन धन के विधान का, पर गुरणस्थाननि विषं प्रत्येकपद, पिंडपदनि की रचना के विधान का, पर प्रत्येकपदनि के प्रमाण का, अर तहां जेते सर्वपद भंग भए तिनका वर्णन है । बहुरि यहाँ तीनस तिरेसठि कुवाद के भेदनि का पर तिन विर्षे जैसे प्ररूपण है ताका, अर एकान्तरूप मिथ्यावचन, स्याद्वादरूप सम्यग्वचन का वर्णन है।
बहुरि पाठवां त्रिकरण चूलिका नामा अधिकार है । तहां मंगलाचरण करि करणनि का प्रयोजन कहि अधःकरण का वर्णन विर्षे ताके काल का अर तहां संभवते सर्व परिणाम, प्रथम समय संबंधी परिणाम, अर समय-समय प्रति वृद्धिरूप परिणाम, वा द्वितीयादि समय संबन्धी परिणाम, वा समय-समय सम्बन्धी परिणामनि विर्षे खंड रचनाकरि अनुकृष्टि विधान, तहां खंडनि विर्षे प्रथम खंड विष वा खंड-खंड प्रति वृद्धिरूप वा द्वितीयादि खंडनि विर्षे परिणाम तिनका अंकसंदृष्टि वा अर्थ अपेक्षा वर्णन है। तहां श्रेणीव्यवहार नामा गणित के सूत्रनि के अनुसार ऊर्ध्वरूप गच्छ, चय, उत्तर धन, आदि धन, सर्व धनादिक का, अर अनुकृष्टि विर्षे तिर्यग्रूप गच्छादिक के प्रमाण ल्यावने का विधान वर्णन है । पर तिन खंडनि विर्षे विशुद्धता का अल्पबहुत्व का वर्णन है । बहुरि अपूर्वकरण का वर्णन विर्षे अनुकृष्टि विधान नाही, ऊर्ध्वरूप गच्छादिक का प्रमारण ल्यावने का विधान पूर्वक ताके काल का वा सर्व परिणाम, प्रथम समयसंबन्धी परिणाम, समय-समय प्रति वृद्धिरूप परिणाम, द्वितीयादि समय संबन्धी परिणाम, तिनका अंकसंदृष्टि वा अर्थ अपेक्षा वर्णन है । बहुरि अनिवृत्ति करण विर्षे भेद नाहीं, तात तहां कालादिक का वर्णन है।
बहुरि नवमा कर्मस्थिति अधिकार है । तहां नमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञाकरि भाबाधा के लक्षण का वा स्थिति अनुसार ताके काल का, वा उदी अपेक्षा
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सम्याशामहिम गोठिका
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आबाधाकाल का वर्णन है। बहुरि कर्मस्थिति विर्षे निषेकनि का वर्णन है । बहुरि प्रथमादि गणहानिनि के प्रथमादि निषेकनि का वर्णन है। बहरि स्थितिरचना विर्षे द्रव्य, स्थिति, गुरणहानि, नानागुरणहानि, दोगुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त इनके स्वरूप, का, अर अंकसंदृष्टि का अर्थ अपेक्षा तिनके प्रमाण का वर्णन है । तहां नानागुणहानि अन्योन्याभ्यस्त राशि सर्व कर्मनि का समान नाहीं, तातै इनका विशेष वर्णन है । तहां मिथ्यात्वकर्म की नानागुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त जानने का विधान वर्णन है । इहां प्रसंग पाइ 'अंतधणं गुणगुरिणयं' इत्यादि करणसूत्रकरि गुणकाररूप पंक्ति के जोडने का विधान आदि वर्णन है। बहुरि गुणहानि, दो गुणहानि के प्रमाण का वर्णन है । तहां ही विशेष जो चय ताका प्रमाण वर्णन है ! ऐसे प्रमाण कहि प्रथमादि गुणहानिनि का वा तिनविर्षे प्रथमादि निषेकनि का द्रव्य जानने का विधान वा ताका प्रमाण अंकसंदृष्टि वा अर्थ अपेक्षा वर्णन है। बहुरि मिथ्यात्ववत् अन्यकर्मनि की रचना है। तहां गुणहानि, दो गुणहानि तो समान हैं, अर नानागुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त राशि समान नाहीं । तिनके जानने कौं सात पंक्ति करि विधान कहि तिनके प्रमाण का, पर जिस-जिसकाजेता-जेता नानागुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त का प्रमाण आया, ताका वर्णन है । बहुरि ऐसे कहि अंकसंदृष्टि अपेक्षा त्रिकोणयंत्र, अर त्रिकोणयंत्र का प्रयोजन, अर तहां एक-एक निषेक मिलि एक समयप्रबद्ध का उदय त्रिकोणयंत्र हो है। अर सर्व त्रिकोणयंत्र के निषेक जोड़े किचिदून द्वधगुणहानि गुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण सत्त्व हो है तिनका वर्णन है । बहुरि निरंतर-सांतररूप स्थिति के भेद, स्वरूप स्वामीनि का वर्णन है। बहुरि स्थितिबंध कौं कारण जे स्थितिबंधाध्यवसायस्थान तिनका वर्णन विर्षे प्रायु प्रादि कर्म के स्थितिबंधाध्यवसायस्थाननि के प्रमाण का पर स्थितिबंधाध्यवसाय के स्वरूप जानने कौं सिद्धांत वचनिका वर्णनकरि स्थिति के भेदनि कौं कहि तिन विर्षे जेते-जेते स्थितिबंधाध्यवसायस्थान संभवे तिनके जानने को द्रव्य, स्थिति, गुरगहानि, नानागुणहानि, दो गुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त का वा चय का, वा प्रथमादि गुणहानिनि का, वा तिनके निकनि का, वा आदि धनादिक का द्रव्यप्रमाण पर ताके जानने का विधान, ताका वर्णन है । बहुरि इहां एक-एक स्थितिभेद संबंधी स्थितिबन्धाध्यवसायस्थननि विर्षे नानाजीव अपेक्षा खंड हो है । तहां ऊपरली-नीचली स्थिति संबंधी खंड समान भी हो हैं; तातें तहां अनुकृष्टि-रचना का वर्णन है । तहां आयुकर्म का जुदा ही विधान है, तातै पहिले प्रायु की कहि, पीछे मोहादिक की अनुकृष्टि-रचना का अंकसंदृष्टि वा अर्थ अपेक्षा वर्णन है । तहां
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[अर्थसंदृष्टि प्रकरण खंडनि की समानता-असमानता इत्यादि अनेक कथन है । बहुरि अनुभागध को कारण जे अनुभागाध्यबसायस्थान तिनका वर्णन विर्षे तिन सर्वनि का प्रमाण कहि, तहां एक-एक स्थितिभेद संबंधी स्थितिबंधाध्यवसायस्थाननि विर्षे द्रव्य, स्थिति, गुणहानि आदि का प्रमाणादिक काहि एक-एक स्थितिबंधाध्यवसायस्थानरूप जे निषेक तिनविर्षे जेते-जेते अनुभागाध्यवसायस्थान पाइए तिनका वर्णन है । बहुरि मूलग्रंथकर्ताकरि कीया हुवा ग्रंथ की संपूर्णता होने विर्षे ग्रंथ के हेतु का, चामुंडराय राजा को पाशीर्वाद का, ताकरि बनाया चैत्यालय वा जिनबिंब का, वीरमातंड राजा कौं आशीर्वाद का वर्णन है । बहुरि संस्कृत टीकाकार अपने गुरुनि का वा ग्रंथ होने के समाचार कहे हैं तिनका वर्णन है ।
असे श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह मूलशास्त्र, ताको जीवतस्वप्रदीपिका नामा संस्कृतटीका के अनुसार इस भाषाटोका विणे अर्थ का वर्णन होसी ताको सूचनिका कही।
अर्थसंदृष्टि सम्बन्धी प्रकरण बहुरि तहां जे संदृष्टि हैं, तिनका अर्थ, वा कहे अर्थ तिनकी संदृष्टि जानने कौं इस भाषाटीका विर्षे जुदा ही संदृष्टि अधिकार विर्षे वर्णन होसी ।
___ इहां कोऊ कहै - अर्थ का स्वरूप जान्या चाहिए, संदृष्टिनि के जाने कहा सिद्धि हो है ?
ताका समाधान - संदृष्टि जानें पूर्वाचार्यनि की परंपरा ते चल्या पाया जो संकेतरूप अभिप्राय, ताकौं जानिए है । पर थोरे में बहुत अर्थ कौं नीकै पहिचानिए है । पर मूलशास्त्र वा संस्कृतटीका विर्षे, वा अन्य ग्रंथनि विर्षे, जहां संदृष्टिरूप व्याख्यान है, तहां प्रवेश पाइये है । अर अलौकिक मरिणत के लिखने का विधान प्रादि चमत्कार भास है । पर संदृष्टिनि को देखते ही ग्रंथ की गंभीरता प्रगट हो है - इत्यादि प्रयोजन जानि संदृष्टि अधिकार करने का विचार कीया है ।
तहां केई संदृष्टि प्राकाररूप है, केई. अंकरूप है, केई अक्षररूप है, केई लिखने हो का विशेषरूप है, सो तिस अधिकार विर्षे पहिले तो सामान्यपने संदृष्टिनि का वर्णन है, तहां पदार्थनि के नाम से, संख्या से पर अक्षरनि ते अंकनि की पर प्रभृति आदि की संदृष्टिनि का वर्णन है ।
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सम्मका पौडिका }
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बहुरि सामान्य संख्यात, असंख्यात, अनंत की, पर इनके इकईस भेदनि की, अर पत्य श्रादिश्राठ उपमा प्रमाण की, पर इनके अर्धच्छेद वा वर्गशलाकानि की संदृष्टिनि का वर्णन है । बहुरि परिकर्माष्टक विषे संकलतादि होते जैसे सहनानि हो है अर बहुत प्रकार संकलनादि होते वा संकलनादि आठ विषे एकत्र दोय, तीन आदि होते जो सहनानी हो है, वा संकलनादि विषै नेक सहनानी का एक अर्थ हो हैं इत्यादिकिनि का वर्णन है । पर स्थिति अनुभागादिक विर्षे आकाररूप सहनानी है, वा केई इच्छित सहनानी है, इत्यादिकनि का वर्णन है । असें सामान्य वर्णन करि पीछे श्रीमद् गोम्मटसार नामा मूलशास्त्र वा ताकी जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा टीका, ताविषै जिस-जिस अधिकार विषै कथन का अनुक्रम लीए संख्यादिक अर्थ की जैसे-जैसे संदृष्टि है, तिनका
क्रम तैं वर्णन है। तहां केई करण वा त्रिकोणयंत्र का जोड़ इत्यादिकनि का संदृष्टिनि का संस्कृत टीका विषै वर्णन था पर भाषा करते अर्थ न लिख्या था, farer इस संदृष्टि अधिकार विषे अर्थ लिखिएगा। घर मूलशास्त्र के यंत्ररचना विष या संस्कृत टीका विषे केई संदृष्टिरूप रचना ही लिखी थी । तिनको अर्थपूर्वक इस संदृष्टि अधिकार विषै लिखिएगा, सो इहां तिनकी सूचनिका लिखें विस्तार होई, ता तहां ही वर्णन होगा सो जानना ।
sri कोक कहै - मूलशास्त्र वा टीका विषै जहां संदृष्टि वा अर्थ लिया था, तहां ही तुम भी तिनके अर्थनि का निरूपण करि क्यों न लिखान किया ? तहां छोडि farai एकत्र करि संदृष्टि अधिकार विषै कथन किया सो कौंन कारण ?
तहां समाधान
जो यहु टीका मंदबुद्धीनि के ज्ञान होने के अर्थ करिए है, सो या विषै बीच-बीच संदृष्टि लिखने तें कठिनता तिनको भासै, तब अभ्यास तें faमुख होइ, तातैं जिनको प्रर्थमात्र ही प्रयोजन होहि सो अर्थ ही का अभ्यास करी अर जिनकी संदृष्टि को भी जाननी होइ, ते संदृष्टि अधिकार विषै तिनका भी अभ्यास करौ ।
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बहुरि इहाँ कोई कहै - तुम अंसा विचार कीया, परंतु कोई इस टीका का अवलंबन तें संस्कृत टीका का अभ्यास कीया चाहै, तो कैसें अभ्यास करें ?
लाकों कहिए है - श्रर्य का तो अनुक्रम जैसे संस्कृत टीका विष है, तसे या विष है ही । अर जहां जो संदृष्टि आदि का कथन बीचि मैं आयें, ताक संदृष्टि अधिकार दि तिस स्थल विषे बाकी कथन है; 'ताको जानि तहां अभ्यास करी | ऐसे विचार संदृष्टि अधिकार करने का विचार कीया है।
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४]
लब्धिसार-क्षपणासार सम्बन्धी प्रकरण
लब्धिसार-क्षपणासार सम्बन्धी प्रकरण
बहुरि ऐसा विचार भया जो लब्धिसार घर क्षपणासार नामा शास्त्र है, तिन विषै सम्यक्त्व का अर चारित्र का विशेषता लीए बहुत नीकै वर्णन है । पर तिस वन को जानें मिथ्यादृष्ट्यादि गुणस्थाननि का भी स्वरूप नीकै जानिए हैं, सो इनका जानना बहुत कार्यकारी जानि, तिन ग्रंथनि के अनुसारि किछू कथन करना । तातें लब्धिसार शास्त्र के गाथा सूत्रनि की भाषा करि इस ही टीका विष मिलाइएगा । तिस ही के क्षपक श्रेणी का कथन रूप गाथा सूत्रनि का अर्थ विषै क्षपणासार का अ गर्भित होगा ऐसा जानना ।
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हो है तिन ग्रंथनि की जुदी ही टीका क्यों न करिए ? याही वि कथन करने का कहा प्रयोजन ?
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ताका समाधान गोम्मटसार विषै कह्या हुवा केइक अनि को जाने बिना तिन ग्रंथनि विष कह्या हुवा केतेइक अर्थनि का ज्ञान न होय, वा तिन ग्रंथनि विषं कह्या हुवा भर्थ कौं जानें इस शास्त्र विषै कहे हुए गुणस्थानादिक केलेइक अर्थनि का स्पष्ट ज्ञान होइ, सो ऐसा संबंध जान्या अर तिन ग्रंथति विषै कहे अर्थ कठिन हैं, सो जुदा रहे प्रवृत्ति विशेष न होइ तातें इस ही विषे तिन ग्रंथनि का अर्थ लिखने का? विचार कीया है । सो तिस विषै प्रथमोपशम सम्यक्त्वादि होने का विधान धाराप्रवाह रूप वर्णन है । तातें ताकी सूचनिका लिखें विस्तार होइ, कथन श्रा होयहोगा। तातें इहां अधिकार मात्र ताकी सूचनिका लिखिए हैं ।
प्रथम मंगलाचरण करि प्रकार कारण का वा प्रकृतिबंधापसररण, स्थितिबंधारण, स्थितिकांडक, अनुभागकांडक, गुणश्रेणी फालि इत्यादि, केतीइक संज्ञानि का स्वरूप वर्णन करि प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने का विधान वर्णन हैं ।
तहां प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने योग्य जीव का अर पंचलब्धिनि के नामादिक कहि, तिनके स्वरूप का वर्णन है । तहां प्रायोग्यता लब्धि का कथन विषै जैसे स्थिति घटै है अर तहां च्यारि गति अपेक्षा प्रकृतिबन्धापसरण हो 'है ताका, अर स्थिति, अनुभाग, प्रदेशबंध का वर्णन है । बहुरि च्यारि गति अपेक्षा एक जीव के युगपत् संभवता मंगसहित प्रकृतिनि के उदय का, अर स्थिति, अनुभाग, प्रदेश के
१. प्रति में 'अर्थ लिखने का' स्थान पर 'अनुसारि किछु कथन' ऐसा पाठ मिलता है ।
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सभ्यरज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
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उदय का वर्णन है । बहुरि एक जीव के युगपत् संभवती प्रकृतिनि के सत्व का रस स्थिति, अनुभाग, प्रदेश के सत्त्व का वर्णन है । बहुरि करपलब्धि का कथन विर्षे तीन करणनि का नाम-कालादिक कहि तिनके स्वरूपादिक का वर्णन है ।
तहां अधःकरण विर्षे स्थितिबंधापसरणादिक आवश्यक हो हैं, तिनका वर्णन है।
पर अपूर्वकरण विर्षे च्यारि आवश्यक, तिनविर्षे गुणश्रेणी निर्जरा का कथन है । तहां अपकर्षण किया हुआ द्रव्य कौं जैसे उपरितन स्थिति गुणश्रेणी पायाम उदयावली विर्षे दीजिए है, सो वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ उत्कर्षण वा अपकर्षण किया हुभाष का निधो पर अतिस्वातन का विशेष वर्णन है । बहुरि गुणसंक्रमण इहा न संभव है, सो जहां संभव है ताका वर्णन है । बहुरि स्थितिकोडक, अनुभागकांडक के स्वरूप, प्रमाणादिक का अर स्थिति, अनुभागकांडकोत्करण काल का वर्णनपूर्वक स्थिति, अनुभाग, सत्त्व घटाउने का वर्णन है । , बहुरि अनिवृत्तिकरण विर्षे स्थितिकांडकादि विधान कहि ताके काल का संख्यातवां भाग रहें अंतरकरण हो है, ताके स्वरूप का, पर आयाम प्रमाण का, अर ताके निषेकनि का अभाव करि जहां निक्षेपण कीजिए है ताका इत्यादि वर्णन है । बहुरि अंतरकरण करने का अर प्रथम स्थिति का, अर अंतरायाम का काल वर्णन है । बहुरि अंतरकरण का काल पूर्ण भए पीछे प्रथम स्थिति का काल विर्षे दर्शनमोह के उपशमावने का विधान, काल, अनुक्रमादिक का, तहां पागाल, प्रत्यागाल जहां पाइए है वा न पाइए है ताका, दर्शनमोह की गुणश्रेणी जहां न होइ है, ताका इत्यादि अनेक वर्णन है।
बहुरि पीछे अंतरायाम का काल प्राप्त भए उपशम सम्यक्त्व होने का, तहां एक मिथ्यात्व प्रकृति कौं तीन रूप परिणमावने के विधान का वर्णन है । बहरि उपशम सम्यक्त्व का विधान विर्षे जैसे काल का अल्पबहुत्व पाइए है, तैसे वर्णन है । . बहुरि प्रथमोपशम सम्यक्त्व विर्षे मरण के अभाव का, अर तहां से सासादच होने. के कारण का, अर उपशम सम्यक्त्व का प्रारंभ वा निष्ठापन विर्षे जो-जो उपयोग, योग, लेश्या पाइए ताका, अर उपशम सम्यक्त्व के काल, स्वरूपादिक का, अर तिस. काल कौं पूर्ण भए पीछे एक कोई दर्शनमोह की प्रकृति उदय प्रावने का, तहां जैसे
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(सचितार-क्षपणासार सम्बन्धी प्रकरण द्रव्य कौं अपकर्षण करि अंतरायामादि विषं दीजिए है ताका, अर दर्शनमोह का उदय भए वेदक सम्यक्त्व वा मिश्र गुणस्थान वा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान हो है, तिनके स्वरूप का वर्णन है।
बहरि क्षायिक सम्यक्त्व का विधान वर्णन है । तहां क्षायिक सम्यक्त्व का प्रारंभ जहां होइ ताका, पर प्रारंभ-निष्ठापन अवस्था का वर्णन है । बहुरि अनंतानुबंधी के विसंयोजन का वर्णन है । तहां तीन करणनि का भर अनिवृत्तिकरण विर्षे स्थिति घटने का अर अन्य कषायरूप परिणमने के विधान प्रमाणादिक का कथन है। . बहुरि विश्राम लेइ दर्शनमोह की क्षपणा हो है, ताका विधान वर्णन है । तहां संभवता स्थितिकांडादिक का वर्णन है । पर मिथ्यात्व, मिश्रमोहनी, सम्यक्त्वमोहनी विष स्थिति घटावने का, बा संक्रमण होने का विधान वर्णन करि सम्यक्त्वमोहनी की आठ वर्ष प्रमाण स्थिति रहे अनेक क्रिया विशेष हो हैं, वा तहा गुणश्रेणी, स्थितिकांडकादिक विर्षे विशेष हो है, तिनका वर्णन है । बहुरि कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होने का बा तहां मरण होते लेण्या वा उपजने का, वा कृतकृत्य वेदक भए पीछे जे क्रिया विशेष हो हैं अर तहां अंतकांडक बा अंतफालि विर्षे विशेष हो है, तिनका वर्णन है। बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व होने का वर्णन है। बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व के विधान विर्षे संभवते काल का तेतीस जायगां अल्पबहुत्व वर्णन है। बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप का वा मुक्त होने का इत्यादि वर्णन है।
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बहुरि चारित्र दोय प्रकार - देशचारित्र, सकलचारित्र । सो ए जाके होइ वा सन्मुख होत जो क्रिया होइ सो कहि देशाचारित्र का वर्णन है। तहां वेदक सम्यक्त्व सहित देशचारित्र जो अहै, ताके दोइ ही कारण होइ, गुणश्रेणी न होइ, देशसंयत को प्राप्त भए गुणश्रेणी होइ इत्यादि वर्णन है । बहुरि एकांतवृद्धि देशसंयत के स्वरूपादिक का वर्णन है । बहुरि अधःप्रवृत्त देशसंयत का वर्णन है। तहां ताके स्वरूप-कालादिक का, अर तहां स्थिति-अनुभायखंडन न होइ, अर तहां देशसंयत ते भ्रष्ट होइ देशसंयत कौं प्राप्त होइ ताक करण होने न होने का, अर देशसंयत विर्षे संभवते गुणश्रेण्यादि विशेष का वर्णन है । बहुरि देशसंयम के विधान विर्षे संभवते काल का अल्पबहुत्वता का वर्णन है । बहुरि जघन्य, उत्कृष्ट देशसंयम जाकै होइ ताका, अर देशसंयम विष स्पर्द्धक का अविभागप्रतिच्छेद पाइए ताका वर्णन है । बहुरि देशसंयम के स्थाननि का, अर तिनके प्रतिपात, प्रतिपद्यमान, अनुभयरूप तीन प्रकारनि का, अर ते कम
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सम्यग्ज्ञानका पीठिका
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ते जैसे जिनके जेते पाइए, अर बीच में स्वामीरहित स्थान पाइए तिनका अर तहां विशुद्धता का वर्णन है ।
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बहुरि सकलचारित्र तीन प्रकार - क्षायोपशमिक, औपशमिक, क्षायिकः तहां araivator चारित्र का वर्णन है । तिसविषे यहु जाऊँ होइ ताका, वा सन्मुख होतें जो क्रिया होइ, ताका वर्णन करि वेदक सम्यक्स्व सहित चारित्र ग्रहण करनेवाले कैं दोय ही करण होइ इत्यादि अल्पबहुत्व पर्यंत सर्वं कथन देशसंयतवत् है, ताका वर्णन है । बहुरि सकलसंयम स्पर्द्धक वा अविभागप्रतिच्छेदन का कथन करि प्रतिपात, प्रतिपद्यमान, अनुभयरूप स्थान कहि ते जैसे जेते जिस जीव के पाइए, तिनका क्रम तें वर्णन है । तहां विशुद्धता का वा म्लेच्छ के सकलसंयम संभवने का वा सामयिकादि संबंधी स्थानति का इत्यादि विशेष वर्णन है । बहुरि श्रपशमिक चारित्र का वर्णन है । तहां वेदक सम्यक्त्व जिस-जिस विधानपूर्वक क्षायिक सम्यक्त्वी वा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वी होइ उपशम श्रेणी चढे है, ताका वर्णन | तहां द्वितीयोपशम Rare होने का विधान विषै तीन करण, गुणश्रेणी, स्थितिकांडकादिक वा अंतरकरणादि का विशेष वर्णन है ।
बहुरि उपशम श्रेणी विषै आठ अधिकार हैं, तिनका वर्णन है । तहां प्रथम अधः करण का वर्णन है । बहुरि दूसरा प्रपूर्वकरण का वर्णन है । इहां संभवते श्रावश्यकनि का वर्णन है । इहां लगाय उपशम श्रेणी का चढ़ना वा उतरणा विषै स्थितिबंधासरण अर स्थितिकांडक वा अनुभाग कांडक के प्रायामादिक के प्रमाण का अर इनकों होतें जैसा जैसा स्थितिबंध श्रर स्थितिसत्त्व वा अनुभागसत्व अवशेष रहे, ताका यथा ठिकाण बीच-बीच वर्णन है, सो कथन आगे होइगा तहां जानना | बहुरि पूर्वकरण का वर्णन विषै प्रसंग पाइ, अनुभाग के स्वरूप का वा वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, गुणहानि, नानागुणहानि का वर्णन है । पर इहां गुणश्रेणी, गुणसंक्रम हो है, पर प्रकृतिबंध का व्युच्छेद हो है, ताका वर्णन है । बहुरि अनिवृत्तिकरण का कथन विषे देशे करणनि विषै तोन करणनि का अभाव हो हैं । ताका अनुक्रम लीएं कर्मनि का स्थितिबंध करनेरूप क्रमकरण हो है ताका; तहां प्रसंख्यात समयप्रबंद्धति की उदीरणादिक का, र कर्मप्रकृतिनि के स्पर्द्धक देशघाती करनेरूप देशघातीकरण का पर कर्मप्रकृतिनि के केass निषेकनि का प्रभाव करि श्रन्य निषेकनि विषै निपेक्षण करने रूप अंतरकरण का, अर अंतरकरण की समाप्तता भए युगपत् सात करननि का प्रारंभ हो हैं ताका, तहां ही आनुपूर्वी संक्रमण का - इत्यादि वर्णन करि नपुंसकवेद
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लिब्धिसार-क्षपणासार सम्मन्धी प्रकरण पर सीवेद पर छह हास्यादिक, पुरुषवेद, तीन क्रोध पर तीन माया अर' दोय लोभ; इनके उपशमावने के विधान का अनुक्रम तें वर्णन है । तहां गुणश्रेणी का दा स्थिति-अनुभागकांडकपात होने न होने का अर नपुंसकवेदादिक वि नवबंध के स्वरूप-परिणमनादि विशेष का, वा प्रथम स्थिति के स्वरूप का आदि विशेष का, वा तहां प्रागाल , प्रत्यागाल गुणश्रेणी न हो है इत्यादि विशेषनि का, अर संक्रमणादि विशेष पाइए हैं, तिनका इत्यादि अनेक वर्णन पाइए हैं। बहुरि संज्वलन लोभ का उपशम विधान विर्षे लोभ-वेदककाल के तीन भागनि का, अर तहां प्रथम स्थिति प्रादिक का वर्णन करि सूक्ष्मकृष्टि करने का विधान वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धकनि का कथन करिअर कृष्टि करने का वर्णन है। इहां बादरक़ष्टि तो है ही नाहीं, सूक्ष्मकृष्टि है, तिनविर्षे जैसे कर्मपरमाणु परिणम हैं वा तहां ही जैसे अनुभागादिक पाइए है, या तहां अनुसमयापवर्तनरूप अनुभाग का पात हो है इत्यादिकनि का, अर उपशमावने आदि क्रियानि का वर्णन है । बहुरि सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान कौं प्राप्त होइ सूक्ष्मकृष्टि कौं प्राप्त जो लोभ, ताके उदय कौं भोगवने का, तहां संभवती गुणश्रेणी, प्रथम स्थिति आदि का इहां उदय-अनुदयरूप जैसे कृष्टि पाइए तिनका, वा संक्रारण-उपशमनादि क्रियानि का वर्णन है। बहुरि सर्व कषाय उपशमाय उपशांत कषाय हो है ताका, अर तहां संभवती गुणश्रेणी आदि क्रियानि का, अर इहां जे प्रकृति उदय हैं, तिनविर्षे परिणामप्रत्यय पर भवप्रत्ययरूप विशेष का वर्णन है। वेस संभवती इकईस चारित्रमोह की प्रकृतिः उपशमावने का विधान कहि उपशांत कषाय त पड़नेरूप दोय प्रकार प्रतिपात का, तहां भवक्षय निमित्त प्रतिपात ते देव संबन्धी असंयत गुणस्थान की प्राप्त हौ है । तहां गुरणश्रेणी वा अनुपशमन वा अंतर का पूरण करना इत्यादि जे क्रिया हो है, तिनका वर्णन है। पर श्रद्धाक्षय निमित्त से क्रम तै पडि स्वस्थान अप्रमत्त पर्यंत आवै तहां गुणश्रेणी प्रादिक का, वा चढ़ते जे क्रिया भई थी, तिनका अनुक्रम ते नष्ट होने का वर्णन है। बहुरि अप्रमत्त तें पड़ने का तहां संभवति क्रियानि का अर अप्रमत्त से चढ़ तो बहुरि श्रेणी मांडै ताका वर्णन है । अंस पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध का उदय सहित जो श्रेणी मांड, ताकी अपेक्षा वर्णन है । बहुरि पुरुषवेद, संज्वलन मान सहित आदि ग्यारह प्रकार उपशम श्रेणी चढनेवालों के जो-जो विशेष पाइए है, तिनका वर्णन है । बहुरि इस उपशम चारित्र विधान विर्षे संभवते काल का अल्पबहुत्व वर्णन है । . बहुरि क्षपणासार के अनुसारि लीएं क्षायिक चारित्र के विधान का वर्णन है । तहां अधःकरणादि सोलह अधिकारनि का अर क्षपक श्रेणी कौं सन्मुख जीव का वर्णन है ।
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सम्यम्झानचन्द्रिका पोठिका
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- बहुरि अधःकरण का वर्णन है। तहां विशुद्धता की वृद्धि आदि च्यारि आवश्यकनि का, अर तहां संभवते परिणाम, योग, कषाय, उपयोग, लेश्या, वेद; पर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप कर्मनि का सत्त्व, बंध उदय, तिनका वर्णन है ।।
बहरि अपूर्वकरण का वर्णन है । तहां संभवते स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात, गुरणश्रेणी, गुणसंक्रम इनका विशेष वर्णन है। पर इहां प्रकृतिबंध की व्युच्छित्ति हो है, तिनका वर्णन है। इहात लगाय क्षपक श्रेणी विर्षे जहां-जहां जैसा-जैसा स्थितिबंधापसरण, अर स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात पाइए पर इनको होते जैसा-जैसा स्थितिबंध, अर स्थितिसत्त्व अर अनुभागसत्त्व रहै, तिनका बीच-बीच वर्णन है, सो कथन होगा तहां जानना ।।
___ बहुरि अनिवृत्तिकरण का कथन है । तहां स्वरूप, गुणश्रेणी, स्थितिकांडकादि का वर्णन करि कर्मनि का क्रम लीए स्थितिबंध, स्थितिसत्त्व करने रूप क्रमकरण का वर्णन है । बहुरि गुणश्रेणी विर्षे असंख्यात समयप्रबद्धनि की उदीरणा होने लगी, ताका वर्णन है।
____बहुरि प्रत्याख्यान-अप्रत्याख्यानरूप पाठ कषाय नि के खिपावने का विधान वर्णन है । बहुरि निद्रा-निद्रा आदि सोलह प्रकृति खिपावने का विधान वर्णन है । बहुरि प्रकृतिनि को देशवाती स्पर्द्धकनि का बंध करने'रूप देशपातीकरण का वर्णन है । बहुरि च्यारि संज्वलन, नत्र नोकषायनि के केतेइक निषेकनि का अभाव करि अन्यत्र निक्षेपण करनेरूप अंतरकरण का वर्णन है । बहुरि नपुंसकवेद खिपावने का विधान वर्णन है । तहां संक्रम का वा युगपत् सात क्रियानि का प्रारंभ हो है, तिनका इत्यादि वर्णन है। बहुरि स्त्रीवेद क्षपणा का वर्णन है । बहुरि छह नोकषाय पर पुरुषवेद इनकी क्षपणा का विधान वर्णन है । बहुरि अश्वकर्णकरणसहित अपूर्वस्पर्द्धक करने का वर्णन है । तहां पूर्वस्पर्द्धक जानने कौं वर्ग, वर्गरणा, स्पर्द्धकनि का अर तिनविषं देशघाती, सर्वधातिनि के विभाग का, वा वर्गणा की समानता, असमानता प्रादिक का कथन करि अश्व करण के स्वरूप, विधान क्रोधादिकनि के अनुभाग का प्रमाणादिक का अर अपूर्वस्पर्द्धकनि के स्वरूप प्रमाण का तिनविर्षे द्रव्य अनुभागादिक का, तहां समय-समय संबंधी क्रिया का वा उदयादिक का बहुत वर्णन है ।. ..
बहुरि कृष्टिकरण का वर्णन है । तहां क्रोधवेदककाल के विभाग का, पर बादरकृष्टि के विधान विर्षे कृष्टिनि के स्वरूप का, तहां बारह संग्रहकृष्टि, एक-एक संग्रहकृष्टि
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[ सम्धिसार-क्षरणासार सम्बन्धी प्रकरख
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विर्षे अनंती अंतरकृष्टि तिनका, अर तिनविर्षे प्रदेश अनुभागादिक के प्रमाण का, तहाँ समय-समय संबंधी क्रियानि का वा उदयादिक का अनेक वर्णन है । बहुरि कृष्टि वेदना का विधान वर्णन है ! तहां कृष्टिनि के उदयादिक का, वा संक्रम का, वा घात करने का, वा समय-समय संबंधी क्रिया का विशेष वर्णन करि क्रम ते दश संग्रहकष्टिनि के भोगवने का विधान-प्रमाणादिक का बहुत कथन करि तिनकी क्षपणा का विधान वर्णन है । बहुरि राम प्रकृति संक्रमण करि इनरूप परिणमी, तिनके द्रव्यसहित लोभ की द्वितीय, तृतीय संग्रहकृष्टि के द्रव्य को सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमा है, ताके विधान-स्वरूप-प्रमाणादिक का वर्णन है । असें अनिवृत्तिकरण का बहुत वर्णन है। याविष गुणश्रेणी-अतुभागघात के विशेष प्रादि बीचि-बीचि अनेक कथन पाइए है, सो आगे कथन होइमा तहां जानना ।
बहुरि सूक्ष्मसांपराय का वर्णन है । तहां स्थिति, अनुभाग का घात वा गुणश्रेणी आदि का कथन करि बादरकृष्टि संबंधी अर्थ का निरूपण पूर्वक सूक्ष्मसापराय संबंधी कृष्टिानि के अर्थ का निरूपण, अर तहां सूक्ष्मकृष्टिनि का उदय, अनुदय, प्रमाण अर संक्रमण, क्षयादिक का विधान इत्यादि अनेक वर्णन है । बहुरि यहु तो पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध का उदय सहित श्रेणी चदया, ताकी अपेक्षा कथन है । बहुरि पुरुषवेद, संज्वलन मान प्रादि का उदय सहित ग्यारह प्रकार श्रेणी चढने वालों के जो-जो विशेष पाइए, ताका वर्णन है । असं कृष्टिबेदना पूर्ण भएं ।
बहुरि क्षीणकषाय का वर्णन । तहां ईर्यापथबंध का, अर स्थिति-अनुभागधात घा गुणावगी आदि का, वा तहां संभवते ध्यानादिक का अर ज्ञानावरणादिक के क्षय होने के विधान का, अर इहाँ शरीर सम्बन्धी निगोद जीवनि के अभाव होने के क्रम का इत्यादि वर्णन है।
बहुरि सयोगकेवली का वर्णन है । तहां ताके महिमा का अर गुणश्रेणी का अर विहार-माहारादिक होने न होने का वर्णन करि अंतर्मुहूर्त मात्र आयु रहै श्रावजितकरण हो है ताका, तहां गुणवेणी आदि का, अर केवलसमुद्धात का, तहां दंड-कपाटादिक के विधान वा क्षेत्रप्रमाणादिक का, वा तहां संभवती स्थिति-अनुभाग घटने आदि क्रियानि का वा योगनि का इत्यादि वर्णन है। बहुरि बादर मन-वचन काय योग को निरोधि सूक्ष्म करने का, तहां जैसे योग हो है, ताका पर सूक्ष्म मनोयोग, पचनयोग, उच्छवास-निश्वास, काययोग के निरोध करने का, तहां काययोग के
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सम्यम्झानाम्द्रका पीठिका । पूर्वस्पर्द्धकनि के अपूर्वस्पर्द्धक अर तिनकी सूक्ष्मकृष्टि करिए है, तिनका स्वरूप, विधान, प्रमाण, समय-समय सम्बन्धी क्रियाविशेष इत्यादिक का अर करी सूक्ष्मकृष्टि, ताकौं भोगवता सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान युक्त हो है, ताका वा तहां संभवते स्थितिअनुभागघात वा गुणश्रेणी प्रादि विशेष का वर्णन है ।
बहुरि प्रयोगकेबली का वर्णन है। तहां ताकी स्थिति का, शैलेश्यपना का, ध्यान का, तहाँ अवशेष सर्व प्रकृति खिपवाने का वर्णन है ।
बहुरि सिद्ध भगवान का वर्णन है । तहां सुखादिक का, महिमा का, स्थान . का, अन्य मतोक्त स्वरूप के निराकरण का इत्यादि वर्णन है । असे लब्धिसार क्षपणासार कथन की सूचनिका जाननी ।
बहुरि अन्त यि अपने किछ समाचार प्रगट करि इस सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की समाप्तता होते कृतकृत्य होइ पानंद दशा को प्राप्त होना होगा । असे सूचनिका करि ग्रंथसमुद्र के अर्थ संक्षेपपने प्रकट किए हैं।
इति सूचनिका ।
परिकर्माष्टक सम्बन्धी प्रकरण बहुरि इस करणानुयोगरूप शास्त्र के अभ्यास करने के अथि गणित का ज्ञान अवश्य चाहिये, जाते अलंकारादिक जानें प्रथमानुयोग का, गणितादिक जानें करणानुयोग का, सुभाषितादिक जानें चरणानुयोग का, न्यायादि जाने द्रव्यानुयोग का विशिष्ट ज्ञान हो है, तातै गरिणत ग्रंथनि का अभ्यास करना । पर न बनें तो परिकर्माष्टक तो अवश्य जान्या चाहिये । जाते याकौं जाणे अन्य गरिणत कर्मनि का भी विधान जानि तिनकौं जाने पर इस शास्त्र विष प्रवेश पावै । तातै इस शास्त्र का अभ्यास करने को प्रयोजनमात्र परिकर्याष्टक का वर्णन इहां करिए है
तहां परिकर्माष्टक विर्षे संकलन, व्यबकलन, गुरगकार, भागहार, वर्ग, घन, वर्गमूल, घनमूल ए पाठ नाम जानने । ए लौकिक गणित विर्षे भी संभव हैं, पर अलौकिक गरिणत विर्ष भी संभव हैं । सो लौकिक गणित तो प्रवृत्ति विर्षे प्रसिद्ध ही है । पर अलौकिक गणित जघन्य संख्यातादिक या पल्यादिक का व्याख्यान आगे जीवसमासाधिकार पूर्ण भए पीछे होइगा, तहां जानना । अब संकलनादिक का स्वरूप
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[ परिकर्माष्टक सम्बन्धी प्रकर
कहिए है । किसी प्रमाण को किसी प्रमाण विषै जोडिये तहां संकलन कहिए। जैसे सात विर्षे पांच जोडें बारह होइ, वा पुद्गलराशि विर्षे जीवादिक का प्रमाण जोडें सर्व द्रव्यनि का प्रमाण होइ है ।
बहुरि किसी प्रमाण विषै किसी प्रमाण कौं घटाइए, तहां व्यवकलन कहिए । जैसे बारह विष पांच घटाऐं सात होय, वा संसारी राशि विषै सराशि घटाऐं स्थावरनि का प्रभाग होइ ।
बहुरि किसी प्रमाण कौं किसी प्रमाण करि गुणिए, तहां गुणकार कहिए । जैसे पांच को च्यारि करि गुलिए वीस होइ, वा जीवराशि की अनन्त करि गुणै पुद्गलराशि होइ ।
बहुरि किसी प्रमाण कौं किसी प्रमाण का जहां भाग दीजिए, तहां भागहार कहिए। जैसे बीस कौं च्यारि करि भाग दीऐ पांच होइ, वा जगत् श्रेणी कौं साल का भाग दीए राजू होइ ।
बहुरि किसी प्रमाण को दोय जायगा मांहि परस्पर गुणिए, वहां तिस प्रमाण का वर्ग कहिए। जैसें पांच कौं दोय जायगां भांडि परस्पर गुण पाँच का वर्ग पच्चीस होइ, वा सूच्यंगुल कौं दोय जायगा मांडि, परस्पर गुरौं, सूच्यंगुल का वर्ग प्रवरांगुल होइ ।
बहुरि किसी प्रमाण को तीन जायगा मांडि, परस्पर गुर्णे, तिस प्रमाण को ar कहिए। जैसे पांच को तीन जायगा मांडिं, परस्पर गुणे, पांच का घन एक सौ पचीस होइ । वा जगत् श्रेणी को तीन जायगां मांडि परस्पर गुण लोक होइ ।
बहुरि जो प्रमाण जाeा वर्ग की होइ, तिस प्रमाण का सो वर्गमूल कहिए । जैसे पचीस पांच का वर्ग कीए होइ तातें पचीस का वर्गमूल पांच है । वा प्रतरांगुल है सो सूच्यंगुल का वर्ग कीए हो है, तातं प्रतरांगुल का वर्गमूल सूख्यंगुल है ।
बहुरि जो प्रमाण जाeा घन कीए होइ, तिस प्रमाण का सो धनमूल कहिए । जैसे एक सौ पचीस पांच का धन कीए होइ, ताते एक सौ पचीस का घनमूल पांच है। वो लोक है सो जगत्श्रेणी का घन कीए हो है, तातै लोक का घनमूल जगत्श्रेणी है ।
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सम्यग्ज्ञानन्द्रिका पीठिका
[ ५७ अब इहां केतेइक संज्ञाविशेष कहिए है । संकलन विर्षे जोडने योग्य राशि का नाम धन है। मूलराशि की तिस धन करि अधिक कहिए । जैसे पांच अधिक कोटि वा जीवराश्यादिक करि अधिक पुद्गल इत्यादिक जानने ।
बहुरि ब्यवकलन विर्षे घटावने योग्य राशि का नाम ऋण है । मूलराशि कौं तिस ऋण करि हीन वा न्यून वा शोधित वा स्फोटित इत्यादि कहिए । जैसे पांच करि हीन कोटि वा त्रसराशि हीन संसारी इत्यादि जानने । कहीं मूलराशि का नाम धन भी कहिए है।
बहुरि गरणकार विर्षे जाकौं मुगिए, ताका नाम गुण्य कहिए । जाकरि गुरिगए, ताका नाम गुणकार वा गुणक कहिए ।
मुण्यराशि कौं गुणकार करि गुरिणत वा हत वा अभ्यस्त वा घ्नत इत्यादि कहिए । जैसे पंचगुरिणत लक्ष वा असंख्यात करि गुणित लोक कहिए । कहीं गुणकार प्रसारण गुण्य कहिए । जैसे पांच गुणा वीस कौं पांच वीसी कहिए वा असंख्यातगुरगा लोक • असंख्यातलोक कहिए इत्यादिक जानने । गुनने का नाम गुणन का हनन वा घात इत्यादि कहिए है।
___ बहुरि भागहार विर्षे जाकौं भाग दीजिए ताका नाम भाज्य वा हार्य इत्यादि है । पर जाका भाग दीजिए ताका नरम भागहार वा हार वा भाजक इत्यादि है । भाज्य राशि कू भागहार करि भाजित भक्त वा हत वा खंडित इत्यादि कहिए। जैसे पांच करि भाजित कोटि वा असंख्यात करि भाजित पल्य इत्यादिक जानने । भागहार का भाग देइ एक भाग ग्रहण करना होइ, तहां तेथवां भाग वा एक भाग कहिये। जैसे वीस का चौथा भाग, बा पल्य का असंख्यातवा भाग वा असंख्यातक भाग इत्यादि जानना।
बहुरि एक भाग विना अवशेष भाग ग्रहण करने होई तहां बहुभाग कहिए । जैसे वीस के च्यारि बहुभाग वा पल्य का असंख्यात बहुभाग इत्यादि जानने ।
बहुरि वर्ग का नाम कृति भी है । बहुरि वर्गमूल का नाम कृतिमल वा मूल दा पद वा प्रथम मूल भी है । बहुरि प्रथम मूल के मूल कौं द्वितीय मूल कहिए । द्वितीय मूल के मूल की तृतीय मूल कहिए । असें चतुर्थादि मूल जानने । जैसे
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[ परिकर्याष्टक सम्बन्धी प्रकरण
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पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस का प्रथम मूल दोय सै छप्पन, द्वितीय मूल सोलह, तृतीय मूल च्यारि, चतुर्थ मूल दोय होइ । जैसे ही पल्य वा केवलज्ञानादि के प्रथमादि मूल जानने ऐसे मना भी अनेक मंज्ञाविशेष यथासंभव जानने ।
__ अब इहां विधान कहिए है । सो प्रथम लौकिक गणित अपेक्षा कहिए है। तहां असा जानना 'अंकानां वामतो गतिः' अंकति का अनुक्रम बाई तरफ सेती है । जैसे दोय से छप्पन (२५६) के सीन अंकनि विष छक्का आदि अंक, पांचा दूसरा अंक, दुवा अंत अंक कहिये । असे ही अन्यत्र जानना । बहुरि प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ प्रादि अंकनि की क्रम ते एक स्थानीय, दश स्थानीय, शत स्थानीय, सहस्र स्थानीय आदि कहिए । प्रवृत्ति विर्षे इनही करें इकवाई, दहाई, सैकडा, हजार आदि कहिए है।
बहुरि संकलनादि होते प्रमाण ल्याक्ने कौं गणित कर्म कौं कारण जे करणसूत्र, तिनकरि गणित शास्त्रनि विर्षे अनेक प्रकार विधान कहा है, सो तहातै जानना वा त्रिलोकसार की भाषा टीका बनी है, तहां लौकिक गणित का प्रयोजन जानि पीठबंध विर्षे किछु वर्णन किया है, सो तहांतें जानना ।
इस शास्त्र विर्षे गणित का कथन की मुख्यता नाही वा लौकिक गणित का बहुत विशेष प्रयोजन नाहीं तातै इहां बहुत वर्णन न करिए है। विधान का स्वरूप मात्र दिखावने कौं एक प्रकार करि किचित् वर्णन करिए है ।
_तहां संकलन विर्षे जिनका संकलन करना होइ, तिनके एक स्थानीय आदि अंकनि को क्रम से यथास्थान जोडें जो-जो अंक प्राब, सो-सो अंक जोड विर्षे क्रम त यथास्थान लिखना । सो प्रवृत्ति विर्षे जैसे जोड देने का विधान है, तैसे ही यहु जानना । बहरि जो एक स्थानीय आदि अंक जोडे दोय, तीन आदि अंक प्रावै तौ प्रथम अंक कौं जोड विर्ष पहिले लिखिए । द्वितीय आदि अंकनि को दश स्थानीय आदि अंकनि विर्षे जोडिए । याकौं प्रवृत्ति विर्षे हाथिलागा कहिए है। असे करते जी अंक होइ, सो जोड्या हुवा प्रमाण जानना।
इहां उदाहरण - जैसे दोय सं छप्पन पर चौरासी (२५६+४) जोडिए, तहां एक स्थानीय छह अर च्यारि जो. दश भए । तहां जोड विर्षे एक स्थानीय बिंदी लिखी, अर रहा एक, ताकी अर दश स्थानीय पांचा, पाठा इन कौं जोड़ें।
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चौदह भए । तहां जोड विषे दश स्थानीय चौका लिख्या थर रह्या एका, ताक र तीन भया, सो जोड विषं शत स्थानीय लिख्या । जैसे से ही अन्यत्र जानना ।
शत स्थानीय दूवा करें जोड़ें, जोडें तीन से चालीस भये ।
बहुरि व्यवकलन विषै मूलराशि के एक स्थानीय श्रादि संकनि विषै ऋण राशि के एक स्थानीय आदि अंकनि को यथाक्रम घटाइए । जो मूलराशि के एक स्थानीय आदि अंक तैं ऋणराशि के एक स्थानीय आदि के अधिक प्रमाण लीए होइ तो धनराशि दश स्थानीय आदि अंक विषै एक घटाइ धनराशि के एक स्थानीय आदि विषै दश जोडि, तामें ऋणराशि का अंक घटावना । सो प्रवृत्ति विषे जैसे बाकी काढने का विधान है, तैसे ही यह जानना । प्रेसें करतें जो हो, सो अवशेष प्रमाण जानना । इहां उदाहरण जैसें छह से पिचहत्तरि मूलराशि विषे बारावे ( ६७५-२२ ) ऋण घटावना होइ, तहां एक स्थानीय पांच में दूवा घटाए तीन रहे श्रर दश स्थानीय सात विषे नव घटे नाहीं तातें शतस्थानीय छक्का मैं एक घटाई ताके दश सात विषे जोड़े सतरह भए, तामें नौ घटाइ प्राठ रहे शत स्थानीय छक्का एक घटायें पांच रहे, तामैं ऋण का अंक कोऊ घटावने को हैं नाहीं तातें, पांच ही रहे । * अवशेष पांच से तिवासी प्रमाण श्राया । भैंसें ही अन्यत्र जानना ।
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बहुरि गुणकार विषै गुण्य के अंत अंक अंक को क्रम ते गुणकार के अंकनि करि गुणि गुणित राशि का प्रमाण आवै ।
तैं लगाय आदि अंक पर्यंत एक-एक यथास्थान लिखिए वा जोडिए, तब
हां उदाहरण - जैसे गुभ्य दोष से छप्पन र गुणकार सोलह (२५६४१६) तहां गुण्य का अंत अंक दूबा की सोलह करि गुणना । तहां छक्का तौ दूवा ऊपरि
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अर एका ताके पीछे २५६ से स्थापन करि एक सो तो एक के नीचे लिखना । पर छह करि दूवा वा ती गुण्य की जायगा लिखना एका पहिले असा भया [ ३२ ५६ ] । बहुरि से ही गुण्य का
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करि दूवा को गुरणे, दोय पाये,
की गुण बारह पाए, ति विष दोय लिख्या या तामै जोडना तब उपांत अंक पांचा; ताको सोलह
करि गुणना तहां से २२, १६ स्थापना करि एका करि पांच को गुरौं, पांच भये, सो तो एका के नीचे दूवा, तामें जोडिए पर छक्का करि पांचा कौ गुरौं तीस भए, तहां बिंदी पांचा की जायगां मांडि तीन पीछले श्रकनि विषे जोडिए से कीए
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। परिकण्टिक सम्बन्धी प्रकरणे ऐसा ४००६ भया ! बहुरि गुण्य का आदि अंक छक्का को सोलह करि गुणना तहां ऐसे ४००६ स्थापि एक करि छह को मुरणे छह भये सो तौ एका के नीचे बिंदी तामै जोडिए अर छ को छ करि गुण छत्तीस भया, तहां छक्का तौ गुण्य का छक्का की जायगां स्थापना, तीया पीछला अंक छक्का तामै जोडना, ऐसे कीए ऐसा ४०६६ भया । या प्रकार गुरिणत राशि च्यारि हजार छिनवै आया। ऐसे ही अन्यत्र विधान जानना ।
बहुरि भागहार विर्षे भाज्य के जैते अंकनि विर्षे भागहार का भाग देना संभव, तितने अंकनि की ताका भाग देइ पाया अंक को जुदा लिखि तिस पाया अंक करि भागहार कौं गुरणे जो प्रमाण होइ, तितना जाका भाग दीया था, तामै घटाय अवशेष तहां लिखना । बहुरि तैसें ही भाग दीए जो अंक पावै, ताकौं पूर्व लिख्या था अंक, ताके आगै लिखि ताकरि भागहार कॊ गुणि तैसे ही घटावना। असे यावत् भाज्यराशि निःशेष होइ तावत् कीए जुदे लिखे अंक प्रमाण एक भाग आवे है ।
इहां उदाहरण-जैसे भाज्य च्यारि हजार छिनर्व, भागहार सोलह । तहां भाज्य का अन्त अंक च्यारि कौं ती सोलह का भाग संभव नाहीं तात दोय अंके चालीस तिनकौं भाग देना, तहां ऐस १६ लिखि। इहां तीन आदि अंकनि करि सोलह कौं गुण, तौ चालीस ते अधिक होइ जाय तातें दोइ पाये सो दूवा जुदा लिखि, ताकरि सोलह कौं गुणि चालीस में घटाए असा ८६६ भया ।
बहुरि इहां निवासी कौं - सोलह का भाग दोए १६ पांच पाए, सो दूवा के प्रागै लिखि, ताकरि सोलह कौ मुनि निवासी में घटाए ऐसा ६६ रहा । याकौं सोलह का भाग दीएं छह पाय, सो पांचा के आगे लिखि, ताकरि सोलह कौं गुणि छिन भए, सो घटाए भाज्यराशि नि:शेष भया । ऐसें जुदे लिखे अंक तिनकरि एक भाग का प्रमाण दोय से छप्पन पावै है। बहुरि 'भागो नास्ति लब्धं शून्य' इस दचन तें जहां भाग टूटि जाय तहां बिंदी पावै । जैसे भाज्य तीन हजार छत्तीस (३०३६) भागहार छह (६) तहां तीस कौं छह का भाग दीए, पांच पाए, तिनकरि छह कौं गुणि, घटाए तीस निःशेष होय गया, सो इहां भाग टूट्या, तातें पांच के आगै बिदी लिखिए । बहुरि अवशेष छत्तीस कौं छह का भाग दीए छह पाए, सो बिदी के आगे लिखि, ताकरि छह को गुरिग घटाएं सर्व भाज्य निःशेष भया । ऐसे लब्ध प्रमाण पांच सै छै पाया। ऐसे ही अन्यत्र जानना ।
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लिखि
बहुरि वर्ग विषै गुणकारवत् विधान जानना । जाते दोय जायगा समान राशि एक कौं गुण्य, एक की गुणकार स्थापि परस्पर गुण वर्ग हो है । जैसे सोलह कौं सोलह करि गुणों, सोलह का वर्ग दोय से छप्पन हो है ।
aft or fat भी गुणकारवत् ही विधान है । जाते तीन जायगां समान राशि मांड परस्पर गुणन करना । तहां पहिला राशिरूप गुण्य को दूसरा राशिरूप गुणकार करि गुणै जो ( प्रमाण ) होइ ताक गुण्य स्थापि, ताक तीसरा राशिरूप गुणकार करि गुण जो प्रमाण आवै, सोइ तिल राशि का वन जानना ।
जैसे सोलह को सोलह करि गुरौं, दोय से छप्पन, बहुरि ताकों सोलह करि यार हजार दिन हो, सोई सोलह का धन है । ऐसे ही अन्यत्र जानना ।
बहुरि वर्गमूल चिषै वर्गरूप राशि के प्रथम अंक उपरि विषम की दूसरे अंक उपरि सम की तीसरे (अंक) उपरि विषम की चौथे (अंक) उपरि सम की ऐस क्रम अन्त अंक पर्यंत उभी आडी लीक करि सहनानी करनी । जो अन्त का अंक सम होय तो तहां उपांत का अर अन्त का दोऊ अंकनि की विषम संज्ञा जानतीः । तहां अन्त कर एक वा दोय जो विषम अंक, ताका प्रसारण विषै जिस अंक का वर्ग संभव, ताका वर्ग करि अन्त का विषम प्रमाण में घटावना । अवशेष रहै सो तहां लिखना | बहुरि जाका वर्ग कीया था, तिस मूल अंक को जुदा लिखना । बहुरि अवशेष रहे अंक रि सहित जो तिस विषम के आगे सम अंक, ताके प्रमाण कौं जुदा स्थाप्या जो अंक, तातें दूखा प्रमाण रूप भागहार का भाग दीए जो अंक पावें, ताक तिस जुदा स्थाप्या, अंक के श्रागे लिखना । अर तिस अंक करि गुण्या हुवा भागहार का प्रमाण को तिस भाज्य में घटाइ अवशेष तहां लिखि देना । बहुरि इस अवशेष सहित जो तिस सम के आगे विषम अंक, तामें जो अंक पाया था, ताका वर्ग कीए जो प्रमाण होइ, सी घटावना प्रवशेष तहां लिखना । बहुरि इस अवशेष सहित जो तिस विषम के आगे सम अंक, ताक तिन जुदे लिखे हुए सर्व अंकरूप प्रमाण गुणा प्रमाण रूप भागहारा का भाग देइ पाया अंक को तिन जुदे लिखे हुए अंकनि के मागे लिखता । श्रर इस पाया अंक करि भागहार की गुणि भाज्य में घटाइ
वशेष तहां लिखना । बहुरि इस अवशेष सहित जो सम अंक के आगे विषम अंक ताविष पाया अंक का वर्ग घटावना । ऐसे ही मते यावत् वर्गित राशि निःशेष होय, तावत् कीए वर्गमूल का प्रमाण आवे है ।
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परिकर्माष्टक सम्बन्धी प्रकरण इहां उदाहरण - जैसे वगित राशि पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस (६५५३६) यहां विषम-सम की सहनानी अंसी करि अन्त का विषम छक्का तामै तीन का वर्ग तो बहुत होइ जाइ, तातै संभवता दोय का वर्ग च्यारि घटाइ अवशेष ोइ तहां लिखना । पर मूल अंक दूवा जुदा पंक्ति विर्षे लिखना । बहुरि तिस अवशेष समित मागिला सबक ऐसा ताकी जुदा लिख्या जो दूवा तातें दूणा च्यारि का भाग दीए, छह पाबैं; परंतु प्रागै वर्ग घटाबने का निर्वाह नाहीं; तातें पांच पाया. सो जुदा लिख्या हुआ दूवा के प्रामैं लिखना । अर पाया अंक पांच करि भागहार च्यारि की गुणि, भाज्य में घटाएं, पचीस की जायगां पांच रह्या, तिस मशित भागिला विषम ऐसा (५५) तामै पाया अंक पांच का वर्ग पचीस घटाए, अवशेष ऐसा ३०, तिस सहित प्रागिला सम ऐसा ३०३, ताकौं जुधे लिखे अंकनि ते दणा प्रमाण पचास का भाग दीए छह पाया, सो जुदे लिखे अंकनि के प्रागैं लिखता । अर छह करि भागहार पचास कौं गुरिण, भाज्य' में घटाए अवशेष ऐसा
रहा, तिस सहित प्रागिला विषम ऐसा ३६, यामै पाया अंक छह का वर्ग घटाए शशि निःशेष भया। ऐसें जुदे लिखे हवे अंकनि करि पैसठ हजार पांच से छत्तीस का वर्गमूल दोए से छप्पन आया । ऐसें ही अन्यत्र विधान जानना ।
बहरि घनमूल विष घन रूप राशि के अंकनि उपरि पहिला धन, दूजा-तीजा प्रधान चौथा धन, पायवाँ-ठा अधन ऐसै क्रमतें ऊभी आडी लीक रूप सहनानी करनी । जो अंत का धन अंक न होइ तो अन्त उपांत दोय अंकनि की घन संज्ञा जाननी । अर ते दोऊ घन न होइ तौ अन्त ते तीन अंकनि की धन संज्ञा जाननी । तहां एक वा दोय वा तीन अंक रूप को अन्त का धन, तामें जाका धन संभवै ताका धन करि तामे अंत का धन अंकरूप प्रमाण मैं घटाइ अवशेष तहां लिखना । अर जाका धन कीया था, तिस मूल अंक को जुदा पंक्ति विर्षे स्थापना । बहुरि तिस प्रबशेष सहित आगिला अंक की तिस मूल अंक के वर्ग ते तिगुणा भागहार का भाग देना ओ अंक पावें, ताकौं जुदा लिख्या हुवा अंक के प्रामै लिखना । पर पाया
करि भागहार कौं गुणी, भाज्य में घटाइ अवशेष तहां लिखि देना । बहरि इस अवशेष सहित प्रागिला अंक, ताविषं पाया अंक के वर्ग कौं पूर्व पंक्ति विर्षे तिष्ठते . अंकनि करि गुरों, जो प्रमाण होइ, ताकी तिगुणा करि घटाइ देना । अवशेष तहां लिखना । बहुरि इस अवशेष सहित आगिला अंक विर्षे तिस ही पाया अंक का घन घटावना । बहुरि अवशेष सहित आगिला अंक कौं जुदा लिखि अंकनि के प्रमाण
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका । का वर्ग की तिगुणा करि निर्वाह होइ, तैसें भाग देना । पाया अंक पंक्ति विषं आग लिखना । ऐसे ही अनुक्रम ते यावत् धनराशि निःशेष होइ तावत् कीए घनमूल का प्रमाण आर्य है।
इहां उदाहरण - जैसे धनराशि पंद्रह हजार छह से पच्चीस (१५६२५) इहां धनअपन की सहनानी कीए ऐसा (१५६२५) इहां अन्त अंक धन नाहीं तातै दोय अंक रूप अन्तधन १५ । इहां तीन का धन कीए बहुत होइ जाइ, तात दोय का धन माठ घटाइ, तहां अवशेष सात लिखना । अर घनमूल दूवा जुदी पंक्ति विषं लिखना बहुरि तिस अवशेष सहित प्रागिला अंक अंसा (७६) ताकी मूल अंक का वर्ग च्यारि, ताका तिगुणा बारह, ताका भाग दिए छह पावें, परंतु प्रागै निर्वाह नाहीं तातें पांच पाया सो दुवा के प्रागै पंक्ति विर्षे लिखना अर इस पांच करि भागहार बारह की गुणि, भाज्य में घटाए, अवशेष सोलह (१६) तिस सहित आगिला अंक ऐसा (१६२) तामैं पाया अंक पांच, ताका वर्ग पचीस, ताकी पूर्व पंक्ति विर्षे तिष्ठ था दूबा, ताकरी गुरणे पचास, तिनके तिगुणे ड्योढ से घटाएं अवशेष बारह, तिस सहित आगिला अंक ऐसा (१२५), यामैं पांच का धन घटाएं राशि निःशेष भया ऐसे पंद्रह हजार छ:सै पच्चीस का धनमूल पच्चीस प्रमाण आया। ऐसे ही अन्यत्र जानना । . ऐसे वर्णन करि अब भिन्न परिकर्माष्टक कहिए है । तहां हार पर अंशनि का संकलनादिक जानना । हार पर अंश कहा कहिए । जैसे जहां छह पंचास कहे, तहां एक के पंचास अंश कीए तिह समान छह अंश जानने । वा छह का पांचवां भाग जानना । तहां छह कौं तो हार वा हर वा छेद कहिए । पर पांच कौं अंश वा लव इत्यादिक कहिए । तहां हार कौं ऊपरि लिखिए, अंश कौं नीचे लिखिए। जैसे छह पंचास कौं असा लिखिए । ऐसे ही अन्यत्र जानना। तहाँ भिन्न संकलन-व्यवकलन के अर्थि भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबंध, भागापवाह ए च्यारि जाति हैं । तिनविर्षे इहां विशेष प्रयोजनभूत समच्छेद विधान लीए भागजाति कहिए है । जुदे-जुदे हार पर तिनके अंश लिखि एक-एक हार को अन्य हारनि के अंशनि करि गुणिए अर सर्व अंशनि को परस्पर गुरिगए । ऐसें करि जो संकलन करना होइ तो परस्पर हारनि की जोड दीजिए अर व्यवकलन करना हो तो मूलराशि के हारनि विर्षे ऋणराशि के हार घटाइ दीजिए । अर अंश सबनि के समान भए । तातें अंश परस्पर गुरणे जेते भए तेते ही राखिए । ऐसें समान अंश होने से याका नाम समच्छेद विधान है।
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[ परिकर्माष्टक सम्बन्धी प्रकरण इहा उदाहरण - तहां संकलन विर्षे पांच छट्ठा अंश दोय तिहाइ तीन पाव (चौथाई) इनकी जोडना होइ तहां ! ऐसा लिखि तहां पांच हार की अन्य के तीन च्यारि-अंशनि करि अर दोय हार कौं अन्य के छह-च्यारि अंशनि करि अर तीन हार कौं अन्य के छह-तीन अंशनि करि गुणे साठि अडतालीस चौवन हार भए । अर अंशनि
१६०/४८/५४ कौं परस्पर गुणे सर्वत्र बहत्तर अंश ऐस भए । इहां हारनि कौं जोडे एक सो बासठ हार पर बहत्तर अंश भए तहां हार कौं अंश का भाग दीए दोय पाये पर अवशेष अठारह का बहत्तरियां भाग रह्या। ताका अठारह करि अपवर्तन कीए एक का चौथा भाग भया । ऐसें तिनका जोड सवा दोय आया। कोई संभवता प्रमाण का भाग देइ भाज्य वा भाजक राशि का महत् प्रमाण कौँ थोरा कीजिए (वा निःशेष कीजिए) तहां अपवर्तन संज्ञा जाननी सो इहां अठारह का भाग दीए भाज्य अठारह था, तहां एक भया पर भागहार बहत्तर था, तहां च्यारि भया, तातें अठारह करि अपवर्तन भया कह्या । ऐसे ही अन्यत्र अपवर्तन का स्वरूप जानना । - बहुरि व्यक्कलन विर्षे जैसे तीन विर्षे पांच चौथा अंश घटावना । तहाँ 'कल्प्यो हरो रूपमहारराशेः' इस वचन तें जाके अंश न होइ, तहां एक अंश कल्पना, सो इहां तीनका अंश नाही, तातें एक अंश कल्पि। ऐसे लिखना इहां तीन हारनि कौं अन्य के च्यारि अंश करि, पर पांच हारनि कौं अन्य के एक अंश करि गुणे अर अंशनि कौं परस्पर गुणे | ऐसा भया। इहां बारह हारनि विर्षे पांच घटाएं सात हार भए । अर अंश च्यारि भए । तहां हार की अंश का भाग दीए एक पर तीन का चौथा भाग पौरण इतना फल पाया।
बहुरी भिन्न गुरणकार विर्षे गुण्य पर गुणकार के हार कौं हार करि अंश कौं अंश करि गुणन करना । जैसे दश की चौथाइ को च्यारि की तिहाइ करि गुणना होइ, तहां ऐसा | लिखि गुण्य-गुणकार के हार अर अंशनि कौं गुणें चालीस हार अर बारह अशा भए तहां हार कौं अंश का भाग दीए तीन पाया । अब शेष च्यारि का बारहवां भाग ताकौं च्यारि करि अपवर्तन कीए एक का तीसरा भाग भया । असे ही अन्यत्र जानना।
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सभ्याज्ञानचन्द्रिका वीठिका 1
- बहुरि भिन्न भागहार विर्षे भाजक के हारनि की अंश कीजिए अर अंशनि कौं हार कीजिए । असे पलंटि भाज्य-भाजक का गुण्य-गुणकारवत् विधान करना । जैसे संतीस के आधा कौं तेरह की चौथाई का भाग देना होइ तहां असें लिखिए बहुरि भाजक के हार पर अंश पलट असें २ |१३| लिखिना । बहुरि मुरणनविधि कीए एक सौ अडतालीस हार पर छब्बीस अंश २६ भए । तहां अंश का हार कौं भाग दीए पांच पाए । अर अवशेष अठारह छन्वीसवां भाग, ताका दोय करि अपवर्तन कीए नव तेरहवां भागमात्र भया । असे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि भिन्न वर्ग अर धन का विधान मुणकारवत् ही जानना । जाते समान राशि दोय की परस्पर गुणे वर्ग हो है । तीन की परस्पर गुणें धन हो है। जैसे तेरह का चौथा भाग कौं दोय जायगा मांडिया परस्पर गुणें ताका वर्ग एक सौ गुणहतर का सोलहवां भागमात्र १६६ हो है । अर तीन जायगा मालि २१९ परस्पर गुरणे इकईस से सत्याण का चौसठयां भाग मात्र ६६ घन हो है। बहुरि भिन्न वर्ममूल, घनमूल विर्षे हारनि का अर अंशनि का पूर्वोक्त विधान करि जुदा-जुदा मूल ग्रहण करिए । जैसे वर्गित राशि एक सौ गुणहत्तरि का सोलहवां भाग १६ । तहां पूर्वोक्त विधान तैं एक सौ गुणहत्तरि का वर्गमूल तेरह, अर सोलह का च्यारि असे तेरह का चौथा भागमात्र वर्गमूल आया। बहुरि धनराशि इकईस से सत्याण का चौसठवां भाग ६ | तहां पूर्वोत्त विधान करि इकईस से सत्याणवे का धनमूल तेरह, चौसठि का च्यारि ऐसे तेरह का चौथा भागमात्र । पचमूल पाया । औसे ही अन्यत्र जानना । __बहुरि अब शून्यपरिकाष्ट लिखिए है। शून्य नाम हिंदी का है, ताके संकलनादिक कहिए है। तहां बिंदी विर्षे अंक जोडें अंक ही होय । जैसें पचास वि पांच जोडिए । तहां एकस्थानीय बिंदी विर्षे पांच जोडे पांच भए । दशस्थानीय पांच है ही, असे पचावन भए । बहुरि अंक विषै बिंदी घटाए अंक ही रहै । जैसे पचावन में दश
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। परिकाष्टक सम्बन्धी प्रकरण इहां उदाहरण - तहां संकलन विर्षे पांच छट्ठा अंश दोय तिहाइ तीन पाव (चौथाई) इनकौं जोडना होइ तहां ऐसा लिखि तहां पांच हार कौं अन्य के तीन च्यारि-अंशनि करि पर दोय हार कौं अन्य के छह-च्यारि अंशनि करि अर तीन हार कौं अन्य के छह-तीन अंशनि करि गुणे साठि अडतालीस चौवन हार भए । अर अंशनि कौं परस्पर गुरपे सर्वत्र बहत्तर अश७२७२/७२ ऐसे भए । इहां हारनि कौं जोडे एक सो बासठ हार पर बहत्तर अंश भए तहां हार की अंश का भाग दीए दोय पाये अर अवशेष अठारह का बहत्तरिवां भाग रह्या । ताका अठारह करि अपवर्तन कीए एक का चौथा भाग भया । ऐसें तिनका जोड सवा दोय पाया। कोई संभवता प्रमाण का भाग देश भाज्य वा भाजक राशि का महत् प्रमाण को थोरा कीजिए (वा निःशेष कीजिए) तहां अपवर्तन संज्ञा जाननी सो इहां अठारह का भाग दीए भाज्य अठारह था, तहां एक भया अर भागहार बहत्तर था, तहां च्यारि भया, तातै अठारह कर अपवर्तन भया कह्या । ऐसे ही अन्यत्र अपवर्तन का स्वरूप जानना । - बहुरि व्यवकलन विर्षे जैसे तीन विर्षे पांच चौथा अंश घटावना । तहां 'कल्प्यो हरो रूपमहारराशेः' इस वचन तें जाकै अंश न होइ, तहां एक अंश कल्पना, सो इहां तीनका अंश नाहीं, तातै एक अंश कल्पि। ऐसे लिखना इहां तीन हारनि कौं अन्य के च्यारि अंश करि, अर पांच हारनि कौं अन्य के एक अंश करि गुणे अर अंशनि कौं परस्पर गुरणे | ऐसा भया । इहां बारह हारनि विर्षे पांच घटाएं सात हार भए । अर अंश च्यारि भए । तहां हार कौं अंश का भाग दीए एक अर तीन का चौथा भाग पौरण इतना फल आया। ..
- बहुरी भिन्न गुणकार विर्षे गुण्य अर गुणकार के हार की हार करि अंश कौं अंश करि गुणन करना । जैसे दश को चोथाइ कौ च्यारि की तिहाइ करि गुणना होइ, तहां ऐसा । लिखि गुण्य-गुणकार के हार पर अंशनि कौं गुणें चालीस हार अर बारह २ भए तहां हार कौं अंश का भाग दीए तीन पाया । अब शेष च्यारि का बारहवां भाग ताको च्यारि करि अपवर्तन कीए एक का तीसरा भाग भया । जैसे ही अन्यत्र जानना।
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___ बहुरि भिन्न भागहार विर्षे भाजक के हारनि की अंश कीजिए अर अंशनि कौं हार कीजिए । असे पलट भाक-माज का गुण्य-गुणकारवत् विधान करना । जैसे संतीस के प्राधा की तेरह की चौथाई का भाग देना होइ तहरं असें (३१ लिखिए बहुरि भाजक के हार भर अंश पलट असें २०१३३ लिखिना । बहुरि मुणनविधि कीए एक सौ अडतालीस हार पर छब्बीस अंश २६ भए । तहां अंश का हार कौं भाग दीए पांच पाए । पर अवशेष अठारह छब्बीसवां भाग, ताका दोय करि अपवर्तन कीए नव तेरहवां भागमात्र भया । असे ही अन्यत्र जानना ।
___ बहुरि भिन्न वर्ग अर धन का विधान गुणकारवत् ही जानना । जातै समान राशि दोय कौं परस्पर गुणे वर्म हो है । तीन कौं परस्पर गुणें घन हो है । जैसे तेरह का चौथा भाग कौँ दोय जायगा मांडिअन परस्पर गुणे ताका वर्ग एक सौ गुणहतर का सोलहवां भागमात्र १६६ हो है । पर तीन जायगा माहि मन परस्पर गुरणे इकईस से सत्याणवै का चौसठवा भाग मात्र ६४ घन हो है। बहुरि भिन्न वर्गमूल, घनमूल विर्षे हारनि का अर अंशनि का पूर्वोक्त विधान करि जुदा-जुदा मूल ग्रहण करिए । जैसे वगित राशि एक सौ गुणहत्तरि का सोलहवां भाग ६ तहां पूर्वोक्त विधान ते एक सौ गुरणहत्तरि का वर्गमूल तेरह, अर सोलह का च्यारि असे तेरह का चौथा भागमात्र वर्गमूल आया । बहुरि धनराशि इकईस से सत्याणवै का चौसठवां भाग १ । तहां पूर्वोक्त विधान करि इकईस से सत्याणवे का घनमूल तेरह, चौसठि का च्यारि ऐसें तेरह का चौथा भागमात्र नेमूल पाया। जैसे ही अन्यत्र जानना।
- बहुरि अब शून्यपरिकष्टि लिखिए है । शून्य नाम बिंदी का है, ताके संकलनादिक कहिए है। तहां बिंदी विर्षे अंक जोडे अंक ही होय । जैसे पचास विर्षे पांच जोडिए । तहां एकस्थानीय बिदी विर्षे पांच जोडे पांच भए । दशस्थानीय पांच है ही, असे पचावन भए । बहुरि अंक विष बिंदी घटाए अंक ही रहै । जैरों पचावन में दश
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[ परिकाष्टक सम्बन्धी प्रकरण
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घटाए एक स्थानीय पांच में बिंदी घटाए पांच ही रहे, दशस्थानीय पांच में एक घटाए च्यारि रहे असे पंतालीस भए । बहुरि गुणकार. विष अंक को बिंदीकरि गुणे बिंदी होय । जैसे वीस कौ पांच करि गुरिणए, तहां गुण्य के दूवा को पांच करि गुरणे दश भए । बहुरि बिंदी कौं पांच करि गुणे, बिंदी ही भई असे सौ भए ।
वहरि अंक को बिदी का भाग दीए खहर कहिए । जातें जैसे-जैसे भागहार घटता होइ, तैसे-तसे लब्धराशि बधती होइ । जैसे दश कौं एक का छठ्ठा भाग का भाग दिए साठि होइ, एक का बीसवां भाग का भाग दीए दोय से होय, सो बिदी शून्यरूप, ताका भाग दीए फल का प्रमाण अबक्तव्य है । याका हार बिंदी है, इतना ही कहा जाए । बहुरी बिंदी का वर्गधन, बर्गमल, धनमूल विषं गुणकारादिवत् बिंदी ही हो है। पैसे लौकिक गणित अपेक्षा परिनरक का विकास का ।।
बहुरि अलौकिक गणित अपेक्षा विधान है, सो सातिशय ज्ञानगम्य है । जाते तहां अंकादिक का अनुक्रम व्यक्तरूप १ नाहीं है । तहां कहीं तौ संकलमादि होते जो प्रमाण भया ताका नाम कहिए है। जैसे उत्कृष्ट प्रसंख्यातासंख्यात विर्षे एक जोडे जघन्य परीतानंत होइ, (जघन्य परीतानंत में एक घटाएं उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होइ) २ पर जघन्य परीतासंख्यात विर्षे एक घटाएं उत्कृष्ट संख्यात होइ । पल्य कौं दशकोडाकोडि करि गुणें सागर होइ जगत् श्रेणी कू सात का भाग दीए राजू होइ । जघन्य युक्तासंख्यात का वर्ग कीए जघन्य असंख्यासासंख्यात होइ । सूच्यंगुल का धन कीये घनांगुल होइ । प्रतरांगुल का वर्गमूल ग्रहे सूच्यंगुल होइ । लोक का घनमूल आहे जगत् श्रेणी होइ, इत्यादि जानना ।
बहुरि कहीं संकलनादि होते जो प्रमाण भया, ताका नाम न कहिए है, संकलनादिरूप ही कथन “कहिए है । जाते सर्व संख्यात, असंख्यात, अनंतनि के भेदनि का नाम वक्तव्यरूप नाहीं हैं। जैसे जीवराशि करि अधिक पुद्गलराशि कहिए वा सिद्ध राशि करि हीन जीवराति कहिए, वा असंख्यात गुणा लोक कहिए का संख्यात प्रतरांगुल' करि भाजित जगत्प्रतर कहिए, वा पल्य का वर्ग कहिए, वा पल्य का धन काहिए, वा केवलज्ञान का वर्गमूल कहिए, वा प्राकाश प्रदेश राशि का धनमूल कहिए, इत्यादि
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१. प्रति वक्तव्य रूप' ऐसा पाठ है। २. यह वाक्य सिर्फ छपी प्रति में है, हस्तलिखित छह प्रतियों में नहीं है।
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सम्यग्ज्ञानचतिका सोठिका ] जानना । बहुरि अलौकिक मान की सहनानी स्थापि, तिनके लिखने का का तहां संकलनादि होते लिखने का जो विधान है, सो आग संदृष्टि अधिकार विर्षे वर्णन करेंगे, तहाँ तें जानना । बहुरि तहां ही लौकिक मानः का भी-लिखने का वा तहां संकलनादि होते लिखने का जो विधान है, सो वर्णन करेंगे । इहां लिखें ग्रन्थ विर्षे प्रवेश करते ही शिष्यनि कौं कठिनता भासती तहां अरुचि होतो, ताते इहाँ न लिखिए है । उदाहरण मात्र इतना ही इहां भी जानना, जो संकलन विर्षे ती अधिक राशि की ऊपरि लिखना जैसे पच अधिक सहस्र १०.." असें लिखने । व्यवकलन विष हीन राशि कौं ऊपरि लिखि तहां पूंछडीकासा आकार करि विदी दीजिए जैसे पंच हीन सहस्र १०.. असे लिखिए । मुणकार विर्षे गुण्य के प्रागै गुणक कौं-लिखिए । जैसे. पंचगुणा सहस्त्र १०००४५ असे लिखिए । भागहार विष भाज्य के नीचे भाजक कौं लिखिए । जैसे पांच करि भाजित सहस्र असे लिखिए। वर्ग विौं राशि को दोय बार बराबर मांडिए । जैसे पांच का वर्ग कौं ५४५ असे लिखिए। इन विर्षे राशि कौं तीन बार बराबरि मांडिए । जैसे पांच का घन कौं ५४५४५ असे लिखिए । वर्गमूल घनमूल विर्षे वर्गरूप-घनरूप राशि के प्रागै मल की सहनानी करनी । जैसे पचीस का वर्गमूल कौं "२५ व० म०" असे लिखिए। एक सौ पचीस का धनमूल कौ "१२५ घ० मू." असे लिखिए। असे अनेक प्रकार लिखने का विधान है ! असे परिकर्माष्टक का व्याख्यान कीया सों जानना । —
बहुरि राशिक का जहां-तहां प्रयोजन जानि स्वरूप मात्र कहिए है । तहां तीन राशि हो हैं - प्रमाण फल, इच्छा तहां जिस विवक्षित प्रमाण करि जो फल प्राप्त होइ, सो प्रमाणराशि अर फलराशि जाननी । बहुरि अपना इच्छित प्रमाण होइ, सो इच्छा राशि जाननी । तहां फल की इच्छा करि गुरिण, प्रमारण का भाग दीए अपना इच्छित प्रमाण करि प्राप्त जो फल, ताका प्रमाण प्राय है, इसका नाम लब्ध है । इहां प्रमाण पर इच्छा १ की एकजाति जाननी । बहुरि फल अर लब्ध की एक जाति जाननी। इहां उदाहरण जैसे पांच रुपैया का सात भरण अन्न आवै तौ सात रुपैया का केता अन्न आवै असें त्रैराशिक कीया। इहां प्रमाण राशि पांच, फल राशि सात, इच्छा राशि सात, तहाँ फलकरि इच्छा कौं गुरिण प्रमाण का भाग दीए गुणचास
१. छपी प्रति 'इच्छा' शब्द और अन्य हस्तलिखित प्रतियों में 'फल' शब्द है।
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६८ ]
[ परिकर्माष्टक सम्बन्धी प्रकरण
का पांचवां भाग मात्र लब्ध प्रमाण आया । ताका नव मरण अर च्यारि मरण का पांचवां भाग मात्र लब्धराशि भया ।.
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जैसे ही छह से आठ (६०८) सिद्ध छह महीना आठ समय विषै होइ, तो सर्व सिद्ध केले काल में होइ, असे त्रैराशिक करिए, तहां प्रमाण राशि छह से आठ श्रर फलराशि छह मास ग्राठ समयनि की संख्यात श्रावली, इच्छा राशि सिद्धराशि | तहाँ फल करि इच्छा की गुणि, प्रमाण का भाग दीए लब्धराशि संख्यात आवली करि गुणित सिद्ध राशि मात्र अतीत काल का प्रमाण प्राये है। जैसे ही अन्यत्र जानना ।
बहुरि केतेक गरिणतनि का कथन आगे इस शास्त्र विषै जहां प्रयोजन आवैगा तहां कहिएगा । जैसे श्रेणी व्यवहार का कथन गुणस्थानाधिकार विषै करणनि का कथन करते कहिएगा । बहुरि एक बार, दोय बार यादि संकलन का कथन ज्ञानाfarare fa पर्यामासज्ञान का कथन करते कहिएगा । बहुरि गोल श्रादि क्षेत्र व्यवहार का कथन जीवसमासादिक अधिकारति विषे कहिएगा । जैसे ही और भी गणितान का जहां प्रयोजन होइगा तहां ही कथन करिएगा सो जानना । बहुरि अज्ञात राशि स्थाने का विधान वा सुवर्णगणित श्रादि गणितनि का इहां प्रयोजन नाही, ar freei si कथन न करिए है । जैसे गणित का कथन किया। ताक यादि राखि जहां प्रयोजन होइ, तहां यथार्थख्य जानना । बहुरि असें ही इस शास्त्र विषै करणसूत्रनि का, वा केई संज्ञानि का था केई अर्थनि का स्वरूप एक बार जहां कह्या हो, तहांते यादि राखि, तिनका जहां प्रयोजन श्रावै, तहां तैसा ही स्वरूप जानना ।
या प्रकार श्रीगोम्मदसार शास्त्र को सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामा भाषाटीका विषे पीठिका समाप्त भई ।
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गोम्मटसार जीवकाण्ड
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका सहिल
अब इस शास्त्र के मूल सूत्रनि की संस्कृत टीका के अनुसारि भाषा टीका करिए है । वहां प्रथम ही संस्कृत टीकाकार करि कथित ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा, वा मूल शास्त्र होने के समाचार वा मंगल करने की पुष्टता इत्यादि कथन कहिए है ।
aat नेमिचंद्र जिनराय, सिद्ध ज्ञानभूषण सुखदाय । करि हो. गोम्मटसार सुटीक, करि करपट टीक तं ठीक ॥१॥
असे संस्कृत टीकाकार मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करी है । बहुरि कहै हैं - श्रीमान् अर काहू करि हण्या न जाय है प्रभाव जाका, ऐसा जो स्याद्वाद मत, सोही भई गुफा ताके अभ्यंतर वास करता जो कुवादीरूप हस्तीनि को सिंहसमान सिनन्दि नामा मुनींद्र, तिहरि भई हैं ज्ञानादिक की वृद्धि जाकै, ऐसा जो गंगनामा वंश विषै तिलक समान पर राजकार्य का सर्व जानने की प्रादि दे करि अनेक गुणसंयुक्त श्रीमान् राजमल्ल नामा महाराजा देव, पृथिवी की प्यारा, तांका महान् जो मंत्रीपद, तिहविष शोभायमान र रण की रंगभूमि विषै शूरवीर पर पर का सहाय न चाहै, ऐसा पराक्रम का धारी, अर गुणरूपी रत्ननि का प्राभूषणं जाके पाइए अर सम्यक्त्व रत्न का स्थापना कौं आदि देकरि नानाप्रकार के गुरणन करि अंगीकार करी जो कीर्ति are भर्त्तार सा जो श्रीमान् चामुंडराय राजा, ताका प्रश्न करि जाका अवतार भया, ऐसा इकतालीस पदनि विषै नामकर्म के सत्व को निरूपण, तिह द्वार करि समस्त शिष्य जननि के समूह को संबोधन के प्रथि श्रीमान् नेमीचन्द्र नामा सिद्धांतचक्रवर्ती, समस्त सिद्धांत पाठी, जननि विषे विख्यात है निर्मल यश जाका, अर विस्तीर्ण बुद्धि का धारक, यह भगवान् शास्त्र का कर्ता ।
सो महाकर्मप्रकृति प्राभृत नामा मुख्य प्रथम सिद्धांत, तिहका १ जीवस्थान, २. क्षुद्रबंध, ३. बंधस्वामी, ४. वेदनाखण्ड, ५. वर्गणाखंड, ६. महाबंध - ए छह खंड हैं ।
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। गोम्मटसार जीवकाश तिनविर्षे जीवादिक जो प्रमाण करनेयोग्य समस्त वस्तु, ताकौं उद्धार करि गोम्मटसार द्वितीय नाम पंजगह नामा दिने बिरता सौ रचना संता तिस ग्रंथ को श्रादि ही विर्षे निर्विघ्न , शास्त्र की संपूर्णता होने के अथि, वा नास्तिक वादी का परिहार के अथि, वा शिष्टाचार का पालने के अथि, वा उपकार की स्मरणे के अथि विशिष्ट जो अपना इष्ट देव का विशेष, लाहि नमस्कार कर हैं।
भावार्थ - इहां औसा जानना:- सिंहनन्दितामा मुनि का शिष्य, जो गंगवंशी राजमल्ल नामा महाराजा, ताका मंत्री जो चामुंडराय राजा, तिहने नेमीचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती प्रति असा प्रश्न कीया - .:. : .
. ... . : जो सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकायादिक इकतालीस जीयपदनि विर्षे नामकर्म के सत्त्वनि का निरूपण कैसे है ? सो कही। .
तहां इस प्रश्न के निमित्त को पाय अनेक जीवनि के संबोधने के अथि जीवस्थानादिक छह अधिकार जामैं पाइए, जैसा महाकर्म प्रकृति प्राभृत है नाम जाका, असा अग्रायणीय पूर्व का पांचवां वस्तु, अथवा यति भूतबलि आचार्यकृत १ धवल शास्त्र, ताका अनुसार लेई गोम्मटसार अर याहीका द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ, ताके करने का प्रारंभ किया। तहां प्रथम अपने इष्टदेव कौं नमस्कार कर हैं। ताके निर्विघ्नपने शास्त्र की समाप्तता होने कू श्रादि देकरि च्यारि प्रयोजन कहे । अब इनकौं दृढ़ कर हैं।
.. इही तर्क - जो इष्टदेव, ताकौं नमस्कार करने करि निर्विघ्नपर्ने शास्त्र की समाप्तता कहा हो है ?, .. ... तहां कहिए है - जो ऐसी आशंका न करनी, जात शास्त्र का असा वचन है
...... "विघ्नौधाः प्रलयं यांति शाकिनीभूतपन्नगाः ।
. विषं निविषतां याति. स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥" याका अर्थ - जो जिनेश्वरदेव कौं स्तवता थका विघ्न के जु समूह, ते नाश कौं प्राप्त हो हैं । बहुरि शाकिनी, भूत, सादिक, ते. नाश को प्राप्त हो हैं । बहुरि विष है, सो विषरहितपना कौं प्राप्त हो है । सो असा वचनः थको शंकात करता । बहुरि जैसे प्रायश्चित्त का आचरण करि व्रतादिक का दोष नष्ट हो है, बहुरि जैसे .... यति खुपश्चाचार्य ने गुणपरामायं विरचिल कषायपाहु-के सूत्रों पर चूणिसूत्र लिखे हैं । भूदलली आचार्य ने षट्खण्टागम सूत्रों की रचना की है और प्राचार्य वीरसेन ने पदसण्डागम सूत्रों, की 'धवला' दीका लिखी है ...
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सम्याजानन्द्रिका भावाटीका । औषधि सेवन करि रोग नष्ट हो है; तैसें मंगल करने करि विघ्नकर्ता अन्तरायकर्म के नाश का अविरोध है, तात शंका न करनी। जैसे प्रथम प्रयोजन दृढ़ कीया । बहुरि तर्क - जो ऐसा न्याय है
"सर्दशा रनहितम् सहारिन किं करिष्यति जनो बहुजल्पः । . विद्यते नहि स कश्चिदुपाय सर्वलोकपरितोषकरो यः ॥" .
याका अर्थ – जो सर्वप्रकार कर अपना हित का आँचरण करना । अपना हित करतें बहुत बकै है जो मनुष्यलोक, सो कहा करंगा? अर कोऊ कहै जो सर्व प्रसन्न होइ, सो कार्य करना; तो लोक विर्षे सो कोई उपाय ही नाहीं, जो सर्व लोक कौं संतोष करै । जैसे न्याय करि जाकर प्रारंभ करो हो, ताका प्रारंभ करौ ।
नास्तिकवादी का परिहार करि कहा साध्य है ?
तहां कहिए है - असा भी न कहना । जाते प्रशम, संवेग अनुकंपा, आस्तिक्य गुण का प्रगट होनेरूप लक्षण का धारी सम्यग्दर्शन है । याते नास्तिकवादी का परिहार करि प्राप्त जो सर्वज्ञ, तिहने प्रादि देकरि पदार्थनि विर्षे जो आस्तिक्य भाव हो है, ताके सम्यग्दर्शन का प्राप्ति करने का कारणपना पाइए है । बहुरि अंसा प्रसिद्ध वचन है
"यपि विमलो योगी, छिद्रान् पश्यति मेदनि ।
तथापि लौकिकाचार', मतसापि न लंघयेस् ।" याका अर्थ - यद्यपि योगीश्वर निर्मल है, तथापि पृथ्वी वाके भी छिद्रनि कौं देखे है । तातै लौकिक आचार कू मन करि भी उल्लंघन न करै; असे प्रसिद्ध है । तात नास्तिक का परिहार कीया चाहिये । औसैं दूसरा प्रयोजन दृढ कीया ।
बहुरि सर्क - जो शिष्टचार का पालन किस अर्थ करिए ?
तहां कहिए है - असा विचार योग्य नाहीं, जाते असा वचन मुख्य है "प्रायेण गुरुजनशीलमनुचरंति शिष्याः।" याका अर्थ - जे शिष्य हैं ते, अतिशय करि गुरुजन का जु स्वभाव, ताकौं अनुसार करि प्राचरण करै हैं । बहुरि असा न्याय है - "मगलं निमित्तं हेतु परिमाणं नाम कारमिति षडपि व्याकृत्याचार्याः पश्चाच्छास्त्र व्याकुर्वन्तु" याका अर्थ-जो मंगल, निमित्त हेतु, परिमाण, नाम, कर्ता इन छहों की पहिले करि
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[ गोम्मटसार जीवका
सा न्याय आचार्यनि की परंपरा तैं चल्या आया प्रवर्तने का प्रसंग होय । तातें शिष्टाचार का
आचार्य है सो पीछे शास्त्र क करों । है । ताका उल्लंघन कोए उन्मार्ग विषे पालना किये अर्थ करिए है ? जैसा विचार योग्य नाहीं ।
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अब इहां मंगलादिक छहों कहा ? सो कहिए हैं - तहां प्रथम ही पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ, सौख्य- इत्यादि मंगल के पर्याय हैं । मंगल हो के पुण्यादिक भी नाम हैं। सहां मल दो प्रकार है द्रव्यमल, भावमल हां द्रव्यमल दो प्रकार - बहिरंग अन्तरंग । तहां पसेव, मल, धूलि, कादों इत्यादि बहिरंग द्रव्यमल है। बहुरि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशनि करि आत्मा के प्रदेशनि विषे निबिड बंध्या जो ज्ञानावरणादि आठ प्रकार कर्म, सो अन्तरंग द्रव्यमल है ।
बहुरि भावमल अज्ञान, प्रदर्शनादि परिणामरूप है । अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव भेदरूप मल है । अथवा उपचार मल जीव के पाप कर्म हैं । तिस सब ही म गालयति कहिए विनाशे, वाघा, वा दहै, वाहने, वा शोध, वा विध्वंस, सो मंगल कहिए । अथवा मंगं कहिए सौख्य वा पुण्य, ताको लाति कहिए आदान करें, ग्रहण करें, सो मंगल है ।
बहुरि सो मंगल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भेद तें श्रानंद का उपजावनहारा छह प्रकार है । तहां अर्हत्, सिद्ध, श्राचार्य, उपाध्याय, साधु, इनका जो नाम, सो तौ नाम मंगल है । बहुरि कृत्रिम प्रकृत्रिम जिनादिक के प्रतिबिंब, सो स्थापना मंगल है | बहुरि जिन, आचार्य, उपाध्याय, साधु इनका जो शरीर, सो द्रव्य मंगल है । बहुरि कैलाश, गिरिनार सम्मेदाचलादिक पर्वतादिक, अर्हन्त प्रादिक के तप - केवलज्ञानादि गुणनि के उपजने का स्थान, वा साठा तीन हाथ से लगाय पांच से पचीस धनुष पर्यन्त केवली का शरीर करि रोक्या हुवा आकाश अथवा केवली का समुद्घात् करि रोक्या हुवा आकाश, सो क्षेत्र मंगल है ।
बहुरि जिस कालं विषै तप आदिक कल्याण भए होंहि, वा जिस काल विष दि जिनादिक के महान उत्सव वर्ते, सो काल मंगल है |
बहुरि मंगल पर्याय करि संयुक्त जीवद्रव्यमात्र भाव मंगल है |
सो यह कह्या हुवा मंगल जिनादिक का स्तवनादिरूप है, सो शास्त्र की आदि fat कीया हूवा शिष्यनि की थोरे कालादिक करि शास्त्रनि का पारगामी करें है ।
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सभ्यरज्ञामचत्रिका भाषाटोका । मध्य विषै कीया हवा मंगल विद्या का व्युच्छेद न होइ, ताकौं करै है। अन्त विर्षे कीया हूवा विद्या का निर्विघ्नपर्ने कौं करै है।।
कोई तर्क करें कि - इष्ट अर्थ की प्राप्ति परमेष्ठीनि के नमस्कार से कैसे
होइ ?
लाह काला कालिए है -
"नेष्टं विहंतुं शुभभावभग्नरसप्रकर्षः प्रभुरंतराय ।
तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुस्यादिरिष्टार्थकृवहंदादेः ॥" याका अर्थ -- अर्हन्तादिक कौं नमस्काररूप शुभ भावनि करी नष्ट भया है अनुभाग का आधिक्य जाका, असा जु अन्तराय नामा कर्म, सो इष्ट के पातने कौं प्रभु कहिए समर्थ न होइ, तातै तिस अभिलाष युक्त जीव करि गुणानुराम तें अर्हत श्रादिक कौं कहा हूवा नमस्कारादिक, सो इष्ट अर्थ का करनहारा है - जैसा परमागम विष प्रसिद्ध है, तातै सो मंगल अवश्य करना ही योग्य है ।
बहुरि निमित्त इस शास्त्र का यहु है - जे भव्य जीव हैं, ते बहुत नय प्रमाण नि करि नानाप्रकार भेद की लीये पदार्थ को जानहु, इस कार्य की कारणभूत करिए हैं ।
बहुरि हेतु इस शास्त्र के अध्ययन विष दोय प्रकार है - प्रत्यक्ष, परोक्ष । तहां प्रत्यक्ष दोय प्रकार - साक्षात्प्रत्यक्ष, परंपराप्रत्यक्ष । तहां प्रज्ञान का विनाश होना, बहुरि सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होनी, बहुरि देव-मनुष्यादिकनि करि निरंतर पूजा करना, बहुरि समय-समय प्रति असंख्यात गुणश्रेणीरूप कर्म निर्जर होना, ये तो साक्षात् प्रत्यक्ष हेतु हैं। शास्त्राध्ययम करते ही ए फल निपजें हैं । बहुरि शिष्य वा शिष्यनि के प्रति शिष्य, तिनकरि निरंतर पूजा का करना, सो परंपरा प्रत्यक्ष हेतु है। शास्त्राध्ययन कीए ते असी फल की परंपरा हो है।
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___ बहुरि परोक्ष हेतु दोय प्रकार - अभ्युदयरूप, निःश्रेयसरूप । तहाँ सातावेवनीयादिक प्रशस्त प्रकृतिनि का तीव्र अनुभाग का उदय करि निपज्या तीर्थकर, इंद्र, राजादिक का सुख, सो तो अभ्युदयरूप है । बहुरि अतिशय संयुक्त, आत्मजनित, अनौपम्य, सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकर का सुख वा पंचेंद्रियनि नै भतीत सिद्ध सुख, सो निःश्रेयसरूप है । ग्रंथ अध्ययन से पीछे परोक्ष असा फल पाइए हैं। तातै यह ग्रंथ ऐसे फलनि का हेतु जानना ।
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। गोम्मटार नौबकाण्ड बहुरि प्रमाण. इस शास्त्र का नानाप्रकार अर्थनि करि अनंत है । बहुरि अक्षर माना करि संख्यात है; जाते जीवकांड का सात से पचीस गाथा सूत्र है ।
बहुरि नाम-जीवादि वस्तु का प्रकाशने की दीपिका समान है । तातें संस्कृत टीका की अपेक्षा जीवतत्वप्रदीपिका है ।
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बहुरि कर्ता इस शास्त्र का तीन प्रकार - अर्थकर्ता, ग्रंथकर्ता, उत्तर ग्रंथकर्ता ।
तहां समस्तपने दग्ध कीया घाति कर्म चतुष्टय, तिहकरि उपज्या जो अनन्त ज्ञानादिक चतुष्टयपना, ताकरि जान्या है त्रिकाल संबन्धी समस्त द्रव्य-गुण-पर्याय का यथार्थ स्वरूप जिहैं, बहुरि नष्ट भए हैं क्षुधादिक अठारह दोष जाके, बहुरि चौंतीस अतिशय, पाठ प्रातिहार्य करि संयुक्त, बहुरि समस्त सुरेंद्र-नरेंद्रादिकनि करि पूजित है चरण कमल जाका, बहुरि तीन लोक का एक नाथ, बहुरि अठारह महाभाषा कर सास से शुद्र भाषा, वा संशी संबंधी अक्षर-अनक्षर भाषा तिहस्वरूप, अर तालवा, दांत, होठ, कंठ का हलावना आदि व्यापाररहित, अर भव्य जीवनि की प्रानन्द का कर्ता, पर युगपत् सर्व जीवनि कौं उत्तर का प्रतिपादन करनहारा ऐसी जु दिव्यध्वनि, तिकरि संयुक्त, बहुरि बारह सभा करि सेवनीक, ऐसा जो भगवान श्री वर्द्धमान तीर्थंकर परमदेव, सो अर्थकर्ता जानना ।
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बहुरि तिस अर्थ का ज्ञान वा कवित्वादि विज्ञान पर सात ऋद्धि, तिनकरि संपूर्ण विराजमान ऐसा गौतम गणधर देव, सो ग्रंथकर्ता जानना । बहुरि तिसही के अनुक्रम का धारक, बहुरि नाही नष्ट भया है सूत्र का अर्थ जाकै, बहुरि रागादि दोषनि करि रहित ऐसा 'नो मुनिश्वरनि का समूह, सो उत्तर ग्रंथकर्ता जानना ।
या प्रकार मंगलादि छहोंनि का व्याख्यान इहां कीया । ऐसें तीसरा प्रयोजन दृढ कीया है।
बहुरि तर्क -- जो शास्त्र की आदि वि उपकार स्मरण किसे अर्थ करिए है? तहां कहिए हैं - जो ऐसा न कहना, जातें ऐसा कथन है
.."श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुंगवाः ॥"
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याका अर्थ
श्रेय जो कल्याण, ताके मार्ग की सम्यक् प्रकार सिद्धि, सो परमेष्ठि के प्रसाद तैं हो है। इस हेतु तैं मुनि प्रधान हैं, ते शास्त्र की यदि विषै तिस परमेष्ठी का स्तोत्र करना कहूँ हैं । बहुरि ऐसा वचन है
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श्रभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोध:, प्रभवति स च शास्त्रासस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यत्प्रसादात्प्रबुद्धेर्न हि कृतसुपकारं पण्डिता: ( साधयो) विस्मरति ॥
याका अर्थ - वांछित, अभीष्ट फल की सिद्धि होने का उपाय सम्यग्ज्ञान है । बहुरि सो सम्यग्ज्ञान शास्त्र तें हो है । बहुरि तिस शास्त्र की उत्पत्ति प्राप्त जो सर्वज्ञ लें है । इस हेतु तैं सो प्राप्त सर्वज्ञदेव है, सो तिसका प्रसाद ते ज्ञानवंत भए जे जीव, तिनकरि पूज्य हो हैं, सो न्याय ही है व पंडित हैं, ते कीए उपकार की नाहीं भूलै हैं, तात शास्त्र की आदि विषै उपकार स्मरण किसे अर्थ करिए ऐसा न कहना : ऐसे चौथा प्रयोजन दूढ किया ।
याही विघ्न विनाशने कौं, बहुरि शिष्टाचार पालने को, बहुरि नास्तिक के परिहार को, बहुरि अभ्युदय का कारण जो परम पुण्य, ताहि उपजावने कौं, बहुरि कीया उपकार के यादि करने को शास्त्र की आदि विषै जिनेंद्रादिक को नमस्कारादि रूप जो मुख्य मंगल, ताक याचरण करत संता, बहुरि जो अर्थ कहेगा, तिस अभिधेय की प्रतिज्ञा की प्रकाशता संता ग्राचार्य है, सौ सिद्धं इत्यादि गाथा सूत्र को कहै है
सिद्धं सुद्धं परमिय, जिरिंगदवरणेमिचंदमकलंकं । गुरपरयरणभूसमुदयं, जीवस्स परूवणं वोच्छं ॥१॥
सिद्धं शुद्धं प्रणम्य, जितेंद्रबरनेमिचन्द्र मकलंकम् । गुणरत्नभूषणोदयं, जीवस्य प्ररूपणं वक्ष्ये ॥१॥
टीका - ग्रहं वक्ष्यामि । अहं कहिए मैं जु हों ग्रंथकर्ता । सो वक्ष्यामि कहिये कहींगा कराँगा । कि ? किसहि करोंगा ? प्ररूपणं कहिये व्याख्यान अथवा अर्थ रूपे अर्थ याकरि प्ररूपिये ऐसा जु ग्रंथ ताहि करोंगा । कस्य प्ररूपण ? किसका प्ररूप कहोगा ? जीवस्य कहिये च्यारि प्राणनि करि जीव है, जीवेगा, जीया ऐसा जीव जो श्रात्मा, तिस जीव के भेद का प्रतिपादन करण हारा शास्त्र
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PHARMA
। गोम्मटसार जीवका गाथा ई मैं कहाँगा; असी प्रतिज्ञा करि । इस प्रतिज्ञा करि इस शास्त्र के संबन्धाभिधेय, शक्यानुष्ठान, इष्टप्रयोजनपना है; तातै बुद्धिवंतनि करि सादर करना योग्य कह्या हैं ।
तहां जैसा संबन्ध होइ, तैसा ही जहां अर्थ होइ; सो संबंधाभिधेय कहिये । बहुरि जाके अर्थ के आचरण करने की सामर्थ्य होइ, सो शक्यानुष्ठान कहिये । बहुरि जो हितकारी प्रयोजन लिए होइ, सो इष्टप्रयोजक कहिये।
.. कथंभूतं प्ररूपणं ? जाकौं कहौंगा, सो कैसा है प्ररूपण ? गुणरत्नभूषणोदयंगुण जे सम्यग्दर्शनादिक, तेई भये रत्न, सोई है आभूषण जाकै, असा जो गुणरत्नभूषण चामुंडराय, तिसतें है उदय कहिले उत्पत्ति जाकी अंसा शास्त्र है । जातें चामुंडराय के प्रश्न के वश तें याकी उत्पत्ति प्रसिद्ध है । अथवा गुरारूप जो रत्न सो भूषयति कहिये शोभै जिहि विर्षे ऐसा गुणरत्नभूषण. मोक्ष, ताकी है उदय कहिये उत्पत्ति जाते ऐसा शास्त्र है।
भावार्थ -- यहु शास्त्र मोक्ष का कारण है । बहुरि विकथादिरूप बंध का कारण नाहीं है । इस विशेषण करि १. बंधक २. बंध्यमान ३. बंधस्वामी ४. बंधहेतु ५. बंधभेद - ये पंच सिद्धांत के अर्थ हैं।
तहां कर्मबंध का कर्ता संसारी जीव, सो बंधक । बहुरि मूल-उत्तर प्रकृतिबंध सो बंध्यमान । बहुरि यथासंभव बंध का सद्भाव लीये गुणस्थानादिक, सो बंधस्वामी। बहुरि मिथ्यात्वादि प्रास्रव, सो बंधहेतु । बहुरि प्रकृति, स्थिति आदि बंधभेद - इनका निरूपण है, तातें गोम्मटसार का द्वितीयनाम पंचसंग्रह है। तिहिविर्षे बंधक जो जीव, ताका प्रतिपादन करणहारा यहु. शास्त्र जीवस्थान वा जीवकांड इनि दोय नामनिकरि विख्यात, ताहि मैं कहौंगा । असा शास्त्र के कर्ता का अभिप्राय यह विशेषण दिखावै है।
बहुरि कथंभूस प्ररूपरणं ? कैसा है प्ररूपण ? सिद्धं कहिये पूर्वाचार्यनि की परंपरा करि प्रसिद्ध है, अपनी रुचि करि नाहीं रचनारूप किया है । इस विशेषण करि आचार्य अपना कपिना कौं छोडि पूर्व प्राचार्यादिकनि का अनुसार को कहै हैं। पुनः किं विशिष्ट प्ररूपणं ? बहुरि कैसा है प्ररूपण ? शुद्ध कहिये पूर्वापर विरोध कौं आदि देकर दोषनि करि रहित है, तातें निर्मल है । इस विशेषण करि सम्यग्ज्ञानी जीवनि के उपादेयफ्ना इस शास्त्र का प्रकाशित कीया है ।
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सम्यग्ज्ञामचन्द्रिका भाषाटोका।
कि कृत्य ? कहाकरि ? प्रगम्य कहिये प्रकर्षपने नमस्कार करि प्ररूपण करौ हौं । कं किसहि ? जिनेंद्रवरनेमिचंद्रं - कर्मरूप वैरीनि की जीते, सो जिन | अपूर्वकरण. परिणाम को प्राप्त प्रथमोपशम सम्यक्त्व कौं सन्मुख सातिशय मिथ्याष्टि, ते जिन कहिये । तेई भए इंद्र, कर्मनिर्जरारूप ऐश्वर्य, ताका भोक्ता कौं आदि देकरि सर्वजिनेंद्रनि वि वर कहिये श्रेष्ठ, असंख्यातगुणी महानिर्जरा का स्वामी असा चामुंडराय करि निर्मापित महापूत चैत्यालय वि विराजमान नेमि नामा तीर्थंकर देव, सोउ भव्य जीवनि कौं चंद्रयति कहिये आह्लाद कर वा समस्त वस्तुनि कौं प्रकाशै अथवा संसार प्राताप पर अज्ञान अंधकार का नाशक चंद्र अंसा जिनेंद्रवरनेमिचंद्र । बहुरि कैसा है ? अकलंक कहिए कलंकरहित, ताकौं नमस्कार करि जीव का प्ररूपण मैं कहौंगा।
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अथवा अन्य अर्थ कहैं - कं प्रणम्य ? किसहि नमस्कार करि जीव का प्ररूपण करौं हौं ? जिनेंद्रवरनेमिचंद्र - नेमिचंद्र नामा बाईसमा जिनेंद्र तीर्थकर देव, ताहि नमस्कार करि जीव की प्ररूपणा करौं हौं । कैसा है सो ? सिद्ध कहिये. समस्त लोक विर्षे विख्यात है । बहुरि कैसा है ? शुद्ध कहिये द्रव्य-भावस्वरूप धातिया कर्मनि करि रहित है । तथापि ताके कोई संशयी क्षुधादिदोष का संभव कहै है, तिस प्रति कहैं हैं - कैसा है सो ?: अकलंक कहिये नाहीं विद्यमान है कलंक कहिये क्षुधादिक अठारह दोष जाके, ऐसा है । बहुरि कैसा है ? गुणरत्नभूषणोदयं - मुण जे अनंत ज्ञानादिक, तेई. भए रत्न के आभूषण, तिनका है उदयः कहिये उत्कृष्टपना जा विषं ऐसा है । इस प्रकार अन्य विर्षे न पाईए ऐसे असाधारण विशेषण; समस्त अतिशयनि के प्रकाशक, अन्य के आप्तपने की वार्ता को भी जे सहैं. नाही, तिन इनि विशेषणति करि इस ही भगवान के परम प्राप्तपना, परम कृतकृत्यपना हम आदि दै जे अकृतकृत्य हैं, तिनके शरणपना प्रतिपादन किया है, ऐसा जानना ।:::. .
अथवा अन्य अर्थ कहै हैं - कं प्रणम्य ? किसहि नमस्कार करि जीव का प्रतिपादन करौं हौ ? जिनेंद्रवरनेमिचंद्रं :- सकल आत्मा के प्रदेशनि विर्षे सघन बंधे जे धाति कर्मरूप मेघपटल, तिनके विघटन तें प्रकटीभूत भए... अनंतजानादिक नव केवल लब्धिपना; तातें जिन कहिये । बहुरि अनौपम्प परम ईश्वरता करि संपूर्णपनां होनेकरि इंद्र कहिये । जिन सोई जो इंद्र सोजिनेंद्र, अपने ज्ञान के प्रभाव करि व्याप्त भया है तीन काल संबंधी तीन लोक का विस्तार जाके ऐसा जिनेंद्र, वर कहिये अक्षर संज्ञा करि चौबीस, कैसे ? 'कटपयपुरस्थवणः' इत्यादि सूत्र अपेक्षा य र ल व विर्षे वकार
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७८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाच गाथा १
चौथा अक्षर, ताका च्यारि का अंक, पर रकार दूसरा अक्षर, तरका दोय का अंक, अंकनि की बाई तरफ से गति है, जैसे वर शब्द करि चौबीस का अर्थ भया । बहुरि अपने अद्भत पुण्य के माहात्म्य ते नागेंद्र, नरेंद्र, देवेंद्र का समूह की अपने चरणकमल विर्षे नमाने, सो नेगि महिये। सपना वर्मतीरूपी रखने पलायने विषं सावधान हैं, तातें जैसे रथ के पहिए के नेमि - धुरी है; तैसे सो तीर्थकरनि का समुदाय धर्मरथ विर्षे नेमि कहिये है । बहुरि चंद्रयति कहिये तीनलोक के नेत्ररूप चंद्रवंशी कमलवननि कौं प्रह्लादित करै, सो चंद्र कहिये । अथवा जाके तैसा रूप की संपदा का संपूर्ण उदय होय है, जिसरूप संपदा के तौलन के विष इंद्रादिकनि की सुन्दरता की समर्मीचीन सर्वस्व भी परमाणु समान हलवा ( हलका ) हो है, सो जो नेमि सोई चंद्र, सो नेमिचंद्र, वर • चौवीस संख्या लिए जो नेमिचंद्र, सो वरनेमिचंद्र, जो जिनेन्द्र सोइ वर नेमिचंद्र, सो जिनेन्द्रबरनेमिचंद्र कहिए वृषभादि वर्धमानपर्यंत तीर्थकरनि का समुदाय, ताहि नमस्कार करि जीव का प्ररूपण कही हौं; ऐसा अभिप्राय है। अवशेष सिद्धः आदि विशेषणनि का पूर्वोक्त प्रकार संबंध जानना ।
__ अथवा अन्य अर्थ कहै हैं -- प्रणम्य कहिये नमस्कार करि कं ? किसहि? जिनेन्द्र वरनेमिचंद्र । जयति कहिये जीते, भेदै, विदारै कर्मपर्वतसमूह कौं, सो जिन कहिए । बहुरि नाम का एकदेश संपूर्णनाम विर्षे प्रवत है - इस न्याय करि इन्द्र कहिये इन्द्रभूति ब्राह्मण, ताका वा इन्द्र कहिये देवेंद्र, ताका वर कहिए गुरू, ऐसा इन्द्रवर श्रीवर्धमानस्वामी, बहुरि 'नयति' कहिए अविनश्वर पद को प्राप्त कर शिष्य समूह कौं, सो नेमि कहिये । बहुरि समस्त तत्त्वनि का प्रकाश हैं चंद्रवतं, तातें चंद्र कहिये । जिन सोई इन्द्रवर, सोई नेमि, सोई चन्द्र, ऐसा जिनेन्द्र वरनेमिचंद्र वर्धमानस्वामी ताहि नमस्कार करि जीव का प्ररूपण करौ हौं । अन्य संबंधः पूर्वोक्त प्रकार जानना ।
' अथवा अन्य अर्थ कहै हैं:- प्रगम्य-नमस्कार करि । कं? किसहि ? सिद्ध कहिये सिद्ध भया, या निष्ठित - संपूर्ण भया वा निष्पन्न (जो) होना था सो हवा । वा कृतकृत्य जो करना था, सो जाने कीया। वा सिद्धसाध्य, सिद्ध भया है साध्य जाकै; असा सिद्धपरमेष्ठी बहुत हैं; तथापि जाति एक है, तातै द्वितीया विभक्ति का एकवचन कह्या । तिह करि सर्वक्षेत्र विर्षे, सर्वकाल विर्षे, सर्वप्रकार करि सिद्धनि का सामान्यपने करि ग्रहण करना। सो सर्वसिद्धसमूह कौं नमस्कार करि जीव का
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सम्यग्ज्ञातचन्द्रिका भाषाका ]
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प्ररूपण करौं ह्रौं ; असा अर्थ जानना । सो कैसा है ? शुद्धं कहिये ज्ञानावरणादि आठ प्रकार द्रव्य-भावस्वरूप कर्म करि रहित है । बहुरि कैसा है ? जिनेंद्रबरनेमिचंद्र - अनेक संसार वन संबंधी विषम कष्ट देने कौं कारण कर्म वैरी, वाहि जीतें, सो जिन । बहुरि इंदन कहिये परम ईश्वर ताका योग, ताकरि राजते कहिए शोर्भ, सो इंद्र । बहुरि यथार्थ पदार्थनि कौं नयति कहिये जाने, सो नेमि कहिये ज्ञान, वर कहिए उत्कृष्ट अनंतरूप जाके पाइए, सो वरनेमि । बहुरि चंद्रयति कहिए आह्लादरूप होइ परम सुखको अनुभवे सो चंद्र । इहां सर्वत्र जाति अपेक्षा एकवचन जानना । सो जो जिन, सोई इंद्र, सोई वर नेमि, सोई चंद्र, जैसा जितेंद्रबरनेमिचंद्र सिद्ध है । बहु कैसा है ? कलंक कहिए नाही विद्यमान है कसं कहिए अन्यमतीनि करि कल्पना कीय दोष जाकै ऐसा है । बहुरि कैसा है ? गुणरत्नभूषणोदयं गुण कहिए परमावगाढ सम्यक्त्वादि आठ गुण, तेई भए रत्न श्राभूषण, तिनका है उदय कहिए अनुभवन वा उत्कृष्ट प्राप्ति जार्के जैसा है ।
Marate हैं हैं - प्ररणम्य नमस्कार करि के ? किसहि ? के कहिए. आत्मद्रव्य, ताहि नमस्कार करि जीव का प्ररूपण करों हौं । कैसा है ? अकलं कहिये नाही विद्यमान हैं कल कहिये शरीर जाऊं ऐसा है । बहुरि कैसा है ? सिद्धं कहिए fter अनादि-fter है । बहुरि कैसा है ? शुद्धं कहिये शुद्धनिश्चयनय के गोचर है ।
बहुरि कैसा है ? जिनेंद्र वरनेमिचंद्र - जिन में असंयत सम्यग्दृष्टी आदि, तिनका इंद्र कहिये स्वामी हैं, परम आराधने योग्य है । बहुरि पर कहिये समस्त पदार्थनि विष सारभूत है । बहुरि नेमिचंद्र कहिये ज्ञान- सुखस्वभाव को धरे हैं । सो जितेंद्र, सोई वर, सोई नेमिचंद्र असा जितेंद्र वरनेमिचंद्र आत्मा है ।
बहुरि कैसा है ? गुणरत्नभूषणोदयं गुणानां कहिये समस्त गुणनि विषै रत्न कहिये रत्नवत् पूज्य प्रधान भैंसा जो सम्यक्त्वगुण, ताकी है उदय कहिये उत्पत्ति जाके वा जाते आत्मानुभव तें सम्यक्त्व हो है, ताते श्रात्मा गुणरत्नभूषणोदय है ।
tear or है हैं - प्रणम्य नमस्कार करि के ? किसहि ? सिद्धं कहिये सिद्ध परमेष्ठीन के समूह कौं, सो कैसा है ? शुद्धं कहिये दग्ध किए हैं ग्राठ कर्ममूल जिहि । बहुरि किसहि ? जितेंद्रबरनेमिचंद्रं जिनेंद्र कहिये अर्हत् परमेष्ठीनि का समूह सो बरा: कहिये उत्कृष्ट जीव गणधर चक्रवर्ती, इंद्र, धरणेंद्रादिक भव्यप्रधान ई भए नेमि कहिये नक्षत्र, तिनिविषै चंद्र कहिये चंद्रमावत् प्रधान, औसा जितेंद्र, सोई
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वरनेमिचंद्र, ताहि अर्हत्परमेश्वरनि के समूह कौं । सो कैसा है ? अकलंकं कहिए दूर कीया है तरेसठि कर्मप्रकृतिरूप मल कलंक जाने जैसा है। केवल तिसही को नमस्कार करि नाही, बहुरि गुरगरलभूषणोदयं गुणरूपी रतन सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तेई भए भूषण कहिए प्राभरण, तिनका है उदय कहिए समुदाय (जाके) असा प्राचार्य, उपाध्याय, साधुसमूह ताकौं, असें सिद्ध, अरहंत, प्राचार्य, उपाध्याय, साधुरूप पंचपरमेष्ठीनि की नमस्कार करि जीव का प्ररूपण करौ हौं ।
अथवा अन्य अर्थ कहै हैं - प्ररणम्य कहिये नमस्कार करि, कं कहिए किसहि ? जीवस्य प्ररूपणं कहिए जीवनि का निरूपण वा ग्रंथ, ताहि नमस्कार करि कहाँ । सो कैसा है ? सिद्धं कहिए सम्यक् गुरुनि का उपदेश पूर्वकपने करि अखंडित प्रवाहरूप करि अनादिलें चल्या आया है । बहुरि कैसा है ? शुद्धं कहिए प्रमाण ते अविरोधी अर्थ का प्रतिपादकपने करि पूर्वापरते, प्रत्यक्षत अनुमान लें, आगम से, लोक ते निजवचनादि तें विरोध, तिनिकरि अखंडित है । बहुरि कैसा है जिनेंद्रयरनेमिचंद्रजिनेंद्र कहिये सर्वज्ञ, सो है वर कहिए कर्ता जाका, असा जिनद्रवर कहिए सर्वज्ञप्रणीत है। इस विशेषण करि वक्ता के प्रमाणपंना ते वचन का प्रमाणपना दिखाया । बहुरि यथावस्थित अर्थ को नयति कहिए प्रतिपादन करै, प्रकास, सो नेमि कहिए । बहुरि चंद्रयति कहिए आह्लादित करे, विकास शब्द, अर्थ, अलंकारनि करि श्रोतानि के मनरूपी गडूलनि (कमल) कौं, सो चंद्र कहिए जिनेंद्रवर, सोई नेमि, सोई चंद्र असा जि.द्रवरनेमिचन्द्र प्ररूपण है । बहुरि कैसा है ? अकलंक कहिए दूरहि तें छोडया है शब्द-अर्थ-गोचर दोषकलंक जिहि, असा है । बहुरि कैसा है ? गुणरत्नभूषणोदयं --- गुणरत्न जे रत्नत्रयरूप भूषण कहिये आभूषण, तिनकी है उदय कहिए उत्पत्ति वा प्राप्ति, हम मादि जीवनि के जाते, ऐसा गुणरत्नभूषण प्ररूपण है ।
अथवा अन्य अर्थ कहै हैं - चामुंडराय के जीवप्ररूपणशास्त्र का कर्तापने का प्राश्रय करि मंगलसूत्र व्याख्यान करिए है ।
भावार्थ - इस गोम्मटसार का मूलगाथाबंध ग्रंथकर्ता नेमिचन्द्र प्राचार्य है । ताकी टीका कर्णाटकदेशभाषाकरि चामुण्डराय करी है । ताकै अनुसारि केशवनामा ब्रह्मचारी संस्कृतटीका करी है । सो चामुण्डराय की अपेक्षा करि इस सूत्र का अर्थ करिए है । अहं जीवस्य प्ररूपणं यक्ष्यामि मैं जु हौं चामुण्डराय, सो जीव का प्ररूपण रूप ग्रंथ का दिप्पण ताहि कहाँगा । किं कृत्वा ? कहाकरि ? प्रणम्य नमस्कार करि ।
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বান্ধিা মালীকা ] कं? किसहि ? जिनेंद्रवरनेमिचंद्र जिनेंद्र है वर कहिए भर्ता, स्वामी जाका, सो जिनेन्द्रवर इहां जिन कहिये कर्मनिर्जरा संयुक्त जीव, तिनि विर्षे इंद्र · कहिए स्वामी अर्हत, सिद्ध । बहुरि जिन हैं इंद्र कहिए स्वामी जिनिका ऐसे प्राचार्य, उपाध्याय, साधु; ऐसें जिनेंद्र शब्दकरि पंच परमेष्ठी आए । तिनका पाराधन से उपजे जे सम्यग्दर्शनादिक गुण, तिनिकरि संयुक्त अपना परमगुरु नेमिचंद्र प्राचार्य, ताहि नमस्कार करि जीव प्ररूपणा कहाँगा । सो कैसा है ? सिद्ध कहिये प्रसिद्ध है वा वर्तमान काल विर्षे प्रवृत्तिरूप समस्त शास्त्रनि मैं निष्पन्न है । बहुरि कैसा है ? शुद्ध कहिये पचीस मलरहित सम्यक्त्व जाकै पाइये है वा अतिचार रहित चारित्र जा पाइए है। वा देश, जाति, कुल कर शुद्ध है । बहुरि कैसा है ? अकलंक कहिए विशुद्ध मन, वचन, काय संयुक्त है। बहुरि कैसा है ? मुखरत्नभूषणोदयं - गुणरत्नभूषण कहिए चामुण्डराय राजा, ताकै है उदय कहिये ज्ञानादिक की वृद्धि, जाते ऐसा नेमिचंद्र प्राचार्य है। ऐसे इष्ट विशेष- + रूप देवतानि कौं नमस्कार करना है लक्षण जाका, ऐसा परम मंगल कौं अंगीकार करि याकै अनंतर अधिकारभूत जीवप्ररूपणा के अधिकारनि कौं निर्देश करै हैं ।
मुरगजीवा पज्जती, पारणा सण्णा य मग्गणाओ य । उओवगोवि य कमसो, वीसं तु परूदणा भणिदा ॥२॥ शुरणनीवाः पर्याप्तयः, प्रारणाः संज्ञाश्च मार्गरणाश्च ।
उपयोगोऽपि च क्रमशः, विशतिस्तु प्ररूपणा भरिणताः ॥२॥
टोका - इहां चौवह मुणस्थान, अठयाणवै जीवसमास, छह पर्याप्ति, दश प्राण, ज्यारि संशा; मार्गणा विर्षे च्यारि गतिमार्गणा, पांच इंद्रियमार्गणा, छह कायमार्गणा, पंद्रह योगमार्गणा, तीन वेदमार्गरणा, च्यारि कषायमार्गणा,पाठ ज्ञानमार्गणा, सात संयममार्गणा, च्यारि दर्शनमार्गणा, छह लेश्यामार्गणा, दोय मध्यमार्गणा, छह सम्यक्त्वमार्गणा, दोय संज्ञिमार्गरणा, दोय आहारमार्गणा, दोय उपयोम – ऐसें ये जीव-प्ररूपणा वीस कहीं हैं।
इहां निरुक्ति करिये है - मुख्यते कहिये जाणिये द्रव्य ते द्रव्यांतर को याकरि, सो गुण कहिये । बहुरि कर्म उपाधि की अपेक्षा सहित ज्ञान-दर्शन उपयोगरूप चैतन्य प्राण करि जीवे हैं ते जीव, सम्यक् प्रकार प्रासते कहिये स्थितिरूप होइ इनि विर्षे
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१-पखंडागम - धवला पुस्तक २, पृष्ठ ४१३, मादा २२२.
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१२ ]
|| মীমাং সীমান্ত ব্যাথা ते जीवसमास है । बहुरि परि कहिये समंतता ते प्राप्ति कहिये प्राप्ति, सो पर्याप्ति है । शक्ति की निष्पन्नता का होना सो पर्याप्त जानना । बहुरि प्राणंति कहिये जीवे हैं जीवितव्यरूप व्यवहार कौं योग्य हो हैं जीव जिनिकरि, ते प्राण हैं । बहुरि
आगम विर्षे प्रसिद्ध बांछा, संज्ञा, अभिलाषा ए एकार्थ हैं। बहुरि जिन करि वा जिन विर्षे जीव हैं, ते मृग्यंते कहिये 'अवलोकिये ते मार्गरणा है । तहां अवलोकनहारा मृगयिता तो भव्यनि विर्षे उत्कृष्ट, प्रधान तत्वार्थ श्रद्धावान जीव जानना । अवलोकने योग्य, मृग्य चौदह मार्गणानि के विशेष लिये प्रात्मा जानना । बहुरि अवलोकना मुग्यता का साधन कौं वा अधिकरण को जे प्राप्त, ते गति आदि मार्गणा हैं । बहुरि मार्गरणा जो अवलोकन, ताका जो उपाय, सो ज्ञान-दर्शन का सामान्य भावरूप उपयोग है । ऐसें इन प्ररूपणानि का साधारण अर्थ का प्रतिपादत्त कह्या ।
प्रागै संग्रहनय की अपेक्षा करि प्ररूपणा का दोय प्रकार को मन विर्षे धारि गुणस्थान-मार्गरणास्थानरूप दोय प्ररूपणानि के नामांतर कहें हैं -
संखेओ ओघोत्ति य, गणसण्णा सा च मोहजोगभवा । वित्थारासोति य, मग्गणसण्णा सकम्मभवा ॥३॥ संक्षेप प्रोध इति च गुणसंज्ञा, सा च मोहयोगभवा । .
विस्तार आदेश इति च, मार्गणसंज्ञा स्वकर्मभवा ॥३॥ __ टीका - संक्षेप ऐसी अोध गुणस्थान की संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्ग विर्षे रूढ है, प्रसिद्ध है । गुणस्थान का ही संक्षेप वा ओघ असा भी नाम है । बहुरि सो संज्ञा 'मोहयोगभवा' कहिए दर्शन चारित्रमोह वा मन, वचन, काय योग, तिनकरि उपजी है । इहां संज्ञा के धारक गुणस्थान के मोह-योग से उत्पन्नपना है । तात तिनकी संज्ञा के भी मोह-योग करि उपजना उपचार करि कह्या है । बहुरि सूत्र विषै चकार कह्मा है, तातें सामान्य असी भी गुणस्थान की संज्ञा है; असा जानना ।
बहुरि तैसे ही विस्तार, आदेश असी मार्गणास्थान की संज्ञा है। मार्गणा का विस्तार, आदेश जैसा नाम है । सो यहु संजा अपना-अपना मार्गणा का नाम की प्रतीति के व्यवहार को कारण जो कर्म, ताके उदय ते हो हैं । इहां भी पूर्ववत् संज्ञा के कर्म तै उपजने का उपचार जानना । निश्चय करि संज्ञा तो शब्दजनित ही है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाव टोका 1
[ ३
बहुरि चकार तँ विशेष ऐसी भी मार्गणास्थान की संज्ञा गाथा विषै विना कही भी
जानती ।
2.
आगे प्ररूपणा का दोय प्रकार पना विषै अवशेष प्ररूपणानि का अंतर्भूतपना दिखावे हैं -
आदेसे संलीणा, जीवा पज्जत्तिपाणसण्णाओ ।
जवओगोवि य भेद, वीसं तु परूवणा भणिदा ॥ ४ ॥
श्रादेशे संलीना, जीवाः पर्याप्तिप्राणसंज्ञाश्च । उपयोगोऽपि च भेदे, विशतिस्तु प्ररूपणा भणिताः ॥४॥
टीका – मार्गणास्थानप्ररूपणा fat arreare, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा,
-
उपयोग - ए पांच प्ररूपणा संतींना कहिए गर्भित हैं, किसी प्रकार करि तिनि माणानि विष अंतर्भूत हैं । तैसे होते गुणस्थानप्ररूपण पर मार्गणास्थानप्ररूपण संपेक्षा करि प्ररूपणा दोय ही निरूपित हो हैं ।
आगे किस मार्गणा विषे कौन प्ररूपणा गर्भित है ? सो तीन गाथानि करि कहै हैं -
इंदियकाये लीणा, जोवा यज्जत्तिआणभासमणो । जोगे काओ णाणे, अक्खा गदिमगणे आऊ ॥ ५ ॥
इंद्रियाययोर्लोना, जीवाः पर्याप्त्यानभाषासनांसि | योगे कायः ज्ञाने, प्रक्षोणि गतिमार्गणाधामायुः ॥५॥
टीकर - इंद्रियमाणा विषै, बहुरि कार्यमार्गणा विषै जीवसमास भर पर्याप्ति. अरे सोश्वास, भाषा, मनबल प्राण ए अंतर्भूत हैं । कैसे हैं ? सो कहे हैं - जीवसमास अपर्याप्त इनिकै इंद्रिय पर कायसहित तादात्म्यंकरि कोया हुवा एकत्व संभव है । जीवसमास र पर्याप्ति ए इंद्रिय -कायरूप हो हैं । बहूरि सामान्य- विशेष करि कीया हूवा एकत्व संभव है। जोवसमास, पर्याप्ति पर इंद्रिय, काय विषै कहीं सामान्य का ग्रहण है, कहीं विशेष का ग्रहण है । बहुरि पर्याप्तिनि के धर्म-धर्मीकरि कीया हुवा. . एकत्व संभव है । पर्याप्त धर्म है, इंद्रिय-काय धर्मी हैं । तातें जीवसमास र पर्याप्त
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४]
रोम्मटसार जीवका गाथा ६
ए इंद्रिय-कायमार्गणा विर्षे गभित जानने । बहुरि उश्वास, बचनबल, मनबल, प्रारणनि के अपना कारणभूत उश्वास, भाषा, मनःपर्याप्ति जहां-जहां अंतर्भूत भया, तिसविर्षे अंतर्भूतपना न्याय ही है । तातै एऊ तहां ही इंद्रिय-कायमार्गणा विर्षे गभित भए । बहुरि योग-मार्गणा विर्षे कायबल प्राण गर्भित है, जाते जीव के प्रदेशनि का चंचल होने रूप लक्षण धरै काययोगरूप जो कार्य, तीहिविर्षे तिस काय का बलरूप, लक्षण धरै कायबल प्राणस्वरूप जो कारण, ताके अपने स्वरूप का सामान्य-विशेष करि कीया एकत्व-विशेष का सद्भाव है, तालें कार्य-कारण करि कीया एकत्व हो है । बहुरि ज्ञानमार्गरणा विर्षे इंद्रिय-प्रारण गभित है, जाते इंद्रियरूप मति-श्रुतावरण के क्षयोपशम से प्रकट जे लब्धिरूप इंद्रिय, तिनकै ज्ञान सहित तादात्म्य करि कीया एकत्व का सद्भाव है । बहुरि गतिमार्गणा विर्षे आयु प्राण गभित है । जाते गति और आयु के परस्पर अजहद्वृत्ति है । गति प्रायु विना नाही, आयु गति बिना नाही, सो इस लक्षण करि एकत्व संभव है।
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मायालोहे रदिपुवाहारं, कोहमाणगहि भयं। ' वेदे मेहुणसण्णा, लोहह्मि परिग्गहे सण्णा ॥६॥ मायालोभयोः रतिपूर्वकमाहार, कोषमामकयोभयं ।
वेदे मैथुनसंज्ञा, लोभे परिग्रहे संज्ञा ॥६॥
टीका - माया कषाय पर लोभ कषाय विर्षे आहार संज्ञा गभित है, जातें आहार की वांछा रतिनामकर्म के उदय कौं पहिले भए हो है । बहुरि रतिकर्म है, सो माया-लोभ कवाय राग कौं कारण है, तहाँ अंतर्भूत है । बहुरि क्रोधं कषाय अर मान कषाय विर्षे भयसंशा गभित है । जातें भय के कारण नि विर्षे द्वेष का कारणपना है, तात द्वेषरूप जे क्रोध-मान काय, तिनकै कार्य-कारण अपेक्षा एकत्व संभव है । बहुरि वेदमार्गणा विर्षे मैथुन संशा अंतर्भूत है, जाते काम का तीनपना का वशीभूतपना करि कीया स्त्री-पुरुष युगलरूप जो मिथुन का कार्य अभिलाषसहित संभोगरूप, सो वेद का उदय करि निपज्या पुरुषादिक का अभिलाषरूप कार्य है । असे कार्यकारणभाव करि एकत्व का सद्भाव है । बहुरि लोभ कषाय विर्षे परिग्रह संज्ञा अंतर्भूत है, जातै लोभ कषाय होते ही ममत्वभावरूप जो परिग्रह का अभिलाष, तरका संभव हैं, तातें यहां कार्य-कारण अपेक्षा एकत्व है। असा हे भव्य ! तू जारिण। '
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नाभाटका 1
सागारी उवजोगो, णाणे मग्गाि दंसणे मग्गे । अणगारो उवजोगो, लीणोत्ति जिर्णोह विद्दिट्ठ ॥७॥ का उपयोग ज्ञानमार्गायां दर्शनमार्गगाथाम् । arrer उपयोगो लीन इति जिनैनिर्दिष्टम् ॥७॥
टीका ज्ञानमार्गणा विषै सांकार उपयोग गर्भित है । जाते ज्ञानावरण, atara के क्षयोपशम ते उत्पन्न ज्ञाता का परिणमन का निकटपना होते ही विशेष ग्रहण रूप लक्षण वरें जो ज्ञान, वाकी उत्पत्ति है, तातै कार्य-कारण करि कीया एकत्व संभव है । बहुरि दर्शनमार्गणा विषे अनाकार उपयोग गर्भित है । जाते दर्शनावरण, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम करि प्रकट भया पदार्थ का सामान्य ग्रहणरूप व्यापार होते ही पदार्थ का सामान्य ग्रहणरूप लक्षण धरें जो दर्शन, ताकी उत्पत्ति है, ता कार्य-कारण भाव बने है । से यहु गर्भितभाव पूर्वोक्त रीति करि जिन जे अर्हन्तादिक, तिनिकरि निर्दिष्ट कहिए कया है । बहुरि अपनी रुचि करि रच्या हुवा नाहीं है। भैंसे जीवसमासादिकनि के मास्थान विषे गर्भित भाव का समर्थन करि गुलस्थान अर मार्गणास्थान ए प्ररूपणा दोय प्रतिपादन करि । बहुरि teaser करि वीस प्ररूपणा पूर्वी कहीं, तेई कहिए है । पूर्वे गाथा विषे 'भशिताः '
सा पद का, ताकरि वीस प्ररूपणा परमागम विषे प्रसिद्ध हैं, तिनका प्रकाशन करि तिनका विशेष कथन विषे स्वाधीनपना अपनी इच्छा के अनुसारि कहना, सो छोड्या है | जैसे यह न्याय तैसें ही जोडिए है ।
आगे तिनि बीस प्ररूपणानि विषे पहले कही जो गुणस्थानप्ररूपणा, ताका प्रतिपादन के अथि प्रथम गुणस्थान शब्द की निरुक्तिपूर्वक अर्थ कहे हैं -
—
जेहिं दुलक्खिज्जेते, उदयादिसु संभवेहि भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा, णिहिट्टा सव्ववरसीहिं ॥८॥
येस्तु मक्ष्यंते, उदयादिषु संभवर्भावः । जीवास्ते गुणसंज्ञा, निद्दिष्टाः सर्वदर्शिभिः ॥
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टीका - मोहनीय आदि कर्मनि का उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम परिणामरूप जे अवस्था विशेष, तिनको होते संतै उत्पन्न भए जे भाव कहिए जीव के
१- षट्खंडागम - घवला पुस्तक १ गाथा १०४, पृष्ठ १६२.
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। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा है-१० मिथ्यात्वादिक परिणाम, तिनकरि गुण्यंते कहिए लखिए वा देखिए वा लांछित करिए जीव, ते जीव के परिणाम गुरणस्थान संज्ञा के धारक हैं, असा सर्वदर्शी जे सर्वज्ञदेव, तिनकरि निर्दिष्टाः कहिए कहे हैं। इस गुण शब्द की निरुक्ति की प्रधानता लोए सूत्र करि जिमावादिन यो के हनीपता पर्यत ये जीव के परिणाम विशेष, तेई गुणस्थान हैं, असा प्रतिपादन कीया है।।
__ तहां अपनी स्थिति के नाश के वश तें उदयरूप निषेक विई गले जे कार्माण स्कंध, तिनका फल देनेरूप जो परिणमन, सो उदय है । ताकौं होते जो भाव होइ, सो औदयिक भाव है।
बहुरि गुरण का प्रतिपक्षी जे कर्म, तिनका उदय का अभाव , सो उपशम है। ताकी होते संतें जो होय, सो औपश मिक भाव है।
बहुरि प्रतिपक्षी कर्मनि का बहुरि न उपजै असा नाश होना, सो क्षय; ताकौं होते जो होइ, सो क्षायिक भाव है ।
बहुरि प्रतिपक्षी कर्मनि का उदय विद्यमान होते भी जो जीव के गुरण का अंश देखिए, सो क्षयोपशम; ताकी होते जो होइ, सो क्षायोपशमिक भाव है।
बहुरि उदयादिक अपेक्षा ते रहित, सो परिणाम है; ताकी होते जो होइ, सो पारिणामिक भाव है । असे प्रौदयिक आदि पंचभावनि का सामान्य अर्थ प्रतिपादन करि विस्तार से प्रागं तिनि भावनि का महा अधिकार विर्षे प्रतिपादन करिसी।
आग ते गुणस्थान गाथा दोय करि नाममात्र कहै हैंमिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरवो य । : विरदा पमत्त इदरो, अपुब्ब अणियट्टि सुहमो य ॥६॥ उवसंत खीणमोहो, सजोगकेवलिजिरणो अजोगी य। चउदस जीवसमासा, कमेण सिद्धा य खादव्वा ॥१०॥ मिथ्यात्वं सासनः मिश्रः, अविरतसम्यक्त्वं च देशविरतश्च । विरताः प्रमत्तः इतरः, अपूर्वः अनिवृत्तिः सूक्ष्मश्च ॥९॥ उपशांतः क्षीणमोहः, सयोगकेसिजिनः अयोगी च । चतुर्दश जीवसमासाः, क्रमेण सिद्धाश्च ज्ञातव्या ॥१०॥
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१,पखंडागम घयला पुस्तक १, पृष्ठ १६२ से २०१ तक, सूत्र १ से २३ तक।
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सम्यानचन्द्रिका भाषाटोका ) :
.. टीका - मिथ्या कहिए. अतत्त्वमोचर है. दृष्टि कहिए श्रद्धा जाकी, सो मिथ्यादृष्टि है । 'नाम्न्युत्तरपदश्च' असा व्याकरण सूत्र करि दृष्टिपद का लोप करते 'मिच्छो' असा कह्या है । यह भेद आगे भी जानना। . .
बहरि प्रासादन जो विराधना, तिहि सहित वर्त सो सासादना, सासादना है सम्यग्दृष्टि जाकै, सो सासादन सम्यग्दृष्टि है । अथवा प्रासादन कहिए सम्यक्त्व का विराधन, तीहि सहित जो वर्तमान, सो सासादन । बहुरि सासादन अर सो सम्यग्दृष्टि सो सासादन सम्यग्दृष्टि है । यह पूर्व भया था सम्यक्त्व, तिस न्याय करि इहां सम्यग्दृष्टिपना जानना।
बहुरि सभ्यवत्व पर मिथ्यात्व का जो मिश्रभाव, सो मिश्र है।
बहुरि सम्यक कहिए समीचीन है दृष्टि कहिए तस्वार्थश्रद्धान जाके, सो सम्यग्दृष्टि पर सोई अविरत कहिए असंयमी, सो विरतसम्बदृष्टि है।
बहुरि देशतः कहिए एकदेश ते विरत कहिए संयमी, सो देशविरत है, संयतासंयत है, असा अर्थ जानना ।
इहां जो विरत पद है, सो ऊपरि के सर्व मुरणस्थानवर्तीनि के संयमीपना कौं जनावै है । बहुरि प्रमाद्यति कहिये प्रमाद कर, सो प्रमत्त है । बहुरि इतर कहिए प्रमाद न करै, सो अप्रमत्त है।
.. बहुरि अपूर्व है करण कहिए परिणाम जार्क, सो अपूर्वकरण है ।
बहुरि निवृत्ति कहिए परिणागनि विर्षे विशेष न पाइए है निवृत्तिरूप करण कहिए परिणाम जार्क, सो अनिवृत्तिकरण है।
बहुरि सूक्ष्म है सांपराय कहिये कषाय जाकै, सो सूक्ष्मसांपराय है । बहुरि उपशांत भया है मोह जाका; सो उपशांतमोह है। बहुरि क्षीण भया है मोह जाका, सो क्षीणमोह हैं ।
बहुरि घातिकर्मनि कौं जीतता भया, सो जिन, बहुरि केवलज्ञान याकै हैं यात केवली, केवली सोई जिन, सो केवलिजिन, बहुरि योग करि सहित सो सयोग, सोई केवलिजिन, ऐसे सयोगकेवलीजिन है। .
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[ गोम्मटसार जोधका माथा ११ बहुरि योग याकै है सो योगी, योगी नाही सो अयोगी, केवलिजिन ऐसी अनुवृत्ति से अयोगी, सोई केवलिजिन असें अयोगकेवलिजिन है।
असे ए मिथ्यादृष्टि प्रादि अयोगिकेवलिजिन पर्यन्त चौदह जीवसमास कहिए गुणस्थान ते जानने ।
कसे यह जीवसमास ऐसी संज्ञा गुणस्थान की भई ?
तहां कहिए हैं - जीव है, ते समस्पंसे कहिए संक्षेपरूप करिए इनिविणे, ते जीवसमास अथवा जीव हैं। ते सम्यक् भासते एषु कहिए भले प्रकार तिष्ठ हैं, इनिविर्षे, ते जीवसमास, असे इहां प्रकरण जो प्रस्ताव, ताकी सामर्थ्य करि गुणस्थान ही जीवसमास शब्द करि कहिा है ! जाने ऐसा हनन है- 'बाद प्रकरणं ताहशीर्थ: जैसा प्रकरण तैसा अर्थ, सो इहां गुणस्थान का प्रकरण है, तातै गुणस्थान अर्थ का ग्रहण किया है।
बहुरि ये कर्म सहित जीव जैसे लोक विर्षे है, तसे नष्ट भए सर्वकर्म जिनके, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी भी हैं। ऐसा मानना । क्रमेण कहिए क्रम करि सिद्ध हैं, सो यहां क्रम शब्द करि पहिले घातिकर्मनि कौं क्षपाइ सयोगकेवली, अयोगकेवली गुणस्थाननि वि यथायोग्य काल तिष्ठि, प्रयोगकेवली का अंत समय विषं अवशेष अघातिकर्म समस्त खिपाइ सिद्ध हो है - ऐसा अनुक्रम जनाइए है । सो इस अनुक्रम की जनावनहारा क्रम शब्द करि युगपत् सर्वकर्म का नाशपना, बहुरि सर्वदा कर्म के अभाव ते सदा ही मुक्तपना परमात्मा के निराकरण कीया है।
आगै गुणस्थाननि विर्षे औदयिक आदि भावनि का संभव दिखावै हैं - मिच्छे खलु ओदइनो, बिदिये पुरण पारणामिओ भावो। मिस्से खओवसमिओ, अविरदसम्महि तिष्णेव ॥११॥ मिथ्यात्वे खलु औदयिको द्वितीये पुमः पारिरणामिको भावः ।
मित्रे क्षायोपशमिकः अविरतसम्यक्त्वे अय एवं ॥११॥
टीका - मिथ्यादष्टि गुणस्थान विर्षे दर्शनमोह का उदय करि निपल्या ऐसा प्रौदयिक भाव, प्रतत्त्वश्रद्धान है लक्षण जाका, सो पाइए है। खलु कहिए
१ षट्सण्डागम -क्यला पुस्तक-५ पृष्ठ १७४ १७७ भावानुगम मूत्र २, से ५
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सम्पानामचन्तिका भाषाटीका } प्रकटपर्ने । बहुरि दूसरा सासारनगुणस्थान विर्ष पारिणामिक भाव है। जातें इहां दर्शनमोह का उदय आदि की अपेक्षा का जु अभाव, ताका सद्भाव है।
बहुरि मिश्रगुणस्थान विर्षे क्षायोपमिक भाव है। काहै तें ?
मिथ्यात्वप्रकृति का सर्वधातिया स्पर्धकनि का उदय का अभाव, सोई है लक्षण जाका, ऐसा तो क्षय होते संते, बहुरि सम्यग्मिथ्यात्व नाम प्रकृति का उदय विद्यमान होते संते, बहुरि उदय कौं न प्राप्त भए ऐसे निषेकनि का उपशम होते संते, मिश्रगुणस्थान हो है । तातै ऐसा कारण ते मिश्र विर्षे क्षायोपशमिकभाव है।
बहुरि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान विर्षे औपशमिक सम्यक्त्व, बहुरि क्षायोपशमिकरूप वेदकसम्यक्त्व, बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व ऐसे नाम धारक सीन भाव हैं, जाते इहां दर्शनमोह का उपशम वा क्षयोपशम वा क्षय संभव है ।
आगे कहे हैं जु ए भाव, तिनके संभवने के नियम का कारण कहै हैं - एवे भावा रिणयमा, बंसरगमोहं पडुच्च भरिणदा हु । चारित्तं पत्थि जदो, अविरदअंतेसु ठाणेसु ॥१२॥ एते भावा नियमाद्, दर्शनमोहं प्रतीत्य भाणिताः खलु ।
चारित्रं नास्ति यतो, विरसांतेषु स्थानेषु ॥१२॥ टीका -- असे पूर्वोक्त औदायिक प्रादि भाव कहे, ते नियम ते दर्शनमोह कौं प्रतीत्य कहिए आश्रयकरि, भरिपता कहिए कहे हैं प्रगटपनै ; जाते अविरतपर्यंत च्यारि गुणस्थान विषं चारित्र नाहीं है। इस कारण ते ते भाव चारित्र मोह का आश्रय करि नाहीं कहे हैं।
तीहिं करि सासादनगुणस्थान विर्षे अनंतानुबंधी की कोई क्रोधादिक एक कषाय का उदय विद्यमान होतें भी ताकी विवक्षा न करने करि पारिणामिकभाव सिद्धांत विर्षे प्रतिपादन कीया है, ऐसा तू जानि ।।
बहुरि अनंतानुबंधी की किसी कषाय का उदय की विवक्षा करि प्रौदयिक भाव भी है।
प्रागै देशसंयतादि गुणस्थाननि विर्षे भावनि का नियम गाथा दोय करि दिखावें हैं -
।
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== }
[ गोम्मटसार नौवकाण्ड गाथा १३
देसविरवे पमते, इवरे य खओवसमियभावो दु ।
सो खलु चरितमोह, पडुच्च भषियं तहा उवरि ॥ १३ ॥
देशविरते प्रमत्ते, इतरे च क्षायोपशमिकभावस्तु ।
स खलु चरित्रमोह, प्रतोत्य भणितस्तथा उपरि ||१३||
उदय रूप
टीका - देशविरत विषै, बहुरि प्रमत्तसंयत विषै, बहुरि इतर अप्रमत्तसंयत far क्षायोपशमिक भाव है । तहां देशसंयत अपेक्षा करि प्रत्याख्यान कषायनि के उदय वस्था को प्राप्त भए जे देशघाती स्पर्धकनि का अनंतवां भाग मात्र, तिनका जो उदय, तीहि सहित जे उदय कौं न प्राप्त भए ही निर्जरा रूप क्षय होते जे विवक्षित निषेक, तिनि स्वरूप जे सर्वधातिया स्पर्धक अनंत भागनि विषै एक भागविना बहुभाग, प्रमाण मात्र लीए तिनका उदय का प्रभाव, सो ही हैं लक्षण tet er क्षय होते संते, बहुरि वर्तमान समय संबंधी निषेक तें ऊपरि के निषेक उदय अवस्था न प्राप्त भए, तिनकी सत्तारूप जो अवस्था, सोई है लक्षण जाका, असा उपशम होते संते देशसंयम प्रकट है । तातें चारित्र मोह को आश्रय करि देशसंयम क्षायोपशमिक भाव है, जैसा कया है ।
बहुरि तैसे ही प्रमत्त - श्रप्रमत्त विषे भी संज्वलन कषायनि का उदय आए जे tratfter स्पर्धक अंनतवां भागरूप, तिनिका उदय करि सहित उदय कौंन प्राप्त होतें ही क्षयरूप होते जे विवक्षित उदय निषेक, तिनिरूप सर्वघातिया स्पर्धक अनंत भागनि विषै एक भागविना बहुभागरूप, तिनिका उदय का अभाव, सो ही है। लक्षरण जांका जैसा क्षय होते, बहुरि ऊपरि के निषेक जे उदय को प्राप्त नभए, fafter सत्ता अवस्थारूप है लक्षण जाका, असा उपशम, ताकौं होते संत प्रमत्तअप्रमत्त हो है । तातैं चारित्र मोह अपेक्षा इहां सकलसंयम है । तथापि क्षायोपशमिक भाव है ऐसा कया है, जैसा श्रीमान् अभयचंद्रनामा आचार्य सिद्धांतचक्रवर्ती, ताका श्रभिप्राय है ।
भावार्थ - सर्वत्र क्षयोपशम का स्वरूप असा ही जानना । जहां प्रतिपक्षी कर्म के देशघातिया स्पर्धकान का उदय पाइए, तीह सहित सर्वघातिया स्पर्धक उदय-निषेक संबंधी, तिनका उदय र पाइए ( बिना ही उदय दीए ) निर्जरें, सोई क्षय, अर जे उदय व प्राप्त भए आगामी निषेक, तिनका सत्तास्वरूप उपशम, तिनि दोऊनि को होते
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संम्याजानन्त्रिक भाषाटोका ) क्षयोपशम हो है । सो स्पर्धकनि का वा निषेकनि का वा सर्वधाति-देशधातिस्पर्धकनि के विभाग का आगै वर्णन होगा, तातै इहां विशेष माहीं लिख्या है। सो इहां भी पूर्वोक्तप्रकार चारित्रमोह को क्षयोपशम ही है । तातें क्षायोपशर्मिक भाव देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त विर्षे जानना । तैसे ही ऊपरि भी अपूर्वकरणादि गुणस्थाननि विर्षे चारित्रमोह कौं आश्रय करि भाव जानने ।
- सती उरि उनसमभावो उवसामगेसु खवगेसु। ..
खइओ भावो रिणयमा, अजोगिचरिमोत्ति सिद्धे य ॥१४॥ तत उपरि उपशमभावः उपशामकेषु क्षपकेषु ।
क्षायिको भावो नियमात् अयोगिचरम इति सिद्धे च ॥१४॥ . ___टोका - ताते ऊपरि अपूर्वकरणादि च्यारि मुणस्थान उपशम श्रेणी संबंधी, तिनिविर्षे औपशमिक भाव है । जाते तिस संयम का चारित्रमोह के उपशम ही ते संभव है । बहुरि तैसे ही अपूर्वकरणादि च्यारि गुणस्थान क्षपक श्रेणी संबंधी अर सयोगअयोगीकेवली, तिनिविर्षे क्षायिक भाव है नियमकरि, जात तिस चारित्र का चारित्रमोह के क्षय हो से उपजमा है ।
बहुरि तसे ही सिद्ध परमेष्ठीनि विर्षे भी क्षायिक भाव ही है, जालें तिस सिद्धपद का सकलकर्म के क्षय ही तैं प्रकटपना हो है ।
प्रागै पूर्वै नाममात्र कहे जे चौदह गुणस्थान, तिनिविर्षे पहिले कह्या जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, ताका स्वरूप की प्ररूपै हैं - ......: मिच्छोदयरस मिच्छत्तमसहहणं त तच्चप्रत्थाणं । ।
एयंतं विवरीयं, विणयं संसयिदमण्णाणं ॥१५॥ ... मिथ्यात्योदयेन मिथ्यात्वमश्रद्धानं तु सस्वार्थानाम् ।
एकांतं विपरीत, विनयं संशयितमज्ञानम् ॥१५॥ टीका - दर्शनमोहनी का भेदरूप मिथ्यात्व प्रकृति का उदय करि जीव के अतत्व श्रद्धान है लक्षण जाका जैसा मिथ्यात्व हो है । बहुरि सो मिथ्यात्व १. एकांत २. विपरीत ३. विनय ४. संशयित ५. अज्ञान - असे पांच प्रकार है।
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[ गोम्मटसार जीवका गया १३
तहां जीवादि दस्तु सर्वथा सत्वरूप ही है, सर्वथा सत्त्वरूप ही है, सर्वथा एक ही है, सर्वथा अनेक ही है - इत्यादि प्रतिपक्षी दूसरा भाव की अपेक्षारहित एकतिरूप अभिप्राय, सो एकांत मिथ्यात्व है ।
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बहुरि अहिंसादिक समीचीन धर्म का फल जो स्वर्गादिक सुख, ताक हिंसादिरूप यज्ञादिक का फल कल्पना करि मानें या जीव के प्रमाण करि सिद्ध है जो मोक्ष, ताका निराकरा करि मोक्ष का प्रभाव माने; वा प्रमाण करि खंडित जो स्त्री के मोक्षप्राप्ति, ताका अस्तित्व वचन कर स्त्री को मोदा है जैसा मानें इत्यादि एकांत लंबन कर विपरीतरूप जो अभिनिवेश- अभिप्राय, सो विपरीत मिथ्यात्व है ।
बहुरि सम्यग्दर्शन-शान चारित्र की सापेक्षा रहितपनें करि गुरुचरणपूजनादिरूप विनय ही करि मुक्ति है - यहु श्रद्धान वैनयिक मिथ्यात्व है ।
बहुरि प्रत्यक्षादि प्रमाण करि ग्रह्मा जो अर्थ, ताका देशांतर विषै भर कालांतर विषै व्यभिचार जो अन्यथाभाव, सो संभव है । तातैं अनेक मत अपेक्षा परस्पर विरोधी जो आप्तवचन, ताका भी प्रमाणता की प्राप्ति नाहीं । तातें असें ही तत्व है, जैसा निर्णय करने की शक्ति के प्रभाव तें सर्वत्र संशय ही है, जैसा जो अभिप्राय, सो संशय मिथ्यात्व है ।
बहुरि ज्ञानावरण दर्शनावरण का तीव्र उदय करि संयुक्त से एकेंद्रियादिक ate, तिनके अनेकांत स्वरूप वस्तु है, भैसा वस्तु का सामान्य भाव विषे श्रर उपयोग लक्षण जीव है औसा वस्तु का विशेष भाव विषं जो अज्ञान, ताकरि निपज्या जो श्रद्धान, सो ज्ञान मिध्यात्व है ।
असे स्थूल भेदनि का श्राश्रय करि मिध्यात्व का पंचप्रकारमना कथा, जातें सूक्ष्म भेदनि का आश्रय करि असंख्यात लोकमात्र भेद संभव हैं । तातें तहां व्याख्यानादिक व्यवहार की प्राप्ति है ।
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इन पंनि का उदाहरण कीं कहै हैं -
एयंत बुद्धदरसी, विवरीओ बह्म तावसो विरणओ । sat far संसइयो, मक्कडिओ थेव अण्णाणी ॥ १६ ॥
एकांतो बुद्धदर्शी, विपरीतो ब्रह्म तापसो विनयः । इंद्राऽपि च संशयितो, मस्करी चैवाज्ञानी ॥ १६ ॥
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सम्पजानचन्द्रका भावाटीका ।
टीका - ए उपलक्षणपना करि कहे हैं । एक का नाम लेने ते अन्य भी ग्रहण करने, तातें ऐसे कहने - बुद्धदर्शी जो बौद्धमती, ताकौं आदि देकरि एकांत मिथ्यादृष्टि हैं । बहुरि यज्ञकर्ता ब्राह्मण प्रादि विपरीत मिथ्यादृष्टि हैं । बहुरि तापसी आदि विनय मिथ्यादृष्टि हैं । बहुरि इन्द्रनामा जो श्वेतांबरनि का गुरु, ताकौं आदि देकरि संशय मिथ्यादृष्टि हैं । बहुरि मस्करी (मुसलमान) संन्यासी की प्रादि देकरि अज्ञान मिथ्यादृष्टि हैं। वर्तमान काल अपेक्षा करि ए भरतशेष विषं संभवने बौद्धमती आदि उदाहरण कहे हैं ।
आग प्रतत्त्वश्रद्धान है लक्षण आका, असे मिथ्यात्व कौं प्ररूप हैं - मिच्छंरा वेदंतो, जीवो विवरीयदसणो होदि। ण य धम्म रोचेदि हु, महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥१७॥ मिथ्यात्वं विहन् जीयो, विपरीतदर्शनो भवति ।
न च धर्म रोचते हि, मधुरं खलु रसं यथा ज्वरितः ॥१७॥ टीका - उदय आया मिथ्यात्व कौं वेदयन् कहिए अनुभवता जो जीव, सो विपरीतदर्शन कहिए अतत्त्वश्रद्धानसंयुक्त है, अयथार्थ प्रतीत करं है। बहुरि केवल प्रतत्त्व ही कौ नाहीं श्रद्ध है, अनेकांतस्वरूप जो धर्म कहिए वस्तु का स्वभाव अथवा रत्नत्रयस्वरूप मोक्ष का कारणभूत धर्म, ताहि न रोचते कहिए नाहीं रूचिरूप प्राप्त
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इहां दृष्टांत कहै हैं - जैसे ज्वरित कहिए पित्तज्वर सहित पुरुष, सो मधुर - मीठा दुग्धादिक रस, ताहि न रोचै है; तैसें मिथ्यादृष्टि धर्म को न रोचे है, ऐसा अर्थ जानना।
इस ही वस्तु स्वभाव के श्रद्धान कौं स्पष्ट कर हैं -
मिच्छाइट्टी जीवो, उवठ्ठपवयणं ण सद्दहदि । सद्वदि असम्भावं, उवइनें वा अणुवइटें ॥१८॥ मिथ्यादृष्टिर्जीवः उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्दधाति । श्रद्दधाति असद्भावं, उपदिष्टं या अनुपदिष्टम् ॥१८॥
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१. पटखण्झरम - बक्ला पुस्तक-१, पृष्ठ १६३, गाथा १०६.
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१४]
[ मोम्मटसार जीवकाम ना १८
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. टीका - मिथ्यादृष्टि जीव हैं, सो उपदिष्ट कहिए अहन्त आदिकनि करि उपदेस्या हुया प्रवचन कहिए आप्त, प्रागम, पदार्थ इनि तीनों कौं नाहीं श्रद्ध है, जातै प्र कहिए उत्कृष्ट है वचन जाका, असा प्रवचन कहिए अरस्त । बहुरि प्रकृष्ट जो परमात्मा, ताका. वचन सो प्रवचन कहिए परमागम । बहुरि प्रकृष्ट उच्यते कहिए प्रमाण करि निरूपिए असा प्रवचन कहिए पदार्थ, या प्रकार निरुक्ति करि प्रवचन शब्द करि प्राप्त, अमाइ, पदार्गहीनों का कार्य हो है । बहुरि सो मिथ्यादृष्टि असद्भाव कहिए मिथ्यारूप; प्रवचन कहिए प्राप्त प्रायम, पदार्थ; उपदिष्टं कहिए. प्राप्त कीसी प्राभासा लिए कुदेव जे हैं, तिनकरि उपदेस्या हूआ अथवा अनुपदिष्ट कहिए विना उपदेस्या हुआ, ताकी श्रद्धान कर है । बहुरि वादी का अभिप्राय लेइ उक्त च गाथा कहै हैं -
"धडपडणंभादिपयत्थेसु मिच्छाइट्टी . जहावगमं ।
सदहतो वि अण्णारणी उच्च जिरणवयणे सहहणाभावादो ॥"
याका अर्थ - घट, पट, स्तंभ आदि पदार्थनि विर्षे मिथ्यादृष्टि जीव यथार्थ शान लीए श्रद्वान करता भी अज्ञानी कहिए, जाते जिनवचन विर्षे श्रद्धान का अभाव है . असा सिद्धांत का वाक्य करि कह्या मिथ्यादृष्टि का लक्षरंग जानि सो मिथ्यात्व भाव त्यजना योग्य है। ताका भेद भी इस ही वाक्य करि जानना । सो कहिए हैं- कोऊ मिथ्यादर्शनरूप परिणाम प्रात्मा विर्षे प्रकट हा थका वर्ण-रसादि की उपलब्धि जो ज्ञान करि जानने की प्राप्ति, ताहि होते संते . कारणविपर्यास, बहुरि भेदाभेदविपर्यास, बहुरि स्वरूपविपर्यास कौं उपजावै है। - तहां कारण विपर्यास प्रथम कहिए है । रूप-रसादिकनि का एक कारण है, सो अमूर्तीक है, नित्य है असं कल्पना करै है। अन्य कोई पृथ्वी आदि जातिभेद लोए भिन्न-भिन्न परमाणु हैं, ते पृथ्वी के च्यारि गुरणयुक्त, अपके गंध बिना लीन गुणयुक्त, अग्नि के रस विना दोय गुणयुक्त, पवन के एक स्पर्श गुणयुक्तं परमाणु हैं, ते अपनी समान जाति के कार्यनि कौं निपजाबनहारे हैं, जैसा वर्णन कर है। या प्रकार कारण विर्षे विपरीतभाव जानना ।
बहुरि भेदाभेदविपर्यास कहै हैं - कार्य से कारण भिन्न ही है अथवा अभिन्न ही है, असी कल्पना भेदाभेद विर्षे अन्यथापना जानना ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
बहुरि स्वरूपविपर्यास क है हैं - रूपादिक गुण निर्विकल्प हैं, कोऊ कहै-हैं ही नाहीं । कोऊ कहै -- रूपादिकनि के जानने करि तिनके आकार परिणया झान ही है नाही, तिनका अवलंबन बाह्य वस्तुरूप है । जैसा विचार स्वरूप विर्ष मिथ्यारूप जानना । या प्रकार कुमतिज्ञान का बल का श्राधार करि कुश्रुतज्ञान के विकल्प हो हैं । इनका सर्व मूल कारण मिथ्यात्व कर्म का उदय ही है, जैसा निश्चय करना। प्रागै सासादनगुणस्थान का स्वरूप दोय सूत्रनि करि कहै हैं -
आदिमसम्मत्तद्धा, समयादो छावलित्ति वा सेसे । अरणअण्णदरुवयादो, रणासियसम्मोत्ति सासरपक्खो सो॥१६॥ आदिमसम्यक्त्वाद्वा, प्रासमयतः घडावलिरिति या शेषे ।
अनान्यतरोदयात् नाशितसम्यक्त्व इति सासानाख्यः सः ॥१९॥ . . टीका - प्रथमोपशम सम्यक्त्व का. काल. वि जघन्य एकसमय, उत्कृष्ट छह पावली अवशेष रहैं, अनंतानुबंधी च्यारि कषायनि विर्षे अन्यतम कोई एक का उदय होते संतै, नष्ट कीया है सम्यक्त्व जाने असा होई, सो सासादन जैसा कहिए । बहुरि या शब्दकरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का काल विर्षे भी सासादन गुणस्थान की प्राप्ति हो है । औसा (गुणधराचार्यकृत) कषायप्राभूतनामा यतिवृषभाचार्यकृत (चूणिसूत्र) जयधवल ग्रन्थ का अभिप्राय है ।
जो मिथ्यात्व से चतुर्थादि गुणस्थाननि विर्षे उपशम सम्यक्त्व होइ, सो प्रथमोपशम सम्यक्त्व है।
बहुरि उपशमश्रेणी चढते क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हैं जो उपशम सम्यक्त्व होय, सो द्वितीयोपशम सम्यक्त्व जानना।
सम्मत्तरयरणपव्ययसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो। वासियसम्मत्तो सो, सासरणरणामो मुरणेयन्वो ॥२०॥ सम्यक्त्यरत्नपर्वतशिखरात् मिथ्यात्वभूमिसमभिमुखः । माशितसम्यक्स्थः सः, सासननामा मंतव्य ॥२०॥
१. षट्खण्डायम .. यदला पुस्तक - १, पृष्ठ १६७, माथा १०८. . . .
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २१-२२
टीका - जो जीव सम्यक्त्वपरिणामरूपी रत्नमय पर्वत के शिखर तैं मिथ्यात्वपरिणामरूपी भूमिका के सन्मुख होता संता, पडि करि जितना अंतराल का काल एक समय आदि छह प्रावली पर्यन्त है, तिहि विषै वर्ते, सो जीव नष्ट कीया है। सम्यक्त्व जाने, जैसा सासादन नाम धारक जानना ।
आगँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का स्वरूप गाया च्यारि करि कहै हैं -
६ ]
सम्मामिच्छुवयेण य, जतंतरसव्वधादिकज्जेरण । साय सम्म मिच्छं पिय, सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥२१॥ १ जात्यंतर सर्वघातिकार्ये सम्मिश्री भवति परिणामः ॥२१॥
सम्यग्मिथ्यात्योदयेन
न च सम्यक्त्वं मिथ्यात्वमपि च
,
टीका - जात्यंतर कहिए जुदी ही एक जाति भेद लीए जो सर्वघातिया कार्यरूप सम्यग्मिथ्यात्व नामा दर्शनमोह की प्रकृति, ताका उदय करि मिध्यात्व प्रकृति का उदययत् केवल मिथ्यात्व परिणाम भी न होइ है । और सम्यक्त्व प्रकृति का उदयवत् केवल सम्यक्त्व परिणाम भो न होइ है । तिहि कारण ते तिस सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का कार्यभूत जुदी ही जातिरूप सम्यग्मिथ्यात्वपरिणाम मिलाया हुआ मिश्रभाव हो है, पैसा जानना ।
दहिगुडमिव वामिस्सं, पुहभावं व कारिदु सक्कं । एवं मिस्यभावो, सम्मामिच्छोत्ति रणादध्वो ॥२२॥ १
afarstra व्यामिश्रं पृथग्भावं नैव कर्तुं शक्यम् । एवं मिश्रभावः सम्यग्मिथ्यात्वमिति ज्ञातव्यम् ॥२२॥
-
टीका इव कहिए जैसे, व्यामिश्रं कहिए मिल्या हुआ, दही घर गुड सो पृथग्भावं कर्तुं कहिए जुदा-जुदा भाव करने को, नैव शक्यं कहिए नाहीं समर्थपना है, एवं कहिए जैसे, सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिल्या हुआ परिणाम, सो केवल सम्यक्त्वभाव करि अथवा केवल मिथ्यात्वभाव करि जुदा-जुदा भाव करि स्थापने की नाही समर्थपना है । इस कारण तें सम्यग्मिथ्यादृष्टि अंसा जानना योग्य है । समीचीन अरसोई मिथ्या, सो सम्यग्मिथ्या अंसा है दृष्टि कहिए श्रद्धान जार्के, सो सम्यग्मिथ्या
१--डायम-घवला पुस्तक १, पृ. १०१ - १०६
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीको
[ १७
मिथ्यादृष्टि है। इस निरुक्ति से भी पुर्वं ग्रह्या जो प्रतत्त्वश्रद्धान, ताका सर्वथा त्याग बिना, तीहि सहित ही तत्व श्रद्धान हो है। जाते तैसे ही संभवता प्रकृति का उदयरूप कारण का सद्भाव है।
सो संजमण गिण्हवि, देसजमं वा रण बंधदे आउं। सम्मं वा मिच्छ वा, पडिवज्जिय मरदि गियमरण ॥२३॥ स संयम न गृह्णाति, देशयमं या न बध्नाति प्रायुः ।
सम्यक्त्वं वा मिथ्यात्वं, या प्रतिपद्य म्रियते नियमेन ॥२३॥ टीका ~ सो सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है, सो सकलसंयम वा देशसंयम कौं ग्रहण कर नाही, जाते तिनके ग्रहण योग्य जे करणरूप परिणाम, तिनिका तहां मिश्रमुस्थान विर्षे असंभव है। बहुरि तैसे ही सो सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव च्यारि गति संबंधी आयु कौं नाहीं बांधे है । बहुरि मरणकाल विर्षे नियमकरि सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणाम कौ छोडि, असंयत सम्यग्दृष्टीपना की वा मिथ्यादृष्टीपना कौं नियमकरि प्राप्त होइ, पीछे मरै है।
भावार्थ -- मिथमुणस्थान त पंचमादि गुणस्थान विषं चढना नाहीं है। बहुरि तहां प्रायुबंध वा मरणं नाहीं है ।
सम्मत्तमिल्छपरिणामेसु जहिं आउगं पुरा बद्धं । . तहिं मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य ग मिस्सम्मि ॥२४॥२ सम्यक्त्वमिथ्यात्वपरिणामेषु यत्रायुष्कं पुरा बद्धम् । . तत्र मरण मरणांतसमुद्घातोऽपि च न मिश्रे ॥२४॥
टीका - सम्यक्त्वपरिणाम पर मिथ्यात्वपरिणाम इनि दोऊनि विर्षे जिह परिणाम विर्षे पुरा कहिए सम्यग्मिथ्यादृष्टीपनाको प्राप्ति भए पहिले, परभव का प्रायु बंध्या होइ, तीहि सम्यक्त्वरूप का मिथ्यात्वरूप परिणाम वि प्राप्त भया ही जीव का मरण हो है, असा नियम कहिए है। बहुरि अन्य केई प्राचार्यनि के
। १. पखंडागम - चवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३४१, गाथा ३३ . २. पखंडागम - धवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३४६ गाथा ३३ एवं पुरतफ ५, पृष्ट ३१ टीका.
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। गोम्मदसार जोनकाय गाया२५
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अभिप्राय करि नियम नाही है । सोई कहिए है -- सम्यक्त्वपरिणाम विषं वर्तमान कोई यायोजन सायु के जधि बहुरि सम्यग्मिथ्यादृष्टि होइ पीछे सम्यक्त्व कौं वा मिथ्यात्व को प्राप्त होइ मरे है। बहुरि कोई जीव मिथ्यात्वपरिणाम वि वर्तमान, सो यथायोग्य परभव का आयु बांधि, बहुरि सम्यग्मिथ्यादृष्टि होइ पीछे सम्यक्त्व कौं वा मिथ्यात्व कौं प्राप्त होइ' मर है । बहुरि से ही माराणांतिक समुद्घात भी मिधगुणस्थान विष नाहीं है । प्रागै असंयत गुणस्थान के स्वरूप कौं निरूपै हैं ।
सम्मत्तक्षेसधादिस्सुक्यायो वेदगं हवे सम्म । चलमलिनमगाढं तं पिच्चं कम्मक्खवरणहेतु ॥२॥ सम्यक्त्वदेशघालेरुदयावेरकं भवेत्सम्यक्त्वम् ।
चलं मलिनमगाढं तन्नित्यं कर्मक्षपरमहेतु ॥२५॥ . टोका - अनंतानुबंधी कषायनि का प्रशस्त उपशम नाहीं है, इस हेतु से तिन अनंतानुबंधी कषायनि का अप्रशस्त उपशम कौं होते अथवा विसंयोजन होते, बहुरि दर्शनमोह का भेदरूप मिथ्यात्वकर्म अर सम्यग्मिथ्यात्वकर्म, इनि दोऊनि कौं प्रशस्त उपशमरूप होते वा अप्रशस्त उपशम होते वा क्षय होने के सन्मुख होते बहरि सम्यक्त्व प्रकृतिरूप देशघातिया स्पर्धकों का उदय होते ही जो तस्वार्थश्रद्धान है लक्षण जाका, असा सम्यक्त्व होइ, सो वेदक असा नाम धारक है ।
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__ जहां विवक्षित प्रकृति उदय पादने योग्य न होइ पर स्थिति, अनुभाग घटनै वा बधने वा संक्रमण होने योग्य होइ, तहां अप्रशस्तोपशम जानना।
बहुरि जहां उदय प्रावने योग्य न होइ पर स्थिति, अनुभाग घटने-बधने वा. संक्रमण होने योग्य भी न होइ, तहां प्रशस्तोपशम जानना ।
बहुरि तीहि सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होते देशवातिया स्पर्धकनि के तत्त्वार्थश्रद्धान नष्ट करने को सामर्थ्य का अभाव है। तातें सो सम्यक्त्व चल, मलिन अंगाढ हो है । जाते सम्यक्त्व प्रकृति के उदय का तत्त्वार्थश्रद्धान कौं मल उपजायने मात्र ही विर्षे व्यापार हैं । तीहि कारण ते तिस सम्यक्त्व प्रकृति के देशघातिपना है । अॅसें सम्यक्त्व प्रकृति के उदय को अनुभवत्ता जीव के उत्पन्न भया
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सम्यशामचन्द्रिका भाषाटोका
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जो तत्वार्थश्रद्धान, सो वेदक सम्यक्त्व है, असा कहिए है । यह ही वेदक सम्यक्त्वं है, सो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व असा नामधारक है, जात दर्शनमोह के सर्वधाती स्पर्धकनि का उदय का प्रभावरूप है लक्ष जाका, ऐसा क्षय होते, बहुरि देशघातिस्पर्धकरूप सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होते, बहुरि तिसंही का वर्तमान समयसबंधी से ऊपरि के निषेक उदय की न प्राप्त भए, तिनिसंबंधी स्पर्धकनि का सत्ता अवस्थारूप है लक्षण जाका, ऐसा उपशम होते बेदक सम्यक्त्व हो है । ताते याही का दूसरा नाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है, भिन्न नाहीं है ।
सो वेदक सम्यक्त्व कैसा है ? नित्यं कहिए नित्य है । इस विशेषण करि याकी जघन्यस्थिति अंतर्मुहूर्त है, तथापि उत्कृष्टपना करि छयासठि सागरप्रमाण काल रहै है । तातै उत्कृष्ट स्थिति अपेक्षा दीर्घकाल ताई रहै है, तातै नित्य कह्या है। बहुरि सर्वकाल अविनश्वर अपेक्षा नित्य इहां न जानना । बहुरि कैसा है ? कर्मक्षपणहेतु (कहिए) कर्मक्षपावने का कारण है । इस विशेषण करि मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणाम हैं, तिनि विर्षे सम्यक्त्व ही मुख्य कारण है, ऐसा सूचे है। बहुरि वेदक सम्यक्त्व विर्षे शंकादिक मल हैं, ते भी यथासंभव सम्यक्त्व का मूल लें नाश करने की कारण नाही, असे सम्यक्त्व प्रकृति के उदय ते उपजे हैं।
बहुरि औपशमिक अर क्षायिक सम्यक्त्व विर्षे मल उपजावने कौं कारण तिस सम्यक्त्व प्रकृति का उदय का प्रभाव से निर्मलपना सिद्ध है, ऐसा हे शिष्य ! तू जान । ___बहुरि चलादिकनि का लक्षण कहैं हैं, तहां चलपना कहिए है -
नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं स्मृतं ।। लसत्कल्लोलमालासु जलमेकमवस्थितं ॥ स्वकारितेऽहच्चत्यादौ देवोऽयं मेऽभ्यकारिते ।
अन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छाद्धोऽपि चेष्टते ॥ .... . याका अर्थ - नाना प्रकार अपने हो विशेष कहिए प्राप्त, पागम, पदार्थरूप श्रद्धान के भेद, तिनि विषं जो चले - चंचल होइ, सो चल कहा है । सोई कहिए है • अपना कराया अर्हन्तप्रतिबिंबादिक विधैं यहु मेरा देव है, ऐसे ममत्व करि, बहुरि
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Homemarativit-Ansaritaanemaanaanavainine-
१०. ]
। गोम्मटसार जीवकाड गापा २५ अन्यकरि कराया अर्हन्तप्रतिबिबादिक विषं यह अन्य का है, ऐसे पर का मानिकरि भेदरूप भजन करै है; ताते चल कहा है। ... इहां दृष्टांत कहै हैं - जैसे नाना प्रकार कल्लोल तरंगानि की पंक्ति विष जल एक ही अवस्थित है, तथापि नाना रूप होइ चल है; तैसें मोह जो सम्यक्त्व प्रकृति का उदय, ताते श्रद्धान है, सो भ्रमण रूप चेष्टा करै है । : : । भावार्थ - जैसे जल तरंगनि विर्षे चंचल होइ, परंतु अन्यभाव कौं न भजे, में वेदक समादृष्टि कापना वा अन्य का कराया जिनबिबादि विषं यह मेरा, यह अन्य का इत्यादि विकल्प कर है, परंतु अन्य देवादिक कौं नाहीं भजै है। अब मलिनपना कहिए है -
तदप्यलब्धमाहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मणः।
मलिनं मलसंगेन शुद्धं स्वर्णमियोद्भवेत् ।। याका अर्थ- सो भी वेदक सम्यक्त्व है, सो सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से न पाया है माहात्म्य जिहि, ऐसा हो है । बहुरि सो शंकादिक मल का संगकरि मलिन हो है । जैसे शुद्ध सोना बाघ मल का संयोग से मलिन हो है, तैसे वेदक सम्यक्त्व शंकादिक मल का संयोग नै मलिन हो है । अब प्रगाढ कहिए है -
स्थान एव स्थितं कंप्रमगादमिति कीर्त्यते । वायष्टिरिवायत्तस्थाना करतले स्थिता ॥ समेग्यनंतशक्तित्वे सर्वेषामहतामयं ।।
देवोऽस्मै प्रभुरेषोस्मा इत्यास्था सुशामपि । . याका अर्थ - स्थान कहिए प्राप्त, आगम, पदार्थनि का श्रद्धान रूप अवस्था, तिहिं विर्षे तिष्ठता हुआ ही कांप, गाढा न रहै, सो अगाद ऐसा कहिए है ।
ताका उदाहरण कहैं हैं - असे तीव्र रुचि रहित होय सर्व अर्हन्त परमेष्ठीनि के अनंतशक्तिपना समान होते संते, भी इस शांतिकर्म, जो शांति क्रिया ताकै अथि शांतिनाथ देव है, सो प्रभु कहिए समर्थ है । बहुरि इस विघ्ननाशन प्रादि क्रिया के अणि पार्श्वनाथ. देव समर्थ है । इत्यादि प्रकार करि रुचि, जो प्रतीति, ताकी शिथिलता संभव है । तातें बूढे का हाथ विर्षे लाठी शिथिल संबंधपना करि अगाठ है, तैसें सम्यक्त्व अगाढ़ है।
मामला
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जरीना
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सम्पयनन्त्रिका भाषाटीका ]
भावार्थ -- जैसे बूढे के हाय ते लाठी छूट नाही, परंतु शिथिल रहै । तेसै वेदक सम्यक्त्व का श्रद्धान छूट नाहीं । शांति प्रादि के अथि अन्य देवादिकनि कौं न सेदै, तथापि शिथिल रहै । जैन देवादिक विर्षे कल्पना उपजावै ।।
असा इहां चल, मलिन, अमाढ का वर्णन उपदेशरूप उदाहरण मात्र कह्या है । सर्व तारतम्य भाव ज्ञानगम्य है ।
भाग औपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्वनि का उपजने का कारण अर स्वरूप प्रतिपादन कर हैं -
सत्तण्हं उवसमदो, उवसमसम्मो खयादु खइयो य । बिदियकसायुक्यायो, असंजदो होदि सम्मो य ॥२६॥
समानामुपणामतः, उपरसमसम्वत्वं क्षयात्तु क्षायिक च।
द्वितीय कषायोदयायसंयतं भवति सम्यक्त्वं च ॥२६॥
टोका - नाही पाइए है अंत जाका, असा अनंत कहिए मिथ्यात्व, ताहि अनुबध्नति कहिए आश्रय करि प्रवत असे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ; बहुरि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति नाम धारक दर्शनमोह प्रकृति तीन; असे सात प्रकृतिनि का सर्व उपशम होने करि. औपशामिक सम्यक्त्व हो है। बहुरि तैसे तिन सात प्रकृतिनि का क्षयतें क्षायिक सम्यक्त्व हो है । बहुरि दोऊ सम्यक्त्व ही निर्मल हैं, जाते शंकादिक मलनि का अंश की भी उत्पत्ति नाहीं संभव है। बहुरि तैसें दोऊ सम्यक्त्व निश्चल हैं, जाते श्राप्त, आगम, पदार्थ: गोचर श्रद्धान भेदनि विर्षे कहीं भी स्खलित न हो हैं । बहुरि तैसे ही दोऊ सम्यक्त्व गाढ हैं; जाते प्राप्तादिक विर्षे तीन रुचि संभव है । यह मल का न संभवना, स्खलित न होना तीव्ररुचि का संभवना - ए तीनों सम्यक्त्व प्रकृति का उदय का इहां अत्यंत प्रभाव है, ताते पाइए है असा जानना ।
__ बहुरि या प्रकार कहे तीन प्रकार सम्यक्त्वनि करि परिणया जो सम्यग्दृष्टि जीव, सो द्वितीय कषाय जे अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ; इन विर्षे एक किसी का उदय करि असंयत कहिए असंयमी हो है, याही ते याका नाम असंयतसम्यग्दृष्टी है ।
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गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २७.२८ . प्रा तत्त्वार्थश्रद्धान का सम्यक् प्रकार ग्रहण अर त्याग का अवसर नाही, ताहि गाथा दोय करि प्ररूपे हैं -
सम्माइट्ठी जीवो, उवइठं पवयणं तु सद्वहदि । - सददि असम्भावं, अजारणमारणो गुरुरिणयोगा ॥२७॥
सम्यग्दष्टिोवः, उपदिष्टं प्रवचनं सु श्रधाति ।
धाति असद्भावं, प्रज्ञायमानो गुरुनियोगात् ॥२५॥ टीका - जो जीव अर्हन्तादिकनि करि उपदेस्या हुवा असा जु प्रबचन कहिए आप्त, पागम, पदार्थ ए तीन, ताहि श्रदधाति कहिए श्रद्ध है, रोचे है । बहुरि तिनि प्राप्तादिकनि विर्षे असद्भावं कहिए अतत्व, अन्यथा रूप ताकौं भी अपने विशेष ज्ञान का अभाव करि केवल गुरु ही का नियोग तें जो इस गुरु ने कहा, सो ही अर्हन्त की आज्ञा है; असा प्रतीति ते श्रद्वान कर है, सो भी सम्यग्दृष्टि ही है, जाते तिस की आज्ञा का उल्लंघन नाहीं करै है।
भावार्थ - जो अपने विशेष ज्ञान न होइ, 'बहुरि जनगुरु मंदमति से प्राप्तादिक का स्वरूप अन्यथा कहैं, पर यहु अर्हन्त की असी हो पाना है, असे मानि जो असत्य श्रद्धान करै तौं भी सम्यग्दृष्टि का अभाव न होइ, जातें इसने तो अर्हन्त की आज्ञा जानि प्रतीति करी है ।
सत्तावो तं सम्म, दरसिज्जतं. जदा ग सददहदि ।। सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो लदो पहुदी ॥२८॥ सूत्रातं सम्यग्दर्शयतं, यदा न अधाति । . ..
स चैध भवति मिथ्याष्टिीवः तदा प्रभृति ॥२८॥ टीका - तैसे असत्य अर्थ श्रद्धान करता आज्ञा सम्यग्दृष्टी जीव, सो जिस काल प्रवीण अन्य प्राचार्यनि करि पूर्वे ग्रह्या हुवा असत्यार्थरूप श्रद्धान ते विपरीत भाव सत्यार्थ, सो गणधरादिकनि के सूत्र दिखाइ सम्यक् प्रकार निरूपण कह्या हुवा होइ, ताकौं खोटा हट करिन श्रद्धान करै तौ, तीहि · काल सौं लगाय, सो जीव
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१.पट्खंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ १७४, माथा ११०
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सम्पशानचन्द्रिका भाषाटोका । मिथ्यादृष्टी हो है। जाते सूत्र का अश्रद्धान करि जिन श्राशा का उल्लंघन का सुप्रसिद्धपना है, तीहि कारण तें मिथ्यादृष्टी हो है ।
भाग असंयतपना अर सम्यग्दृष्टीपना के सामानाधिकरथ्य को दिखाने हैं -
खो इंदियेसु विरदो, यो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्बहदि जिणुत्तं, सम्माइठ्ठी अविरदोसो ॥२६॥
मो इंद्रियेषु विरतो, नो जीवे स्थावरे असे वापि।
यः श्रद्दधाति जिनोक्त, सम्यग्दृष्टिरविरतः सः ॥२९॥ ____टोका - जो जीव इंद्रियविषयनि विर्ष नोविरत - विरति रहित है, बहरि तसे हो स्थावर, अस जोव की हिंसा विर्षे मीही विस्त है - त्याग रहित है । बहुरि जिन करि उपदेश्या प्रवचन कौं श्रद्धान कर है, सो जीव अविरत सम्यादृष्टी हो है । या करि असंयत, सोई सम्यग्दृष्टी, सो असंयतसम्यग्दृष्टी है ऐसे समानाधिकरणपना दृढ कीया । बहुत विशेषणनि का एक वस्तु आधार होइ, तहां कर्मधारेय समास विर्षे समानाधिरणपना जानना । बहुरि अपि शब्द करि ताकै संवेगादिक सम्यक्त्व के गुण भी याकै पाइए है, ऐसा सूचे है। बहुरि इहां जो अविरत विशेषण हैं, सो अत्यदीपक समान जानना । जैसे छहडें धरथा हुवा दीपक, पिछले सर्वपदार्थनि कौ प्रकाशै, तैसैं इहां अविरत विशेपण नीचे के मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थाननि विर्षे अविरतपना कौं प्रकाश है, ऐसा संबंध जानना। बहुरि अपि शब्द करि अनुकंपा भी है।
भावार्थ-कोऊ जानेगा कि विषयनि विर्षे अविरती है, तातै विषयानुरागी बहुत होगा, सो नाहीं है, संवेगादि गुणसंयुक्त है । बहुरि हिंसादि विर्षे अविरति है, तातै निर्दयी होगा, सो नाहीं है; दया भाव संयुक्त है, ऐसा अविरतसम्यग्दृष्टि है।
प्रागै देशसंयत गुणस्थान कौं गाथा दोय करि निर्देश करै हैं --
पच्चक्खाणुदयादो, संजमभावो रण होदि पवार तु। . थोवववो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमो ॥३०॥
१. बर्खागम - पचला पुस्तक १, पृष्ठ १७४, गाथा १११. २. षट्खंडागम - धवला पुस्तक, पृष्ठ १७६, गाथा ११२.
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[ गोम्मरसार जीवकाम पाया ३१-३२ प्रत्याख्यानोदयात् संयमभावो म भवति नरि तु ।
स्तोकवतं भवति ततो, देशव्रतो भवति पंचमः ॥३०॥ टीका - अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायनि का उपशम से प्रत्याख्यानावरण कषायनि का देशघाती स्पर्धकति का उदय होते संते सर्वघाती स्पर्धकनि का उदयाभाव रूप लक्षण जाका, ऐसा क्षय करि जाकै सकल संयमरूप भाव न हो है । विशेष यहु देशसंयम कहिए, किंचित् विरति हो है, ताकी धरै-धर, देशसंयत नामा पंचममुणस्थानवर्ती जीव जानना ।
जो तसवहाउ विरदो, अविरदो तह य थावरवहादो। एक्कसमयम्हि जीवो, विरदाविरदो जिरोक्कमई ॥३१॥
यस्त्रसधधाद्विरतः, अविरतस्तथा च स्थावरवधात् ।।
एकसमये जीवो, विरताविरसो जिनकमतिः ॥३१॥ टोका - सोई देशसंयत विरताविरत ऐसा भी कहिए है । एक काल ही विडं जो जीव प्रसहिंसा से विरत है अर स्थावरहिंसा से अविरत है, सो जीव विरत अर सोई अविरत ऐसे विरत-अविरत विषं विरोध है; तथापि अपने-अपने गोचर भाद प्रस-स्थावर के भेद अपेक्षा करि विरोध नाहीं। तीहिं करि विरत-अविरत ऐसा उपदेश योग्य है । बहुरि तैसें चकार शब्द करि प्रयोजन बिना स्थावर हिंसा को भी नाही करै है, ऐसा व्याख्यान करना योग्य है । सो कैसा है ? जिनकमतिः कहिए जिन जे प्राप्तादिक, तिनही विष है एक केवल मति कहिए इच्छा - रुचि जाके ऐसा है। इस करि देशसंयत के सम्यग्दृष्टोपना है, ऐसा विशेषण निरूपण कीया है। यह विशेषण आदि दीपक समान है, सो आदि विषं धरथा हुवा दीपक जैसे अगिले सर्व पदार्थनि कौं प्रकाश, तैसे इहाते आग भी सर्व गुणस्थानकनि विर्षे इस विशेषण करि संबंध करना योग्य है - सर्व सम्यग्दृष्टी जानने ।
आग प्रमत्तगुणस्थान की गाथा दोय करि कहैं हैं ---
संजलरण पोकसायाणुवयादो संजमो हवे जम्हा। मलजलरणपमादो वि, य तम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥३२॥ संज्वलननोकायारसामुश्यात्सयमो भवेद्यस्मात् । भलमननप्रमादोऽपि च तस्मारखलु प्रमत्तविरतः सः॥३२॥
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सम्परझानचन्द्रिका भावाटीका
टीका - जा कारण ते संज्वलनकषाय के सर्वघाती स्पर्धकनि का उदयाभाव लक्षण धरै क्षय होते, बहुरि बारह कषाय उदय कौं न प्राप्त तिनका, अर संज्वलन कषाय अर नोकषाय, इनके निषेकनि का सत्ता अवस्था रूप लक्षण धरै उपशम होते; बहुरि संज्वलनकषाय, नोकषायनि का देशघाती स्पर्धकनि का तीन उदय तें सकलसंयम पर मल का उपजावनहारा प्रमाद दोऊ हो है । तीहि कारण नै प्रमत्त सोई विरत, सो षष्ठम गुणस्थानवी जीव प्रमत्तसंयत असा कहिए है।
"विवरिखदस्स संजमस्स खोवसमियत्तपडप्पायरणमेसफलताको कथं संजलगणोकसायाम चरिसविरोहीणं चारित्तकारयत्त ? देशधादित्तण सपडिवक्त गुणं विरिणम्मूलसत्तिविरहियारणमुक्यो विजमारयो वि ष स काजकार प्रोत्ति संजमहेदुत्तए विविक्खियत्तादो, वत्थुदो दुकज्ज पप्पायेदि मलजलसपमादोविय 'अपिय इस्वकारणे लामादो चेव अम्हा एवं तम्हा हु पमताविरदों सो समुवलक्खदि ।"
थाका अर्थ - विवक्षित जो संयम, ताकै क्षायोपशमिकपना का उत्पादनमात्र फलपना है। संज्वलन पर नोकषाय जे चारित्र के विरोधी, तिनके चारित्र का करना - उपजावना कैसे संभव हैं ? ।
तहां कहै हैं - एक देशघाती है, तीहि भावकरि अपना प्रतिपक्षी संयमगुण, ताहि निर्मूल नाश करने की शक्ति रहित है। सो इनका उदय विद्यमान भी है, तथापि अपना कार्यकारी नाही, संयम नाश न करि सके है । असें संयम का कारणपना करि विवक्षा से संज्वलन पर नोकषायनि के चारित्र उपजावना उपचार करि जानमा । वस्तु ते यथार्थ निश्चय विचार करिए, तब ए संज्वलन अर नोकषाय अपने कार्य ही कौं उपजावें हैं । इनि ते मल का उपजावनहारा प्रमाद हो है। अपि च' असा शब्द है सो प्रमाद भी है, जैसा अवधारण अर्थ विष जानना । मल का उपजाबनहारा प्रमाद है, जाते असे तातै प्रकट प्रमत्तविरत, सो षष्ठम गुणस्थानवर्ती जीव है।
ताहि लक्षण करि कहैं हैं -
वत्तावत्तपमादे, जो वसइ पमत्तसंजदो होदि । सयलगुणशीलकलिओ, महन्वई चित्तलायरणो ॥३३॥
१. षट्खंडामम -धवला, पुस्तक १, पृष्ठ १७६, माथा ११३
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[ गरेमटसार जीवकाष्ट गाथा ३४ व्यक्ताव्यक्तप्रमादे यो वसति प्रमससंयसो भवति ।
सकलगुणशीलकलितो, महावती चित्रलाचरणः ॥३३॥ टीका - व्यक्त कहिए आपके जानने में आवै, बहुरि अध्यक्त कहिए प्रत्यक्ष जानौनि के ही जानने योग्य जैसा जो प्रमाद, तीहिविर्षे जो संयत प्रवर्ते, सो चारित्रमोहनीय का क्षयोपशम का माहात्म्य करि समस्त गुण अर शील करि संयुक्त महावती हो है। अपि शन्द करि प्रमादी भी हो है, पर महानती भी हो है । इहां सकलसंयमपनों महानतीपनों देशसंयत अपेक्षा करि जानना, ऊपरि के गुणस्थाननि की अपेक्षा नाहीं है । तिस कारण ते ही प्रमत्तसंयत चित्रलाचरण है, असा का है । चित्रं कहिए प्रमाद करि मिश्ररूप कौं 'लाति' कहिए गहै - कर, सो चित्रलकहिए । चित्रल आचरण जाक होइ, सो चित्रलाचरण जानना । अथवा चित्रल कहिए सारंग, चीता, तिहि समान मिल्या हवा काबरा आचरण 'जाका होइ, सो चित्रलाचरण जानना । अथवा वित्तं लाति कहिए मन कौं प्रमादरूप करि कहै, सो. चित्तल कहिए । चित्तल है आचरण जाका, सो चिसलाचरण जानना । अंसी विशेष मिरुक्ति भी पाठातर अपेक्षा जानना ।
प्रागै तिनि प्रमादनि का नाम, संख्या दिखावने के अथि सूत्र कहैं हैं -
विकहा तहा कसाया, इंदियरिणदा तहेव परणयो य । चदु चदु परगमगंग, होति पमादा हु परणरस ॥३४॥
विकथा तथा कषाया, इंद्रियनिग्रा तथैव प्रणयश्च । ::... चतुश्चतुः पञ्चकक, भवति प्रमादाः खलु पंचवश ॥३४॥
टीका - संयमविरुद्ध जे कथा, ते विकथा कहिए । बहुरि कषंति कहिए संयमगुरण कौं पाते, ते कषाय कहिएं । बहुरि संयम विरोधी इंद्रियनि का विषय प्रवृत्तिरूप व्यापार, ते इंद्रिय कहिए । बहुरि स्त्यानगृद्धि प्रादि तीन कर्मप्रकृतिनि का उदय करि वा निद्रा, प्रचला का तीन उदय करि प्रकट भई जो जीव के अपने दृश्य पदार्थनि का सामान्य मात्र ग्रहण कौं रोकनहारी जडरूप अवस्था, सो निद्रा है । बहुरि बाद्य पदार्थनि विर्षे ममत्वरूप भाव सो, प्रणय कहिए स्नेह है । ए क्रम ते विकथा च्यारि, कषाय च्यारि, इंद्रिय पांच, निद्रा एक, स्नेह एक असे सर्व मिलि प्रमाद पंद्रह
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१. पटखंडामम - पवला, पुस्तक १, पृष्ठ १७६ माया ११४.
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सम्यम्हानचन्द्रिका भाषटका j हो हैं । इहां सूत्र विर्षे पहिले चकार कह्या, सो सर्व ही ए प्रमाद हैं, असा साधारण भाव जानने के अथि कह्या है । बहुरि दूसरा तथा शब्द कह्मा, सो परस्पर समुदाय करने के अर्थि कह्या है। है : प्रागै इनि प्रमादनि के अन्य प्रकार करि पांच प्रकार हैं, तिनको नक गाथानि करि कहैं हैं -
संखा तह पत्यारो, परियट्टरण एट्ठ तह समुन्दिनें। एवे पंच पयारा, पमदसमुक्कित्तणे ऐया ॥३॥ संख्या तथा प्रस्तारः, परिवर्तन नष्टं तथा समुद्दिष्टम् ।
एते पंच, प्रकाराः, प्रमादसमुत्कीर्तने ज्ञेयाः ॥३५॥ टोका -- संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट, समुद्दिष्ट ए पांच प्रकार प्रमादनि का व्याख्यान विर्षे जानना । तहां प्रमादनि का पालाप को कारणभूत जो अक्षसंचार के निमित्त का विशेष, सो संख्या है । बहुरि इनका स्थापन करना, सो प्रस्तार: है । बहुरि. अक्षसंचार परिवर्तन है । संख्या धरि अक्ष का ल्यावना नष्ट है । प्रक्षः धरि संख्या का ल्यावना समुद्दिष्ट है । इहां भंग कौं कहने का विधान, सो नालापः जानना । बहुरि भेद वा भंग का नाम अक्ष जानना । बहुरि एक भेद अनेक भंगनि विर्षे क्रम ते पलट, ताका नाम अक्षसंचार जानना । बहुरि जेथवां भंग होइ, तीहि प्रमाण का नाम संख्या जानना । • आग विशेष संख्या की उत्पत्ति का अनुक्रम कहैं हैं - - सवे पि पुष्वभंगा, उपरिमभंगेसु एक्कमेक्कसु ।'
मेलति त्ति य कमसो, गुरिणदे उप्पज्जदे संखा ॥३६॥ सर्वेऽपि पूर्वभंगा, उपरिमभंगेषु एककेषु ।।
मिलति इति च क्रमशो, गुणिले उत्पद्यते संख्या ॥३६॥ टीका - सर्व ही पहिले भंग ऊपरि-ऊपरि के भंगनि विर्षे एक-एक विर्षे मिलें हैं, संभवं. हैं । यातै क्रम करि परस्पर मु0, विशेष संख्या उपज है । सोई कहिए है - पूर्व भंग विकथाप्रमाद च्यारि, ते ऊपरि के कषायप्रमादनि विर्षे एक-एक विर्षे संभधै
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। गोम्मटसार गोषका गाथा ३७ हैं । असें च्यारि विकथानि करि गुणे, च्यारि कषायनि के सोलह प्रमाद हो हैं । बहुरि ए नीचले भंग सोलह भए, ते ऊपरि के इंद्रियप्रभादनि विर्षे एक-एक विर्षे संभव हैं । असे सोलह करि गुरणे, पंच इंद्रियनि के असी प्रमाद हो हैं । तैसे ही निद्रा विर्षे, बहुरि स्नेह विर्षे एक-एक ही भेद है। तातें एक-एक करि गुण भी असी-असी ही प्रमाद हो हैं । जैसे विशेष संख्या की उत्पत्ति कही ।
आग प्रस्तार का अनुक्रम दिखावे हैं -
पढमं पमदपमारणं, कमेण शिक्विविय उवरिमारणं च । पिंडं पडि एक्ककं, शिक्खिते होदि पत्थारो ॥३७॥
प्रथम प्रमावप्रमाणं, क्रमेण निक्षिप्य उपरिमाणं च ।
पिडं प्रति एकैक, निक्षिप्ते भवति प्रस्तारः ॥३७॥ टीका - प्रथम विकथास्वरूप प्रमादनि का प्रमाण का विरलन करि एक-एक जुदा दिखेरी, पीछे क्रम करि नीचें विरल कीया था। ताकै एक-एक भेद प्रति एकएक ऊपरि का प्रमादपिंड कौं स्थापन करना, तिनको मिलें प्रस्तार हो है । सो कहिए है - बिकथा प्रमाद का प्रमाण च्यारि, ताकौं विरलन करि क्रम से स्थापि (१ १ १ १) बहुरि ताकै ऊपरि का दुसरा कषाय नामा प्रमाद, ताका पिंड जो समुदाय, ताका प्रमाण च्यारि (४) ताहि विरलनरूप स्थापे जे नीचले प्रमाद, तिनिका एक-एक भेद प्रति देना।
भावार्थ - एक-एक विकथा भेद ऊपरि च्यारि-च्यारि कषाय स्थापने क ४४४४ वि १ १ १ १ सो इनकौं मिलाए जोडे, सोलह प्रमाद हो हैं । बहुरि ऊपरि की अपेक्षा लीए याकौं पहिला प्रमादपिड कहिए, सो याकौं विरलन करि क्रम से स्थापि, याते ऊपरी का तिस पहिला की अपेक्षा याको दूसरा इंद्रियप्रमाद, ताका पिंड प्रमाण पांच, ताहि पूर्ववत् विरलन करि स्थापे, जे नीचले प्रमाद, तिनके एक-एक भेद प्रति एक-एक पिंडरूप स्थापिए -
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सम्यग्ज्ञानान्द्रका भरपाटीका ]
भावार्थ - सोलह भेदनि विर्ष एक-एक भेद ऊपरि पांच-पांच इंद्रिय स्थापने, सो इनकौं जो., असी भंग हो हैं । यह प्रस्तार भागें कहिए जो अक्षसंचार, ताका कारण है । जैसे प्रस्ताररूप स्थापे जे असी भंग, तिनिका पालाप जो भंग कहने का विधान, ताहि कहिए है - स्नेहवान्-निद्रालु-स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-क्रोधी-स्त्रीकथालापी असे यहु असी भंगनि विर्षे पहिला भंग है । बहुरि स्नेहवान्-निद्रालु-रसना इंद्रिय के वशीभूत-क्रोधी-स्त्रीकथालापी असें यह दूसरा भंग है । बहुरि स्नेहवान्निद्रालु-घ्राण इंद्रिय के बशीभूत-क्रोधी-स्त्रीकथालापी असें यह तीसरा भंग भयाः । बहुरि स्नेहवान्-निद्रालु-चक्षु इंद्रिय के वशीभूत-क्रोधी-स्त्रीकथालापी असें यह चौथा भंग है । बहुरि स्नेहवान्-निद्रालु-श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत-क्रोधी-स्त्रीकथालापी अस यह पांचवा भंग है। अॅसें पांच भंग भए । याही प्रकार क्रोधी की जायगा मानी स्थापि पंच भंग करने। .
बहुरि मायावी स्थापि पंच भंग करने। बहुरि लोभी स्थापि पंच भंग करने । असे एक-एक कषाय के पांच-पांच होइ, च्यारि कषायनि के एक स्त्रीकथा प्रमाद विर्षे वीस मालाप हो हैं । बहुरि जैसे स्त्रीकथा पालापी की अपेक्षा वीस भेद कहे, तैसें ही स्त्रीकथालापी की जायगा भक्तकथालापी, बहुरि राष्ट्रकथालापी, बहुरि अवनिपालकथालापी क्रम में स्थापि एक-एक विकथा के वीस-वीस भंग होइ । च्यारौ विकथानि के मिलि करि सर्वप्रमादनि के असी पालाप हो हैं, असा जानना ।
प्राग अन्य प्रकार प्रस्तार दिखावै हैं - रिमक्खित्तु बिदियमेतं, पढमं तस्सुवरि विदयमेक्कक्कं । पिडं पडि रिणक्खेो , एवं सव्वत्थ कायवो ॥३॥
निक्षिप्त्या द्वितीयमात्र, तस्योपरि द्वितीयमेककम् ।
पिडं प्रति निक्षेप, एवं सर्वत्र कर्तव्यः ॥३८॥ . टीका - कषायनामा दूसरा प्रमाद का जेता प्रमाण, तीहिमात्र स्थानकनि विर्षे विकथास्वरूप पहिला प्रमाद का समुदायरूप पिंड जुदा-जुदा स्थापि ( ४ ४ ४ ४ ), बहुरि एक-एक पिडप्रति द्वितीय प्रमादनि का प्रमाग का एक-एक रूप परि स्थापना
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[ गोम्मटसार जो काण्ड गाथा ३८
भावार्थ - च्यारि च्यारि प्रमाण लीए, एक-एक विकथा प्रमाद का पिंड, diet दूसरा प्रमाद कषाय का प्रमाण च्यारि, सो च्यारि जायगा स्थापि, एक-एक पिंड के ऊपरि क्रम तैं एक-एक कषाय स्थापिए (१११ असे स्थापन कीए, तिनं
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का जोड सोलह पिंड प्रमाण होइ । बहुरि 'अँसें ही सर्वत्र करना' इस वचन से यह सोलह प्रमाण पिंड जो समुदाय, सो तीसरा इंद्रिय प्रमाद का जेता प्रमाण, तितनी जायगा स्थापिए । सो पांच जायगा स्थापि ( १६ १६ १६ १६ १६ ), इनके ऊपरी तीसरा इंद्रिय प्रमाद का प्रमाण एक-एक रूपकरि स्थापन करना ! :: भावार्थ- पूर्वोक्त सोलह भेद जुदे-जुदे इंद्रिय प्रमाद का प्रमाण पांचा, सो पाच जायगा स्थापि, एक-एक पिंड के ऊपर एक-एक इंद्रिय भेद स्थापन करना
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( १६ १६ १६ १६ ) जैसे स्थापन कीए श्रवस्तन कहिए नीचे की पेक्षा अक्षसंचार को कारण दूसरा प्रस्तार हो है ।
सो इस प्रस्तार अपेक्षा श्रालाप जो भंग कहने का विधान, सो कैसे हो है ?
सोई कहिए है - स्त्रीकथालापी- क्रोधी - स्पर्शन- इंद्रिय के वशीभूत- निद्रालुस्नेहवान् असा असी मंगनि विषै प्रथम भंग है। बहुरि भक्तकथालापी- क्रोधी-स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत- निद्रालु स्नेह्वान भैसा दूसरा भंग है । बहुरि राष्ट्रकथालापीshar - स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत- निद्रालु स्नेहवान् जैसा तीसरा भंग हैं । बहुरि अवनिपालकथालापी-क्रोधी - स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु स्नेहवान् अंसा चौथा भंग है । असें ही क्रोध की जायगा मानी वा मायावी वा लोभी कम ते कहि च्यारिच्यारि भंग होइ, च्यारों कषायनि के एक स्पर्शन इंद्रिय विषै सोलह ग्रालाप हो हैं ।
बहरि असे ही स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत की जायगा रसना वा प्राण वा चक्षु वा श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत क्रम ते कहि एक-एक के सोलह-सोलह भेद होइ पांचों इंद्रियनि के प्रसी प्रमाद श्रालाप ही हैं । तिनि सबनि को जानि हत्ती पुरुषनि करि प्रमाद छोडने ।
भावार्थ एके जीव के एक काल कोई एक-एक, कोई भेदरूप विकथादिक ही हैं । तातें तिनके पलटने की अपेक्षा पंद्रह प्रमादनि के असी भंग हो हैं । असा ही यहु अनुक्रम चौरासी लाख उत्तरगुण, अठारह हजार शील के भेद, तिनका भी प्रस्तार विष करना !
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“सम्यज्ञानयमिका भाषाटीका j । प्रागे पीछे कहा जो दूसरा प्रस्तार, ताकी अपेक्षा अक्षपरिवर्तन कहिए अक्षसंचार, ताका अनुक्रम कहै हैं -
पढमक्खो अंतगदो, आदिगदे संकमेदि बिदियक्खो। वोणिवि गंतूर्णतं, आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ॥३६॥
प्रथमाक्ष अंतगतः प्रादिगते संक्रामति द्वितीयाक्षः।
द्वावपि गत्वांतमाधिपते, संकामति तृतीयाक्षः ॥३९॥ टीका - पहिला प्रमाद का प्रक्ष कहिए भेद विकथा, सो आलाप का अनुक्रम करि अपने पर्यन्त जाइ, बहुरि बाडि करि अपने प्रथम स्थान को युगपत् प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, सो अपने दूसरे स्थान कौं प्राप्त होइ । । भावार्थ - पालापनि विर्षे पहिले तो विकथा के भेदनि कौँ पलटिए, क्रम ते स्त्री, भक्त, राष्ट्र, अवनिपालकथा च्यारि पालापनि विषं कहिए पर अन्य प्रमादनि का पहिला पहिला ही भेद इन चारो पालापनि विर्षे ग्रहण करिए । तहां पीछे पहिला विकथा प्रमाद अपना अंत अवनिपालकथा तहां पर्यंत जाइ, बाहुडि करि अपना स्त्रीकथारूप प्रथम भेद कौं जब प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद कषाय, सो अपना • पहला स्थान क्रोध को छोडि, द्वितीय स्थान मान कौं प्राप्त होइ । बहुरि प्रथम प्रमाद का अक्ष पूर्वोक्त अनुक्रम करि संचार करता अपना पर्यन्त कौं जाइ, बाहुडि करि युगपत अपना प्रथम स्थान को जब प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमादं का प्रक्ष कषाय, सो अपना तीसरा स्थान को प्राप्त हो ।
भावार्थ - दूसरा कषाय प्रमाद दूसरा भेद मान की प्राप्त हुवा, तहां भी पूर्वोक्त प्रकार पहला भेद क्रम ते च्यारि पालापनि विर्षे क्रम तें पलटी, अपना पर्यन्त भेद ताई जाइ, बाहुडि अपना प्रथम भेद स्त्रीकथा को प्राप्त होइ, तब कषाय प्रमाद अपना तीसरा भेद माया कौं प्राप्त हो है । बहुरि जैसे ही संचार करता, पलटता दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, सो जब अपने अंत पर्यन्त भेद को प्राप्त होइ, तब प्रथम अक्ष विकथा, सो भी अपना पर्यन्त भेद को प्राप्त होइ तिष्ठ।
- . भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार च्यारि पालाप माया विष, च्यारि आलाप लोभ विर्षे भएँ कषाय अक्ष अपना पर्यन्त भेद लोभ, ताकौं प्राप्त भया । अर इनिविर्षे
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४०
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पहिला प्रक्ष विकथा, सो भी अपना पर्यन्त भेद अवनिपालकथा, ताकौं प्राप्त भया; असे होते सोलह पालाप भए ।
बहुरि ए दोऊ अक्ष विकथा अर कषाय बाहुडि करि अपने प्रथम स्थान कौं प्राप्त भए, तब तीसरा प्रमाद का अक्ष अपना प्रथम स्थान छोडि, दूसरा स्थान कौं प्राप्त हो है। पर इस ही अनुक्रम करि प्रथम और द्वितीय अक्ष का क्रम से अपने पर्यन्त भेद ताई जानना । बहुरि बाहुडना तिनकरि तीसरा प्रमाद का प्रक्ष इंद्रिय, सो अपना तीसरा आदि स्थान को प्राप्त होइ, असा जानना ।
भावार्थ - विकथा अर कषाय अक्ष बाहुडि अपना प्रथम स्थान स्त्रीकथा भर क्रोध कौं प्राप्त होइ, तब इंद्रिय अक्ष: विर्षे पूर्वं सोलह आलापनि विर्षे पहिला भेद स्पर्शन इंद्रिय श्रा, सो तहां रसना इंद्रिय होइ, तहां पूर्वोक्त प्रकार अपना-अपना पर्यंत भेद ताई जाय, तब रसना इंद्रिय विर्षे सोलह पालाप होइ । बहुरि तैसें ही ते दोऊ अक्ष बाहडि अपने प्रथम स्थान को प्राप्त होइ, तब इंद्रिय अक्ष अपना तीसरा भेद धारण इंद्रिय कौं प्राप्त होइ, या विर्षे पूर्वोक्त प्रकार सोलह पालाप होइ ।
बहुरि इस ही क्रमकरि सोलह-सोलह पालाप चक्षु, श्रोत्र इंद्रिय विर्षे भए, सर्व प्रमाद के प्रक्ष अपने पर्यन्त भेद कौं प्राप्त होइ तिष्ठे हैं । यहु अक्षसंचार का अनुक्रम नीचे के अक्ष तें लगाय, ऊपरि के अक्ष पर्यन्त विचार करि प्रवर्तावना । बहुरि अक्ष की सहनानी हंसपद है, ताका आकार (x) असा जानना ।
आगं प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा अक्षपरिवर्तन कहै हैं -
तदियक्खो अंतगदो, आदिगदें संकमेदि बिदियक्खो। दोण्णिवि गंतूर्णत, आदिगदे संकमेदि पढमक्खो ॥४०॥
तृतीयाक्षः अंतगतः, प्रादिगते संक्रामति द्वितीयाक्षः ।
द्वापि गत्वांतमादिगते संक्रामति प्रथमाक्षः ।।४।। टीका - तीसरा प्रमाद का प्रक्ष इंद्रिय, सो पालाप का अनुक्रम करि अपने पर्यन्त जाइ स्पर्शनादि क्रम ते पांच आलापनि विर्षे श्रोत्र पर्यन्त जाइ, बहुरि बाहुडि युगपत् अपने प्रथम स्थान स्पर्शन को प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, सो पहले क्रोधरूप प्रथम स्थान कौं प्राप्त था, ताकौं छोडि अपना दूसरा स्थान मान
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কানৱিন্ধ মাখারী ] कौं प्राप्त हो है । तहां बहुरि तीसरा प्रमाद का प्रक्ष इंद्रिय, सो पूर्वोक्त अनुक्रम करि अपने अंत भेद पर्यन्त जाइ, बाहुडि युगपत् प्रथम स्थान को प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद का प्रक्ष कषाय; सो दूसरा स्थान मान की छोडि, अपना तृतीय स्थान माया की प्राप्त होइ । तहां भी पूर्वोक्त प्रकार विधान होइ, असे क्रम तें दूसरा प्रमाद का अक्ष जब एक बार अपना पर्यन्त भेद लोभ को प्राप्त होइ, तब तीसरा प्रमाद का प्रक्ष इंद्रिय, सो भी कम करि संचार करता अपने अंत भेद कौं प्राप्त होइ, तब बीस पालाप होइ। .
भावार्थ - एक-एक कषाय विर्षे पांच-पांच अालाप इंद्रियनि के संचार करि होइ । बहुरि ते इंद्रिय अर कषाय दोक ही अक्ष बाहुडि अपने-अपने प्रथम स्थान कौं युगपत् प्राप्त होइ, तब पहिला प्रमाद का अक्ष विकथा, सो पहिलै बीसों आलापनि विर्षे अपना प्रथम स्थान स्त्रीकधा रूप, ताकौं प्राप्त था । सो अब प्रथम स्थान कौं छोडि, अपना द्वितीय स्थान भक्तकथा कौं प्राप्त होइ । बहुरि इस ही अनुक्रम करि पूर्वोक्त प्रकार तृतीय, द्वितीय प्रमाद का अक्ष इंद्रिय पर कषाय, तिनिका अपने अंत पर्यन्त जानना । बहुरि बाहुडना इनि करि प्रथम प्रमाद का प्रक्ष विकथा, सो अपना तृतीयादि स्थानकनि कौं प्राप्त होइ, असा संचार जानना।
भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार एक-एक विकथा भेद विर्ष इंद्रिय-कषायनि के पलटने से बीस आलाप होइ, ताके चारौ विकथानि विर्षे असी पालाप हो हैं । यहु अक्षसंचार का अनुक्रम ऊपरि अंत का भेद इंद्रिय का पलटन से लगाय क्रम से अधस्तन पूर्व-पूर्व अक्ष का परिवर्तन की विचारि पलटना, असे प्रक्षसंचार कह्या । अक्ष जो भेद, ताका क्रम से पलटने का विधान जैसे जानना ।
प्राग नष्ट ल्यावने का विधान दिखावें हैं - . . सगमाहिं विभत्ते, सेसं लक्खित्तु जारण अक्खपदं । .. लद्धे रून्त्रं पविखव, सुखे अंत म रूवयस्खेओ ॥४१॥
स्वकमानविभक्ते, शेषं लक्षयित्वा जानीहि अक्षपदम् ।. .
लब्ध रूपं प्रक्षिप्य शुद्धे अंते, न अपप्रक्षेगः ॥४१॥ . . टीका - कोऊ जेथवा प्रमाद भंग पूछ, तीहिं प्रमाद भंग का पालाप की खबरि नाही, जो यह पालाप कौन है, : तहां ताकौं नष्ट कहिए । ताके ल्याक्ने
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११४.]
गोम्मटसार जीक्षकाण्ड गाषा ४१
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का, जानने का उपाय कहिए है। कोऊ जेथवां प्रमाद पूछया होइ, तार्की अपना प्रमाद पिंड का भाग दीजिए, जो अवशेष रहै, सो अक्षस्थान जानना । बहुरि जेते पाए होइ, तिनिविर्षे एक जोडि, जो प्रमाण होइ, ताकौं द्वितीय प्रमाद पिच को भाग देना, तहाँ भी तसे ही जानना । श्रेसे ही कम से सर्वत्र करना । इतना विशेष जानना, जो जहां भाग दीएं राशि शुद्ध होइ जाय, कछु भी अवशेष न रहै; तहां तिस प्रमाद का अंत भेद ग्रहण करना । बहुरि तहां जो लब्धराशि होइ, तिहिं विषं एक न जोड़ना । बहुरि असं करते अंत जहां होइ, तहां एक न जोड़ना, सो कहिए है ।
जेथवां प्रमाद पूछया, तिस विवक्षित प्रमाद की संख्या कौं प्रथम प्रमाद विकथा, ताका प्रमाण मिड च्यारि, नाका भाग वेद, प्रदोष जितना रहैं, सो अक्षस्थान हैं। जितने अवशेष रहैं, तेथवा विकथा का भेद, तिस पालाप विर्षे जानना । बहुरि इहां भाग दीए, जो पाया, तीह लब्धराशि वि एक और जोड़ना । जो. जो प्रमाण होइ, ताका ऊपरि का दूसरा प्रमाद कषाय, ताका प्रमाण पिंड च्यारि, ताका भाग देइ, जो अवशेष रहै, सो तहां अक्षस्थान जानना । जितने अवशेष रहैं, तेथवां कषाय का भेद तिस पालाप विर्षे जानना बहुरि जो इहां लब्धराशि होइ, तीहि विर्षे एक जोडि, तीसरा प्रमाद इंद्रिय, ताका प्रमाण पिंड पांच, ताका भाग दीजिए। बहुरि जहां अवशेष शून्य रहै, तहां प्रमादनि का अंतस्थान विर्षे ही अक्ष तिष्ठ है । तहा अत का भेद ग्रहण करना, बहुरि लब्धिराशि विर्षे एक न जोड़ना ।
इहां उदाहरण कहिए है ... काहूने पूछया कि असी भंगनि विर्षे पंद्रहवां प्रमाद भंग कौन है ?
तहां ताके जानने को विवक्षित नष्ट प्रमाद की संख्या पंद्रह, ताकी प्रथम प्रमाद का प्रमाण पिंड च्यारि का भाग देइ तीन पाए, अर अवशेष भी तीन रहै, सो तीन अवशेष रहै, तातें विकथा का तीसरा भेद राष्ट्रकथा, तीहि विर्षे अक्ष है, तहां अक्ष देइकरि देखें।
भावार्थ-तहां पंद्रहवां पालाप विर्षे राष्ट्रकथालापी जानना । बहुरि तहां तीन पाए थे । तिस लब्धराशि तीन विषं एक जोडे, च्यारि होइ, ताको ताके ऊपरि कषाय प्रमाद, ताका प्रमाण पिंड च्यारि, ताका भाग दोएं अवशेष शून्य है, किछु न रहा, तहां तिस कषाय प्रमाद का अंत भेद जो लोभ, ताका आलाप विर्षे प्रक्ष सूच है । जाते जहाँ राशि शुद्ध होइ जाइ, तहां ताका अंत भेद ग्रहण करना ।
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सपनामचन्द्रिका भाषाटीका
। ११५ भावार्थ - पंद्रहवां अालाप विष लोभी जानना । बहुरि तहां लब्ब राशि एक, . तीहि विर्षे एक न जोड़ना । जातें जहां राशि शुद्ध होइ जाय, तहां पाया राशि विष
एक और न मिलावना सो एक का एक ही रह्या, ताकौं ऊपरि का इंद्रिय प्रमाण पिंड पांच का भाग दीए, लब्धराशि शून्य है । जाते भाज्य से भागहार का प्रमाण अधिक है। तातें इहां लब्धराशि का अभाव है । अवशेष एक रह्या, तातै इंद्रिय का स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत जैसा प्रथम भेद रूप अक्ष पंद्रहवां पालाप विष सूचे है । असे पंद्रहवां राष्ट्रकथालापी-लोभी-स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसा भालाप जानना।
याही प्रकार जेथवा पालाप जान्यां चाहिए, तेथवा नष्ट पालाप को साधे ।
बहुरि इहां द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा विकथादिक का क्रम करि जैसे नष्ट ल्यावने का विधान कहा, तैसे ही प्रथम प्रस्तार अपेक्षा ऊपरि ते इंद्रिय, कषाय, विकथा का अनुजम करि पूर्वोक्त गालि निभान लें नट ल्यावने का विधान करना ।
तहां उदाहरण - किसी ने पूछा प्रथम प्रस्तार अपेक्षा पंद्रहवां पालाप कौन ?
तहां इस संख्या कौं पांच का भाग दीए, अवशेष शून्य, तातें इहां अंत का भेद धोत्र इंद्रिय के वशीभूत ग्रहण करना ।
बहुरि इहां पाए तीन, ताकौं कषाय पिंड प्रमाण च्यारि, ताका भाग दीएं, लब्धराशि शून्य, अवशेष तीन, तातें तहां तीसरा कषाय भेद मायावी जानना । बहुरि लब्धराशि शून्य विर्षे एक मिलाएं एक भया, ताकौं विकथा का प्रमाद पिंड च्यारि का भाग दीएं लब्धराशि शून्य, अवशेष एक, सो स्त्रीकथालापी जानना । ऐसे प्रथम प्रस्तार अपेक्षा पंद्रहवां स्नेहवान-निद्रालु-श्रोत्र इंद्रिय. के वशीभूत-मायावीस्त्रीकथालापी असा आलाप जानना । जैसे ही अन्य नष्ट पालाप साधने । . प्रागं पालाप बरि संख्या साधने कौं अगिला सूत्र कहैं हैं -
संठाविवरण रूवं, उवरीदो संगुणित्तु सगमाणे । प्रवरिणज्ज अरकिदयं, कुज्जा एमेव सम्वत्थ ।।४२३१ संस्थाप्य रूपसुपरितः संगुरिणत्या स्वकमानम् ।। अपनीयानंकितं, कुर्यात् एवमेव सर्वत्र ॥४२॥ .
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४२
टीका प्रथम एक रूप स्थापन करि ऊपरि तैं अपना प्रसारण करि गुण, जो प्रमारण होई, तामैं अकित स्थान का प्रमाण घटावना, भैसें सर्वत्र करना । इहां जो भेद ग्रहण होइ, तार्के परे स्थानकनि की जो संख्या, हा अनंकित कहिए । जैसे विकथा प्रमाद विषै प्रथम भेद स्त्रीकथा का ग्रहण होइ, तौ तहां तार्के परे तीन स्थान रहें, तातें अनंकित का प्रमाण तीन है । बहुरि जो भक्तकथा का ग्रहण होइ, ती तार्के परे दीय स्थान रहें, ताते अनंकित स्थान दोय हैं । बहुरि जो राष्ट्रकथा का ग्रहण होइ, तौ तार्क पर एक स्थान है, तातें अनंकित स्थान एक है । बहुरि जो अपिलकथा का ग्रहण होइ, तो लाके परे कोऊ भी नहीं, तातें तहां अनंकित स्थान ET प्रभाव है। सें ही कषाय, इंद्रिय प्रमाद विषै भी अनंकित स्थान जानना |
११६ ]
सो कोऊ कहे कि अमुक श्रालाप केथवां है ? तहां आलाप का, ताकी संख्या न जानिए, तो ताकी संख्या जानने कौं उद्दिष्ट कहिए है । प्रथम एक रूप स्थापिए, बहुरि ऊपरि का इंद्रिय प्रमाद संख्या पांच, ताकरि तिस एक की गुरिए, तहां अनंकित स्थानति की संख्या घटाइ अवशेष कौं ताके अनंतर नीचला कषाय प्रमाद कापिंड की संख्या च्यारि, ताकरि गुणिए, वहां भी अनंकित स्थान घटाइ, अवशेष at are waft नीचला विकथा प्रमाद का पिंड व्यारि, ताकरि गुणिए, तहां भी अनंकित स्थान घटाइ, अवशेष रहे तितनां विवक्षित श्रालाप की संख्या हो है । से ही सर्वत्र उत्तरगुण वा शीलभेदनि विषे उद्दिष्ट ल्यायने का अनुक्रम जानना ।
इहां भी उदाहरण दिखाइए हैं - काहूने पूछा कि राष्ट्रकथालापी-लोभीस्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत निद्रालु स्नेहवान सा बालाप केथवा है ?
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तहां प्रथम एक रूप स्थापि, ताकौं ऊपरि का इंद्रिय प्रमाद, ताकी संख्या पांच, तीहिरि गुणे पांच भए । तींहि राशि विषे पंद्रहवां उद्दिष्ट की विवक्षा करि
मैं पहला भेद स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत ऐसा प्रालाप विषै कह्या था, तातें ताके परें रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्र ए च्यारि अनंकित स्थान हैं । तात इनकों घटाएं, शेष एक है, ताक नीचला कषाय प्रमाद की संख्या च्यारि करि गुणै, च्यारि भए, सो इस लब्धराशि च्यारि विषे इहां आलाप विषै लोभी कहा था, सो लोभ के परें कोऊ भेद नाहीं । ताते अनंकित स्थान कोऊ नाहीं । इस हेतु तें इहां शुन्य घटाए, राशि जैसा का वैसा ही रह्या, सो च्यारि ही रहे । बहुरि इस राशि कौं या नीचे farer प्रमाद की संख्या च्यारि ताकरि गुणें सोलह भए । इहां बालाप विषै
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सम्यग्ज्ञानचत्रिका भावाटी
[ ११७
राष्ट्रकथालापी कहा, सो याके पर एक भेद अवनिपाल कथा है, यात अनंकित स्थान एक घटाएं, पंद्रह रहै, सोई पूछया था, ताका उत्तर असा - जो राष्ट्रकथालापीलोभी-स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान, असा पालाप पंद्रहवां है । सो यह विधान दूसरा प्रस्तार की अपेक्षा जानना ।
बहुरि प्रथम प्रस्तार अपेक्षा नीचे तैं अनुक्रम जानना ।
तहां उदाहरण कहिए है - स्नेहवान-निद्रालु-श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत-मायावीस्त्रीकथालापी, असा आलाप केथवां है ?
तहां एक रूप स्थापि, प्रथम प्रस्तार अपेक्षा अपरि का प्रमाद विकथा, ताका प्रमाण च्यारि करि गुणे, च्यारि भए, सो इहां स्त्रीकथालापी ब्रह्मा, सो याकै परै तीन भेद हैं। तातै अनंकित स्थान तीन घटाएं, अवशेष एक रह्या, ताकी कषाय प्रमाद च्यारि करि गुण, च्यारि भए, सो इहां मायादी प्रहा, ताके परै एक लोभ अनंकित स्थान है, ताकौं घटाएं तीन रहै, याकौं इंद्रिय प्रमाद पांच करि गुणे, पंद्रह भए, सो इहां श्रोत्र इंद्रिय का ग्रहण है । ताके पर कोऊ भेद नाहीं, तात अनंकित स्थान का अभाव है। इस हेतु से शून्य घटाएं भी पंद्रह ही रहैं । जैसे स्नेहवाननिद्रालु-श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत-मायावी-सीकथालापी, ऐसा पालाप पंद्रहबां है । या ही प्रकार विवक्षित प्रमाद का आलाप की संख्या हो है, ऐसे अक्ष धरि संख्या का ल्यावना, सो उद्दिष्ट सर्वत्र साधै ।
आगे प्रथम प्रस्तार का प्रक्षसंचार की प्राश्रय करि नष्ट, उद्दिष्ट का मूढ यंत्र कहै हैं -
इगिबितिचपरगखपणदसपण्परसं खवीसतालसट्ठी य । संठविय पमदठाणे, गठ्ठद्दिठं च जारण तिहाणे ॥४३॥ एकद्वित्रिचतुः पंचखपंचदशपंचदशविंशच्चत्वारिंशत्वष्टीन ।
संस्थाप्य प्रमाद स्थाने, नष्टोद्दिष्टे च जानीहि त्रिस्थाने ॥४३॥
टीका -- प्रमादस्थानकनि विर्षे इंद्रियनि के पंच कोठानि विर्षे क्रम ते एक, दोय, तीन, च्यारि, पांच इन अंकनि कौं स्थापि; कषायनि के च्यारि कोठानि विर्षे क्रम सैं बिंदी, पांच, दश, पंद्रह इन अंकनि कौं स्थापि; तसे विकथानि के च्यारि कोठानि विर्षे क्रम ते बिंदी, बीस, चालीस, साठि इनि अंकनि कौं स्थापि; निद्रा,
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११].
[ गोम्मटसर वडा ४३
स्नेह के दोय, तीन यादि भेदनि का प्रभाव है। तीहि करि ताके निमित्त तें हुई जो आलापति की बहुत संख्या, सो न संभव है । यातें दिन तीनों स्थानकनि विषै स्थापे अंक, तिन विषे नष्ट उद्दिष्ट तू जानि ।
भावार्थ - निना, स्नेह का तो एक-एक भेद ही है । सो इनकी तौ सर्वभंगनि fa पलटन नाहीं । तातें इनिकों तो कहि लेने । श्रर अवशेष तीन प्रमादनि का तीन पंक्ति रूप यंत्र करना । तहां ऊपरि की पंक्ति विषें पंच कोठे करने । तिन विषै क्रम स्पर्शन आदि इंद्रिय लिखने । पर एक, दोय, तीन, च्यारि, पांच ए अंक लिखने । बहुरि ताके नीचली पंक्ति विषै व्यारि कोठे करने, तिन विषै क्रम क्रोधादि कषाय लिखने । अर बिंदी, पांच, दश, पंद्रह ए अंक लिखने । बहुरि ताके नीचली पंक्ति विषे च्यारि कोठे लिखने, तहां स्त्री आदि विकथा क्रम तें लिखनी । अर बिंदी, बीस, चालीस, साठ ए अंक लिखने ।
स्पर्शन १
क्रोध •
स्त्री
0
रसन २
मान ५
भक्त २०
प्राण ३
माया १०
राष्ट्र ४०
चक्षु ४ लोभ १५
ग्रव ६०
तहां नष्ट का उदाहरण कहिए
जैसे पैंतीसवां आलाप कैसा है ?
श्रोत्र ५
इहां कोऊ नष्ट बू तो जेथवां प्रमाद भंग पूछ्या सो प्रमाण तीनों पंक्ति fai जिन-जिन कोठेfन के अंक जोड़े होंइ, तिन तिन कोठेनि विषे जो-जो इंद्रियादि लिखा होइ, सोन्सो तिस पूछया हूवा आलाप विषे जानने । बहुरि जो उद्दिष्ट बू तौ, जो आलाप पूछा, तिस आलाप विषै जो इंद्रियादिक ग्रहे होंइ, तिनके तीनों पंक्तिनि के कोठेनि विषै जे-जे अंक लिखे होंइ, तिनकों जोड़ें जो प्रमाण होइ, तेथवां सो आलाप जानना
ऐसा पूछें इंद्रिय, कषाय, विकथाति के तीनों पंक्ति संबंधी जिन-जिन कोठानि के अंक वा शून्य मिलाएं, सो पैंतीस की संख्या होइ, तिन-तिन कोठानि विषै लिखे हुवे इंद्रियादि प्रमाद पर स्नेह-निद्रा विषे श्रागे उच्चारण कीए स्नेहह्वान निद्रालु-श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत-मायावी - भक्तकथालापी जैसा पूछया हुआ पैंतीसवां आलाप
जानना ।
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पत्रिका भाषाटोका 1
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भावार्थ - यंत्र विषै इंद्रियपंक्ति का पांचवां कोठा, कषायपंक्ति का तीसरा कोठा, विकथापंक्ति का दूसरा कोठा, इन कोठेनि का अंक जोडें पैंतीस होंइ, तालें इन कोठेनि विर्षे जे-जे इंद्रियादि लिखे, ते-ते पैंतीसवां आलाप विषे जानने । स्नेह, निद्रा कौं पहिले कहि लीजिये ।
बहुरि दूसरा उदाहरण नष्ट का ही कहिए है । इकसठवां आलाप कैसा है ?
से पूछें, इहां भी इंद्रिय कषाय विकथानि के जिन-जिन कोठानि के अंक वा शून्य जोडें, सो इकसठ संख्या होइ, तिन-तिन कोठानि विषे प्राप्त प्रमाद पूर्ववत् कहें । स्नेहवान्- निद्रालु - स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-क्रोधी अवनिपालकथालापी असा पूछया हुवा इकसठवा प्रालाप हो है ।
भावार्थ - इंद्रियपंक्ति का प्रथम कोठा का एका घर कषायपंक्ति का प्रथम ator की बिदी, विकथा का चौथा कोठा का साठि जोड़ें, इकसठ होइ । सो इनि start fat जे-जे इंद्रियादि लिखे हैं, ते इकसठिवां आलाप विषे जानने । जैसे ही अन्य आलाप का प्रश्न भए भी विधान करना ।
बहुरि उद्दिष्ट का उदाहरण कहिए है - स्नेहवान् निद्रालु-स्पर्शन इंद्रिय के भूत-मानी - राष्ट्रकथालापी सा आलाप केथवां है ?
असा प्रश्न होते स्नेह, निद्रा बिना जे-जे इंद्रियादिक इस बालाप विषै कहे, ले तीनों पंक्तिनि विषै जिस-जिस कोठे विषै ये लिखे होंइ, सो ये इंद्रियपंक्ति का - प्रथम कोठा, कषायपंक्ति का दूसरा कोठा, विकथापंक्ति का तीसरा कोठानि विषे ये आलाप लिखे हैं । सो इन कोठानि के एक, पांच, चालीस ये अंक मिलाइ, छियालीस होइ है, सो पूछा हुआ आलाप छ्यालीसवां है ।
बहुरि दूसरा उदाहरण कहिए है - स्नेहह्वान निद्रालु-चक्षु इंदिय के वशीभूत लोभी- भक्तकथालापी ऐसा आलाप केथवां है ?
हो इस आलाप विषं कहे इंद्रियादिकनि के कोठे, तिनि विषै लिखे हुवे च्यारि, पंद्रह बीस ये अंक जोडें गुणतालीस होइ, सो पूछया श्रालाप गुणतालीसवां है । ऐसे ही अन्य श्रालाप पूछे भी विधान करना ।
द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा नष्ट, उद्दिष्ट का गूढ यंत्र कहे हैं -
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१२० ]
[ गोम्मटसार जीकाण्ड गाथा ४४
इगिfararasari, खसोलरागडुदालचउसठि । संविय पमपठाणे, द्दिट्ठ व जाण तिट्ठाणे ॥४४॥ एक द्वित्रिचतुः खचतुरष्टद्वादश खषोडशरागाष्टचत्वारिंशच्चतुःषष्टिम् । संस्थाप्य प्रमावस्थाने, नष्टोद्दिष्टे च जानीहि त्रिस्थाने ॥४४॥
टीका - प्रमादस्थानकनि विषै विकथा प्रमाद के व्यारि कोठानि विषै क्रम एक, दो, तीन, च्यारि अंकति कौं स्थापि; तैसे ही कषाय प्रमाद के व्यारि कोठानि विषै म तँ बिंदी, माठ, बारह अंकनि को स्थापि; तसे ही इंद्रिय प्रमादनि के पंच कोठानि विषै क्रम तें बिंदी, सोलह, बत्तीस, अड़तालीस, चौंसठ अंकनि क स्थापि, पूर्वोक्त प्रकार हेतु ते तिन तीनों स्थानकनि विष स्थापे जे अंक, तिनि विषै नष्ट र समुद्दिष्ट कौं तु जानहु ।
भावार्थ - यहां भी पूर्वोक्त प्रकार तीन पंक्ति का यन्त्र करना । तहां ऊपर की पंक्ति विषै च्यारि कोठे करने, तहां क्रम तं स्त्री यदि विकथा लिखनीं अर एक, दो, तीन, व्यारि, ए अंक लिखने । बहुरि ताके नीचे पंक्ति विषे च्यारि कोठे करने, तहां क्रम तैं क्रोधादि कषाय लिखने अर बिंदी, व्यारि, आऊ बारा ए अंक लिखने । बहुरि नीचे पंक्ति विष पांच कोठे करते, तहां क्रम से स्पर्शनादि इंद्रिय लिखने, अर बिंदी, सोलह, बसोस, ग्रड़तालीस, चौसठि ए अंक लिखने ।
करना !
स्त्री १
क्रोध ० स्पर्शन
भक्त २.
मान ४
रसना १६.
राष्ट्र ३ |
माया ८ |
अवनि ४
लोभ १२
चक्षु ४८
ब्रारण ३२
श्रोत्र ६४
असे यंत्र करि पूर्व जैसे विधान कह्या, तेसे इहां भी नष्ट, समुद्दिष्ट का ज्ञान
हो नष्ट का उदाहरण -- जैसे पंद्रहवां आलाप कैसा है ?
सा प्रश्न होते विकथा, कषाय, इंद्रियति के जिस-जिस कोठा के अंक वा शून्य मिलाएं, सो पंद्रह संख्या होइ, तिस तिस कोठा को प्राप्त विकथादिक जोड़ें, राष्ट्रकथालापी- लोभी - स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु स्नेहह्वान अंसा तिस पंद्रहवां श्रालाप को कहै ।
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सम्पशामचन्तिका भाषाटीका
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तथा दूसरा उदाहरण -- तीसवां पालाप कैसा है ?
असा प्रश्न होते विकथा, कषाय, इंद्रिय के जिस-जिस कोठा के अंक जोड़ें सो तीस संख्या होइ, तिस-तिस कोठा को प्राप्त विकथादि प्रमाद जोड़ें, भक्तकथालापी-लोभी-रसना इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान असा तिस तीसवां पालाप को कहै ।
अब उद्दिष्ट का उदाहरण कहिए हैं - स्त्रीकथालापी-मानी-घाण इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान अंसा पालाप केथवा है ?
असा प्रश्न होतें इस पालाप विर्षे जो-जो विकथादि प्रमाद कहा है, तीहतीह प्रमाद का कोठा विर्षे जो-जो अंक एक, च्यारि, बत्तीस, लिखे हैं; तिनकौं जोडें, सैंतीस होइ, तातें सो पालाप सैतीसवां कहिए ।
बहुरि दूसरा उदाहरण अवनिपालकथालापी-लोभी-चक्षु इन्द्रिय के वशीभूतनिद्रालु-स्नेहवान पैसा पालाप कैथवा है ?
तहां इस आलाप विर्षे जे प्रमाद कहे, तिनके कोठानि वि प्राप्त च्यारि, बारह, अड़तालीस अंक मिलाएं, जो संख्या चौंसठि होइ, सोई तिस पालाप कौं चौसठिवां कहै, जैसे ही अन्य पालाप पूछे भी विधान करना ।
असे मूल प्रमाद पांच, उत्तर प्रमाद पंद्रह, उत्तरोत्तर प्रमाद असी, इनका यथासंभव संख्यादिक पांच प्रकारनि का निरूपण करि ।
अब और प्रमाद की संख्या का विशेष कौं जनावें हैं, सो कहैं हैं । स्त्री की सो स्त्रीकथा, धनादिरूप प्रर्थकथा, खाने की सो भोजन कथा, राजानि की सो राजकथा चोर की सो चोरकथा, वैर करणहारी सो वैरकथा, पराया पाखंडादिरूप सो परपाखंडकथा, देशादिक की सो देशकथा, कहानी इत्यादि भाषाकथा, गुण रोकनेरूप मुरणबंधकथा, देवी की सो देवीकथा, कठोररूप निष्ठुरकथा, दुष्टतारूप परपैशून्यकथा, कामादिरूप कंदर्पकथा, देशकाल विर्षे विपरीत सो देशकालानुचितकथा, निर्लज्जतादिरूप भंडकथा, मूर्खतारूप मूर्खकथा, अपनी बढाईरूप प्रात्मप्रशंसाकथा, पराई निंदा रूप परपरिवादकथा, पराई घृणारूप परजुगुप्साकथा, पर कों पीड़ा देनेरूप परपीड़ा कथा, लड़नेरूप कलहकथा, परिग्रह कार्यरूप परिग्रहकथा, खेती आदि का प्रारंभरूप कृष्याचारंभकथा, संगीत बादित्रादिरूप संगीतवादित्रादि कथा - अस विकथा पचीस भेदसंयुक्त है।
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१२२ ]
[ गrterere. जोवर गाथा ४४
बहुरि सोलह कषाय र नव नो कषाय भेद करि कषाय पचीस हैं । बहुरि स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु, श्री पन नाम धारक इंद्रिय यह हैं । बहुरि स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला भेद करि निद्रा पांच हैं । बहुरि स्नेह, मोह भेद करि प्रणय दोय हैं। इनकों परस्पर गुण, पांच अधिक सैंतीस हजार प्रमाण हो हैं ( ३७५०० ) । ए भी मिथ्यादृष्टि आदि प्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यंत प्रवते हैं । जे बीस प्ररूपणा, तिनि विषै यथासंभव बंध का हेतुपणाकरि पूर्वोक्त संख्या आदि पांच प्रकार लीए जैनागम तं श्रविरुद्धपने जोड़ने !
अब प्रमादनि के साड़ा सैंतीस हजार भेदनि विषै संख्या, दोय प्रकार प्रस्तार, for प्रस्तारनि की अपेक्षा प्रक्षसंचार, नष्ट, समुद्दिष्ट पूर्वोक्त विधान तें यथासंभव
करना ।
बहुरि गुढ यंत्र करने का विधान न कह्या, सो गूढ यंत्र कैसे होइ ?
तातें इहां भाषा विषै गूढ यंत्र करने का विधान कहिए है । जाकों जानें, arer चाहिए, ताका गूढ यंत्र कर लीजिये । तहां पहिले प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा कहिए है । जाका गुढ यंत्र करना होइ, तिस विवक्षित के जे मूलभेद जितने होंइ, तितनी पंक्ति का यंत्र करना । तहां तिन मूल भेदनि विषै अंत का मूलभेद होइ, की पंक्ति सबनिके ऊपर करनी। तहां तिस मूल भेद के जे उत्तर भेद होंहिं, तिने कोठे करने । तिन कोठानि विषै तिस मूल भेद्र के जे उत्तर भेद होंहिं, ते क्रम तें लिखने । बहुरि तिनही प्रथमादि कोठानि विषै एक, दोय इत्यादि क्रम तें एकएक बधता का अंक लिखना । बहुरि ताके नीचे जो अंत भेद तें पहला उपांत मूल भेद हो, ताकी पंक्ति करनी। तहां उपांत मूल भेद के जेते उत्तर भेद होइ तिनके htठे करने । तहाँ उपान्त मूल भेद के उत्तर भेदनि को क्रम तें लिखने । बहुरि तिनहीं कोठानि विषै प्रथम कोठा विषै बिंदी लिखनी। दूसरे कोठा विषे ऊपर की पंक्ति का अंत का कोठा विषै जेते का अंक होइ, सो लिखना । बहुरि तृतीयादि atorfir fat सरा कोठा विषै जेसे का अंक लिख्या, तितना-तितना ही बधाई बधाई क्रम तैं लिखने । बहुरि ताके नीचे-नीचे जे उपांत ते पूर्वे मूल भेद होंइ, ताक आदि देकर आदि के मूल भेद पर्यंत जे मूल भेद होंइ, तिनकी पंक्ति करनी। वहां तिनके जेते-जेते उत्तर भेद होंइ, तितने-तितने कोठे करने । बहुरि तिन कोठानि विषै अपनामूल भेद के के उत्तर भेद होंइ, ते क्रम तें लिखने ।
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Anusha NISHAANTHLAAPARAMETERTAFermissimarARAMysar ee .............
सम्यग्जानचन्द्रिका भावाटीका
बहुरि तिन सर्व पंक्तिनि के प्रथम कोठानि विर्षे तौं बिंदी लिखनी, बहुरि द्वितीय कोठा विर्षे अपनी पंक्ति से ऊपरि की सर्व पंक्ति के अंत का कोठानि विर्षे जितने-जितने का अंक-लिख्या होइ, तिनको जोड़ें जो प्रमाण होइ, तितने का अंक लिखना । बहुरि तृतीयादि कोठानि विर्षे जेते का अंक दूसरा कोठा वि. लिख्या होइ तितना-तितना ही क्रम ते बधाइ-बधाइ लिखना । असे विधान करना ।
अब द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा कहिए है । जो विधान प्रथम प्रस्तार अपेक्षा लिख्या, सोई विधान द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा जानना । विशेष इतना - इहां विवक्षित का जो प्रथम मूल भेद होइ, ताकी पंक्ति ऊपरि करनी । ताके नीचें दूसरे मूल भेद की पंक्ति करनी । असे ही नीचे-नीचे अंत के मूल भेद पर्यंत पंक्ति करनी । बहुरि तहां जैसे अंत मूल भेद संबंधी ऊपरि पंक्ति ते लगाइ क्रम वर्णन कीया था, तैसे यहां प्रथम मूल भेद संबंधी पंक्ति तें लगाइ क्रम से विधान जानना · । अन्य या प्रकार साडा सैंतीस हजार प्रमाद भंगनि का प्रथम प्रस्तार अपेक्षा गूड यंत्र कह्या ।
सहां कोऊ नष्ट पूछ कि एथवां पालाप भंग कौंन ?
तहां जिस प्रमाण का पालाप पूछचा, सो प्रमाण सर्व पंक्तिनि के जिस-जिस कोठानि के अंक वा बिदी मिलाएं होइ, तिस-तिस कोठा विर्षे जे-जे उत्तर भेद लिखे, तिनरूप सो पूछया हूवा पालाप जानना ।
बहुरि कोई उद्दिष्ट पूर्छ कि अमुक पालाप केथवा है ?
तौ तहां पूछ हुए पालाप विर्षे जे-जे उत्तर भेद ग्रहे हैं, तिन-तिन उत्तर भेदनि के कोठानि विर्षे जे-जे अंक वा बिदी लिखी हैं, तिनको जोड़ें जो प्रमाण होइ, तेथवा सो पुछया हवा आलाप जानना । अब इस विधान ते साडा सेंतीस हजार प्रमाद भंगनि का प्रथम प्रस्तार अपेक्षा गूढ यंत्र लिखिए हैं ।
___ इहां प्रमाद के मूल भेद पांच हैं, तातें पांच पंक्ति करनी १ तहां ऊपरि प्रणय पंक्ति विर्षे दोय कोठे करि, तहां स्नेह मोह लिखे पर एक दोय का अंक लिखे, ताके नीचे निद्रा पंक्ति के पांच कोठे करि तहां स्त्यानगुद्धि प्रादि लिखे अर प्रथम कोठा वि बिंदी लिखी । द्वितीय कोठा विर्षे ऊपरि की पंक्ति के अंत के कोठे में अंक दोय था, सो लिख्या । पर तृतीयादि कोठे विधं तितने-तितने ही बधाइ च्यारि, छह, पाठ लिखे । बहुरि ताके नीचे इंद्रिय पंक्ति के छह कोठे करि, तहां स्पर्शनादि लिखे ।
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१२४
गोम्पसार जीवकाण्ड गाया ४४ पर प्रथम कोठा विर्षे बिंदी, द्वितीय कोठा विर्ष ऊपरि की दोय पंक्ति के अंत का कोठा के जो. दश होइ सो, अर तृतीयादि कोठानि विषं सोई दश-दश बधाइ लिखे हैं । पर ताके नीचे कषाय पंक्ति विर्षे पचीस कोठे करि, तहां अनंतानुबंधी क्रोधादि लिखे। अर प्रथम कोठा विर्षे बिंदी, दूसरा कोठा विर्षे ऊपरि की तीन पंक्ति का अंत के कोठानि का जोड साठि लिखि, तृतीयादि कोठानि विर्षे तितने-तितने बधाइ लिखे । बहुरि ताके नीचे विकथा पंक्ति विर्षे पचीस कोठा करि तहां स्त्रीकथादि लिखे । पर प्रथम कोठा विर्षे बिंदी, द्वितीय कोठा विर्षे ऊपरि की च्यारि पंक्तिनि के अंत कोठानि का जोड पंद्रह से, तृतीयादि कोठानि विर्षे तितने-तितने ही बधाइ लिखे हैं। असे प्रथम प्रस्तार अपेक्षा यंत्र भया । ( देखिए पृष्ठ १२५)
बहुरि साडा संतीस हजार प्रमाद भंगनि का द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा गूढ यंत्र लिखिए हैं।
तहां ऊपरि विकथा पंक्ति करी, नहीं पचीस कोठे करि, तहां स्त्रीकथादि लिखे । पर एक, दोय आदि एक-एक बधता अंक लिखे, ताके नीचे-नीचे कषाय पंक्ति पर इंद्रिय पंक्ति पर निद्रा पंक्ति भर प्रणय पंक्ति विर्षे काम ते पचीस, पचीस, छह, पांच, दोय कोठे करि तहां अपने-अपने उत्तर भेद लिखे । बहुरि इन सब पंक्तिनि के प्रथम कोठर वि बिंदी लिखी । अर दूसरा कोठा विषं अपनी-अपनी पंक्ति तें ऊपरि क्रम से एक, दोय, तीन, न्यारि पंक्ति, तिनके अंत कोठा संबंधी अंकनि कौं जोडे, पचीस, छह सै पचीस, साडा सैतीस सै, अठारह हजार साल से पचास लिखे । बहुरि तृतीयादि कोठानि विर्षे जेते दूसरे कोठा विर्षे लिखे, तितने-तितने बधाइ, कम तें अंत कोठा पर्यंत लिखे हैं । असे द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा यंत्र जानना । (सोही यंत्र का कोठा को विधि वा अक्षर. अंकादिक कही विधि मूजिव क्रम ते यंत्र रचना विधि लिखि है। ) इसप्रकार साढा सैंतीस हजार प्रमाद का मूढ यंत्र कीए । (देखिए पृष्ठ १२६)
तहा प्रथम प्रस्तार अपेक्षा कोऊ पूछ कि इन भंगनि विर्षे पैतीस हजारवां भंग कौन है ?
तहां प्रणय पंक्ति का दूसरा कोठा, निद्रा पंक्ति का पांचवां कोठा, इंद्रिय पंक्ति का दूसरा कोठा, कषाय पंक्ति का नवमा कोठा, विकथा पंक्ति का चौवीसवां कोठा,
Lumannmarrindrianaa..simanatummarnamaARAMMAR
१यह वाक्य छह हस्तलिखित प्रतियो में नहीं मिला।
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१५००
३०००
४५००
६०००
७५००
६०००
१०५००
१२०००
१३५००
१५०००
१६५००
१८०००
११५००
२१०००
२२५००
२४०००
स्त्री
अर्थ
२७०००.
२८५००
३००००
भोजन
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पोर
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देश
भाषा
गुणबंध
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परशून्य
कंदर्य
देशकाला
नुषित
मूर्ख
२५५०० आत्मप्रशंसा
परपरिवाद
ਸੱਬ
परबुगुप्सा
परपीड़ा
२१५००
कराह
३३००० परिग्रह ३४५०० कृष्णायारंभ
३६००० संगीतवाद्य
धो
०
अनंतानुबंधी मान ६०
अनानुवधी माया
१२०
श्र
१८०
अप्रत्याख्यान कोष २४०
अप्रत्याख्यान मान
३००
प्रत्याख्यान माया
३६०
प्रत्यास्थान सोभ
४२०
प्रत्याख्यान क्रोष
••
प्रत्यास्थान मान
५४०
प्रत्याख्यान माया
६००
प्रत्याख्यान सोम
६६०
संज्वलन कोष
७२०
संज्वलन मान
1950
संज्वलन माया ८४० संजयसन लोभ
६००
हास्य
६६०
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रति
श्ररक्षि
१०५०
घटक
१६४०
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१२००
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१२६०
पुरुष १३२०
स्त्री १३५० नपुंसक १४४०
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१०
घ्राण
२०
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३०
श्रोत्र
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सस्त्यानद्धि
०
निद्रानिद्रा
२
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४
निद्रा
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प्रमला
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१ स्नेह
२ मोह
सर्व विधान पूर्वोक्त जानना, मैसें गूढ
यंत्र करना। तहां प्रमाद के साडे संतीस हजार भेद, तिनिका यंत्र लिखिए ।
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Amaziestore:
अनंतानुबंधी कोष ।
सर्शन
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स्त्री
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स्नेह
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अनंतानुरंधी लोभ
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रसन निद्रानिद्रा
३७१० घ्राण प्रचलाप्रचना १२५०
७५००
निद्रा १९७५ ११२५०
प्रचला २५००
१५००० मन ३१२५ ।
श्रोत्र
चोर
अप्रत्याख्यान क्रोध
१०० अप्रत्याख्यान मान
१२५ अप्रत्याख्यान माया
परसाखंड
प्रप्रत्याख्यान लोभ
१७५
भाषा
गुणवंध
प्रत्याख्यान क्रोध
२०० प्रत्याख्यान'मान
२२५ प्रत्याख्मान माया
२५० प्रत्याख्यान सोम
२७५ संज्वलन क्रोध
निष्ठुर
परपैशून्य
संज्वलन मान
१४
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देशकासानुचित
सज्वलन माधा
३५० संज्वलन लोभ
३७५
हास्य
मूर्ख
AURAHA dadadlalitALITAA
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४००
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मात्मप्रशंसा
परपरिवाद
परति ४५० शोक
परजुगुप्सा
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जुगुप्सा ५२५ पुरुष ५५० स्वी ५७५ नपुंसक ६००
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परिग्रह कृष्याचारंभ संगीतवा
२४
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१२८ ]
। गोम्मटसार खोदकाण्ड गाया ४४ चौवीस अनंकित स्थान पटाइए, तब च्यारि से एक होइ । बहुरि इनिकों छह इंद्रिय करि गुरिगए अर इहां अंतभेद का ग्रहण है, तातें अनंकित न घटाइए, तब चौवीस से छह होइ । बहुरि इनकौं पांच निद्रा करि गुरिणए अर इहां चौथी निद्रा का ग्रहण है, तात याके परै एक अनंकित स्थान है, ताकौं घटाइए, तब बारह हजार गुरगतीस होइ । याकों दोय प्रणय करि गुणिए अर इहां प्रथम भेद का ग्रहण है; तात याके परै एक अनंकित स्थान घटाइए, तब चौवीस हजार सत्तावन होंइ, असें स्नेहवाननिद्रालु-मन के वशीभूत-अनंतानुबंधीक्रोधयुक्त-मूर्खकथालापी असा पूछया हुवा
आलाप चौवीस हजार सत्तावनवां जानना । याही प्रकार अन्य उद्दिष्ट साधने । बहरि जैसे प्रथम प्रस्तार अपेक्षा विधान कहा; तैसे ही द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा यथासंभव नष्ट, उद्दिष्ट ल्यावने का विधान जानना । असे साडा सैंतीस हजार प्रमाद भंगनि के प्रकार जानने।
बहुरि याही प्रकार अठारह हजार शील भेद, चौरासी लाख उत्तर गुण, मतिज्ञान के भेद वा पाखंडनि के भेद वा जीवाधिकरण के भेद इत्यादिकनि विर्षे जहां अक्षसंचार करि भेदनि की पलटनी होइ, तहां संख्यादिक पांच प्रकार जानने । विशेष इतना पूर्व प्रमादनि की अपेक्षा वर्णन कीया है । इहां जाका विवक्षित वर्णन होइ, ताको अपेक्षा सर्वविधान करना । तहां जैसे प्रमादनि के विकथादि मूलभेद कहे हैं, तैसें विवक्षित के जेते मूलभेद होइ, ते कहने । बहुरि जैसे प्रमाद के मूल भेदनि के स्त्रीकथादिक उत्तरभेद कहै हैं, तैसे विवक्षित के मूलभेदनि के जे उत्तर भेद हो हैं, ते कहने । बहुरि जैसे प्रभादनि के आदि-अंतादिरूप मूलभेद ग्रहि विधान कह्या है, तैसें विवक्षित के जे आदि-अंतादि मूलभेद होंइ, तिनको प्रहि विधान करना । बहुरि जैसे प्रमाद के मूलभेद उत्तरभेद का जेता प्रमाण था, तितना ग्रहण कीया । तैसे विवक्षित के मूल भेद वा उत्तर भेदनि का जेता-जेता प्रमाण होइ, तितना ग्रहण फरना । इत्यादि संभवते विशेष जानि, संख्या पर दोय प्रकार प्रस्तार पर तिन प्रस्तारनि की अपेक्षा अक्षसंचार पर नष्ट पर समुद्दिष्ट ए पांच प्रकार हैं, ते यथासंभव साधन करने । .. तहां उदाहरण ~ तत्त्वार्थसूत्र का षष्टम अध्याय विर्षे जीवाधिकरण के वर्णन स्वरूप असा सूत्र है - "प्राचं संरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुसतकषायविशेषस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्रकशः" ।
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सम्यग्ज्ञानधान्द्रका भाषाटोका 1
[ १२६ इस सूत्र विर्षे संरंभ, समारंभ. प्रारंभ - ए तीन; पर मन, वचन, काय - ए योग तीन ; अर कृत, कारित, अनुमोदित - ए तीन; पर क्रोध, मान, माया, लोभ ए कषाय च्यारि; इनके एक-एक मूल भेद के एक-एक उत्तर भेद कौं होते अन्य सर्व मूल भेदनि के एक-एक उत्तर भेद संभव हैं। ताते क्रम ते ग्रहे, इनका परस्पर गुणने तें एक सी आठ भेद हो हैं, सो यह संख्या जानना ।
बहुरि पहला-पहला प्रमाण मिलन फरिवाने एका गुह के डारी गागला प्रमाण पिंड कौं स्था, प्रथम प्रस्तार हो हैं । बहुरि पहला-पहला प्रमाण पिंड. की संख्या कौं पागला मल भेद के उत्तर भेद प्रमाण स्थानकनि विर्षे स्थापि, तिनके ऊपरि तिनि उत्तर भेदनि कौं स्थापै, द्वितीय प्रस्तार हो है । (देखिए पृष्ठ १३० पर)
बहुरि प्रथम प्रस्तार अपेक्षा अंत का मूल भेद तें लगाय आदि भेद पर्यन्त पर द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा प्रादि मूल भेद तें लगाय अंत भेद पर्यन्त कम ते उत्तर भेदनि का अंत पर्यन्त जाइ-जाइ बाहुड़ना का अनुक्रम लीए उत्तर भेदनि के पलटनेरूप धक्ष संचार जानना । 'बहुरि सगमाणेहि विभ' इत्यादि पूर्वोक्त सूत्र करि नष्ट का विधान करिए।
तहां उदाहरण - प्रथम प्रस्तार अपेक्षा कोउ पूछे कि पचासवां पालाप कौन हैं ?
तहां पचास की पहले च्यारि कषाय का भाग दीए, बारह पाए, अर अवशेष दोय रहै, तातें दूसरा कषाय मान ग्रहना । बहुरि अवशेष बारह विर्षे एक जोडि कृतादि तीन का भाग दीए, च्यारि पाए, अवशेष एक रह्या, तातें पहला भेद कृत जानना । बहुरि पाए च्यारि विर्षे एक जोडि, योग तीन का भाग दीए, एक पाया, अवशेष दोय, सो दूसरा बचन योग ग्रहना । बहुरि पाया एक विर्षे एक जोड़ें संरंभादि तीन भाग दीए किछू भी न पाया, अवशेष दोय, सो दूसरा भेद समारंभ ग्रहना । असें पूछया हुवा पचासवां आलाप मान कवायकृत वचन समारंभ असा भंग रूप हो है । जैसे ही अन्य नष्ट साधने ।
बहुरि 'संठाविदूरणरूवं' इत्यादि पूर्वोक्त सूत्र करि उद्दिष्ट का विधान करिए। तहां उदाहरण ।
प्रश्न -- जो माया कषाय कारित मन प्रारंभ असा पालाप केथयां है ?
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यह जीवाधिकरण का प्रथम प्रस्तार है। यहां संरंभादिक की प्रथम अक्षर की सहनानी है । ऊपरि च्यारि
' कषायनि की सहनानी है। .
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स। सपा प्रा' ग्रा! प्रामाआग्रा| या प्रा
बहुरि यह द्वितीय प्रस्तार है । इहा क्रोधादि कषायनि विर्ष क्रम से सत्ताईस-सत्ताईस भंग कहने । क्रोध
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२७
२७
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सम्पज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका
.
तहां प्रथम एक स्थापि प्रथम प्रस्तार अपेक्षा उपरि ते सरंभादि तीन करि गुणी, इहां अंतस्थान का ग्रहण है, तातै अनंकित कौं न घटाए, तीन ही भए । बहुरि इनकी तीन योग करि गणि, इहां वचन, काय ए दोय अनंकित घटाए सात भए । बहुरि इनकी कृतादि तीन करि गुणि, अनुमोदन अनंकित स्थान घटाए, वीस हो हैं । बहुरि इनकौं च्यारि कषाय करि गुरिगए, एक लोभ अनंकित स्थान घटाए गुन्यासी हो हैं । असा पूछया हुवा पालाप गुण्यासीवां है; जैसे ही अन्य उद्दिष्ट साधने ! बहुरि इस ही प्रकार से द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा भी नष्ट-उद्दिष्ट समुद्दिष्ट सावने । बहुरि पूर्व जो विधान कया है, तात याके गूढयंत्र असें करने ।
प्रथम प्रस्तार अपेक्षा जीवाधिकरण का मूढयंत्र । क्रोध
! माया । लोभ ।
मान
२
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कारित | अनुमोदित ।
मन
वचन
काय
२४
संरंभ
। समारंभ
प्रारंभ
७२
द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा जीवाधिकरण का गूढयंत्र ।
सरभ
समारभ
प्रारम
२
मन
वचन
काय
कृत
। कारित । अनुमोदित
१८ मान । माया २७
-
क्रोध
।
तहां नष्ट पूछ तो जैसे च्यारों पंक्तिनि के जिस-जिस कोठा के अंक मिलाए पूछया हुवा प्रमाण मिले, तिस-तिस कोठा विर्षे स्थित भेदरूप आलाप कहना । जैसे साठिवां पालाप पूछे तो च्यारि, आठ, बारह, छत्तीस अंक जोडे साठि अंक होइ ।
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१३२ ]
[ गोम्मटसार जीवकण्ड पाथा ४५
तातें इन अंक संयुक्त कोठानि के भेद ग्रहैं, लोभ अनुमोदित वचन समारंभ असा आलाप कहिए |
बहुरि उद्दिष्ट पूछे तो, तिस आलाप विषै कहे भेद संयुक्त कोठेनि के क मिलाएं, जो प्रमाण होइ, तेथयां आलाप कहना । जैसें पूछया कि मान कृत काय आरंभ केथवां ग्रालाप है ? तहां इस ग्रालाप विषै कहे भेद संयुक्त कोठेनि के दोय, बिंदी, चौवीस, बहतरि ए अंक जोडि, ग्रठयाणवैवां श्रालाप है; जैसा कहना । याही प्रकार प्रथम प्रस्तार अपेक्षा अन्य नष्ट समुद्दिष्ट वा दूसरा प्रस्तार अपेक्षा ते नष्टममुद्दिष्ट साधन करने। असें ही शील भेदादि विषै यथासंभव साधन करना । या प्रकार प्रमत्तगुणस्थान विषै प्रमाद भंग कहने का प्रसंग पाइ संख्यादि पांच प्रकारनि का वर्णन कर प्रमत्तगुणस्थान का वर्णन समाप्त किया ।
म गुणस्थान के स्वरूप को प्ररूप हैं -
संजertगोकसायादयो मंदो जदा तदा होदि । अपमत्तगुणो तेण य, अपमतो संजदो होदि ॥ ४५ ॥
संज्वलननोकषायाणामुदयो मंदो यदा तदा भवति । गुणस्तेन च प्रप्रमत्तः संयतो भवति ॥४५॥
टीका या कहिए जिस काल विषै संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ च्यारि कषाय र हास्यादि नव नोकषाय इनका यथासंभव उदय कहिए फल देनेरूप परिणमन, सो मंद होइ, प्रमाद उपजावने की शक्ति करि रहित होइ, तदा कहिए तींहि काल व अंतर्मुहूर्त पर्यंत जीव के अप्रमत्तगुण कहिए श्रप्रमत्त गुणस्थान हो है, तोहि कारणरि तिस श्रप्रमत्त गुणस्थान संयुक्त संयत कहिए सकलसंयमी, सो श्रप्रमत्तसंयत है | कार करि श्रागे कहिए हैं जे गुण, तिनकरि संयुक्त है ।
--
आगे अप्रमत्त संयत के दोय भेद हैं; स्वस्थान अप्रमत्त, सातिशय अप्रमत्त । तहां जो श्रेणी चढने की सन्मुख नाहीं भया, सो स्वस्थान अप्रमत्त कहिए । बहुरि जो श्रेणी चढ़ने की सन्मुख भया, सो सातिशय अप्रमत्त कहिए ।
तां स्वस्थान श्रप्रमत्त संयत के स्वरूप को निरूप हैं।
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सम्यग्ज्ञानचका दावाटीका !
णट्ठासेसपमादो, वयगुणसोलोलिमंडिओ गाणी। अणुवसमओ अखवओ, झारगणिलीणो हु अपमत्तों ॥ ४६॥ नष्टाशेषप्रमादो, व्रतगुरणशीलावलिमंडितो झानी।
अनुपशमकः अक्षपको, ध्याननिलीनो हि अप्रमतः ॥ ४६॥
टीका - जो जीव नष्ट भए हैं समस्त प्रमाद जाके जैसा होइ, बहुरि व्रतं; गुण, शील इनको प्रावली - पंक्ति, तिनकरि मंडित होइ -- आभूषित होइ, बहुरि सम्यज्ञान उपयोग करि संयुक्त होइ, बहुरि धर्मध्यान विर्षे लीन है मन जाका असा होइ, असा अप्रमत्त संयमी यावत् उपशम श्रेणी वा क्षपक श्रेणी के सन्मुख चढने कौं न प्रवर्त, तावत् सो जीव प्रकट स्वस्थान अप्रमत्त है; अंसा कहिए । इहां ज्ञानी ऐसा विशेषण कह्या है, सो जैसे सम्यग्दर्शन-सम्यक्चारित्र मोक्ष के कारण हैं, तैसें सम्यक्शान के भी मोक्ष का कारणपना की सूचै है।
भावार्थ - कोऊ जानेमा कि चतुर्थ गुणस्थान विर्षे सम्यक्त्व का वर्णन कीया, पीछे चारित्र का कीया, सो ए दोय हो मोक्षमार्ग हैं; तात ज्ञानी असा विशेषण कहिं सम्यग्ज्ञान भी इनि की साथि ही मोक्ष का कारण है जैसा अभिप्राय दिखाया है ।
प्रागै सातिशय अप्रमत्तसंयत के स्वरूप कौं कहै हैं - इगवीसमोहखवणुवसमणणिमित्ताणि तिकरणाणि तहिं । पढम अधापवतं, करणं तु करेदि अपमत्तो ॥ ४७॥ एकविंशतिमोहक्षपरणोपशमननिमित्तानि त्रिकरणानि तेषु ।
प्रथममधःप्रवृत्त करणं तु करोति अप्रमत्तः ॥ ४७ ।।
टोका - इहां विशेष कथन है; सो कैसे है ? सो कहिए है -- जो जीव समयसमय प्रति अनंतगुणी विशुद्धता करि वर्धमान होइ, मंदकषाय होने का नाम विशुद्धती है; सो प्रथम समय की विशुद्धता से दूसरे समय की विशुद्धता अनंतगुणी, तातें तीसरे समय की अनन्त गुणी, असें समय-समय विशुद्धता जाके बधती होइ, असा जो
१. षट्खंडागम -पदला गुस्तक १, प्रष्ट १००, गाथा ११५ ।
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१३४ ]
[ गोम्मटसार गरेकाण्ड गाथा ४
वेद सम्यग्दृष्टि प्रप्रमत्तसंयत गुणस्थानवतीं जीव, सो प्रथम ही अनंतानुबंधी के चतुष्क कौं प्रधःकरणादि तीन करणरूप पहिले करि विसंयोजन करें है ।
विसंयोजन कहा करें है ?
अन्य प्रकृतिरूप परिणामावनेरूप जो संक्रमण, ताका विधान करि इस अनंताबन्धी के चतुष्क के जे कर्म परमाणु, तिनक बारह कषाय और नव नोकषायरूप परिणमा है ।
बहुरि ताके अनंतर अंतर्मुहुर्तकाल ताईं विश्राम करि जैसा का तैसा हि, बहुरि तीन करण पहिले करि, दर्शन मोह की तीन प्रकृति, तिन को उपशमाय, द्वितीयपशम सम्यग्दृष्टि हो है ।
reat direरण पहिले करि, तीन दर्शनमोह की प्रकृतिनि को खिपाइ, क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो है ।
बहुरिया नंतर वाई प्रमत्त ते प्रमत्त विषै प्रमत्त तैं श्रप्रमत्त विषै हजारांबार गमनागमन करि पलटनि करें हैं । बहुरि ताके अनंतर समय-समय प्रति अनंतगुणी विशुद्धता की वृद्धि करि वर्धमान होत संता इकईस चारित्र मोह की प्रकृतिनि के उपशमावने कौं उद्यमवंत हो है । अथवा इकईस चारित्र मोह की प्रकृति क्षपावने कौं क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही उद्यमवंत हो है ।
भावार्थ उपशम श्रेणी को क्षायिक सम्यग्दृष्टि वा द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि दोऊ चढे र क्षपक श्रेणी की क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही चढ़ने की समर्थ है । उपशम सम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी की नाहीं चढ़े है । सो यहु जैसा सातिशय अप्रमत्तसंयत, सो अन्तानुबंधी चतुष्क बिना इकईस प्रकृतिरूप, तिस चारित्रमोह करें उपशमावने या क्षय करने कौं कारणभूत असे जे तीन करण के परिणाम, तिन विषै प्रथम अधःप्रवृत्तकरण को करें है; असा अर्थ जानना |
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अधःप्रवृत्तकरण का निरुक्ति करि सिद्ध भया जैसा लक्षण को कहे हैं - जह्या उवरिमभावा, हेट्ठिमभावहिं सरिसगा होंति । तह्मा पढमं करणं, अधापवत्तो ति णिद्दिट्ठ ॥४८॥
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सभ्यशानचन्द्रिका भाषाटीकर
यस्मादुपरितनभावा, अपस्तनभावैः सदृशका भवंति ।
तस्मात्प्रथमं करणं, अधःप्रवृत्तिमिति निर्दिष्टम् ॥४८॥ ..
टोका -- जा कारण तें जिस जीव का ऊपरि-ऊपरि के समय संबंधी परिणामनि करि सहित, अन्य जीव के नीचे-नीचे के समय संबंधी परिणाम सदृश - समान हो हैं, ता कारण ते सो प्रथम करण अध:करण है - अंसा गिद्दिळं कहिए परमागम विर्षे प्रतिपादन कीया है।
भावार्थ - तीनों करणनि के नाम नाना जीवनि के परिणामनि की अपेक्षा हैं । तहां जैसी विशुद्धता वा संख्या लीए किसी जीव के परिणाम परि के समय संबंधी होइ, तैसी विशुद्धता वा संख्या लीए किसी अन्य जीव के परिणाम अधस्तन समय संबंधी भी जिस करण विर्षे होंइ; सो अधःप्रवृत्त करण है । अधःप्रवृत्त कहिए नीचले समय संबंधी परिणामनि की समानता कौं प्रवत असे हैं करण कहिए परिणाम जा विर्षे, सो प्राधःप्रवृत्तकरण है । इहां करण प्रारंभ भए पीछे धने-घने समय व्यतीत भए जे परिणाम होहिं, ते ऊपरि ऊपरि समय संबंधी जानने । बहुरि थोरेथोरे समय व्यतीत भएं जे परिणाम होहिं, ते अधस्तन-अधस्तन समय संबंधी जानने । सो नाना जीवनि के इनकी समानता भी होइ ।
ताका उदाहरण - जैसे दोघ जीव के एक कालि अधःप्रवृत्तकरण का प्रारंभ करे, तहां एक जीव के द्वितीयादि घने समय व्यतीत भये, जैसे संख्या वा विशुद्धता लीये परिणाम भये, तैसें संख्या वा विशुद्धता लीये द्वितीय जीव के प्रथम समय विर्षे भी होइ । याही प्रकार अन्य भी ऊपरि नीचे के समय संबंधी परिणामनि की समानता इस करण विर्षे जानि याका नाम अधःप्रवृत्तकरण निरूपण कीया है।
माग अधःप्रवृत्तकरण के काल का प्रमाण कौं चय का निर्देश के अर्थि
अंतोमुत्तमेत्तो, तक्कालो होदि तत्थ परिणामा । ... लोगाणमसंखमिदा, उवरुवार सरिसबढिगया ॥४६॥ अंतर्मुहूर्तमात्रस्तत्कालो भवति तत्र परिणामाः। .. लोकानामसंख्यमिता, उपर्युपरि सदृशवृद्धिगताः ॥४९॥ : .
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सम्माज्ञानन्त्रिका योडिका ।
"मुहभूमिमोगरले पदगुरिणदे पदधन होदि" इस सूत्र करि मुख आदिस्थान पर भूमि अंतस्थान, इनकौं जोडि, ताका आधा करि, ताकौं गच्छकरि गुण, पदधन कहिए सर्वधन हो है।
बहरि 'आहिले रखे दलिहवे हमारेगमे।' इस सूत्र करि प्रादि कौं अंतधन विषं घटाएं, जेते अवशेष रहैं, तिनको वृद्धि जो चय, ताका भाग दीयें, जो होइ, तामै एक मिलाएं स्थानकान का प्रमाणरूप पद वा गच्छ का प्रमाण आर्य है। बहुरि 'पदक दिसंखेन भाजियं पचय' पद जो गच्छ, ताकी जो कृति कहिए वर्ग, तरका भाग सर्वधन को दीएं जो प्रमाण आवै, ताकुं संख्यात का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, सो चय जानना ! सो इहां अधःकरण विर्षे पहिले मुखादिक का ज्ञान न होइ तातें असें कथन कीया है । बहुरि सर्वत्र सर्वधन कौं गच्छ का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ, तामै मुख का प्रमाण घटाइ, अवशेष रहै, तिनकौं एक गच्छ का आधा प्रमाण का भाग दीए चय का प्रमाण हो है ।
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अथवा 'पादिधनोणं गरिपतं पदोनपदकृतिवलेन संभजितं प्रचयः' इस वचन ते सर्वस्थानक संबंधी आदिधन कौं सर्वधन विर्षे घटाइ, अवशेष कौं गच्छ के प्रमाण का वर्ग विर्षे गच्छ का प्रमाण घटाइ अवशेष रहै, ताका आधा जेता होय, ताका भाग दीये चय का प्रमाण आवे है । बहुरि उत्तरधन कौं सर्वधन विष घटाएं, अवशेष रहै, ताकौं गच्छ का भाग दीएं मुख का प्रमाण आवै है।
बहुरि “येकं पदं घयाभ्यस्तं तदादिसहितं धनं" इस सूत्र करि एक घाटि गच्छ कौं चर करि गुण, जो प्रमाण होइ, ताकौं मुख का प्रमाण सहित जोडे, अंतधन हो है । बहुरि मुख पर अंतधन कौं मिलाइ ताका प्राधा कीए मध्यधन हो है ।।
बहुरि 'पदहतमुखमादिधनं' इस सूत्रः करि पद करि गुण्या हुवा मुख का प्रमाण, सो आदिधन हो है।
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बहुरि "व्येकपवार्धनचयगुरखो. गच्छ उत्तरधन" इस सूत्र करि एक घाटि जो गच्छ, ताका प्राधा प्रमाण कौं चय करि गुणै, जो प्रमाण होइ, ताकौं गच्छ करि गुण, उत्तरधन हो है । सो आदिधन, उत्तरधन मिलाएं भी सर्वधन का प्रमाण हो
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। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४६
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है। अथवा मध्यधन कौं गच्छ करि गुरणें भी सर्वधन का प्रमाण प्राव है । असें श्रेणी व्यवहाररूप गणित का किचित् स्वरूप प्रसंग पाइ कह्या ।
अब अधिकारभूत अध:करण विः सर्वधन आदि का वर्णन करिए है । तहां प्रथम अंकसंदृष्टि करि कल्पनारूप प्रमाण लीएं दृष्टांतमात्र कथन करिए है । सर्व अध:करण का परिणामनि की संख्यारूप सर्वधन तीन हजार बहत्तरि (३०७२) । बहुरि अधःकरण के काल का समयनि का प्रमाणरूप गच्छ सोलह (१६) । बहुरि समयसमय परिणामनि की वृद्धि का प्रमाणरूप चय च्यारि (४) । बहुरि इहां संख्यात का प्रमाण तीन (३) । अब उवं रचना विर्षे धन ल्याइए है । सो युगपत् अनेक समय की प्रवृत्ति न होइ, ताते समय संबंधी रचना ऊपरि-ऊपरि ऊर्ध्वरूप करिए है । तहां आदि धनादिक का प्रमाण ल्याइये है।
‘पदकदिसंखेण भाजियं पचय' इस सूत्र करि सर्वधन तीन हजार बहत्तरी, ताकौं पद सोलह की कृति दोय से छप्पन, ताका भाग दीएं बारह होइ । श्रर ताकौं संख्यात का प्रमाण तीन, ताका भाग दीए च्यारि होइः। अथवा दोय सौ छप्पन कौं तिगुणा करि, ताका भाग सर्व धन की दीये भी च्यारि होइ सो समय-समय प्रति परिणामनि का चय का प्रमाण है । अथवा याकौं अन्य विधान करि कहिए है । सर्वधन तीन हजार बहत्तरि, ताकौं गच्छ का भाग दीए एक सौ बाणव, तामैं आगें कहिए है मुख का प्रमाण एक. सौ बासाठि, सो घटाइ तीस रहे । इनकौं एक घाटि गच्छ का प्राधा साढा सात, ताका भाग दीये च्यारि पाए, सो चय जानना।
__ अथवा 'प्राविधनोनं गणितं पदोनपदकृतिदलेन संभजितं' इस सूत्र करि आगे कहिए है -- प्रादिधन पचीस से बागवे, तोहकरि रहित सर्वधन च्यारि सै असी, ताकौं पद की कृति दोय स छप्पन विष पद सोलह घटाइ, अवशेष का आधा कीये, एक सौ बीस होइ, ताका भाग दीये च्यारि पाये, सो चय का प्रमाण जानना ।
बहुरि 'व्येकपदाध्निधय गुणो गच्छ उत्तरधन' इस सूत्र करि एक धाटि गच्छ पंद्रह, ताका प्राधा सादा सात (३) ताकौ चय' च्यारि, ताकरि गणे तीस, ताकौं गच्छ सोलह करि गुणे, च्यारि सौ असी चयधन कर प्रमाण हो है । बहुरि इस प्रचयधन करि सर्वधन तीन हजार वहत्तरि सो हीन कीये, अबशेष दोय हजार पांच
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सम्पज्ञानचन्द्रिका पीठ
[ १३९ से बारणव रहे । इनकी पद सोलह, ताका भाग दीये एक सौ बासठि पाये, सोई प्रथम समय संबंधी परिणामनि की संख्या हो है । बहुरि यामैं एक-एक चय बधाये संते द्वितीय, तृतीयादि समय संबंधी परिणामनि की संख्या हो है । तहां द्वितीय समय संबंधी एक सौ छयासठ, तृतीय समय संबंधी एक सौ सत्तरि इत्यादि क्रम ते एक-एक चय बधती परिणामनि की संख्या हो है । १६२, १६६, १७०, १७४, १७८, १५२, १८६, १६०, १६४, १६८, २०२, २०६, २१०, २१४, २१८, २२२ ।
इहां अंत समय संबंधी परिणामनि की संख्यारूप अंतधन ल्याइये है।
'व्येकं पदं चयाभ्यस्तं तदादिसहितं धनं' इस सूत्र ते एक घाटि गच्छ पंद्रह, ताकौं चय च्यारि करि गुण साटि, बहारे या प्रापि एक प्रासठि करि युक्त कीएं दोय से बाईस होइ, सोई अंत समय संबंधी परिणामनि' का प्रमाण जानना । बहुरि यामैं एक चय च्यारि घटाएं दोय से अठारह विचरम समय संबंधी परिणामनि का प्रमाण जानना । जैसे कहैं जो बन कहिए समय-समय संबंधी परिणामनि का प्रमाण, तिनकौं अधःप्रवृतकरण का प्रथम समय तें लगाई अंत समय पर्यन्त ऊपरिऊपरि स्थापन करने।
आर्ग:अनुकृष्टिरचना कहिए है - तहां नीचे के समय संबंधी परिणामनि के खंड तिनके ऊरि, के समय संबंधी परिणामनि के जे खंडनि करि जो सादश्य कहिण समानता, सो अनुकृष्टि असा नाम धरै है।
भावार्थ - परि के अर नीचे के समय संबंधी परिणामनि के जे खंड, ते परस्पर समान जैसै होइ, तैसें एक समय के परिणामनि विर्षे खंड करना, तिसका नाम अनुकृष्टि जानना । तहां ऊर्ध्वगच्छ के संख्यातवां भाग अनुकृष्टि का गच्छ है, सो अंकसंदृष्टि अपेक्षा ऊज़मच्छ का प्रमाण सोलह, ताको संख्यात का प्रमाण च्यारि का भाग दीए जो च्यारि पाए; सोई अनुकृष्टि विर्षे गच्छ का प्रमाण है । अनुकृष्टि विर्षे खंडनि का प्रमाण इतना जानना । बहुरि ऊर्ध्व रचना का चय की अनुकृष्टि मच्छ का भाग दीएं, अनुकृष्टि विर्षे चय होइ, सो ऊर्ध्व चय च्यारि की अनुकृष्टि गच्छ ध्यारि का भाग दीएं एक पाया; सोई अनुकृष्टि चय जानना । खंड-खंड प्रति बधती का प्रमाण इतता है । बहुरि प्रथम समय संबंधी समस्त परिणामनि का प्रमाण एक सौ बासठ, सो इहां प्रथम समय संबंधी अनुकृष्टि रचना विर्षे सर्वधन जानना । बहुरि 'ध्येकपदार्घनश्चयगुणो गच्छ उत्तरधन' इस सूत्र करि एक धाटि गच्छ तीन,
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| गोम्मटसार भोवका माथा Ve
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ताका आधा कौं चय एक करि गुणी अरं गच्छ च्यारि करि गुणें छह होइ, सो इहाँ उत्तरधन का प्रमाण जानना । बहुरि इस उत्तरधन छह की (६) सर्वधन एक सौ बासठि (१६२) विष घटाएं, अवशेष एक सौ छप्पन रहे, तिनकौं अनुकृष्टि गच्छ च्यारि का भाग दीएं गुणतालीस पाए, सोई प्रथम समय संबंधी परिणामनि का जो प्रथम खण्ड, ताका प्रमाण है, सो यह ही सर्व जघन्य खण्ड है; जातें इस खण्ड तें अन्य सर्व खंडनि के परिणामनि की संख्या पर विशुद्धता करि अधिकपनों संभव है। बहुरि तिस प्रथम खंड विर्षे एक अनुकृष्टि का चय जोडें, तिसही के दूसरा खंड का प्रमाण चालीस हो है । जैसे ही तृतीयादिक अंत खंड पर्यंत तिर्यक् एक-एक चय अधिक स्थापने' । तहां तृतीय खंड विर्षे इकतालीस अंत खंड विर्षे बियालीस परिणामनि का प्रमाण हो है । ते ऊर्ध्व रचना विर्षे जहां प्रथम समय संबंधी परिणाम स्थापे, ताकै आग-बाग बरोबरि ए खंड स्थापन करने । ए (खंड) एक समय विर्षे युगपत अनेक जीवनि के पाइए, तातै इनिको बरोबरि स्थापन कीए हैं। बहरि ताते परै ऊपरि द्वितीय समय का प्रथम खंड प्रथम समय का प्रथम खंड ३६ ते एक अनुकृष्टि चय करि (१) एक अधिक हो है; तातें ताका प्रमाण चालीस है । जाते द्वितीय समय संबंधी परिणाम एक सो छयासलि, सो ही सर्वधन, तामें अनुकृष्टि का उत्तर धन छह घटाइ, अवशेष कौं अनुकृष्टि का गच्छ च्यारि का भाग दीयें, तिस द्वितीय समय का प्रथम खंड की उत्पत्ति संभव है । बहुरि ताक प्राग द्वितीय समय के द्वितीयादि खंड, ते एक-एक चय अधिक संभव हैं ४१, ४२, ४३ । इहां द्वितीय समय का प्रथम खंड सो प्रथम समय का द्वितीय खंड करि समान है।
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असे ही द्वितीय समय का द्वितीयादि खंड, ते प्रथम समय का तृतीयादि खंडनि करि समान हैं । इतना विशेष - जो द्वितीय समय का अंत का खंड प्रथम समय का सर्व खंडनि विर्षे किसी खंड करि भी समान नाहीं । बहुरि तृतीयादि समयनि के प्रथमादि खंड द्वितीयादि समयनि के प्रथमादि खंडनि तें एक विशेष अधिक हैं।
- तहां तृतीय समय के ४१, ४२, ४३, ४४ । चतुर्थ के ४२, ४३, ४४, ४५ । पंचम समय के ४३, ४४, ४५, ४६ । षष्ठम समय के ४४, ४५, ४६, ४७ ५ सप्तम समय के ४५, ४६, ४७, ४८ । अष्टम समय के ४६, ४७, ४८, ४६ । नवमा समयः - के ४७, ४८, ४६, ५० । दशयां समय के ४८, ४६, ५०, ५१ । ग्यारहवां समय के ४६, ५०, ५१, ५२ । बारहवां समय के ५०, ५१, ५२, ५३ । तेरहवा समय
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सम्ममानवविका भावाटीका
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के ५१, ५२, ५३, ५४ | चौदहवां समय के ५२, ५३, ५४, ५५ । पंद्रहवां समय के ५३. १४. .! सोलहवां गणय के ५४, ५५, ५६, ५७ खंड जानने ।
जातें ऊपरि-ऊपरि सर्वधन एक-एक ऊर्ध्व चय करि अधिक हैं । इहां सर्व जघन्य खंड जो प्रथम समय का प्रथम खंड, ताके परिणामनि के अर सर्वोत्कृष्ट खंड अंत समय का अंत का खंड, ताके परिणामनि के किस ही खंड के परिणामनि करि सहित समानता नाहीं है; जाते अवशेष समस्त परि के वा नीचले समय संबंधी खंडनि का परिणाम पुंजनि के यथासंभव समानता संभव है । बहुरि इहां ऊर्व रचना विर्षे 'मुहभूमि जोगदले पदमुरिणदे पदघणं होदि' इस सूत्र करि मुख एक सौ बासठि, भर भूमि दोय सौ बाइस, इनिकों जोड़ि ३८४ । प्राधा करि १६२ गच्छ, सोलह करि गुणं सर्वधन तीन हजार बहत्तरी हो है । अथवा मुख १६२, भूमि २२२ कौं जोडै ३०४, प्राधा कीये मध्यधन का प्रमाण एक सौ बाणवै होइ, ताकौं गच्छ सोलह करि गुण सर्वधन का प्रमाण हो है । अथवा 'पहातमुखमादिधनं' इस सूत्र करि गच्छ
सोलह करि मुख एक सौ बासठि कौं गुण, पचीस से बाणवै सर्वसमय संबंधी प्रादि ...धन हो है । बहुरि उत्तरचन पूर्व च्यारि सं असी कहा है, इनि दोऊनि कौं मिलाएं
सर्वधन का प्रमाण हो है । बहुरि गच्छ का प्रमाण जानने की 'यादी अंसे सुध्दे वट्टिहदे ..सबसजुदे ठाणे' इस सूत्र करि आदि एक सौं बासठि, सो अंत दोय से बाईस में घटाएं
अवशेष साठि, ताकी वृद्धिरूप चय च्यारि का भाग दीएं पंद्रह, तामैं एक जोडें गच्छ का प्रमाण सोलह श्राव है। जैसे दृष्टांतमात्र सर्वधनादिक का प्रमाण कल्पना करि वर्णन कीया है, सो याका प्रयोजन यहु - जो इस दृष्टांत करि अर्थ का प्रयोजन नीकै समझने में आवै ।
अब यथार्य वर्णन करिए है - सो ताका स्थापन असंख्यात लोकादिक की अर्थसंदृष्टि करि वा संदृष्टि के अयि समच्छेदादि विधान करि संस्कृत टीका विर्षे दिखाया है, सो इहां भाषा टीका विर्षे मागे संदृष्टि अधिकार जुदा करेंगे, तहां इनिकी भी अर्थसंदृष्टि का अर्थ-विधान लिखेंगे तहां जानना । इहां प्रयोजन मात्र कथन करिए है । अाग भी जहां अर्थसंदृष्टि होय, ताका अर्थ वा विधान प्राग संदृष्टि अधिकार विर्षे ही देख लेना । जायगा-जायगा संदृष्टि का अर्थ लिखने से ग्रंथ प्रचुर होइ, अर कठिन 'होइ; तातें न लिखिए हैं । सो इहां त्रिकालवर्ती नाना जीव संबंधी समस्त अध:प्रवृत्तकरण के परिणाम असंख्यात लोकमात्र हैं; सो सर्वधन जानना । बहुरि अंध:
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| गोम्मटसार जीवा गावा
प्रवृत्तकरण का काल अंतर्मुहूर्तमात्र, ताके जेते समय होंइ, सो इहां गच्छ जानना । बहुरि सर्वधन कौं गच्छ का वर्ग करि, ताका भाग दीजिए । बहुरि यथासंभव संख्यात का भाग दीजिए, जो प्रमाण आवै सो ऊर्ध्वचय जानना | बहुरि एक घाटि गच्छ का श्राधा प्रमाण करि चय की गुणि, बहुरि गच्छ का प्रमाण करि गुणै जो प्रमाण यावे, सो उत्तरधन जानना । बहुरि इस उत्तरघन को सर्वधन विषै घटाइ अवशेष कौं ऊर्ध्वच्छ का भाग दीए, त्रिकालवर्ती समस्त जीवति का अधःप्रवृत्तकरण काल के प्रथम समय विषे संभवते परिणामनि का पुंज का प्रमाण हो है । बहुरि याके दि एक उर्ध्व चय जोड़ें, द्वितीय समय संबंधी नाना जोवनि के समस्त परिणामनि के पुंज का प्रमाण हो है । जैसे ही ऊपर भी समय-समय प्रति एक-एक ऊर्ध्वचय जोड़ें, परिणाम पुंज का प्रमाण जानना ।
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तहां प्रथम समय संबंधी परिणाम पुंज विषै एक घाटि गच्छ प्रमाण चय जोडें अंत समय संबंधी नाना जीवनि के समस्त परिणामनि के पुंज का प्रसारण हो है; सो ही कहिए है - 'व्येकं पदं वयास्यस्तं तत्साद्यंतधनं भवेत्' इस करण सूत्र करि एक घाटि गच्छ का प्रमाण करि चय को गुण जो प्रमाण होइ, ताकी प्रथम समय संबंधी परिणाम पुंज प्रमारण विषं जोडें, अंत समय संबंधी परिणाम पुंज का प्रमाण हो है । बहुरि या विषै एक चयं घटाए, द्विचरम समयवर्ती नाना जीव संबंधी समस्त विशुद्ध परिणाम पुंज का प्रमाण हो है । मैसें ऊर्ध्वरचना जो ऊपर-ऊपरि रचना, तीहि विषे समय-समय संबंधी अधः प्रवृत्तकरण के परिणाम पुंज का प्रमाण कला ।
भावार्थ - आगे कषायाधिकार विषै विशुद्ध परिणामनि की संख्या कहेंगे, तिस विषै अधःकरण विषै संभवते शुभलेश्यामय संज्वलन कषाय का देशघाती स्पर्धकनि का उदय संयुक्त विशुद्ध परिणामनि की संख्या त्रिकालवर्ती नाना जीवनि के प्रसंख्यात लोकमात्र है । तिनि विषे जिनि जीवनि क अधः प्रवृत्तकरण मांडे पहला समय त्रिका संबंधी अनेक जीवनि के जे परिणाम संभवें, तिनिके समूह को प्रथम समय परिणाम पुंज कहिए। बहुरि जिनि जीवनि को श्रधःकरण भांड, दूसरा समय भया, जैसे त्रिकाल संबंधी अनेक जीवनि के जे परिणाम संभव, तिनिके समूह. कौं द्वितीय समय परिणाम पुंज कहिए । असें ही क्रम में अन्त समय पर्यंत जानना ।
तहां प्रथमादि समय संबंधी परिणाम पुंज का प्रमाण श्रेणी व्यवहार गणित का विधान करि जुदा-जुदा कला, सो सर्वसमय संबंधी परिणाम पुंजनि क जोडें
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सम्यग्ज्ञानन्दिका भाषाटीका ]
असंख्यात लोक मात्र प्रमाण होइ है। बहुरि इन अधःप्रवृत्त करण काल का प्रथमादि समय संबंधी परिणामनि विर्षे त्रिकालवर्ती नाना जीव संबन्धी प्रथम समय के जघन्य मध्यम, उत्कृष्ट भेद लीएं जो परिणाम पुंज कह्या, ताके अधःप्रवृत्तकरण काल के जेते समय, तिनको संख्यात का भाग दीएं जेता प्रमाण आवे, तितना खंड करिए । ते खंड निर्वर्गणा कांड के जेते समय, तितने हो हैं । वर्गणा कहिए समयनि की समानता, तीहिकरि रहित जे ऊपरि-ऊपरि समयवर्ती परिणाम खंड, तिनका जो कांडक कहिए पर्व प्रमाण; सो निर्वर्गरणा कांडक है । तिनिके समयनि का जो प्रमाण सो अधःप्रवृत्तकरण कालरूप जो ऊध्र्वगन्छ, ताके संख्यातवे भागमात्र हैं, सो यह प्रमाण अनुकृष्टि के गच्छ का जानना । इस अनुकृष्टि गच्छ प्रमाण एक-एक समय संबंधी परिसामगि विर्य खंड हो है । बहुरि । संड एक-एक अनुकृष्टि चय करि अधिक हैं । तहां ऊवं रचना विर्षे जो चय का प्रमाण कह्या, ताको अनुकृष्टि गच्छ का भाग दीए जो पाइए; सो अनुकृष्टि के चय का प्रमाण है।
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बहुरि 'व्येकपदाधनत्रयगुणो गच्छ उत्तरधन' इस सूत्र. करि एक घाटि अनुकृष्टि के गच्छ का प्राधा प्रमाण की अनुकृष्टि चय करि गुणी, बहुरि अनुकृष्टि गच्छ करि गुणें जो प्रमाण होइ; सो अनुकृष्टि का चयधन हो है । याकौं ऊर्ध्व रचना विषं जो प्रथम समय संबंधी समस्त परिणाम पुंज का प्रमाणरूप सर्वधन,. तीहि विष घटाइ, अवशेष जो रहै, ताकौं अनुकृष्टि गच्छ का भाग दीएं जो प्रमाण होइ; सोई प्रथम समय संबंधी प्रथम खंड का प्रमाण है । बहुरि या विर्षे एक अनुकृष्टि चय कौं जोडे, प्रथम समय सम्बन्धी समस्त परिणामनि के द्वितीय खंड का प्रमाण हो है । अस ही तृतीयादिक खंड एक-एक. अनुकृष्टि चय. करि अधिक अपने अंत खंड पर्यन्त क्रम से स्थापन करने ।
.. तहां अनुकृष्टि का प्रथम खंड विर्षे एक घाटि अनुकृष्टि गच्छ का प्रमाण अनुकृष्टि चय जो. जो प्रमाण होइ, सोई अंत खंड का प्रमाण जानना । यामै एक अनुकूष्टि नय घटाएं, प्रथम समय संबंधी द्विचरम खंड का प्रमाण हो है । असे प्रथम समय संबंधी परिणाम पुंजरूप खंड संख्यात प्रावली प्रमाण हैं, ते कम ते जानने। इहां तीन बार संख्यात करि मुरिगत आयली प्रमाण जो अध:करण को काल, ताके संख्यातवे भाग खंडनि का प्रमाण, सो दोइ बार संख्यात करि गुंरिणतं प्रायली प्रमाण है, जैसा जानना !
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[ गोम्मटसार जीवकाम गाथा ४६ बहुरि द्वितीय समय संबंधी परिणाम पुंज का प्रथम खंड है, सो प्रथम समय संबंधी प्रथम खंड ते अनुकृष्टि चय करि अधिक है। काहे त ? जात द्वितीय समय संबंधी समस्त परिणाम पुंजरूप जो सर्वधम, तामै पूर्वोक्त प्रमाण अनुकृष्टि का चयधन-घटाएं अवशेष रहै, ताकौं अनुकृष्टि का भाग दीएं, सो प्रथम खंड सिद्ध हो है । बहुरि इस द्वितीय समय का प्रथम खंड विर्षे एक अनुकृष्टि चय कौं जो., द्वितीय समय संबंधी परिणामानि का द्वितीय खंड का प्रमाण हो है । ऐसे तृतीयादिक खंड एक-एक अनुष्टि चय करि अधिक स्थापन करने । तहां एक घाटि अनुष्टि गच्छ प्रमाण चय द्वितीय समय परिणाम का प्रथम खंड विर्षे जोड़ें, द्वितीय समय संबंधी अंत खंड का प्रमाण हो है। यामैं एक अनुकृष्टि चय घटाएं द्वितीय समय संबंधी द्विचरम खंड का प्रमाण हो है । बहुरि इहां द्वितीय समय का प्रथम खंड पर प्रथम समय का द्वितीय खंड, ए दोऊ समान हैं । तैसे ही द्वितीय समय का द्वितीयादि खंड अर प्रथम समय का तृतीयादि खण्ड दोज समान हो हैं । इतना विशेष द्वितीय समय का अंत खंड, सो प्रथम समय का खंडनि विर्षे किसीही करि समान नाहीं । बहुरि बाके आगे ऊपरि तृतीयादि समयनि विर्षे अनुकृष्टि का प्रथमादिक खंड, ते नीचला समय सम्बन्धी प्रथमादि अनुकृष्टि खंडनि तें एक-एक अनुकृष्टि चय करि अधिक हैं । असें अधःप्रवत्तकरण काल का अंत समय पर्यन्त जानने । तहां अन्त समय का समस्त परिणामरूप सर्वधन विर्षे अनुकृष्टि का चयधन कौं घटाई, अवशेष कौं अनुकृष्टि गच्छ का भाग दीएं, अंत समय सम्बन्धी परिणाम का प्रथम अनुकृष्टि खंड हो है । यामै एक अनुष्टि चय जोडें, अंत समय का द्वितीय अनुकृष्टि खंड हो हैं । अस तृतीयादि खण्ड एक-एक अनुकृष्टि चय करि अधिक जानने। तहां एक घाटि अनुकृष्टि गच्छ प्रमाण अनुकृष्टि पय अन्त समय सम्बन्धी परिणाम का प्रथम खण्ड विर्षे जोडै, अंत समय सम्बन्धी अंत अनुकृष्टि खण्ड के परिणाम पुंज का प्रमाण हो है । बहुरि यामैं एक अनुकृष्टि चय घटाएं, अन्त समय सम्बन्धी द्विचरम. खण्ड के परिणाम पुंज का .प्रमाण हो है । जैसे अंत समय संबंधी अनुकृष्टि खड. ले अनुकृष्टि के गच्छ प्रमाण हैं ; ते बरोबरि भागे-आगे क्रम ते स्थापने । बहुरि अंत समय संबंधी अनुकृष्टि का प्रथम खंड विर्षे एक अनुकृष्टि चय घटाएं, अवशेष द्विचरम समय संबंधी प्रथम खंड का परिणाम पुंज का प्रमाण हो है । बहुरि यामें एक अनुष्टि चय जोडे, द्विचरम समय संबंधी द्वितीय खंड का परिणाम पुंज हो है। बहुरि जैसे ही तृतीयादि खंड एक-एक चय अधिक जानने । तहां एक घाटि अनुष्टि गच्छ प्रमाण अनुकृष्टि चय द्वि चरम
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सम्यशानचन्द्रिका भाषाका ]
[ १४५
समय संबंधी परिणाम का प्रथम खण्ड विर्षे जोडै, द्विचरम समय संबंधी अनुकृष्टि का अंत खंड का परिणाम पुज का प्रमाण हो है । बहुरि यामै एक अनुकृष्टि चय घटाएं, तिस ही द्विचरम समय का द्विचरम खंड का प्रमाण हो है । असे अधःप्रवृत्तकरण के काल का द्विचरम समय संबंधी अनुकृष्टि खंड, ते अनुकृष्टि का गच्छप्रमाण हैं, ते क्रम ते एक-एक चय अधिक स्थापन करने । असे तिर्यक्रचना जो बरोबर रचना, तीहि विर्षे एक-एक समय संबंधी खंडनि विर्षे परिणामनि का प्रमाण कहा।
भावार्थ - पूर्व प्रध:करण का एक-एक समय विषं संभवते नाना जीवनि के परिणामनि का प्रमाण कहा था । अब तिस विर्षे जुदे जुदे संभवते असे एक-एक समय संबंधी खंडनि विर्षे परिणामनि का प्रमाण इहां कहा है । सो ऊपरि के अर नीचे के समय संबंधी खंडनि विर्षे परस्पर समानता पाइए है । तातें अनुकृष्टि असा नाम इहां संभव है। जितनी संख्या लीयें ऊपरि के समय विषं परिणाम खड हो हैं, तितनी संख्या लीये नीचले समय विर्षे भी परिणाम खण्ड होइ हैं। जैसे नीचले समय संबंधी परिणाम खंड से ऊपरि के समय संबंधी परिणाम खण्ड विर्षे समानता जानि इसका नाम अधःप्रवृत्तकरण कह्या है ।
बहुरि इहां विशेष है, सो कहिए है। प्रथम समय संबंधी अनुकृष्टि का प्रथम खण्ड, सो सर्व से जघन्य खण्ड है; जाते सर्वखण्ड नि ते याकी संख्या पाटि है । बहुरि अंतसमय संबंधी अंत का अनुकृष्टि खण्ड, सो सर्वोत्कृष्ट है; जाते याकी संख्या सर्व खण्डनि तें अधिक है; सो इन दोऊनि के कहीं अन्य खण्ड करि समानता "नाही है । बहुरि अवशेष ऊपरि समय संबंधी खण्डनि के नीचले समय संबंधी खण्ड नि सहित अथवा नीचले समय संबंधी खण्ड नि के ऊपरि समय संबंधी खण्डनि सहित यथासंभव समानता है। तहां द्वितीय समय तें लगाय विचरम समय पर्यंत जे समय, लिनका पहला-पहला खण्ड पर अंत समय का प्रथम खण्ड से लगाइ द्विचरम खण्ड । पर्यंत खण्ड, ते अपने-अपने ऊपरि के समय संबंधी खंडनि करि समान नाहीं हैं । तरत
संदेश हैं, सो द्वितीयादि द्विचरम पर्यन्त समय संबंधी प्रथम खण्डनि की ऊर्ध्वरचना कीए । अर ऊपरि अंत समय के प्रथमादि द्विचरम पर्यन्त खण्डनि की तिर्यक् रचना कीए अंकुश के प्राकार रचना हो है। ताते याकौं अंकुश रचना कहिए ।
यह पक संदेष्टि ५४ ५३ ५२ ५१ ५० ४६ ४८४ ४६ ४५ ४४ ४३ ४२ ४१ 7.1
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१४६ ]
[ गोम्मटसार नौयकाण्ड गाथा ४६
बहुरि द्वितीय समय तें लगाइ द्विचरम समय पर्यंत समय संबंधी अंत - अंत के खण्ड पर प्रथम समय संबंधी प्रथम खंड बिना अन्य सर्व खण्ड, ते अपने-अपने नीचले समय संबंधी किसी हो खण्डनि करि समान नाहीं, तातें असदृश हैं । सो इहां द्वितीयादि द्विचरम पर्यंत समय संबंधी अंत अंत खण्डनि की ऊर्ध्वरचना कीएं अर नीचे प्रथम समय के द्वितीयादि अंत पर्यंत खण्डति की तिर्यक्रचना कीएं हल के श्राकार रचना हो है । तातें याक लांगल रचना कहिए !
यह अंक ट
अपेक्षा लांगल
रचना
४. १
५६५५ ५४ ५३ ५२ ५१५० ४६ ४६ ४७ ४६ ४५४४४३४२
बहुरि जघन्य उत्कृष्ट खंड पर ऊपर नीचे समय संबंधी खण्डनि की अपेक्षा कहे असदृश खण्ड, तिनि खंडनि विनां प्रवशेष - सर्व खण्ड अपने ऊपर के अर नीचले समय संबंधी खण्डनि करि यथासंभव समान जानने ।
or faar के
विभागप्रतिच्छेदनि की अपेक्षा वर्णन करिए हैं। जाका दूसरा भाग न होइ - जैसा शक्ति का अंश, ताका नाम अविभागप्रतिच्छेद जानना । तिनको अपेक्षा गणना कर पूर्वोक्त प्रवःकरण के खंडनि विषै अल्पबहुत्वरूप वर्णन करे हैं। हां अधःप्रवृत्तकरण के परिणामनि विषै प्रथम समय संबंधी जे परिणाम, तिनके खंडनि विषै जे प्रथम खंड के परिणाम, ते सामान्यपर्ने असंख्यात लोकमात्र हैं । तथापि पूर्वोक्त विधान के अनुसारि स्थापि, भाज्य भागहार का यथासंभव पवर्तन किये, संख्यात प्रतरावली का जाकी भाग दीजिये, ऐसा असंख्यात लोक मात्र है | ते ए परिणाम अविभागप्रतिच्छेदनि को अपेक्षा जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद लिये हैं । तहां एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का घन करि तिसही . का वर्ग को गुणै जो प्रमाण होइ, तितने परिणामनि विषै जो एक बार मदुस्थान होइ, तो संख्यात प्रतरावली भक्त असंख्यात लोक प्रमाण प्रथम समय संबंधी प्रथम खंड के परिणामतिविषै केती बार षट्स्थान होइ ? ऐसे त्रैराशिक करि पाए हुए असंख्यात लोक वार षट्स्थाननि को प्राप्त जो विशुद्धता की वृद्धि, तींहि करि वर्धमान हैं ।
.
भावार्थ - यारी ज्ञानमार्गणा विषै पर्याय समास श्रुतज्ञान का वर्णन करतें जैसे अनंतभाग वृद्धि श्रादि षट्स्थानपतित वृद्धि का अनुक्रम कहेंगे, तैसे इहां प्रथः प्रवृत्तकरण सम्बन्धी विशुद्धतारूप कषाय परिणामनि विषे भी अनुक्रम तं श्रनन्तभाग,
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१४८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४६ उत्कृष्ट परिणामनि की विशुद्धता अनंतगुणी-अनंतगुणी अंत के खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त प्रवतें है ।
बहुरि प्रथम समय संबंधी प्रथम खण्ड का उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता ते द्वितीय समय के प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनंतगणी है । तातें तिस ही को उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी हे ।
बहुरि तातै द्वितीय खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है । ताते तिस ही की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है । ऐसें तृतीयादि खण्डनि विर्षे भी जघन्य उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणा अनुक्रम करि द्वितीय समय का अंत का लण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त प्राप्त हो है । बहुरि इस ही मार्ग करि तृतीयादि समयनि विर्ष भी पूर्वोक्त लक्षणयुक्त जो निर्वर्गणाकोडक, ताका द्विचरम समय पर्यन्त जघन्य उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणा अनुक्रम करि ल्यावनी।
बहुरि निर्वर्गणाकाण्डक का अंत समय संबंधी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता ते प्रथम समय का अंत हण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है । तातें दूसरा निर्वर्गणाकांडक का प्रथम समय संबंधी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है । ताते तिस प्रथम निर्वर्गणाकांडक का द्वितीय समय संबंधी अंत के खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है । तातें द्वितीय निवर्गणाकांडक का द्वितीय समय संबंधी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम
- MAMA
जघन्य
(उत्कृष्ट
४३
४१
उत्कृष्ट
जवन्य
उत्कृष्ट
१- भाषाटीका में सर्प का श्राकार बनाकर बीच में जघन्य उत्कृष्ट तीन-तीन बार लिखकर संदृष्टि
लिखी है, परंतु मंदाबोधिका में इस प्रकार है।
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मम्याजानन्तिका भाषाटीका 1
[१४६
विशुद्धता अनंतगुणी है । तातै प्रथम निर्वर्गणाकांडक का तृतीय समय संबंधी उत्कृष्ट खण्ड की उत्कृष्ट विशुद्धता अनंतगुणी हैं । या प्रकार जैसैं सर्प की चाल इधर तें ऊधार, ऊधर से इधर पलटनिरूप हो है ; तैसे जघन्य तें उत्कृष्ट, उत्कृष्ट से जघन्य असे पलटानि विर्षे अनंतगणी अनुक्रम करि विशुद्धता प्राप्त करिए, पीछे अंत का निर्वर्गणाकांडक का अंत समय संबंधी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनंतानंतगुरणी है । काहै त ? जात पूर्व-पूर्व विशुद्धता से अनंतानंतगुणापनौं सिद्ध है। बहुरि ताते अंत का निवर्गणाकांडक का प्रथम समय संबंधी उत्कृष्ट खण्ड की परिणाम विशुद्धता अनंतगुराणी है। तातै ताके ऊपरि अंत का निर्वर्गणाकांडक का अंत समय संबंधी अंत खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त उत्कृष्ट खण्ड की
उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतानंतगुणा अनुक्रम करि प्राप्त हो है । तिनि विर्षे जे , जघन्य तै उत्कृष्ट परिणामनि की विशुद्धता अनंतानंतगुणी है, ते इहां विवक्षारूप नाहीं है; असा जानना ।
या प्रकार विशुद्धता विशेष धरै जे अधःप्रवृत्तकरण के परिणाम, तिनि विर्षे गुणश्रेणिनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिकांडकोत्करण, अनुभागकांडकोत्करण भए च्यारि आवश्यक न संभवे हैं । जाते तिस अधःकरण के परिणामनि के तैसा गुणश्रेरिण निर्जरा आदि कार्य करने की समर्थता का अभाव है। इनका स्वरूप प्राग अपूर्वकरह के कथन विर्षे लिखेंगे ।
तौं इस करण विर्षे कहा हो है ? .. केवल प्रथम समय तें लगाइ समय-समय प्रति अनंतगुणी-अनंतगुरपी विशुद्धता की वृद्धि हो है । बहुरि स्थितिबंधापसरण हो है । पूर्वे जेता प्रमाण लीए कर्मनि का स्थितिबंध होता था, तातें घटाइ-घटाइ स्थितिबंध करै है । बहुरि साता घेदनीय कौं आदि देकरि प्रशस्त कर्मप्रकृतिनि का समय-समय प्रति अनंतगुरणा-अनंतगुणा बधता गुड, खंड, शर्करा, अमृत समान चतुस्थान लीए अनुभाग बंध हो है । बहुरि असाता वेदनीय आदि अप्रशस्त कर्म प्रकृतिनि का समय-समय प्रति अनंतगुणाअनंतगुरणा पटता निंब, कांजीर समान द्विस्थान लीए अनुभाग बंध हो है, विषहलाहल रूप न हो है । जैसें च्यारि आवश्यक इहां संभवें हैं । अवश्य हो हैं, ताते इनिकों आवश्यक कहिए है।
बहुरि असे यह कहा जो अर्थ, ताकी रचना अंकसंदृष्टि अपेक्षा लिखिए है ।
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१५० ]
[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा ४६
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२०६
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HARARIA
अंकसंदृष्टि अपेक्षा अघ:करण,
अर्थसंदृष्टि अपेक्षा रचना है, सो रचना
आगे संदृष्टि अधिकार विर्षे लिखेंगे । सोलह. सम- अनुकृष्टिरूप एक-एक समय
तया. याका यह अभिप्राय है - एक यनि की संबंधी च्यारि-यारि संडनि ऊवं रचना की तिर्यक रचना
जीव एकै काल असा कहिए, तहां प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ विवक्षित अधःप्रवृतकरण का परिणामखंड खंड खंड
रूप परिणया जो एक जीव, ताका २२२
परमार्थवृत्ति करि वर्तमान अपेक्षा काल एक समय मात्र ही है; ताते एक जीव का एक काल सस्य प्रमाण जानना।
बहुरि एक जीव नानाकाल' जैसा कहिए, २१. !
तहां अधःप्रवृत्तकरण का नानाकालरूप अंतर्मुहुर्त के समय. ते अनुक्रम ते एक. जीव करि चढिए है; यात एक जीव
का नानाकाल अंतर्मुहूर्त का समय मात्र १६. ४८
है । बहुरि नानाजीवनि का एक काल असा कहिए, तहां विवक्षित एक समय अपेक्षा
अधःप्रवृत्तकाल के असंख्यात समय हैं, १९०
तथापि तिनिविर्षे यथासंभव एक सौ
आठ समयरूप में स्थान, तिनिविष १८२
संग्रहरूप जीवनि की विवक्षा करि एक काल है; जातें वर्तमान एक कोई समय
विर्षे अनेक जीव हैं, ते पहिला, दूसरा, १७४
तीसरा आदि अधःकरण के असंख्यात १७० । ४१ ।
समयनि विर्षे यथासंभव एक सौ आठ समय विर्षे ही प्रवर्तते पाइए है। ताते अनेक जीवनि का. एक काल एक सौ
पाठ समय प्रमाण है । बहुरि नानाजीव, नानाकाल असा कहिए; तहां अधःप्रवृत्तकरण के परिणाम असंख्यात लोकमात्र हैं, ते त्रिकालवर्ती अनेक जीव संबंधी हैं । बहुरि जिस परिणाम कौं कह्या, तिसकों
१८६
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यह अंक संदृष्टि अपेक्षा 'व्येकपदामचयगुरणो गच्छ उत्तरधन' इस सूत्र की वासना कहने कौं रचना है ।
सर्व स्थानकात विर्षे प्रादि का प्रमा
सर्वस्थामकनि विर्षे समानरूप कोएं चयनि की रचना इहां च्यारि-च्यारि तो एक-एक चय का प्रमाण, प्रामें दोय प्राधा चय का प्रमाण जानना
ऊपरि सभयवर्ती चयकादि बीमले समय स्यान विर्षे स्थापे, तिनकी रचना
२६२
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१६२
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१६२
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इनको जोड़े उत्तरधन
४८.
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२५९२
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सम्याशानचन्धिका भावाटीका ]
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बहुरि एक स्थान विषे सरडा सात जय का प्रमाण होइ, तो सोलह स्थानकनि विषं केते चय हो हैं ? ऐसे राशिक करि प्रमाण राशि एक स्थान, फलराशि साडा सात चय, तिनिका प्रमाण तीस, इच्छाराशि सोलह स्थान, तहां फल कौ इच्छा करि मुरिण, प्रमाण का भाग दिये लन्धराशि च्यारि से असी पूर्वोक्त उत्तरधन का प्रमाण आव है । ऐसे ही अनुकृष्टि विर्षे भी अंकसंदृष्टि करि प्ररूपण करना।
बहुरि याही प्रकार अर्थसंदृष्टि करि भी सत्यार्थरूप साधन करना । ऐसे 'ध्येकपदार्वघ्नचयगुणो गच्छ उत्तरधन' इस सूत्र की वासना बीजगणित करि दिखाई। बहुरि अन्य करण सूत्रनि की भी यथासंभव बीजगणित करि वासना जानना ।
ऐसें अप्रमत्त गुणस्थान की व्याख्यान करि याके अनन्तर अपूर्वकरण मुणस्थान की कहै हैं -
अंतोमहत्तकालं, गमिऊण अधापवत्तकरणं तं । पडिसमयं सुज्झतो, अपुन्दकरणं समल्लिया ॥५०॥ अंतर्मुहूर्तकालं, गयित्वा अधःप्रवृत्तकरणं तत् ।
प्रतिसमयं शुध्दचन् अपूर्वकरणं समाश्रयति ॥५०॥ टीका - ऐसे अंतमुहर्तकाल प्रमाण पूर्वोक्त लक्षण धरै अधःप्रवृत्तकरण कौं गमाइ, विशुद्ध संयमी होइ, समय-समय प्रति अनन्तगुणी विशुद्धता की वृद्धि करि बधता संता अपूर्वकरण गुणस्थान कौं आश्रय करै है ।
एवह्मिा गुणट्ठाणे, विसरिस समयट्ठियहिं जीवहिं । पुन्वमपत्ता जह्मा, होति अपुब्वा हु परिणामा ॥५१॥ __ एतस्मिन् गुणस्थाने, विसदृशसमयस्थितैर्जीवः ।
पूर्वमप्राप्ता यस्माङ्, भवंति अपूर्वा हि परिणामाः ॥५१॥ टीका - जा कारण ते इस अपूर्वकरण गुणस्थान विषं विसदश कहिए समानरूप नाहीं, ऐसें जे ऊपरि-ऊपरि के समयनि विर्षे तिष्ठते जीवनि करि जे विशुद्ध परिणाम पाइए हैं; ते पूर्व-पूर्व समयनि विर्षे किसी ही जीव करि त पाये
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।
षट्वंधामम-धवला.पुस्सक १, पृष्ठ १६८, गाा ११७
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man.
१५४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५१.५२ ऐसे हैं; ताकारण तें अपूर्व है करण कहिए परिणाम जा विर्षे, सो अपूर्वकरण गुणस्थान है - ऐसा निरुक्ति करि लक्षरण कहा है ।
भिण्णसमठियहि दु, जीबेहि रण होदि सम्बदा सरिसो। करणेहि एक्कसमयट्ठियोह सरिसो विसरिसो वा ॥५२॥ १ भिन्नसमयस्थितैस्सु, जीवन भवति सर्वदा सादृश्यम् ।
करणैरेकसमयस्थितैः सादृश्यं वैसाश्यं वा ॥५२॥
टीका - जैसें अध:प्रवृत्तकरण विर्षे भिन्न-भिन्न ऊपरि नीचे के समयनि विर्षे तिष्ठते जीवनि के परिणामनि की संख्या पर विशुद्धता समान संभव है; तैसें इहां अपूर्वकरण मुणस्थान विर्षे सर्वकाल विर्षे भी कोई ही जीव के सो समानता न संभव है । बहुरि एक समय विषं स्थित करण के परिणाम, तिनके मध्य विवक्षित एक परिणाम की अपेक्षा समानता अर नाना परिणाम की अपेक्षा असमानता जीवनि के अध:करणवत् इहां भी संभव है, नियम नाहीं; असा जानना ।
भावार्थ - इस अपूर्वकरण विर्षे ऊपरि के समयवर्ती जीवनि के अर नीचले समयवर्ती जीवनि के समान परिणाम कदाचित् न होइ । बहुरि एक समयवर्ती जीवनि के तिस समय संबंधी परिणामनि वि परस्पर समान भी होइ पर समान नाहीं भी होइ ।
ताका उदाहरण - जैसे जिनि जीवनि की अपूर्वकरण मांडै पांचवां समय भया, तहां तिन जीवनि के जैसे परिणाम होंहि, तैसे परिणाम जिन जीवनि की अपूर्वकरण मां. प्रथमादि चतुर्थ समय पर्यन्त का षष्ठमादि अंत समय पर्यन्त भए होंहि, तिनके कदाचित् न होंइ, यह नियम है। बहुरि जिनि जीवनि की अपूर्वकरण मांडै पांचवई समय भया, असे अनेक जीवनि के परिणाम परस्पर समान भी होंइ, जैसा एक जीव का परिणाम होइ, तैसा अन्य का भी होइ अथवा असमान भी होइ । एक जीव का.औरसा परिणाम होइ, एक जीव का औरसा परिणाम होइ । जैसे ही अन्य-अन्य समयवर्ती जीवनि के तो जैसें अधःकरण विर्षे परस्पर समानता भी. थी, तैसें. इहां नाहीं है । बहुरि एक समयवर्ती जीवनि के जैसे अधःकरण विर्षे
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१.पटसंडागम बनला पुस्तक १, पृष्ठ १४, माथा न. ११६.
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सम्यग् चन्द्रिका भावाटीका ]
| १५५
साना वा असमानता थी; तैसे इहां भी है। या प्रकार त्रिकालवर्ती नाना जीवनि के परिणाम इस अपूर्वकरण विषै प्रवर्तते जानने
तोमुत्तमेते, पडिसमयमसंखलोगपरिणामा | कमउड्ढा पुव्वगुरणे, अणुकट्ठी रात्थिरियमेण ॥५३॥
अंतर्मुहूर्तमात्र प्रतिसमयमसंख्य लोकपरिणामाः । क्रमवृद्धा अपूर्वपुणे, अनुकृष्टिर्नास्ति नियमेन ॥५३॥
टीका - अंतर्मुहूर्तमात्र जो अपूर्वकरण का काल, तीहिं विषं समय-समय प्रति क्रम तें एक-एक चय बघता असंख्यात लोकमात्र परिणाम है । तहां नियम करि पूर्वापर समय संबंधी परिणामनि के समानता का अभाव अनुकृष्टि विधान नाहीं है ।
इहां भी अंक संदृष्टि करि दृष्टांतमात्र प्रमाण कल्पना करि रचना का अनुक्रम दिखाइये है | पूर्वकरण के परिणाम च्यारि हजार छिनवै, सो सर्वधन है । बहुरि पूर्वकरण का काल आठ समय मात्र, सो गच्छ है । बहुरि संख्यात का प्रमाण च्यारि ( ४ ) है । सो 'पदक दिसंखेख भाजिने पचयो होदि' इस सूत्र करि गच्छ का वर्ग ६४ र संख्यात व्यारि का भाग सर्वेधन ४०६६ कौं दीए चय होइ, ताका प्रमाण सोलह भया । बहुरि 'व्येकपदार्धनचयगुणो गच्छ उत्तरधनं' इस सूत्र करि एक पाटि गच्छ ७, ताका आधा ७ को चय १६ करि गुरौं जो प्रमाण
५६. होय, ताका गच्छ ( 5 ) आठ करि गुणै चय धन च्यारि से अड़तालीस (४४८ ) हो । या सर्वधन ४०६६ में घटाइ, अवशेष ३६४८ को गच्छ आठ (८) का भाग : दी, प्रथम समय संबंधी परिणाम व्यारि से छप्पन ( ४५६ ) हो हैं । यामैं एक चय १६ मिलाएं द्वितीय समय संबंधी हो है । असें तृतीयादि समयनि विषै एक-एक चय बघता परिणाम पुंज है, तहां एक घाटि गच्छ मात्र चय का प्रमाण एक सौ बारह, सो. प्रथम समय संबंधी धन विषं जोड़ें, अंत समय संबंधी परिणाम पुंज पांच से अडसठ हो है ! यामैं एक चय घटाएं द्विचरम समय संबंधी परिणाम पुंज पांच से बावन हो है । जैसे ही एक चय वढाए आठों गच्छ को प्रमाण जानना ।
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[ गोम्मटसर काण्ड गाथा ५३
अब यथार्थ कथन करिये है । तहां अर्थसंदृष्टि करि रचना है, सो ग्रामै संदृष्टि अधिकार विषै लिखेंगे । सो त्रिकालवर्ती नाना जीव संबंधी पूर्वकरण के विशुद्धतारूप परिणाम, ते सर्व ही अधःप्रवृत्तकरण के जेते परिणाम हैं, तिनतें प्रसंख्यात लोक गुणे हैं । काहे तें ? जातें अःप्रवृत्तकरण काल का अंत समय संबंधी जे विशुद्ध परिणाम हैं, तिनका पूर्वकरण काल का प्रथम समय विषं प्रत्येक एक-एक परिणाम के असंख्यात लोक प्रमाण भेनि की उत्पत्ति का सद्भाव है । तातें अपूर्वकरण का सर्व परिणामरूप सर्वधन, सो असंख्यात लोक क असंख्यात लोक करि गुणे जो प्रमाण होइ, तिना है; सो सर्वधन जानना । बहुरि ताका काल अलमुहूर्तमात्र है; ताके जेते समय, सो गच्छ जानना | बहुरि 'पदकदिसंखेख भांजियं पचर्य' इस सूत्र करि गच्छ का वर्ग का र संख्यात का भाग सर्वधन को दीए जो प्रमाण होइ; सोच जानना | बहुरि 'स्येकपदार्थघ्नचयमुखो गच्छ उत्तरधनं' इस सूत्र करि एक घाटि गच्छ का याचा प्रमाण करि चय को गुणि गच्छ को गुणै जो प्रमाण होइ, सो व धन जानना । या सर्वधन विषै घटाइ अवशेष कौं गच्छ का भाग दीएं जो प्रमाण आवै, सोई प्रथम समयवर्ती त्रिकाल गोचर नाना जीव संबंधी अपूर्व करण परिणाम का प्रमाण हो है। बहुरि यामैं एक चय जोड़ें, द्वितीय समयवर्ती नाना जीव संबंधी पूर्वकरण परिणामनि का पुंज प्रमाण हो है । ऐसें ही तृतीयादि समयनि विषै एक-एक चय की वृद्धि का अनुक्रम करि परिणाम पुंज का प्रमाण ल्याएं संत अंत समय विषं परिणाम धन है। सो एक घाटि गच्छ का प्रमाण चयन कौं प्रथम समय संबंधी धन विषे जोडें जितना प्रमाण होइ, तितना हो है । बहुरि यामै एक चय घटाएं, द्विचरम समयवर्ती नाना जीव संबंधी विशुद्ध परिणामनि का पुंज प्रमाण हो है । ऐसें समय-समय संबंधी परिणाम क्रम तैं बधते जानने ।
४६६६
१५६ ]
triste अपेक्षा समय- समयसंबंधी अपूर्व करण परिणाम रचना
५६८
५५२
५३६
५.२०
૪
४८८
४७२
४५६
सर्व परिणाम जोड
बहुरि इस पूर्वकरण गुणस्थान विषै पूर्वोत्तर समय संबंधी परिणामनि के सदा ही समानता का प्रभाव है; तातें इहां खंडरूप अनुकृष्टि रचना नाहीं है ।
भावार्थ - श्रागें कषायाधिकार विषं शुक्ल लेश्या संबंधी विशुद्ध परिणामनि का प्रमाण कहेंगे । तिसविषै इहां अपूर्वकरण विषे संभवते जे परिणाम, तिनिविष
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सम्यग्ज्ञानद्रिका भाषादीका अपूर्वकरण काल का प्रथमादि समयनि विर्षे जेते-जेते परिणाम संभवं, तिनका प्रमाण कह्या है । बहुरि इहां पूर्वापर विर्षे समानता का अभाव है ; ताते खंड करि अनुकृष्टि विधान न कह्या है । बहुरि इस अपूर्वकरण काल विर्षे प्रथमादिक अंत समय पर्यंत स्थित जे परिणाम स्थान, ते पूर्वोक्त विधान करि असंख्यात लोक बार षट्स्थान पतित वृद्धि कौं लीएं जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद संयुक्त हैं । तिनका समय-समय प्रति पर परिणाम-परिणाम प्रति विशुद्धता का अविभागप्रतिच्छेदनि का प्रमाण अवधारणे के अथि अल्पबहुत्य कहिए हैं।
तहां प्रथम समयवर्ती सर्वजघन्य परिणाम विशुद्धता, सो अधःप्रवृत्तकरण का अंत समय संबंधी अंत खंड की उत्कृष्ट विशुद्धता तें भी अनंतगुणा अविभागप्रतिच्छेदमयी है, तथापि अन्य अपूर्वकरण के परिणामनि की विशुद्धता तें स्तोक है। बहुरि तातै प्रथम समयवर्ती उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतमुरगी है। बहुरि ताते द्वितीय समयवर्ती जघन्य परिणाम विशुद्धता अनंतगुरंगी है। जाते प्रथम समय उत्कृष्ट विशुद्धता ते असंख्यात लोक मात्र बार षट्स्थानपतित वृद्धिरूप अंतराल करि सो द्वितीय समयवर्ती जघन्य विशुद्धता उपजे है। बहुरि तातै तिस द्वितीय समयवती उत्कृष्ट विशुद्धता अनंतगुणी है। भैंसें उत्कृष्ट से जघन्य अर जघन्य तें उत्कृष्ट विशुद्ध स्थान अनंतगुरणा-अनंतगुणा है । या प्रकार सर्प की चालवत् जघन्य लैं 'उत्कृष्ट, उत्कृष्ट तें जघन्यरूप अनुक्रम लीएं अपूर्वकरण का अंत समयवर्ती उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यंत जघन्य, उत्कृष्ट विशुद्धता का अल्पबहुत्व जानना ।
या प्रकार इस अपूर्वकरण परिणाम का जो कार्य है, ताके विशेष कौं गाथा दोय करि कहै हैं -
तारिसपरिणामटियजीवा हु जिरोहिं गलियतिमिहि । मोहस्सपुवकररणा, खवणुवसमणुज्जया भरिगया ॥५४॥' ताशपरिणामस्थितजीया हि जिनलिततिमिरः ।
मोहस्यापूर्वकरणा, क्षपणोपशमनोयता भणिताः ।।८४॥ . टीका -- तादृश कहिए तैसा पूर्व-उत्तर समयनि विर्षे असमान जे अपूर्वकरण के परिणाम, तिनिविर्षे स्थिताः कहिए परिणए असे जीव, ते अपूर्वकरण हैं । १. पखंडगम - घवता पुस्तक १, पृष्ठ १८४, गाथा ११८
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१५८ ]
गोम्मटसार जीवकास गाथा १४-१५ असें गल्या है ज्ञानावरणादि कर्मरूप अंधकार जिनिका, असे जिनदेवनि करि कहा है ।
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बहुरि ते अपूर्वकरण जीव सर्व ही प्रथा; समय में यानि हनीय नामा कर्म के क्षपाबने कौं वा उपशम करने कौं उद्यमवंत हो हैं ! याका अर्थ यहु - जो गुणश्रेरिणनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिखंडन, अनुभागखंडन असे लक्षण धरै जे च्यारि अावश्यक, तिनकौं करें हैं।
तहां पूर्व बांध्या था जैसा सत्तारूप जो कर्म परमाणुरूप द्रव्य, तामें सौं काढि जो द्रव्य गुणश्रेणी विषं दीया, ताका गुणश्रेणी का काल विर्षे समय-समय प्रति • असंख्यात-असंख्यातगुणा अनुक्रम लीए पंक्तिबंध जो निर्जरा का होना, सो गुणश्रेरिणनिर्जरा है।
बहुरि समय-समय प्रति गुरगकार का अनुक्रम में विवक्षित प्रकृति के परमाणु पलटि करि अन्य प्रकृतिरूप होइ परिणमें सो गुण संक्रमण है ।
बहुरि पूर्व बांधी थी असी सत्तारूप कर्म प्रकृतिनि की स्थिति, ताका घटावना; सो स्थिति खंडन कहिए। - बहुरि पूर्व बांध्या था असा सत्तारूप अप्रशस्त कर्म प्रकृतिनि का अनुभाग, ताका घटावना; सो अनुभाग खंडन कहिए। असे च्यारि कार्य अपूर्वकरण विर्षे अवश्य हो हैं। इनिका विशेष वर्णन प्रामें लब्धिसार, क्षपणासार अनुसार अर्थ लिखेंगे, तहाँ जानना।
णिहापयले पठटे, सदि आऊ उवसमंति उसमया। खवयं ढुक्के खवया, रिणयमेण खवंति मोहं तु ॥५॥ निद्राप्रचले नष्टे, सति प्रायुधि उपशमयंति उपशमकाः ।
क्षपकं दौकमानाः, सपका नियमेन क्षपयंति मोहं तु.॥५५॥ टीका - इस अपूर्वकरण गुणस्थान विर्षे विद्यमान मनुष्य आयु जाके पाइए, ऐसा अपूर्वकरण जीव के प्रथम भाग विर्षे निद्रा पर प्रचला - ए दोय प्रकृति .. बंध होंने ते व्युच्छित्तिरूप हो है ।
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कार भाषाटीका ]
१५६
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अर्थ यहु जो उपशम श्रेणी चढनेवाले अपूर्वकरण जीव का प्रथम भाग विषै मरण न होइ, बहुरि निद्रा प्रचला का बंघ व्युच्छेद होइ, तिसको होते ते प्रपूर्वकर गुस्थानवर्ती जीव जो उपशम श्रेणी प्रति न तो चारित्रमोह को नियमकरि उपशमावे है | बहुरि क्षपक श्रेणी प्रति चढनेवाले क्षपक, ते नियम करि तिस चारित्र मोह को क्षपावें हैं । बहुरि क्षपक श्रेणी विषै सर्वत्र नियमकरि मरण नाहीं है ।
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आगे श्रनिवृत्तिकरण गुणस्थान का स्वरूप क गाथा दोय करि प्ररूप हैं
एक कालसमये, संठारणादीहिं जह रिपवति । ग स्विट्टति तहादि य, परिणामेहिं मिहो जेहिं ॥५६॥
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से, पसिभयं जेस्सिमेक्कपरिणामा । विमलयराणहुयवहसिहाहि किम्मवणा ॥ ५७॥
एकस्मिन् कालसमये, संस्थानादिभिर्यथा निवर्तते । न निवर्तते तथापि च, परिणार्मेसियो यैः ॥५६॥
(जुग्मम् )
भवंत अfrared प्रतिसमयं देवामेकपरिणामाः । वितरध्यान हुतवह शिलाभिनिर्वग्वकर्मवनाः ११५७१२ ( युग्मम् )
टीका - प्रनिवृत्तिकरण काल विषै एक समय विषै वर्तमान जे त्रिकालवर्ती अनेक जीव, ते जैसे शरीर का संस्थान, वर्ण, वय, अवगाहना र क्षयोपशमरूप ज्ञान उपयोगादिक, तिनकरि परस्पर भेद को प्राप्त हैं; तैसे विशुद्ध परिगामनि करि भेद कौं प्राप्त न हो हैं प्रगटपर्ने, ते जीव अनिवृत्तिकरण हैं, जैसे सम्यक् जानना । जातें नाहीं विद्यमान है. निवृत्ति कहिए विशुद्ध परिणामनि विषै भेद जिनकें, ले अनिवृत्तिकरण हैं, ऐसी निरुक्ति हो है ।
भावार्थ - जिन जीवनि को अनिवृत्तिकरण मांहें पहला, दूसरा आदि समान समय भए होंहिं, तिनि freeर्ती अनेक जीवनि के परिणाम समान ही होंइ । जैसे अधःकरण, अपूर्वकरण विषे समान वा ग्रसमान होते थे, तसे इहां नाहीं । .. बहुरि अनिवृत्तिकरण काल का प्रथम समय को आदि देकर समय-समय प्रति वर्त
३. एडम्स - वला पुस्तक १, पृष्ठ १८७ गाथा १२, २०
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१६० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५७
मान जे सर्व जीव, ते हीन- अधिकपना तैं रहित समान विशुद्ध परिणाम धरें हैं । तहां समय-समय प्रति ते विशुद्ध परिणाम अनंतगुणे - अनंतगुणे उपजे हैं। तहां प्रथम समय विषं जे विशुद्ध परिणाम हैं; तिनतें द्वितीय समय विषे विशुद्ध परिणाम अहो हैं । पूर्व-पूर्व समयवर्ती विशुद्ध परिरणामनि तैं जीवनि के उत्तरोत्तर समयवर्ती विशुद्ध परिणाम श्रविभागप्रतिच्छेदनि की अपेक्षा अनंतगुणा - अनंतगुणा अनुक्रम करि बधता हुआ प्रवर्ते हैं। ऐसा यहु विशेष जैनसिद्धांत विषे प्रतिपादन किया है, सो प्रतीति में ल्यावना ।
भावार्थ - प्रनिवृत्तिकरण विषै एक समयवर्ती जीवनि के परिणामनि विषै समानता है । बहुरि ऊपर-ऊपरि समयवर्तीनि के अनंतगुणी - अनंतगुणी विशुद्धता बघती है ।
ताका उदाहरण - जैसे जिनको अनिवृतिकरण मांडे पांचवां समय भया, ऐसे त्रिकालवर्ती अनेक जीव, तिनकें विशुद्ध परिणाम परस्पर समान ही हों, कदाचित् eta after it | बहुरि ते विशुद्ध परिणाम जिनकौं अनिवृत्तिकरण मांडें चौथा समय भया, तिनकै विशुद्ध परिणामनि तें अनंतमुणे हैं । बहुरि इनतें जिनको अनिवृत्तिकरण मांडें छठा समय भया, तिनकें अनंतगुणे विशुद्ध परिणाम हो है; ऐसे सर्वत्र जानना । बहुरि तिस अनिवृत्तिकरण परिणाम संयुक्त जीव, ते अति निर्मल ध्यानरूपी हुतभुक् कहिए अग्नि, ताकी शिखानि करि दग्ध कीए हैं कर्मरूपी वन जिनने ऐसे हैं । इस विशेषण करि चारित्र मोह का उपशमावना वा क्षय करना अनिवृत्तिकरण परिणामनि का कार्य है; ऐसा सूच्या है ।
आगे सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान के स्वरूप को कहे हैं -
धुदको भयवत्थं, होदि जहा सुहमरायसंजुत्तं । एवं सुहमकसा, सुहमसरागो त्ति गादव्वो ॥५८॥
starte raft यथा सूक्ष्मरागसंयुक्त' । एवं सूक्ष्मकषायः, सूक्ष्मसांवराय इति ज्ञातव्यः ॥५८॥
टीका - जैसे धोया हुआ कमल वस्त्र, है । तैसें अगिला सूत्र विषै कह्या विधान करि कषाय, ताहिकरि जो संयुक्त, सो सूक्ष्मसांपराय है।
सो सूक्ष्म लाल रंग करि संयुक्त हो सूक्ष्म कृष्टि को प्राप्त जो लोभ ऐसा जानना ।
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सम्यधात्रयधिका अगाटोका 1
[ १६१
था सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्तपने का स्वभाव को गाथा दोय करि प्ररूप हैं - कुण्यापुण्वफड्ढ़य, बादरहमगय किट्टिश्रणुभागा । atusमाणं गुणेrवरा वरं च हेटस्स ॥५६॥
पूर्वा पूर्वस्पर्धकवाद र सूक्ष्मगतकृष्टचनुभागाः । हीनक्रमा प्रनंतगुणेन श्रवरात्तु वरं चाधस्तनस्य ॥५९॥
टीका - पूर्वे श्रनिवृत्तिकरण गुणस्थान विषै वा संसार अवस्था विष जे सभवें ऐसे कर्म की शक्ति समूहरूप पूर्वस्पर्धक, बहुरि अनिवृत्तिकरण परिणामनि करि hte तिनके अनंतवें भाग प्रमाण अपूर्वस्पर्धक, बहुरि तिनहि करि करी जे बादरकृष्टि, बहुरि तिनही करि करी जे कर्म शक्ति का सूक्ष्म खंडरूप सूक्ष्मकृष्टि, इनिका क्रम तैं अनुभाग अपने उत्कृष्ट तें अपना जधग्य, अर ऊपर के जघन्य तैं नीचला उत्कृष्ट ऐसा अनंतगुणा घाटि क्रम लीए है ।
भावार्थ - पूर्व स्पर्धकनि का उत्कृष्ट अनुभाग, सो प्रविभागप्रतिच्छेद पेक्षा जो प्रमाण धरै है, ताके अनंतवें भाग पूर्व स्पर्धकनि का जघन्य अनुभाग है । बहुरि ताके अनंतवें भाग प्रपूर्वस्पर्धकनि का उत्कृष्ट अनुभाग हैं । बहुरि ताके अनंत भाग पूर्वस्पर्धकनि का जघन्य श्रनुभाग है । बहुरि ताके अनंतवें भाग बादरकृष्टि का उत्कृष्ट अनुभाग है । बहुरि ताके अनंत भाग बादरकृष्ट का अन्य अनुभाग है । बहुरि ताके अनंतवें भाग सूक्ष्मकृष्टि का उत्कृष्ट अनुभाग है । बहुरि ताके अनंतवें भाग सूक्ष्मकृष्टि का जघन्य अनुभाग है; ऐसा अनुक्रम जानना |
बहुरि इन पूर्वस्पर्धकादिकनि का स्वरूप आगे लब्धिसार क्षपणासार का कथन लिखेंगे, तहां नीकै जानना । तथापि इनिका स्वरूप जानने के प्रथि इहां भी fife वर्णन करिये है ।
कर्म प्रकृतिरूप परिणए जे परमाणु तिनिविषे अपने फल देने की जो शक्ति, ता अनुभाग कहिये । तिस अनुभाग का ऐसा कोई केवलज्ञानगम्य अंश, जाका दूसरा भाग न होइ; सो इहाँ प्रविभागप्रतिच्छेद जानना ।
बहुरि एक परमाणु विषै जेते यविभागप्रतिच्छेद पाइए, तिनके समूह का नाम वर्ग है ।
१ षट्खंडागम - घवला पुस्तक १, पृष्ठ १८६, गाथा १२१
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[ गोम्भष्टसार जीवकाराष्ट्र गाथा ५६
१६२ ]
बहुरि जिन परमाणुनि विर्षे परस्पर समान मणना लीए अविभागप्रतिच्छेद पाइए, तिनिके समूह का नाम वर्गणा है।
तहां अन्य परमाणुन हैं जापिय और प्रतिमा प्रतिन पाइए, ताका नाम जघन्य वर्ग है ।
बहुरि तिस परमाणु के समान जिन परमाणुनि विर्षे अविभागप्रतिच्छेद पाइए, तिनके समूह का नाम जघन्य वर्गणा है । बहुरि जघन्य वर्ग से एक अविभागप्रतिच्छेद अधिक जिनिविर्षे पाइए असी परमाणुनि का समूह; सो द्वितीय वर्गरणा है। असे जहां ताई एक-एक अविभागप्रतिच्छेद बधने का क्रम लीए जेती वर्गणा होइ, तितनी वर्गणा के समूह का नाम जघन्य स्पर्धक है । बहुरि यातें ऊपरि जघन्य वर्गणा के वर्गनि विर्षे जेते अविभागप्रतिच्छेद थे, तिनसे दूणे जिस वर्गणा के. वर्गनि विर्षे अविभागप्रतिच्छेद होंहि, तहांते द्वितीय स्पर्धक का प्रारंभ भया। तहां भी पूर्वोक्त प्रकार एक-एक अविभागप्रतिच्छेद बधने का क्रमयुक्त वर्गनि के समूहरूप जेती वर्गणा होइ, तिनके समूह का नाम द्वितीय स्पर्धक है । बहुरि प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के वर्गनि विर्षे जेते अविभागप्रतिच्छेद थे, तिनतं तिगुणे जिस. वर्गरणा के वर्गनि विर्षे अविभागप्रतिच्छेद पाइए, तहातै तीसरे स्पर्धक का प्रारंभ भया, तहां भी पूर्वोक्त क्रम जानना।
अर्थ इहां यहु - जो यावत वर्गणा के वर्गनि विर्षे क्रम ते एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद बधै, तावत् सोई स्पर्धक कहिए । बहुरि जहां युगपत् अनेक अविभागप्रतिच्छेद बधे, तहांत नवीन अन्य स्पर्धक का प्रारंभ कहिए । सो चतुर्थादि स्पर्धकनि की अादि वर्गणा का वर्ग विषं अविभागप्रतिच्छेद प्रथम स्पर्धक की आदि वर्गणा के वर्गनि विर्षे जेते थे, तिनत चौगुणा, पंचगुणा आदि क्रम लीए. जानने । बहुरि अपनीअपनी द्वितीयादि वर्गणा के वर्ग विर्षे अपनी-अपनी प्रथम वर्गणा के वर्ग ते एक-एक अविभागप्रतिच्छेद बधता अनुक्रम तें जानना । असे स्पर्धकनि के समूह का नाम प्रथम गुणहानि है । इस प्रथम गुणहानि की प्रथम वर्गणा विर्षे जेता परमाणुरूप वर्ग पाइए है, तिनितें एक-एक चय प्रमाण घटते द्वितीयादि वर्गणानि विर्षे वर्ग जानने । असे क्रम तैं जहां प्रथम गुणहानि की वर्गणा के वर्गनि तँ प्राधा जिस वर्गणा विर्षे वर्ग होइ, तहांतें दूसरी गुणहानि का प्रारंभ भया। तहां द्रव्य, चय मादि का प्रमाण प्राधा-प्राधा जानना। इस क्रम ते जेती गुणहानि सर्व कर्म परमाणुनि विष पाइए, तिनिके समूह का नाम नानागुणहानि है. ।
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सायशानचन्द्रिका मावाटीका ]
इहा वर्गणादि विषै परमाणुनि का प्रमाण ल्यावने की द्रव्य, स्थिति, गुणहानि, दोगुणहानि, नानागुरण हानि, अन्योन्याभ्यस्तराशि ए छह जानने।
तहां सर्व कर्म परमाणुनि का प्रमाण त्रिकोण यंत्र के अनुसार स्थिति संबंधी किंचित्ऊन द्वयर्धगुणहानिगुणित समयप्रबद्ध प्रमाण, सो सर्वद्रव्य जानना।
बहुरि नानामुणहानि करि गुणहानि आयाम को गुणें जो सर्वद्रव्य विर्षे धमानि का प्रमाण होई, सो स्थिति जाननी ।।
बहुरि एक गुणहानि विर्षे अनंतगुणा अनंत प्रमाण वर्गरणा पाइए हैं, सों गुणहानि आयाम जानना ।
याको दूणा किए जो प्रमाण होई, सो दोगुणहानि है। .
महरि' साबिर के महानि अगाया अनंत पाइए; तिनिका नाम नानागुणहानि है; जाते. दोय का गुरणकार रूप घटता-घठता- जाविषं द्रव्यादिक पाइए, सो गुणहानि'; अनेक जो गुणहानि, सो नानागुणहानि जानना ।
बहुरि नानागुणहानि प्रमाण, दुये मांडि परस्पर गुणें, जो प्रमाण होई, सो अन्योन्याभ्यस्तराशि जानना ।
तहां एक घाटि अन्योन्याभ्यस्त राशि का भाग सर्वद्रव्य कौं दीए जो प्रमाण होई, सो अंत की गुणहानि के द्रव्य का प्रमाण है। यात दूरणा-दुणा प्रथम गुणहानि पर्यन्त द्रव्य का प्रमाण है । बहुरि 'दिवड्गुणहाविभाजिदें पढमा इस सूत्र करि साधिक ड्योढ गुणहानि पायाम का भाग सर्वद्रव्य कौं दीए जो प्रमाण होइ, सोई . प्रथम गुणहानि की प्रथम वर्गणा विर्षे परमाणुनि का प्रमाण है । बहुरि याकौं दो गुणहानि का भाग दीए चय का प्रमाण प्राव है, सो द्वितीयादि वर्गणानि विर्षे एकएक चय घटता परमाणुनि का प्रमाण जानना ! असे क्रम तैं. जहां प्रथम गुणहानि की. प्रथम वर्गरणा से जिस वर्गणा विर्षे प्राधा परमाणुनि का प्रमाण है ; सो द्वितीय गुणहानि की प्रथम वर्गणा है । याके पहले जेती वर्गणा भई, ते सर्व प्रथम गुणहानि संबंधी जाननी ।
बहुरि इहां द्वितीयः गुणहानि विर्षे भी द्वितीयादि वर्गणानि विष एक-एक चय घटता परमाणुनि का प्रमाण जानना । इहां द्रव्य; चय प्रादि का प्रमाण प्रथम गुण
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१६४ ]
[ गोम्मटसर जीवाण्ट गाया ५९
हानि ते सर्वत्र आधा-आधा जानता, जैसे क्रम तें सर्वद्रव्य विषे नानागुणहानि अनंत हैं । बहुरि इहां प्रथम गुणहानि की प्रथम वर्गणा तें लगाइ अंत वर्गरणा पर्यन्त जे वर्गणा, तिनिके वर्गनि विषे श्रविभागप्रतिच्छेदनि का प्रमाण प्रवाहरूप पूर्वोक्त प्रकार अनुक्रमरूप बघता-बघता जानना ।
अब इस कथन की अंकसंदृष्टि करि दिखाइए है।
सर्वद्रव्य इकतीस से ३१००, स्थिति चालीस ४०, गुणहानि श्रायाम पाठ दोगुण हानि सोलह १६ नानागुणहानि पांच ५, अन्योन्याभ्यस्त राशि बत्तीस ३६, वहीं एक घाट अन्योन्याभ्यस्तराशि ३१ का भाग सर्वद्रव्य ३१०० को दी सौ पाये, सौ अंत गुणहान का द्रव्य है । यातें दूणा दूणा प्रथम गुणहाति पर्यंत द्रव्य जानना । १६००, ८००, ४००, २००, १०० । बहुरि साधिक ड्योढ गुणहानि का भाग सर्वद्रव्य क दीए, दोय से छप्पन ( २५६ ) पाए, सो प्रथम गुणहानि विषै प्रथम गुणहानि की प्रथम वर्गणाविषै इतका परता व जामवाल का प्रमाण है । याकों दो . गुणहानि सोलह (१६) का भाग दीए सोलह पाए, सो चय का प्रमाण है । सो द्वितीयादि वर्गणा विर्षे इतना इतना घटता वर्ग जानना । जैसे आठ वर्गणा प्रथम गुणहानि विषे जाननी । बहुरि द्वितीय गुणहानि विषै आठ वर्गरणा हैं । तिनि विषे पूर्व ते द्रव्य वा चय का प्रमाण आधा-आधा जानना । असें प्रधा-आधा क्रम करि पांच नानागुणहानि सर्व द्रव्यं विषै हो हैं ।
इनकी रचना
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isit पेक्षा गुणहामि को वर्मानि विषै वर्गनि के प्रमाण का यंत्र है ।
प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ पंचम गुणहानि गुणहानि गुणहानि गुणहानि गुणहानि १४४
७२
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१७६
८८
१६२
६६
२०८
१०४
२२४
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२४० १२०
२५६ १२८
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जोड़
१६०० ८००
३६
४०
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४८
५२
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६०
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२२ ११
२४ १२
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१३
२८
૪
१५
६४ ३२ १६
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बहुरि च्यारि-च्यारि वर्गणा का. समूह एक-एक स्पर्धक है, तातै एक-एक . गुणहानि विर्षे दोय-दीय स्पर्धक हैं । तहां प्रथम गुणहानि का प्रथम स्पर्धक की प्रथमवर्गणा का वर्गनि विष पाठ-आठ अविभागप्रतिच्छेद पाइय है। दूसरी वर्गणा का वर्गनि विर्षे नव-नव, तीसरी का विर्षे दश-दश, चौथी का विर्षे ग्यारह-ग्यारह जानने । बहुरि प्रथम गुणहान का द्वितीय स्पर्धक की प्रथम वर्गणा का वर्गनि विर्षे सोलह-सोलह, दूसरीकानि विर्षे सतरह-सतरह, तीसरीकानि विष अठारह-अठारह, चौथीकानि विर्षे उगणीस-उगरणीस अविभागप्रतिच्छेद हैं । बहुरि द्वितीय गुणहानि का प्रथम स्पर्धक का प्रथम वर्गणा के वर्गनि विर्षे चौईस चौईस, ऊपरि एक-एक बधतो ऐसे ही अनंतगुणहानि का अंत स्पर्धक की अन्त वगणा पर्यन्त अनुक्रम जानना । इनकी रचना---
अंकसदृष्टि अपेक्षा अविभागप्रतिच्छेदनि की रचना का यंत्र
प्रथम गुगदा नि द्वितीय गुणहानि तृतीय गुणहानि चतुर्थ गुणहानि
पञ्चम गुणहानि . | प्रथम स्पर्धक | द्वितिय स्पर्षक प्रथम स्पधंक | द्वितीय स्पर्धक , प्रथम स्पर्धक | हितीय स्पर्धक , प्रथम स्पर्थक | द्वितीय स्पर्धक | प्रथम स्पर्षक । द्वितीय स्पर्धक
१० । १० | १८ । १८ ! २६ ॥ २६ । ३४ । ३४ | ४२ । ४२ | ५० । ५० ५८ ! ५८ । ६६ । ६६ । ७४ । ७४ । १२ । ५२ | } | ६ | १५ : १७१७॥२५॥ २५ ॥ २५ ३३ । ३३ । ३३४१ । ४१ । ४११४६ । ४६ । ४६/५७ । ५७ ॥ ५७६५ । ६५ । ६५१७३ १ ७३ । ७३.८१ । ८१।८१ १८१८ । । ८/१६।१६।१६।१६ २०२४।२४।२४३ २०३२।३२।३२ ४०१४-१४०१४०४८४४८१४८१४८/५६:५६१५६।५६/६४।६४१६४१६४१७२।७२१७२।७२/८०८०1०1८०/
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[ बोम्मटसार जीवका साया ५६
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इहां च्यारि, तीन आदि स्थानका विभाग, त्रादि अविभागप्रतिच्छेद स्थापे हैं । तिनकी सहनानी करि अपनी-अपनी वर्गणा विर्षे जेते-जेते. वर्ग हैं; तितनेतितने स्थानकनि विष तिन अविभागप्रतिच्छेदनि का स्थापन जानना।
ऐसे अंकसंदृष्टि करि जैसे दृष्टांत कहा, तैसे ही पूर्वोक्त यथार्थ कथन का अवधारण करना । या प्रकार कहे जे अनुभागरूप स्पर्धक, ते पूर्वं संसार अवस्था विर्षे जीवनि के संभबै हैं; तातें इनिकों पूर्वस्पर्धक कहिये । इनि विर्षे जघन्य स्पर्धक तें लगाइ लताभागादिकरूप स्पर्धक प्रवर्ते हैं । तिनि विर्षे लताभागादिरूप केई स्पर्धक देशघाती हैं । ऊपरि के केई स्पर्धक सर्वघाती हैं, तिनिका विभाग प्रागै लिखेंगे । बहुरि अनिवृत्तिकरण परिणामनि करि कबहू पूर्वे न भए ऐसे अपूर्वस्पर्धक हो हैं । तिनि विर्षे जघन्य पूर्वस्पर्धक तें भी अनंत भाग उत्कृष्ट अपूर्व स्पर्धक विष भी अनुभाग शक्ति पाइए है । विशुद्धता का माहात्म्य ते अनुभाग शक्ति घटाए कर्म परमाणुनि कौं ऐसे परिणमाव है । इहां विशेष इतना ही भया - जो पूर्वस्पर्धक की जघन्य वर्गरणा के वर्ग से इस अपूर्वस्पर्धक की अंत वर्गणा के वर्ग विर्षे अनंत भाग अनुभाग है । बहुरि तातै अन्य वर्गणानि विर्षे अनुभाग घटता है, ताका विधान पूर्वस्पर्धकवत् ही जानना । बहुरि वर्गणानि विर्षे परमाणुनि का प्रमाण पूर्वस्पर्धक की जघन्य वर्गणा ते एक-एक चय बधता पर्व स्पर्धकवत क्रम से जानना । इहां चय का प्रमाण पर्वस्पर्धक की प्रादि गणहानि का चय से दूरणा है। बहरि पीछे अनिवृत्तिकरण के परिणामनि ही करि कृष्टि करिये है । अनुभाग का कृष करना, घटावना, सो कृष्टि कहिये । तहां संज्वलन कोध, मान, माया, लोभ का अनुभाग घटाइ स्थूल खण्ड करना, सो बादरकृष्टि है। तहां उत्कृष्ट बादरकृष्टि विर्षे भी जघन्य अपूर्वस्पर्धक तें भी अनंतगुणा अनुभाग घटता हो है। तहां च्यारों कषायनि की बारह संग्रहकृष्टि हो हैं । पर एक-एक संग्रहकृष्टि के विर्षे अनन्त-अनन्त अंतर कृष्टि हो हैं । तिमि विर्षे लोभ की प्रथम संग्रह की प्रथमकृष्टि त लगाइ क्रोध की तृतीय संग्रह की अंतकृष्टि पर्यन्त क्रम ते अनन्तगुणा-अनन्तगुणा अनुभाग है । तिस कोष की तृतीय कृष्टि की अंतकृष्टि से अपूर्वस्पर्धकनि की प्रथम वर्गणा विर्षे अनन्तगुणा अनुभाग है । सो स्पर्धकनि विर्षे तो पूर्वोक्त प्रकार अनुभाग का अनुक्रम था । इहां अनन्तगुणा घटता अनुभाग का क्रम भया, सोई स्पर्षक पर कृष्टि विर्षे विशेष. जानना । बहुरि लहां परमाणुनि का प्रमाण लोभ की प्रथम संग्रह की जघन्य कृष्टि विर्षे यथासंभव बहुत है, ताते क्रोध की तृतीय संग्रह की अंतकृष्टि पर्यन्त चय घटता क्रम लीए है । सो याका विशेष प्रागै लिखेंगे, सो जानना । सो यहु अपूर्व
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सभ्यासामन्द्रिका भावाटीका ) स्पर्धक अर बादरकृष्टि क्षपक श्रेणी विर्षे ही हो है, उपशम श्रेणी विर्षे न हो है । बहुरि अनिवृत्तिकरण के परिणामनि करि ही कषायनि के सर्व परमाणु प्रानुपूर्वी संक्रमादि विधान करि एक लोभरूप परिणमाइ बादरकृष्टिगत लोभरूप करि पीछे तिनिकौं सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमाव है, सो सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त भया लोभ, ताका जघन्य बादरकृष्टि से भी अनंतवें भाग उत्कृष्ट सूक्ष्मकृष्टि विर्षे अनुभाग हो है। तहां अनंती : कृष्टिनि विर्षे क्रम ते अनंतगुणा अनुभाग घटता है । बहुरि परमाणुनि का प्रमाण जघन्य कृष्टि से लगाइ उत्कृष्ट कृष्टि पर्यन्त चय घटता क्रम लीए है, सो विशेष आगे लिखेंगे सो जानना । सो यहु विधान क्षपक श्रेणी विर्षे हो है।
उपशम श्रेणी विर्षे पूर्वस्पर्धकरूप जे लोम के केई परमाणु, तिन ही की सूक्ष्म कृष्टिरूप परिणमावै है, ताका विशेष आगै लिखेंगे ।
बहुरि असें अनिवृत्तिकरण विर्षे करी जो सत्ता विर्षे सूक्ष्म कृष्टि, सो जहां उदयरूप होइ प्रवर्ते, तहां सूक्ष्मसापराय गुणस्थान हो है अंसा जानना ।
अणुलोहं वेदंतो, जीवो उक्सामगो व खवगो वा । सो सुहमसांपराओ, जहखादेणूगओ किंचि ॥६०॥
अणलोभं विदन, जीयः उपशामको वक्षपको वा ।
स सूक्ष्मसापरायो, यथाख्यातेनोनः किंचित् ॥६०॥ • टीका ~ अनिवृत्तिकरण काल का अंत समय के अनंतरि सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान कौ पाइ, सूक्ष्म कृष्टि कौं प्राप्त जो लोभ, ताके उदय कौं भोगवता संता उपशमावनेवाला वा क्षय करने वाला जीव, सो सूक्ष्मसापराय है; जैसा कहिए है ।
सोई सामायिक, छेदोपस्थापना संयम की विशुद्धता से प्रति अधिक विशुद्धतामय जो सूक्ष्मसांपराय संयम, तीहिकरि संयुक्त जो जीव; सो यथाख्यातचारित्र संयुक्त जीव ते किंचित् मात्र ही हीन है। जाते सूक्ष्म कहिए सूक्ष्म कृष्टि को प्राप्त असा जो सांपराय कहिए लोभ कषाय, सो जाकै पाइए, सो सूक्ष्मसांपराय है असा सार्थक नाम है।
प्रागै उपशांत कषाय गुणस्थान के स्वरूप का निर्देश करें हैं । कदकफलजुइजलं का, सरए सरवारिणयं व रिणम्मलयं ।
सयलोवसंतमोहो, उवसंतकसायओ होवि ॥६१॥२ १. 'फदकफलजुदवले के स्थान पर 'समयमहल जल ऐसा पाठान्तर है। २. षट्खण्डागम - धक्ला पुस्तक १, पृष्ठ १६०, गाथा १२२
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गोम्मटसार जीवका गाया ६२-६३
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१६८ ]
कतकफलयुतजलं वा शरदि सरसपानीयं च निर्मल । • सकलोपशांतमोह, उपशांत कषायको भवति ॥६१॥
टीका - कतकफल का चूर्ण करि संयुक्त जो जल, सो जैसे प्रसन्न हो है अथवा मेघपटल रहित जो शरत्काल, तीहि विर्षे जैसे सरोबर का पानी प्रसन्न हो है, ऊपरि तें निर्मल हो है; तैसे समस्तपने करि उपशांत भया है मोहनीय कर्म जाका, सो उपशांत कषाय है । उपशांतः कहिए समस्तपनेकरि उदय होने को अयोग्य कीए हैं कषाय नोकषाय जानें, सो उपशांत कषाय है। जैसी निरुक्त करि अत्यंत प्रसन्न- . चित्तपना सूचन किया है ।
आगे क्षीण कषाय गुणस्थान का स्वरूप कौं प्ररूप हैं -
रिणस्सेसखीणमोहो, फलिहामलभायणदयसमचित्तो। खीणकसानो भण्णदि, रिणग्गंथो बीयरायहि ॥६२॥ 'निश्शेषक्षीणमोहः, स्फटिकामलभाजनोदकसमचित्तः ।
क्षीणकषायो भण्यते, निर्ग्रन्यो वीतरागः ॥६२॥ टीका - अवशेष रहित क्षीण कहिए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश करि रहित भई है मोहनीय कर्म की प्रकृति जाक; सो निःशेष क्षीणकषाय है । असे निःशेष मोह प्रकृतिनि का सस्व करि रहित जीव, सो क्षीण कषाय है । ता कारण से स्फटिक का भाजन विषं तिष्ठता जल सदृश प्रसन्न -- सर्वथा निर्मल है चित्त जाका असा क्षीणकषाय जीव है, असें वीतराग सर्वज्ञदेवनि करि कहिए है । सोई परमार्थ करि निम्रन्थ है । उपशांत कषाय भी यथाख्यात चारित्र की समानता करि निर्ग्रन्थ है, असे जिनवचन विर्षे प्रतिपादन करिए हैं ।
भावार्थ - उपशांत कषाय के तौं मोह के उदय का अभाव है, सत्त्व विद्यमान है । बहुरि क्षीणकषाय के उदय, सत्त्व सर्वथा नष्ट भए हैं; परन्तु दोऊनि के परिणामनि विर्षे कषायनि का अभाव है । तातें दोऊनि के यथाख्यात चारित्र समान है । तीहिकरि दोऊ बाह्य, अभ्यंतर परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ कहे हैं।
आमै सयोगकेवलिगुणस्थान कौं गाथा दोय करि कहैं हैं - केवलरणारणदिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णायो। गवकेवललद्धग्गमसुजरियपरमप्पववएसो ॥६३॥२
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१. पखंडायम - अवला पुस्तकः १, पृष्ठ १९१, गाथा १२३ २, षट्खंडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १६२, पाथा १२४
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रकर भापोटीका ]
केवलज्ञानदिवाकरकिरणकलापप्रणाशिताज्ञानः । नवकेवल लब्ध्युद्गमसुजनितपरमात्मव्यपदेश: ॥ ६३॥
टीका - केवलज्ञानंदिया करकिरस्पकलापप्रणाशिताज्ञान: कहिए केवलज्ञानरूपी दिवाकर जो सूर्य, ताके किरणनि का कलाप कहिए समूह, पदार्थनि के प्रकाशने विषै प्रवीण दिव्यध्वनि के विशेष, तिनकरि प्रनष्ट कीया है शिष्य जननि का प्रज्ञानांधकार जानें औसा सयोगकेवली है । इस विशेषरण करि सयोगी भट्टारक के भव्यलोक कौं उपकारीपना है लक्षण जाका, जैसी परार्थरूप संपदा कही । बहुरि नवकेवललब्ध्युद्गम सुजनितपरमात्मव्यपदेशः ' कहिए क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्यरूप लक्षण धरें जे नव केवललब्धि, तिनिका उदय कहिए प्रकट होना, ताकरि सुजनित कहिए वस्तुवृत्ति कर निपज्या है परमात्मा, असा व्यपदेश कहिए नाम जाका, असा प्रयोगकेवली है । इस विशेषण करि भगवान परमेष्ठी के अनंत ज्ञानादि लक्षण धरै स्वार्थरूप संपदा दिखाइए है।
असहायरणारा दसरणसहिओ इदि केवली हु जोगेण ।
जुत्तो त्ति सजो गिजिरो,' अस्पाइरिहारिसे उत्तो ॥ ६४ ॥ २
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असहायज्ञान दर्शनसहितः इति केवलो हि योगेन । युक्त इति सयोगिजिनः श्रनादिनिधनाषें उक्तः ॥ ६४॥
-
टीका योग करि सहित सो सयोग र परसहाय रहित जो ज्ञान दर्शन, तनिकर सहित सो केवली, सयोग सो ही केवली, सो सयोगकेवली । बहुरि घातिकर्मेfन का निर्मूल नाशकर्ता सो जिन सयोगकेवली सोई जिन, सो सयोगकेवलिजिन कहिए | असे नादि निधन ऋषिप्रणीत श्रागम विषै कया है ।
आगे प्रयोग केवल गुणस्थान को निरूपे हैं -
सोसि संपतो, णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो । कम्मरयविक्को, गयजोगो केवली होदि ॥ ६५ ॥ ३.
१. 'सजगजिणो' इसके स्थान पर 'सजोगो इदि ऐसा पाठान्तर है ।
२. पट्खण्डागम - घवला पुस्तक १, पृष्ठ १६३, गाथा १२५ ३. षट्खण्डागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ २०० गाथा १२६
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AMARIA RANARAImanAAAAmmamtapmumtamusammate
समाप
[ मोम्मटमार जीवका या ६६.६७ शीलेश्यं संप्राप्तो निरुद्ध निश्शेषाखयो जीवः ।।
कर्मरजोयिप्रभुक्तो मतयोगः केवलो भवति ॥६५॥ टीका - अठारह हजार शील का स्वामित्वपना कौं प्राप्त भया । बहुरि निरोधे हैं समस्त प्रास्रव जान; तातें नवीन बध्यमान कर्मरूपी रज करि सर्वथा रहित भया । बहुरि मन, वचन, काय योग करि रहितपना ते प्रयोग भया । सो माहीं विद्यमान है योग जाके, असा प्रयोग अर अयोग सोई केवली, सो प्रयोग केवली भगवान परमेष्टी जीव असा है !
या प्रकार कहे चौदह गुणस्थान, तिनिविर्षे अपने आयु बिना सात कर्मनि की गुणधेरणी निर्जरा समय है। ताका घर तिस गुरणश्रेणी निर्जरा का काल विशेष की गाथा दोय करि कहैं हैं -
सम्मत्तुप्पत्तीये, सावयविरदे असंतकम्मसे । दसरणमोहक्खवगे, कसायउवसामगे य उवसते ॥६६॥ खवगे य खीणमोहे, जिरणेसु दव्या असंखगुरिणदकमा। तन्दिवरीया काला, संखेज्जगुरणक्कमा होति ॥६७॥ सम्यक्त्वोत्पत्ती, श्रावकविरते अनंतकर्माशे । दर्शनमोहक्षपके, कषायोपशामके चोपशांते ॥६६॥ क्षपके घ क्षीणमोहे, जिनेषु द्रव्याण्यसंख्यगुरिणतकमागि ।
तद्विपरीताः कालाः संख्यातगुरगतमा भवति ॥६७॥
टोका - प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति जो प्रथमोपशम सम्यक्त्व कौं कारण तीन करणनि के परिणामनि का अंत समय, तीहिविर्षे प्रवर्तमान असा जो विशुद्धता का विशेष धरै मिथ्यादष्टि जीव, ताकै प्राय बिना अवशेष ज्ञानावरणादि कर्मनि का जो गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य है; तातें देशसंयत के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यातगुणा है । बहुरि तातै सकलसंयमी के गुनगश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । ताते अनंतानुबंधी कषाय का विसंयोजन करनहारा जीव के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । तातें दर्शन मोह का क्षय करने वाले के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । बहुरि-तात कषाय उपशम करने वाले अपूर्वकरणादि
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सम्पप्लानचन्द्रिका भाषाटीका ] तीन गुणस्थानवी जीवनि के गुणधेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । बहुरि ताते उपशांत कषाय गुणस्थानवर्ती जीव के मुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । बहुरि तातं क्षपक श्रेणीवाले अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवी जीव के गुणश्रेणी निर्जरा दम्य असंख्यात गुरगा है । बहुरि तातें क्षीण कषाय रणस्थानवी जीव के गुणधेरणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । बहुरि तातै समुद्घात रहित जो स्वस्थान केवली जिन, ताफै गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । बहुरि ताते समुद्घात सहित जो स्वस्थान समुद्घात केवली जिन, ताके गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । असं ग्यारह स्थानकनि विर्षे गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य के स्थानस्थान प्रति असंख्यातमुरणापना कह्या ।
अब तिस गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य का प्रमाण कहिए है । कर्मप्रकृतिरूप परिया पुद्गल परमाण, तिनका नाम इहां द्रव्य जानना । अनादि संसार के हेतु तें बंध का संबंध करि बंधरूप भया जो जगच्छे णी का धनमात्र लोक, तींहि प्रमाण एक जीव के प्रदेशनि विर्षे तिष्ठता झानावरणादिक मूल प्रकृति का उत्तर प्रकृति संबंधी सत्तारूप सर्वद्रव्य, सो आगे कहिएगा जो त्रिकोण रचना, ताका अभिप्राय करि किचित् ऊन ड्योढ़ गुणहानि श्रआयाम का प्रमाण करि समयप्रबद्ध का प्रमाण कौं गुण जो प्रमाण होइ, तितना है ।
बहुरि इस विर्षे प्रायु कर्म का स्तोक द्रव्य है, तात या विधं किंचित् ऊन किए अवशेष द्रव्य सात कर्मनि का है । तात याकौं सात का भाग दीए एक भाग प्रमाण ज्ञानावरण कर्म का द्रव्य हो है । बहुरि याकौं देशघाती, सर्वघाती द्रव्य का विभाग के अथि जिनदेव करि देखा यथासंभव अनंत, ताका भाग दीए एक भाग प्रमाण तौ सर्वघाती केवलज्ञानावरण का द्रव्य है । अवशेष बहुभाग प्रमाण मतिज्ञानादि देशघाति प्रकृतिनि का द्रव्य है । बहुरि इस देशघाती द्रव्य कौं मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, ज्ञानावरणरूप च्यारि देशघाती प्रकृतिनि का विभाग के अथि च्यारि का भाग दीए एक भाग प्रमाण मतिज्ञानावरण का द्रव्य हो है ।
भावार्थ - इहा मतिज्ञानावरण के द्रव्य को गुणश्रेणी का उदाहरण करि कयन कीया है । तातै मतिज्ञानावरण द्रव्य का ही ग्रहण कीया है । अस ही अन्य प्रकृतिनि का भी यथासंभव जानि लेना । बहुरि इस मतिज्ञानावरण द्रव्य कौं अपकर्षण भागहार का भाग देइ, तहां बहुभाग तो तैसे ही तिष्ठ है; असा जानि एक भाग का ग्रहण कीया।
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सम्यग्ज्ञानचन्दिका भाषाटोका !
उदयाबली का द्वितीय समय संबंधी द्वितीय निषेक का प्रमाण प्राव है। जैसे ही क्रम तें उदयावली का अंत निषेक पर्यन्त एक-एक घय घटाए, एक धाटि पावली प्रमाण चय उदयावली का प्रथम निषेक विर्षे घटें उदयाबली का अंत का निषेक का प्रमाण हो है । याकौं अंकसंदृष्टि करि व्यक्ति करिए है।
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जैसे उदयावली विषं दीया द्रव्य दोय सै; बहरि गच्छ प्रावली, ताका प्रमाण आठ, बहुरि एक-एक गुणहानि विर्षे जो निषेकनि का प्रमाण सो गुणहानि का मायाम, ताका प्रमाण पाठ, याकौं दूणा कीए. दो गुणहानि का प्रमाण सोलह, तहाँ सर्वद्रव्य दोय से कौं प्रावली प्रमाण गच्छ पाठ का भाग दीए पचीस मध्यधन का प्रमाण होइ । याकौं एक घाटि प्रावली का प्राधा सादा तीन, सो निषकहार सोलह में घटाए साढ बारा, ताका भाग दीए दोय पाए, सो चय का प्रमाण, जानना । याकौं दोगुणहानि सोलह, ताकरि गुरणे, बत्तीस पाए, सो प्रथम निषेक का प्रमाण है । यामैं एक-एक चय घटाए द्वितीयादि निषेकनि का तीस आदि प्रमाण हो है । असे एक धादि प्रावली प्रमाण चय के भये चौवह, ते प्रथम निषेक विर्षे घटाए, अवशेष अठारह अंत निषेक का प्रमाण हो है । इनि सर्वनि कौं जोडे ३२, ३०, २८, २६, २४, २२, २०, १८ दोय सै (२००) सर्वद्रव्य का प्रमाण हो है। असें ही अर्थसंदृष्टि करि पूर्वोक्त यथार्थ स्वरूप अवधारण करना ।...
बहरि यात परै उदयावली काल पीछे अंतर्मुहर्तमात्र जो गुणश्रेणी का पायाम कहिए काल प्रमाण, ताविर्षे दीया हुवा द्रव्य, सो तिस काल का प्रथमादि समय विर्षे जे पूर्व निषेक थे, तिनकी साथि क्रम ते असंख्यातगुणा-असंख्यातगुणा होई निर्जर है । सो गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यात लोक का भाग दीए बहुभाग प्रमाण था, सो सम्यक्त्व की उत्पत्तिरूप करणकाल संबंधी गुणश्रेणी का प्रायाम अंतर्मुहूर्तमात्र, तिसविर्षे असंख्यात-असंख्यात गुणी अनुक्रम करि निषेक रचना करिए है।
- इहां सम्यक्त्व की उत्पत्ति संबंधी गुणश्रेणी का कथन मुख्य कीया, तातै तिस ही के काल का ग्रहण कीया है । तहां 'प्रक्षेपयोगोद्धतमिश्रपिंडः प्रक्षेपकारणां गुणको भषेविति' इस करण सूत्र करि प्रक्षेप जो शलाका, तिनिका जो योग कहिए जोड, ताकरि उद्धृत कहिए भाजित, असा जो मिथपिड कहिए मिल्या हुवा द्रव्य का जो प्रमाण, सो प्रक्षेप कहिए । अपनी-अपनी शलोकनि का प्रमारण, ताका गुणक कहिए
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ६६-६७ भावार्थ - जैसे अन्न का राशि में स्यों च्यारि का भाग देइ, कोई कार्य के अथि एक भाग जुदा काढिए, अवशेष बहुभाग जैसे थे तसे ही राखिए । तैसें इहां मतिज्ञानावरणरूप द्रव्य में स्यों अपकर्षण भागहार का भाग देइ, एकभाग की अन्यरूप परणमादेने के प्रषि जुमा ग्रहण कीया । अवशेष बहुभाग प्रमारण द्रव्य,जैसे पूर्व अपनी स्थिति के समय-समय संबंधी निषेकनि विर्षे तिष्ठं था, तैसे ही रह्या । इहां कर्म परमाणुरूप राशि विर्षे स्थिति घटावने कौं जिस 'भागहार का भाग संभव, ताका नाम अपकर्षण भागहार जानना । सो इस अपकर्षए भागहार का प्रमाण, प्रागे कर्मकांड विर्षे पंच भागहार चूलिका अधिकार विर्षे कहेंगे, तहां जानना । बहुरि विवक्षित भागहार का भाग दीए, तहां एक भाग विना अवशेष सर्व भागनि के समूह का नाम बहुभाग जानना ! सो अपकर्षण भागहार का भाग देई, बहुभाग कौं तैसे ही राखि, एकभाग की जुदा ग्रह्या था, ताकौं कैसे-कैसे परिणमाया सो कहैं हैं ।
तिस एक भाग को पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग देई, तहां बहुभाग तौ उपरितन स्थिति विष देना, सो एक जायगा स्थाप, बहुरि अवशेष एक भाग रह्या, ताको बहुरि असंख्यात लोक का भाग देइ, तहां बहुभाग तौ गुणश्रेणी का आयाम विर्षे देना, सो एक जायगा स्थाप अवशेष एक भागहार रह्या, सो उदयावली विर्षे दीजिए है ।
अब उदयावली, गुणश्रेणी, उपरितन स्थिति विर्षे दीया हुवा द्रव्य कैसै परिरणम हैं ? सो कहिए है। तहां उदयावली विर्षे दीया हुअा द्रव्य वर्तमान समय से लगाइ एक प्रावली प्रमाण काल विर्षे पूर्व जे पावली के निषेक थे, तिनकी साथि अपना फल को देइ खिर है ।
तहां प्रावली का काल के प्रथमादि समयनि विर्षे केता-केता द्रव्य उदय प्रावै है ? सो कहैं हैं - एक समय संबंधी जेता द्रव्य का प्रमाण, ताका नाम निषेक जानना । तहां उदयावली विर्षे दीया जो द्रव्य, ताकौं उदयावली काल के समयनि का जो प्रमाण, ताका भाग दीए बीचि के समय संबंधी द्रव्यरूप जो मध्यधन, ताका प्रमाण पावै है । ताकौं एक धाटि प्रावली का प्राधा प्रमाण करि हीन असा जो निर्षकहार कहिए गुरगहानि पायाम का प्रमाण ते दूणा जो दो गणहानि का प्रमाण, ताका भाग दीए चय का प्रमाण हो है । बहुरि इस चय की दोगुणहानि करि गुण, उदयावली का प्रथम समय संबंधी प्रथम निषेक का प्रमाण पाद है । यामैं एक चय घटाए,
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Awarwas
१४४ -1
[ गोमसार औषकाष्ट गाथा ६६-६७ गुणकार हो है । अथवा यहु गुण्य ही है, ते प्रक्षेप गुणकार हो हैं, असें भी करिए तो दोष नाही, जाते दोऊनि का प्रयोजन एक है । सो इहां तिस गुणश्रेणी आयाम का प्रथम समय विर्षे जेता द्रव्य दीया, तीहि प्रमाण एक शलाका है । बहरि तातें दूसरे समय तैसे ही असंख्यात गुणी शलाका हैं । तातें तीसरे समय असंख्यातगुणी शलाका हैं । असे असंख्यातगुणा अनुक्रम करि अंत समय विर्षे यथायोग्य असंख्यातगुणी शलाका हो हैं । इनि सर्व प्रथमादि समय संबंधी शलाकानि का जोउ दीए, जो प्रमाण होइ, सो प्रक्षेपयोग जाननाः। ताका भाग गुणश्रेणी विर्षे दीया हुवा द्रव्य कौं लीए जो प्रमाण आवै, ताकौं प्रक्षेपक, जो अपना-अपना समय संबंधी शलाका का प्रमाण, ताकदिएको, अपने-अपने द्रव्य का प्रमाण आवै है । असे जिस-जिस समय विर्षे जेता... जेता द्रव्य का प्रमाण माव है, तितना-तितना द्रव्य तिस-तिस समय विर्षे निर्जर हैं। या प्रकार गुणश्रेणी आयाम. विर्षे सर्व गुणश्रेणी विर्षे दीया हुवा जो द्रव्य, सो निर्जर है ।
अब इस कथन कौं अंकसंदृष्टि करि व्यक्त करिए है ।
जसै गुणश्रेणी विर्षे दीया हुवा द्रव्य का प्रमाण छ सै अस्सी, गुणश्रेणी आयाम का प्रमाण च्यारि, असंख्यात का प्रमाण च्यारि । तहां प्रथम समय संबंधी जेता द्रव्य, तीहि प्रमाण शलाका एक, दूसरा समय संबंधी तातें असंख्यात गुणी शलाका च्यारि (४), तीसरा समय संबंधी तात असंख्यातगुरणी शलाका सोलह (१६), चौथा समय संबंधी तात असंख्यातगुणी शलाका चौसठ (६४); सो.इनि शलाकनि का नाम प्रक्षेप है । इनिका जो योग कहिये. जोड, सो फिच्यासी हो है । ताकरि मिश्रपिंड जो सबनि का मिल्या हुआ द्रव्य छ सै असी, ताको भाग दीजिये, तब पाड पाये । बहुरि यह पाया हुया राशि, ताकौं प्रक्षेप कहिए । अपनी-अपनी शलाका का प्रमाण; ताकरि गुरिणये है । उहां पाठ की एक करि गुरणे प्रथम समय संबंधी निषेक का प्रमाण आठ (c) हो है । बहुरि च्यारि कौं गुणे द्वितीय निधेक का प्रमाणा बत्तीस हो है। बहुरि सोलह करि गुणे तृतीय निषेक का प्रमाण एक सौ अट्ठाईस (१२८) हो है। बहुरि चौसठि करि गुण अंत निषेक का प्रमाण पांच से बारह (५१२) हो है । ऐसे सर्व समयनि विष ८, ३२, १२८, ५१२ मिलि. करि छ से असी (६८०) द्रव्य निर्जरै हैं ।
भावार्थ - लोक विर्षे जाकौं विसवा कहिए, ताका नाम इहां शलाका है। बहुरि जाकौं लोक विष सीर का द्रव्य कहिए, ताका नाम इहां मिश्रपिंड कहा है, सो..
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका
सब विसवा मिलाइ, इनिका भाम देई अपना-अपना विसवानि करि मुण, जैसे अपना-अपना
व्य का प्रमणि आवै, तैसे इहां समय-समय विर्षे जेता-जेता द्रव्य निर्जर, ताका प्रमाण वर्णन किया है। ऐसे इहां सम्यक्त्व की उत्पत्तिरूप करण का गुणश्रेणी आयाम विर्षे वर्णन उदाहरण मात्र किया; ऐसे ही अन्यत्र भी जानना । तहां काल. का वा द्रव्य का विशेष है, सो यथासंभव जानता ।
रहरि यात प्रागै जो उपरितन स्थिति विर्षे दीया द्रव्य, सो विवक्षित मतिज्ञानावरण की स्थिति के निषेक पूर्व थे, तिन विष इस गुणश्रेणी पायाम के काल के पीछे अनन्तर समय संबंधी जो निषेक, तातै लगाइ अंत विर्षे प्रतिस्थापनावली के निकनि की छोडि जे पूर्व निषेक थे, तिनि विर्षे क्रम ते दीजिए है। पूर्व तिनि निषेकनि की द्रव्य विखें याकी भी क्रम करि मिलाइए है। तहां नानागुणहानि विर्षे पहला-पहला निषेकनि विर्षे प्राधा-आधा दीजिये, द्वितीयादि निषेकनि विर्षे चय हीन का अनुक्रम करि दीजिए, सो इस. वर्णन विर्षे त्रिकोण, रचना संभव है। ताका विशेष आग करेंगे । इहां प्रयोजन का अभाव है, तातै विशेष न कीया है । असे जो एक भाग मात्र जुदा द्रव्य ग्रह्या था, ताकी वर्तमान समय तें लगाई उदयावली का काल, ताके पीछे गुणश्रेणी अायाम का काल, ताके पीछे अवशेष सर्वस्थिति का. काल, अंत विर्षे प्रतिस्थापनावली बिना सो उपरितनस्थिति का काल, तिनके निषेक पूर्व थे, तिनिविषै मिलाइए है; सो यह मिलाया हुवा द्रव्य पूर्व निषेकनि की साथिः उदय होइ निर्जरै है; असा भाव जानना ।
बहुरि पूर्वे कह्या जो-जो गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य, सो-सो श्रावकादि दश स्थान कनि विर्षे असंख्यात-असंख्यात गुणा है, सो कैसे ?
ताका समाधान - तिस गुरगश्रेणी द्रव्य कौं कारणभूत जो अपकर्षण भागहार, तिनके अधिक-अधिक विशुद्धता का निमित्त करि असंख्यातगुणा घाटिपना है, तातें तिस गुरणश्रेणी द्रव्य के असंख्यातगुणा अनुक्रम की प्रसिद्धता है ।
भावार्थ - श्रावकादि दश स्थानकनि विर्षे विशुद्धता अधिक-अधिक है, सातै जो पूर्वस्थान विर्षे अपकर्षण भागहार का प्रमाण था, ताके असंख्यातवें भाग उत्तर स्थान विषं अपकर्षण भागहार का प्रमाण जानना । सो जेता भागहार घटता होइ, तेता लब्धराशि को प्रमाण अधिक होइ । तातै इहां लब्धराशि जो मुरगश्रेणी का द्रव्य, सो भी क्रम ते असंख्यातगुणा हो है।
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[ गोटसार श्रीयाण्ड गाथा ३६
THURMER
बहुरि गुणश्रेणी पायाम का काल तातै विपरीत उल्टा अनुक्रम धरै है, सोई कहिए है - 'समुद्धात जिनौ आदि देकरि विशुद्ध मिथ्यादृष्टि पर्यंत गुणश्रेणी आयाम का काल क्रम करि संख्यातगुरणा-संख्यातगुणा है' । समुद्धात जिनका गुणश्रेणी आयामकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र है । तातै स्वस्थान जिनका गुणश्रेणी पायामकाल संख्यात गुणा है । तातै क्षीणमोह का संख्यातगुणा है । जैसे ही क्रम ते पीछे ते क्षपकश्रेणी वाले आदि विर्षे संख्यात-संख्यात गुणा जानना ।
___ तहां अंत विर्षे बहुत बार संख्यातगुणा भया, तो भी करण परिणाम संयुक्त विशुद्ध मिध्यादृष्टि के गुणश्रेणी पायाम का काल अंतर्मुहूर्तमात्र ही है, अधिक नाहीं । काहे ते?
जातें अंतर्मुहूर्त के भेद बहुत हैं । तहां जघन्य अंतर्मुहूर्त एक प्रावली प्रमाण है, सो सर्व ते स्तोक है । बहुरि यातें एक समय अधिक प्रावली ते लगाइ एक-एक समय बघता मध्यम अंतर्मुहर्त होइ । अंत का उत्कृष्ट अंतर्मुहर्त एक समय घाटि दोय घटिकारूप मुहूर्त प्रमाण है । तहां ताके उच्छ्वास तीन हजार सात सै तेहत्तरि अर एक उच्छ्वास की प्रावली संख्यात, यात दोय बार संख्यातगुणी आवली प्रमाण उत्कृष्ट मुहूर्त है । बहुरि - 'प्रादि अंते सुद्धे वट्टिहदे रूवसंजुरे ठाणे' इस सूत्र करि आवलीमात्र जघन्य अंतर्मुहूर्त कौं दोय बार संख्यातमुरिणत प्राबली प्रमाण उत्कृष्ट अंतर्मुहर्त विर्षे घटाइ, वृद्धि का प्रमाण एक समय का भाग दीए जो प्रमाण होइ, तामै एक और जोडें जो प्रमारण होइ, तितने अंतर्मुहर्त के भेद संख्यात प्रावली प्रमाण
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प्राग असे कर्म सहित जीवनि का गुणस्थानकनि का प्राश्रय लीए स्वरूप पर तिस-तिस का कर्म की निर्जरा का द्रव्य वा काल आयाम का प्रमाण, ताकौं निरूपण करि अब निर्जरे हैं सर्व कर्म जिनकरि असे जे सिद्ध परमेष्ठी, तिनका स्वरूप कौं अन्यमत के विवाद का निराकरण लीए गाथा दोय करि कहैं हैं - .
अट्ठवियकम्मवियला, सीदीभूवा रिणरंजणा रिपच्चा। अगरणा किदकिच्चा, लोयग्गणिवासिगो सिद्धा॥६॥
अष्टविधकर्म विकलाः, शीतोभूता निरंजना नित्याः।।
प्रष्टगुस्साः कृतकृत्याः, लोकाग्रनिवासिनः सिद्धाः ॥६८॥ १. पखंडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ २०१, सूत्र २३, गाथा १२७
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सम्वजानन्धिका भाषाटीका ।
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टोका - केवल कहे जे गुणस्थानवी जीव, तेई नाहीं है सिद्ध कहिये अपने आत्मस्वरूप की प्राप्तिरूप लक्षण धरै नो सिद्धि, ताकार संयुक्त मुक्त जीव भी लोक विर्षे हैं । ते कैसे हैं ? अष्टविधकर्मविकलाः कहिये अनेक प्रकार उत्तर प्रकृतिरूप भेद जिन वि गभित ऐसे जो ज्ञानावरणादिक आठ प्रकार कर्म आठ गुणनि के प्रतिपक्षी, तिनका सर्वथा क्षय करि प्रतिपक्ष रहित भए हैं। कैसे पाठ कर्म आठ गुणनि के प्रतिपक्षी हैं ? सो कहै हैं -- उक्त च
मोहो खाइय सम्म, केवलणाणं च केवलालोय । हरणदि उ आवरणदुर्ग, अणंतविरयं हदि विग्धं तु ॥ सुहमं च सामकम्म, हदि, आऊ. हणेदि अवगहरखं ।
अगुरुलहुगं गोदं अथ्वाबाहं हणेइ वेयणियं ॥ इनिका अर्थ - मोहकर्म क्षायिक सम्यक्त्व कौं घात है। केवलज्ञान पर केवलदर्शन को प्रावरणद्विक जो ज्ञातावरण-दर्शनावरण, सो धाते है । अनंतवीर्य कौं विधन जो अंतराय कर्म, सो पाते है । सुक्ष्मगुण कौ नाम कर्म धात है । प्रायुकर्म अवगाहन गुण कौ पाते है । अगुहलघु कौं गोत्र कर्म घात है । अव्याबाध कौं वेदनीयकर्म घातै है । ऐसें आठ गुणनि के प्रतिपक्षी आठ कर्म जानने ।
___ इस विशेषण करि जीव के मुक्ति नाहीं है, ऐसा मीमांसक मत, बहुरि सर्वदा कर्ममलनि करि स्पर्शा नाही, तातै सदाकाल मुक्त ही है, सदा ही ईश्वर है ऐसा सदाशिव मत, सो निराकरण किया है ।
बहुरि कैसे हैं सिद्ध ? शीतीभूता कहिये जन्म-मरणादिरूप सहज दुःख पर : रोगादिक ते निपज्या शरीर दुःख पर सादिक ते उपज्या आगंतुक दुःख पर आकुलतादिरूप मानसदुःख इत्यादि नानाप्रकार संसार संबंधी दुःख, तिनकी जो बेदना, सोई भया प्रातप, ताका सर्वथा नाश करि शीतल भए हैं; सुखी भए हैं। इस विशेषण फरि मुक्ति विर्षे आत्मा के सुख का अभाव है; ऐसें कहता जो सांख्यमत, सो निराकरण कीया है।
बहुरि कैसे हैं सिद्ध ? निरंजनाः कहिये नवीन पासवरूप जो कर्ममल, सोही भया अंजन, ताकरि रहित हैं। इस विशेषण करि मुक्ति भए पीछे, बहुरि कर्म अंजन का संयोग करि संसार हो है; ऐसे कहता जो सन्यासी मत, सो निराकरण कीया है ।
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[ गोम्मटसार जीवकाम गाथा ६८ - बहुरि कैसे हैं सिद्ध ? नित्याः कहिये यद्यपि समय-समयवर्ती अर्थपर्यायनि करि परिणमए सिद्ध अपने विर्षे उत्पाद, व्यय कौ करें हैं; तथापि विशुद्ध चैतन्य स्वभाव का सामान्यभावरूप जो द्रव्य का आकार, सो अन्वयरूप है, भिन्न न हो है, ताके माहात्म्य ते सर्वकाल विष अविनाशीपणा को प्राश्रित हैं, ताते ते सिद्ध नित्यपना की नाही छोडे हैं । इस विशेषण करि क्षण-क्षण प्रति विनाशीक चैतन्य के पर्याय ते, एक संतानवर्ती हैं, परमार्थ ते कोई नित्य द्रव्य नाही है; ऐसे कहता जो बौद्धमती की प्रतिज्ञा, सो निराकरण करी है।
बहुरि कैसे हैं सिद्ध ? अष्टमुरणाः कहिए क्षायिक सम्यक्त्य, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघुत्व, अव्याबाध नाम धारक जे आठ गुण, तिनकरि संयुक्त हैं । सो यहु विशेषण उपलक्षणरूप है, तारि तिनि गुणनि के अनुसार अनंतानंत गुरपनि का तिन ही विर्षे अंतर्भूतपना जानना । इस विशेषण करि ज्ञानादि गुरगनि का अत्यन्त प्रभाव होना, सोई आत्मा के मुक्ति है ऐसे कहता जो नैयायिक पर वैशेषिक मत का अभिप्राय, सो निराकरण कीया है ।
बहुरि कैसे हैं सिद्ध ? कृतकृत्याः कहिए संपूर्ण कीया है कृत्य कहिए सकल कर्म का नाश अर ताका कारण चारित्रादिक जिनकरि असे हैं । इस विशेषण करि ईश्वर सदा मुक्त है, तथापि जगत का निर्मापण वि. पादर कीया है, तीहि करि कृतकृत्य नाही, काके भी किछु करना है, असे कहता जो ईश्वर सृष्टिवाद का अभि- . : प्राय, सो निराकरण कीया है।
बहुरि कैसे हैं सिद्ध ? लोकाप्रनिवासिनः कहिए विलोकिए हैं जीवादि पदार्थ जाविषे, असा. जो तीन लोक, ताका अग्रभाग, जो तनुवात का भी अंत, तीहिविर्षे निवासी हैं; तिष्ठ हैं । यद्यपि कर्म क्षय जहां कीया, तिस क्षेत्र से ऊपरि ही कर्मक्षय के अनंतरि ऊर्ध्वगमन स्वभाव ते ते गमन करें हैं; तथापि लोक का अग्र भाग पर्यंत ऊर्ध्वगमन हो है । गमन का सहकारी धर्मास्तिकाय के अभाव तें तहां तें ऊपरि गमन न हो हैं, जैसे लोक का अग्रभाग विर्षे ही निवासीपणा तिन सिद्धनि के युक्त है। अन्यथा कहिए तो लोक-अलोक के विभाग का अभाव होइ । इस विशेषरण करि आत्मा के ऊर्ध्वगमन स्वभाव ते मुक्त अवस्था विर्षे कहीं भी विश्राम के प्रभाव ते ऊपरि-ऊपरि गमन हुवा ही करै है; असे कहता जो मांडलिक मत, सो निराकरण कीया है।
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सम्पज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ।
1 १७६ प्रागै श्री माधवचन्द्र विद्यदेव ते 'अष्टविधकर्मविकलाः' इत्यादि सात विशेपनि का प्रयोजन दिखावै हैं -
सदसिवसंखो मक्कडि, बुद्धो रणैयाइयो य वेसेसी। ईसरमंडलिदसण, विदूसणळं कयं एवं ॥ ६६ ॥ सदाशियः सांस्यः मस्करी, बुद्धो नैयायिकश्म वैशेषिकः ।
ईश्वरमंडलिदर्शनविदूषणार्थ कृतमेतत् ।। ३९ ।। टीका - सदाशिवमत, सांख्यमत, मस्करी सन्यासी मत, बौद्धमत, नयायिक मत, वैशेषिकमत, ईश्वरमत, मंडलिमत ए जु दर्शन कहिए मत, तिनके दूषने के अथि ए पूर्वोक्त विशेषण कीए हैं । उक्त च ~
सदाशिवः सदाकर्म, सांख्यो मुक्तं सुखोज्झितम् । मस्करी किल मुक्तानां, मन्यते पुनरागतिम् ।। क्षणिक निर्गुणं चैक, बुद्धो योगश्च मन्यते ।
कृतकृत्यं समीशानो, मंडली चोर्ध्वगामिनम् ।। इनिके अर्थ - सदाशिव मतवाला सदा कर्म रहित मान है। सांस्य मतवाला मुक्त जीव कौं सुख रहित मान है। मस्करी सन्यासी, सो मुक्त जीव के संसार विर्षे बहुरि अावना माने है । बहुरि बौद्ध पर योंग मतवाले क्षणिक पर निर्गुण आत्मा कौं मान हैं । बहुरि ईशान जो सृष्टिवादी, सो ईश्वर कौं अकृतकृत्य मान हैं । बहुरि मांडलिक आत्मा कौं ऊर्ध्वगमन रूप ही माने हैं । भैसें माननेवाले मतनि का पूर्वोक्त विशेषण से निराकरण करि यथार्थ सिद्धपरमेष्ठी का स्वरूप निरूपण कीया। ले सिद्ध भगवान प्रानन्दकर्ता होहु । इति श्रीप्राचार्य नेमिचंद्र विरचित मोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रन्थ की जीव तत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नाम भाषा टीका के विष जीव कांडविर्षे कहीं जे वीस प्ररूणा तिन विर्षे गुणस्थान प्ररूपरखा है नाम जाका असा प्रथम अधिकार संपूर्ण भया ।।१॥
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टूसरा अधिकार : जीवसमास प्ररूपण
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कर्मघातिया जीति जिन, पाय चतुष्टय सार ।
विश्वस्वरूप प्रकाशियो, नमौं अजित सुखकार२ ॥ टीका- असे गुणस्थान संबन्धी संख्यादिक प्ररूपरणा के अनन्तरि जीवसमास प्ररूपरणा . कौ रचता संता निरुक्ति पूर्वक सामान्यपन तिस जीवसमास का लक्षण कहैं है -
हि अरण्या जीवा, गज्जते बहविहा वि तज्जादी। ते पुरण संगहिदत्था, जीवसमासा ति विष्रमेया ।। ७०॥
पैरनेके जीवाश, ज्ञायते बहुविधा अपि तज्जातयः ।
ते पुनः संहितार्था, जीवसमासा इति विशेयाः ॥ ७० ।। टोका - यः कहिए जिनि समान पर्यायरूप धर्मनि करि जीया कहिए जीव हैं, ते अनेके श्रपि कहिए यद्यपि बहुत हैं, बहुविधाः कहिए बहुत प्रकार हैं, तथापि तज्जातयः कहिए विवक्षित सामान्यभाव करि एकठा करने से एक जाति विर्षे प्राप्त कीए हुए शायंते कहिए जानिए ते कहिये जीव समान पर्यायरूप धर्मसंगृहीतार्थाः कहिए अंतर्भूत करी है अनेक व्यक्ति जिनिकरि पैसे जोवसमासाः कहिए जीवसमास हैं, असें जानना।
भावार्थ - जैसे एक मऊ जाति विर्षे अनेक खांडी, मुंडी, साबरी गऊरूए व्यक्ति सास्नादिमत्त्व समान धर्म करि अंतर्गभित हो है । तैसे एकेंद्रियत्वादि जाति विर्षे अनेक पृथ्वीकायादिक व्यक्ति जिनि एकेंद्रियत्वादि युक्त लक्षणनि करि अंतर्गभित करिए, तिनिका नाम जीवसमास है । काहे ते ? जाते 'जीवाः समस्यते यैर्येषु था ते जीवसमासाः' जीव हैं ते संग्रहरूप करिए जिनि समानधर्मनि करि वा जिनि समान लक्षणनि विर्षे ते वे समानरूप लक्षण जीवसमास हैं. अंसी निरुक्ति हो है । इस विशेषण करि समस्त संसारी जीवनि का संग्रहणरूप ग्रहण करना है प्रयोजन जाका, असा जीवसमास का प्ररूपण है; सो प्रारंभ कीया है, असा जानना । अथवा अन्य अर्थ कहै हैं 'जीवा अज्ञेया अपि' कहिए यद्यपि जीव अज्ञात है। काहे ते ? बहुविधत्वात् कहिए जाते जीव बहुत प्रकार हैं । नानाप्रकार प्रात्मा की पर्यायरूप व्यक्ति ते
१. 'सार' के स्थान पर 'अनन्त' ऐसा पाठान्तर है। २. 'सुखकार' के स्थान पर 'शिवसंत' ऐसा पाठान्तर है।
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सम्यग्जरनचन्द्रिका भाषाटीका ]
।११ समस्तपना करि केवलज्ञान विना न जानिये है. यात सर्वपर्यायरूप जीव जानने कौं असमर्थपना है, तथापि तज्जातयः कहिए सोई एकेन्द्रियत्वादिरूप है जाति जिनकी। बहुरि संगृहीतार्थाः कहिए समस्तपना करि गर्भित कोए हैं, एकठे कीये हैं अक्ति जिनिकरि, ऐसे जीव हैं, तेई जीवसमास हैं; ऐसा जानना । अथवा अन्य अर्थ कहै हैं - संगृहीतार्थाः कहिए समस्तपना करि गभित करी है, एकठी करी है व्यक्ति जिन करि ऐसी तज्जातयः कहिए ते जाति हैं । जाते विशेष विना सामान्य न होइ । काहे तैं ? जाते अ॒सा वचन है - 'निविशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषारणवत्' याका अर्थ - विशेष रहित जो सामान्य, सो ससा के सींग समान प्रभावरूप है, तातै संगृहीतार्थ जे वे जाति, तिनका कारणभूत जातिनि करि जीव प्राणी हैं, ते 'अनेकेऽपि' कहिए यद्यपि अनेक हैं, बहुविधा अपि कहिए बहुत प्रकार हैं; तथापि ज्ञायते कहिए जानिए हैं, ते वे जाति जीवसमास हैं, असा जानना ।
भावार्थ - जीवसमास शब्द के तीन अर्थ कहे । तहां एक अर्थ विष एकेंद्रिययुक्तत्वादि समान धर्मनि कौं जीवसमास कहे । एक अर्थ विषं एकेद्रियादि जीवनि कौं जीवसमास कहे । एक अर्थ विर्षे एकेंद्रियत्वादि जातिनि कौं जीवसमास कहे, असे विवक्षा भेद करि तीन अर्थ जानने ।
___ आगे जीवसमास की उत्पत्ति का कारण बहुरि जीवसमास का लक्षण कहै हैं -
तसचदुजुगाणमझे, अविरुद्धेहिं जुदजादिकम्नुवये । जीवसमासा होंति हु, तब्भवसारिन्छसामण्णा ॥ ७१॥ असचतुर्युगलानां मध्ये, अविरुद्धयुतजातिकम्र्मोदये। जोक्समासा भवंति हि, तद्भवसादृश्यसामान्याः ।। ७१ ।।
टोका - स-स्थावर, बहुरि बादर-सूक्ष्म, बहुरि पर्याप्त-अपर्याप्त, बहुरि प्रत्येक साधारण ऐसे नाम कर्म की प्रकृतिनि के च्यारि युगल हैं । तिनिके विर्षे यथासंभव परस्पर विरोध रहित जे प्रकृति, लिनिकरि सहित मिल्या ऐसा जो एकेद्रियादि जातिरूप नाम कर्म का उदय, ताकौं होते संतें प्रकट भए ऐसे तद्भवसादृश्य सामान्यरूप जीव के धर्म, ते जीवसमास हैं।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथी ७१
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तहां तद्भव सामान्य का अर्थ कहैं हैं - विवक्षित एकद्रव्य विषै प्राप्त जो त्रिकाल संबंधी पर्याय, ते भवंति कहिए विद्यमान जाविषै होइ, सो तद्भव सामान्य है । ऊर्ध्वता सामान्य का नाम तद्भव सामान्य है । जहां अनेक काल संबंधी पर्याय का ग्रहण होइ, तहां ऊर्ध्वता सामान्य कहिए । जातें काल के समय हैं, ते उपरिऊपर क्रम प्रवर्ते हैं, युगपत् चौड़ाईरूप नाहीं प्रवर्ते हैं; तातें इहां नाना काल विषै एक विवक्षित व्यक्ति विषै प्राप्त जे पर्याय, तिनिका अन्वयरूप ऊर्ध्वता सामान्य है; सो एक द्रव्य के आश्रय जो पर्याय, सो अन्वयरूप है । जैसे स्थास, कोश, कुशूल, घट, कपालक आदि विषै माटी अन्वयरूप आकार घरें द्रव्य है ।
भावार्थ - माटी क्रम तें इतने पर्यायरूप परिणया । प्रथम स्थास कहिए fusरूप भया । बहुरि कोश कहिए चाक के ऊपरि ऊभा कीया, पिंडरूप भया । बहुरि कुल कहिए हाथ अगूंठनि करि कीया श्राकाररूप भया । बहुरि घट कहिए घडारूप भया । बहुरि कपाल कहिए फूटया घडारूप भया । जैसे एक माटीरूप व्यक्ति विषे अनेक कालवर्ती पर्याय हो हैं । तिनि सबनि विषै माटीपना पाइए है । ताकरि सर्वत्र अवस्थानि माटी द्रव्य बलोकिए है । असें इहां भी अनेक area अनेक विषे एकेंद्रिय आदि जीव द्रव्यरूप व्यक्ति, सो अस्वरूप द्रव्य जानना । सो याका नाम तद्भव सामान्य वा ऊर्ध्वता सामान्य है। तीहि तद्भव सामान्य करि उपलक्षणरूप संयुक्त असे जो सादृश्य सामान्य कहिए, तिर्यक् सामान्य ते जीवसमास हैं । सो एक काल विषे नाना व्यक्तिनि की प्राप्त भया असा एक जातिरूप अन्वय, सो तिर्यक् सामान्य है । याका अर्थ यहु - जो समान धर्म का नाम सादृश्य सामान्य है । जैसे खांडी, मूँडी, सांवरी इत्यादि नाना प्रकार की व्यक्तिनि विषै गऊपणा समान धर्म है ।
विष बैलपना समान धर्म है; सो यहु सादृश्य पृथ्वीकायिक आदि नाना प्रकार जीवनि विषै समान परिणामरूप हैं; ताते इनिकों सादृश्य
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भावार्थ - एक कालवर्ती खांडा, मूंडा, सांवला इत्यादि अनेक बैल, तिनि सामान्य है । तैसें एक कालवर्ती एकेंद्रिय युक्तपना आदि धर्म हैं, ते सामान्य कहिए । असे जे सादृश्य तेई जीवसमास हैं; औसा तात्पर्यं जानना । बहुरि तिनि व्यारि युगलनि की आठ प्रकृतिनि विषे एकेंद्रिय जाति नाम कर्म सहित त्रस नाम कर्म का उदय विरोधी है । बहुरि द्वींद्रियादिक जातिरूप नाम कर्म की च्यारि प्रकृतिनि का उदय सहित स्थावर - सूक्ष्म - साधारण नाम प्रकृतिनि का उदय विरोधी है, अन्य कर्म का
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उदय श्रविरोधी है । बहुरि तैसे ही बस नाम कर्म सहित स्थावर सूक्ष्म-साधारण नाम कर्म का उदय विरोधी है, अन्य कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि स्थावर नाम कर्म सहित यस नाम कर्म का उदय एक ही विरोधी है, अवशेष कर्म का उदय
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विरोधी है । बहुरि बादर नाम कर्म सहित सूक्ष्म नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष प्रकृतिनि का उदय प्रविरोधी है । बहुरि सूक्ष्म नाम कर्म सहित त्रस बादर नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष कर्म का उदय श्रविरोधी है । बहुरि पर्याप्त नाम कर्म सहित अपर्याप्त नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष सर्व कर्म का उदय
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विरोधी है । बहुरि अपर्याप्त नाम कर्म का उदय सहित पर्याप्त नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष सर्व कर्म का उदय श्रविरोधी हैं । बहुरि प्रत्येक शरीर नाम कर्म का उदय सहित साधारण शरीर नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष कर्म का उदय विरोधी है । बहुरि साधारण शरीर नाम कर्म का उदय सहित प्रत्येक शरीर नाम कर्म का उदय र स नाम कर्म का उदय विरोधी है; अवशेष कर्म का उदय विरोधी है । जैसे विरोधी प्रकृतिनि का उदय करि निपजे जे सदृश परिणामरूप धर्म, ते जीवसमास हैं; असा जानना ।
संक्षेप करि जीवसमास के स्थानकवि कौं प्ररूप हैं -
बादर सूक्ष्मकेंद्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिना । पर्याप्तपर्याप्ता एवं ते चतुर्दश भवंति ॥७२॥
बारहमेविय, बितिचउरिदिय असण्णिसणी ध । पज्जत्तापज्जत्ता, एवं ते चोदवसा होंति ॥७२॥
स्वप्तेजोवायु नित्यचतुर्गतिनिगोदस्थूलेतराः ।
प्रत्येक प्रतिष्ठेतराः श्रपंच पूर्णा श्रपूर्णद्विकाः ॥७३॥
टीका - एकेंद्रिय के बादर, सूक्ष्म ए दोय भेद । बहुरि विकलत्रय के द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय ए तीन भेद । बहुरि पंचेंद्रिय के संज्ञी, असंज्ञी ए दोय भेद, जैसे सात जीवभेद भए । ये एक एक भेद पर्याप्त, अपर्याप्त रूप हैं । जैसे संक्षेप करि चौदह जीवसमास हो हैं ।
आगे विस्तार तैं जीवसमास की प्ररूपै हूँ -
भूआ उसेउवाऊ, णिच्चचदुग्गविणिगोदधूलिंदरा | पत्तेयपविट्ठिवरा, तसपरण पुण्णा अण्णढुंगा ॥७३॥
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७४-७५
टीका - पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेज कायिक, वायुकायिक, पर वनस्पतिकायिनि विषै दोय भेद नित्यनिगोद साधारण, चतुर्गतिनिमोद साधारण ए छह भए । तें एक-एक भेद बादर सूक्ष्म करि दोय-दोय भेदरूप हैं; से बारह भए । बहुरि प्रत्येक शरीररूप वनस्पतीकायिक के प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित ए दोय भेद हैं । बहुरि विकलेंद्रिय के बेइंद्री, इंद्री, चौइंद्री, ए तीन भेद । बहुरि पंचेद्रिय के संज्ञी पंचेंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय ए दोय भेद । ए सर्व मिलि सामान्य अपेक्षा उगणीस arcane हो हैं । बहुरि ए सर्व ही प्रत्येक पर्याप्तक, निर्वृत्ति अपर्याप्रक, लब्धि अपर्याप्तक असें तीन-तीन भेद लीए हैं । तातें विस्तार तें जीवसमास सत्तावन भेद संयुक्त हो है ।
आगे इनि सत्तावन जीव-भेदनि के गर्भित विशेष दिखावने के अथि स्थानादिक च्यारि अधिकार कहे हैं -
ठाणेहिं वि जोगीहि थि, देहोग्गाहणकुलाण भेदेहि । utaanter सव्वे, रुविवया जहाकमसो ॥७४॥ स्थानैरपि योनिभिरपि देहावगाहनकुलानां भेदः । जीवसमासाः सर्वे प्ररूपितव्या यथाक्रमशः ॥७४॥
टीका स्थानकft करि, बहुरि योनि भेदनि करि, बहुरि देह की श्रवगाहना के भेदनि करि, बहुरि कुलभेदनि, करि सर्व ही ते जीवसमास यथाक्रम सिद्धांत परिपाटी का उल्लंघन जैसें न होइ तेसे प्ररूपण करने योग्य हैं ।
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ari जैसे उद्देश कहिए नाम का क्रम होइ, तैसे ही निर्देश कहिए स्वरूप निर्णय क्रम करि करना । इस न्याय करि प्रथम कथा जो जीवसमास विषे स्थानाधिकार, ताक गाथा च्यारि करि कहे हैं।
सामण्णजीव तसथावरे, इगिविगलसयलच रिमबुगे । इंfarer after य, बुतिचदुपणगभेदजु ॥७५॥
सामान्यजीवः सस्थावरयोः, एक विकल सकल चरमद्विके । इंद्रियाययोः वरमस्य च, द्वित्रिचतुः पंचभेदयुते ||७५ ||
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सम्यशानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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टोका - तहां उपयोग लक्षण धरै सामान्यमात्र जीवद्रव्य, सो द्रव्यार्थिक नय करि ग्रहण कीए जीवसमास का स्थान एक है । बहुरि संग्रहनय करि ग्रह्या जो अर्थ, ताका भेद करणहारा जो व्यवहारनय, ताकी विवक्षा विर्षे संसारी जीव के मुख्य भेद प्रस-स्थावर, ले अधिकाररूप हैं; जैसे जीवसमास के स्थान दोय हैं। बहुरि अन्य प्रकार करि व्यवहारनय की विवक्षा होते एकेद्रिय, विकलेंद्रिय, सकलेंद्रिय, जीवनि कौं अधिकाररूप करि जीवसमास के स्थान तीन हैं । बहुरि जैसे ही पाग भी सर्वत्र अन्य-अन्य प्रकारनि करि व्यवहारनय की विवक्षा जाननी । सो कहै हैं - एकेद्रिय, विकलेंद्रिय दोय तौ ए, पर सकलेंद्रिय जो पंचेंद्रिय, ताके असंज्ञी, संजी ए दोय भेद, असे मिलि जीवसमास के स्थान च्यारि हो हैं । बहुरि तैसे ही एकेंद्रिय, बेइंद्री तेइंद्री, चौइंद्री, पंचेंद्री भेद जीवसमास के स्थान पांच हैं । बहुरि तैसे ही पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति, प्रसकायिक भेद ते जीवसमास के स्थान छह हैं। बहुरि तैसे ही पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति ए पांच स्थावर भर अन्य असकाय के विकलेंद्रिय, सकलेद्रिय ए दोय भेद, असे मिलि जीवसमास के स्थानक सप्त हो हैं । बहुरि तैसें ही पृथ्वी आदि स्थावरकाय पांच, विकलेंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय, संज्ञी पंचेंद्रिय ए तीन मिलि करि जीवसमास के स्थान पाठ हो हैं । बहुरि स्थावरकाय पांच अर बेंद्री, तेइंद्री, चौंद्री, पंचेंद्री ए च्यारि मिलि करि जीवसमास के स्थान नद हो हैं । बहुरि तैसें ही स्थावरकरय पांच, अर बेंद्री, तेंद्री, चौंद्री, असंज्ञी पंचेंद्री, संशी पंचेंद्री ए पांच मिलि करि जीवसमास के स्थान दश हो हैं ।
पणजुगले तससहिये, तसस्स दुतिचदुरपणगभेदजुने । छद्गपत्तेयह्मि य, तसस्स तियचदुरपणगभेदजुदे ॥७॥ पंचयुगले प्रससहिते, त्रसस्य द्वित्रिचतुःपंचकभेदयुते ।
पतिकप्रत्येके च, सस्य त्रिचतुःपंचभेदयुते ।।७६॥ टीका - तैसे ही स्थावरकाय पांच, ते प्रत्येक बादर-सूक्ष्म भेद संयुक्त, ताके दश अर उसकाय ए मिलि जीवसमास के स्थान ग्यारह हो हैं । बहुरि तैसे ही स्थावरकाय दश पर विकलेंद्रिय सकलेंद्रिय, मिलि करि जीवसमास के स्थान बारह हो हैं । बहुरि तैसें ही स्थावरकाय दश अर असकाय के विकलेंद्रिय, संज्ञी, असंज्ञी पंचेंद्रिय ए तीन मिलि करि जीवसमास के स्थान तेरह हो हैं । बहुरि स्थावरकाय दश अर प्रसकाय के बेंद्री, तेंद्री, चौंद्री, पंचेंद्री ए च्यारि भेद मिलि जीवसमास के
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ७७.५६ स्थान चौदह हो हैं । बहुरि तैसें ही स्थावरकाय के दश, बहुरि सकाय के बेंद्री, तेंद्री, चौंद्री, असंज्ञी पंचेंद्री, संशी पंचेंद्री ए पांच मिलि करि जीवसमास के स्थान पंद्रह हो हैं । बहुरि तैसें ही पृथिवी, अप्, तेज, वायु ए च्यारि अर साधारण वनस्पति के नित्यनिगोद, इतरनिगोद ए दोय भेद मिलि छह भए । ते ए जुदे-जुदे बादर सूक्ष्म भेद लीए हैं। ताके बारह अर एक प्रत्येक वनस्पती, असे स्थावर काय तेरह अर सकाय विकलेंद्रिय, प्रसंशी पंचेंद्रिय, संज्ञी पंचेंद्रिय ए तीनि मिलि जीवसमास के स्थान सोलह हो हैं । बहरि तसे ही स्थावरकाय के तेरह अर असकाय के बेंद्री, तेंद्री, चौंद्री, पंचेंद्री ए च्यारि भेद मिलि करि जीवसमास के स्थान सतरह हो हैं । बहुरि स्थावरकाय के तेरह अर असकाय के बेंद्री, तेंद्री, चौंत्री, असंज्ञी पंचेंद्री, संज्ञी पंचेंद्री ए पांच मिलि जीवसमास के स्थान अठारह हो हैं ।
सगजुगलह्मितसस्स य, पणभंगजुदेसु होति उणवीसा। एयादुणवीसो त्ति य, इगिवितिगुणिवे हवे ठारणा ॥७७॥ सप्तयुगले सस्य च, पंचभंगयुतेषु भवंति एकोनविंशतिः। . एकावेकोनविंशतिरिति च, एकद्वित्रिगुरिणते भवेयुः स्थानानि ॥७७॥
टीका - तैसे ही पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद ए छहों बादर-सूक्ष्मरूप, ताके बारह अर प्रत्येक वनस्पति के सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित ए दोय पर त्रस के बेंद्री, तेंद्री, चौंद्री असंझी पंचेंद्रिय, संजी पंचेंद्रिय ए पांच मिलि जीवसमास के स्थान उगरणीस हो हैं । असे कहे जे ए सामान्य जीवरूप एक स्थान कौं आदि देकरि उगएपीस भेदरूप स्थान पर्यन्त स्थान, तिनिकौं एक, दोय तीन करि गुण, अनुक्रम ते अंत विर्षे उगणीस भेदस्थान, अड़तीस भेदस्थान, सत्तावन भेदस्थान हो हैं।
सामग्रमेण तिपंती, पढमा बिदिया अपुण्णगे इवरे । पज्जत्ते लद्धिअपज्जले पढमा हवे पंती ॥७॥ सामान्येन त्रिपंक्तयः, प्रथमा द्वितीया अपूर्णके इसरस्मिन् ।
पर्याप्ते लब्ध्यपर्याप्त प्रथमा भवेत् पंक्तिः ॥७८॥ टोका - पूर्व कहे जे एक कौं आदि देकरि एक-एक बधते उगणीस भेदरूप स्थान, तिनिकी तीन पंक्ति नीचे-नीचे करनी । तिनि विर्षे प्रथम पंक्ति तौ पर्याप्तादिक
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अब कहे भेदनि की यंत्र में रचना अंकनि करि लिखिये है ।
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की विवक्षा कौं न करि सामान्य आलाप करि गुररानी । बहुरि दूसरी पंक्ति दोय जे पर्याप्त, अपर्याप्त भेद, तिनि करि गुनी । बहुरि प्रथमा कहिए तीसरी पंक्ति, सो तीन जे पर्याप्त, निर्वृति अपर्याप्त लब्धि पर्याप्त भेद तिनि सामान्य करि गुनी । इहां दूसरी, तीसरी दोय पंक्ति अप्रथमा हैं । तथापि दूसरी पंक्ति स्थान कांठे ही कही, तीहिरि प्रथमा से शब्द करि अवशेष रही पंक्ति तीसरी सोई ग्रहण करी है ।
अपेक्षा
भावार्थ एक कौं आदि देकर उगणीस पर्यन्त जीवसमास के स्थान कहे । तिनिका सामान्यरूप ग्रहण कीएं एक आदि एक-एक बधते उगणील पर्यन्त, स्थान हो हैं । इहां सामान्य विषै पर्याप्तादि भेद गर्भित जानने । बहुरि तिन ही एक-एक के पर्याप्त, पर्याप्त भेद कीए दोय कौं आदि देकरि दोय-दोय बघते अडतीस पर्यन्त स्थान हो हैं । इहां अपर्याप्त विनिर्वृत्ति पर्याप्त, लब्धि पर्याप्त दोऊ गर्भित जानने । बहुरि तिन ही एक-एक के पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेद कीये तिनिक आदि देकर तीन-तीन बघते सत्तावन पर्यन्त स्थान हो हैं । इहां जुदे जुदे भेद जानने ।
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जीवसमास के स्थानकनि का मंत्र
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पर्याप्त, अपर्याप्त अपेक्षा स्थान
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पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त अपेक्षा
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१५८
| गोम्मटसार जोयसरपद गाया ७६-८० अब इनि पंक्तिनि का जोड देने के अर्थि करणसूत्र कहिए है 'मुहभूमीजोगदले पदगुरिणदे पदघणं होदि' मुख प्रादि अर भूमी अंत, इनिकौं जोडे, प्राधा करि पद जो स्थान प्रमाण, तीहि करि गुणे, सर्वपदधन हो है ।
सो प्रथम पंक्ति विर्षे मुख एक पर भूमी उगणीस जोडै बीस, ताका आधा दश, पद उगरणीस करि गुणें एक सौ नब्बे सर्व जोड हो है ।
बहुरि द्वितीय पंक्ति विर्षे मुख दोय, भूमी अड़तीस जोडै चालीस, प्राधा कीए बीस पद, उगरणीस करि गुणें, तीन सं असी सर्व जोड हो है ।
बहरि तीसरी पंक्ति विर्षे मुख तीन, भुमी सत्तावन जोडे साठि, प्राधा कीएं तीस, पद उगणीस करि गुण पांच से सत्तरि सर्व जोड हो है ।
___ आगै एकैद्रिय, विकलत्रय जीवसमासनि करि मिले हुए जैसे पंचेंद्रिय संबंधी जीवसमास स्थान के विशेषनि की गाथा दोय करि कहै हैं --
इगियरणं इगिविगले, असणिणसण्णिगयजलथलखगाणं। गन्मभवे समुच्छे, कुतिगं भोगथलखेचरे दो दो ॥७॥ अज्जवमलेच्छमणुए, तिदु भोगकुभोगभूमिजे दो दो। सुररिणरये दो दो इदि, जीवसमासा हु अडरगउदी ॥१०॥ एकपंचाशत् एकविकले, असंजिसंहिंगतजलस्थलसमानाम् । गर्भभवे सम्मूई, द्वित्रिक भोगस्थलखेसरे द्वौ द्वौ ॥७९॥ श्रायम्लेच्छमनुष्ययोस्त्रयो द्वौ भोगकुभोगभूमिजयोद्वौं द्वौ ।
सुरनिरयोद्वों द्वौ इति, जीवसमासा हि अष्टानवतिः ॥८०॥
टीका -- पृथ्वी, अप, तेज, वायु, नित्यनिगोद-इतरनिगोद के सूक्ष्म, बादर भेद करि छह युगल पर प्रत्येक वनस्पती का सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित भेद करि एक युगल, ऐसे एकेन्द्रिय के सात युगल (बहुरि बेंद्री, तेंद्री, चौद्रों ए तीन ऐसे ए सतरह भेद पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेद करि तीन-तीन प्रकार हैं । ऐसे एकद्रिय, विकलेंद्रियनि विर्षे इक्यावन भेद भये । बहुरि पंचेंद्रियरूप तिर्यंच गति विर्षे कर्मभूमि के तिर्यंच तीन प्रकार हैं । तहां जे जल विर्षे गमनादि करें, ते जलचर; अर जे भूमि
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*
सम्पाद्रिका भावीका ]
विष गमनादि करें, ते स्थलचर पर जे आकाश विषै उडना आदि गमनादि करें, ते नभचर; ते तीनों प्रत्येक संज्ञी, असंज्ञो भेदरूप हैं, तिनिके छह भए । बहुरि ते छहीं गर्भज र सम्मूर्छन हो हैं । तहां गर्भज विषै पर्याप्त र निर्वृत्ति अपर्याप्त ए दोयदो भेद संभव हैं, तिनके बारह भए । बहुरि सम्मूर्छन विषे पर्याप्त, निर्वृति अपर्याप्त, for पर्याप्त ऐ तीन-तीन भेद संभव हैं, तिनिके अठारह भए । जैसे कर्मभूमियां पंचेंद्रिय तिर्यंच के तीस भेद भये ।
बहुरि भोगभूमि विषं संज्ञी ही हैं, असंज्ञी नाहीं । बहुरि स्थलचर भर नभ चर ही हैं, जलचर नाहीं । बहुरि पर्याप्त, निर्वृति अपर्याप्त ही हैं, लब्धि पर्याप्त नाहीं । तातें संज्ञी स्थलचर, नभचर के पर्याप्त, अपर्याप्त भेद करि व्यारि ए भए; असें तियंच पंचेंद्रिय के चौंतीस भेद भये
बहुरि मनुष्यति के कर्मभूमि विषै, आर्यखंड विषै तो गर्भज के पर्याप्त, निर्वृसि पर्याप्त करि दो पर सम्पू का न्धि एक भेद जैसे तीन भए । बहुरि म्लेच्छखंड विषै गर्भज ही हैं। ताके पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त करि दोय भेद ।. बहुरि भोगभूमि पर कुभोगभूमि इन दोऊनि विषे गर्भज ही हैं । तिनके पर्याप्त, निर्वृत्ति पर्याप्त करि दोय- दोय भेद भए । व्यारि भेद मिलि करि मनुष्यगति विषै नव भेद भए ।
बहुरि देव, नारकी श्रपपादिक हैं, तिनिके पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त भेद करि दो-दो भेद होई च्यारि भेद । असें च्यारि गतिनि विषै पंचेंद्रिय के जीवसमास के स्थान संतालीस हैं ।
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बहुरि ए संतालीस र एकेंद्री, विकलेंद्रिय के इक्यावन मिलि करि अठयाणव जीवसमास स्थान हो है, जैसा सुत्रनि का तात्पर्य जानना ।
इहाँ विवक्षा करि स्थावरनि के बियालीस विकलेद्रियनि के नव, तिच . पंचेंद्रियनि के चौंतीस देवनि के दोय, नारकीनि के दोय, मनुष्यनि के नव, सर्व मिलि प्राण भए । असें ए कहे जीवसमास के स्थान, ते संसारी जीवनि के ही जानने, मुक्त जीवन के नहीं हैं । जातें विशुद्ध चैतन्यभाव ज्ञान-दर्शन उपयोग का संयुक्तपना करि तिन मुक्त जीवनि के स-स्थावर भेदनि का प्रभाव है। अथवा 'संसारिणस्त्रसस्थावरा: ' सा तत्त्वार्थ सूत्र विषै वचन है तातें ए भेद संसारी जीवनि के ही : जानने !
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[ गोम्मटसार बौक्काण्ड गाथा अब कहे जे जीवसमासनि से विशेष जीवसमास का कहनहारा अन्य प्राचार्य करि कह्या हुवा गाथा सूत्र कहै हैं -
सुद्द-खरकु-जल-ते-वा, णिच्चचदुग्गदिणियोदयूलिदरा । पदिठिवरपंचपत्तिय, वियललिपुण्णा अपुण्णदुगा । इगिविगले इगिसीदी, असणिणसणिगयजलथलखगाणं । गब्भभवे सम्मुच्छे, दुतिगतिभोगथलखेचरे दो दो । अज्जसमुच्छिमिगब्भे, मलेच्छभोगतियकुपरछपणसीससये ।
सुररिणरये वो दो इदि, जीवसमासा हु छहियचारिसयं ॥
टीका - माटी आदिरूप शुद्ध पृथ्वीकायिक, पाषाणादिरूप खरपृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजःकायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद, इतरनिगोद का दूसरा नाम चतुर्गतिनिगोद असे इनि सातनि के बादर-सूक्ष्म भेद से चोदह भए । बहुरि तृणा, बेलि, छोटे वृक्ष, बड़े वृक्षा, कंपसूरत गए पांच प्रत्येक वनस्पति के भेद हैं । ए जब निगोद शरीर करि आश्रित होइ, तब प्रतिष्ठित कहिए । निगोद रहित होइ, तब अप्रतिष्ठित कहिए । असें इनिके दश भेद भए ।
बहुरि बेइंद्री, त्रीद्रिय, चतुरिंद्रथ जैसे विकलेंद्रिय के तीन, ए सर्व मिलि सत्ताइस भेद एकेंद्रिय-विकलेंद्रियनि के भए । इन एक-एक के पर्याप्त, नि ति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेद करि इक्यासी भए ।
बहुरि पंचेंद्रियनि विर्षे - तिर्यच कर्मभूमि विर्षे तौ संज्ञी, असंज्ञी भेद लीयें जलचर, स्थलचर, नभचर भेद करि छह, तिमि छहौं गर्भजनि विर्षे तो पर्याप्त, निर्वत्ति अपर्याप्त भेद करि बारह, अर तिनि छहौं सम्मुर्छन नि विर्षे पर्याप्त, निवृत्ति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेदनि करि अठारह । बहुरि उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य भोगभूमि के संज्ञी थलचर, नभचर इनि छहौं विषं पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त भेद करि बारह, सर्व मिलि पंचेंद्री तिर्यंच, के बियालीस भेद भए ।
अहरि मनुष्यनि विर्षे प्रार्यखंड विर्षे उपज्या सम्मूर्छन विष लब्धि अपर्याप्तकरूप एक स्थान है । बहुरि आर्यखण्ड विर्षे उपजे गर्भज अर म्लेच्छखंड विर्षे उपजे गर्भज ही हैं । पर उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य भोगभूमि उपजे गर्भज ही हैं । अर कुभोगभुमि विर्षे उपजे गर्भज ही हैं। असें छह प्रकार तो मनुष्य, बहुरि से ही दश प्रकार
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सम्यग्ज्ञानafter भाषादीका ]
भवनवासी, आठ प्रकार व्यंतर, पांच प्रकार ज्योतिषी, पटलनि की अपेक्षा करि तरेसठि प्रकार वैमानिक, सर्व मिलि छियासी प्रकार देव ।
निर्वृति
बहुरि प्रस्तारनि की अपेक्षा करि गुणचास प्रकार नारकी ए सर्व मिलि सर्व एक सौ इकतालीस भए । ति एक एक के कीए दोय मैं बियासी होइ । जैसे एकेंन्द्री, विकलेंद्रिय के इक्यासी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच के बियालीस, सम्मूर्छन मनुष्य का एक, गर्भज मनुष्य, देव, नारकिनि के दोय से बियासी मिलि करि छह अधिक च्यारि से जीवसमास प्रकटरूप हो हैं ।
इति जीवसमासनि का स्थान अधिकार समाप्त भया ।
योनि प्ररूपणा विषै प्रथम आकार योनि के भेदनि को कहे हैं - संखावत्तयजोरी, कुम्मुष्णायवसपत्तजोगी य। तत्थ य संखावत्ते, रिगयभाबु विवज्जदे गन्भो ॥८१॥
शंखाकयोनिः कूर्मोन वंशपत्रयोनि च ।
तत्र तु शंखावतें, नियमात्तु विवर्ज्यते गर्भः ॥ ८१ ॥
११
टीका - शंखावर्तयोनि कूर्मोनतयोनि, वंशपत्र योनि से स्त्री शरीर विषै संभवती प्राकाररूप योनि तीन प्रकार हैं । योनि कहिए मिश्ररूप होइ श्रदारिकादिक नोकवर्गणारूप पुद्गलनि करि सहित बंधे जीव जाविषै सो योनि कहिए । जीव का उपजने का स्थान सो योनि है । तहां तीन प्रकार योननि विषै शंखावर्तयोनि विषै तो गर्भ नियम करि विवजित है, गर्भ रहै ही नाहीं । अथवा कदाचित रहै तौ नष्ट होइ है ।
कुम्मण्णजोगीए, तित्थयरा दुविहचक्कवट्टी य । रामा वि य जायंते, सेसाये सेसगंजरो दु ॥ ८२ ॥
कूर्मोन्नतयोनौ तीर्थंकराः द्विविधचक्रवर्तिनश्च ।
रामा अपि च जायंते, शेषायां शेवकजनस्तु ॥१८२॥
चक्रवर्ती,
टीका - कूर्मोन्नतयोनि विषे तीर्थंकर वा सकलचक्रवर्ती वा नारायण, प्रतिनारायण वा बलभद्र उपजें हैं । अपि शब्द करि अन्य कोई नाहीं
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[ गोम्टसार जीवकान्ड गाथा ८२-८३
११२
उपजें है । बहुरि अवशेष वंशपत्रयोनि विषै अवशेष जन उपजे हैं; तीर्थंकरादि नाहीं.
उपजें हैं ।
जन्मभेदन का निर्देश पूर्वक गुणयोनि निर्देश करें हैं
—
जम्मं खलू संमुच्छण, गन्भुवबादा' बु होदि तज्जोरणी । eferenciesसेर मिस्सा २ य पतयं ॥ ८३ ॥
जन्म खलु संमूर्छनगर्भोपपादास्तु भवति तद्योनयः । सचित्तशोतसंवृतसेत रमिश्राश्र प्रत्येकं ॥ ८३ ॥
टीका सम्मूर्तन, गर्भज उप्पाद तीन संसारी जीवनि के जन्म के भेद हैं । सं कहिए समस्तपनें करि मूर्छनं कहिए जन्म धरता जो जीव, तार्कों उपकारी असे जे शरीर के आकारि परिणमने योग्य पुद्गलस्कंध, तिनिका स्वयमेव प्रकट होना, सो सम्मूर्च्छन जन्म है ।
बहुरि जन्म धरता जीव करि शुक्र- शोणितरूप पिंड का गरणं कहिए अपना शरीररूप करि ग्रहण करना, सो गर्भ है । बहुरि उपपावनं कहिए संपुट शय्या वा उष्ट्रादि मुखाकार योनि विषं लघु अंतर्मुहूर्त काल करि ही जीव का उपजना, सो उपपाद है । * तीन प्रकार जन्म भेद हैं ।
भावार्थ - माता-पितादिक का निमित्त विना स्वयमेव शरीराकार पुद्गल कर प्रकट होने करि जीव का उपजनाः सो सम्मूर्छन जन्म है ।
बहुरि माता का लोही पर पिता का वीर्यरूप पुद्गल का शरीररूप ग्रहण करि जीव का उपजना, सो गर्भ जन्म है । बहुरि देवनि का संपुट शय्या विषे, नारकीनि का उष्ट्रखादि श्राकाररूप योनि स्थानकनि विषै लघु अंतर्मुहूर्त करि संपूर्ण शरीर करि जीव का उपजना, सो उपपाद जन्म है। से तीन प्रकार जन्म भेद जानने ।
बहुरि इति सम्मूर्छनादि करि तिनि जीवनि की योनि कहिए । जव के. शरीर ग्रहण का आधारभूत स्थान, ते यथासंभव नव प्रकार हैं । सचित, शीत,
१. सम्न्नगर्भाषपादा जन्म ॥ ३१ ॥
२. चित्तशीतसंयुताः सेतराः मिश्राश्चैकमस्तवोनयः ॥ ३२॥ तत्त्वार्थ सूत्र अन्याय दुसरा.
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सम्परज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
संवृत; इनिके प्रतिपक्षी इतर अचित्त, उध्ण विवृत्त ; बहुरि इनिके मिलने से मिश्रसचित्ताचित, शीतोष्ण, संवृतविवृत असे नव प्रकार हैं । बहुरि ते योनि सम्मुर्छनादिकनि विष प्रत्येक यथासंभव जानना ।
तहां चित्त कहिए अन्य चेतन, तीहिकरि सहित दर्ते, ते सचित्त हैं । अन्य प्राणी करि पूर्वं ग्रहे हुवे पुद्गल स्कंध सचित्त कहिए । बहुरि ताते विपरीत अन्य प्राणीनिकरि न ग्रहे जे पुद्गल स्कंध, ते अचित्त हैं । बहुरि सचित्त-अचित्त दोऊरूप जे पुद्गल स्कंध, ते मिथ हैं । बहुरि प्रगट हैं शीत स्पर्श जिनके ऐसे पुद्गल, ते शील हैं । बहुरि प्रगट हैं उष्ण स्पर्श जिनिके असे पुद्गल, ते उष्ण हैं । बहुरि शीत, उध्या दोऊरूप जे पुद्गल, ते मिश्र हैं । बहुरि प्रकट जाकौं न अवलोकिए असा गुप्त आकार जाका, सो पुद्गल स्कंध संवृत है । बहुरि प्रकट आकाररूप जार्को अवलोकिए असा पुद्गल स्कंध, सो विवृत है । बहरि संयुत-विवृत दोऊरूप पुद्गल स्कंध, सो मिश्र है । असें जीव उपजने के आधाररूप पुद्गल स्कंध, नव प्रकार जानने ।
भावार्थ - गुण की धरै त्रैलोक्य विर्षे यथासंभय जीव जहां उपजे, असे योनिरूप पुद्गल स्कंध, तिनिके भेद नव हैं ।
प्रागै सम्मुर्छनादिक जन्मभेद के जे स्वामी हैं, तिनका निर्देश करै हैं -
पोतजरायुजअंडज, जीवाणं गब्भ देवणिरयाणं । उववादो सेसाणं, सम्मुच्छणयं तु गिदिदिठें ॥४॥ पोतजरायुजाउअजीवानां गर्भः देवनारकारसाम् । उपपादः शेषारणां, सम्मूर्छनकं तु निर्दिष्टम् ।।८४॥
टोका - किंछ भी शरीर ऊपरि अावरण बिना संपूर्ण है अवयव जाका पर योनि से निकसता ही चलनादिक की सामर्थ्य, ताकरी संयुक्त अंसा जीव, सो पोत कहिए । बहुरि जालवत् प्राणी का शरीर अपरि आवरण, मास, लोही जामें विस्तार रूप पाइए असा जो जरायु, ता विर्षे जो जीव उपज्या, सो जरायुज कहिए बहुरि शुक्र, लोहीमय आवरण कठिनता को लीए नख की चामडी समान गोल आकार १, जरायुजायजयोतानां गर्भ: ।।३३।। देवनारफानामुपपादः ॥३४॥
शेषाणां संमूगम् ॥३५॥ तत्वार्थसूत्र, अध्याय दूसरा
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१६४ ]
[ गोम्मटसार जोरकाण्ड गाथा ८५-८६
धरे, सो अंड तीहि विषै उपज्या जो जीव, सो अंडज कहिए । इति पोतजरायुज ही जनम का भेद जानना ।
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बहुरि च्यारि प्रकार देव र धम्मादि विषै उपजे नारकी, तिनिके उपपाद ही जन्म का भेद है ।
इन कहे जीवति बिना अन्य सर्व एकेंद्री, बेंद्री, तेंद्री, चौद्री श्रर केई पचेंद्री तिर्यञ्च र लब्धि अपर्याप्तक मनुष्य, इनिकैं सम्मूर्छन ही जन्म का भेद पाइए है; असा सिद्धांत विषे कहा है ।
गे सचित्तादि योनिभेदनि का सम्मूर्छनादि जन्मभेद विषै संभवपना, असंभवना गाथा तीन करि दिखावै हैं
-
उववादे श्रचितं, गभे मिस्सं तु होदि सम्मुछे । सच्चित च्चित्त, मिस्सं च य होदि जोणी हु ॥८५॥
उपवादे अचित्ता, गर्भे मिश्रा तु भवति संमूच्छे
चिसा चित्ता, मिश्रा च च भवति योनिहि ॥८५॥
टीका देव, नारकी संबंधी जो उपपाद जन्म का भेद, तींहिविषं श्रचित ही योनि हैं। वहां योनिरूप पुद्गल स्कंध सर्व चित्त ही हैं ।
गर्भजन्म का भेदरूप सचित, प्रचित्त दोऊरूप मिश्र ही पुद्गल स्कंघरूप योनि है । तहां योनिरूप पुद्गल स्कंध विषै कोई पुद्गल सवित हैं, कोई अचित्त हैं ।
बहुरि सम्मूर्छन जन्म विषै सचित, चित्त, मिश्र ए तीन प्रकार योनि पाइए हैं। कहीं योनिरूप पुद्गल स्कंध सचित्त ही हैं, कहीं अति ही हैं, कहीं मिश्र हैं ।
उववादे सोसणं, सेसे सोदूसरा मिस्तयं होदि । raatarra य संउड वियलेसु विउलं तु ॥८६॥
उपपादे शीतोष्णं, शेषे शीतोष्णमिश्रका भवंति । काक्षेषु च संवृता विकलेषु विवृता तु ॥ ८६ ॥
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सम्बनितिका भाषादीका ]
[ १६५
टीका - उपपाद जन्मभेद विर्षे शीत अर उष्ण ए दोय योनि हैं । योनिरूप पुद्गल स्कंध शीत हैं का उध्य हैं। तहां नारकोनि के रत्नप्रभा का बिलनि ते लगाइ धमप्रभा बिलनि का तीन चौथा भान पर्यन्त बिलनि विर्षे उष्ण योनि ही है। बहरि धूमप्रभा बिलनि का चौथा भाग ते लगाइ महातम प्रभा का विलनि पर्यन्त बिलनि विषं शीत योनि ही है, असा विशेष जानना । बहुरि अवशेष गर्भ जन्मभेद विर्षे अर सम्मूर्छन जन्म के भेद विर्षे शीत, उष्ण, मिथ तीनों योनि हैं। कोई योनिरूप पुद्गल स्कंध शीत ही हैं, कोऊ उष्ण ही हैं । कोऊ योनिरूप पुद्गल स्कंध विधें कोई पुदगल शीत है, कोई उष्ण है, तातें मित्र हैं। तहां तेजस्कायिक जीवनि विर्षे उष्ण ही योनि है । तहां योनिरूप पुद्गल स्कंध उष्ण ही है। बहुरि जलकायिक जीवनि विर्षे शीत ही योनि हैं। तहां योनिरूप पुद्गल स्कंघ शीत ही हैं । बहुरि उपपादन देव-नारकी अर एकेंद्रिय इन विषं संवृत ही योनि है; जहां उपजै असा योनिरूप पुद्गल स्कंध, सो अप्रकट आकाररूप ही है । बहुरि विकलेंद्रिय विर्षे विवृत योनि ही है; जहां उपजे असा योनिरूप पुद्गल स्कंध, सो प्रकट ही है।
गब्भजजीवाणं पुरण, मिस्सं णियमेण होदि जोणी हु । सम्मुच्छरणपंचक्खे, वियलं वा विउलजोगी हु॥७॥ गर्भजजीवानां पुनः, मिश्रा नियमेन भवति योनिहि ।
संमूच्र्छनपंचाक्षेषु, विकलं वा विवृतयोनिहिं ।।८।। टीका - बहुरि गर्भज जीवनि के संवत, विवृत दोऊरूप मिश्र योनि है । जहां उपजे असा योनिरूप पुद्गल स्कंध विर्षे किछु प्रकट, किछु अप्रकट हैं । बहुरि सम्मू
छन पंचेंद्रियनि विर्षे विकलेंद्रियवत् विवृत योनि ही है। - भाग योनिभेदनि की संख्या का उद्देश के प्रागै कथन का संकोचनि कौं
सामण्णण य एवं, रणव जोगीयो हवंति वित्थारे । लक्खाण चबुरसीदी, जोरपीओ होलि णियमेण ॥८॥ सामान्येन च एवं, नव योनयो भयंति विस्तारे । लक्षाणां चतुरशीतिः, योनयो भवंति नियमेन ॥८॥
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१९६]
[ गोम्मटसार कौवकास गापा ६९-१० टीका - असे पूर्वोक्त प्रकार करि सामान्येन कहिए संक्षेप करि नय योनि हैं । बहुरि विस्तार करि चौरासी लाख योनि हैं नियमकरि ।
भावार्थ - जीव उपजने का आधारभूत पुद्गल स्कंध का नाम योनि है । ताके सामान्यपनै नव भेद हैं, विस्तार करि तिस ही के चौरासी लाख भेद हैं।
प्रागै तिनि योनिनि की विस्तार करि संख्या दिखावं हैं -
रिपच्चिदरधादसत य, तरुदस वियलेंदियेस छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो, चोइस मणुए सदसहस्सा ॥५॥
नित्येतरधातुसप्त च, तरुदश दिकलेंद्रियेषु षट् चेव । .
सुरनिरयतिर्यक्चतस्रः, चतुर्दश मनुष्ये शलसहस्राः ॥८९।। टीका - नित्य निगोद, इतरनिगोद पर धालु कहिए पृथ्वीकायिक, जल कायिक, तेजस्कायिक वायुकायिक इनि छहों स्थाननि विर्षे प्रत्येक सात-सात लाख योनि हैं । बहुरि तरु जो प्रत्येक वनस्पति, तिनि विष दश लाख योनि हैं । बहुरि विकलेंद्रीरूप बेंद्री, तेंद्री, चौद्री इनि विर्षे प्रत्येक दोय-दोय लाख योनि हैं । बहुरि देव, नारकी, पन्द्री तिर्यंच इनि विर्षे प्रत्येक च्यारि-च्यारि लाख योनि हैं । बहुरि मनुष्यनि विर्षे चौदह लाख योनि हैं । असे समस्त संसारी जीवनि के योनि सर्व मिलि चौरासी लाख संख्यारूप प्रतीति करनी।
आग गतिनि का आश्रय करि जन्मभेद को गाथा दोय करि कहै है -
उववादा सुररिणरया, गन्भजसमुच्छिमा हु एरतिरिया । सम्मुच्छिमा भणुस्साऽपज्जता एयवियलक्खा ॥६०॥ उपपादाः सुरनिरयाः, गर्भजसंमूछिमा हि नरतिर्यचः।
सम्भूछिमा मनुष्यर, अपर्याप्ता एकविकलाक्षाः ॥९॥ टीका - देव अर नारकी उपपाद जन्म संयुक्त हैं । बहुरि मनुष्य पर तिथंच ए गर्भज अर सम्पूर्छन यथासंभव हो हैं । तहां लब्धि अपर्याप्तक मनुष्य अर एकेंद्रिय विकलेंद्रिय ए केवल सम्मूच्र्छन ही हैं।
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- Sonarendramuaketer
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सम्बरमात्मचन्द्रिका भरपाटीका ]
[ १६७
पंचक्खतिरिक्खायो, गमजसम्मुच्छिमा तिरिक्खारणं । भोगभुमा गभभवा, नरपुण्रणा गब्भजा चेव ॥६॥ पंचाक्षतियंत्रः, गर्भजसम्मूछिमा तिरश्चाम् ।
भोगभूमा गर्भभवा, नरपूर्ण गर्भजाश्चैव ।।९१॥ टीका -- पंचेंद्रिय तिर्यच, ते गर्भज अर सम्मूर्छन हो हैं । बहुरि तिर्यंचनि विर्षे भोगभूमियां तिर्यंच गर्भज ही हैं । बहुरि पर्याप्त मनुष्य गर्भज ही है।
आगे औपपादिकादिनि विर्षे लब्धि अपर्याप्तकपना का संभवपना-असंभवपना की माह है...
उववादगबभजेसु य, लद्धिअपज्जत्तगा रख रिगयमरण। गरसम्मुच्छिमजीवा, लद्धिअपज्जत्तमा चेव ॥६२॥ उपपायगर्भजेषु च, लब्ध्यपर्याप्तका न नियमेन ।
नरसम्मूछिमजीवा, लब्ध्यपर्याप्तकाश्चैव ॥९२।। टीका - प्रौपपादिकनि विर्षे, बहुरि गर्भजनि विर्षे लब्धि अपर्याप्तक नियम करि नाहीं हैं । बहुरि सम्मूर्छन मनुष्य लब्धि अपर्याप्तक ही हो हैं, पर्याप्त न हो हैं ।
आमै नरकादि गतिति विर्षे वेदनि कौं अवधारण करें हैं -
रइया खलु संढा, रणरतिरिये तिणि होति सम्मुच्छा। संढा सुरभोगभुमा, पुरिसिच्छोवेवगा चेव ॥६३॥
रयिकाः खलु षंढा, नरतिरश्चोत्रयो भवंति सम्मूर्छाः ।
पंढरः सुरभोगभुमाः पुरुषस्त्रीवेदकाश्चैव ॥९३॥ टीका - नारकी सर्व ही नियमकरि षंढा कहिए नपुंसक वेदी ही हैं । बहुरि मनुष्य-तिर्यंचनि विर्षे स्त्री, पुरुष, नपुंसक भेदरूप तीनों वेद हैं । बहुरि सम्मूछन तिथंच पर मनुष्य सर्व नपुंसक वेदी ही हैं । ते सम्मूर्छन मनुष्य स्त्री की योनि वा कांख वा स्तननि का मूल, तिनि विर्ष अर चक्रवर्ती को पट्टराज्ञी बिना सूत्र, विष्टा मादि अशुचिस्थानकनि विर्षे उपजे हैं, ऐसा विशेष जानना । बहुरि देव अर भोग
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१९८ ]
[ गोम्मटसार जीयकार गाया ४
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भूमियां ते पुरुष वेद, स्त्री वेद का ही उदय संयुक्त नियम करि हैं । तहां नपुंसक न पाइए हैं ।
इति तीन प्रकार योनिनि का अधिकार जीवसमासनि का कह्या ।
प्राग शरीर की अवगाहना आश्रय करि जीवसमासनि कौं कहने का है मन जाका, ऐसा आचार्य; सो प्रथम ही सर्व जघन्य अर उत्कृष्ट अवगाहना के जे स्वामी, तिनिका निर्देश करै हैं -
सहमणिगोदअपज्जत्यस्स जादस्स तदियसमयम्हि । अंगुलप्रसंखभागं, जहणमुक्कस्सयं मच्छे ॥६४॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य तृतीयसमये । अंगुलासंख्यभाग, अधन्यमुत्कृष्टकं मत्स्ये ॥१४॥
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दीका -- जितना पाकाश क्षेत्र शरीर रोक, ताका नाम इहाँ अवगाहना है । सो सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक जीव, तोहि पर्याय विर्षे ऋजुगति करि उत्पन्न भया, ताके तीसरा समय विर्षे धनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमारा प्रदेशनि की अवगाह विशेष धरै शरीर हो है । सो यहु अन्य सर्व अदगाहना भेदनि ते जघन्य है। बहुरि स्वयंभूरमण नामा समुद्र के मध्यवर्ती जो महामत्स्य, ताका उत्कृष्ट अवगाहना तें भी सबनि तें सर्वोत्कृष्ट अवगाहना विशेष धरै शरीर हो है ।
इहां तर्क - जो उपजनें तें तीसरा समय वि सर्व जघन्य अवगाहना कसे संभव है ?
लहां समाधान - जो उपजता ही प्रथम समय विर्षे तो निगोदिया जीव का शरीर लंबा बहुत, चौडा थोडा, ऐसा चौकोर हो है । बहुरि दूसरा समय विर्षे लंबाचौडा समान ऐसा चौकोर हो है । बहुरि तीसरे समय कोण दूर करणे करि गोल प्राकार हो है; तब ही तिस शरीर के अवगाहना का अल्प प्रमाण हो है, जातै लंबा चौकोर, सम चौकोर तें गोल क्षेत्रफल स्तोक हो है ।
. बहुरि तर्क - जो ऐसे हैं तो ऋजुगति करि उपज्या ही के होइ - ऐसे कैसे कहा?
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चन्द्रिका पीठा
[ १९६
ताका समाधान
जीव पर भव करें गमन करें, ताकी विदिशा करि वजित च्यारि दिशा वा अधः, ऊर्ध्वं विषे गमन क्रिया होइ है, सो च्यारि प्रकार है- ऋजु गति, पाणिमुक्ता गति, लांगल गति, गोमूत्रिका गति । तहां सूधा गमन होइ, सो ऋजु गति है । जामैं बीचि एक बार मुडे, सो पाणिमुक्ता गति है । जामैं बीच दोय बार मुडे, सो लांगल गति है। जामैं बीच तीन बार मुडे, सो गोमूत्रिका गति है । सो मुडने रूप जो विग्रह गति, ताविषै जीन योग की वृद्धि कर हो है । करि शरीर की श्रवगाहना भी वृद्धिरूप हो है । तातें ऋजुगति करि उपज्या जीव के जघन्य अवगाहना कही, सो सर्वजघन्य श्रवगाहन का प्रमाणक हैं हैं । घनांगुल रूप जो प्रमाण, ताका पल्य का असंख्यातवां भाग उगरणीस बार, बहुरि ग्रावली का असंख्यातवां भांग नव बार, बहुरि एक अधिक आवली का प्रसंख्यातवां भाग बाईस बार, बहुरि संख्यात का भाग नव बार इतने तौ भागहार जानने । बहुरि तिस घनांगुल को श्रावली का संख्यातवां भाग का बाईस बार गुणकार जानने । तहां पूर्वोक्त भागहारनि को मांडि परस्पर गुरणन कीए, जेता प्रमाण प्रावै, तितना भागहार का प्रमाण जानना । बहुरि बाईस जायगा श्रावली का असंख्यातवां भाग को मांडि परस्पर गुणै जो प्रमाण आव, तितना गुणकार का प्रमाण जानना । तहां धनांगुल के प्रमाण की भागहार के प्रमाण का भाग दीए, अर सुरकार का प्रमाण करि गुणै जो प्रमाण श्रावै, तितमा जघन्य अवगाहना के प्रदेशनि का प्रमाण जानना । मैसे ही आगे भी गुणकार, भामहार का श्रनुक्रम जानना ।
इंद्रिय श्राश्रय करि उत्कृष्ट अवगाहनानि का प्रमाण, तिनिके स्वामीनि को निर्देश करें हैं
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साहियसहस्वमेकं वारं कोसूरणमेकमेक्कं च । जोयणसहस्सदीहं, धम्मे वियले महामच्छे ॥ ६५ ॥
साधकसहस्रमेकं द्वादश कोशोनमेकमेकं च । योजन सहस्रदीर्घ, पद्मे विकले महामत्स्ये ॥ १९५॥
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टोका - एकेंद्रियनि विषे स्वयंभूरमण द्वीप के मध्यवर्ती जो स्वयंप्रभ नामा पर्वत, ताका परला भाग संबंधी कर्मभूमिरूप क्षेत्र विषै उपज्या जैसा जो कमल, ate a fe अधिक एक हजार योजन लंबा, एक योजन चौडा जैसा उत्कृष्ट
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२०.
[ गोम्मटसार जीवकरण गाया है।
अवगाह है । याका क्षेत्रफल कहिए है - समान प्रमाण लीए खंड कल्पै जितने खंड होइ, तिस प्रमाण का नाम क्षेत्रफल है। तहां ऊंचा, लम्बा, चौडा क्षेत्र का ग्रहण जहां होइ, तहां घन क्षेत्रफल वा खात क्षेत्रफल जानना । बहुरि जहां ऊंचापना की विवक्षा न होइ अर लम्बा-चौडा ही का ग्रहण होइ, तहां प्रतर क्षेत्रफल वा वर्ग क्षेत्राला लागना नहुरि जहां ऊंचा-चौडापना की विवक्षा न होइ, एक लम्बाई का ही ग्रहण होइ, तहां श्रेणी क्षेत्रफल जानना ।
सो इहां खात क्षेत्रफल कहिए है । तहां कमल गोल है, ताः गोल क्षेत्र का क्षेत्रफल साधनरूप करण सूत्र करि साधिए है -
वासोत्तिगुरषो परिही, वासचउत्थाहदो दु खेतफलं । खेत्तफलं बेहगुणं, खादफलं होइ सम्वत्थ ।।
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याका अर्थ - व्यास, जो चौडाई का प्रमाण, तातै तिगुणा गिरदभ्रमणरूप जो परिधि, ताका प्रमाण हो है । बहुरि परिधि कौं व्यास का चौथा भाग करि गुणे, प्रतररूप क्षेत्रफल हो है । बहुरि याकी वेध, जो ऊंचाई का प्रमाण, ताकरि मुण सर्वत्र खातफल हो है । सो इहां कमल विष व्यास एक योजन, ताकौं तिगुणा कीए परिधि तीन योजन हो है । याकौं व्यास का चौथा भाग पाव योजन करि गुणे, प्रतर क्षेत्रफल पौंरण योजन हो है । याकौं वेध हजार योजन करि युरणे, च्यारि करि अपवर्तन कीए, योजन स्वरूप कमल का क्षेत्रफल साड़ा सात सौ योजन प्रमाण हो है।
भावार्थ - एक-एक योजन लम्बा, चौडा, ऊंचा खंड कल्पै इतने खंड हो हैं।
बहुरि द्वींद्रियनि विर्षे तीहि स्वयंभूरमरण समुद्रवर्ती शंख विर्षे बारह योजन लम्बा, योजन का पांच चौथा भाग प्रमाण चौडा, च्यारि योजन मुख व्यास करि युक्त, असा उत्कृष्ट अवगाह है । याका क्षेत्रफल करणसूत्र करि साधिए है -
व्यासस्तावद् गुरिणतो, बदनवलोनो मुखार्थवर्गयुतः।
द्विगुणश्चतुभिर्भक्तः, पंचगुणः शंखखातफलं ॥ याका अर्थ - प्रथम व्यास करें व्यास करि गुणिए, तामें मुख का प्राधा प्रभारण घटाइ, तामें मुख का प्राधा प्रसारण का वर्ग जोडिए, ताका दूणा करिए, ताकी च्यारि
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सम्मानचन्द्रिका भावाटीका )
[ २०१ का भाग दीजिए, ताकौं पांचगुणा करिए,असे करते शंख क्षेत्र का खातफल हो है। सो इहां व्यास बारह योजन करें याही करि गुण एक सौ चवालीस होइ । यामें मुख का पाषा प्रमाण दोय घटाए, एक सौ ब्यालीस होइ । यामें मुख का आधा प्रमाण का वर्ग च्यारि जोडें, एक सौ छियालीस होइ । याकौं दूणा कीए दोय से बागवे होइ । याकौं व्यारि का भाग दीए तेहत्तरि होइ । याकौं पांच करि गुण, तीन सौ पैसठि योजन प्रमाण शंख का क्षेत्रफल हो है ।
बहुरि श्रींद्रियनि विर्षे स्वयंभरमण द्वीप का परला भाग विर्षे जो कर्मभूमि संबंधी क्षेत्र है, तहां रक्त बीच जीव है । तीहि विर्षे योजन का तीन चौथा भाग प्रमाण (1) लम्बा, लम्बाई के आठवें भाग (२२) चौडा, चौडाई ते आधा (16) ऊना और समाज माह है : यहु क्षेत्र आयत चतुरस्र है । लम्बाई लीए चौकोर है, सो याका प्रतर क्षेत्रफल भुज कोटि बधते हो 'है । सन्मुख दोय दिशानि विर्षे कोई एक दिशा विष जितना प्रमाण, ताका नाम भुज है । बहुरि अन्य दोय दिशा विर्षे कोई एक दिशा विर्षे जितना प्रमाण, ताका नाम कोटि है । अर्थ यह जो लम्बाई-चौडाई विर्षे एक का नाम भुज, एक का नाम कोटि जानना । इनिका वेध कहिए परस्पर गुरणना, तीहि थकी प्रतर क्षेत्रफल हो है। सो इहां लम्बाई तीन चौथा भाग, चौडाई तीन बत्तीसवां भाग, इनिको परस्पर गुण नब का एक सौ अठाईसवां भाग ( १२८) भया । बहुरि याकौं वेध ऊंचाई का प्रमाण तिनिका चौसठियां भाग, ताकरि गुणे, सत्ताईस योजन को इक्यासी से बाण का भाग 'दीए एक भाग (८१६२)प्रमाण रक्त बीछ का धन क्षेत्रफल हो है।
____ बहुरि चतुरिद्रियनि विर्षे स्वयंभूरमरण द्वीप का परला भामवर्ती कर्मभूमि संबंधी क्षेत्र विर्षे भ्रमर हो है । सो दिहि विर्षे एक योजन लांबा, पौन योजन(२) चौडा, आधा योजन (२) ऊंचा उत्कृष्ट अवगाह है। ताकी भुज कोटि वेध - एक योजन पर तीन योजन का चौथा भाग, अर एक योजन का दूसरा भाग, इनिकों परस्पर गुणे, तीन योजन का आठवा भाग (८) प्रमाण घन क्षेत्रफल' हो है ।
बहुरि पंचेंद्रियनि विर्षे स्वयंभूरमण समुद्र के मध्यवर्ती महामच्छ, तीहि विर्षे हजार (१०००) योजन लांबा, पांच से (५००) योजन चौडा, पचास अधिक दोय सै (२५०) योजन ऊंचा उत्कृष्ट अवगाह है। तहां भुज, कोटि, वेध हजार
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[ भोम्मटसार श्रीरकाण्ड गाथा ६६-६७ (१०००) अर पांच सै (५००) पर अढाई से (२५०) योजन प्रमाण, इनिकों परस्पर गुणें साढे बारा कोडि (१२५००००००) योजन प्रमाण धनफल हो है। असे कहे जो योजन रूप घनफल, तिनके प्रदेशनि का प्रमाण कीए एकेंद्रिय के च्यारि बार संख्यातगुणा घनांगुल प्रमाण, द्वींद्रिय के तीन बार संख्यातगुणा घमांगुल प्रमाण, वींद्रिय के एक बार संख्यातगुणा धनांगुल प्रमाण, चतुरिद्रिय के दोय बार संख्यातगुणा घनांगुल प्रमाण, पंचेंद्रिय के पांच बार संख्यातगुणा धनांगुल प्रमाण प्रदेश उत्कृष्ट अवगाहना विर्षे हो है ।।
आग पर्याप्त ह्रींद्रियादिक जीवनि का जघन्य अवगाहना का प्रमाण भर ताका स्वामी का निर्देश कौं कहै हैं -
बितिचपपुग्णजहणं, अणुधरीकुथुकारणमच्छीसु । सिच्छयमच्छे विदंगलसंखं संखगुरिगदकमा ॥६६॥ द्वित्रियपपूर्णजधन्यमkधरीकुथुकारामक्षिकासु ।
सिक्थकमत्स्ये बांगुलसंख्य संख्यगणितकमाः ॥१६॥ टीका - पर्याप्त द्वींद्रिय विर्षे मनुंधरी, त्रींद्रियनि विर्षे कुंथ, चतुरिद्रियनि विर्षे कारणमक्षिका, पंचेंद्रियनि विर्षे तंदुलमच्छ इनि जीवनि विर्षे जपच्य अवगाहना विशेष धरै जो शरीर, ताकरि रोक्या हुवा क्षेत्र (प्रदेशनि) का प्रमाण धनांगुल का संख्यातदां भाग तें लगाइ, संख्यातगुणा अनुक्रम करि जानना । तहां द्वींद्रिय विष च्यारि बार, त्रींद्रिय विर्षे तीन बार, चतुरिद्रिय विर्षे दोय बार, पंचेंद्रिय विर्षे एक बार, संख्यात का भाग जाकौं दीजिए औसा घनांगुल मात्र पर्याप्तनि की जघन्य अवगाहना के प्रदेशनि का प्रमाण जानना । इनिका अब चौडाई, लम्बाई, ऊंचाई का उपदेश इहां नाहीं है । धनफल कीए जो प्रदेशनि का प्रमाण भया, सो इहां
कह्या है।
आगै सर्व ते जघन्य अवगाहना कौं आदि देकरि उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत शरीर को अवगाहना के भेद, तिनिका स्वामी वा अल्पबहुत्व वा क्रम तें गुणकार, तिनिकौं गाथा पंच करि इहां दिखावे हैं -
सुहमरिणवातेप्राभू वालेनापुरिणपविदिं इदरं । बितिचपमाविल्लाणं, एयाराणं लिसेढीय ॥६॥ सूक्ष्मनिवातेयाभू, वातेप्रनिप्रतिष्ठितमितरत् । द्वित्रिचपमाद्यानामेकादशानां त्रिश्रेपथः ।।९७॥
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मम्मानन्द्रिका भाघाटका
टीका - इहां नाम का एक देश, सो संपूर्ण नाम विर्षे वत है । इस लघुकरण न्याय कौं प्राश्रय करि गाथा विर्षे कह्या हुवा णिवा इत्यादि आदि अक्षरनि करि निगोद वायुकायिक आदि जीवनि का ग्रहण करना । सो इहां अवगाहना के भेद जानने के अथि एक यंत्र करना। .
तहां सूक्ष्म निगोदिया, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म तेजःकायिक, सूक्ष्म अप्. कायिक, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक नाम धारक पांच सूक्ष्म तिस यंत्र के प्रथम कोठे विषं लिखे हो हैं।
बहुरि ताकी बरोबरि प्राग बादर- वायु, तेज, जल, पृथ्वी, निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येक नाम धारक ये छह बादर पूर्ववत् अनुक्रम करि दूसरा कोठा विर्षे लिखे हो हैं। पहिले जिनके नाम लीए थे, तिन ही के फेरी लीए, इस प्रयोजन की समर्थता ते प्रथम कोठा विर्षे सूक्ष्म कहे थे; इहां दूसरा कोठा विर्ष बादर ही हैं, असा जानना।
बहुरि ताके आगे अप्रतिष्ठित प्रत्येक, हींद्रिय, श्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय नाम धारक ए पांच बादर तीसरा कोठा विर्षे लिखे हो हैं । इनि सोलहौं विर्षे आदि के सूक्ष्म निगोदादिक ग्यारह, तिनि आमै तीन पंक्ति करनी । तहां एक-एक पंक्ति विर्षे दोय-दोय कोठे जानने । कसै ? सो कहिए है - पूर्वे तीसरा कोठा कहा था, ताके प्रागै दोय कोठे करने । तिनि विषं जैसे पहला, दूसरा कोठा विर्षे पांच सूक्ष्म, छह बादर लिखे थे, तैसे इहां भी लिखे हो हैं । बहुरि तिनि दोऊ कोठानि के नीचे पंक्ति विषं दोय कोठे और करने । तहां भी तैसे ही पांच सूक्ष्म, छह बादर लिखे हो हैं। बहुरि तिनिके नीचे पंक्ति विषं दोय कोठे और करने, तहां भी तैसे ही पांच सूक्ष्म, छह बादर लिखे हो हैं । असे सूक्ष्म निगोदादि ग्यारह स्थानकनि का दोय-दोय कोठानि करि संयुक्त तीन पंक्ति भई । या प्रकार ऊपरि की पंक्ति विर्षे पांच कोठे, ताते नीचली पंक्ति विष दोय कोठे, तातै नीचली पंक्ति विर्षे दोय कोठे मिलि नव कोठे भए ।
अपदिविपत्तेयं, बितिचपतिचबि-अपदिट्ठि सयलं । तिचवि-अपविदिं च य, सयलं बादालगुरिषदकमा ६
अप्रतिष्ठितप्रत्येक द्वित्रिपत्रिचद्वचप्रतिष्ठितं सकलम् । विधवप्रतिष्ठितं च च सकलं वाचत्वारिंशद्गुणितकमाः ।।९८॥
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२०४॥
[ महार जोषका गापा kE टीका - बहुरि तिनि तीनि पंक्तिनि के आगे ऊपर पंक्ति विषं दशबा कोठा करना तीहि विर्षे अप्रतिष्ठित प्रत्येक, द्वींद्रिय,. श्रींद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेंद्रिय नाम धारक पांच बादर लिखे हो हैं। बहुरि ताके आगें ग्यारहवां कोठा विर्षे त्रींद्रिय, चौइंद्रिय, बेंद्रिय, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती, पचेंद्रिय नाम धारक पांच बादर लिखे हो हैं । बहरि ताके प्राग बारहवां कोठा विर्षे त्रींद्रिय, चतुरिद्रिय, द्वींद्रिय, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती, पंचेंद्रिय नाम धारक पांच बादर लिखे हो हैं । जैसें ए चौसाठि जीवसमासनि की अवगाहना के भेद हैं। तिनि विर्षे ऊपरि की पंक्तिनि के आठ कोठानि विर्षे प्राप्त असे जे बियालीस जीवसमास, तिनकी अवगाहना के स्थान, ते गुणितक्रम हैं । अनुक्रम तें पूर्व स्थान कौं यथासंभव गुणकार करि मुणे उत्तरस्थान हो हैं। बहुरि तातै इनि नीचे की दोय पंक्तिनि विर्षे प्राप्त भए बाईस स्थान, ते 'सेढिगया अहिया तत्थेकपडिभागो' इस वचन तें अधिक रूप है। तहां एक प्रतिभाग का अधिकपना जानना । पूर्वस्थान कौं संभवता भागहार का भाग देइ एक भाग कौं पूर्वस्थान विर्षे अधिक कीए उत्तरस्थान हो है; असा सूचन कीया है ।
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अवरमपुण्णं पढम, सोलं पुरण पढमबिदियतदियोली। पुण्णिवरपुण्णियावं, जहण्णमुक्कस्समुक्कस्सं ॥६६॥
अवरमपूर्ण प्रथसे, षोडश पुनः प्रथमद्वितीयतृतीयावलिः ।
पूर्णेतरपूर्णानां, जधन्यमुत्कृष्टमुत्कृष्टं १९९॥ टीका -- पहले तीन कोठेनि विर्षे प्राप्त जे सोलह जीवसमास, तिनिकी अपर्याप्त विर्षे जघन्य अवगाहना जाननी । बहुरि आगे ऊपरि तें पहली, दूसरी, तीसरी पंक्तिनि विर्षे एक-एक पंक्ति विर्षे दोय-दोय कोठे कीए, ते ऋम तें पर्याप्त, अपर्याप्त, पर्याप्तरूप तीन प्रकार जीव की जघन्य, उत्कृष्ट अर उत्कृष्ट अवगाहना है । याका अर्थ यह -- जो ऊपरि ते प्रथम पंक्ति के दोय कोठानि विर्षे पांच सूक्ष्म, छह बादर इनि - ग्यारह पर्याप्त जीवसमासनि की जघन्य अवगाहना के स्थान हैं । तैसे ही नीचें दूसरी पंक्ति विषं प्राप्त तिनि ग्यारह अपर्याप्त जीवसमासनि की उत्कृष्ट अवगाहना के स्थान हैं । तैसें ही तीसरी पंक्ति विष प्राप्त तिनि ग्यारह पर्याप्त जीव समासंनि की उत्कृष्ट अवगाहना के स्थान हैं ।
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सम्यग्ज्ञामचन्द्रिका भरपाटीमा
[ २०५ पुण्णजहणणं तत्तो, बरं अपुण्णस्स पुण्णउक्कस्सं। बीपुण्णजहण्णो ति, असंखं संखं गुणं तत्तो ॥१०॥
पूर्णजघन्यं ततो, वरमपूर्णस्य पूर्णोत्कृष्टं ।
द्विपूर्णजघन्यमिति असंख्य संख्यं गुणं ततः ॥१०॥ टीका - ताके आगें दशवां कोठा विर्षे प्राप्त पर्याप्त पांच जीवसमासनि की जघन्य अवगाहना के स्थान हैं । बहुरि तहां तें प्रागै ग्यारहवां कोठा विर्षे अपर्याप्त पांच जीवसमासनि की उत्कृष्ट अवगाहना के स्थान हैं। बहुरि ताके प्रागै बारहवां कोठा विर्षे पर्याप्त पंच जीवसमासनि की उत्कृष्ट अवगाहना के स्थान हैं । जैसे ए कहे स्थान, तिनि विर्षे प्रथम कोठा विर्षे प्राप्त सूक्ष्म अपर्याप्त निगोदिया जीद की जघन्य अवगाहना त लगाइ दशवा कोठा विर्षे प्राप्त बादर पर्याप्त द्वींद्रिय की जघन्य अवगाहना पर्यंत ऊपरि की पंक्ति संबंधी गुणतीस अवगाहना के स्थान, ते असंख्यातअसंख्यात गुणा क्रम लीए है। बहुरि तिसते प्रागै बादर पर्याप्त पंचेंद्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत तेरह अवगाहना के स्थान, ते संख्यालगुणां, संख्यातगुणां अनुक्रम लीए हैं; जैसा जानना ।
सुहमेदरगुरणगारो, आवलिपल्ला असंखभागो दु । सट्ठाणे सेढिगया, अहिया तत्थेकपडिभागो॥१०१॥
सूक्ष्मेतरगुणकार, श्रावलिपल्यासंख्येयभागस्तु ।
स्वस्थाने श्रेणिमता, अधिकास्तकप्रतिभागः ॥१०१॥ टीका -- इहां गुणतीस स्थान असंख्यातगुणे कहे, तिनिविर्षे जे सूक्ष्म जीवनि के अवगाहना के स्थान हैं, ते पावली का असंख्यातवां भाग करि गुणित जानने । पूर्वस्थान कौं धनावली १ का असंख्यातवां भाग करि तहां एक भाग करि गुण उत्तर स्थान हो है । बहुरि जे बादर जीवनि के अवगाहन के स्थान हैं, ते पत्य का असंख्यातवां भाग करि गुरिणत हैं । पल्य का असंख्यात भाग करि तहां एक भाग करि पूर्वस्थान कौं गुणें, उत्तर स्थान हो हैं। असे स्वस्थान विर्षे मुरणकार हैं, या प्रकार असंख्यात का गुणकार विर्षे भेद है, सो देखना । बहुरि नीचली दूसरी, तीसरी पंक्ति
१. मप्रति में 'प्रावली' है, बाकी चार प्रतियों में 'धनावली' है।
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सूक्ष्भनिगोद १ | धादरघात ६ तेज अप्रतिष्ठित | सूक्ष्मनिमोद १७ वावर घात २२, अप्रतिष्टित | तेंद्री ५५ चौइंद्री । तेंद्री ६० चौइंद्री
| दात १५ तेज १६ तेज २३ अ २४ । प्रत्येक ५०वेंद्री 1 ५६ केंद्री ५७ । ६१ केंद्री ६२ अप ४ पृथ्वी ५६ निगोय १० | १३ तेंद्री १४ | अप २० पृथ्वी | पृथ्वी २५ निगोद | ५१ तेंद्री ५२ . अप्रतिष्ठित ५८ अप्रतिष्ठित प्रत्येक इति वंच अपर्या प्रतिष्ठित प्रत्येक | चौद्री १५ पंचेंद्री | २१ इनि पंच | २६ प्रतिष्ठित | त्रौद्री ५३ पंचेंद्री पंचेंद्री ५६ इनि
| चाँदी ५३ पंचेंद्री पंचद्री ५६ इनि ६३ पंद्री ६४, हनि को जघन्य ११ इन छह १६ इनि' पाँच पप्तिान की प्रत्येक २७ इनि १५४ इनि पाँच | पांच अप्रर्याप्तनि इनि पांघ पर्याअवमाना।
! अगर्याप्तनि की ! अपर्याप्तनि की।
नि का! अपर्याप्तनि की | जघन्य अवमा- | छहो प्रर्याप्तनि |पर्याप्तनि की की उत्कृष्ट अव-|प्तनि को उत्कृष्ट अघन्य वगा जघन्य अन्नगा-हना।
की जघन्य अव- जघन्य अक्ष्या-पाहना। । । हना।
पाहमा।
सुधमनियोट २८ । बादर वात ३३ पति २९ तेज ३० तेज ३४ अन ३५ अप ११ पृथ्वी पृथ्यी ३६ मिमोष ३२ इनि पांच ! ३७ प्रतिष्ठित अपप्तिमि की प्रत्येक ३८ इनि उत्कृष्ट प्रवगा- | छहो अपरतिनि
की उत्कृष्ट अवनाहना।
सूक्ष्मनियोद ३६ | वादर क.स ४४ धात ४० ते ४१ तेज ४५प ४६ अप् ४२ पृथ्वी पृथ्वी ४७ निगोद ४३ इनि पंचपर्या-४८ मिष्ठित पतनि की उत्कृष्ट
प्रत्येक ४६ इनि अवगाहना।
यही पाप्तिनि की उत्कृष्ट अव
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सम्मानपरिका माटोका ]
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विषे प्राप्त जे अवगाहना के स्थान ते अधिक अनुक्रम घरें हैं। तहां सूक्ष्म निगोद पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना के स्थान की आदि देकरि उत्तर-उत्तर स्थान पूर्वपूर्व प्रवगाहना स्थान तें ताही को आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीए, तहां एक भागमात्र अधिक हैं । पूर्वस्थान को भायली का असंख्यातवां ( भाग का) भाग दीए जो प्रमाण होइ, तितना पूर्वस्थान विर्षे अधिक कीए उत्तरस्थान विषै प्रमाण हो है । इहां अधिक का प्रमाण ल्यावने के अर्थि भागहार वा भागहार का भागहार, सो Heat का असंख्यातवां भाग प्रमाण है । स परमगुरु का उपदेश तें चल्या श्राया प्रमाण जानना । बहुरि यहां यह जानना - सूक्ष्मनियोदिया का तीनों पंक्ति विषै अनुक्रम करि पीछे सूक्ष्म वातकायिक का तीनों पंक्तिनि विषै अनुक्रम करना । से हो क्रम तें ग्यारह जीवसमासान का अनुक्रम जानता ।
यह यंत्र जीवसमासनि की श्रवगाहना का है । इहां ऊपरि की पंक्ति विषे प्राप्त बियालीस स्थान गुरणकाररूप | तहां पहला, चौथा कोठा विषं सूक्ष्म जीव कहे, ते क्रम ते पूर्वस्थान तें उत्तरस्थान आवली का असंख्यातवां भाग करि मुति है । बहुरि दूसरा, तीसरा, सातवां कोठा विषे बादर कहे घर दशवां कोठा विषे अप्रतिष्ठित प्रत्येक वा बेंद्री कहे, ते क्रम तैं पल्य के असंख्यातवां भाग करि गुखित हैं । बहुरि दशवां कोठा विषै तेंद्री सौं लगाइ बारहवां कोठा विषै प्राप्त पंचेंद्री पर्यंत संख्यात करि गुणित हैं । बहुरि नीचली दोय पंक्तिनि के व्यारि कोठानि विषे जे स्थान कहे, ते आवली का संख्यातवां भाग करि भाजित पूर्वस्थान प्रमाण अधिक हैं ।
( देखिए पृष्ठ २०६ ) अब इहां कहे जे अवगाहना के स्थान, तिनके गुरणकार का विधान कहिए | सूक्ष्म निगोदिया लब्धि पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना का स्थान, सो आगे कहैंगे गुणकार, तिनकी अपेक्षा अंसा है । उगणीस बार पत्य का भाग, नव बार श्रावली का प्रसंख्यातवां भाग, बाईस बार एक अधिक भावली का असंख्यातवा भाग, तब बार संख्यात, इनिका तो जाक भाग दीजिए। बहुरि बाईस बार प्रावली का असंख्यातवां भाग करि जार्को गुणिए जैसा जो घनांगुल, तीहि प्रमाण है, सो arat after स्थान स्थापि, यातें सूक्ष्म अपर्याप्तक वायुकायिक जीव का जघन्य अवगाहना स्थान आवली का असंख्यातवां भाग करि गुपित है, सो याका गुणकार आली का असंख्यातवां भाग श्रर पूर्वे श्रावली का प्रसंख्यातवां भाग का भागहार
१ छपी हुई प्रति में 'ग्यारहवां अन्य यह हस्तलिखित प्रतियों में 'वारा' है ।
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२०८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १०१ नक बार कहा था, तामैं एक बार पावली का असंख्यातवां भाग सदृश देखि दोऊनि का अपवर्तन कीए, पूर्व जहां नव बार कहा था, तहां इहां आठ बार पावली का असंख्यातवां भाग का भागहार जानना । जैसे ही प्रामें भी गुणकार भागहार की समान देखि, तिनि दोऊनि का अपवर्तन करना । बहुरि यातें सूक्ष्म अपर्याप्त तेजस्कायिक की जघन्य अवगाहना स्थान पावली का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां भी पूर्वोक्त प्रकार अपवर्तन कीए पाठ बार की जायगा सात बार पावली का असंख्यात भाग का भागहार हो है । बहुरि यातें सूक्ष्म अपर्याप्त अप्कायिक का जघन्य अवगाहना स्थान आवली का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां पूर्ववत् अपवर्तन करना । बहुरि यात सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकाधिक का जवन्य अवगाहना स्थान आवली का असंख्यातवां भाग गुरणा है । इहां भी पूर्ववत् अपवर्तन करना । असे इहां प्रावली का असंख्यातवां भाग का भागहार तो पांच बार रहा, अन्य सर्व गुणकार भागहार पूर्ववत् जानने । बहुरि इहां पर्यंत सूक्ष्म से सूक्ष्म का गुणकार भया, ताः स्वस्थान गुणकार कहिए है । अब सूक्ष्म ते बादर का गुणकार कहिए है, सो यहु परस्थान गुणकार जानना । प्रागै भी सूक्ष्म ते बादर, बादर से सूक्ष्म का जहां मुणकार होइ, सो परस्थान मुणकार है; असा विशेष जानना । बहुरि इस सूक्ष्म अपर्याप्त पृथिवीकायिक का जघन्य अवगाहन स्थान ते स्वस्थान गुणकार की उलंघि परस्थानरूप बादर अपर्याप्त वातकायिक का जघन्य अवगाहना स्थान पत्य का असंख्यातवा भाग गुरणा है । इहां इस गुणकार करि उगणीस बार पल्य का असंख्यातवां भाग का भागहार था, तामें एक बार का अपवर्तन करना । बहुरि यातै बादर तेज कायिक अपर्याप्तक का जघन्य अवगाहना स्थान पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां भी पूर्ववत् अपवर्तन करना । जैसे ही पल्थ का असंख्यातवां भाग गुणा अनुक्रम करि अपर्याप्त बादर, अप्, पृथ्वी, निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येकनि के जघन्य अवगाहना स्थान, अर अपर्याप्त अप्रतिष्ठित प्रत्येक, बेंद्री, तेंद्री, चौइंद्री पंचेंद्री, के जघन्य अवगाहना स्थान, इन नव स्थानकनि कौं प्राप्त करि पूर्ववत् अपवर्तन करते अपर्याप्त पंचेंद्रिय का जघन्य अवगाहना स्थान विर्षे आठ बार पल्य का असंख्यातवां भाग का भागहार रहै हैं । अन्य भागहार गुणकार पूर्ववत् जानना । बहुरि यातें सूक्ष्म निगोद पर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान, सो परस्थानरूप पावली का असंख्यातवां भाग मुगा है । सो पूर्व प्रावली का असंख्यातवां भाग का भागहार पांच बार रहा था, तामें एक बार करि इस गुणकार का अपवर्तन करना ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका मापाटीका 1
बहरि यात सक्ष्म निगोद अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहना स्थान विशेष करि अधिक है। विशेष का प्रमाण कह्या सूक्ष्म निगोद पर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान कौं आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीए, तहां एक भाग मात्र विशेष का प्रमारण है। याकौं लिस ही सूक्ष्म निगोद पर्याप्त का जघन्य स्थान विर्षे समच्छेद विधान करि मिलाइ राशि की अपवर्तन कीए, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहना हो है।
अपवर्तन कैसे करिए !
जहां जिस राशि का भागहार देइ एक भाग कोई विवक्षित राशि विषं जोडना होइ, तहां तिस राशि तें एक अधिक का तो गुणकार अर तिस पूर्ण राशि का भागहार विवक्षित राशि कौं दीजिए। जैसे चौसटि का चौथा भाग चौसाठि विर्षे मिलावना होइ तौ चौसठ कौं पांच गुणा करि च्यारि का भाग दीजिए । तैसे इहां भी प्रावली का असंख्याता भाम का भाग देइ एक भाग मिलावना है, तातें एक अधिक प्रावली का असंख्यात भाग का गुणकार पर प्रावली का असंख्यातवां भाग का भागहार करना । बहुरि पूर्व राशि वि बाईस बार एक अधिक पावली का असंख्यातवा भाग का भागहार है भर बाईस दार ही प्रावली का असंख्यात भाग का गुणकार है । सो इनि वि एक बार का भागहार गुणकार करि अब कहे जे गुणकार भानहार तिनिका अपवर्तन कीए बाईस बार की जायगा गुणकार भागहार इकईस बार ही रहै है। जैसे ही आगे भी जहां विशेष अधिक होइ, तहां अपवर्तन करि आवली का असंख्याववां भाग का गुणकार अर एक अधिक पावली का असंख्यातवां भाग का भागहार एक-एक बार घटावना । बहुरि सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन ते सूक्ष्म निगोद पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहना विशेष करि अधिक है । इहां विशेष का प्रमाण सक्ष्म निगोद अपर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहनां कौं प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीए एक भागमात्र है। याकौं पूर्व अवगाहन विषै जोडि, पूर्ववत् अपवर्तन करना । बहुरि यात सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त का जघन्य अवगाह पावली का असल्यातवा भाग गुणां है। सोइ यहा अपवर्तन कीए च्यारि बार पावली का असंख्यातवां भाग का भाग था, सो तीन बार ही रहै है। बहुरि यात सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है । इहां विशेष का प्रमाण पूर्वराशि कौं पावली का असंख्यातवां भाग का भाग दोए एक भागमात्र है, साकौं जोडि अपवर्तन करना । बहुरि यात याके नीचे सूक्ष्म वायुकायिक
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२१० ]
[ गोम्मटसार जीरकाण्ड गाथा पर्यास का उत्कृष्ट अवगाहन, सो विशेष करि अधिक है। पूर्वराशि को प्रावली का असंख्यातवा भाग का भाग दीये, तहां एक भाग करि अधिक जानना । इहां भी अपवर्तन करना। बहुरि यात सूक्ष्म लेजकायिक पर्याप्तक का जघन्य अवगाहन आवली का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां अपवर्तन करिए, तहां प्रावली का . असंख्यातवा भाग का भागहार तीन बार की जायगा दोए बार ही रहै है। ऐसे ही याते सूक्ष्म लेजकायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है। यात सूक्ष्म तेजकायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन चिशेष करि अधिक हैं । यातें सूक्ष्म अपकायिक पर्यास्तक का जघन्य अवगाहन प्रावली का असंख्यातवां भाग गुणा है । यात सूक्ष्म अपकायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष परि अधिक है। याते सूक्ष्म अपकायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अशात विशेष करि अधिक है । यात सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त का जघन्य अवसहन, भावलीक-प्रसंख्यातवा भागगुणा है, यात सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है । याते सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन. विशेष करि अधिक है, ऐसे दोय-दोय तो प्रावली का असंख्यातवां भाग. करि भाजित पूर्वराशि-प्रमाण विशेष करि अधिक पर एक-एक अपना-अपना पूर्वराशि से श्रावली का असंख्यातवां भाग गुणा जानना । जैसे - पाठ प्रयगाहना स्थाननि को उलंधि तहां आठवां सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन, सोपूर्वोक्त प्रकार अपवर्तन करते बारह बार प्रावली का असंख्यातवां भाग. का गुणकार पर आठ-बार पल्य-का असंख्यात भाग, बारह बार एक अधिक प्रावली का असंख्यातवां भाग, नव बार संख्यात का भाग जाकै पाइए, ऐसा धनांगुल प्रमाण हो है । बहुरि यात बादर वायुकायिक पर्याप्त का जघन्य अवगाहन परस्थानरूप है, ताले पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां पत्य का असंख्यातवां भाग का भागहार आठ बार था, तामैं एकबार करि अपवर्तन कीए सात बार रहै है । बहुरि यातें आगें दोय-दीय स्थान तौ विशेष करि अधिक अर एक-एक स्थान पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा जानना । तहां विशेष का प्रमाणा अपना-अपना पूर्वराशि कौं प्रावली का असंख्यातवां भागरूप प्रतिभाग का भाग दीए एक भाग प्रमाण जानना । सो जहां अधिक होइ, तहां अपवर्तन कोए बारह बार श्रावली का प्रसंख्यातवां भाग का गुणकार अर एक अधिक प्रावली का असंख्यातवां भाग का भागहार थे. तिनिविर्षे एक-एक बार घटता हो है । बहुरि जहाँ पृल्य का असंख्यातवां भाग का मुणकार होइ, तहां अपवर्तन कीए सात बार पल्य का
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका माघाटीका ]
[ २११
असंख्यायवां भाग का भागहार थे, तिनि विौं एक-एक बार घरता हो है, असा क्रम जानना । सो बादर वायुकायिक पर्याप्त का जघन्य अवगाहन ते बादर वायुकायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है। यात बादर बाधुकायिक अप्ति का उत्कृष्ट प्रामाहा विशेष पारि अधिक है। यात दादर तेंज काय पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवां भाग गुरगा है, यातें बादर तेजंकाय अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है :यातें बादर तेजकायिकः पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेषः करि अधिक है । यस्तै बादर अप्कायिक अपर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवां भाग गुरगा है । यातै बादर अप्कायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है। यातें बादर अप्कायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है। यात बादर पृथ्वी पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है । यातें बादर पृथ्वी अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है। यात बादर पृथ्वी पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है । यातै बादर निमोद पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है। या। बादर निगोद अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है। यात बादर निगोद पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है । याते प्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य के असंख्यातवां भाग गुणा है । याते प्रतिष्ठित प्रत्येक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है। याते प्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है। असे सतरह अवगाहन स्थाननि की उलंधि पूर्वोक्त प्रकार अपवर्तन कीए सतरहवा बादर पर्याप्त प्रतिष्ठित प्रत्येक का उत्कृष्ट अवगाहन दोय बार पल्य का असंख्यातवा भाग भर नन बार संख्यात कर भाग जाको दीजिए, असा घनांमुल प्रमाण हो है। बहुरियाते अप्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है, इहां भी अपवर्तन करना।
बहुरि याते बेंद्री पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है। इहां भी अपवर्तन कोए पल्य का असंख्यातवां भाग का भागहार था, सो दूरि होइ धनांगल का नव बार संख्यात का भागहार रहा । वहरि याते तेंद्री, चौंद्री, पंचेंद्रो पर्या तनि के जवन्य अवगाहन ते कम ते पूर्व-पूर्व तें संख्यात-संख्यात गुणें हैं । याते तेंद्रो अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुणा है। यात चौद्री अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुणा है । याते बेंद्री अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संपात गुग्गा है। यात अप्रतिष्ठित प्रत्येक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात
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२१२ ]
गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषा
गुणा है। यातें पंचेंद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट श्रवगाहन संख्यात गुणा है । जैसें एकएक बार संख्यात का गुणकार करि नव बार संख्यात का भागहार विर्ष एक-एक वार का अपवर्तन करतें पंचेंद्री अपर्याप्त का उत्कृष्ट प्रवगाहन एक बार संख्यात करि भाजित घनांगुल प्रमाण हो है । बहुरि यातें त्रींद्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट प्रवगाहन संख्यात गुणा है, सो अपवर्तन करिए; तथापि इहां गुणकार के संख्यात का प्रमाण भागहार के संख्यात का प्रमाण तें बहुत है । तातें त्रीद्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट
वाहन संख्यात गुणा घनांगुल प्रमाण है । याते चौइंद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट श्रवगाहन संख्यास गुणा है । यातें बेंद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुणा है । या प्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुणा है । यातें पंचेंद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुणा है। असें क्रम तें अवगाहन के स्थान जानने ।
सूक्ष्म निगोद लब्धि पर्याप्त का जघन्य श्रवगाहन ते सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि पर्याप्त के जघन्य अवगाहन का गुणाकार स्वरूप श्रावली का असंख्यात भाग कहा । ताकी उत्पत्ति का अनुक्रम को अर तिन दोऊनि के मध्य श्रवगाहन के भेद हैं, तिनके प्रकारनि कौं माथा नव करि कहे हैं-
अवरुवरि इङ्गिपदेसे, जुदे असंखेज्जभागवढीए । श्रादी निरंतर मदो, एगेगपदेसपरिवढी ॥ १०२ ॥ वोपरि एकप्रदेशे, युते असंख्यात भागवृद्धेः । आदि: निरंतरमतः, एकैकप्रवेशपरिवृद्धिः ॥ १०२ ॥
टीका - सूक्ष्म निगोद लब्धि पर्याप्तक जीव का जधन्य अवगाहन पूर्वोक्त प्रमाण, ताकी लघु संदृष्टि करि यहु सर्व तें जधन्य भेद है, तातें याका आदि अक्षर ज ऐसा स्थापन करि बहुरि यातें दूसरा अवगाहना का भेद के अधि इस जघन्य अवगाहन विषे एक प्रदेश जोड़ें, सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक का दूसरा riter का भेद हो है । बहुरि ऐसें ही एक-एक प्रदेश बधता अनुक्रम करि तावत् प्राप्त होता यावत् सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त का जधन्य अवगाहना, सो सूक्ष्म fruta for पर्याप्तक का जघन्य अवगाहना ते ग्रावली का असंख्यातवां भाग गुणा हो । तहां असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि, संख्यात गुण वृद्धि असंख्यात गुण वृद्धि ऐसें चतुस्थान पतित वृद्धि र बीच-बीचि प्रवक्तव्य भाग वृद्धि
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सम्यग्ज्ञानन्तिका भाषाटीका ।
[ २१३ वा प्रवक्तव्य गुण वृद्धि, तिनिकर बधते जे अवगाहन के स्थान, तिनिके उपजने का विधान कहिए है ।
भावार्थ - जघन्य अवगाहना का जेता प्रदेशनि का प्रमाण, ताकी जघन्य प्रगाहना प्रमाण असंख्यात तें लगाइ जघन्य परीतासंख्यात पर्यंत जिस-जिसका भाग देना संभवे, तिस-तिस असंख्यात का भाग देते (जघन्य अवगाहन) जिस-जिस अवगाहन भेद विर्षे प्रदेश बधती का प्रमाण होइ, तहां-तहां असंख्यात भाग वृद्धि कहिए बहुरि तिस जघन्य अवगाहना का प्रदेश प्रमाण कौं उत्कृष्ट संख्यात तें लगाइ यथा संभव दोय पयंत्र संख्यात के भेदनि का भाग देते जघन्य अवगाहना ते जिस-जिस अवगाहना विाई बधती का प्रमाण होइ, तहां-तहां संख्यात भाग वृद्धि कहिये । बहुरि दोय तैलगाइ उत्कृष्ट संख्यात पर्यत (संख्यात के भेदनि करि) जघन्य अवगाहना कौं गुणें जिस-जिस अवगाहना विर्षे प्रदेशनि का प्रमाण होइ, तहां-तहां संख्यात गुण वृद्धि कहिए। बहरि जघन्य परोतासंख्यात से लगाइ आवली का असंख्यातवां भाग पर्यंत असंख्यात के भेदनि करि जघन्य अवगाहना कौं गुणें, जिस-जिस अवगाहना के भेद विर्षे प्रदेशनि का प्रमाण होइ तहां-तहां असंख्यात गुरा वृद्धि कहिए । बहुरि जहां-जहां इनि संख्यात वा असंख्यात के भेदनि का भागहार गुणकार न संभवै ऐसे प्रदेश जघन्य अवगाहना तें जहां-जहां बवती होइ, सो प्रवक्तव्य भाग वृद्धि वा प्रवक्तव्य गुण वृद्धि कहिए । सो गहु (प्रवक्तव्य) बृद्धि पूर्वोक्त चतु:स्थान पतित वृद्धि के बोचि-बीचि होई है। बहुरि यहाँ जघन्य अवगाहना प्रमाण हैं बधता असंख्यात का अर अनंत का भाग की वृद्धि न संभव है, जातं इनिका भाग जघन्य अवगाहना को न बने हैं। बहुरि इहां अवलो का असंख्यातवां भाग ते बधता असंख्यात का अर अनन्त का गुणकाररूप वृद्धि न संभवै. है, जाते इनि करि जघन्य अवगाहना कौं मुणे प्रमाण बधता होइ । इहां सूक्ष्म अपर्याप्त वायुकायिक का जघन्य अवगाहना पर्यंत ही विवक्षा है ।
असे इहां प्रदेश वृद्धि का स्वरूप जानना, सोई विशेष करि कहिए है। सर्व तें जघन्य अवगाहना कौं इस जघन्य अवमाहना प्रमाण असंख्यात का भाग दीए एक पाया, सो जघन्य अवगाहना के ऊपर एक प्रदेश जोडें, दूसरा अवगाहना का भेद हो है, सो यहु असंख्यात भाग वृद्धि का आदि स्थान है । बहुरि जघन्य अवगाहना हैं प्राधा प्रमाणरूप असंख्यात का भाग तिस जघन्य अवगाहना को दोए दोय पाए,
१.
के अनुसार पाठभेद है।
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२१४
[ हेमठसार जीबकापड गाथा १०३-१०४
सो जघन्य अवगाहना विर्षे जोडें, तीसरा अवगाहना का भेद होई, सो यहु असंख्यात भाग वृद्धि का दूसरा स्थान है। जैसे ही क्रम करि जघन्य अवगाहना कौं यथायोग्य नामरूणात का भाग ही। तीन, च्यारि, पांच इत्यादि संख्यात असंख्यात पाए, ते जघन्य अवगाहना विर्षे जोडें निरंतर एक-एक प्रदेश की वृद्धि करि संयुक्त अवगाहना के स्थान असंख्यात हो हैं । तिनिकौं उलंधि कहा होइ सो कहैं हैं
अवरोग्गाहरणमाणे, जहण्णपरिमिदअसंखरासिहिदे । .. अवरस्सुरि उड्ढे, जेट्ठमसंखेज्जभागस्स ॥१०३॥
प्रवरावगाहनाप्रमाणे, जघन्यपरिमितासंख्यातसशिहते. । ५. अवरस्योपरि वृद्धे, ज्येष्ठमसंख्यातभागस्य. ॥१३॥
टोका - एक जाचगा जघन्य अवसाहना की जघन्य परिमि असंख्यात राशि का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितने जघन्य अवगाहना विर्षे जोडें जितने होइ, तितने प्रदेश जहां अवगाहना भेद विष होइ, तहां असंख्यात भाग वृद्धिरूप अवगाहना स्थाननि का अंतस्थान हो है । एले ए असंख्यात भाग वृद्धि के स्थान कितने भए ? सो कहिए है -- 'प्रादी अंते सुद्धे वाट्टहि रूवसंजुदे ठाणे' इस करण सूत्र करि असंख्यात भाग वृद्धिरूप अवगाहना का आदिस्थान का प्रदेश प्रमाण की अतस्थान का प्रदेश प्रमाण में स्यौं घटाए अवशेष रहे, ताकी स्थान-स्थान प्रति एक-एक प्रदेश बधता है, ताते एक का भाग दीए भो तितने हो रहैं, तिनमें एक और जोडें जितने होइ, तितने प्रसंख्यात भाग वृद्धि के स्थान जानने।
-तस्सवरि इमिपदेसे, जदे प्रवत्तध्यभागपारंभो। वरसंखमवाहिदवरे, रूऊरणे अवरउवरिजुवे ।।१०४॥
तस्योपरि एकप्रदेशे, युसे अबक्तव्यभागप्रारंभः ।
घरसंख्यातावहितावरे, रूपौने, अवरोपरियुते ॥१०४॥ टोका -- पूर्वोक्त असंख्यात वृद्धि का अन्त अवगाहना स्थान, तीहि विष एक प्रदेश जुड़े प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का प्रारंभरूप प्रथम अवगाहना स्थान हो है । बहरि ताके आमैं एक-एक प्रदेश बधता अनुक्रम करि प्रवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थानकनि कौं उलंधि एक बार उत्कृष्ट संख्यात का भाग जघन्य अवमाहना कौं दीए जो
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सम्पन्झामचन्द्रिका भाषाटीका
प्रमाण प्रावै, तामैं एक घटाए जितने होइ, तितने प्रदेश जघन्य अवगाहना के ऊपरि जुटें कहा होन्. झो कहै हैं -
तस्वड्ढीए चरिमो, तस्सुरि रूवसंजुदे पढमा । संखेज्जभागउड्ढी, उवरिमको रूवपरिवड्ढी ॥१०॥
तबृद्धेश्वरमः, तस्योपरि रूपसंयुते प्रथमा ।
- संख्यातभागवृद्धिः उपर्यतो रूपपरिवद्धिः ॥१०॥ टोका - तोहि अवक्तव्य भाग वृद्धि का अन्त अवगाहन स्थान हो है । बहुरि ए प्रवक्तव्य भाग वृद्धि स्थान कनि के भेद कितने हैं ! सो कहिए है -'प्रादो अंते सुद्धे वहिहिदे रूवसंजुदे डारणे' इस करण. सूत्र करि प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का ग्रादिस्थान का प्रदेश प्रमाण अन्तस्थान का प्रदेश प्रमाण विर्षे घटाइ, अवशेष कौं वृद्धि प्रमाण एक-एक का भाग देइ जे पाए तिनि में एक जोडे जितने होइ, तितने प्रवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थान हैं।
बहुरि अब अवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थानकनि की उत्पत्ति को अक सदृष्टि करि व्यक्त करें हैं । जैसे जघन्य अवगाहना का प्रमाण अडतालीस सै (४८००), जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण सोलह, उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण १५, तहां भागहारभूत जघन्य परीतासंख्यात सोलह (१६) का भाग जघन्य अवगाहना अड़तालीस से (४८००) को दीए तीन से पाए, सो इतने जघन्य अवगाहना ते बधैं प्रसंस्पात भाग वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान हो है । बहुरि तिस जघन्य अवगाहना अडतालोस से कौं उत्कृष्ट संख्यात पंद्रह, ताका भाम दीए तीन से बीस (३२०) पाए, सो इसने बधे संख्यात भाग वृद्धि का प्रथम प्रवगाहना स्थान हो है । बहुरि इनि दोऊनि के बीच अंतराल विर्षे तोन से एक को प्रादि देकर तीन से उगणोस ३०१, ३०२, ३०३, ३०४, ३०५, ३०६, ३०७, ३०८, ३०६, ३१०, ३११, ३१२ ३१३, ३१४, ३१५, ३१६, ३१७, ३१८, ३१६ पर्यन्त वर्ष जे ए उगरणीस स्थान भेद हो हैं, ते असंख्यात भाग यद्धिरूप वा संख्यात भाग वृद्धिरूप न कहे जाइ, जाते जघन्य असंख्यात का भी वा उत्कृष्ट संख्यात का भी भाग दीए ते तोन से एक आदि न पाइए हैं । काहे ते ! जातै जघन्य असंख्यात का भाग दीए तीन से पाए, उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीए तीन से बीस पाए, इनि ते तिनको संख्या होन अधिक है। ताते इनिकौं प्रवक्तव्य भाग वृद्धिरूप स्थान कहिए तो इहा प्रवक्तव्य भाग वृद्धि विर्षे भागहार का प्रमाण कैसा संभव है ! सौ कहिए है - जघन्य का प्रमाण अड़तालीस
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Dom ini
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। पोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १०६ सं, ताकौं इस तीन से एक प्रमाण भागहार का भाग दीए जो पाइए, तितने का भागहार संभव है । तहां 'हारस्य हारो गुणोंशराशेः' इस करण सूत्र करि भागहार का भागहार है, सो भाज्य राशि का गुणकार होइ; असे भिन्न मणित का आश्रय करि अडतालीस से की तीन से एक करि ताको अडतालीस से का भाग दीए इतने प्रमाण तिस प्रवक्तव्य भामवृद्धि का प्रथम अवगाहन भेद के वृद्धि का प्रमाण हो है। सो अपवर्तन कीए तीन से एक ही प्रावे है । सो यह संख्यात-असंख्यातरूप भागहाररूप न कह्या जाय; तातै प्रवक्तव्य भाग वृद्धिरूप कह्या है ।
___ भावार्थ - इहां असा जो भिन्न परिणत का आश्रय करि इहां भागहार का प्रमाण असा प्राव है । बहुरि जैसे यह अंकसंदृष्टि करि कथन कीया, असे ही अर्थसंदृष्टि करि कथन जोडना । इस ही अनुक्रम करि प्रवक्तव्य भाग वृद्धि के अन्तस्थान पर्यन्त स्थान ल्यायने । बहुरि तिस प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का अन्त अवगाहना स्थान विर्षे एक प्रदेश जु. संख्यात भाग वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान हो है । ताके मागे एक-एक प्रदेश की वृद्धि का अनुक्रम करि अवगाहन स्थान असंख्यात प्राप्त हो है।
अवरद्ध अवरुवार, उड्ढे तव्वढिपरिसमत्तीहु । रूवे तववरि उढ़डे, होरि अवतन्वयढमपदं ॥१०६॥
अबरार्धे अवरोपरिवृद्ध तद्धिपरिसमाप्तिहि ।
रूपे तदुपरिबद्धे, भवति अवक्तव्यप्रथमपदम् ॥१०६॥ टीका - जघन्य अवगाहना का प्राधा प्रमाणरूप प्रदेश जघन्य अवमाहना के ऊपरि बघते संते संख्यात भाग वृद्धि का अन्तस्थान हो है । जातें जघन्य संख्यात का प्रमाण दोय है, ताका भाग दीए राशि का आधा प्रमाण हो है। बहुरि ए संख्यात भाग वृद्धि के स्थान केते हैं ! सो कहिए है - प्रादी अंत सुद्धे बट्टिहिवे रूवसंजुदे ठाणे इस सूत्र करि संख्यात भाग वृद्धि का आदिस्थान का प्रदेश प्रमाण की अन्तस्थान का प्रदेश प्रमाण वि घटाइ अवशेष की बुद्धि का प्रमाण एक का भाम दीए भी तितने ही रहैं । तहां एक जो. जो प्रमाण होइ, तितने संख्यात भाग वृद्धि के स्थान हैं । बहुरि संख्यात भाग वृद्धि का अन्त अवगाहना स्थान विर्षे एक प्रदेश जुडे, अवक्तव्य भागवृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान उपज है । बहुरि ताके आगे एक-एक प्रदेश बघता अनुक्रम करि प्रवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थान असंख्यात उलंघि एक जायगा कह्या, सो कहै हैं ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २१७ रूऊरणवरे प्रवरस्सुवरि संवढिदे तदुक्कस्स। सम्हि पदेसे उड्ढे, पढ़मा संखेज्जगुणवंड्ढि ॥१०७॥ रूपोनादरे प्रवरस्योपरि संवधिसे तऽत्कृष्टं ।
तस्मिन् प्रदेशे वृद्धे प्रथमा संख्यातगुणवृद्धिः ॥१०७॥ टोका - एक धाटि जघन्य अवगाहना का प्रदेश प्रमाण जघन्य अवगाहना के ऊपरि बधत संते प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का अन्त उत्कृष्ट अवगाहना स्थान हो है । जाते जघन्य संख्यात का प्रमाण दोय है, सो दूणा भए संख्यात गुण वृद्धि का आदि स्थान होइ । तातै एक घाटि भए, याका अंतस्थान हो है । इहां प्रवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थान केते हैं ? सो कहिए है - 'पाबी अंते सुद्धे' इत्यादि सूत्र करि याके आदि कौं अन्त विर्षे घटाइ, अवशेष कौं वृद्धि एक का भाग देइ एक जोडे जो प्रमाण होइ, तितने प्रवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थान हो है । बहुरि तिस प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का अंत स्थान विषं एक प्रदेश जुई, संख्यात गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान हो है । ताक प्रागै एक-एक प्रदेश की वृद्धि करि संख्यात गुण वृद्धि के असंख्यात अवगाहना स्थान कौं प्राप्त होइ, एक स्थान विर्षे कह्या, सो कहै हैं -
प्रवरे वरसंखगुणे, तच्चरिमो तसि रूवसंजुत्ते। उग्गाहणह्मि पढमा, होदि अवतन्वगुणवड्ढी ॥१०८॥ प्रवरे वरसंख्य गुणे, तच्चरमः तस्मिन् रूपसंयुक्ते ।
अवगाहने प्रथमा, भवति प्रवक्तव्यगुणवृद्धिः ॥१०॥ टोका - जघन्य अवगाहना कौं उत्कृष्ट संख्यात करि गुणे जितने होइ, तितने प्रदेश जहाँ पाइए, सो संख्यात गुण वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान है । बहुरि ए संख्यात गुण वृद्धि के स्थान केते हैं ? सो कहिए है - पूर्ववत् 'प्रादो अंते सुद्धे वट्टिहिदे रूवसंजुदे ठाणे' इत्यादि सूत्र करि याका आदि कौं अन्त विर्षे घटाइ, वृद्धि एक का भाग देई, एक जोडें, जितने पावें तितने हैं। बहुरि प्राग संख्यात गुण बुद्धि का अन्त' अवगाहना स्थान विर्षे एक प्रदेश जोडे, प्रवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान हो है। यात प्रामें एक-एक प्रदेश की वृद्धि करि अवक्तव्य गुण वृद्धि के स्थान असंख्यात प्राप्त करि एक स्थान विर्षे कह्या, सो कहै हैं -
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२१८
[ गोम्बटसार जीकाण्ड गाथा १०६ प्रवरपरितासंगवर संगुणिय रुवपरिहोणे । तच्चरिमो रूवजुदे, ताि असंखेज्जगुणपढमं ॥१०६॥ अवरपरीतासंख्येनावरं संगुण्य स्वपरिहोने ।
तच्चरमो रूपयुते, सस्मिन् असंख्यातगुणप्रथममम् ।।१०।। - टीका - जघन्य परीता असंख्यात करि जघन्य अवगाहना की गुणि, तामैं एक घटाए जो प्रमाण होइ,. तितने प्रदेशरूप -तिस प्रवक्तव्य गुरग वृद्धि का अन्त अवगाहना स्थान हो है । ए प्रवक्तव्यं गुस्स. वृद्धि के स्थान केते हैं ! सो कहिए है - पूर्ववत् प्रावो अंते सुवः' इत्यादि सूत्र करि याका प्रादि को अंत विर्षे घटाए, अवशेष कौं वृद्धि एक का भाग देइ एक जोडे, जितने होइ तितने हैं। बहुरि इहां प्रवक्तव्य गुण वृद्धि का स्वरूप अंकसंदृष्टि करि अबलोकिए हैं। जैसे जघन्य अवगाहना का प्रमाण सोलह (१६), एक घाटि जवन्य परीता असंख्यात प्रभारण जो उत्कृष्ट संस्थात, ताका प्रमाण तोन, ताकरि जघन्य कौं गुणें अडसालोस होइ । बहुरि जघन्य परिमित असंख्यात का प्रमाण च्यारि, ताकरि जघन्य कौं गणे चौंसठ होइ, इनिके बीचि जे भेद, ते प्रवक्तव्य गुण वृद्धि के स्थान हैं। जाते इनि को संख्यात था असंख्यात गुण वृद्धि रूप कहे न जाइ, सहां जघन्य अवगाहन सोलह कौ एक पाटि परीता संख्यात तीन करि गुण अडतालोस होइ, तामें एक जोडें प्रवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम स्थान हो है। योकों जघन्य अवगाहन सोलह का भाग दीए पाया गुणचास का सोलहवां भाग प्रमाण प्रवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम स्थान ल्यावने कौं गुणकार हो है । याकरि जघन्य अवगाहन' कौं गुणि अपवर्तन कीए प्रवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान गुणचास प्रदेश प्रमाण हो है। अथवा अवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम स्थान एक अधिक तिमु सोलह, ताकी जघन्य अवगाहना सोलह, ताका भाग देख पाया एक सोलहवां भाग अधिक तीन, ताकरि जघन्य अवगाहन सोलह कौं गुणं गुणचास पाए, तितने ही प्रदेश प्रमाण अबक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान हो हैं। जैसे अन्य उत्तरोत्तर भेदनि-वि भी गुणकार का अनुक्रम जानना । तहां प्रबक्तव्य गुण. वृद्धि का अंत का अवगाहना स्थान, सो जघन्य अवमाहन सोलह कौं जघन्य . परिमिता संख्यात ज्यारि करि गुण जो पाया, तामें एक घटाए तरेसटि होइ, सो इतने प्रदेश प्रमाण हैं। बहुरि याकों जघन्य अवगाहन सोलह का भाग देइ, पापा तरेसठि का सोलहवां भाग, सोइ प्रवक्तव्य गुण वृद्धि का
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सुभ्यानका भाषाटीका ]
[ २१६
अंत अवगाहना स्थान ल्यावने विषे गुणकार हो है । याकरि जघन्य श्रवगाहन सोलह की गुणे, अवक्तव्य गुण वृद्धि का अंत अवगाहन स्थान की उत्पत्ति हो है; सो अवलोकनी । अथवा प्रवक्तव्य गुण वृद्धि के अंत अवगाहन स्थान तरेसठ कौं जघन्य
गान सोलह का भाग दे पाया तीन पर पंद्रह सोलहवां भाग, इस करि जघन्य अवगाहन सोलह को गुर्णे, प्रवक्तव्य गुण वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान का प्रदेश प्रमाण हो है । सो सर्व प्रवक्तव्य गुरु वृद्धि का स्थापन गुरणचास आदि एकएक बघता तरेसठ पर्यन्त जानना । ४६, ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५,५६,५७, ५८, ५६, ६०, ६१, ६२, ६३ । बहुरि इस ही अनुक्रम करि अर्थसंदृष्टि विषे भी एक घाटिः जघन्यः अवगाहन प्रमाण इस अवक्तव्य - गुण वृद्धि के स्थान जानते । बहुरि अब पूर्वोक्त वक्तव्य गुरण वृद्धि का अन्त अवगाहन स्थान विषै एक प्रदेश जुड़ें, असंख्यात गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान हो है ।
रूवत्तरेण तत्तो, श्रावलियासंख भाग गुणगारे | तपाउगे जावे, वा कम ११२५ पोत्तरे तत प्रालिका संख्यभागगुणकारे । . तत्प्रायोग्ये जाते वायोरवगानं क्रमशः ॥११०॥
टीका ततः कहिए तीहि असंख्यात गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान तैं मागें एक-एक प्रदेश वृद्धि करि असंख्यात गुरण वृद्धि के अवगाहन स्थान असंख्यात हो हैं । तिनिकों उलंघि एक स्थान विषे यथायोग्य आवलि का असंख्यातवां भाग प्रमाण असंख्यात का गुणकार, सो सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्त निगोद का जघन्य
गाग्य का होते संते सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि अपर्याप्त का जघन्य श्रवगाहन स्थान की उत्पत्ति हो है । इहां ए केले स्थान भए ! तहां' 'आदी अंते सुद्धे' इत्यादि सूत्र करि भादि स्थान को अन्त स्थान विष घटाह, अवशेष को वृद्धि एक का भाग देइ लब्ध राशि विषं एक जोड़ें, स्थानकनि का प्रमाण हो हैं ।
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सर्व अवगाहन के स्थानकनि का गुणकार की उत्पत्ति का अनुक्रम कहे हैंएवं ज्वरि किणेश्रो, पदेसवड ढिक्कमो जहाजोग्गं । Horrorsof-य, जोक्समासाण विच्चाले ॥१९१॥
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एवमुपपि ज्ञेयः, प्रदेशवृद्धिको यथायोग्यम् । सर्वferre जीवसमासानामंतराले ॥ १११ ॥ ।
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२२० ]
[गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १११ टीका - एवं कहिए इस ही प्रकार जैसे सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक का जघन्य अवगाहना स्थान कौं प्रादि देकरि सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्त वायुकायिक जीय का जघन्य अवगाहन स्थान पर्यन्त पूर्वोक्त प्रकार चतु:स्थान पतित प्रदेश वृद्धि का अनुक्रम विधान कह्या, तैसें ऊपरि भी सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक तेजकाय का जघन्य अवगाहन तै लगाइ द्वींद्रिय पर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान पर्यन्त जीवसमास का अवगाहना स्थानकनि का अन्तरालनि विर्षे प्रत्येक जुदा-जुदा चतुःस्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम करि प्राप्त होइ यथायोग्य गुणकार की उत्पत्ति का विधान जानना।
भावार्थ - जैसे सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान अर सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान के बीचि अन्तराल विर्षे चतुःस्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम विधान कहा । तैसे ही सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि अपर्याप्त अर सूक्ष्म तेजाकायिक सबि अपर्याप्त समय था ही द्वींद्रिय पर्याप्त का जघन्य प्रदयाहन स्थान पर्यंत अगिले अंतरालनि विष चतुःस्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम विधान जानना । विशेष इतना - तहाँ प्रादि अवगाहन स्थान का वा भाग वृद्धि, गुण वृद्धि विर्षे असंख्यात का प्रमाण वा अनुक्रम या स्थानकनि का प्रमाण इत्यादि यथासंभव जानने ।
बहुरि तैसें ही ताके आगे लेइंद्री पर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान आदि देकरि संज्ञी पंचेंद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन पर्यंत अवगाहन स्थानकनि का एकएक अन्तराल विर्षे असंख्यात गुरण वृद्धि बिना त्रिस्थान पतित प्रदेशनि की वृद्धि का अनुक्रम करि प्राप्त होइ यथायोग्य गुरगकार की उत्पत्ति का विधान जानना ।
___ भावार्थ - इहाँ पूर्वस्थान ते अगिला स्थान संख्यात गुणा ही है । तात तहाँ असंख्यात गुण वृद्धि न संभव है, त्रिस्थान पतित वृद्धि ही संभव है। इहां भी विशेष इतना - जो प्रादि अवगाहना स्थान का वा भाग वृद्धि विर्षे असंख्यात का वा गुण वृद्धि विष संख्यात का प्रमाण वा अनुक्रम वा स्थानकनि का प्रमाण इत्यादिक यथासंभव जानने । ऐसें इहाँ प्रसंग पाइ चतु:स्थान पतित वृद्धि का वर्णन किया है।
बहुरि कहीं षट्स्थान पतित, कहीं पंचस्थान पतित, कहीं चतुःस्थान पतित, कहीं त्रिस्थान पतित, कहीं द्विस्थान पतित, कहों एकस्थान पतित वृद्धि संभव है। अथवा कहीं ऐसे ही हानि संभव है, तहां भी ऐसे ही विधान जानना। तहां जाका निरूपण होइ ऐसा जो विवक्षित, साके पारि स्थान के प्रमाण तें अगले स्थान विर्षे
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. सम्यज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २२१
प्रमाण बधता होइ, तहां वृद्धि संभव है; जहां घटता होइ, वहां हानि संभव है । सो after स्वरूप नीकै जानने के अथि इस भाषाटीका विषं किछु कथन करिए है ।
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प्रथम षट्स्थान पतित वृद्धि वा हानि का स्वरूप कहिये है । अनन्त भाग वृद्धि, असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि, संख्यात गुण वृद्धि, असंख्यात गुरण वृद्धि, अनंत गुण वृद्धि ऐसे षट्स्थान पतित वृद्धि जाननी । बहुरि अनंत भागहावि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि असंख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणहानि, अनंत गुणहानि
षट्स्थानपतित हानि जाननी । बहुरि इनके बींचि-बीचि वक्तव्य वृद्धि वा हानि संभव है । सो इतिका स्वरूप अंकसंदृष्टिरूप दृष्टांत करि दिखाइए है, जाते या जाने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान सुगम होइ है ।
तहां जघन्य संख्यात का प्रमाण दोय (२), उत्कृष्ट संख्यात का पांच ( ५ ), जघन्य संख्या (६), उत्कृष्ट प्रसंख्यात का पंद्रह (१५), जघन्य अनंत का सोलह (१६), उत्कृष्ट अनंत का प्रमाण बहुत है । तथापि इहां भागहार विषे तो आदिस्थान प्रमाण जानना श्रर गुणकार विषै आदिस्थान तें जितने गुर्गा मधता वा घटता अंत स्थान होई, तीहि प्रमाण ग्रहण करना । सो इहां अंकदृष्टि विषे आदि स्थान का प्रमाण atara से स्थापना कीया । बहुरि वृद्धिरूप होइ दूसरा स्थान चोवीस से एक प्रमाणरूप भया । वहाँ अनंत भाग वृद्धि का श्रादि संभव है, जाते आदि स्थान के प्रमाण की आदि स्थान प्रमाण जो अनंत का भेद, ताका भाग दीए एक पाया, सो आदि स्थान लें इहां एक की वृद्धि भई है । जैसे ही जिस-जिस स्थान विषं आदि स्थान तें जो अधिक का प्रमाण होइ, सो प्रमाण संभवतें कोई अनंत के भेद का भाग यादि स्थान कौं दीए था, तहां-तहां अनंत भाग वृद्धि संभव है। तहां जो स्थान पचीस से पचास प्रमाणुरूप भया, तहाँ अनंत भाग वृद्धि का अंत जानना । जातें जघन्य अनंत का प्रमाण सोलह ताका भाग प्रादि स्थान कौं दीए एक सौ पचास पाए, सोई इहां आदि स्थान तें अधिक का प्रमाण है । बहुरि पचीस से इक्यावन तें लगाइ पचीस से गुणसठि पर्यंत प्रमाणरूप जे स्थान, ते ग्रववतव्य भाग वृद्धिरूप हैं । जाते जघन्य चनंत का भी वा उत्कृष्ट असंख्यात का भी भाग की वृद्धि कीए जो प्रमाण होइ, तात after प्रमाण हीन अधिक है । यद्यपि भिन्न गणित करि इहां भागहार का प्रमाण सोलह तैं किछु हीन या पंद्रह तैं किछू अधिक पाइए, तथापि सोलह प्रमाण जघन्य अनंत है भी या प्रमाण हीन भया । तातें याक अनंत भागरूप न कहा जाय ।
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मोम्मटसार जीवकारु गाथा १११
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अर उत्कृष्ट असंख्यात पंद्रह तै भी याका प्रमाण अधिक भया, साते याकौं असंख्यात भोगरूप न कहा जाय । जातं. उत्कृष्ट ते अधिक अर जन्नन्य से हीन कहना असंभव है, ताते दहा प्रवक्तव्य भाग का ग्रहण कीया । असं ही मार्ग भी यथासंभव अवयतव्य भाग वृद्धि वा गुण वृद्धि का प्रवतव्य भाग हानि.वा गुण हानि का स्वरूप जानना। बहुरि वृद्धि रूप हाइ मा स्थानः पवोस से पाठि प्रमाण रूप भया, तहां असंख्यात माग वृद्धि आदि संत है। जालें उत्कृत अतस्यात पंद्रहाका भाग आदि स्थान कौं दीए एक सौ साठि पाए, सोई इहां आदि स्थान से अधिक प्रमाण है। बहुरि ऐसे ही जिस-जिस स्थान विर्षे आदि स्थान से अधिक का प्रमाण संभवते. असंख्यात के भेद का भाग आदि स्थान को दोए प्राव, तहां-तहां असंख्यात भाग वृद्धि संभव है । तहां जो स्थान अठाइस से प्रमाला भा, तहां प्रसंस्पात भाग द्धि का अंत जानना। जातें जघन्य असंख्यात द्रह, ताका भाग आदि स्थान को दीए च्यारि से पाए, सोई इहां इतने आदि स्थान से अधिक है। बहुरि जे स्थान अट्ठाइस से एक आदि अट्ठाईस सै. गुण्यासी एन प्रमाण ला हैं, तहां प्रवक्तव्य भाग वृद्धि संभव है । जालें जघन्य असंख्यात का भी वा उत्कृष्ट संख्याता का भी भामा को वृद्धिरूप प्रमाण ते इनिका प्रमाण अधिक होन है । बहुरि वृद्धिरूप होइ जो स्थाना अठाईसं सं असी प्रमाणरूप भया, तहाँ संख्मात भाग वृद्धि का प्रादि संभव है । जातै उत्कृष्ट संख्यात पांच, ताका भाग आदि स्थान को सार चारिः सं असो पाए: सोई इतनो इहाँ आदि स्थान से अधिक हैं। बहुरि पो हो जिस-जिस स्थान विर्ष आदि स्थान ते अधिक का प्रमाण संभवते संत्रात के भेद का भाग आदि स्थान को दोए प्राव तहां-तहां संख्यात भाग वृद्धि संभव है। यहां जो स्थान छ तोस से प्रामारारूप भया, तहां संख्यात भाग वृद्धि का अंत जाताना । जात जवन्य संख्येत दोयताका भाग आदि स्थान की दीए बारह में पाए सो इसने इहां प्रादि स्थान ते अधिक हैं। बहुरि जे स्थान छत्तीस से एक आदि मैंतालीस सै निन्यानवे पर्यन्तः प्रमाणरूप हैं, तहां प्रवक्तव्य भागः वृद्धि संभव है । जातं जघन्य संख्यात भाग वृद्धि वा जघन्य संख्यात गुण द्धिरूप प्रमाण से भो इनिका प्रमाण अधिक होन है। बहुरि वद्धिरूप होइ जो स्थान अडतालोस से प्रमाणका ना, तहाँ संशयात गुस वृद्धि का प्रादि संभव है; जात जघन्य संख्यात दोय. ताकरि प्रादि स्थान की गुगणे इतना प्रमाण हो है। असे हो जिसबस स्थान का प्रमाण संभवते संख्यात के भेद करि प्रादि स्थान कौं गुरणे प्रावै, तहां-तहां संख्यात गुण युद्धि संभव हैं। तहां जो स्थान बारह हजार प्रमागरूप भया, तहाँ संख्यात
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सम्यागनिका भाषाटीका ]
गुण वृद्धि का अंत जानना । जातें उत्कृष्ट संख्यात पांच, ताकरि आदि स्थान कौं गुरणे इतना प्रमाण हो है । बहुरि जे स्थान बारह हजार एक तें लगाही चौदह हजार तीन सौ निन्याणचे पर्यंत प्रमाणरूप हैं, तहाँ प्रवक्तव्य गुण वृद्धि संभव है। जाते उत्कृष्ट संख्यात गुण वृद्धि बा जघन्य असंख्यात गुरग वृद्धिरूप प्रमाण ते भी इनिका प्रमाण अधिक होन है । बहुरि वृद्धिरूप होई जो स्थान चौदह च्यारि से प्रमाणरूप भया, तहां असंख्यात भागवृद्धि का प्रादि संभव है। जाते जघन्य असंख्यात छह, ताकरि प्रादि स्थान को गुरणे, इतना प्रमाण हो है । बहुरि असे ही जिस-जिस स्थान का प्रमाण संभवते असंख्यात के भेद करि प्रादि स्थान कौं गुणे प्रावै, तहां-तहां प्रख्यात पुल वृद्धि भी है : तहां जो स्थान छत्तीस हजार प्रमाण तहां असंख्यात गुण वृद्धि का अंत जानना । जाते. उत्कृष्ट असंख्यात पंद्रह, ताकरि आदि स्थान की गुणे इतना प्रमाण हो है। बहुरिजे स्थान छत्तीस हजार एक आदि अडतीस,हजार तीन से निन्याग पर्यंत प्रमाणरूप हैं, तहां प्रवक्तव्य गुण वृद्धि संभदै है। जाते उत्कृष्ट असंख्यात मुरण वृद्धि या जघन्य अनंत गुण वृद्धिरूप प्रमाण ते भी इंनिका प्रमाण अधिक हीन है । बहुरि वृद्धिरूप होइ जो स्थान अड़तीस हजार ध्यारि से प्रमाणरूप भया, तहां अनंत गुणवृद्धि का आदि.संभव है, जाते जघन्य अनंत सोलह, ताकरि आदि स्थान को मुणे इतना प्रमाण हो है ।
__ बहुरि से ही जिस-जिस स्थान का प्रमात्र सम्भक ते अनन्त का भेद करि । आदि स्थान कौं गुण याचा तहां अनन्त पुरंग वृद्धिः साम्भव है। तहां जो स्थान दोय लाख चालीस हजार प्रमार रूप भाया तहाँ मानन्त गुण वृद्धि का अंत जानना। जाते यद्यपि अनन्त का प्रमाण बहुत है तथापि यहां जिस अनन्त के भेद करि गुणित अंतस्थान होइसोई अनन्त का भेद. इहां अंत-विर्षे ग्रहण, करना । सो अंकसंदृष्टि विय एक सौ -प्रमारा अगस्त के भेद का अंत विर्षे ग्रहण कीया। तीहिकार आदि स्थाताको गुण दोष लाख चालीस हजार होइमा सोई। विकक्षित के अंतस्थान का प्रमासा जानना असे एहां षट्स्थान पतितं वृद्धि का विधान दिखाया ।
अब षट्स्थान पतित हानि का विधान दिखाइए है । इहां विवक्षित का आदि स्थान दोय लाख चालीस हजार प्रमाणरूप स्थापन कीया। यातें घटि करि दूसरा स्थान जो दोय लाख गुगतालीस हजार नौ सै निन्यारावै प्रमाणरूप भया, सो
१. ख.प्रति में गुणवृद्धि है। २.प्रतिमें यहां भागवृद्धि है। ३. ब प्रप्ति में यहां भागवुद्धि है।
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गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १११
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अनत भाग हानि का प्रादिरूा है । जाते ग्रादि स्थान की प्रादि स्थान प्रमाण रूप जो 'प्रमंत का भेद, साना दोर एक पाया, सोई इहां आदि स्थान ते एक घटती भया है । बहुरि जैसे ही जिस-जिस स्थान विर्षे सादि स्थान ते जेता घटती होइ, तितना प्रमारण कोई अनंत के भेद का भाम प्रादि स्थान को दीए पायें, सो सो स्थान अनंत भाग हानिरूप जानना । तहां जो स्थान दोय लाख पचीस हजार प्रमागरूप होइ, सो स्थान अनंत भाग हानि का अन्त जानना । जाते जघन्य अनंत सोलह, ताका भाग आदि स्थान कौं दीए पंद्रह हजार पाये, सो इहां आदि स्थान ते हीन का प्रमाण है । बहरि दोय लाख चौवीस हजार नव सं निन्यारण ते लगाइ दोय लाख चौवीस हजार एक पर्यन्त प्रमारगरूप जे स्थान हैं, ते अक्कलव्य भाग हानिरूप हैं। जाते जघन्य अनन्त का भी बा उत्कृष्ट असंख्यात का भी भाग हानिरूप प्रमाण ते इनिका प्रमाण हीन अधिक प्राने है । ता इनि की अनत वा असंख्यात भाग हानिरूप न कहे जाइ । बहुरि हानिरूप होइ जो स्थान दोय लाख चौवीस हजार प्रमाण होइ, सो स्थान असंख्यात भाग हानि का प्रादिरूपजानना । जातै उत्कृष्ट असंख्यात पंद्रह का भाग प्रादि स्थान की दीए सोलह हजार पाए, सोइ इतने इहां आदि स्थान से हीन हैं। बहुरि अंस ही जिस-जिस स्थान विर्षे आदि स्थान ते हीन का प्रमाण सभवते असंख्यात के भेद का भाग दोए पागै, सो-सो स्थान असंख्यात भाग हानिरूप जानना । तहां स्थान दोय लाख प्रभागरूप भया, तहां असंख्यात भाग हानि का मत जानना। ते जघय असंख्यात छह का भाग आदि स्थान को दीए चालीस हजार पाए, सोई इतना इहां प्रादिस्थान ते हीन है। बहुरि एक घाटि दोय लाख तें लगाइ एक अधिक एक लाख बारण हजार पर्यत प्रमाणरूप में स्थान हैं, ते प्रवक्तव्य माम हानिरूप हैं। जातें जघन्य असंख्यात का भो वा उत्कृष्ट संख्यात का भी भाग हानि रूप प्रमाण ते इनिका प्रमाण होन अधिक है, तातै इनिकौं असंख्यात वा संख्यात भाग हानिरूप कहे न जाइ। बहुरि हानिरूप होइ जो स्थान एक लाख बाणने हजार प्रमाणरूप होय, तहां. संख्यात भाग हानि का आदि है; जाते उत्कृष्ट संख्यात पांच का भाग आदि स्थान को दीए अड़तालीस हजार पाए, सो इतने इहां आदि स्थान ते हीन हैं। असे ही जिस-जिस स्थान विर्षे प्रादि स्थान ते हीन का प्रमाण संभवते संपात का भाग दीए पाने; सो-सो स्थान संख्यात भाग हानिरूप जानना । तहाँ सो स्थान एक लाख बीस हजार प्रमाण होइ, सो स्थान संख्यात भाग हानि का अंतरूप जानना । जातें जघन्य संध्यात दोय का भाग आदिस्थान की दीए एक लाख.
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सम्मानन्द्रका मावाटीका।
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बीस हजार पाए; सोई इतने इहां यादि स्थान ते हीन है। बहरि इस ही स्थान कौं संख्यात गुणहानि का प्रादिरूप कहिए, जाते जघन्य संख्यात दोय, सो आदि स्थान कौं दुगुणा घाटि कीए एक लाख बीस हजार पाए, सोई इस स्थान का प्रमाण है। पूर्व राशि की जितने का भाग दीए उत्तर राशि का प्रमाण प्रा अर तिस उत्तर राशि के प्रमाण कौं तितने करि गुण पूर्व राशि का प्रमाण होई; सातै भागहार का कहना पर गुणहानि का कहना एकार्थरूप जानना । जैसे चौसठ कौं च्यारि का भाग दीजिए तो भी सोलह होइ पर सोलह कौं च्यारि करि गुणें भी चौसठ होइ; तातै सोलह कौं चौसठि का चौंथा भाग भी कहिए, अर चौसठ तें चौगुणां धाटि भी कहिए । जैसे ही जहां जितनी गुणहानि का प्रमाण होइ, तहां तितने का भागहार जानना । सो इहां जघन्य संख्यात दोय, सो आदि स्थान कौं दुगुणा घाटि कीए वा दोय का भाग दीए एक लाख बीस हजार होइ, तीहि प्रमाण जो स्थान, सो संख्यात गुणहानि का आदिरूप जानना । बहुरि असे ही जिस-जिस स्थान का प्रमाण संभवते संख्यात के भेदनि करि गुणें आदि स्थान का प्रमाण मात्र होइ, सो-सो स्थान संख्यात गुणहानिरूप जानना । तहां जो स्थान अडतालीस हजार प्रमाण भया, सो स्थान संख्यात मुरणहानि का अंतरूप जानना ! जातें उत्कृष्ट संख्यात पांच, सो आदि स्थान का प्रमाण क पंचगुणा घाटि कोए. इतना प्रमाण आये है । बहुरि सेंतालीस हजार नव सै निन्यागावं ते लगाइ चालीस हजार एक पर्यंत प्रमाणरूप जे स्थान हैं, ते प्रवक्तव्य गुणहानिरूप जानने । जातें उत्कृष्ट संख्याल वा जघन्य असंख्यात गुणा घाटि आदि स्थान कौं कीए भी जो प्रभारण होइ, तातै इनिका प्रमाण हीन अधिक है । तातै इनिकौं संख्यात गुणहानिरूप वा असंख्यात गुणहानिरूप न कहे जाइ । बहुरि हानिरूप होइ जो स्थान बालीस हजार प्रमाण भया, सो स्थान असंख्यात गुणहानि का आदिरूप है; जाते जघन्य असंख्यात छह, सो आदि स्थान कौं छहपुरणा घाटि कीए इतना प्रमाण आवै है । पैसे ही जिस-जिस स्थान का प्रमाण संभवते असंख्यात के भेदनि करि गुण आदि स्थान मात्र होइ, सो-सो स्थान असंख्यात गुणहानिरूप जानना । तहां जो स्थान सोलह हजार प्रमाण रूप होइ, सो स्थान असंख्यात गुणहानि का अंतरूप है । जाते उत्कृष्ट असंख्यात पंद्रह, सो आदि स्थान कौं पंद्रहगुणा घाटि कीए इतना प्रमाण हो है । बहुरि एक घाटि सोलह हजार तें लगाइ एक अधिक पंद्रह हजार पर्यन्त जे स्थान हैं, ते प्रवक्तव्य मुरणहानिरूप जानने । जातें उत्कृष्ट असंख्यात वा जघन्य अनंतगुणा धादि भी नादि
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२२६ ]
गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १११
स्थान को कीए जो प्रमाण होइ, तिनि तैं इनका प्रमाण हीन अधिक है । बहुरि हानिरूप होइ जो स्थान पंद्रह हजार प्रमाणरूप भया, तहां अनंत गुणहानि का आदि जानना । जाते जघन्य अनंत सोलह सो आदि स्थान की सोलह गुणा घाटि कीए इतना प्रमाण आवे है । बहुरि अँसे ही जिस-जिस स्थान का प्रमाण संभवले अनंत का भेद करि गुण आदि स्थान मात्र होइ, सो-सो स्थान अनंत गुहानिरूप जानना । तहां जो स्थान चौबीस से प्रमाण रूप भया, सो स्थान अनंत गुणहानि का अंतरूप है । जाते यद्यपि अनंत का प्रमाण बहुत है; तथापि इहां श्रादि स्थान तें अंत स्थान जितने गुणा घाटि होइ, तितने प्रमाण ही अनंत का अंत विष ग्रहण करना, सो संदृष्टि विषै जो प्रमाण अनंत का भेद ग्रहण कीया, सो आदि स्थान की सौ गुणा घाटि कीए इतना ही प्रमाण यावे है । या प्रकार जैसे अंकसंदृष्टि करि कथन कीया, तैसे ही यथार्थ कथन अवधारण करना । इतना विशेष
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जघन्य संख्यात का प्रमाण दtय है । उत्कृष्ट संख्यात का एक घाटि जघन्य परीता संख्यात मात्र है । जघन्य श्रसंख्यात का जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण है । उत्कृष्ट असंख्यात का उत्कृष्ट श्रसंख्यातासंख्यात मात्र है । जधन्य अनंत का जधन्यपरीतानंत प्रमाण है । उत्कृष्ट अनंत का केवलज्ञानमात्र है, तथापि इहां भाग वृद्धि वा हानि far at श्रादि स्थान प्रमाण र गुण वृद्धि वा हानि विषे आदि स्थान तें अंत स्थान जितने गुणा बघता वा घटता हो, तीहि प्रमाण अनंत का ही अंत विषै ग्रहण करना । बहुरि का निरूपण कीजिए, ताक विवक्षित कहिए, लाका आदि भेद fat जितना प्रमाण होइ, सो आदि स्थान का प्रमाण जानना | ताके श्रागे अगिले स्थान वृद्धिरूप वा हानिरूप होइ, तिनिका प्रमाण यथासम्भव जानना । इत्यादिक विशेष होइ, सो विशेष जानना अर अन्य विधान अंकसंदृष्टि करि जानना । बहुरि जहां आदि स्थान का प्रमाण असंख्यातरूप ही होई, तहां अनंत भाग की वृद्धि वा हानि न संभव, जहां श्रादि स्थान का प्रमाण संख्यातरूप ही होइ, तहां अनंत भाग अर श्रसंख्यात भाग को वृद्धि या हानि न संभव है । बहुरि जहाँ यादि स्थान तें अंत स्थान का प्रभाग असंख्यात गुणा ही अधिक वाहीन होइ, तहाँ अनंत गुरण वृद्धि वा हानि न संभव है। जहां आदि स्थान ते अंत स्थान का प्रमाण संख्यात गुणां ही अधिक वा हीन होइ, तहां अनंत वा श्रसंख्यात गुणी वृद्धि वा गुणहानि न संभव है ताते कहीं पंच स्थान पतित, कहीं चतुस्थान पतित, कहीं श्रीस्थान पतित, कहीं fatne viad, कहीं एकस्थान पतित वृद्धि वा हानि यथासंभव जाननी । असें
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सम्याज्ञामविका भावाटीका ]
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ही आदि स्थान की अपेक्षा लीए वृद्धि-हानि का स्वरूप कह्या । बहुरि. कहीं एक स्थान का प्रमाण की अपेक्षा दूसरा स्थान विर्षे वृद्धि वा हानि कही, दूसरा स्थान का प्रमाण की अपेक्षा तीसरा स्थान विर्षे वृद्धि वा हानि कही; असे स्थान-स्थान प्रति वृद्धि वा. हानि का अनुक्रम हो है। तहां अनंत भागादिरूप बृद्धि वा हानि होइ, सो यथासंभव जाननी । बहुरि पर्यायसमास नामा श्रुतज्ञान के भेद वा कषाय स्थान इत्यादिकनि विर्षे संभवती षट्स्थान पतित वृद्धि का हानि के अनुक्रम का विधान प्रागै ज्ञानमार्गरणा अधिकार विषं लिखेंगे, सो जानना । प्रेस वृद्धि-हानि का विधान अनुक्रम अनेक प्रकार हैं, सो यथासंभव है। असे प्रसंग पाइ षट्गुणी प्रादि हानिवृद्धि का वर्णन कीया ।
प्रागै जिस-जिस जीवसमास के अवगाहन कहे, तिस-तिसके सर्व अवगाहन के भेदनि के प्रमाण कौं ल्यावै हैं -
हेट्ठा जेसि जहण्णं, उरि उक्कस्सयं हषे जत्थ । . तत्यंतरगा सश्वे, तेसिं उग्गाहणविअप्पा ॥११२॥ अधस्तनं येषां, जघन्यमुपयुत्कृष्टकं भवेद्यत्र ।
तनांतरगाः सर्वे, तेषामवगाहनविकल्पाः ॥११२॥ टीका - इहां मत्स्यरचना कौं मन विर्षे विचारि यहु कहिये है - जो जिन अवगाहना स्थाननि का प्रदेश प्रमाण थोरा होइ, ते अधस्तन स्थान हैं । बहुरि जिन अवगाहना स्थाननि का प्रदेश प्रमाण बहुत होइ, ते उपरितन स्थान हैं, ऐसा कहिये है । सो जिन जीवनि का जघन्य अवगाहना स्थान तो नीचें तिष्ठ पर जहां उत्कृष्ट अवगाहना स्थान ऊपरि तिष्ठ, तिनि दोऊनि का अंतराल विर्षे वर्तमान सर्व ही अवगाहना के स्थान तिन जीवनि के मध्य अवगाहना स्थान के भेदरूप हैं - ऐसा सिद्धांत विष प्रतिपादन कीया है।
भावार्थ - पूर्वे अवगाहन के स्थान कहे, तिनि विर्षे जिसका जघन्यं स्थान जहां कह्या होइ, तहांत लगाइ एक-एक प्रदेश की वृद्धि का अनुक्रम लीए जहां तिस ही का उत्कृष्ट स्थान कह्या होइ, तहां पर्यंत जेते भेद होइ, ते सर्वे ही भेद तिस जीव की अवगाहना के जानने । तहां सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्त का पूर्वोक्त प्रमाणरूप जो जघन्य स्थान, सो तो आदि जानना । बहुरि इस ही का पूर्वोक्त प्रमाणरूप जो
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२२. 1
[गोमसार शोषकाम गाथा ११२
उत्कृष्ट स्थान, सो अंत जानना । तदां 'पादो. अंते सुद्धे वहिहिदे स्थसंजुदे ठाणे' इस करण सूत्र करि आदि का प्रमाण कौं अंत का प्रमाण समच्छेद विर्षे अपवर्तनादि विधान करि घटाए जो अवशेष प्रमाण रहै, ताकौं स्थान-स्थान प्रति वृद्धिरूप जो एक प्रदेश, ताका भाग दीए भी तेता ही रहै, तामैं एक जोडें जो प्रमाण होइ, तितने सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक जीवनि के सब अवगाहना के भेद हैं । इनिमैं आदि स्थान पर अंत स्थान, इनि दोऊनि कौं घटाये अवशेष तिस ही जीव के मध्यम अवगाहना के स्थान हो हैं । बहुरि इस ही प्रकार सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक वायुकायिक जीव आदि देकरि संजी पंचेंद्री पर्याप्त पर्यंत जीवनि के अपने-अपने जघन्य अवगाहना स्थान ते लगाइ, अपने-अपने उत्कृष्ट अवगाहना स्थान पर्यंत सर्व अवगाहना के स्थान, अर तिनि विर्षे जघन्य-उत्कृष्ट दोय स्थान घटाये तिन ही के मध्य अवगाहना स्थान, ते सूत्र के अनुसारि ल्याईये ।
अब मत्स्यरचना के मध्य प्राप्त भए ऐसे सर्व अवगाहना स्थान, तिनिके स्थापना का अनुक्रम कहिये है। पूर्व अवगाहना के स्थान चौसठि कहे थे, तिनि विर्षे ऊपरि की पंक्ति विर्षे प्राप्त जे बियालीस गुणकाररूप स्थान, सिनिकौं मुरिणत क्रमस्थान कहिये । बहुरि नीचे की दोय पंक्तिनि विर्षे प्राप्त जे बावीस अधिकरूप स्थान, तिनिकौं अधिक स्थान कहिये। तहां चौसाठि स्थाननि विर्षे युरिणत क्रमरूप बा श्रधिकरूप स्थान अपने-अपने जघन्य तें लगाइ अपने-अपने उत्कृष्ट पर्यंत जेतेजेते होइ, तिनि एक-एक स्थान की दोय-दोय बिंदी बरोबरि लिखनी; जाते एक-एक स्थान के बीचि अवगाहना के भेद बहुत हैं । तिनिकी संदृष्टि के अथि दोय बिंदी स्थापी, बहुरि तिनि जीवसमासनि विर्षे संभवले स्थाननि की नीचे-नीचे पंक्ति करनी। ऐसे स्था माछलेकासा आकार हो है, सो कहिए है । ( देखिए पृ४ २२६-२३०) .
प्रथम सूक्ष्म निमोद लब्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान से लगाइ ताही का उत्कृष्ट पर्यत सतरह स्थान हैं। तहां सोलह गुरिणत स्थान हैं। एक अधिकस्थान है । सो प्रथमादि एक-एक स्थान की दोय-दोय बिंदी की संदृष्टि करने करि चौंतीस बिदी बरोबरि ऊपरि पंक्ति विर्षे लिखनी ।हां सूक्ष्म निगोद 'लब्धि अपर्याप्त का जघन्य स्थान पहला है, उत्कृष्ट अठारहवां है, तथापि गुणाकारपना वा अधिकपनारूप. अंतराल सतरह ही है; तातै सतरह ही स्थान ग्रहे हैं। ऐसे आगे भी जानना । बहुरि तसे ही तिस पंक्ति के नीचे दूसरी पंक्ति विषं सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक वायुकायिक जीव का जघन्य अवगाहना स्थान से लगाइ ताके उत्कृष्ट
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सभ्यशामचन्द्रिका भाषाटोका ।
अवगाहना स्थान पर्यंत उगणीस स्थान हैं, तिनकी अडतीस बिदी लिखना । सो इहां दूसरा स्थान से लगाइ स्थान है, तातें ऊपरि की पंक्ति विर्षे दोय बिदी प्रथम स्थान की लिखी थी, तिनको नीच! की छोडि द्वितीय स्थान को दोय बिदा त लगाइ आगे बरोबरि अडतीस बिदी लिखनी। बहुरि तैसे ही तिस पंक्ति के नीचे तीसरी पंक्ति विर्षे सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक तेजस्कायिक का जघन्य अवगाहन तै उत्कृष्ट अवगाहन पर्यत इकईस स्थान हैं, तिनकी बियालीस बिंदी लिखनी । सो इहा तीजा स्थान तें लगाइ स्थान हैं, तातै ऊपरि की पंक्ति विर्षे दूसरा स्थान की दोइ बिंदी लिखी थी, तिनके नीचा को भी छौडि तीसरी स्थानक की दोइ बिंदी ते लगाइ बियालीस बिंदी लिखनी । बहरि तैसे ही तिस पंक्ति के नीचे चौथी पंक्ति विर्षे सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक अप्कायिक का जघन्य अवगाहन स्थान तें लगाइ, ताका उत्कृष्ट अवगाहन स्थान पर्यंत तेवीस स्थाननि को छियालीस बिंदी लिखनी । सो इहां चौथा स्थान ते लगाइ स्थान है, तातै तीसरा स्थानक की दोय बिंदी का नीचा को छोडि चौथा स्थानक की दोय बिंदी ते लगाइ छियालीस विदो लिखनी । बहुरि तेसै ही तिस पंक्ति के नीचे पांचमी पंक्ति विर्षे सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक का जघन्य अवगाहन तै लगाइ साका उत्कृष्ट अवगाहन पर्यंत पचीस स्थान हैं; तिनकी पचास बिंदी लिखनी। सो इहा पांचवां स्थान ते लगाइ स्थान है, ताते चौथा स्थान की दोय बिंदी का भी नीचा की छोडि पांचवां स्थानक की दोय बिदी लगाइ पचास बिदी लिखनी । बहुरि तसे हो तिस पंक्ति के नो-नीचे छठी, सातमी, आठवी, नवमी, दशमी, ग्यारहमी बारहवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पंद्रहवीं, सोलहवीं पंक्ति विर्षे बादर लब्धि अपर्याप्तक वायु, तेज, अप, पृथ्वी, निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येक, अप्रतिष्ठित प्रत्येक, द्वींद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय इनि ग्यारहनि का अपना-अपना जघन्य स्थान से लगाइ उत्कृष्ट स्थान पर्यंत अनुक्रम ते सत्ताईस, मुरगतीस, इकतीस, तेतीस, पैंतोस, सैंतीस, छियालिस, चवालीस, इकतालीस, इकतालीस, तियालोस स्थान हैं। तिनिकी चौवन, अठावन, बासठि, छयासठि, सत्तरि, चौहत्तरि, बागवे, अठासी, बियासी, छियासी बिंदी . लिखनी । सो इहां छठा, सातवां आदि स्थान तै लगाइ स्थान हैं, तात ऊपरि पंक्ति का आदि स्थान की दोय-दीय बिंदी का नीचा कौं छोडि छठा, सातवां धादि स्थान की दोय बिदी नै लगाइए बिंदो तिनि पंक्तिनि विर्षे क्रम ते लिखनी ।
___ बहुरि तिस पंचेंद्रिय लब्धि अपर्याप्तक की पंक्ति के नीचे सतरहवीं पंक्ति विष सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान से लगाइ, उत्कृष्ट अवगाहना स्थान
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| गोम्मटसार जीवकांड गाया ११२
पर्यन्त दोय स्थान है, तिनिकी व्यारि बिंदी लिखनी । बहुरि इस ही प्रकार भाग इस एक ही पंक्ति विषे सूक्ष्म पर्याप्त वायु, तेज, प्, पृथ्वी, बहुरि बादर पर्याप्त वायु तेज, पृथ्वी, अ, निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येक इनिका अपना-अपना जघन्य अवगाहना स्थान की आदि देकार अपना-अपना उत्कृष्ट श्रवगाहना स्थान पर्यन्त दोय- दोय स्थानति की व्यारि च्यारि बिंदी लिखनी । बहुरि जैसे ही प्रतिष्ठित प्रत्येक का उत्कृष्ट अवगाहन स्थान ते आगे तिस ही पंक्ति विषै प्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान तें लगाइ उत्कृष्ट अवगाहना स्थान पर्यन्त तेरह स्थान हैं । afrat छब्बीस बिंदी लिखनी । असें इस एक ही पंक्ति विषै बिंदी लिखनी कही । तहां पर्याप्त सूक्ष्म निगोद का आदि स्थान सतरहवां है, तांतें इनके दोय स्थाननि की सोलहवां स्थान की दोय विदीनि का नीचा कौं छोडि सतरहवां अठारहवां स्थान की च्यारि बिदी लिखनी । बहुरि सूक्ष्म पर्याप्त का आदि स्थान बीसवां है । तातें तिस ही पंक्ति विषै उगरणीसवां स्थान की दीये बिंदी का नीचा की छोडि बीसवां इकईसवां दोय स्थाननि की च्यारि बिंदी लिखनीं । असें ही बीचि-बीच एक स्थान की दोयदोय बिंदी का नीचा कौं छोडि छोडि सूक्ष्म पर्याप्त तेज श्रादिक के दोय-दीय स्थाननि की च्यारिन्ध्यारि बिदी लिखनी । बहुरि तिस ही पंक्ति विषे प्रतिष्ठित प्रत्येक के पचासवां तें लगाइ स्थान हैं, तातें पचासवां स्थानक की विदीनि तै लगाइ तेरह स्थाननि की छब्बीस बिंदी लिखती; असे एक-एक पंक्ति विषै कहे । बहुरि तिस पंक्ति के नीचे-नीचे अठारमी, उगणीसमी, बीसमी, इकवीसमी पंक्ति विषै पर्याप्त द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेंद्रिय जीवनि का अपना-अपना जघन्य श्रवगाहन स्थान तैं लगाइ उत्कृष्ट स्थान पर्यन्तं ग्यारह, आठ आठ दश स्थान हैं । तिनिकी क्रम तें बाईस, सोलह सोलह, बीस बिंदी लिखनि । तहां पर्याप्त बेंद्रिय के इक्यावन हैं लगाइ स्थान हैं, तातें सतरहवीं पंक्ति विषे अप्रतिष्ठित प्रत्येक की छब्बीस fit . लिखी थी, तिनिके नीचे आदि की पचासवां स्थान की दोय बिंदी का नीचा क - छोडि आगे बाईस बिंदी लिखनी । बहुरि जैसे ही नीचे-नीचे प्रादि की दोय-दोय fat का नीचा की छोडि बावनवां, तरेपनवां, चौवनवां स्थानक की बिंदी तें लगाइ क्रम सोलह सोलह, बीस बिंदी लिखनी । या प्रकार मत्स्यरचना विषे सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्त का जघन्य श्रवगाहना स्थान को प्रादि देकरि संज्ञी पंचेंद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन स्थान पर्यन्त सर्व अवगाहन स्थाननि की प्रत्येक दोयदो शून्य की विवक्षा करि तिन स्थानकनि की गणती के प्राश्रय सा होनाधिक
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सम्यानचन्दिका भाषाटीका
। २३३ रहित बिदीनि के स्थापन का अनुक्रम, सो अनादिनिधन ऋषि प्रणीत आगम विर्षे कहा है । ऐसें जीवसमासनि की अवगाहना कहि।
अब तिनके कुल की संख्या का जो विशेष, ताकी गाथा च्यारि करि कहै हैं - बावीस सत्त तिण्णि य, सत्त य कुलकोंडिसयसहस्साई। गया पुढविदगागरिण, वाउकल्याण परिसंखा ॥११३॥
द्वाविंशतिः सप्त त्रीणि, ध सप्त च कुलकोटिशतसहस्राणि ।
ज्ञेया पृथिवोधकाग्निवायुकायिकानां परिसंख्या ॥११३॥ टीका -- पृथ्वी कायिकनि के कुल बाईस लाख कोडि हैं । अप् कायिकनि के कुल सात लाख कोडि हैं । तेज कायिकवि के कुल तीन लाख कोडि हैं। वायु कायिकनि के कुल सात लाख कोडि हैं; जैसे जानना। .
कोडिसयसहस्साई, सत्तट्ठणव य अद्ववीसाइं। बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियहरिदकायार ॥११४॥ कोटिशतसहस्राणि, सप्ताष्ट नव च अष्टाविंशतिः ।
टींद्रियींद्रियचरिंद्रियहरितकायानाम् ॥११४६ टोका - बेंद्रिय के कुल सात लाख कोडि हैं । त्रोंद्रियनि के कुल आठ लाख कोडि हैं । चतुरिद्रियनि के कुल नव लाख कोडि हैं । वनस्पति कायिकनि के कुल अठाईस लाख कोडि हैं ।
अद्धत्तेरस बारस, दसयं कुलकोडिसदसहस्साई। जलचर-पक्खि-चउप्पय-उरपरिसप्पेसु णव होति ॥११॥ अर्धत्रयोदश द्वावश, दशक कुलकोटिशतसहस्राणि ।
जलचरपक्षिचतुष्पदोरुपरिसपेषु नब भवंति ॥११५॥ टीका -- पंचेंद्रिय विर्षे जलचरनि के कुल साड़ा बारा लाख कोडि हैं। पक्षीनि के कुल बारा लाख कोडि हैं । चौपदनि के कुल दश लाख कोडि हैं । उरसर्प जे सरीसृप आदि, तिनिके कुल नब लाख कोडि हैं ।
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। गोम्मटसार कोवकाण्ड गाथा ११६-११७ छप्पंचाधियवीस, बारसकुलकोडिसदसहस्साई । सुर-रणेरइय-गरारणं, जहाकम होति रणयाणि ॥११६॥ पटपंचाधिकविंशतिः, द्वादश कुलकोटिशतसहस्राणि ।
सुरनैरपिकनराणां, यथाक्रम भवंति ज्ञेयानि ॥११६॥ टीका - देवनि के कुल छब्बीस लाख कोडि हैं । नारकोनि के कुल पचीस लाख कोडि हैं । मनुष्यनि के कुल बारह लाख कोडि हैं । ए सर्व कुल यथाक्रम करि कहे, ते भव्य जीवनि करि जानने योग्य हैं।
प्रागै सर्व जीवसमासनि के कुलनि के जोड की निर्देश करै हैं -
एया य कोडिकोडी, सत्तारणउदी य सदसहस्साई। पणं कोडिसहस्सा, सव्वंगीणं कुलारणं य ॥११७॥
एकाच कोटिकोटी, सप्तमयतिश्च शतसहस्रारिंग ।
पंचाशत्कोटिसहस्राणि सर्वागिनां कुलानां च ॥११७॥ टोका - असे कहे जे पृथ्वीकायिकादि मनुष्य पर्यन्त सर्व प्राणी, तिनके कुलनि का जोड एक कोडा-कोडि अर सत्यारण लाख पचास हजार कोडि प्रमाण
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इहा कोऊ कहैं कि कुल अर जाति विर्षे भेद कहा ?
ताका समाधन - जाति है सो सो योनि है, तहां उपजने के स्थानरूप पुद्गल स्कंध के भेदनि का ग्रहण करना । बहुरि कुल है सो जिनि पुद्गलनि करि शरीर निपजे, तिनके भेदरूप हैं। जैसे शरीररूप पुद्गल प्राकारादि भेद करि पर्चेद्रिय तिर्यंच विष हाथी, घोडा इत्यादि भेद हैं, असें यथासंभव जानने । इति प्राचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित गोम्बस्टसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह
ग्रन्थ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सभ्यग्ज्ञान चंद्रिका नामा इस भाषाटीका विष जीवकांड विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपरणा, तिनि विर्षे जीवसमास प्ररूपणा है माम जाका, असा दूसरा अधिकार संपूर्ण भया ॥२॥
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तीसरा अधिकार : पर्याप्ति प्ररूपणा
संभव स्वामि नमौं सदा, घातिकर्म विनसाय । पाय चतुष्टय जो भयो, तीजो श्रीजिनराय ॥
अब इहां जहां-तहां अलौकिक गणित का प्रयोजन पाइए, तातै अलौकिक गणित कहिए है संदृष्टि इनिकी आग संदृष्टि अधिकार विर्षे जानना ।
मान दोय प्रकार है, एक लौकिक एक अलौकिक । तहां लौकिक मान छह प्रकार - मान, उन्मान, अवमान, गणितमान, प्रतिमान, तत्प्रतिमान एवं छह प्रकार जानना । तहां पाइ मारणी इत्यादिक मान जानना । साखडी का तौल उन्मान जानना । चल इत्यादिक का प्रमाण (परिमारण) अवमान जानना। एक-दोय कौं आदि देकरि गणितमान जानना । चरिम तोला, मासा, इत्यादिक प्रतिमान जानना । घोडा का मोल इत्यादि तत्प्रतिमान जानना ।
बहरि अलौकिक मान के च्यारि भेद हैं - द्रव्य भान, क्षेत्र मान, काल मान, भाव मान । तहां द्रव्य मान विर्षे जवन्य एक परमाणु पर उत्कृष्ट सब पदार्थनि का परिमाण । क्षेत्र मान विर्षे जघन्य एक प्रदेश अर उत्कृष्ट सब अाकाश ! काल मान विर्षे जघन्य एक समय पर उत्कृष्ट तीन काल का समय समूह । भाव मान विर्षे जघन्य सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक का लब्धि अक्षर ज्ञान अर उत्कृष्ट केवलज्ञान ।
बहुरि द्रव्य मान के दोय भेद -- एक संख्या मान एक उपमा मान । तहां संख्या मान के तीन भेद - संख्यात, असंख्यात, अनंत । तहां संख्यात जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट ते तीन प्रकार है । बहुरि असंख्यात है, सो परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात, असंख्यातासंख्यात इनि तीनों के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद करि नव प्रकार है । बहुरि अनंत है, सो परीतानंत, युक्तानंत, अनंतानंत इनि तीनों के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद करि नव प्रकार है - ऐसे संख्यामान के इकईस भेद भए । तिनि विर्षे जघन्य संख्यात दोय संख्यामात्र है । इहां एक का गुणकार भागहार कीए कि वृद्धि-हानि होइ नाहीं, तातै दोय के ही भेद का ग्राहकपना है, एक के नाहीं है । बहुरि तोनि आदिकनि के मध्यम संख्यात का भेदपना है, ताते दोय ही को जघन्य संख्यात
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२३६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड पाया ११७ कहिये । बहुरि तीनि को प्रादि देकरि एक घाटि उत्कृष्ट संख्यात पर्यन्त मध्यम संख्यात जानना।
सो जघन्य (परीतासंख्यात) कितना है ?
ताके जानने निमित्त उपाय कहैं हैं ! अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका, महाशलाका ए नाम धारक च्यारि कुड करने । तिनिका प्रत्येक प्रमाण जंबूद्वीप समान
समवस्था ग्यासपोजन
Fopaat ऊंडई योजन
महाराज ग्यास रोजम
शEET ध्यास योजन १00300 बाई वाम ..१.८०
प्रतिशलाका न्यास बोजन
१०0000 अंबई योसम
१०००
२०००
अंडाई दोशन १००
लाख योजन चौडा पर एक हजार योजन ऊंढा जानना । तिनि विर्षे अनवस्था कुड कौं सिघाउ गोल सरसौं करि भरना । केते सरसौंनि करि भरै, सो कहिए है - एक, नव, सात, नय, एक, दोय, बिंदी, नव, दोय, नव, नव, नव, छह, आठ इतने तो अंक अनुक्रम से लिखने, तिनके प्रागै इकतीस बिंदी और लिखनी, इतने प्रमाण सरिसौं तो उस कुड के मांही भाव । (१६७६१२०६२६६६६८०००००००००००००००० ००००००००००००००० ) बहुरि उस कुंड के ऊपरि पाकाश विर्षे राशि करिए, सो सिघाउ भरना कहिए, सो ऊपरि कितने सरसौं का ढेर होइ, सो कहिए है । एक सात, नव, नव, दोय बिंदी, बिंदी, पाठ, च्यारि, पांच, च्यारि, पांच, एक, छह इतने तौ अनुक्रम तें लिखने अर इनिके आगै सोलह बार छत्तीस-छत्तीस लिखने । (१७ ६६२००८४५४५१६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६३६ ३६ ३६ ) इतनी सरसौं, बहुरि च्यारि सरसों का ग्यारहवां भाग ( ११ ) इतनी सरसौं का ऊपरि ढेर होइ । इनिका फलावना गोल घनरूप क्षेत्रफल के करण सूत्रनि करि वा अन्य राशि के करण सूत्रनि करि होइ है, सो त्रिलोकसारादिक सौं जानना । इनि दोऊ राशि कौं जोड दीजिए, तब एक हजार नब सै सत्ताण कोडा. कोडि कोडाकोडि कोडाकोडि ग्यारा लाख गुणतीस हजार तीन से चौरासो कोडाकोडि कोडाकोडिकोडि इक्यावन लाख इकतीस हजार छ से छत्तीस कोडाकोडि कोडाकोडि छत्तीस लाख छत्तीस हजार तीन से सठि कोडाकोडि कोडि तरेसठि लाख तरेसठि हजार छ से छत्तीस कोडाकोडि छत्तीस लाख छत्तीस हजार तीन से तरेसठि कोडि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाका ]
[ २३७
तरेसठ लाख तरेसठ हजार छ से छतीस सरसों अर च्यारि सरसों का ग्यारहवां भाग (१६१७, ११२६३८४, ५१३१६३६, ३६३६३६३, ६३६३६३६, ३६ ३६ ३६३ ६३ ६३ ६३६ । ) इतनी सरसों करि अनवस्था कुंड सिघाऊ भरया ।
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११
सो भरि करि अन्य एक सरसों को शलाका कुंड में नाखि, तिस अनवस्था कुंड की सर्व सरसोंति को मनुष्य है, सो बुद्धि करि अथवा देव है, सो हस्तादि करि ग्रहण करि जबूद्वीपादिक द्वीप समुद्रनि विषै अनुक्रम तें एक द्वीप विषै एक समुद्र विषे गेरता क्या में परियों जहां द्वीप व या समुद्र विषे पूर्ण होइ, तहां तिस द्वीप वा समुद्र की सूची प्रमाण चौडा और प्रौंडा पूर्वोक्त हजार ही योजन असा दूसरा अनवस्था कुंड तहां ही करना ।
सूची कहा कहिए ?
विवक्षित के सन्मुख अंत के दोऊ तटनि के बीचि जेता चौंडाई का परिणाम होइ, सोई सूची जाननी जैसे लवण समुद्र की सूची पांच लाख जोजन है । जिस द्वीप की वा समुद्र की सूची कहिए, तिस ते पहिले द्वीप वा समुद्र ते वाकी सूची के मध्य माथ गये । सा वहां कीया हुवा अनवस्था कुंड कौं सरसोंनि करि सिघाऊ भरना । भरि करि अन्य एक सरसों उस ही शलाका कुंड विषै गेरणी । पर इस दूसरे अवस्था कुड की सरिसोनि की लेइ, तहां से आगे एक द्वीप विषे, एक समुद्र विषे गेरते जाइए, तेऊ जहां द्वीप वा समुद्र विषे पूर्ण होइ तिस सहित पूर्व के द्वीप समुद्र तिनि का व्यासरूप जो सूची, तींहि प्रमाण चौडा और भौंडा पूर्वोक्त हजार जोजन अँसा तीसरा अनवस्था कुड सिवाऊ सरिसोनि करि भरना । भरि करि श्रन्य एक सरसों उस ही शलाका कुंड में गेरि, इस तीसरे अनवस्था कुंड की सरिसों लेइ, तहां तैं आगे एक द्वीप विषै एक समुद्र विषै गेरणी । वह जहां पूर्ण होइ, तहां तिस को सूची प्रमाण चौथा ग्रनवस्था कुंड करना, ताक सरिसों करि सिघाऊ भरना । भरि करि अन्य एक सरसों शलाका कुंड विषै गेरिए, इनि सरसों को तहां तें भागे एक द्वीप विषै एक समुद्र विषे गेरणी, असे ही व्यास करि बघता-बघता अनवस्था कुंड कर एक-एक सरसों शलाका कुंड विधै गेरते जहां शलाका कुंड भरि जाइ, तब एक सरस प्रतिशलाका कुंड विषे गेरिए । से एक नवे आदि अंक प्रमारा जितनी सरि पहिला अनवस्था कुंड विषै माई थी, तितने प्रमाण अनवस्था कुंड भए शलाका कुंड एक बार सिघाऊ भरचा गया । बहुरि इस शलाका कुंड को रीता
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२३८ ]
[ मोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११७ कीया पर पिछला अनवस्था कुंड की सरिसों तहां तें मागे एक द्वीप व एक समुद्र विषै गेरता जहां पूर्ण भई, तहां फेरि उसकी सूची प्रमाण चौडा अनवस्था कुंड करि एक सरसों जो रीता कीया या शलाका कुंड, तिस विषै मेरी। असें हो पूर्ववत् व्यास करि बघता-बघता तितना ही अनवस्था कुंड कीजिए, तब दूसरी बार शलाका कुंड पूर्ण होइ । तब प्रतिशलाका कुंड विषै एक सरिसों और गेरणी । पीछे फेरी शलाका कुंड रीता करि तैसे ही भरणा । जब भरे, तब एक सरस प्रतिशलाका कुंड विष और रणी । जैसे ही जब एक नव आदिक प्रमाण को एक नयादिक अंकनि ते गुणे जो परिणाम होइ, तितने अनवस्था कुंड जब होंइ, तब प्रतिशलाका कुंड संपूर्ण भरै तब ही एक सरिसों महाशलाका कुंड विषै गेरणी । बहुरि वे पालाका कुंड वा प्रतिशलाका कुंड दोऊ रीते करणे । बहुरि पूर्वोक्त रीति करि एकएक अवस्था कुंड कर एक-एक सरसों शलाका कुंड विषै गेरणी । जब शलाका कुंड भरे, तब एक सरसों प्रतिशलाका कुंड विषे गेरणी । से करते-करते प्रतिशलाका कुंड फेरी संपूर्ण भरें, तब दूसरी सरियों महाशलाका कुंड विषै फेरी गेरणी । बहुरि वैसे ही शलाका प्रतिशलाका कुंड रीता करि उस ही रीति सौ प्रतिशलाका कुंड भरे, तब संपूर्ण तीसरी सरिसौं महाशलाका कुंड विषे गेरणी । असें करते-करते एक नव ने आदि देकर जे अंकन का धन कीये जो परिणाम होइ, तितने अनवस्था कुंड जब हों, तब महाशलाका कुंड भी संपूर्ण भरे, तब प्रतिशलाका का शलाका, अनवस्था कुंड भी भरें। इहां जे एक नव ने आदि देकरि अंकनि का घन प्रमाण अनवस्था कुंड कहे, ते सर्व ऊंडे तौ हजार योजन ही जाननें । बहुरि इनिका व्यास, अपना द्वीप वा समुद्र की सूची प्रमाण बघता-बघता जानना । सो लक्ष योजन का जेथवा द्वीप वा समुद्र होइ, तितनी बार दूणा कीये तिस द्वीप वा समुद्र का व्यास या है । बहुरि व्यास को चौगुणा करि तामै तीन लाख योजन घटायें सूची का प्रमाण आवे है । ता तहां प्रथम अनवस्था कुंड का व्यास का प्रमाण लाख योजन | बहुरि पहला कुंड में जितनी सरसों माई थी, तितनी ही बार लक्ष योजन का दूणा दूणा कीयें जहां द्वीप वा समुद्र विषै वे सरिसों पूर्ण भई थी, तिस द्वीप का समुद्र व्यास का परिमाणश्रा है । बहुरि व्यास का परिमाण को चौगुणा करि तीहि में तीन लाख योजन घटाइए, तब तिस ही द्वीप वा समुद्र का सूची परिमाण श्रावै । जो सूची परिमाण आवै, सो ही दूसरा कुंड का व्यास परिमारण जानना । बहुरि पहिला वा दूसरा कुंड विषै जितनी सरिस माई, तितनी बार लक्ष योजन को दूरगा दूखा करि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाढीका ]
[ २३६
जो परिमाण पावै, ताकी चौगार ती हारर गोजन राइस, व तीसरा अनवस्था कुंड का व्यास परिमारए प्राव है । बहुरि पहिला वा दूसरा वा तीसरा अनवस्था कुंड विर्षे जेती सरिसों माई होइ, तेती बार लक्ष योजन कौं दूरणा-दूणा करि जो परिमारग प्राव, ताकौं चौगुणा करि तीन लाख योजन घटाएं, चौथे अनवस्था कंड का व्यास परिमाण आवै, ऐसे बघता-बधता व्यास परिमाण अंत का अनवस्था कुंड पर्यन्त जानना। तहां जो अंत का अनवस्था कंड भया, तीहि विर्षे जेती सरिसों का परिमारण होइ, तितना जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण जानना । इहां शलाका कुंड विष एक सरिसों गेरै जो एक अनवस्था कुंड होइ, तो शलाका कुंड विर्षे एक, नव आदि अंक प्रमाण सरिसों गेर केते मनवस्था कुंड होइ ? ऐसे
राशिक करिये, तब प्रमाण राशि एक, फल राशि एक, इच्छा राशि एक नवादि अंक प्रमाण । तहां फल राशि करि इच्छा कौं गुरिंग प्रमाण का भाग दीए लब्ध राशि एक नवादि अंक प्रमाण हो है । बहुरि प्रतिशलाका कुंड विर्षे एक सरिसौं मेरे एक नवादि अंक प्रमाण अनवस्था कुंड होइ, तो प्रतिशलाका कुंड वि एक नवादि अंक प्रमाण सरिसों गेरै केते होइ ? ऐसे राशिक कीए प्रमाण १ फल १६ इच्छा १६= लब्धराशि एक नवादि अंकनि का वर्ग प्रमाण हो है । बहुरि महाशलाका कुंड विर्षे एक सरिसों मेरे, अनवस्था कुंड एक नवादि (अंकनि) का वर्ग प्रमाण होइ, तो महाशलाका कुंड विर्षे एक नवादि अंक प्रमाण सरिसौं ने कैंते अनवस्था कुंड होइ ? ऐसें राशिक क्रीए, प्रमाण १, फल १६ वर्ग इच्छा १६= लब्धराशि एक नवादि अंकनि का धन प्रमाग हो है । सो इतना अनवस्था कुंड होइ है, ऐसा अनवस्था कुंडनि का प्रमाण जानना । बहुरि 'जघन्य परीतासंख्यात के ऊपरि एक-एक बधता क्रम करि एक घाटि उत्कृष्ट परीतासंख्यात पर्यन्त मध्य परीतासंख्यात के भेद जानने । बहुरि एक घाटि जघन्य युक्तासंख्यात परिमारण उत्कृष्ट परीतासंख्यात जानना।
अब जघन्य युक्तासंख्यात का परिमारण कहिए है - जघन्य परीतासंख्यात का विरलन कीजिए । बिरलन कहा? जेता बाका परिमाण होइ, तितना ही एक-एक करि जुदा-जुदा स्थापन कीजिये । बहुरि एक-एक की जायगा एक-एक परीतासंख्यात मांडिए, पीछे सबनि की परस्पर गुणिए, पहिला जवस्य परीतासंख्यात कौं दूसरा जघन्य परीतासंख्यात करि गुणिए, जो परिमाण ग्रावे, ताहि तीसरा जघन्य परीतासंख्यात करि गुरिंगये । बहुरि जो परिमाण आवै, तीने चौथा करि गुरिणए, असे अंत
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घोम्मटसार जीवकाण्ड गापा ११७
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ताई. परस्पर गुणे जो परिमाण आवै, सो परिमाण जघन्य युक्तासंख्यात का जानना । याही कौं अंक संदृष्टि करि दिखाइए है -
जघन्य परीतासंख्यात का परिमारग च्यारि (५ ) याका विरलन कीया १, १
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१, १ । बहुरि एक-एक के स्थानक, सोहि दीया १ १ १ १ परस्पर गुणन कीया, तब दोय सै छरप्पन भया । असे ही जानना । सो इस ही जघन्य युक्तासंख्यात का नाम प्रावली है, जात एक पावली के समय जघन्य युक्तासंख्यात परिमाण है । बहुरि याके ऊपरि एक एक बघता एक घाटि उत्कृष्ट युक्तासंख्यात पर्यन्त मध्यम युक्तासंख्यात के भेद जानने । बहुरि एक पाटि जघन्य असंख्यातासंख्यात परिमाण उत्कृष्ट युक्तासंख्यात जानना।
...अब जघन्य असंख्यातासंख्यात कहिए है -- जघन्य युक्तासंख्यात कों जघन्य युक्तासंख्यात करि एक बार परस्पर गौ, जो परिमाया श्राने, सो जघन्य असंख्यातासंख्यात जानना । याके ऊपरि एक-एक बघता एक धाटि उत्कृष्ट प्रसंख्यातासंख्यात पर्यन्त मध्यम असंख्यातासंख्यात जानने । एक पाटि जघन्य परीतानंत प्रमाण उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात जानना ।
. अब जघन्य परीतानंत कहिए है - जघन्य असंख्यातासंख्यात परिमारण तीन राशि करना - एक शलाका राशि, एक विरलन राशि, एक देय राशि । तहां विरलन राशि का तो पिरलन करना, बखेरि करि जुदा-जुदा एक-एक रूप करना, पर एक-एक के ऊपरि एक-एक देय राशि धरना।
भावार्थ - यह जघन्य असंख्यातासंख्यात प्रमाण स्थानकनि विषं जघन्य असंख्यातासंख्यात जुदे-जुदे मांडने । बहरि तिनिकौं परस्पर गुणिए, असें करि उस शलाका राशि मैं स्यों एक घटाइ देना । बहुरि असे कीए जो परिमाण पाया, तितने परिमाण दोय राशि करना, एक विरलन राशि, एक देय राशि । तहां विरलन राशि का विरलन करि एक-एक ऊपरि एक-एक देय राशि की स्थापन करि, परस्पर गुरिगए । असें करि उस शलाका राशि मैं स्यों एक और घटाइ देना । बहुरि ऐस कीए जो परिमाण प्राया, तितने प्रमाण विरलन-देय स्थापि, विरलन राशि का विरलन करि एक-एक प्रति देय राशि कौं देइ परस्पर मुणिये, तब शलाका राशिसुं एक और काहि लेना, असे करते-करते जब यह पहिली बार किया शलाका राशि सर्व संपूर्ण होइ, तब तहाँ जो किछ परिमाण हुवा, सो यहु महाराशि असंख्यातासंख्यात का मध्य
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रा भावाटीका }
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भेद हैं, सो तितने तितने परिमारण तीन राशि बहुरि करना एक शलाका राशि, एक विरलन राशि, एक देय राशि । तहां विरलन राशि का विरलन करि एक-एक के स्थान के देय राशिका व्यापन कर परस्पर गुणीये, तब शलाका राशि में सू एक काढि लेना बहुरि जो परिमाण आया, ताका विरलन करि एक-एक प्रति तिस ही परिमाण को स्थापन करि परस्पर गुणिये, तब एक और शलाका राशि में सू काहि लेना । असें करते-करते जब दूसरी बार भी किया हुआ शलाका राशि संपूर्ण होइ, तब से करता जो परिमाण मध्यम श्रसंख्याता संख्यात का भेदरूप आया, तिस परिमाण तीन राशि स्थापन करनी - बालाका, विरलन, देय । तहां विरलन राशि कौं बसेर एक-एक स्थानक विषे देय राशि कौं स्थापन करि परस्पर गुणिये, तब तीसरी शलाका राशि में सों एक काढि लेना । बहुरि असें करतें जो परिमाण आया था, तिस परिमाण राशि का विरलन करि एक-एक स्थानक विषै तिस परिमाण ही का स्थापन करि परस्पर गुणिये, तब शलाका राशि में स्यों एक और कादि लेना । असें करते-करते जब तीसरी बार भी शलाका राशि संपूर्ण भया, तब earer त्रय निष्ठापन हुवा कहिये । आगे भी जहां शलाका त्रय निष्ठापन कहियेगा, तहां जैसा ही विधान जानना । विशेष इतना जो शलाका, विरलन, देय का परिमाण यहां जैसा होइ, तैसा जानना । अब जैसें करते जो मध्यम असंख्याता संख्यात का भेदरूप राशि उपज्या, तोहि विषं ये छह राशि मिलायना । लोक प्रमाण धर्म द्रव्य के प्रदेश लोक प्रमाण अधर्म द्रव्य के प्रदेश, लोक प्रमाण एक जीव के प्रदेश, लोक प्रमाण लोकाकाश के प्रदेश, तातें प्रसंख्यातगुणा अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक जीवनि का परिमाण, तातें असंख्यात लोकगुणा तो भी सामान्यपर्ने असंख्यात लोक प्रमाण प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक जीवनि का परिमाण - ये छहों राशि पूर्वोक्त प्रमाण विषे जोडने । जोड़ें जो परिमाण होइ, तीहि परिमारण शलाका, विरलन देय राशि करनी । पीछे अनुक्रम ते पूर्वोक्त प्रकार करि शलाका त्रय निष्ठापन करना असें करतें जो कोई महाराशि मध्य प्रसंख्याता संख्यात का भेदरूप भया, तीहि विषे च्यारि राशि और मिलावने । बीस कोडाकोडी सागर प्रभाग उत्सर्पिणी, श्रवसर्पिणी दोय कालरूप कल्पकाल के संख्यात पत्यमात्र समय; बहुरि असंख्यात लोकमात्र अनुभाग बंध कौं कारणभूत जे परिणाम, तिनिके स्थान; बहुरि इनि ते असंख्यात atraणें तो भी असंख्यात लोकमात्र अनुभाग बंध कौं कारणभूत जे परिणाम, तिनिके स्थान : बहुरि इनितै प्रसंख्यात लोकगुणे तो भी असंख्यात लोकमात्र मन,
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पाग
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[ गोम्मटसार जीवका गाथा ११५ वचन, काय योगनि के अविभाग प्रतिच्छेद ; असें ये च्यारि राशि पूर्वोक्त परिमाण विष मिलाबने । मिलाय जो परिमाण होइ, तीहि महाराशि प्रमाण शलाका, विरलन, देय राशि करि अनुक्रम तें पूर्वोक्त प्रकार शलाका श्रय निष्ठापन. करना । असे करते जो परिमाण होइ, सो जघन्य परीतानंत है । बहुरि याके ऊपरि एक-एक बधता एक घाटि उत्कृष्ट परीतानंत पर्यन्त मध्यम परीतानंत जानना । बहुरि एक घाटि जघन्य युक्तानंत परिमाण उत्कृष्ट परीतानंत जानना।
अब जघन्य युक्तानंत कहिये है - जघन्य परीतानंत का विरलन करि-करि बखेरि एक-एक स्थान विर्षे एक-एक जघन्य परीतानंत का स्थापन करि परस्पर गुणें जो परिमाण आवै, सो जघन्य युक्तानंत जानना । सो यहु अभव्य राशि समान है । अभव्य जीव राशि जघन्य युक्तानंत परिमाण है । बहुरि याके ऊपरि एक-एक बघता एक धाटि उत्कृष्ट युक्तानंत पर्यन्त मध्यम युक्तानंत के भेद जानना । बहुरि एक धाटि जघन्य अनंतानन्त परिमारण उत्कृष्ट युक्तानन्त जानना ।
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अब जघन्य अनंतानंत कहिये है - जघन्य युक्तानंत को जघन्य युक्तानंत करि एक ही बार गुरणे जघन्य अनंतानंत होइ है। बहुरि याके ऊपरि एक-एक बधत्ता एक घाटि केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद प्रमाण उत्कृष्ट अनंतानंत पर्यन्त मध्यम अनंतानंत जानने । सो थाके भेदनि को जानता संता असे विधान करें - जघन्य अनंतानंत परिमारण शलाका, विरलन, देवरूप तीन राशि करि अनुक्रम ते शलाका त्रय निष्ठापन पूर्वोक्त प्रकार करि करना । अॅसे करतें जो मध्यम अनंतानंत भेदरूप परिमाण होइ, तोहि विर्षे ए छह राशि और मिलावना । जीव राशि के अनंतवे भाग सिद्ध राशि, बहुरि तातें अनंतगुणा जैसा पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, अस राशि रहित संसारी जीव राशि मात्र निगोद राशि, बहुरि प्रत्येक बनस्पति सहित निगोद राशि प्रमाण वनस्पति राशि, बहुरि जीव राशि तें अनंतमुरणा पुद्गल राशि, बहुरि यात अनन्तानन्त गुणा व्यवहार काल के समयनि की राशि, बहुरि यात अनंतानन्त गुणा अलोकाकाश के प्रदेशनि की राशि - असे छहों राशि के परिमाण पूर्व परिमाण विर्षे मिलावने । बहुरि मिलाए जो परिमाण होइ, तीहिं प्रमाण शलाका, विरलन, देय करि क्रम से पूर्ववत् शलाका त्रय निष्ठापन कीयें जो कोई मध्यम अनंतानंत का भेदरूप परिमाण पावै, तीहि विर्षे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य के अगुरुलधु गुण का अविभाग प्रतिच्छेदनि का परिमाण अनंतानंत है, सो जोडिए । यौं करतें जो महा।
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attafat भाटीका
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परिमाण होइ, तीहि प्रमाख शलाका, विरलन, देय करि क्रम तैं पूर्वोक्त विधि करि शलाकाय निष्ठापन कीयें जो कोई मध्यम अनंतानंत का भेदरूप महा परिमाण होइ, तिस परिमाण को केवलज्ञान शक्ति का प्रविभाग प्रतिच्छेदनि का समूहरूप परिमाण विषै घटाइ, पीछे ज्यू का त्यू मिलाइये, तब केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदन का प्रमाण स्वरूप उत्कृष्ट अनंतानंत होह है ।
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इहां प्रश्न जो पूर्वोक्त परिमारण कौं पहिले केवलज्ञान में सौ काढि पीछे फेरि मिलाया सो कौन कारण ?
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लाका समाधान
केवलज्ञान का परिमाण असा नाहीं जो पूर्वोक्त परिमाण के गुरणनादि क्रम करि जाण्या जाय। हर उस परिमाण को केवलज्ञान में मिलाइये तो केवलज्ञान अधिक प्रमाण होइ, सो है नाहीं । बहुरि किछू न कहिए तो गणित विषै संबंध टूटें, तातें पूर्वोक्त परिमारण कौं पहिले केवलज्ञान में सौं घटाइ, पीछे मिलाइ, केवलज्ञान मात्र उत्कृष्ट अनंतानंत का है । से ये इकईस भेद संख्यामान के कहे ।
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संख्या के विशेषरूप से चौदह धारा, तिनिका कथन कीजिए है १. सर्व धारा, २. समधारा, ३. विषमधारा ४ कृतिधारा, ५. प्रकृति धारा ६. धनधारा, ७. अधनधारा, म कृति मात्रिकधारा, ६. प्रकृति मात्रिकधारा, १० घन मातृकधारा ११. अधन मातृकधारा १२. द्विरूप वर्गवारा, १३. द्विरूपवनधारा, १४. द्विरूपधनाधनधारा - से ये चौदह धारा जाननी ।
तहां कहे जे सर्व संख्यातादि भेद, ते एक आदि तें होंहि असे जे सर्व संख्यात विशेषरूप सो सर्वधारा है ।
अवशेष तेरह धारा याही विषै उत्पन्न जाननी । वा धारा का प्रथम स्थान . एक प्रमाण, दूसरा स्थान दोय प्रमाणं, तीसरा स्थान तीन प्रमाणे असे एक-एक बधता केवलज्ञान पर्यन्त जानने । केवलज्ञान शब्द करि उत्कृष्ट अनंतानंत जानने । इस धारा विषे सर्व ही संख्या के विशेष आये, ताते याके सर्वस्थान केवलज्ञान परिमारग जानने ।
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बहुरि जिस विषै समरूप संख्या के विशेष पाइये, सो समधारा है । याका आदि स्थान दोय. दूसरा स्थान व्यारि, तीसरा स्थान छह, जैसे दोय- दोय बघता
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गोम्प्रसार गोदकापड गावा १२५
केवलज्ञान पर्यंत जागने । या सर्वस्थान केवलज्ञान का प्राधा परिणाम हैं। सर्वधारा विर्षे सर्वसंख्यात के विशेष थे, तिनिमें आधे तौ समरूप हैं, प्राधे विषमरूप हैं; ताते याके स्थान केवलज्ञान का प्राधे प्रमाण कहे ।
बहुरि जिस विर्षे विषमरूप संख्या विशेष पाइये, सो विषमधारा है । याका आदि स्थान एक, दूसरा स्थान तीन, तीसरा स्थान पांच, असे दोय-दोय बधता एक घाटि केबलज्ञान पर्यंत जानने : याके सर्वस्थान आधा केवलज्ञान प्रमाण हैं।
बहुरि जिस विष वर्गरूप संख्या विशेष पाइये, सो कृतिधारा है। याका प्रथम स्थान एक, जात एक का वर्ग एक ही है। बहुरि दूसरा स्थान च्यारि, जातें दोय का वर्ग च्यारि हो है। बहुरि तीसरा स्थान नव, जाते तीनि का वर्ग नव है। बहुरि चौथा स्थान सोलह, जाते च्यारि का वर्ग सोलह है । जैसे ही पंचादिक के वर्ग पचीस नै प्रादि देकरि याके स्थान केवलज्ञान पर्यंत जानने । याके सर्वस्थान केवलज्ञान का वर्गमूल परिमारण जानने । जिस परिमारण का वर्ग कीये केवलज्ञान का परिमारण होइ, इतने याके स्थान है।
बहुरि जिस विर्षे वर्गरूप संख्या विशेष न पाइये, सो प्रकृतिधारा है । सर्व धारा के स्थानकनि में स्यों कृतिधारा के स्थान दूरि कीए अवशेष सर्वस्थान इस धारा के जानने । याका पहिला स्थानक दोय, दूसरा तीन, तीसरा पांच, चौथा छह, (पांचवां सात, छठा पाठ) इत्यादि एक घाटि केवलज्ञान पर्यंत आनने । याके सर्वस्थान केवलज्ञान का वर्गमूल करि हीन केवलज्ञान परिमाण जानने ।
बहुरि जिस विर्षे घनरूप संख्या विशेष पाइये, सो धनधारा है । याका पहिला स्थान एक, जाते एक का धन एक ही है। बहुरि दूसरा स्थान पाठ, जाते दोय का धन पाठ हो है। बहुरि तीसरा स्थान सत्ताईस, जाते तीन का धन सत्ताईस हो है । चौथा स्थान. चौसठि, जातं च्यारि का धन चौसठि हो है। जैसे पंचादिक का धन सवासी में प्रादि देकरि याके स्थान केवलज्ञान के आसन्न धन पर्यंत जानने ।
केवलज्ञान का आसन्न घन कहा कहिये ? '
सो अंकसंदृष्टि करि दिखाइये है -- केवलज्ञान का परिमारण पैंसठि हजार . पांच से छत्तीस (६५५३६) । याका आधा कीजिए, तब घनधारा का स्थान होइ (३२७६८) । याका घनमूल बत्तीस (३२) । बहुरि याके ऊपरि तेतीस नैं आदि
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सम्मानका भाषाढीका
। २४५ देकर चालीस पर्यंत घनमूल के स्थान है; जाते चालीरा का घन कोए चौंसठि हजार होइ, सो आसन्न घन जानना । जाते इकतालीस का धन कीजिए, तो बड़सठि हजार नव से इकबीस होइ, सो केवलज्ञान के परिमाण सौं बधता होइ, सो संभव नाही। तातें केवलज्ञान के नीचें जो परिमाण घनरूप होइ, ताकों केवलज्ञान का आसन्न धन कहिए । इस प्रासन धन का जो घनमल, ताका जो परिमाण, तितने इस धारा के . स्थान जानने।
कोउ कहै कि केवलज्ञान के अर्धपरिमारण कौं धनस्थान तुम कैसे जान्या ?
ताका समाधान -- द्विरूप वर्गधारा के जे स्थान कहेंगे, तिनि विर्षे पहिला, तीसरा, पांचवा नैं प्रादि देकरि जे विषम स्थान हैं, तितिका तौ चौथा भाग परिमाण घनधारा का स्थान जानना । जैसे द्विरूप वर्गधारा का पहिला स्थान च्यारि, ताका चौथा भाग एक, सो धनधारा का स्थान है । बहुरि तीसरा स्थान दोय से छप्पन, ताका चौथा भाग चौसठि, सो घनधारा का स्थान है, असा सर्वत्र जानना । बहुरि जे दूसरा, चौथा, छठा नैं आदि देकरि समस्थान हैं, तिनिका अाधा प्रमाण धनस्थान जानना । जैसे दूसरा स्थान सोलह, ताका आधा आठ, सौ बनधारा का स्थान है । चौथा स्थान सठि हजार पांच से छत्तीस, ताका प्राधा बत्तीस हजार सात सै अडसठि, सो भी घनस्थान हैं। यातें यह केवलज्ञान भी द्विरूप वर्मधारा के समस्थान विर्षे है, ताते याका प्राधा परिमाण कौं घनस्थान कहा।
बहुरि प्रश्न - जो केवलज्ञान को द्विरूप वर्गधारा के समस्थान विर्षे कैसे जान्या ?
ताका समाधान - केवलज्ञान की वर्गालाका का भी परिमाण द्विरूप वर्गधारा के ही विर्षे कहा है अर द्विरूप वर्गधारा के जे स्थान हैं, तिनि विष प्रमाण समरूप ही है, तातै जानिए है । असे धनधारा कही ।..
बहुरि जिस विषं घनरूप संख्या विशेष न पाइए, सो अपनधारा है । सर्वधारा विर्ष जे स्थान हैं, तिनि विर्षे अनधारा के स्थान घटाए अवशेष सर्वस्थान इस धारा के जानने । याका प्रथम स्थान दोय, दूसरा स्थान तीन, इत्यादिक केवलज्ञान पर्यन्त जानना । याके सर्वस्थान बनधारा के स्थान का परिमारण करि हीन केवलज्ञान परिमाण जानने । ..
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SERRITATUSHARE
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। गोम्मटसार मौवकाण्ड गाथा ११७ बहुरि जिनिका वर्ग होइ असे संख्या विशेष जिस धारा विष पाइए, सो कृति मातृकधारा है, सो एक में श्रादि देकरि सर्व ही का वर्ग होइ है, परंतु याका अंतस्थान केवलज्ञान का वर्गमूल हो जानना। केवलज्ञान के वर्गमूल तें एक भी अधिक का जो वर्ग करिए तौ केवलज्ञान ते अधिक का परिमाण होइ, ताते याके स्थान एक सों लगाइ एक-एक बधता केवलज्ञान के वर्गमूल पर्यंत जानने । याके सर्वस्थान केवलज्ञान का वर्गमूल परिमाण जानने ।
बहरि जिनिका वर्ग न होइ जैसे संख्या जिस धारा विर्षे पाइए, सो अकृतिमातृक धारा है। सो एक अधिक केवलज्ञान का वर्गमूल कौं आदि देकरि एक-एक बघता केवलज्ञान पर्यंत जानना । इनका वर्ग न हो है । याके सर्वस्थान केवलज्ञान के वर्गमूल करि हीन केवलज्ञान मात्र जानने । अंकसंदृष्टि करि केवलज्ञान का प्रमाण सोलह, ताका वर्गमूल च्यारि, सो च्यारि पर्यंत का लौ वर्ग होय अर पंचम तैं आदि दै करि सोलह पर्यंत का वर्ग न होइ, जो कीजिये ता केवलज्ञान ते प्रांधक परिमाण होइ, सो है नाहीं।
बहुरि जिनिका धन होइ सकै असे संख्या विशेष जिस धारा विर्षे पाइये सो घन भातृकधारा है, सो एक में प्रादि देकरि सर्व का धन होइ; परंतु याका अंत स्थान केवलज्ञान का जो मासन्त धन, ताका घनमल परिमाण ही जानना । याके सर्वस्थान केवलज्ञान के प्रासन्न धन का धनमूल समान जानने ।
बहुरि जिनका धन न होइ सके औसे संख्या विशेष जिस धारा में पाइये, सो अधन मातृकधारा है; सो केवलज्ञान का एक अधिक आसन्न वन मूल ते लगाइ एकएक यधता केवलज्ञान पर्यंत याके स्थान जानने । अंकसंदृष्टि करि केवलज्ञान सठिहजार पांच से छत्तीस प्रमाण ( ६५५३६ ), याका प्रासन्न घन चौंसठि हजार (६४०३०.) ताका घनमूल चालीस (४०), सो चालीस पर्यंत का धन होइ, इकतालीस तें लगाइ केवलज्ञान पर्यंत याका धन न होइ, जो कीजिये तो केवलज्ञान से अधिक परिमारण होइ, सो है नाहीं ।
___ बहुरि द्विरूप का वर्ग सौं लगाइ पूर्व-पूर्व का वर्ग करते जे संख्या विशेष होइ, ते जिस धारा विर्षे पाइये, सो द्विरूपवगंधारा है । याका प्रथम स्थान दोय का वर्ग च्यारि, बहुरि च्यारि का वर्ग दूसरा सोलह, बहुरि याका वर्ग तीसरा स्थान छप्पन अधिक दोय सौ (२५६) । बहुरि याका वर्ग चौथा स्थान पणट्टी, सो पैंसठि हजार
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सम्बशनक्षिका भाषाटोका ।
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पांच मै छत्तीस (६५५३६) प्रमाण का नाम पणट्ठी कहिये है। बहुरि याका वर्ग पांचवां स्थान बादाल, सो बियालीस चौराणवै, छिनवै, बहत्तरि, छिनवै ये अंक लिखें जो प्रमाण होइ, ताकी वादाल कहिये (४२ ६४ ६६ ७२ ६६) ।
बहुरि याका वर्ग छठा स्थान एकट्टी, सो एक, पाठ, च्यारि च्यारि, छह, सात, च्यारि-च्यारि, बिदी, सात, तीन, सात, बिंदी, नव, पांच, पांच, एक, छह, एक, छह इनि अंकनि करि जो प्रमाण होइ ता. एकट्टी कहिये है (१ ८ ४ ४ ६ ७ ४ ४ ० ७ ३ ७ ० ६ ५५ १६ १६) । बहुरि याका वर्ग सातवां स्थान जैसे ही पहलापहला स्थाननि का वर्ग कीए एक-एक स्थान होइ। तहां संख्यात स्थान भए जधन्य परीतासंख्यात की वर्गशलाका होइ ।
सो वर्गशलाका कहा कहिए ?
दोय के वर्ग ते लगाइ जितनी बार वर्ग कीए विवक्षित राशि होइ, तितनी ही विवक्षित राशि की वर्गशलाका जाननी । तातै द्विरूप वर्गधारा आदि तीन धारानि विर्षे जितने स्थान भए जो राशि होइ, तीहिं राशि को तितनी वर्गशलाका है । जैसे पणटो की वर्ग शलाका च्यारि, बादाल की पांच, इत्यादि जाननीं । बहुरि जघन्य परोतासंख्यात को वर्ग शलाका स्थान तें लगाइ संख्यात स्थान भएं, तब जघन्य परोतासंख्यात के अर्धच्छदनि का परिमाण होइ ।।
सो अर्धच्छेद कहा कहिए?
विवक्षित राशि का जेती बार प्राधा-प्राधा होइ, तितने तिस राशि के अर्धच्छेद जानने । जैसे सोलह की एक बार आधा कीये पाठ होइ, दूसरा आधा कीये त्यारि होइ, तीसरा प्राधा कीये दोय होइ, चौथा प्राधा कीये एक होइ, अंसें च्यारि बार आधा भवा, तातें सोलह का अर्धच्छेद च्यारि जानने । प्रेस ही चौंसठि के अर्धश्छेद छह होइ । असे सर्व के अर्धच्छेद जानने । बहुरि तिस जघन्य परीतासंख्यात के अर्थच्छेदरूप स्थान ते संख्यात वर्ग स्थान गये जघन्य परीतासंख्यात का वर्गमूल होई, यात एक स्थान गये इस वर्गमूल का वर्ग कोये जघन्य परीतासंख्यात होइ। बहुरि याते संख्यात स्थान गये जघन्य युक्तासंख्यात होइ, सोई प्रावली का परिमारण है । इहां वर्गशलाकादिक न कहे, ताका कारण प्रागै कहियेगा । बहुरि यात एक स्थान जाइये, याका एक बार वर्ग कीजिये, तब प्रतरावली होइ; जातें प्रावली के वर्ग ही कौं प्रतरावलो कहिये है ।
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। योम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११७ बहुरि इहांत असंख्यात स्थान जाइ अद्धापल्य का वर्ग शलाका राशि होइ है। बहुरि यात असंख्यात स्थान जाइ, अद्धापल्य का अर्धच्छेद राशि होइ । बहुरि यात असख्यात स्थान जाइ अद्धापल्य का वर्गमूल होइ । बहुरि यात असंख्यात स्थान गये सूच्यंगुल होइ । बहुरि यातै एक स्थान गये प्रतरांगुल होइ । बहुरि यात असंख्यात स्थान गये जगत् श्रेणी का घनमूल होइ । बहुरि यात असंख्यात संख्यात स्थान गये क्रम ते जघन्य परीतानंत का वर्गशलाका राशि पर अर्द्धच्छेद राशि पर वर्गमूल होइ । यात एक स्थान गये जघन्य परीतानंत होई । बहुरि यात असंख्यात स्थान गये जघन्य युक्तानंत होइ । बहुरि यात एक स्थान गये जघन्य अनंतानंत होइ । बहुरि याते अनंतानन्त अनंतानंत स्थान गये क्रम से जीव राशि का वर्गशलाका राशि अर अर्द्धच्छेद राशि अर वर्गमूल होइ । यात एक स्थान गये जीव राशि होइ । बहुरि अब इहां से भाग जे राशि कहिए है, तिनिका वर्गशलाका राशि, अर्धच्छेद राशि, वर्गमूल सबका अस कहि लेना। सो जीवराशि ते अनंतानंत वर्गस्थान गए पुदगल परमाणुनि का परिमारा होइ । यात अनंतानंत वर्मस्थान गए तीनि काल के समयनि का परिमाण होइ। यात अनंतानंत स्थान गये श्रेणीरूप आकाश के प्रदेशनि का परिमाण . होइ, सो यह लोक-प्रलोकरूप सब प्रकाश के लंबाईरूप प्रदेशनि का परिमाणा है । यामैं चौडाई-ऊंचाई न लोनी । बहुरि यात एक स्थाच गये प्रतराकाश के प्रदेशनि का परिमागा है, सो यह लोक-प्रलोकरून सर्व आकाश के प्रदेशनि का लंबाई रूप वा चौडाईरूप प्रदेशनि का परिमाण है, याम ऊंचाई न लोनी । ऊंचाई सहित धन रूप सर्व माकाश के प्रदेशनि का प्रमाण द्विरूप घनधारा विर्षे हैं; इस धारा विष नाहीं है । बहुरि याते अनंतानंत स्थान जाइ धर्म द्रव्य, अधर्न द्रव्य के अगुरुलधु गुणनि का अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमारा होइ। जिसका भाग न होइ असा कोई शक्ति का सूक्ष्म अंश, ताका नाम अविभाग प्रतिच्छेद है । बहुरि यात अनंतानंत वर्गस्थान गये एक जीव के अगुरुलघु गुण के षट्स्थान पतित वृद्धि-हानि रूप अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण होइ है । बहुरि यात अनंतानंत वर्गस्थान गये सूक्ष्म निगोदिया के जो लब्ध्यक्षर नामा जघन्य ज्ञान होइ है, ताके अविभाग प्रतिच्छेदानि का परिमारण होइ । बहुरि पाते अनंतानंत वर्गस्थान गए. असंयत राम्यग्दृष्टी तिथंच के जो जघन्य सम्यक्त्व. रूप क्षायिक लब्धि हो है, ताके अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण होइ । बहुरि यात अनंतानंत स्थान गए केवलज्ञान का वर्गशलाका राशि होइ । बहुरि यात अनंतानंत वर्गस्थान गए केवलज्ञान का अर्धच्छेद राशि होइ । बहुरि यात अनंतानंत वर्मस्थान
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सम्यग्नानंचयिका भावारीका
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गये केवलज्ञान का अष्टम वर्गमूल होइ। बहुरि यात एक-एक स्थान गए क्रम ते केवलज्ञान का सप्तम, पाठम, पंचम, चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय, प्रथम वर्गमूल होइ।...
जो विवक्षित राशि का वर्गमूल होइ, ताको प्रथम वर्गमूल कहिए । बहुरि उस प्रथम वर्गमूल का वर्गमूल कं द्वितीय वर्गमूल कहिए । बहुरि तिस द्वितीय वर्गमूल का भी वर्गमूल होइ, ताकी तृतीय वर्गमूल कहिए । असे ही चतुर्थादिक वर्गमूल “जानने । बहुरि उस प्रथम वर्गमूल ते एक स्थान जाइए, वाका वर्ग कीजिए, तब गुण-पर्याय संयुक्त जे त्रिलोक के मध्यवर्ती त्रिलोक संबंधी जीवादिक पदार्थनि का समूह ताका प्रकाशक जो केवलज्ञान सूर्य, ताकी प्रभा के प्रतिपक्षी कर्मनि के सर्वथा नाश ते प्रकट भए समस्त अविभाग प्रतिच्छेदनि का समूहरूप सर्वोत्कृष्ट भाग प्रमाण उपजे है, सोई उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि है। इहां ही इस धारा का अंत स्थान है। यह ही सर्वोत्कृष्ट परिमाण है। यात कोऊ अधिक परिमारण नाही, असे यह द्विरूप वर्गधारा कही । याके वर्गरूप सर्वस्थान केवलज्ञान की वर्गशलाका परिमारण जानने ।।
अब इहां केतेइक नियम दिखाइए है - जो राशि विरलन देय क्रम करि निपजे, सो राशि जिस धारा विषे कही होइ, तिस धारा विर्षे ही तीहि राशि की वर्गशलाका वा अर्धच्छेद न होइ । जैसे विरलन राशि सोलह (१६), ताका विरलन करि एक-एक प्रति सोलहौं जायगा देय राशि जो सोलह सो स्थापि, परस्पर गुरणन कीए एकट्ठी प्रमाण होइ, सो एकही प्रमाण राशि द्विरूप वर्गधारा विर्ष पाईये है । याके अर्धच्छेद चौसठ (६४), बर्गशलाका छह, सो इस धारा में न पाइये, असे ही सूच्यंगुल वा जगत्श्रेणी इत्यादिक का जानना । असा नियम इस द्विरूप वर्गधारा विर्षे अर द्विरूप घनधारा पर द्विरूप धनाधनधारा विषं जानना। तहाल सूच्यंगुलादिक द्विरूप वर्गधारा विर्षे अपनी-अपनी देय राशि के स्थान से ऊपरि विरलन राशि. ! के जेते अर्धच्छेद होंइ, तितने वर्गस्थान गये उपजे हैं। तहां सूच्यंगुल का विरलन राशि पल्य का अर्धच्छेद प्रमाण है, देय राशि पल्य प्रमाण है । बहुरि जगच्छे रखी की विरलन राशि पल्य का अर्थच्छेदनि का असंख्यातवां भागमात्र जानना, देय राशि धनांगुलमात्र जानना। तहां अपना-अपना विरलन राशि का विरलन करि एक-एक बखेरि तहां एक-एक प्रति देय राशि कौं देइ परस्पर गुणें जो-जो राशि उपज है, सो प्रागै कथन करेंगे । बहुरि द्विरूप वर्गधारादिक तीनि धारानि विर्षे पहला पहला वर्गस्थान से ऊपरला-ऊपरला. वर्गस्थान विर्षे अर्धच्छेदअर्धच्छेद तो दूणे-दूणे जानने अर वर्गशलाका एक-एक अधिक जाननी । जैसे दूसरा .
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| गोम्मटसार जश्वका माथा ११७ वर्गस्थान सोलह, ताका अर्धच्छेद च्यारि अर तीसरा वर्गस्थान दोय से छप्पन, ताका अर्धच्छेद पाठ, असे ही दूणे-दूणे जानने । बहुरि वर्गशलाका सोलह की दोय, दोय सै छापन की तीन असे एक अधिक जाननी । बहुरि तीहि ऊपरला स्थानक के निकटवर्ती जेथवा ऊपरला स्थानक होइ, तेथवा अन्य धारा विर्षे स्थान होइ, तौ तहां तिस पहिले स्थान ते अर्धच्छेद तिगुणे होइ, जैसे द्विरूप वर्गधारा का द्वितीय स्थान सोलह, ताके अर्चच्छेद च्यारि, अर ताते ऊपरिला द्विरूप धनधारा का तीसरा स्थान च्यारि हजार छिनकै, ताके अर्धच्छेद बारह, असे सर्वत्र जानना । बहुरि वर्गशलाका दोऊ की समान जाननी, जैसे दोय सं छप्पन की भो तीन वर्गशलाका, च्यारि हजार छिन की भी तीन वर्गशलाका हो हैं । बहुरि राशि के जेते अर्धच्छेद होइ, तिनि अर्धच्छेदनि के जेते अर्धच्छेद होइ, तितनी राशि की धर्मशलाका जाननी । जैसे राशि का प्रमाण सोलह, ताके अर्धच्छेद च्यारि, याहू के अर्धच्छेद दोय, राशि सोलह, ताकी वर्गशलाका दोय हैं, असे सर्वत्र जानना । बहुरि जेती वर्गशलाका होइ, तितनी जायगा दोय-दोय मांडि परस्पर गुणिए, तब अर्धच्छेदनि का परिमाण आवै । जैसे सोलह की वर्गशलाका दोय, सो दोय जायगा दोय-दोय मांडि. परस्पर. गुरिगए, तब च्यारि होइ, सो सोलह के च्यारि अर्धच्छेद हैं, सो यह नियम द्विरूप वर्गधारा विर्षे ही है । बहुरि जेते अर्धच्छेद होइ, लितना दुवा मांडि परस्पर गुरिगए, तब राशि का परिमाण. होइ । जैसे च्यारि अर्धच्छेद के च्यारि जायगा दुवा मांडि परस्पर गुरिणए, तब जो राशि सोलह, तीहिका परिमाण आवै । .
वर्गशलाका कहा?.
जेती बार वर्ग कीये राशि होइ, सो वर्ग शलाका है। अथवा द्विरूप धारा विर्षे अर्धच्छेदनि का अर्धच्छेद प्रमाण वर्गणालाका हो है।
बहुरि अर्धच्छेद कहा ?
राशि का जेता बार आधा-प्राधा होइ, सो अर्धच्छेद राशि है । इत्यादि यथा संभव जानना।
बहुरि द्विरूप का धन की आदि देकरि पहला-पहला वर्ग करते संख्या विशेष जिस धारा विर्षे होइ. सी द्विरूप धनधारा है। सो दोय का घन पाठ हो है, सो तो याका पहिला स्थान । बहुरि योका वर्ग चौसाठ, सो दूसरा स्थान । बहुरि याका वर्ग च्यारि हजार छिनवे, सो तीसरा स्थान , सो यहु सोलह का धन है । बहुरि
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सम्धशानचन्द्रिका भाषाटोका j याका वर्ग दोय सै छप्पन का धन सो चौथा स्थान । बहुरि पट्ठी का घन पांचवां स्थान । बादाल का धन छठा स्थान । जैसे पहला-पहला स्थानक का वर्ग कीए एकएक स्थान होइ, सो असे संख्यात स्थान गए जघन्य परीतासंख्यात का धन होइ । यात संख्यात स्थान गए पाबली का धन होइ। यातै एक स्थान गए प्रतरावली का . धन होइ । याते असंख्यात असंख्यात स्थान गए क्रम ते पल्य की वर्ग शलाका का छन
अर अर्थच्छेद का धन पर वर्गमूल का धन होइ । यात एक स्थान गए पल्य का धन होइ । बहुरि याते असंख्यात स्थान गए धनागुल होइ । यात असंख्यात स्थान भए जगच्छे रणी होइ । यात एक स्थान गए जगत्प्रतर होइ। याते अनंतानंत-अनंतानंत स्थान गए क्रम ते जीवराशि की वर्गशलाका का घन अर अर्धच्छेद का धन अर वर्गमल का धन होई। यात एक स्थान गये जीवराशि का घन होइ । यात अनंतानंत स्थान गए श्रेणीरूप सर्व आकाश की वर्गशलाका का धन होइ । तातै अनंतानंत वर्ग स्थान जाइ, ताही का अर्धच्छेद का धन होइ । ताते अनंतानंत ' बर्गस्थान जाइ, ताही का प्रथम मूल का धन होइ । तातै एक स्थान जाइ श्रेणी प्रकाश का धन होइ, सोई सर्व प्रकाश के प्रदेशनि का परिमाण है ।
बहुरि याते अनंतानंत स्थान पर केवलज्ञान कालीम गर्नशूल का न होइ, सो याही कौं अंत स्थान जानना । प्रथम वर्गमूल अर द्वितीय वर्गमूल कौं परस्पर गुणे जो परिमाण होइ, सोई द्वितीय वर्गमूल का धन जानना । जैसे सोलह का प्रथम वर्गमल च्यारि, द्वितीय वर्गमल दोय, याका परस्पर गगन कीए पाठ होइ, सोई द्वितीय वर्गमूल जो दोय, ताका धन भी आज ही होइ, बहुरि द्वितीय वर्गमूल के अनंतरि वर्ग केवलज्ञान का प्रथम मूल, ताका धन कीए केवलज्ञान ते उलंघन होइ, सो केवलज्ञान से अधिक संख्या का प्रभाव है, तातें सोई अंत स्थान कह्या । या धारा के सर्वस्थान दोय घाटि केवलज्ञान की वर्मशलाका मात्र जानने । द्विरूपवर्गधारा विषं जिस राशि का जहां वर्ग ग्रहण कीया. तहां तिसका धन इस धारा विष जानना । बहुरि दोय रूप का घन कर जो धन, ताकौं आदि देकरि पहला-पहला स्थान -का वर्ग करते जो संख्या विशेष होइ, ले जिस धारा विर्षे पाइये, सो द्विरूप धनाधनधारा है । सो दोय का धन पाठ, ताका घन पांच से बारा, सो याका आदि स्थान जानना । बहुरि याका वर्ग दोय लाख बासठि हजार एक सौ चवालीस (२६२१४४), सो याका दूसरा स्थान जानना । अस ही पहला-पहला स्थान का वर्ग करते याके स्थान होंहि । असे असंख्यात वर्ग स्थान गये लोकाकाश के प्रदेशनि का परिमाण
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गोम्मटसार जीवका गाया ११७
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होइ । बहुरि बातें असंख्यात वर्गस्थान गये अग्निकायिक जीवनि की गुणकार शलाका होंहि । जेती बार गुगन कीये अग्निकायिक जीवनि का परिमारा होइ, तितनी गणकार शलाका जाननी । सो याके परिमाण दिखाबने के निमित्त कहिये - लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण जुदा-जुदा तीन राशि करना शलाका, विरलन, देय। तहां विरलन राशि की एक-एक स्थान विष देय राशि की स्थापन करि परस्पर गुरगन करना । जैसे कीये संसें शलाका राशि में स्यों एक काढि लेना । इहां जो राशि भया, ताकी गुणकार शलाक; एक भई पर कई शापय वे असंख्यातवें भागमात्र हुई, जातै विरलन राशि के अर्धच्छेद देय राशि के अर्धच्छेद के अर्धच्छेदनि विर्षे जोड़ें विवक्षित राशि की वर्गशलाका का प्रमाण होइ है । बहुरि अर्धच्छेद राशि असंख्यात लोक प्रमाण भया, जाते देय राशि के अर्धच्छेदनि करि विरलन राशि कौ गुण विवक्षित राशि का अर्धच्छेदनि का प्रमाण हो है । बहुरि उत्पन्न भया राशि सो असंख्यात लोक प्रमाण हो है । बहुरि यौं करतें जो राशि भया, तीहि प्रमाण 'विरलन देय राशि करि विरलन राशि का विरलन करना, एक-एक प्रति देय राशि कौं देना, पीठे परस्पर गणन करता, तब शलाका राशि में स्यों एक और काढिलेना। इहां. गुणकार शलाका दोय मई, पर वर्गशलाका राशि पर अर्धच्छेद राशि अर यो करता जो राशि उत्पन्न भया, सो ये तीनों ही असंख्यात लोक प्रमाण भये । बहुरि जहां ताई यह लोकमात्र शलाका राशि एक-एक काढने से पूर्ण होइ, तहां ताई असे ही करना । असे करतें जो राशि उपज्या, ताकी गुणकार शलाका तो लोकमात्र भई, और सर्व तीनों राशि असंख्यात लोकमात्र असंख्यात लोकमात्र भये । बहुरि जो यहु राशि का प्रमाण भया, तीहि प्रमाण जुदा-जुदा शलाका, विरलन, देय, असे तीन राशि स्थापि, तहां विरलन राशि कौं एक-एक बखेरि, एक-एक प्रति देय राशि कौं देइ, परस्पर गुणनि करि दूसरी बार स्थाप्या हुआ शलाका राशि ते एक और काढि लेना । इहां जो राशि उपज्या, ताकी गुणकार शलाका एक अधिक लोकप्रमाण है, अवशेष तीनों राशि असंख्यात लोकमात्र असंख्यात लोकमात्र हैं। बहुरि जो राशि भया तीहिं प्रमाण विरलन देय राशि स्थापि, विरलन राशि को बखेरि, एक-एक प्रति देय राशि कौं देइ, परस्पर गुणन कर दूसरा शलाका राशि तें एक और काढि लेना, तब गुणकार शलाका दोय अधिक लोक प्रमाण भई । अवशेष तीनों राशि असंख्यात लोकमात्र असंख्यात लोकमात्र भई । बहुरि याही प्रकार दोय घाटि उत्कृष्ट संख्यात लोकमात्र मुरणकार शलाका प्राप्त करि इन विर्षे पूर्वोक्त दोय अधिक लोकमात्र गुणकार' शलाका जोड़िये । तब गुणकार शलाका भी असंख्यात लोकप्रमाण
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सम्बज्ञानमन्द्रिका भावाटका भई, तब इहां से लगाइ गुणाकार शलाका, वर्गशलाका, अर्धच्छेद राशि, उत्पन्न भई राशि चारि (४) । ये च्यारी विशेष करि हीनाधिक हैं । तथापि सामान्यपर्ने असंख्यात लोक असंख्यात लोकप्रमाण जाननी । असे क्रम ते जाइ दूसरी बार स्थापी हुई शलाका राशि कौं भी एक-एक काढने ते पूर्ण करै । बहुरि तहां उत्पन्न भया जो राशि, तीहि प्रमाण शलाका विरलन, देय जुदा-जुदा तीन राशि स्थापना । पूर्वोक्त प्रकार से इस तीसरी बार स्थाप्या हुवा शलाका राशि कौं भी पूर्ण करि बहुरि तहां जो राशि उत्पन्न भया, तींहि प्रमाण शलाका, विरलन, देय, तीन राशि स्थापना। तहां जो पूर्व कही तीन गुणकार शलाका राशि, तिनिका प्रमाण इस चौथी बार स्थाप्या हुवा शलाका राशि में स्यों घटायें जो अवशेष प्रमाण : रहै, सो पूर्वोक्त प्रकार करि एक-एक काढने से जब पूर्ण होइ, तब तहां जो उत्पन्न राशि होइ, तीहि प्रमाण अग्निकायिक जीवराशि है । जैसे देखि-----
'आउढराशिवार लोगे अण्णोरणसंगुणे तेत्रो' अंसा प्राचार्यनि करि कहा है। याका अर्थ यह-जो साढा तीन बार शलाका राशि करि लोक कौं परस्पर गुरौं अग्निकायिक जीवराशि हो है। या प्रकार अग्निकायिक जीवराशि की गणकार शलाका ते मरि असंख्यात-असंख्यात वर्गस्थान जाइ ताका वर्गशलाका, अर्धच्छेद राशि पर प्रथम मूल होइ, ताकी एक बार वर्गरूप कीये तेजस्कायिक जीवति का प्रमाण होइ है। बहुरि याते असंख्यात असंख्यात वर्गस्थान जाइ क्षेजस्कायिक की स्थिति की वर्गशलाका पर अर्धच्छेद नर प्रथम मूल होइ है। यात एक स्थान जाइ तेजस्कायिक की स्थिति हो है, सो स्थिति कहा कहिये ? अन्य काय से आय करि तेजस्काय विर्षे जीव उपज्या, तहां उत्कृष्टपने जेते काल और काय न धरै, तेजस्काय ही के पर्यायनि को धाऱ्या करै, तिस काल के समयनि का प्रमाण जानना ।
___ बहुरि यात असंख्यात-असंख्यात वर्गस्थान जाइ अवधि संबंधी उत्कृष्ट क्षेत्र की वर्गशलाका, अवच्छेद पर प्रथम मूल हों है । ताकौं एक बार बर्गरूप कीये, अवधि संबंधी उत्कृष्ट क्षेत्र हो है, सो कहा ?
सविधि ज्ञान के जेता क्षेत्र पर्यंत जानने की शक्ति, ताके प्रदेशनि का प्रमाण हो है, सो यह क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण है ।
इहां कोऊ कहै अवधिज्ञान तो रूपी पदार्थनि कौं जाने, सो रूपी पदार्थ एक लोक प्रमाण क्षेत्र विर्षे ही हैं । इहां इतना क्षेत्र कैसे कह्या ?
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। गोम्भटसार जीवकाण्ड मावा ११७ ताका समाधान - जैसे अहमिनि के सप्तम नरक पृथ्वी पर्यंत गमन शक्ति है. तथापि इच्छा बिना कदाचित् गमन न हो है। तैसें सर्वावधि विर्षे जैसी शक्ति है - इतने क्षेत्र विर्षे जा रूपी पदार्थ होइ तो तितने कौं जानें, परंतु तहां रूपी पदार्थ नाही, तातै सो शक्ति व्यक्त न हो है ।
बहुरि तात असंख्यात-असंख्यात स्थान जाइ स्थिति बंधाध्यवसाय स्थाननि को वर्गशालाका अर अर्धवेद पर प्रथम मूल हो है । याकौं एक बार वर्गरूप कीये स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान हो है, ते कहा?
सो कहिये है ज्ञानावरणादिक कर्मनि का ज्ञान की पावरना इत्यादिक स्वभाव करि संयुक्त रहने का जो काल, ताक स्थिति कहिये । तिसके बंध कौं कारणभूत जे परिणामनि के स्थान, तिनिका नाम स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान है ।।
बहुरि तात असंख्यात-असंख्यात वर्मस्थान जाइ अनुभागबंधाध्यवसाय स्थाननि की वर्गशालाका पर अर्धच्छेद पर प्रथम मूल हो है । ताकौं एक बार वर्गरूप कीये अनुभागबंधाध्यवसाय स्थान हो है । ते कहा ?
___सो कहिये है - ज्ञानावरणादि कर्मनि का बर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, गुणहानि स्थानरूप तिष्ठता जो अविभाग प्रतिच्छेदनि का समूहरूप अनुभाग, ताके बंध की कारणभूत जे परिणाम, तिनके स्थाननि का नाम अनुभागबंधाध्यवसाय स्थान है । स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान पर अनुभागबंधाध्यवसाय स्थाननि का विशेष व्याख्यान प्रागै कर्मकांड के अंत अधिकार विषं लिखेंगे , बहुरि तातें असंख्यात-असंख्यात वर्गस्थान जाइ निगोद शरीरनि की उत्कृष्ट संख्या का वर्गशलाका पर अर्धच्छेद पर प्रथम मूल हो है।
याते एक स्थान जाइ निगोद शरीरनि की उत्कृष्ट संख्या हो है । स्कंध, अंडर आवास, पुलवी, देह - ए पांच असंख्यात लोक तें लगाइ असंख्यात लोक गुणे क्रम ते हैं। तातें पांव जायगा असंख्यात लोक मांडि परस्पर गुणें जो प्रमाण होइ, तेती लोक विर्षे निगोद शरीरनि की उत्कृष्ट संख्या है । बहुरि तात असंख्यात लोक असंख्यात लोक मात्र वर्गस्थान जाइ निगोद काय स्थिति की वर्गशलाका पर अर्धच्छेद अर प्रथम मूल हो है, याका एक बार वर्ग कीए निगोद काय की स्थिति हो है, सो निगोद शरीररूप परिणमे जे पुद्गल स्कंध, ते उत्कृष्टपर्ने निगोद शरीरपना कौं जेते काल न
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सम्यग्जामचन्तिका भावारीका ]
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छोडे, तिस काल के समयनि का प्रमाण जानना । इहां निगोद जीव निगोद पर्याय कौं छोडि अन्य पर्याय उत्कृष्टपनें यावत् काल न धरै, तिस काल का ग्रहण न करना; जातै सो काल अढाई पुद्गल परिवर्तन परिमाण है, सो अनंत है; तातै ताका इहां ग्रहण नाहीं । बहुरि तातै प्रसंख्यात असंख्यात वर्गस्थान जाइ, उत्कृष्ट योग स्थाननि के अविभाग प्रतिच्छेदनि का वर्गशलाका अर अर्धच्छेद पर प्रथम मूल हो है । याका एक बार वर्ग कीए एक-एक समान प्रमाणरूप चय करि अधिक असे जो जगतश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण योग स्थान हैं, तिनिविर्षे ओ उत्कृष्ट योग स्थान हैं, ताके अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण हो है। ते लोक प्रमाण जे एक जीव के प्रदेश, तिनिविर्षे कर्म-नोकर्म पर्यायरूप परिणमने को योग्य जे लेइस वर्गणानि विष कार्माण वर्गणा अर आहार वर्गगा, तिनिकौं तिस कर्म-नोकर्म पर्यायरूप परिणमने विषै प्रकृतिबंध पर प्रदेशबंध का कारणभूत जानने । बहुरि तातें अनंतानंत वर्गस्थान जाइ केवलज्ञान का चौथा मूल का धन का घन हो है, सो केवलज्ञान का प्रथम मूल अर चतुर्थ मूल की परस्पर गुण जो प्रमाण होइ, तीहि मात्र है । जैसें अंकसंदृष्टि करि केवलज्ञान का प्रथम परगट्ठी (६५५३६), ताका प्रथम मूल दोय से छप्पन, चतुर्थ मूल दोय, इनिकों परस्पर गुणें पांच से बारह होई, चतुर्थ मूल दोय का घन आठ, ताका घन पांच से बारह हो है, सो यह द्विरूप धनाधनधारा का अंतस्थान है: याते अधिक का धनाधन कीए केवलज्ञान में उल्लंघन हो है, सो है नही । बहुत कहने करि कहा ? द्विरूप वर्गधारा विर्षे जिस-जिस स्थान विर्षे जिस-जिस राशि का वर्ग ग्रहण कीया, तिस-तिस राशि कौं तिस-तिस स्थान विर्षे नव जायगा मांडि, परस्पर गुण इस द्विरूप घनापन धारा विर्षे प्रमाण हो है । इस धारा के सर्वस्थान च्यारि घाटि केवलज्ञान का वर्गशलाका मात्र हैं। अॅसें इहां सर्वधारा पर द्विरूपवर्यादिक तीन धारानि का प्रयोजन जानि विशेष कथन का ।
अब शेष सम, विषम, कृति, अकृति, कृतिमूल, अकृतिमूल, धन, अघन, घनमूल अधनभूल इन धारानि का विशेष प्रयोजन न जानि सामान्य कथन कीया, जो इनिका विशेष जान्या चाहैं ते त्रिलोकसार विर्षे बृहद्धारा परिकर्मा नाम ग्रंथ विषं जानहु ।
अब उपमा मान आठ प्रकार का वर्णन करिए है। अथ एक,दोय गणना करि कहने कौं असमर्थ रूप असा जो राशि, ताका कोई उपमा करि प्रतिपादन, सो उपमा मान है । तिसरूप प्रमाण (तिस उपमा मान के) आठ प्रकार हैं । १. पल्य, २. सागर,
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[ गोगटसार जीवकाष गाथा १९७
३. सूच्यंगुल, ४. प्रतरांगुल, ५. धनांगुल, ६. जगत श्रेणी, ७. जगत्पतर ८. जगद्धन । तहां पल्य तीन प्रकार है - व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य, अद्धा पल्य । तहां पहिला पल्य करि बालनि की संख्या कहिए है । दुसरा करि द्वीप-समुद्रनि की संख्या वरिगए है । तीसरा करि कर्मनि की वा देवादिकनि की स्थिति बरिणत है । अब परिभाषा का कथनपूर्वक तिनि पल्यनि का स्वरूप कहिए है ।
___जो तीक्ष्ण शस्त्रनि करि भी छेदने भेदने मोडने को समर्थ न हूजे असा है, 'बहुरि जल-अग्नि प्रादिनि करि नाश कौं न प्राप्त हो है; बहुरि एक-एक तो रस, वर्ण, गंध पर दोय स्पर्श असे पांच गुण संयुक्त है; बहुरि शब्दरूप स्क'ध का कारण हैं, आप शब्द रहित है ; बहुरि स्कंध रहित भया है, बहुरि आदि-मध्य-अंत जाका कह्या न जाइ असा है; बहुरि बहु प्रदेशनि के प्रभाव से अप्रदेशी है, बहुरि इंद्रियनि करि जानने योग्य नहीं है; बहुरि जाका विभाग न होइ असा है -- असा जो द्रव्य, सो परमाणु कहिए । सो परमाणु अंतरंग बहिरंग कारणनि लें अपने वर्ण, रस,गंध, स्पर्शनि करि सदा काल पूरे कहिए जुड़े पर गलै कहिए बिखरं, तब स्कंधवान आपकी करें है; तातें पुद्गल असा नाम है ।
बहुरि तिनि अनंतानंत परमाणुनि करि जो स्कंध होइ, सो अवसन्नासन्न नाम धारक है । बहुरि तातें सन्नासन्न, तृटरेणु, सरेण उत्तम भोगभूमिवालौं का बाल का अग्रभाग रथरेण, मध्यम भोगभूमिवालों का बाल का अग्रभाग, जघन्य भोगभूमिवालों का वाल का अग्रभाग, कर्मभूमिवालों का बाल का अग्रभाग, लीख, सरिसौं, यव, अंगुल ए बारह पहिला पहिला ते क्रम करि आठ-आठ गुणे हैं ।
तहां अंगुल तीन प्रकार है उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल, पात्मांगुल । तहां पूर्वोक्त कम करि उपज्या सो उत्सेधांगुल है । याकरि नारकी, तिर्यन्त्र, मनुष्य, देवनि के शरीर वा भवनवासी आदि च्यारि प्रकार देवनि के नगर पर मंदिर इत्यादिकनि का प्रमाण वर्णन करिए है । बहुरि तिरा उत्सेधांगुल ते पांच सौ गुणा जो भरत क्षेत्र का अक्सपिरणी काल विर्षे पहला चक्रवर्ती का अंगुल है; सोई प्रमाणांगुल है । याकरि द्वीप, . समुद्र, पर्वत, वेदी, मदी, कुड, जगती, वर्ष इत्यादिकनि का प्रमाण वरिगए है । बहुरि भरत,ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यनि का अपने-अपने वर्तमान काल विर्षे जो अंगुल सो पात्मांगुल है । याकरि भारी, कलश, आरसा, धनुष, ढोल, जूडा, शय्या, गाडा, हल,भूसल, शक्ति, शौल, सिंहासन, बाण, चमर, दुदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यनि के मंदिर
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सम्यग्जामचन्द्रिका भाषाटोका
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वा नगर वा उद्यान इत्यादिकनि का प्रमाण वणिए है । असे जहाँ जैसा संभवै, तहाँ तैसा ही अंगुल करी निपज्या प्रमाण जानना।
बहुरि छह अंगुलनि करि पद होइ है । बहुरि ताते दोय पाद की एक विलस्ति, दोय विलस्ति का एक हाथ, दोय हाथ का बीख, दोय वीख कर एक धनुष, बहुरि दोय हजार धनुषनि करि एक कोश, तिन च्यारि कोशनि करि एक योजन हो है । सो प्रमाणांगुलनि करि निपज्या असा एक योजन प्रमाण औंडा वा चौड़ा असा एक गत - खाड़ा करना । चौड़ा १ योजन गौडा १ योजन
सो गर्त उत्तम भोगभूमि विर्षे निपज्या जो जन्म ते लगाई एक आदि सात दिन पर्यत ग्रहे जे मीड़ा का युगल, तिनिके बालनि का अग्रभाग, तिनिकी लंबाई चौडाईनि करि अत्यंत माढा भूमि समान भरना, सिघाऊ न भरना । केते बाल मध्ये सो प्रमाण ल्याइये है -
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विक्खंभवग्गवहगुण, करणी वट्टस्स परिरयो होदि ।
विक्संभचउत्थाभे, परिरयाणिवे हवे गुरिणयं ॥ इस करण सूत्र कर गोल क्षेत्र का फल प्रथम ही ल्याइए है। या सूत्र का अर्थ - व्यास का वर्ग कौं दश गुणा कीए वृत्त क्षेत्र का करणिरूप परिधि हो है । जिस राशि का वर्गमल ग्रहण करना होइ, तिस राशि कौं करण कहिए । बहुरि व्यास का चौथा भाग करि परिधि कौं गुणे क्षेत्रफल हो है । सो इहां व्यास एक योजन, ताका वर्ग भी एक योजन, ताकौं दश गुणा कीए दश योजन प्रमाण करणिरूप परिधि होइ सो ग्राका वर्गमूल ग्रहण करना । सो नक का मूल तीन पर अवशेष एक रह्या, ताकी दूणा मूल का भाग देवा, सो एक का छठा भाग भया । इनिकौं समच्छेद करि मिलाए उगरणीस का छठा भाग प्रमाण परिवि भया (१९) याकौं ब्यास का चौथा भाग पाव योजन ( १ ), ताकरि गुण उगणीस का नौंवीसवां भाग प्रमाण (१६) क्षेत्रफल भया । बहुरि याकौं बेध एक योजन करि गुणे, उगणीस का चौबीसवां भाग प्रमाण ही घन क्षेत्रफल भया । अब इहाँ एक योजन के आठ हजार (८०००) धनुष, एक धनुष का छिनवे (९६) अंगुल, एक प्रमाण अंगुल के पांच सै (५००) उत्सेधांगुल,
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११७
प्रागै एक-एक के आठ-पाठ यव, जू, लोख, कर्मभूमिवालों का बाल का अग्रभाग, जघन्य भोगभूमिवालो का बालाग्र, मध्यम भोगभूमिवालों का बालान, उत्तम भोग भूमिवालों का बालाग्र होइ हैं । सो इहाँ धन राशि का गुणकार-भागहार धनरूप ही हो है । ताते इन सबनि का धनरूप मुणकार करने की उगरणीस का चौबीसवां भाग मांडि प्रागै पाठ हजार आदि तीन-तीन जायगा मांडि परस्पर गुणन करना । १६
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८००० । ८००० । १००० । ६६ । ६६ ।६६ । ५०० । ५०० १५००।८।८ । ८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८। । ८।८ । सो राशि का गुणकार वा भागहार का अपवर्तनादि विधान करि गणे व्यवहार पल्य के सर्व बालनि के खंडनि का प्रमाण अंक अनुक्रम करि बांहीं तरफ ते लगाइ पहले अठारह बिंदी अर पीछे दोय, नव, एक, दोय, एक, पांच, नव, च्यारि, सात, सात, सात, एक, तीन, बिंदी, दोय, पाठ, बिंदी, तीन, बिंदी, तीन, छह, दोय, पांच, च्यारि, तीन, एक, च्यारि ए अंक लिखने ४१३४५२६३०३०५२०३१७७७४६५१२१९२०००००००००००००००००० । इनि अंकनि करि च्यारि स तेरा कोडाकोडि कोडाकोडि कोडाकोडि पैतालिस लाख छब्बीस हजार तीन से तीन कोडाकोड़ि कोडाकोडि कोडि आठ लाख वीस हजार तीन सै सत्रह कोडाकोडि कोडाकोडि सतहत्तरि लाख गुणचास हजार पांच से बारा कोडाकोडि कोडि उगणीस लाख बीस हजार कोडाकोडि प्रमाण हो है, इतने रोम खंड सो व्यवहार पल्य के जानने । बहुरि तिस एक-एक रोम खंड को सौ-सौ वर्ष गए काढिए, जितने काल विर्षे वे सर्व रोम पूर्ण होइ, सो सर्व व्यवहार पल्य का काल जानना।
__सो इहाँ एक वर्ष के दो प्रयन, एक अयन का तीन ऋतु, एक ऋतु का दोय मास, एक मास का तीस अहोरात्र, एक अहोरात्र के तीस मुहूर्त, एक मुहूर्त की संख्यात प्रावली, एक प्रावली के जघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण समय, सो क्रम से मुगन कीये तिस काल के समयनि का प्रमाण हो है।
बहुरि तिस एक-एक रोम के अग्रभाग का असंख्यात कोडि वर्ष के जेते समय होइ, तितने-तितने खंड कीए दुसरा उद्धार पल्य के रोम खंड होइ हैं । इहां याके समय भी इतने ही जानने । सो ए कितने हैं ? सो ल्याइये है - विरलन राशि कौं देय राशि का प्रच्छेदनि करि गुणें उत्पन्न राशि के अर्बच्छेदनि का प्रमाण हो है । तातै प्रद्धापल्य का अर्धच्छेद राशि कौं अद्धापल्य का अर्धच्छेद राशि ही करि गुण सूच्यंगुल का
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सम्यग्ज्ञानद्रिका भाषाका 1
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प्रच्छेद राशि हो है । बहुरि या तिगुणी कोए घनांगुल का अर्थच्छेद राशि हो है। मायावच्छेद राशि का प्रसंख्यातवां भाग को गुरौं जगत् श्रेणी का श्रच्छेद राशि हो है । यामैं तीन घंटाए एक राजू के अर्धच्छेदनि के प्रमाण हो है । इहां एक अर्थच्छेद तो बीचि मेरु के मस्तक विषै प्राप्त भया । तीहि सहित लाख योजननि के संख्यात अर्धच्छेद भये एक योजन रहे । श्रर एक योजन के सात लाख usefठ हजार अंगुल होइ, सो इनके संख्याते अर्धच्छेद भये एक अंगुल होय, सो ये सर्व मिलि संख्या अर्धच्छेद भए, तिनिकरि अधिक एक सुच्यंगुल रही थी, ताके अर्धच्छेदनि का जो प्रमाण होइ, सो घटाइए, तब समस्त द्वीप - समुद्रनि की संख्या हो है । सो घटना कैसे होइ ? इहां तिगुणा सूच्यंगुल का अर्धच्छेद प्रमाण गुणकार है, सो इतने घटावने होइ, तहां श्रद्धापल्य के अर्धच्छेदनि का असंख्यातवां भाग प्रमाण में सौं एक घटाइए तो इहां संख्यात अधिक सूच्यंगुल का श्रच्छेद घटावना होइ, तो कितना verse ? से भैराशिक करि किछू अधिक विभाग घटाइए, से साधिक एक का तीसरा भाग कर हीन पल्य के अर्थच्छेद का असंख्यातवां भाग कों पत्य के छेद के वर्ग तिगुणा प्रमाणकरि गुणें समस्त द्वीप- समुद्रनि की संख्या हो है । सो इतने ए द्वीप समुद्र अढाई उद्धार सामर प्रमारण हैं, तिनके पचीस कोडाकोडि पल्य भए, सो इतने पल्य को पूर्वोक्त संख्या होइ, तो एक उद्धार पत्य की केती होइ ? जैसे त्रैराशिक की पूर्वोक्त द्वीप समुद्रनि की संख्या को पचीस कोडाकोडि का भाग दीजिए, तहां जो प्रमाण श्रावै तिनी उद्धार पल्य के रोम खंडनि की संख्या जानना | बहुरि इनि एक-एक रोम खंडन के असंख्यात वर्ष के जेते समय होंहि, तितने खंड कीए जेते होंइ, तिने श्रद्धापल्य के रोम खंड हैं, ताके समय भी इतने ही हैं । जातें एक-एक समय विषे एक-एक रोम खंड का सर्व जेते कालकरि पूर्ण होंइ, सो अद्धा पल्य का काल है।
ते असंख्यात वर्ष के समय कितने हैं ?
सो कहिए है - उद्धार पल्य के सर्व रोम खंडनि का प्रत्येक असंख्यात वर्ष समय प्रमाण खंड कीए एक अद्धा पल्य प्रमारण होइ, तो एक रोम खंडनि के खंडन का केता प्रमाण होइ ? जैसे वैराशिक करि जितना संध राशि का प्रमाण होइ, तितने एक उद्धार पत्य का रोम खंड के खंडति का प्रमाण जानना । बहुरि अद्धा पल्य है, सो द्विरूप वर्गवारा में अपने श्रर्थच्छेद राशि तें ऊपरि श्रसंख्यात वर्गस्थान जाइ उपज है । याकों तिगुणा पल्य का अर्थच्छेद राशि का वर्ग को किंचिदून पत्य का अर्धच्छेदनिका असंख्यातवां भाग करि गुरौं जो प्रमाण भावें, ताक पचीस कोड़ाकोडि
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| मोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ११७
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का भाग दीए जो प्रमाण होइ, ताफा भाग दीए जितने पावे, तितने असंख्यात वर्षनि के समय जानने । इस प्रमाण करि तिस उद्धार यल्य के रोम खंडनि कौं गुरग अद्धा पत्य के रोमनि की संख्या प्राव है। असे तीन प्रकार पल्य कहे । जैसे खास विर्षे अन्न भरिए, तैसें इहां गर्त विर्षे रोम भरि प्रमाण कह्या, ताते याका नाम पल्योपम कह्या है ।
बहुरि इनिकौं प्रत्येक दश कोडाकोडि करि गणे अपने-अपने नाम का सागर होइ । दश कोडाकोडि व्यवहार पल्य करि व्यवहार सागर, उद्धार पल्य करि उद्धार सागर, श्रद्धा पल्य करि प्रद्धा सागर जानना ।
इहां लवण समुद्र की उपमा है, ताते याका नाम साग़रोपम है, सो याको उत्पत्ति कहिए है - लवरण समुद्र की छेहड की सूची पांच लाख योजन ५००००० (५ल) आदिकी सूची एक लाख योजन (१०००००) इनिकों मिलाय ६ ल आधा व्यास का प्रमाण लाख योजन करि गुरिंगये, तब ६ ल ल ! बहुरि याके वर्ग को दशगुणा करिये, तब करणिरूप सूक्ष्म क्षेत्र होइ ६ ल ल ६ ल ल. १० । याका वर्गमूल प्रमाण लवरण समुद्र का सूक्ष्म क्षेत्रफल है। बहुरि तिस करणिरूप लवण समुद्र के क्षेत्रफल की पल्य का गत एक योजन मात्र, ताका करणिरूप सूक्ष्म क्षेत्रफल एक योजन का वर्ग दशगुणा कौं योजन का चौथा भाग के वर्ग का भाग दीए जो होइ, तीहि प्रमाण है । ताका भाग देना ६ ल ल ६ ल ल १० । सो इहां दश करणि
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करि दश करणि का अपवर्तन करना । बहुरि भागहार का भागहार राशि का गुणकार होइ, इस न्याय करि भागहार दोय जायगा च्यारि करि राशि का दीय जायगा छक्का का गुणकार करना २४ ल ल २४ ल ल, तब पल्य गर्तनि के प्रमाण का वर्ग होइ । याका वर्गमूल ग्रहै सर्व गर्तनि का प्रभारण लाख गुणा चोबीस लाख प्रमाण हो है । याकौं हजार योजन का गौंडापन करि गुणे सर्व लबरण समुद्र विषे पल्यगर्त सारिखे गर्तनि का प्रमाण हो है - २४ लल १००० । याकौं अपने-अपने विवक्षित पल्य के रोम खंडनि करि गुणें गर्तनि के रोमनि का प्रमाण हो है । बहुरि छह रोम जितना क्षेत्र रोक, तितने क्षेत्र का जल निकासने विर्षे पचीस समय व्यतीत होय, तो.
सर्व रोमनि के क्षेत्र का जल निकासने में केते समय होय ? असे राशिक करना । . तहां प्रमाण राशि रोम छह (६.), फल राशि समय पचीस(२५), इच्छा राशि सर्व
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सम्यग्ज्ञानचस्तिका भाषाटीका
मर्तनि के रोमनि का प्रमाण । तहां फल करि इच्छा कौँ गुणि प्रमाण का भाग दीए समयनि का प्रमाण आवै । बहुरि पूर्वोक्त अपना-अपना समयनि का प्रमाणकरि एक पल्य होय, तौ इतने इहां समय भए, तिनके केते पल्य होय ? असें त्रैराशिक कीए, दश कोडाकोडि पल्यनि का प्रमाण हो है । तातें दश कोडाकोडि पल्यनि के समूह का नाम सागर कहा है । बहुरि अदा पल्य का अर्धच्छेद राशि का विरलन करि एक-एक करि बखेरि एक-एक रूप प्रति श्रद्धा पल्य की देइ परस्पर गुणन कीए सुभ्यंगुल उपज है । एक प्रमाणांगुल का प्रमाण लंबा; एक प्रदेश प्रमाण चौंडा ऊंचा क्षेत्र का इतने प्रदेश जानने । जैसे पल्य का प्रमाण सोलह, ताके अर्धच्छेद च्यारि, तिनिका विरलन करि।१।१।१।१। एक-एक प्रति-प्रति पल्य सोलह को देइ, १६ । १६ । १६ । १६ ।
परस्पर गुरणे पणट्ठी प्रमाण (६५५३६) होइ, तैसें इहां जानना । बहुरि सूच्यंगुल का जो वर्ग सो प्रतरांगुल है । एक अंगुल चौडा, एक अंगुल लम्बा, एक प्रदेश ऊंचा क्षेत्र का इतना प्रदेशनि का प्रमाण है । जैसे पट्ठी की पगट्ठी करि गुगएँ बादाल होइ, तैसें इहां सूच्यंगुल कौं सूच्यंगुल करि गुणे प्रतरांगुल हो है । बहुरि सूच्यंगुल' का धन, सो धनांगुल है । एक अंगुल चौडा, एक अंगुल लम्बा, एक अंगुल ऊंचा क्षेत्र का इतना प्रदेशनि का प्रमाण है । जैसे बादाल को पगट्ठी करि गुण पणट्ठी का धन होई, तैसें प्रतरांगुल को सूच्यंगुल करि गुणें घनांगुल हो है । बहुरि अद्धापल्य के जेते अर्धच्छेद, तिनिका असंख्यातवां भाम का जो प्रमाण, ताकौं बिरलनि करि एकएक प्रति धनांगुल देय परस्पर गुरणे जगत्त्रेणी उपज है। क्षेत्रखंडन विधान करि होनाधिक कौं समान कीये, लोक का लम्बा श्रेणीबद्ध प्रदेशनि का प्रमाण इतना है । जाते जगत्त्रेणी का सातवां भाग राजू है । सात राजू का घनप्रमाण लोक है । जैसे पल्य का अर्धच्छेद च्यारि, ताका असंख्यातवा भाग दोय, सो दोय जायगा पणट्टी गुणा बादाल की मांडि परस्पर गुण विवक्षित प्रभाग होइ, तैसे इहां भी जगत्त्रेणी का प्रमाण जानना । बहुरि जगत्श्रेणी का वर्ग, सो जगत्प्रतर है। क्षेत्रखंडन विधान करि हीनाधिक समान कीए लम्बा-चौड़ा लोक के प्रदेशनि का इतना प्रमाण है ।
भावार्थ यह - यह जगतश्रेणी कौं जगत्श्रेणी करि गुणों प्रतर हो है । बहुरि जगत्श्रेणी का घन सो लोक है। लम्बा, चौड़ा, ऊंचा, सर्व लोक के प्रदेशनि का प्रमाण इतना है।
भावार्थ यहु - जगत्प्रतर कौं जगत्श्रेणी करि मुणे लोक का प्रमाण हो है।
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[ गोम्मटसार जीवकाठ गाथा ११७ अब इनके अर्थच्छेद पर वर्गशला कनि का प्रमाण कहिए है - तहां प्रथम श्रद्धा पत्य के अर्घच्छेद द्विरूप वर्गधारा विर्षे अद्धा पल्य के स्थान ते पहिले असंख्यात वर्ग स्थान नीचें उतरि जो राशि भया, तीहि प्रमाण हैं । बहुरि अद्धा पल्यं की वर्गशलाका तिसही द्विरूप वर्गधारा विष तिस पल्य हो के अर्धच्छेद स्थान से पहले असंख्यात वर्गस्थान नीचे उतरि उपजी है । बहुरि सागरोपम के अर्धच्छेद सर्वधारा विर्षे पाइए हैं, ते पल्य के अर्धच्छेदनि विर्षे गुणकार जो दश कोडाकोडि, ताके संख्यात अर्धच्छेद जोडै जो प्रमाण होइ, तितने हैं । बहुरि ताकी वर्गशलाका इहां पल्य राशि ते गुणकार संख्यात ही का है, तातें न बने है । बहुरि सूच्यंगुल है सो द्विरूप वर्मधारा विर्षे प्राप्त है, सो यहु राशि विरलन देय का अनुक्रम करि उपज्या है, तात याके अर्धच्छेद अर वर्गशलाका सर्वधारा आदि यस संगा धागानि निशान हैं. विरूप नर्गधारा श्रादि तीन धारानि विर्षे प्राप्त नाहीं हैं। तहां बिरलन राशि पल्य के अर्धच्छेद, इनिकौं देय राशि पल्य, ताके अर्धच्छेदनि करि गुणे, जो प्रमाण होइ, तितने तौं सूच्यंगुल के अर्धच्छेद हैं। बहुरि द्विरूप वर्गधारा विर्षे पल्यरूप स्थान से ऊपरि सूच्यंगुल का विरलन राशि जो पल्य के अर्धच्छेद, ताके जेते अर्धच्छेद हैं तितने वर्गस्थान जाइ सूच्यंगुल स्थान उपजै हैं । तातै पल्य की वर्गशलाका का प्रमाण से सूच्यंगुल की वर्गशलाका का प्रमाण दूरणा है । तातें पल्य पर्यन्त एक बार पल्य की वर्गशलाका प्रमाण स्थान भए पीछे पत्य के अर्धच्छेदनि के अर्धच्छेदनि का जो प्रमाण होय, सोई पल्य की वर्गशलाका का प्रमाण, सो पल्य से अपरि दूसरी बार पल्य की वर्गशलाका प्रमाण स्थान भए सूच्यंगुल हो हैं । तातें दूरणी पल्य की वर्गशलाका प्रमाण सूच्यंगुल की दर्गशलाका कही । अथवा विरलन राशि पन्य का अर्धच्छेद, तिनिके जैते अर्धच्छेद, तिनिविष देय राशि पल्य, ताका अर्धच्छेदनि के अर्धच्छेदनि कौं जोड, सून्यंगुल की वर्गशलाका हो है । सो पल्य के अर्धच्छेदनि का अर्धच्छेद प्रमाण पल्य की वर्गशलाका है । सो इहां भी दूरगी भई, सो या प्रकार भी पल्य की वर्गशलाका ते दूणी सूच्यगुल की वर्गशलाका है । बहुरि प्रतरांगुल है, सो द्विरूप वर्गधारा विर्षे प्राप्त है। ताकी वर्गशलाका अर्थच्छेद यथा योग्य धारानि विर्षे प्राप्त जानने । तहां 'वग्गाधुरिमागे दुगुरणा-दुगुणा हयति अछिवा' इस सूत्र करि वर्ग ते ऊपरला वर्ग स्थान विर्षे दूणा-दूरणा अर्धच्छेद कहे, तातें इहां सूच्यंगुल के अर्धच्छेदनि तें दूणे प्रतरांगुल के अर्घच्छेद जानने । अथवा गुण्य पर गुणकार का अर्धच्छेद मो. राशि का अर्धच्छेद होइ, तातें इहां सूच्यंगुल गुण्य की सूच्यंगुल का गुणकार है, तातै दोय सूच्यंगुल
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सभ्य ज्ञानचम्किा भाषाटीका ]
के अर्घच्छेद मिलाए भी सूच्यंगुल के अधेच्छेदनि तें दूणे प्रतरांगुल के अर्धच्छेद हो हैं। बहुरि 'दरमसला यहिया' इस सूत्र करि वर्गशलाका ऊपरला स्थान विर्ष एक अधिक होइ, ताते इहां सूच्यंगुल के अनंतर प्रतरांगुल का वर्गस्थान है, तातं सूच्यंगुल की वर्गशलाका ते एक अधिक प्रतरांगुल की वर्गशलाका है । बहुरि घनांगुल है, सो द्विरूप घनधारा विष प्राप्त है, सो यह अन्य धारा विर्षे उत्पन्न है, सो 'तिगुणा तिगुणा परदुरणे' इस सूत्र करि अन्य धारा का ऊपरला स्थान विर्षे तिगुणा-तिगुणा अर्धच्छेद होहि. तातै सूच्यंगुल के अर्धच्छेदनि तें तिगुणे धनांगुल के अर्धच्छेद हैं । अथवा तीन जायगा सूच्यंगुल मांडि परस्पर गुरणे, धनांगुल हो है । ताते गुण्य-गुणकार रूप तीन सूच्यंगुल, तिनका अर्धच्छेद जोडे भी धनांगुल के अर्धच्छेद तितने ही हो हैं । बहुरि 'परसम' इस सूत्र करि अन्य धारा विर्षे वर्गालाका समान हो है । सो इहां द्विरूप वर्गधारा विर्षे जेधवा स्थान विर्षे सूच्यंगुल है, तेथवा ही स्थान विर्षे द्विरूप घनधारा विर्षे धनांमुल है । ताते जेती सूच्यंगुल को वर्गशलाका, तितनी ही घनांगुल की वर्गशलाका जानना । बहुरि जगतश्रेणी है, सो द्विरूप घनधारा विर्षे प्राप्त है; सो याके अर्धच्छेद वर्गशलाका अन्य धारा विष उपज हैं । तहां 'विरलज्जमारणरासि दिण्णस्सद्धछिदोहि संगुरिगदे लद्धछेदा होति' इस सूत्र करि विरलनरूप राशि कौं देय राशि का अर्धच्छेदनि करि गुणं लब्ध राशि के अर्धच्छेद होहि । तात इहां विरलन राशि पल्य का अर्धच्छेदनि का असंख्यातवां भाग, ताको देय राशि धनांगुल, ताके अर्धच्छेदनि करि गुण जो प्रमाण होइ. तितने जगत् श्रेणी के अर्धच्छेद हैं । बहुरि दूरणा जघन्य परीतासंख्यात का भाग अद्धा पल्य की वर्गशलाका कौं दीए जो प्रमाण होइ, तितना विरलन राशि का अर्धच्छेद है । शाकौं देय राशि धनांगुल की वर्गशलाका विषं जो. जो प्रमाण होइ, तितनी जगत्त्रेणी की वर्गशलाका है। अथवा जगत्त्रेणी विर्षे देय राशि धनांगुल, तीहिरूप द्विरूप घनधारा का स्थान से ऊपरि बिरलन राशि पल्य का अधच्छेदनि का असंख्यातवां भाग, ताके जेते अर्धच्छेद होइ, तितने वर्गस्थान जाइ जगत्श्रेणीरूप स्थान उपजै है । तातें भी जगत्श्रेणी की वर्गशलाका पूर्वोक्त प्रमाण जाननी ।
सो जगत्श्रेणी विषै विरलन राशि का प्रमाण कितना है ?
सो कहिए है, श्रद्धा पल्य का जो अर्धच्छेद राशि ताका प्रथम वर्गमूल, द्वितीय वर्गमूल इत्यादि कम से दूणा जघन्य परीतासंख्यात के जेते अर्धच्छेद होहि, तिलने
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| गोम्मटसार जीवका शापा ११७ वर्गभूल करने, सो द्विरूप वर्गवारा के स्थाननि विर्षे पल्य का अर्थच्छेदरूप स्थान से नी, तितने स्थान आइ अंत विर्षे जो वर्गभूलरूप स्थान होइ, ताके अर्धच्छेद दूणा जघन्य परीतासंख्यात का भाग पल्य की वर्गशलाका को दीये जो प्रमाण होइ, तितने होइ । बहुरि 'तम्मित्तदुगे गुणेरासो' इस सूत्र करि अर्घच्छेदनि का जेता प्रमाण, तितने दुवे मांडि परस्पर गुणें राशि होइ, सो इहां पल्य की वर्गशलाका का प्रमारण भाज्य है, : सो तितने दुवे मांडि परस्पर गुण तो पल्य का अर्धच्छेद राशि होय; अर दूणा जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण भागहार है, सो तितने दुवे मांडि परस्पर गुरणे वथासंभव असंख्यात होइ । असें तिस अंत के मूल का प्रमाण पल्य के अर्धच्छेदनि के असंख्यातवें भाग प्रमाण जानना, सोई इहां जगत्श्रेणी विर्षे विरलन राशि है । बहुरि जगत्प्रतर है, सो द्विरूप धनधारा विष प्राप्त है, सो याके अर्धच्छेद वर्गशलाका अन्य धारानि विष प्राप्त जानने । तहां जगत्त्रेणी के अर्धच्छेदनि ते दुणे जगत्प्रतर के अर्धच्छेद हैं। 'वासला रूवाहिया' इस सूत्र करि जगत्श्रेणी की. वर्गशलाका ते एक अधिक जगत् प्रतर की वर्गशलाका है । बहुरि घनरूप लोक, सो द्विरूप धनाधन वारा विर्षे उपज है । तही 'तिगुणा तिगुणा परट्टाणे' इस सूत्र करि द्विरूप धनधारा विर्षे प्राप्त जो जगत्श्रेणी, ताके अर्धच्छेदनि से लोक के अर्धच्छेद तिगुरणे जानने । अथवा तीन जायगा जगत्त्रेणी मांडि परस्पर गुण लोक होइ, सो गुण्य-गुणकार तीन जगत्प्रेणी के अर्धच्छेद जोडे भी तितने ही लोक के अधच्छेद हो हैं । बहुरि 'परसम' इस सूत्र करि जगत् श्रेणी की वर्गशलाका मात्र ही लोक की वर्गशलाका है । इहां प्रयोजनरूप गाथा सूत्र कहिये है । उक्त च -
गुरुयारद्धच्छेदा, गुरिणज्जमाणस्स अद्धच्छेदजुदा ।
लद्धस्सद्धच्छेदा, अहियस्सच्छेदरमा एथि ॥ . याका अर्थ --- गुणकार के अर्घच्छेद गुण्यराशि के अर्धच्छेद सहित जोडें लब्धराशि के अच्छेद होहिं । जैसे गुणकार पाठ, लाके अधच्छेद तीन अर गुण्य सोलह, ताके अर्धच्छेद च्यारि, इनिकी जोडें लब्धराशि एक सौ अठ्ठाईस के अर्धच्छेद सात हो हैं । जैसे ही गुणकार दश कोडाकोडि के संख्यात अर्धच्छेद गुण्यराशि पल्य, ताके अर्धच्छेदनि में जोड़ें, लब्धराशि सामर के अर्धच्छेद हो हैं । बहुरि अधिक के छेद नाहीं हैं, काहेत सो कहिये है, अर्धच्छेदनि के अर्धच्छेद प्रमाण वर्गशलाका होइ, सो इहां पल्य के अर्धच्छेदनि त संख्यात अर्धच्छेद सागर के अधिक कहे । सो इनि अधिक अर्धच्छेदनि के
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संम्यज्ञामचन्तिका भावाटीका
[२६५
अर्धच्छेद होइ, परन्तु वर्गशलाकारूप प्रयोजन की सिद्धि नाही, तात अधिक के अर्धच्छेद नाही करने अंसा कह्या, याही ते सागर की वर्गशलाका का अभाव है। उक्तं च -
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भज्जस्सद्धछेदा, हारद्धछेदणाहि परिहीणा ।
अद्धच्छेदसलागा, लद्धस्स हवंति सम्वत्थ ।। अर्थ - भाज्यराशि के अर्धच्छेद भागहार के अर्धच्छेदनि करि हीन करिए, तब लब्धराशि की अर्धच्छेद शलाका सर्वत्र ही हैं। जैसे एक सौ अट्ठाईस के भाज्य के अर्धच्छेद सात, इचमें भागहार पाठ के तीन अर्धच्छेद घटाए लब्धराशि सोलह के च्यारि अर्धच्छेद हो हैं, असें ही अन्यत्र जानना ।
विरलज्जमाणरांसि, दिण्णस्सद्धच्छिदीहि संगुणिदे ।
अद्धच्छेदा होति हु, सध्वत्थुपण्णरासिस्स ।। अर्थ - विरलन राशि को देय राशि के अर्धच्छेदनि करि गुरणे उत्पन्न राशि के अर्धच्छेद सर्वत्र हो हैं। जैसे विरलन राशि च्यारि, ताकौ देय राशि सोलह के अर्धच्छेद च्यारि करि (गणे) उत्पन्न राशि परगट्टी के सोलह अर्धच्छेद हो हैं । असे यहां भी पल्य अर्धच्छेद प्रमाण विरलन राशि कौं देय राशि फ्ल्य, ताके अर्धच्छेदनि करि गुणें उत्पन्न राशि सूच्यंगुल के अर्धच्छेद हो है । जैसे ही अन्यत्र जानना ।
विरलिदराशिच्छेदा, विष्णद्धच्छेदच्छेदसंमिलिदा ।
बग्गसलागपमाणं, होंति समुप्पण्रमरासिस्स ॥ अर्थ - विरलन राशि के अर्धच्छेद देय राशि के अर्धच्छेदनि के अर्धच्छेदनि करि साहित जोडें उत्पन्न राशि की वर्गशलाका का प्रमाण हो है । जैसे विरलन राशि च्यारि के अर्धच्छेद दोय अर देय राशि सोलह के अधच्छेद च्यारि, तिनिके अर्धच्छेद दोय, इनको मिलाए उत्पन्न राशि परगट्टी की वर्गशलाका च्यारि हो हैं । असे ही विरलन राशि पल्य के अधच्छेद, तिनिके अर्धच्छेद तिनिविर्षे देय राशि पल्य, ताके अर्धच्छेदनि के अर्धच्छेद जो. उत्पन्न राशि सूच्यंगुल के वर्गशलाका का प्रमाण, हो हैं। असे ही अन्यत्र जानना ।
दुपुरणपरित्तासंखेणयहरिदद्वारपल्लवम्गसला । विदंगुलबग्गसला, सहिया सेविस्स वगसला ॥
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३६६ ]
| गोम्मटसार काण्ड गाथा ११७
अर्थ - दूणा जघन्य परीतासंख्यात का भाग श्रद्धापत्य की वर्गशलाका कौं दीए जो प्रमाण होइ, तहि करि संयुक्त घनांगुल की वर्गशलाका का जो प्रमाण, तितनी जगत्श्रेणी की वर्गशलाका हो है ।
विरलिवरासीदो पुष, जेत्तियमेत्सारिण अहियवाणि । तेसि प्रणोष्णहृदी, गुणवारो लहरासिस्स ॥
अर्थ - विरलन राशि हैं जेते अधिक रूप होंइ, तिनिका परस्पर गुणन कीए RE राशि का गुणकार होइ । जैसें च्यारि अर्धच्छेदरूप विरलन राशि पर तीन अर्धच्छेद अधिक राशि तहां विरलन राशि के अच्छे प्रमाण दुवा मांड परस्पर गु २x२x२x२ सोलह १६ लब्ध राशि होइ । पर अधिक राशि तीन अर्धच्छेद प्रमाण दुवा मांड २x२२ परस्पर गुण आठ गुणकार होय, सो लब्धि राशि कौं गुणकार करि गु सात अर्धच्छेद जाका पाइए, भैंसा एक सौ अट्ठाईस होइ । यैसे ही पल्य के अर्धच्छेद विरलन राशि, सो इतने दूवा मांड परस्पर गुण लब्ध राशि पल्य होइ र अधिक राशि संख्यात असो इतने परस्पर कुनै दश कोडाकोड गुणकार हो । सो पत्य कौं दश कोडाकोडि करि गुणें सागर का प्रमाण हो है । जैसे ही श्रन्यत्र जानना ।
विरलदरासीदो पुण, जेत्तियमेत्तारित होणस्वाणि । तेसि णोष्णहृदी, हारो उप्पण्परासिer ||
अर्थ - विरलन राशि तें जेसे हीनरूप होंइ, तिनिका परस्पर गुणन कीए उत्पन्न राशि का भारहार होइ । जैसे विरलन राशि अर्धच्छेद सात पर हीनरूप अर्धच्छेद तीन तहां विरलन राशिमात्र दुवा मांडि २४२ x २x२x२२x२ पर-स्वर गुण एक सौ श्रट्ठाईस उत्पन्न राशि होइ । बहुरि हीनरूप प्रमाण दुवा मांडि २x२२ परस्पर गुण पाठ भागहार राशि होइ, सो उत्पन्न राशि को भागहाररूप राशि का भाग दीए च्यारि अर्धच्छेद जाका पाइए अँसा सोलह हो हैं, जैसे ही अन्यत्र जानना | से मान वन कीया ।
सो असे मान भेदनि करि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का परिमाण कीजिए है; सो जहां द्रव्य का परिमाण होइ, तहां तितने पदार्थ जुदे-जुदे जानने ।
बहुरि जहां क्षेत्र का परिमाण होय, तहां तितने प्रदेश जानने ।
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संयमानचन्द्रिका मावाटीका ]
[२६७
जहां काल का परिमाण होइ, तहां तितने समय जानने । जहां भाव का परिमाण होइ, तहां तितने अविभाग प्रतिच्छेद जानने ।
इहां दृष्टांत कहिए है - जैसें हजार मनुष्य हैं, जैसा कहिए तहां वे हजार जुदे-जुदे जानने, तैसे द्रव्य परिमारण विर्षे जुदे-जुदे पदार्थ जानने ।
बहुरि से यह वस्त्र वीस हाथ है, तहां उस वस्त्र विर्षे वीस अंश जुदे-जुदे नाहीं, परन्तु एक हाथ जितना क्षेत्र रोके, ताकी कल्पना करि वीस हाथ कहिए हैं । तैसे क्षेत्र परिमाण विर्षे जितना क्षेत्र परमाणु रोके, ताकौं प्रदेश कहिए, ताकी कल्पना करि क्षेत्र का परिमारण कहिए हैं।
बहुरि जैसे एक वर्ष के तीन से छयासठि दिन-रात्रि कहिए, तहां अखंडित काल प्रवाह विष अंश है नाहीं, परन्तु सूर्य के उदय-अस्त होने की अपेक्षा कल्पना करि कहिए हैं । तसै काल परिमाण विर्षे जितने काल करि परमाणु मंद गति करि एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश कौं जाइ, तीहि काल को समय कहिए । तीहि अपेक्षा कल्पना करि काल का परिमारण कहिए हैं।
बहुरि जैसे यह सोला वानी का सोना है, तहां उस सोना विर्षे सोला अंश है नाही, तथापि एक बान के सोना विर्षे जैसे वरणादिक पाइए है; तिनकी अपेक्षा कल्पना करि कहिए हैं । तैसे भाव परिणाम विष केवलज्ञानगम्य अति सूक्ष्म जाका दूसरा भाग न होइ, असा कोई शक्ति का अंश ताकी अविभाग प्रतिच्छेद कहिए, ताकी कल्पना करि भाव का परिमारण कहिए । मुख्य परिमाण तो असे जानना, विशेष जैसा विवक्षित होइ, सो जानना ।
बहुरि जहां क्षेत्र परिमाण विष प्रावली का परिमाण कहिए, तहां प्रावली के जेते समय होइ, तितने तहां प्रदेश जानने ।
बहुरि काल परिमाण वि जहां लोक परिमाण कहे, तहां लोक के जितने प्रदेश होइ, तितने समय जानने; इत्यादि असे जानने । बहुरि जहां संख्यात, असंख्यात अनंत सामान्यपनें कहे, तहां तिनिका भेद यथायोग्य जानना ।
सर्वभेद कहने में न आवै, ज्ञानगम्य है, तातें कौन रीति सौं कहिए ?
परन्तु जैसे लोक विर्षे कहिए याके लाखों रुपैया छ, तहां असा जानिए, कोड्यो नाही, हजारों नाही, तैसें होनाधिक भाव करि स्थूलपणे परिमाण जानना,
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२६६ ]
गोम्मटसार जीवा गाथा ११८-१९२
सूक्ष्मपर्णं परिमाण ज्ञानगम्य है । या प्रकार इस ग्रन्थ विषै जहां-तहां मान का प्रयोजन जानि मान वर्णन कीया है ।
अब पर्याप्त प्ररूपणा का प्रारम्भ करता संता प्रथम ही दृष्टांतपूर्वक जीवनि के तिनि पर्याप्त करि पूर्णता अपूर्णता दिखावे है -
जह पुण्णापुण्णाई, घिडवत्यादियाई दव्वाई' |
तह पुण्णिवरा जीवा, पज्ञ्जत्तिदरा मुणेयव्वा ॥११८॥
टीका - जैसे लोक विषै गृह, घट, वस्त्र इत्यादिक पदार्थ व्यंजन पर्यायरूप, ते पूर्ण र अपूर्ण दीसँ हैं; जे अपने कार्यरूप शक्ति करि सम्पूर्ण भए, तिनिकों पूर्ण कहिए | बहुरि जिनका प्रारंभ भया किछू भए किछू न भये ते अपने कार्यरूप शक्ति करि संपूर्ण न भए, तिनिकों अपूर्ण कहिए ।
यथा पूर्णापूर्णानि गृहघटनाविकानि प्रयाणि । तथा पूर्णेतरा जीवाः पर्याप्ततरा मंतव्याः ॥११८॥
तैसे पर्याप्त, अपर्याप्त नामा नामकर्म की प्रकृति के उदय करि संयुक्त जीव भी अपनी-अपनी पर्याप्तिनि करि पूर्ण श्रर अपूर्ण हो हैं । जो सर्व पर्याप्तिनि की शक्ति कर संपूर्ण होइ, सो पूर्ण कहिए। बहुरि जो सर्व पर्याप्तिनि की शक्ति करि पूर्ण न होइ सो अपूर्ण कहिये ।
मैं ते पर्याप्त कौन ? अर कौंनके केती पाइए ? सो विशेष कहैं हैं आहार- सरीरिदिय, पज्जती आलपारण भास-मगो । चत्तारि पंचर छपि य, एइंन्दिय - वियल - सण्णीणं ॥ ११६ ॥
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श्राहारशरीरेंद्रियाणि पर्याप्तः यानप्राणभाषामनांसि | ara: पंच पि च, एकेंद्रिय - विकल-संज्ञिनां ॥ ११९ ॥
१. पट्खण्डागम - धवला, पुस्तक-१, पृष्ठ ३१६, सूत्र नं ७४,७५
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३१५ सूत्र नं. ७२,७३
३१३, ३१४ सूत्र नं. ७०,७१
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४. द्रव्यसंग्रह गाथा नं. १.२ की संस्कृत टीका में भी यह उद्धृत है ।
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सम्याशानसन्द्रिका भाषाढीका ]
[ २५६ टोका - १. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति ३. इंद्रिय पर्याप्ति, ४. प्रानपान कहिए श्वासोश्वास पर्याप्ति, ५. भाषा पर्याप्ति, ६. मनः पर्याप्ति असें छह पर्याप्ति हैं। इनिविर्षे एकेद्रिय के तौ भाषा पर मन विना पहिली च्यारि पर्याप्ति पाइये हैं । बेंद्री, तेंद्री, चौइंद्री, असैनी पंचेंद्री इनि विकल चतुष्क के मन विना पांच पर्याप्ति पाइए हैं। सैनी पंचेंद्रिय के छहों पर्याप्ति पाइए हैं ।
तहां औदारिक, वैक्नियिक, आहारक इनिविर्षे किस ही शरीररूप नाम कर्म की प्रकृति का उदय होने का प्रथम समय सौं लगाइ करि जो तीन शरीर वा छह पर्याप्तिरूप पर्याय परिणमने योग्य जे पुद्गलस्कंध, तिनिकौं खल-रस भागरूप परिरणमायने की पर्याप्ति नामा नामकर्म के उदय ते भई जैसी जो आत्मा के शक्ति निपजे, जैसे तिल कौं पेलि करि खलि अर तेलरूप परिणमा है, तैसें केई पुद्गल नै तो खलरूप परिणमावै, केई पुद्गल नै रसरूप परिणमावै हैं - असी शक्ति होने कौं आहार पर्याप्ति कहिए।
बहुरि खल-रस भागरूप परिणए पुद्गल, तिनिविर्षे जिनकौं खलरूप परिएमाए थे, तिनिकौं तौ हाड-चर्म इत्यादि स्थिर अवयवरूप परिणमा पर जिनिकौं रसरूप परिणमाए थे, तिनिकों रुधिर-शुक्र इत्यादिक द्रव अवयवरूप परिणमा - जैसी जो शक्ति होइ, ताकौं शरीर पर्याप्ति कहिए हैं।
बहुरि इंद्रियरूप मति, श्रुतज्ञान अर चक्षु, अचक्षु दर्शन का आवरण अर वीर्यातराय, इनिकै क्षयोपशम करि निपजी जो प्रात्मा के यथायोग्य द्रव्येंद्रिय का स्थानरूप प्रदेशनि ते वर्णादिक ग्रहणरूप उपयोग की शक्ति जाति नामा नामकर्म के उदय से निपज, सो इंद्रिय पर्याप्ति कहिए हैं ।
बहुरि तेवीस जाति का वर्गरणानि विर्षे आहार वर्गणारूप पुद्गल स्कंधनि को श्वासोश्वासरूप परिणमावने की शक्ति, श्वासोश्वास नामकर्म के उदय ते निपजे, सो श्वासोश्वास पर्याप्ति कहिए।
बहुरि स्वर नामा नाम कर्म के उदय लैं भाषा वर्गणारूप पुद्गल स्कंधान कौं सत्य, असत्य, उभय, अनुभय भाषारूप परिणमावने की शक्ति होइ, सो भाषा पर्याप्ति कहिए ।
बहुरि मनोवर्गणारूप जे पुद्गल स्कंध, तिनिकौं अंगोपांग नामा नामकर्म का बल तै द्रव्यमनरूप परिणमावने की शक्ति होय, तीहि द्रव्यमन का प्राधार ते मन
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NERALA Syारत
२७० ।
[गोस्मरसार जीयका माथा १२० का आवरण पर वीर्यान्तराय के क्षायोपशम विशेष करि गुण-दोष का विचार, अतीत का याद करना, अनागत विष याद रखना, इत्यादिकरूप भावमन के परिणमावने की शक्ति होइ, ताकौं मनःपर्याप्ति कहिए हैं । जैसे छह पर्याप्ति जानना ।
पज्जत्तीपद्ववरणं, जुगवं तु कभेरण होदि गिट्ठवरणं । अन्तो मुत्तकालेणहियकमा तत्तियालावा ॥१२०॥
पर्याप्तिप्रस्थापन, युगपत्तु क्रमेण भवति निष्ठापनम् ।
प्रांत इतकालेन, अधिकक्रमास्तावदालापात् ॥१२०॥ टीका - जेते-जेते अपने पर्याप्ति होइ, तिनि सबनि का प्रतिष्ठापन कहिए प्रारंभ, सो तो युगपत् शरीर नामा नामकर्म का उदय के पहिले ही समय हो हैं। बहुरि निष्ठापन कहिए तिनिकी संपूर्णता, सो अनुक्रम करि हो है । सो निष्ठापन का काल अंतर्मुहूर्त-प्रतर्मुहुर्त करि अधिक है, तथापि तिनि सबनि का काल सामान्य पालाप करि अंतर्मुहूर्त ही कहिए, जाते अंतर्मुहूर्त के भेद बहुत हैं ।
कैसे निष्ठापन का काल है ?
सो कहै हैं - आहार पर्याप्ति का निष्ठापन का काल सबनि तँ स्तोक है, तथापि अंतर्मुहर्त मात्र है। बहुरि याकौं संख्यात का भाग दीए जो काल का परिमाण प्रावै, सो नी अंतर्मुहुर्त है । सो यहु अंतर्मुहूर्त उस पाहार पर्याप्ति का अंतमुहूर्त में मिलायें जो परिमाग होइ, सो शरीर पर्याप्ति का निष्ठापन काल जानना । सो यह भी अंतर्मुहूर्त ही जानना । बहुरि याहु का संख्यातवां भाग प्रमाण अंतर्मुहर्त याहो में मिलायें इंद्रिय पर्याप्ति का काल होइ, सो भी अंतर्मुहर्त ही है। बहुरि याका संख्यातवां भाग प्रमाण अंतर्मुहूर्त याही में मिलाएं श्वासोश्वास पर्याप्ति काल होइ, सो भी अंतर्मुहूर्त ही है । जैसे एकद्रिय पर्याप्ति के तौं ए च्यारि ही पर्याप्ति इस अनुक्रम करि संपूर्ण होइ हैं । बहुरि श्वासोश्वास पर्याप्ति काल का संख्यातवा भाग का प्रमाण अंतर्मुहूर्त याही में मिलाए भाषा पर्याप्ति का काल होइ, सो भी. अंतर्मुहूर्त ही है। जैसे विकले द्रिय पर्याप्ति जीवनि के ए पांच पर्याप्ति इस अनुक्रम करि संपूर्ण होइ हैं। बहुरि भाषा पर्याप्ति काल का संख्यातवां भाग प्रमाण अंतर्मुहूर्त याही में मिलाएं मनःपर्याप्ति का काल होइ, सो भी अंतर्मुहुर्त ही है । संज्ञी पचेंद्रिय पर्याप्ति के छह पर्याप्ति इस अनुऋम करि पूर्ण हो हैं । असे इनिका निष्ठापन काल कह्या ।
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सभ्यसामपन्निका भाकाटोमा ]
प्रागै पर्याप्ति, निवृत्ति अपर्याप्ति काल का विभाग कहै हैं --- यज्जतस्स य उपये, णियणियपज्जत्तिणिट्ठिदो होदि । जाव शरीरमपुण्णं, रिणवत्तिअपुष्णगो ताव ॥ १२१॥
पर्याप्तस्य च उदये, निमनिजपर्याप्सिनिष्ठितो भवति ।
यावत् शरीरमपूर्ण, निवृत्यपूर्णफस्तावत् ।। १२१ ॥ टीका -- पर्याप्ति नामा नामकर्म के उदय होते अपने-अपने एकेंद्रिय के च्यारि, विकलैंद्रिय के पांच, सैनी पंचेंद्रिय के छह पर्याप्तिनि करि 'निष्ठिताः' कहिए संपूर्ण शक्ति युक्त होंइ, तेई यावत् काल शरीर पर्याप्ति दूसरा, ताकरि पूर्ण न होंइ, तावत् काल एक समय पाटि शरीर पर्याप्ति संबंधी अंतहत पर्यन्त निवृत्ति अपर्याप्ति कहिए । जाते निवृत्ति कहिए शरीर पर्याप्ति की निष्पत्ति, तीहि करि जे अपर्याप्त कहिए संपूर्ण न भए, ते निवृत्ति अपर्याप्त कहिए है ।।
पा, लब्धि अपर्याप्त का स्वरूप कहै हैं -
उदये दु अपुण्णस्स य, सगसगपज्जत्तियं रग गिट्ठवदि। . अन्तोमहत्तमरण, लद्धिअपज्जतगो सो दु ॥ १२२ ॥ उदये लु अपूर्णस्य च, स्वकस्थकपर्याप्तिन निष्ठापयति ।
अन्तर्मुहूर्तमरणं, लब्ध्यपर्याप्तकः स तु ॥ १२२॥ टोका - अपर्याप्ति नामा नामकर्म के उदय होते संतै, अपने-अपने एकेंद्रिय विकलेंद्रिय, सैनी जीव च्यारि, पांच, छह पर्याप्ति, तिनिकों न 'निष्ठापयति' कहिए सम्पूर्या न करें, उसास का अठारहवां भाग प्रमाण अंतर्मुहूर्त ही विषं मरण पावें, ते जीव लब्धि अपर्याप्त कहिए । जाते लब्धि कहिए अपने-अपने पर्याप्तिनि की संपूर्णता की योग्यता, तीहि करि' अपर्याप्त कहिए निष्पन्न न भए, ते लब्धि अपर्याप्त कहिए ।
प्रागें एकेद्रियादिक संजी पर्यन्त लब्धि अपर्याप्तक जीवनि का निरंतर जन्म वा मरण का कालप्रमाण कौं कहै हैं --
तिण्णिसया छ्त्तीसा, छावट्टिसहस्सगाणि मरणाणि । अन्तोमुत्तकाले, तावदिया चैव खुद्दभवा ।। १२३ ॥
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२७२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाम गाथा १२४-१२५ श्रोणि शतानि जत्रिंशत्, घट्पष्टिसहसकानि मरणानि ।
अंतर्मुहूर्तकाले, तावंतश्चेब क्षुबभधाः ॥ १२३ ॥
टीका - क्षुद्रभव कहिए लब्धि अपर्याप्तक जीव, तिनिकों जो बीचि विर्षे पर्याप्तिपनौ विना पाया निरंतरपर्ने उत्कृष्ट होंइ. ती अंतर्मुहूर्त काल विर्षे छथासठि हजार तीन सौ छत्तीस (६६३३६) मरण होइ; बहुरि इतने ही भव कहिए जन्म होइ।
आगे से जन्म-मरण एकेंद्रियादि जीवनि के केते-केते संभवें अर तिनिके काल का प्रमाण कहा ? सो विशेष कहिए हैं -
सीदी सट्ठी तालं, वियले चउवीस होति पंचक्खे । छावठिं च सहस्सा, सयं च बत्तीसमेयक्खे ॥१२४॥
अशीतिः षष्टिः चत्वारिंशत, विकले चतुविशतिभवंति पंचाक्षे ।
षष्टिश्च सहसारिण, शतं च द्वात्रिशमेकाक्षे ॥ १२४ ।।
टीका - पूर्व कहे थे लब्धि अपर्याप्तकानि के निरंतर क्षुद्रभव, तिनिविर्षे एकेंद्रियनि के छयासठि हजार एक सौ बत्तीस निरंतर क्षुद्रभव हो हैं; सो कहिए हैं - कोऊ एकेंद्रिय लब्धि अपर्याप्तक जीद, सो तिस क्षुद्रभव का प्रथम समय तें लगाइ सांस के अठारहवें भाग अपनी आयु प्रमाण जीय करि मरे, बहुरि एकेंद्रिय भया तहां तितनी ही आयु कौं भोगि, मरि करि बहुरि एकेंद्रिय होइ । असे निरंतर लब्धि अप
प्ति करि क्षुद्रभव एकेंद्रिय के उत्कृष्ट होइ तौ छ्यासठि हजार एक सौ बत्तीस होइ, अधिक न होइ । असे ही लब्धि अपर्याप्तक दे इंद्रिय के असी (८०) होइ। तेइंद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के साठि (६०) होइ । चौहंद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के चालीस (४०) होइ । पंचेंद्रिय लब्धि अपर्याप्त के चौबीस होई, तीहिविर्षे भी मनुष्य के पाठ (८) असैनी तिर्यंच के पाठ, (८) सैनी तिर्यंच के पाठ (८) असे पंचेंद्रिय के चौबीस (२४) होइ । अंसें लब्धि अपर्याप्तकनि का निरंतर क्षुद्रभवनि' का परिमारण कह्या ।
अब एकेंद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के निरन्तर क्षुद्रभव कहे, तिनकी संख्या - स्वामीनि की अपेक्षा कहै हैं -
पुढविदगागणिमारुद, साहारणथूलसुहमपत्तेया। एदेसु अपुण्णेसु य, एक्कक्के बार खं छक्कं ॥ १२५ ।।
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सम्माज्ञानचन्त्रिका भाषाका
१८
पृथ्वीदकाग्निमारुतसाधारणस्थूलसूक्ष्मप्रत्येकाः ।
एतेषु अपूर्णेषु च एककस्मिन् द्वादश खं षट्कम् ॥ १२५ ।।
टीका - पृथ्वी, आप, तेज, वायु, साधारण वनस्पति इनि - पांचों के सूक्ष्मबादर करि दश भेद भये पर एक प्रत्येक वनस्पती - इनि म्यारह लब्धि अपर्याप्तकनि विर्षे एक-एक भेद विर्षे बारह, बिदी, छह इनि अंकनिकरि छह हजार बारह (६०.१.२.) निरंतर क्षुद्रभव जानने । पूर्व निरंतर क्षुद्रभव एकद्रिय के छयासठ हजार एक सौ बत्तीस कहे । तिनिकौं ग्यारह का भाग दीए एक-एक के छह हजार बारह क्षुद्र भवनि का प्रमाण प्राव है। असे लब्धि अपर्याप्त के निरंतर क्षुद्रभव कहे, तहाँ तिनको संख्या वा काल का निर्णय करने की च्यारि प्रकार अपवर्तन राशिक करि दिखाव हैं । सो त्रैराशिक का स्वरूप ग्रंथ का पीठबंध विर्षे कहा था, सो जानना । सो यहां दिखाइये है - जो एक क्षुद्रभव का काल सांस का अठारहवां भाग होइ, तो छयासठि हजार तीन सौ छत्तीस निरंतर क्षुद्रभवनि का कितना काल होइ ? तहां प्रमाण राशि १, फलराशि पका का अठारह भाग : पर दहा रणि घासाठ हजार तीन सै छत्तीस (६६३३६), तहां फल कौं इच्छा करि गुरणे प्रमाण का भाग दिए लब्ध राशि विर्षे छत्तीस सै पिच्यासी अर एक का त्रिभाग ३६८५१. इतना उस्वास भए; असें सब क्षुद्रभवनि का काल का परिमारण भया। यहां इतने प्रमाण अंतर्मुहूर्त जानना । जाते असा वचन है, उक्तम् च
प्रावधानलसानुपहतमनुजोच्छवासस्त्रिसप्तसप्तत्रिप्रसितैः ।
पाहुमुहूर्तमंतर्मुहूर्तमष्टाव्यजितस्त्रिभागयुतः ।। याका अर्थ -- सुखी, धनवान, पालस रहित, निरोगी मनुष्य का सैंतीस से तेहत्तरि (३७७३) उस्वासनि का एक मुहूर्त; तहां अठासी उस्वास पर एक उस्वास का तीसरा भाग (होन) घटाए सर्व क्षुद्रभवनि का काल अंतर्मुहूर्त होइ । बहुरि उक्तम् च--
प्रायुरंतर्मुहुर्तः स्यादेखोस्याष्टादशांशकः ।
उच्छवासस्य जघन्यं च नृतिरश्चां लब्ध्यपूर्णके ।। याका अर्थ - लब्धि अपर्याप्तक मनुष्य लियंचनि का आयु :एक उस्वासका अठारहवां भाम प्रमाण अंतर्मुहूर्त मात्र है । सो असे कह्या सांस का अठारहवां भाग
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कामगिरी
१७४ ।
[ पोपटलार जीवकापड गाथा १२६ काल का एक क्षुद्रभव होइ, तो छत्तीस सौ पिच्यासी अर एक का विभाग प्रमाण उसासनि का कितना क्षुद्रभव होइ? इहां प्रमाण राशि फलराशि १, इच्छाराशि ३६८५.१
१९
६.
सपा
यथोक्त करते लब्ध राशि छयासठि हजार तीन सौ छत्तीस ( ६६३३६) क्षुद्रभवनि का परिमारण पाया । बहुरि जो छयासठि हजार तीन सौ छत्तीस क्षुद्रभवनि का कालं छत्तीस सौ पिच्यासी अर एक का त्रिभाग इतना उस्वास होइ, तो एक क्षुद्रभवनि . का कितना काल होइ? इहां प्रमाण राशि ६६३३६, फल राशि ३६८५ १, इचछा राशि १, यथोक्त करता लब्ध राशि एक सांस का अठारहवां भाग १ एक क्षुद्रभव का. काल भया १. बहुरि छत्तीस सौ पिच्यासी पर एक का त्रिभाग ३६८५ १ इतना सांस का छयासठि हजार सीन सौ छत्तीस क्षुद्रभव होइ, तो सांस का अठारहवां भाग का कितना क्षुद्रभव होइ ? इहां प्रमाण राशि ६३८५१ ,फल राशि६६३३६, इच्छा राशि एक का अठारहवां भाग १ , यथोक्त करता लब्ध राशि १ क्षुद्रभव हुआ । इहाँ सर्व फल राशि कौं इच्छा राशि करि गुणना, प्रमाण राशि का भाग देना, तब लब्ध राशि प्रमाण हो है । जैसे एक क्षुद्रभव का काल समस्त क्षुद्रभव, समस्त क्षुद्रभव का काल इनिकों क्रम ते प्रमाण राशि करने ते च्यारि प्रकार राशिक किया है । और भी जायगा जहां राशिक का वर्णन होइ, तहां असें ही यथासंभव जानना ।
आमें समुद्घातकेवली के अपर्याप्तपन का संभव कहै हैं -
पज्जतसरीरस्स य, पज्जतुदयस्स कायजोगस्स । जोगिस्स अपुण्णत्तं, अपुण्णजोगोत्ति रिणहिट्ठ ॥१२६॥ पर्याप्तशरोरस्य च, पर्याप्त्युदयस्य काययोपस्य ।
योगिनोऽपूर्णत्वमपूर्णयोगः इति निर्दिष्टम् ॥१२६॥ टोका - संपूर्ण परम प्रौदारिक शरीर जाके पाइए, बहुरि पर्याप्ति नामा नामकर्म का उदय करि संयुक्त, बहुरि काययोग का धारी- असा जो सयोगकेवली भट्टारक, ताके समुद्घात करते कपाट का करिवा विर्षे पर संहार विर्षे अपूर्ण काययोग कहा है । जाते तहां संज्ञी पर्याप्तयत् पर्याप्तिनि का प्रारंभ करि क्रम से निष्ठा
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२७६ ]
[ गोम्मटसार काण्ड गाथा १२८
हेमछप्पढवी, जोइसिवणभवरणसम्वइत्थीखं । पुष्पिणदरे हि सम्मो, न सासरगो परियापुण्णे ॥ १२८ ॥
Tutaricपृथ्वीनां ज्योतिष्कवानभवन सर्वस्त्रीणाम् । पूर्णेतरस्मिन् नहि सम्यक्त्वं न सासनो नारकापूर्वे ।। १२८ ॥
टीका - नरकं गतिं विषै रत्नप्रभा बिना यह पृथ्वी संबंधी नारकीनि के र ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी देवदि के अर सर्व ही स्त्री - देवांगना, मनुष्यणी, तियंचनी, तिनि निर्वृत्ति अपर्याप्त दशा विषै सम्यक्त्व न पाइए । जाते तोहि दशा विषं सम्यक्त्व ग्रहणे कौं योग्य काल नाहीं । पर सम्यक्त्व सहित मरे तियंच मनुष्य, सो तहां उपजै नाहीं । बहुरि सम्यक्त्वं तें भ्रष्ट होइ जो जीव मिथ्यादृष्टि वा सासादन होइ, तो तिनिका यथासंभव तहां नरकादि विषै उपजने का विरोध है नाहीं । बहुरि सर्व ही सातों पृथ्वी के नारकी, तिनिके निर्वृत्तिं अपर्याप्त दशा विषै सासादन गुणस्थान न पाइए, असा नियम जानना । जाते नरकं विषं उपज्या जीव के तिस काल विषै सासादनपने का अभाव है ।
इति श्री आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवति विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ जीवrestfrer नामा संस्कृत टीका के अनुसार इस सम्यग्ज्ञानचत्रिका नामां भाषrint fat atवकाण्ड विषै प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा विनिविषे पर्याप्त प्ररूपण नामा तीसरा ग्रेधिकार पूर्ण भयो । ३
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चौथा अधिकार : प्राण प्ररूपणा
अभिनंदन वंदौं सदा, सठि प्रकृति खिपाय ।
जगतनमतपद पाय, जिनधर्म कह्यो सुखदाय ।। अथ प्राण प्ररूपणा कौं निरूप हैं -
बाहिरपाणेहिं जहा, तहेव अब्भंतरहिं पाणेहिं । पाणंति जेहि जीवा, पाणा ते होति गिद्दिट्ठा ।। १२६ ॥
वाहाशार्शथा, तवाभ्यंतरः पाणैः । । प्राणंति पर्जीवाः, प्राणास्ते भवन्ति निर्दिष्टाः ॥ १२९ ॥
टीका -जिनि अभ्यंतर भाव प्राणनि करि जीव हैं, ते प्रारणंति कहिए जीव हैं; जीवन के व्यवहार योग्य हो हैं, कौनवत् ? जैसे बाह्य द्रव्य प्राणनि करि जीव जीव है, जातें यथा शब्द दृष्टांतवाचक है; तात जे आत्मा के भाव हैं, तेई प्रारण हैं असा कहा है । असे कहने ही करि प्राण शब्द का अर्थ का जानने का समर्थपणा हो है, तातै तिस प्राण का लक्षण जुदा न कह्या है । तहां पुद्गल द्रव्य करि निपजे जे द्रव्य इंद्रियादिक, तिनके प्रवर्तनरूप तो द्रव्य प्राण हैं। बहुरि तिनिका कारणभूत ज्ञानावरण श्रर वीर्यान्तराय के क्षयोपशमादिक तें प्रकट भए चैतन्य उपयोग के प्रवर्तनरूप भाव प्राण हैं।
इहां प्रश्न - जो पर्याप्ति पर प्राण वि भेद कहा ?
ताका समाधान - पंच इंद्रियनि का आवरण का क्षयोपशम से निपजे असे पांच इंद्रिय प्राण हैं । बहुरि तिस क्षयोपशम से भया जो पदार्थनि के ग्रहण का समर्थपना, ताकरि जन्म का प्रथम समय तें लगाइ अंतहत अपरि निपजै जैसी इंद्रिय पर्याप्ति है । इहां कारण-कार्य का विशेष है ।
___ बहुरि मन सम्बन्धी ज्ञानावरण का क्षयोपशम का निकट ते प्रगट भई अंसी मनोवर्गरणा करि निपज्या द्रव्य मन करि निपजी जो जीव की शक्ति, सो अनुभया पदार्थ को ग्रहण करि उपजी, सो अंतर्मुहूर्त मन:पर्याप्ति काल के अंन्ति संपूर्ण भई,
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| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १३०
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अंसी मनःपर्याप्ति है । बहुरि अनुभया पदार्थ का ग्रहण करना अर अनुभया पदार्थ का ग्रहण करने का योग्यपना का होना, सो मनःप्रारण है।
बहुरि नोकर्मरूप शरीर का संचयरूप शक्ति की जो संपूर्णता, सो जीव के योग्य काल विर्षे प्राप्त भई जो भाषा वर्गणा, तिनिकौं विशेष परिणमन को करणहारी, सो भाषा पर्याप्ति है।
बहुरि स्वर नामा नामकर्म का उदय है सहकारी जाकर, अंसी भाषा पर्याप्ति पूर्ण भए पीछे वचन का विशेषरूप उपयोगादिक का परिरामावना, तीहि स्वरूप वचन प्राण है।
___ बहुरि कायवर्गणा का अवलंबन करि निपजी जो प्रात्मा के प्रदेशनि का समुच्चयरूप होने की शक्ति, सो कायबल प्राण है।
बहुरि खल भाग, रस भागरूप परिणए नोकर्मरूप पुद्गलनि कौं हाड प्रादि स्थिररूप पर रुधिर आदि अस्थिररूप अवयव करि परिणमावने की शक्ति का संपूर्ण होना, सो जीव के शरीर पर्याप्ति है।
बहुरि उस्वास-निस्वास के निकसने की शक्ति का निपजना, सो आनपान पर्याप्ति है । बहुरि सासोरवास का परिणमन, सो सासोस्वास प्रारण है । अँसें कारणकार्यादि का विशेष करि पर्याप्ति पर प्राणनि विर्षे भेद जानना ।
प्रागें प्राण के भेदनि कौं कहै हैं - पंचवि इंदियपारणा, मरणवचकायेसु तिषिरण बलपाणा। आणापाणप्पाणा, आउगपारण होति दह पाणा ॥१३०॥ पंचापि इंद्रियप्राणाः, मनोवचःकायेषु त्रयो बलप्राणाः ।
आनपानप्राणा, प्रायुषकप्राणेन भवंति दश प्राणाः ।।१३०।।
टीका- पांच इंद्रिय प्राण हैं -- १. स्पर्शन, २. रसन, ३. वारण, ४. चक्षु, ५. श्रोत्र । बहुरि तीन बलप्राण हैं - १. मनोबल, २. वचनबल ३. कायबल । बहुरि एक पानपान कहिए सासोस्वास प्रारण है । बहुरि एक आयु प्रारण है। ऐसे प्राण दश . हैं, अधिक नाहीं है।
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मन्यातानचन्द्रिका भाषाटोका ]
आगे तिनि द्रव्य-भाव प्राणनि का उपजने की सामग्री कौं कहै हैं -- जीरियजुस्यदिशामा रसोइंपिदियेसु बला। देहुदये कायारणा, वचीबला आउ आउदये ॥ १३१॥
वीर्ययुतमतिक्षयोपशमोत्था नोइन्द्रियेंद्रियेषु बलाः ।
देहोदए कायानौ, बचोबल प्रायुः प्रायुरुदये ॥१३१॥ - टीका - स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र करि निपजे पांच इंद्रिय प्राण अर नो इंद्रिय करि निपज्या एक मनोबल प्राण, ए छहों तो मतिज्ञानावरण अर वीर्यान्तराय, तिनके क्षयोपशम ते हो हैं । बहुरि शरीर नामा नामकर्म के उदय होते कायबल अर सालोस्वास प्राण हो हैं । यहुरि शरीर नामा नामकर्म का उदय होते पर स्वर नामा कर्म का उदय होते वचनबल प्राण हो है । बहुरि आयुकर्म का उदय होते प्रायु प्राण हो है। जैसे प्राणनि के उपजने की सामग्री कही।
आगे ए प्राण कौन-कौन के पाइए सो भेद कहै हैं --
इंदियकायाऊरिण य, पुण्णापुण्णेसु पुण्णगे आणा । बीइंदियादिपुण्णे, बचीमरणो सण्णिपुण्णेव ॥१३२॥ इन्द्रियकायायूपि च, पूर्णापूर्णेषु पूर्णके प्रानः ।।
श्रीन्द्रियादिपूर्णे, वयो मनः संशिपूर्ण एव ।। १३२ ।।
टीका - इंद्रिय प्रारण, कायबल प्राण, प्रायु प्राण - ए तो तीन प्राण पर्याप्ति वा अपर्याप्ति दोऊ दशा विर्षे समान पाइए है । बहुरि सासोस्वास प्रारण पर्याप्ति दशा विर्षे ही पाइए, जाते ताका कारण उच्छवास निश्वास नामा नाम कर्म का उदय पर्याप्त काल विर्षे संभवें है । बहुरि वचनबल प्राण बेइंद्रियादिक पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवनि कै पर्याप्त दशा ही विर्षे पाइए है, जाते ताका कारण भूत स्वर नामा नामकर्म का उदय अन्यत्र न संभव है। बहुरि मनबल प्राण सैनी पंचेंद्रिय के पर्याप्त दशा विष हो पाइए है, जाते ताका कारण बीर्यान्तराय पर मन आवरण का क्षयोपशम, सो अन्यत्र न संभव है।
आमै एकेद्रियादिक जीवनि के केते-केते प्राण पाइए, सो कहै हैं -
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२०
है गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १३३
दस सणोरणं पारणा, सेसेगूरगतिमस्स बेऊरणा । पज्जत्तेसिदरेसु य, सत्त दुगे सेसगेगूणा ॥ १३३ ॥
दश संजिनां प्रारणाः शेषकोनमंतिमस्य न्यूनाः ।
पर्याप्तिष्वितरेषु च, सप्त द्विके शेषकैकोनाः ।।१३३॥ टीका - पहिले कहा जोमान के सामीनि का नियम, ताही करि असे भेद पाइए है, सो कहिए है । सैनी पंचेंद्री पर्याप्त के तौ दश प्राण सर्व हो पाइए । पीछे अवशेष असंज्ञी आदि हींद्रिय पर्यन्त पर्याप्त जीवनि के एक-एक घाटि प्रारण पाइए । तहां प्रसनी पंचेंद्रिय के मन विना नव प्राण पाइए । चौइंद्रिय के मन पर कर्ण इंद्रिय विना आठ प्राण पाइए , तेइंद्रिय के मन, कर्ण, नेत्र इंद्रिय बिना सात प्राए पाइए । द्वीन्द्रिय के मन, कर्ण, नेत्र, नासिका बिना छह प्राण पाइए । बहुरि अंतिम एकद्रिय विषं द्वीन्द्रिय के प्राणनि तें दोय घटावना, सो मन, कर्ण, नेत्र, नासिका अर रसना इंद्रिय अर वचनबल, इनि विना एकेद्रिय के च्यारि ही प्राण पाइए हैं ! असे ए प्राग पर्याप्त दशा की अपेक्षा कहे ।
अब इतर जो अपर्याप्त दशा, ताकी अपेक्षा कहिए हैं - सैनी वा असैनी पंचेंद्रिय के ती सात-सात प्राण हैं । जातें पर्याप्त काल विर्षे संभव असे सासोस्वास, वचन बल, मनोबल ए तीन प्राण तहां न होइ । बहुरि चौइंद्रिय के श्रोत्र विना छह पाइए, तंद्री के नेत्र बिना पांच पाइए, बैद्री के नासिका विना च्यारि पाइए, एकेंद्री के रसना विना तीन पाइए, असे प्राण पाइए हैं । इति श्री प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत'चक्रवतिविरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंय की जीवतत्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका के अनुसार सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकानामा इस भाषाटीका विष प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा तिनि विष प्रारए प्ररूपरणा
नामा चौथा अधिकार संपूर्ख भया ॥४॥
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पाँचवां अधिकार : संज्ञा प्ररूपंणा
संगलाचरण गुण प्राप्त पाए सकल, रज रहस्य परि मोति ।
दोषरहित जगस्यामि सो, सुमति नर्मों जुत प्रीति ।। अथ संज्ञा प्ररूपणा कहै हैं -
इह जाहि बाहयावि य, जीवा पावंति दारुणं दुक्खं । सेवंतावि य उभये, तापो चत्तारि सण्णाओ॥ १३४ ॥ इह याभिर्वाधिता अपि च, जीवाः प्राप्नुवंति द्वारा दुक्खें ।
सेवमाना अपि न, उभयस्मिन ताश्चतसः संज्ञाः ॥ १३४ ॥ टीका - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इनिके निमित्त तें जो बांछा होइ, ते च्यारि संज्ञा कहिए । सो जिनि संज्ञानि करि बाधित, पीडित हुए जीव संसार विर्षे विषयनि कौं सेवते भी इहलोक और परलोक विष तिनि विषयनि की प्राप्ति वा अप्राप्ति होते दारुण भयानक महा दुःख कौं पावें है, ते च्यारि संज्ञा जाननी। बांछा का नाम संज्ञा है । वांछा है, सो सर्व दुःख का कारण है । मार्ग प्राहार संज्ञा उपजने के बाह्य, अभ्यंतर कारण कहै हैं -
आहारवंसणेण य, तस्सुवजोगेण ओमकोठाए। सादिदरवीररणाए, हवदि हु आहारसण्णा हु॥ १३५॥
आहारदर्शनेन च, तस्योपयोगेन अवमकोष्ठतया।
सालेतरोदीरणया, भवति हि पाहारसंज्ञा हि ॥ १३५ ॥ टीका - विशिष्ट प्रनादिक च्यारि प्रकार आहार का देखना, बहरि प्राहार का यादि करना, कथा सुनना इत्यादिक उपयोग का होना, बहुरि कोठा जो उदर, ताका खाली होनो क्षुधा होनी ए तो बाह्य कारण है । बहुरि असाता बेदनीय कर्म का तीन उदय होना वा उदीरणा होनी अंतरंग कारण हैं । इनि कारणानि ते पाहार
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२५२]
[ गोम्मटसार अवकाण्ड गाथा १३६-१३७
संज्ञा हो है । हार कहिए अन्नादिक, तौहिविषै संज्ञा कहिए वांछा, सो श्राहार संज्ञा जाननी |
श्रागें भय संज्ञा उपजने के कारण कहे हैं।
अइभीमदंसरषेण य, तस्सुवजोगेण ओमससीए । भयकम्मुदीरणाए, भयसण्णा जायदे चदुहिं ॥१३६॥
प्रतिभीमदर्शनेन च तस्योपयोगेन अवमसत्वेन । reenबीररया, भयसंज्ञा जायते चतुभिः ।। १३६ ।।
टीका - अतिभयकारी व्याघ्र आदि वा क्रूर मृगादिक वा भूतादिक का देखना वा उनकी कथादिक का सुनना, उनकी यादि करना इत्यादिक उपयोग का होना, बहुरि अपनी हीन शक्ति का होना ए तो बाह्य कारण हैं । बहुरि भय नामा नोकषायरूप मोह कर्म, ताका तीव्र उदय होना, यह अंतरंग कारण है । इनि कारणनि करि भय संज्ञा हो है । भय करि भई जो भागि जाना, छिपि जाना इत्यादिक रूप वांछा, सो भय संज्ञा कहिए ।
मैथुन संज्ञा उपजने के कारण कहै हैं
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पणिदरसभोयणेण य, तस्सुवजोगे कुसीलसेवाए । वेदस्सुदीरणाए, मेहुणा हवदि एवं ॥ १३७ ॥
प्रणीतरसभोजनेन च तस्योपयोगे कुशोलसेवया । arrrrrrrrr, मैथुनसंज्ञा भवति एवं ।। १३७ ।।
टीका - वृष्य जो कामोत्पादक गरिष्ठ भोजन, ताका खाना पर काम कथा का सुनना र भोगे हुये काम विषयादिक का यादि करना इत्यादिकरूप उपयोग होना, बहुरि कुशीलवान कामी पुरुषनि करि सहित संगति करनी, गोष्ठी करनी ए ती बाह्य कारण हैं । बहुरि स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदनि विषे किसी हो वेदरूप नोकषाय की उदीरणा, सो अंतरंग करण है । इनि कारणनि तें मैथुन संज्ञा हो है । मैथुन जो कामसेवन-रूप स्त्री-पुरुष का युगल संम्बन्धी कर्म, तीहिविषे वांछा, मैथुनसंज्ञा जाननी ।
आगे परिग्रह संज्ञा उपजने के कारण कहैं हैं
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पायशानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। २८३ उवयरणसणेण य, तस्सुवजोगेण भुच्छिदाए य । लोहस्सुवोरणाए परिग्रहे जायदे सण्णा ।। १३८ ॥
उपकरणदर्शनेन च, तस्योपयोगेन भूछिताये छ ।
लोभस्थोदीरणया परिग्रहे जायते संज्ञा ॥ १३८ ॥ टोका - धन-धान्यादिक बाह्म परिग्रहरूप उपकरण सामग्री का देखना पर तीहि धनादिक की कथा का सुनना, यादि करना इत्यादिक उपयोग होना, मूछित जो लोभी, ताक परिग्रह उपजायने विर्षे आसक्तता, ताका इस जीव सहित सम्बन्धी होना इत्यादिक बाह्य कारण हैं। बहुरि लोभ कषाय की उदीरणा, सो अंतरंग कारण है । इनि कारणानि करि परिग्रह संज्ञा हो है । परिग्रह जो धन-धान्यादिक, तिनिके उपजावने प्रादिरूप बांछा, सो परिग्रह संज्ञा जाननी । .
प्रागै ए संशा कौनके पाइए, सो भेद कहै हैं --
गठ्ठपमाए पढ़मा, सण्णा गहि तत्थ कारणाभावा । सेसा कम्मत्थित्तेणुवयारेणस्थि णहि कज्जे ॥१३॥
नष्टप्रमादे प्रथमा, संज्ञा नहि तत्र कारणाभावात् ।
शेषाः कर्मास्तित्वेन उपचारेण संसि नहि कार्ये ॥१३९॥ टोका - नष्ट भये हैं प्रमाद जिनिके, ऐसे जे अप्रमत्तादि गुणस्थानवी जीव, तिनिके प्रथम आहार संज्ञा नाही है । जाते पाहार संज्ञा का कारणभूत जो असाता' वेदनीय की उदीरणा, ताकी व्युच्छित्ति प्रमत्त गुणस्थान ही विर्षे भई है ; ताते कारण के अभाव तें कार्य का भी अभाव है। ऐसे प्रमाद रहित जीवनि के पहिलो संज्ञा नाहीं है । बहुरि इनि के जो अवशेष तीन संज्ञा हैं, सो भी उपचार मात्र हैं; जाते उन संज्ञानि का कारणभूत जे कर्म, तिनि का उदय पाइए है; तीहि अपेक्षा है । बहुरि ते भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञा अप्रमादी जीवनि के कार्यरूप नाहीं हैं। . . . इति श्री आचार्य नेमिचंद्रविरचित गोम्मटसार द्वितीय दाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीक्तत्वप्रकीपिका. नामा संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्जामचन्द्रिका नामा भाषा टीका विर्षे जीवकाण्ड विष प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा, तिनिविष संज्ञा प्ररूपणा नाम पंचम
अधिकार सम्पूर्ण भया ।।५।।
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छठवां अधिकार : गति प्ररूपणा पनप्रभ जिनकौं भजौं, जीति घाति सब कर्म ।
गुण समूह फुनि पाय जिनि, प्रगट कियो हितधर्म ।। प्राग अरहंतदेव को नमस्काररूप मंगलपूर्वक मार्गणा महा अधिकार प्ररूपण की प्रतिज्ञा करै हैं -
धम्मगुणमगरणाहयमोहारिबलं जिणं गमंसिता । नगरपमहाहियारं, विविहहियारं भरिपस्सामो ॥१४.०॥
धर्मगुसमागरणाहतमोहारिबलं जिनं नमस्कृत्वा ।
मार्गरणामहाधिकार, विविधाधिकारं भविष्यामः ॥१४०॥ टीका - हम जो ग्रंथकर्ता, ते नानाप्रकार का गति, इंद्रियाद्रिक अधिकार संयुक्त जो मार्गणा का महा अधिकार ताहि कहेंगे, असी प्राचार्य प्रतिज्ञा करी । कहा करिके ? जिन जो अर्हन्त भट्टारक, तिसहि नमस्कार करिके। कैसा है जिन भगवान ? रलत्रय स्वरूप धर्म, सोही भया धनुष, बहुरि ताका उपकारी जे झानादिक धर्म, ते ही भए गुण कहिये चिल्ला, बहरि ताके प्राश्रयभूत जे चौदह मार्गरणा, तेही भए मार्गरण कहिए बाण, तिनिकरि हत्या है मोहनीय कर्मरूप अरि कहिये बैरी का बल जाने, ऐसा ज़िन-देव है ।
श्रा, मार्गणा शब्द की निरुक्ति ने लिया लक्षण कहै हैं - ..जाहि व जासु व जीवा, मग्गिज्जंते जहा तहा दिवा ।
तानो चोदस जाणे, सुयणाणे मागणा होति ॥१४१॥ याभिर्वा यासु वा, जीवा मृग्यते यथा तथा पृष्टाः । ताश्चतुर्दश जानीहि श्रुतज्ञाले मार्गरणा भवति ॥१४१।।
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१. षट्खण्डागम - बदला पुस्तक १, पृष्ठ १३३, गापा १५
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सम्यप्तानचन्त्रिका भाषाटोका j
[ २५ टीका - जैसे श्रुतज्ञान विर्षे उपदेश्या तसे ही जीव नासा पदार्थ, जिनकरि वा जिनिविर्षे जानिए, ते चौदह मार्गणा हैं। पूर्वं तौ सामान्यता करि गुणस्थान जीवसमास, पर्याप्ति, प्रारण, संज्ञा इनिकरि त्रिलोक के मध्यवर्ती समस्त जीव लक्षण करि वा भेद करि विचारे ।
बहुरि अब विशेषरूप गति-इंद्रियादि मार्गणानि करि तिन ही कौं विचार हैं, असे हे शिष्य, तू जानि । गति आदि जे मार्गणा जब एक जीव के नारकादि पर्यायनि की विवक्षा लीजिए, तब तो जिनि मार्गणामि करि जीव जानिए असे तृतीया विभक्ति करि कहिए। बहुरि जल एक द्रव्य प्रति पर्यायप्ति के अधिकरण को विवक्षा "इनि विर्ष जीव पाइए है' अंसी लीजिए, तब जिनि मार्गरणानि विर्षे जीव जातिए असे सप्तमी विभक्ति करि कहिए । जाते विवक्षा के वश तें कर्ता, कर्म इत्यादि कारकनिकी प्रवृत्ति है ऐसा न्याय का सद्भाव है ।
प्रागै तिनि चौदह मार्गरपानि के नाम कहै हैं - गइइंखियेसु काये, जोगे वेवे कसायमारणेय । संजमदंसणलेस्सा-भविया-सम्मत्तसणि-माहारे ॥१४२॥
गतींद्रियेषु काये, योगे वेदे कषायजाने च ।
संयमदर्शनलेश्यामन्यतासम्यक्त्वसंझ्याहारे ।। १४२॥ टीका - १. गति, २. इंद्रिय, ३. काय, ४. योग, ५. वेद, ६. कषाय, ७. ज्ञान, ८. संयम, ६. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्य, १२. सम्यक्त्व, १३. संशी, १४. पाहार असे ए गति आदि पद हैं । ते तृतीया विभक्ति वा सप्तमी विभक्ति का अंत लीए हैं । तातै गति करि वा गति विर्षे इत्यादिक असे व्याख्यान करने । सो इनिरि वा इनिविष जीव माय॑न्ते कहिए जानिये, ते चौदह मार्गणा जैसे अनुक्रम करि बाम हैं, तैसे कहेंगे।
प्रागै तिलिविष पाठ सांतर मार्गरणा हैं, तिनिका स्वरूप, संख्या, विधान निरूपण के अथि गाथा तीन कहै हैं -
उवसमसुहमाहारे, वेगुविधयमिस्सणारअपजसे । सासपासम्से सिस्से, सांतसगा मागरणा अठ्ठः।। १४३॥
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२०६ ]
[ गोम्मटसर जीवाण्ट वा १४४-१४५
सत्तदिणाछम्मासा, वासपुधत्तं च बारसमुहुत्ता । पल्लासंखं तिष्हं, वरमवरं एगसमयो दु ॥१४४॥
उपशमसूक्ष्माहारे, वैविकमिश्नरापर्याप्तेि । सास सम्यक्त्वे मिश्र, सांतरका मार्गणा अष्ट ॥ १४३ ॥
टीका नाना जीवति की अपेक्षा विवक्षित गुणस्थान वा मार्गास्थान नैं छोड, अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गणास्थान में प्राप्त होइ, बहुरि उस ही विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान कौं यावत् काल प्राप्त न होइ, तिसकाल का नाम अंतर है |
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सप्तदिनानि षण्मासा, वर्षपृथक्त्वं च द्वादश मुहूर्ताः । पल्यासंख्यं प्रयाणां वरमवरमेकसमयस्तु ॥ १४४ ॥
सो उपशम सम्यग्दृष्टी जीवनि का लोक विषे नाना जीव अपेक्षा अंतर सात दिन है । तीन लोक विषै कोऊ जीव उपशम सम्यक्त्वी न होइ तो उत्कृष्टपने सात साईं न हो, पीछे कोऊ होय ही होय । ऐसे ही सब का अंतर जानना ।
बहुरि सूक्ष्म सांवराय संयमी, तिनिका उत्कृष्ट अंतर छह महीना है । पीछे कोऊ होय ही होय ।
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बहुरि आहारक पर श्राहारकमिश्र काययोगवाले, तिनिका उत्कृष्ट अंतर वर्ष पृथक्त्व का है। तीन तें ऊपर अर नव तें नीचे पृथक्त्व संज्ञा है, तातें यहां तीन वर्ष के ऊपर अर नव वर्ष के नीचे अंतर जानना । पीछे कोई होय ही होय ।
बहुरि क्रियिकमिश्र काययोगवाले का उत्कृष्ट अंतर बारह मुहूर्त का है, पीछे कोऊ होय ही होय ।
बहुरि लब्धि पर्यातक मनुष्य पर सासादन गुणस्थानवर्ती जीव श्रर मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव, इनि तीनों का अंतर एक-एक का पल्य के श्रसंख्यातवें भाग मात्र जानना, पीछे कोई होय ही होय । भैंसें ए सांतर मार्गणा आठ हैं । इति सबनि का जघन्य अंतर एक समय जानना ।
पढमुवसमसहिदाए, विरदाविरबोए चोहसा दिवसा ।
विरदीए पण्णरसा, विरहिदकालो दु बोधथ्यो ।। १४५ ॥ ।
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सम्यानचस्तिका भाषाटोकर]
। २८७
प्रथमोपशमसहितायाः, विरताविरतेश्चतुर्दश दिवसाः।
विरतेः पंचदश, विरहितकालस्तु बोद्धव्यः ॥ १४५ ।। टीका - विरह काल कहिए उत्कृष्ट अंतर, सो प्रथमोपशम सम्यक्त्व करि संयुक्त जे विरताविरत पंचम गुणस्थानवी जीव, तिनिका चौदह दिन का जानना । बहुरि तिस प्रथमोपशम सम्यक्त्व संयुक्त षष्टमादि गुणस्थानवर्ती, तिनिका पंद्रह दिन जानना । वा दूसरा सिद्धान्त की अपेक्षा करि चौबीस दिन जानना । असे नाना जीव अपेक्षा अंतर कह्या । बहुरि इनि मार्मरणानि का एक जीव अपेक्षा अन्तर अन्य ग्रन्थ के अनुसारि जानना !
यहां प्रसंग पाइ कार्यकारी जानि, तत्त्वार्थसूत्र की टीका के अनुसारि काल अन्तर का कथन करिए है ।
तहां प्रथम काल का वर्णन दोय प्रकार - नाना जीव अपेक्षा पर एक जीव अपेक्षा ।
___ तहां विवक्षित गुणस्थाननि का वा मार्गणास्थाननि विष संभवते गुणस्थाननि का सर्व जीवनि विर्षे कोई जीव के जेता काल सद्भाव पाइए, सो चाना जीव अपेक्षा काल जानाना । पर तिनही का विवक्षित एक जीव के जेते काल सद्भाव पाइए, सो एक जीव अपेक्षा काल जानना ।
तिनिविर्षे प्रथम नाना जीव अपेक्षा काल कहिए है, सो सामान्य-विशेष करि दोय प्रकार । तहां गुणस्थाननि विर्षे कहिए सो सामान्य अर मार्गरणा विर्षे कहिए सो विशेष जानना ।
तहां सामान्य करि मिथ्यादृष्टि, असंयत, प्रगत, अप्रमत्त, सयोग केवलनि का सर्व काल है । इनिका कबहूं प्रभाव होता नाही। बहुरि सासादन का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पल्य का असंख्यातवां भाग । बहुरि मिश्र का जघन्य अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्ट पल्य का असंख्यातवां भाग ! बहुरि च्यारों उपशम श्रेणी वालों का जघन्य एक समय उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त । इहां जघन्य एक समय मरण अपेक्षा कह्मा है । बहुरि ध्यारों क्षपकश्रेणीवाले अर प्रयोग केवलीनि का अधन्य वा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त मात्र काल है।
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[भीका गाथा १४५
अब विशेष करि कहिए हैं। तहां गति मार्गणा विषे सातों पृथ्वीनि के नारकीनि विष मिथ्यादृष्टघादि च्यारि गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है । तिर्यञ्च गति विर्षे मिथ्यादृष्ट्यादि पंच गुणस्थाननि विषै सामान्यवत् काल है । मनुष्यगति विषे सासादन का जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त घर मिश्र का जघन्य वा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त पर अन्य सर्व गुणस्थाननि विषै सामान्यवत् काल है । देवगति विष मिथ्यादृष्टयादि च्यारि गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है ।
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२८८]
बहुरि इंद्रिय मार्गणा श्रर काय मार्गरणा विषै इंद्रिय-काय अपेक्षा सर्वकाल है । स्थान अपेक्षा केंद्री, विकलेंद्री, अर पंच स्थावरनि विषे मिध्यादृष्टि का सर्वकाल है । अर पंचेंद्रिय वा त्रस विषे सर्वे गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है ।
बहुरि योग मार्गणा विषै तीनों वरोगनि मिध्यादृष्टचादि सयोगी पर्यन्तनि का श्रर प्रयोगी का सामान्यवत् काल है । विशेष इतना मिश्र का जघन्य काल एक समय ही | अर क्षपकनि का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त मात्र काल है । बहुरि वेद मार्गणा विषै तीन वेदनि विषै अर वेदरहित विषे मिथ्यादृष्टयादि निवृत्तिकरण पर्यन्तनि का वा ( ऊपरि) सामान्यवंत् काल है ।
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बहुरि कषाय मार्गगा विषै व्यारिं कषायति विषै मिथ्यादृष्ट्यादि श्रप्रमत्त पर्यंतन का मनोयोगीवत् पर दोय उपशमक वा क्षपक पर केवल लोभयुत सूक्ष्मसांपराय पर अकषाय, इनिका सामान्यवत् काल है ।
बहुरि ज्ञान मार्गणा विषे तीन कुज्ञान, पांच सुज्ञाननि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है ।
बहुरि संयम मार्गणा विषै सात भेदनि विधें अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है ।
बहुरि दर्शन मार्गणा विषे च्यारि भेदनि विषै अपने-अपने स्थाननि का सामान्यवत् काल है ।
बहुरि लेश्या रहितनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है। बहुरि भव्य मार्गमा विषै दोऊ भेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि कां
सामान्यवत् काल है ।
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सम्पायानचन्द्रिका भाषाटीका
( રદ
बहरि सम्यक्त्व मार्गणा विर्षे छह भेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है । विशेष इतना ~ प्रौपशेमिक सम्यक्त्व विधै असंयत, देशसयत 'का जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पल्य का असंख्यातवां भाग अर प्रमत्तं, अप्रमत्त का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतमुहूर्त काल है ।
बहुरि संज्ञी मार्गणा विर्षे दोऊ भेदनि विर्षे अपने-अपने गुणस्थानान का सामान्यवत् काल हैं।
बहुरि आहार मार्गरणा विर्षे आहारक विषं मिथ्यादिष्टयादि सयोगौं पर्यन्तनि को सामान्यवत् काल है । अनाहारक विर्षे मिथ्यादृष्टि का सर्वकाल, सासादनं असं. येत का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भाग, सयोगी का जघन्य तीन समय, उत्कृष्ट संख्यांत समय, अयोगी का सामान्यवत् काल है ।
अब एक जीव अपेक्षा काल कहिए हैं, तहां प्रथम सामान्य करि मिथ्यादृष्टि का काल विर्षे तीन भंग - अनादि अनंत, अनादि सांत, सादि सतिं । तही सादि सांत काल जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र है। किंचित हीन का नाम देशोन जानना । बहुरि सासादन का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह प्रावली मिश्र का जघन्य वा उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त ; बहुरि असंयत का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर, संयतासंयत का जघन्य अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन कोडि पूर्व प्रमत्त-अप्रमत्त का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहुर्त; च्यारौं उपशम श्रेणीवालों का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतमुहर्त; च्यारौं क्षपक श्रेणीवाले वा अयोगिनि का जघन्य वा उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त; सयोगी का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन कोडि पूर्व काल है।
अब विशेष करि कहिए हैं - गति मार्गणा विर्षे सातौं पृथ्वीनि के नारकीनि विष मिथ्यादष्टि का काल जघन्य अंतर्महर्त, उत्कृष्ट क्रम ते एक, तीन, सात, दश, सतरह, बाईस, तेतीस सागर । सासादन मिश्र का सामान्यवत्, असंयत का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन; मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट कालप्रमाण काल है। .
नियंचगति विर्ष - मिथ्यादृष्टि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र अनंत काल है । सासादन, मिश्र, संयतासंथत का सामान्यवत्, तहां असंयत का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्य काल है ।
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E क
२६० ]
[ोमसार जोषका गापा १४५ मनुष्यगति विर्षे - मिथ्यादृष्टि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पृथक्त्व कोटि पूर्व अधिक तीन पत्य । सासादन का, मिश्र का सामान्यवत् । असंयत का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक सीन पल्य, अवशेषनि का सामान्यवत् काल है !
देवगति विर्ष - मिथ्यावृष्टि का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट एकतीस सागर; सासादन , मिश्र का सामान्यवत् ; असंयत का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तेतीस सागर काल हैं।
बहुरि इंद्रिय मार्गणा विर्षे एकेंद्रिय का जघन्य क्षुद्रभव, उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र है । बहुरि विकलत्रय का जघन्य क्षुद्रभव, उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष । पचेंद्रिय वि मिथ्यादृष्टि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पृथक्त्व कोडि पूर्व अधिक हजार सागर । अवशेषनि का सामान्यवत् काल है ।
बहुरि काय मार्गणा वि पृथ्वी, अप, तेज, वायु का जघन्य क्षुद्रभव, उत्कृष्ट शासंग्ज्यात लोक प्रमाण काल है । वनस्पतिकाय का एकेद्रियवत् काल है ।
. सकाय विर्षे मिथ्यादष्टि का जघन्य अंतर्मुहुर्त, उत्कृष्ट पृथक्त्व कोङि पूर्व अधिक दोय हजार सागर; अवशेषनि का सामान्यवत् काल है । इहां छह के ऊपरि नक के नीचे, ताका नाम पृथक्त्व जानना । पर उस्वास का अठारहवां भाग मात्र क्षुद्रभव जानना ।
बहुरि योग मार्गणा विर्षे वचन, मन योग विर्षे मिथ्यादृष्टि, असंयत, संयतासंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त च्यारों उपशमक, क्षपक, सयोगिनि का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त, सासादन-मिश्र का सामान्यवत् काल है । काय योग विर्षे मिथ्यादृष्टि का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गल परिवर्तन, अवशेषनि का मनोयोगक्त् काल है । अयोगि विर्षे सामान्यवत् काल है ।
बेद मार्गणा विर्षे तीनों वेदनि विषं मिथ्यादृष्टि आदि अनिवृत्तिकरण पर्यंत अर अवेदीनि विर्षे सामान्यवत् काल है। विशेष इतना - जो स्त्री वेद विर्षे मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल पृथक्त्व सौ पत्य प्रमाण पर असंयत का उत्कृष्ट काल देशोन पचावन पल्य है । बहुरि पुरुष वेद विष मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल पृथक्त्व सौ सागर प्रमाण है । अर नपुंसक वेद विर्षे मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र अर असंयत का उत्कृष्ट काल देशोन तेतीस सागर काल है।
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टीका 1
[ २९१
बहर कषाय मार्गण नि प्यारो
निमित्त पर्यंत कर मनोयोगवत् पर दोऊ उपथभक वा क्षपक वा सूक्ष्म लोभ पर कषाय इनिका सामान्यवत् काल है ।
बहुरि ज्ञान मार्गणा विषे तीन कुज्ञाननि विषै वा पांच सुज्ञाननि विषे अपने-अपने retaraft का सामान्यवत् काल है। विशेष इतना - विभंग विषे मिध्यादृष्टि का काल - देशोन तेतीस सागर है ।
बहुरि संयम मार्गणा विषै सात भेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननिका सामान्यवत् काल हैं ।
बहुरि दर्शन मार्गणा विषे व्यारि मेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है । विशेष इतना चक्षुदर्शन विषै मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल दोय हजार सागर है ।
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बहुरि लेश्या मार्गणा विषे छह भेदनि विषे वा प्रलेश्यानि विषै अपने-अपने गुणस्थानft का सामान्यवत् काल है । विशेष इतना - कृष्ण, नील, कापोत विषै मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल क्रम ते साविक तेतीस सतरह, सात सागर अर असंयत का उत्कृष्ट काल क्रम तें देशोन तेतीस, सतरह, सात सागर है । पर पीत पद्म विषै frentदृष्टि वा असंयत का उत्कृष्ट काल कम तैं दोय, अठारह सागर है। संयतासंयत का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त काल है । बहुरि शुक्ल लेश्या विषे मिध्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर, संयतासंयत का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट काल है ।
अंत
बहुरि भव्य मार्गणा विषै भव्य विषै मिथ्यादृष्टि का अनादि सांत वा सादि सांत काल है । तहां सादि सांत जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र है । शेषन का सामान्यवत् काल है । अभव्य विषं अनादि अनंत काल है ।
बहुरि सम्यक्त्व मागेगा विषै छहीं भेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थान लिए का सामान्यन्वत् काल है । विशेष इतवा - उपशम सम्यक्त्व विषै प्रसंयत, संयता सत का जघन्य वा उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त मात्र है
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..बहुरि संज्ञी मार्गणा विषै संज्ञी विषे मिथ्यादृष्टि आदिनिवृत्ति कर पर्य का पुरुष वेदवत् अवशेषनि का सामान्यवत् काल है । असंज्ञी विषे मिथ्यादृष्टि
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२९२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १४५ जघन्य क्षुद्रभव, उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गल परिवर्तन काल है । दोऊ व्यपदेशरहितनि विर्ष सामान्यवत् काल है।
बहुरि आहार मार्गणा विर्षे अाहारक विर्षे मिथ्यादृष्टि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात कल्पकाल प्रमाण जो अंगुल का असंख्यातवां भाग, तीहि प्रमाण काल है । अवशेषनि का सामान्ययत् काल है । अनाहारक विर्षे मिथ्यादृष्टि जघन्य एक समय, उत्कृष्ट तीन समय । सासादन, असंयत का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट दोय समय सयोगी का जघन्य वा उत्कृष्ट तीन समय, अयोगी का सामान्यवत् काल
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इहां मार्गरणास्थाननि विर्षे काल कहा, तहां असा जानना - विवक्षित मार्गणा के भेद का काल विर्षे विवक्षित, गरमस्थान का सद्भाव जेते काल पाइए, ताका वर्णन हैं । मार्गणा के भेद का वा तिस विर्षे गुणस्थान का पलटना भए, तिस काल का अभाव हो है।
___ अब अंतर निरूपण करिए हैं - सो दोष प्रकार, नाना जीव अपेक्षा पर एक जीव अपेक्षा । तहां विवक्षित गुणस्थाननि विर्षे वा गुणस्थान अपेक्षा लीए मार्गरणास्थान विर्षे कोई ही जीव जेते काल न पाइए, सो नाना जीव अपेक्षा अंतर जानना । बहुरि विवक्षित स्थान विर्षे जो जीव व था, सोई जीव अन्य स्थान को प्राप्त होई करि बहुरि तिस ही स्थान को प्राप्त होई, तहां बीचि घिर्ष जेता काल का प्रमाण, सो एक जीव अपेक्षा अंतर जानना ।
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R ATHA TERASTARANGNAC asnामा
तहां प्रथम नाना जीव अपेक्षा कहिए है, सो सामान्य विशेष करि दोय प्रकार। तहां सामान्य करि मिथ्यादृष्टि, असंय, देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त, सयोगीनि का अंतर नाही है । सासादन का वा मिथ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पल्य का असंख्यातवां भाग मात्र अंतर है । च्यारि उपशमेकनि का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पृथवत्व वर्ष अंतर है । च्यारि. क्षपकनि का वा अयोगी का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह मास अंतर है।
'बहुरि विशेष करि गति मार्गणा विष नारकी, लियंच, मनुष्य, देवनि विर्षे ... क्रम से मिथ्यादृष्टयादि म्यारि,पाँच, चौदह, च्यारि गुणस्थाननि विर्षे सामान्यवत्
अंतर है।
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विकर भावाटीका 1
[ २६३
- बहुरि इंद्रिय मार्गणा विषे एकेजिय विकलेन्द्रिय का अंतर नाही है । पसेंद्रिय व सर्व गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि काय मार्गणा विषे पंच स्थावरनि का अंतर नाही है । स विषै सर्व गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि योग मार्गणा व तीनों योगनि विषे यादि के तेरह गुणस्थाननि का वा श्रयोगी का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि वेद मार्गणा विषै तीनों वेदनि विषे आदि के नव गुणस्थाननि वा वेदनिका सामान्यवत् अंतर हैं। विशेष इतना दोऊ क्षपकवि का उत्कृष्ट अंतर स्त्री-नपुंसक वेद विषै पृथक्त्व वर्ष मात्र पर पुरुष वेद विषं साधिक वर्ष प्रमाण है ।
बहुरि कषाय मार्गरणा विषे च्यारि कपश्यनि विषै या प्रकषायनि विषै अपनेअपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है । विशेष इतना - दोय क्षपकनि का उत्कृष्ट अंतर साधक वर्षमात्र है ।
बहुरि ज्ञान मार्गणा विषे तीन कुज्ञान, पांच सुज्ञाननि विषे अपने-अपने गुणस्थानि का सामान्यवत् अंतर है । विशेष इतना अवधि, मन:पर्ययज्ञान विषे क्षपकति का उत्कृष्ट अंतर साविक वर्षमात्र है ।
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africe after विषे सात भेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि दर्शन मार्गमा विषे च्यारि भेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है । विशेष इतना - अवधि दर्शन विष क्षपकनि का अंतर साधिक वर्षमात्र है ।
बहुरि लेश्या मार्गा विषै छहीं भेदनि विषै वा श्रलेश्या विषै ग्रुपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि भव्य मार्गणा विषै दोय भेदनि विषै अपने-अपने सुरास्थाननिका सामान्यवत् अंतर है ।
age area मार्गणा विषे यह भेदनि विषे अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत अंतर है । विशेष इतना उपशम सम्यक्त्व विषे असंयत्तादिक का जधन्य
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२६४
गोम्मटसार जोयकाण्ड गाथा १४५
अंतर एक समय है । पर उत्कृष्ट अंतर असंयत का सात दिन-राति, देश संयत का चौदह दिन-राति, प्रमत्त-अप्रमत्त का पंद्रह दिन-राति अंतर है।
'बहुरि संज्ञी मार्गणा विर्षे दोय भेदनि विर्षे वा दोऊ व्यपदेशरहितनि विर्षे अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यक्त् अंतर है ।
बहरि प्रहार मार्गणा विर्षे दोऊ भेदनि विर्षे अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है। विशेष इतना - अनाहारक विष असंयत का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट प्रथक्त्व मास।
सयोगी का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पृथक्त्व वर्षमात्र अंतर है। अब एक जीव अपेक्षा अंतर कहिए है,
सो सामान्य विशेष करि दोय प्रकार | तहाँ सामान्य करि मिय्यादृष्टि का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन दूणां छयासठि सागर । बहुरि सासादन का जघन्य पल्य का असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट देशोन अर्ध पुद्गल परिवर्तन । बहुरि मिथ, असंयत, देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त; च्यारि उपशमक, इनिका जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन अर्ध पुद्गल परिवर्तन । बहुरि च्यारि क्षपक, सयोगी, अयोगी इनिका अंतर
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बहुरि विशेष करि गति मार्गणा विष नारक विष मिथ्यादृष्टि प्रादि असंयत पर्यतनि का जघन्य अंतर सामान्यवत् । उत्कृष्ट अंतर सात पृथ्वीनि विर्षे क्रम से एक, तीन, सात, दश, सतरह, बाईस, तेतीस देशोन सागर जानना ।
बहुरि तिर्यचनि विर्षे मिथ्यादृष्टयादि देशसंयत पर्यंतनि का सामान्यत्रत् अंतर है । विशेष इतना - मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट अंतर देशोन तीन पल्य है ।
बहुरि मनुष्य गति विर्षे मिथ्यादृष्टयादि च्यारि उपशमक पर्यंत जघन्य अंतर सामान्यवत् । उत्कृष्ट अंतर मिथ्यादृष्टि का तिर्यचवत् । सासादन, मिश्र, असंयत का पृथक्त्व कोडि पूर्व अधिक तीन पल्य, देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त । च्यारि उपशमक का पृथक्त्व कोडि पूर्व प्रमाण है । अर क्षपक, सयोगी, अयोगीनि का सामान्यवत् है ।
"बहुरि देव विर्षे मिथ्यादृष्टयादि असंयत पर्यंतनि का जघन्य अंतर सामान्यवत् । उत्कृष्ट अंतर देशोन इकतीस सागर है।
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सम्यरेशानचन्द्रिका भाघाटीका |
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बहुरि इंद्रिय मार्गणा विषै एकेंद्रिय का जघन्य अंतर क्षुद्रभव, उत्कृष्ट अंतर geter को पूर्व कि दोय हजार सागर । विकलेंद्रिय का जघन्य अंतर क्षुद्रभव, उत्कृष्ट अंतर असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र है । यह अंतर एकेंद्रियादिक पर्यायनि का का है, गुणस्थान मिथ्यादृष्टि ही है, ताका तहां अंतर है नाहीं । पंचेंद्रिय विषै मिध्यादृष्टि का सामान्यवत्, सासादनादि व्यारि उपशमक पर्यंतति का जघन्य अंतर सामान्यवत्, उत्कृष्ट अंतर पृथक्त्व कोडि पूर्व अधिक हज़ार सागर है । अवशेषनि का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि काय मार्गणा विषै पृथ्वी, आप, तेज, वायुकाय का जघन्य क्षुद्रभव उत्कृष्ट संख्यात पुद्गल परिवर्तन र वनस्पति का जघन्य क्षुद्रभव, उत्कृष्ट असंख्यात लोक मात्र अंतर है । यह अंतर पृथ्वीकायिकादि का कया है, गुणस्थान मिथ्यादृष्टि है । ताका तहां अंतर है ही ।
surfon far मिथ्यादृष्टि का सामान्यवत्, सासादनादि च्यारि उपशमक पर्यंतनिका जघन्य सामान्यवत्, उत्कृष्ट पृथक्त्व कोडि पूर्व अधिक दोय हजार सागर अंतर है । श्रवशेषनि का सामान्यवत् अंतर हैं ।
बहरि योग मार्गणा विषै मन, वचन, काय योगनि विषे संभवते गुणस्थाननि का वा योगी का अंतर नाही, जाते एक ही योग विषै गुणस्थानांतर को प्राप्त होs aft विवक्षित गुणस्थान विषै प्राप्त होता नाहीं ।
बहुरि वेद मार्गणा विषै स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदनि विषै मिथ्यादृष्टि आदि दोऊ उपशमक पर्यंत जघन्य अंतर सामान्यवत् है । उत्कृष्ट अंतर स्त्रीवेद विषं मिथ्यादृष्टि का देशोन पंचावन पत्य, औरनि का पृथक्त्व सौ पत्य पुरुषवेद विषै मिथ्यादृष्टि का सामान्यवत् औरनि का पृथक्त्व सो सागर । नपुंसकवेद विषे मिथ्यादृष्टि का तेतीस 'सागर देशोन, औरनि का सामान्यवत् अंतर है। दोय क्षपति का सामान्यवत् अंतर है । बहुरि वेदरहितनि विषै उपशम अनिवृत्तिकरण, सुक्ष्म सांपराय का जधन्य वा उत्कृष्ट अंतर अंतर्मुहूर्त है, औरनि का अंतर नाही है ।
बहुरि कषाय मार्गमा विषे क्रोध, मान, माया, लोभ विषै मिथ्यादृष्टचादि उपशम अनिवृत्तिकरण पर्यंत का मनोयोगवत्, दोय क्षपकनि का अर केवल लोभ विष सूक्ष्मसां पराय के उपशम वा क्षपक का अर अकषाय दिषै उपशांतकषायादि का अंतर नाही है ।
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२६६ ]
| गोम्मटसार जीमकाण्ड गाथा १४५
बहुरि ज्ञान मार्गणा विषै कुमति, कुश्रुत, विभंग विषे मिथ्यादृष्टि सासादन का अंतर नाहीं । मति, श्रुत, प्रवधि विषे असंयत का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन कोडि पूर्व । देश संयत का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक छयासठ सागर । प्रमत्त अप्रमत्त का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर । च्यारि उपशमकनि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक छ्यासठ सागर । च्यारि क्षपकनि का सामान्यवत् अंतर है । बहुरि मन:पर्यय विष प्रमत्तादि क्षीण कषाय पर्यंतति का सामान्यवत् अंतर है। विशेष इतना प्रमत्त श्रप्रमत का अंतर्मुहूर्त, च्यारि उपशमकनि का देशोन कोड पूर्व प्रमाण उत्कृष्ट अंतर हैं । बहुरि केवलज्ञान विषै सयोगी, अयोगी का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि संयम मार्गणा विषै सामायिक, छेदोपस्थापन विषै प्रमत्त प्रप्रमत्त का जघन्य वा उत्कृष्ट अंतर अंतर्मुहूर्त है। दोऊ उपशमक का जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन कोडि पूर्व श्रर दोऊ क्षपकनि का सामान्यवत् अंतर है । परिहारविशुद्धि विष प्रमत्त प्रप्रमत्त विषै जघन्य वा उत्कृष्ट अंतर अंतर्मुहूर्त है । सूक्ष्मसांपराय विषे उपशमक वा क्षपक का पर यथाख्यात विषै उपशांत कषायादिक का अर संयतासंयत विषे देश संयत का अंतर नाहीं है । असंयम विषे मिथ्यादृष्टि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन तेतीस सागर । सासादन, मिश्र, असंयत का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि दर्शन मार्गणा विषं चक्षु, प्रचक्षुदर्शन विषै मिथ्यादृष्ट्यादि क्षीणकषाय पर्यन्तनि का सामान्यवत् अंतर है । विशेष इतना - चक्षुदर्शन विषे सासादनादि च्यारि उपशमक पर्यंतन का उत्कृष्ट अंतर देशीन दोय हजार सागर है । अवधिदर्शन विषै ज्ञानवत् अंतर है । केवलदर्शन विषै सयोगी, अयोगी का अंतर नाहीं है ।
बहुरि लेश्या मार्गणा विषे कृष्ण, नील, कापोत विषे मिथ्यादृष्ट्यादि असंयत
- पर्यतन का जघन्य अंतर सामान्यवत् है । उत्कृष्ट अंतर क्रम तैं देशोन तेतीस, सतरह, अर सात सागर प्रमाण है । पीत, पद्म विषे मिथ्यादृष्ट्यादि श्रसंयत पर्यंतनि का जघन्य अंतर सामान्यवत्, उत्कृष्ट अंतर क्रम तें साधिक दोय अर अठारह सागर हैं । देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त का अंतर नाहीं है । शुक्ल लेश्या विषे मिथ्यादृष्टयादि असंयत पर्यंतति का जघन्य अंतर सामान्यवत् है, उत्कृष्ट अंतर देशोन इकतीस सागर है | देशसंयत, प्रमत्त का अंतर नहीं है । अप्रमत्त, तीन उपशमक का जघन्य या उत्कृष्ट अंतर अंतर्मुहूर्त है । उपशांत कषाय, व्यारि क्षपक, सयोगीनि का अंतर नाही है । अश्या विषे अयोगीनि का अंतर नाही है ।
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[२९७
--musalkarOKANERINKHABA
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सम्यग्जानवनिका भावाटीका 1
बहरि भव्य मार्गरणा विधं भव्य विर्षे सर्व गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है । अभव्य विर्षे मिथ्यादृष्टि का अंतर नाही है ।
बहुरि सम्यक्त्व मार्गणा विष क्षायिक सम्यक्त्व विर्षे असंयतादि च्यारि उपशमक पर्यंतनि का जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असंयत कर देशोन कोडि पूर्व, औरनि का साधिक तेतीस सामर अंतर है । च्यारि क्षपक, सयोगी, अयोगी का अंतर नाही है । क्षायोपशामिक विर्षे असंयतादि अप्रमत पर्यतनि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असंयत का देशोन कोडि पूर्व, देशसंयत का देशोन छयासहि सागर, प्रमत्त-अप्रमत्त का साधिक तेतीस सागर अंतर है । प्रौपशमिक विर्षे असंयतादि तीन उपशमक पर्यंतनि का जघन्य वा उत्कृष्ट अंतर अंतर्मुहुर्तमात्र है । उपशांत कषाय का अतर नाही है । मिश्र, सासादन, मिथ्यादृष्टि विर्षे अपने-अपने गुणस्थाननि का अंतर नाही है ।
बहुरि संञी मार्गणा विर्षे संशी विर्षे मिथ्यादृष्टि का सामान्यवत्, सासादनादि च्यारि उपशमक पर्यन्तनि का जघन्य सामान्यवत्, उत्कृष्ट पृथक्त्व सौ सागर, च्यारि क्षपकनि का सामान्यवत् अंतर है । असंज्ञी विषं सिध्यादृष्टि का अंतर नाही है। उभयरहित विर्षे सयोगी, अयोगी का अंतर नाही है।
बहरि आहारक मार्गणा विर्षे आहारक मिथ्यादृष्टि का सामान्यवत्, सासादनादि च्यारि उपशमक पर्यतनि का जघन्य सामान्यवत्, उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात कल्पकाल मात्र सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग अंतर है । च्यारि क्षपक सयोगीनि का अंतर नाही है । अनाहारक विर्षे मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयत, सयोगी, प्रयोगी का अंतर नाही है। ..
इहां मार्गरणास्थान विर्षे अंतर ह्या है, तहां असा जानना- विवक्षित मार्गणा के भेद का काल विर्षे विवक्षित गुणस्थान का अंतराल जेते काल पाइए, ताका वर्णन है । मार्गरणा के भेद का पलटना भए अथवा मार्गणा के भेद का सद्भाव होते विवक्षित गुणस्थान का अंतराल भया था, ताकी बहुरि प्राप्ति भए, 'तिस अंतराल का अभाव हों है। ऐसें प्रसंग पाइ काल का पर अंतर का कथन की कीया है, सो जानना। ..... आगं इनि चौदह मार्गणानि विर्षे गलि मार्गणा का स्वरूप को कहै हैं ---
• गइउदयज़पज्जाया, चङगइगमास्स हेउवाह गई।
पारयतिरिक्खमाणुस, देवगइ ति य हवे चदुधा ॥१४६॥
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मोम्मटसार जीवरमाथा १४६
AMARELAHATIALANKARAMMAR
२६८ ]
गत्युदयजपर्यायः, चतुर्गतिगमनस्य हेतुर्या हि गतिः ।
नारकतिर्यग्मानुषदेवमतिरिति च भवेत् चतुर्धा ॥१४६।। गम्यते कहिये गमन करिए, सो गति है ।
इहां तर्क -"जो ऐसे करें गमन क्रियारूप परिणया जीव की पावने योग्य द्रव्यादिक कौं भी गति कहना संभवै ।
तहां समाधान - जो ऐसे नाहीं है, जो मतिनामा नामकर्म के उदय तें जो जीव के पर्याय उत्पन्न होइ, तिसही को गति कहिए । सो गति च्यारि प्रकार - १. नारक गति २. तिथंच गति ३. मनुष्यगति ४. देव गति ए च्यारि गति हैं ।
प्रागै नारक गति की निर्देश कर हैं - ण रमति जदो णिच्चं, दवे खेत्ते य काल-भावे य । अण्णोपोह य जह्मा, तह्मा ते णारया भरिणया॥ १४७॥ नरमंते यतो नित्यं, द्रव्य क्षेत्रे च कालभावे च । अन्योन्यश्च यस्मात्तस्माते नारता (का) भरिणताः ॥१४७॥
ailungondiasat dashrammareENTERTONE
v Anchotiwarikaalanjana
टोका - जा कारण ते जे जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विर्षे अथवा परस्पर में रमे नाही-जहां क्रीडा न करें, तहां नरक संवधी अन्न-पानादिक वस्तु, सो द्रव्य कहिए । बहुरि तहांकी पृथ्वी सो क्षेत्र कहिए । बहुरि तिस गति संबंधी प्रथम समय से लगाइ अपनी आयु पर्यंत जो काल, सो काल काहिए । तिनि जीवनी के चैतन्यरूप परिणाम, सो भाव कहिए । इनि घ्यारोंनि विर्षे जे के बहूं रति न मानें । बहुरि अन्य भव संबंधी वैर करि इस भव में उपजे क्रोधादिक, तिनिकार नवीन-पुराणे नारको परस्पर रमं नाहि है 'रति कहिए प्रीतिरूप कब ही तातै' 'न रताः' कहिए नरत, तेई 'नारत' जानने । जाते स्वार्थ विष प्रण् प्रत्यय का विधान है, तिनको जो गति, सो नारतगति जानना । अथवा नरकवि उपजे ते नारक, तिनिकी जो गति, सो नारक गति जाननी । अथवा हिंसादिक आचरण विर्षे निरता कहिए प्रवत, असे जो निरत, तिनकी जो गति, सो निरतगति जाननी । अथवा नर कहिए प्रारणी, तिनिकौं कायति कहिए पीडै दुःख देंइ,
१. षटखंडागम - धवला युस्तक १, पृष्ठ २०३ माथा १२६.
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सम्यग्ज्ञामन्दिका भाषाटीका ]
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असे अ नरक कहिए पापकर्म, ताका अपत्य कहिए तीहि का उदय से निपजे जे नारक तिनकी जो मति, सो नारक गति जाननी । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनि वि वा परस्पर रत कहिए प्रीतिरूप नाही ते नरत, तिनकी जो गति सो नरतगति जाननी । निर्गत कहिए गया है अयः कहिए पुण्यकर्म, जिनित जैसे जै निरय, तिनिकी जो गति सो निरय गति जाननी । असे निरुक्ति करि नारकगति का लक्षण कहा ।
प्राग तियंचगति का स्वरूप कहै हैं - तिरियंति कुडिलभावं, सुविउलसंष्ण रिणगिठिमण्णाणा। अच्चंतपावबहुला, तहा तेरिच्छया भरिणया' ॥१४८॥ तिरोंचंति कुटिलभावं, सुविकृतसंज्ञा निकृष्टमज्ञानाः ।
अत्यंतपापबहुलास्तस्मात्सरश्चिका भरिणताः ॥१४८॥
टीका - जाते जो जीव सुविवृतसंज्ञाः कहिए प्रकट' है आहार में आदि देकरि संज्ञा जिनके अंसे हैं । बहुरि प्रभाव, सुख, छ ति, लेश्या की विशुद्धता इत्यादिक करि हीन हैं, तातै निकृष्ट हैं । बहुरि हेयोपादेय का ज्ञान रहित है, तातै अशान हैं । बहुरि नित्यनिगोद की अपेक्षा अत्यंत पाप की है बहुलता जिनिकै असे हैं, तातै तिरोभाव जो कुटिलभाव, मायारूप परिणाम ताहि अंचंति कहिए प्राप्त होइ, ते तिर्यंच कहे हैं। बहुरि तिर्यच ही तैरश्च कहिए । यहा स्वार्थ विषे अग्. प्रत्यय का विधान हो है। अंसे जो तिर्यक् पर्याय, सोही तिर्यग्गति है, अंसा कहा है।
आग मनुष्य गति का स्वरूप कहै हैं - भण्णति जदो रिपच्चं, मररोग गिउरणा मणुक्कडा जह्मा । मण्णुभवा य सवे, तह्मा ते माणुसा भणिवा ॥१४६॥ मन्यते यतो नित्यं, मनसा निपुणा मनसोत्कदा पस्मार । मनूद्भवाश्च सर्वे, तस्मात्ते मानुषा भरिणताः ॥१४९॥
टोका - जाते जे जीव नित्य ही मन्यते कहिए हेयोपादेय के विशेष कौं जाने हैं । अथवा मनसा निपुणाः कहिए अनेक शिल्पी प्रादि कलानि विष प्रवीण हैं । अथवा
१. पटखेडागम - अवला पुस्तक , पृष्ठ २०३, गाथा १२६ २. पखंडागम - चला पुस्तक १, पृष्ठ २०४, गाथा १३०
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। मोम्मटसार जोक्करण माया १५०
'मनसोल्कर' कहिए अवधारणा आदि दृढ उपयोग के धारी हैं । अथवा 'मनोरुद्धवाः' कहिए कुलकरादिक ते निपजे है, तात ते जीव सर्व ही मनुष्य हैं, असें आगम विर्षे
आगे तियंच, मनुष्य गति के जीवनि का भेद दिखावे हैं - सामण्णा पंचिदी, पज्जत्ता जोणिणी अपज्जता । तिरिया जरा तहावि य, पंचिदियभंगदो हीणा ॥१५०॥
सामान्याः पद्रियाः, पर्याप्ता योनिमत्यः अपर्याप्ताः ।
तियंचो परास्तथापि च, पंचेंद्रियभंगतो होनाः ।।१५०॥
टीका - तियेच पांच प्रकार - १. सामान्य तिर्यच २. पंचेंद्री तिर्यच ३. पर्याप्त तिर्यंच ४. योनिमती तिर्यच ५. अपर्याप्त तियच । तहां सर्व ही तिथंच भेदनि का समुदायरूप, सो तो सामान्य तिथंच है । बहुरि जो एकेंद्रियादिक बिना केवल पंचेंद्री तिर्यंच, सो पंचेंद्री तिर्यच है । बहुरि जो अपर्याप्त बिना केवल पर्याप्त तियंच, सो पर्याप्त तिर्यच है । बहुरि जो स्त्रीवेदरूप तिर्यंचणी, सो योनिमती लियंच है । बहुरि जो लब्धि अपर्याप्त तिर्यंच है, सो अपर्याप्त तिर्यंच है । जैसें तिर्यंच पंच प्रकार हैं।
बहुरि तैसे ही मनुष्य हैं । इतना विशेष - जो पंचेंद्रिय भेद करि हीन है, तातै सामान्यादिरूप करि च्यारि प्रकार है । जातें मनुष्य सर्व ही पंचेंद्री है, तातै जुदा भेद तिर्यंचवत् न होइ । तातें १. सामान्य मनुष्य २. पर्याप्त मनुष्य ३. योनिमती मनुष्य ४. अपर्याप्त मनुष्य ए च्यारि भेद मनुष्य के जानने ।
तहां सर्व मनुष्य भेदनि का समुदाय रूप, सो सामान्य मनुष्य है । केवल पर्याप्त मनुष्य, सो पर्याप्त मनुष्य है । स्त्रीवेदरूप मनुष्यणी, सो योनिमती मनुष्य है । लब्धि अपर्याप्तक मनुष्य सो अपर्याप्त मनुष्य है । . आगे देवगति को कहै हैं -
दिव्यंति जदो णिच्चं, गुणेहि अठेहि दिब्वभाहिं । भासंतदिव्यकाया, तह्मा ते वणिया देवा ॥१५१॥
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१. षटखंडागम-घपला पुस्तक ३, पृष्ठ २०४, गाथा १३१
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सम्पराधिका भाषाटोकर 1
दीव्यंति यतो नित्यं, गुणरष्टाभिदिव्यभावः ।
भासमानदिव्यकायाः, तस्माते वरिलता देवाः ॥१५१॥ टोका - जाते जे जीव नित्य ही दोव्यंति कहिए कुलाचल समुद्रादिकनि विर्षे क्रीड़ा करें हैं, हर्ष करें हैं, मदनरूप हो हैं-कामरूप हो हैं । बहुरि अणिमा कौ आदि देकरि मनुष्य अगोचर दिव्यप्रभाव लीएं गुण, तिनिकरि प्रकाशमान हैं । बहुरि-धातु-मल रोगादिक दोष, तिनिकरि रहित है । देदीप्यमान, मनोहर शरीर जिनिका असे हैं। तात ते जीव देव हैं, असें आगम विर्षे कहा है । अस निरुक्तिपूर्वक लक्षरण करि च्यारि गति कहीं।
यहां जे जीव सातौ नरकनि विर्षे महा दुःख पीडित हैं, ते नारक जानने । बहुरि एकेंद्री, बेंद्री, तेंद्री, चौइंद्री, असंही पंचेंद्रो पर्यंत सर्व ही अर जलचरादि पंचेंद्री ते सर्व तिर्यच जानने । बहुरि आर्य, म्लेच्छ, भोगभूमि, कुभोगभूमि विर्षे उत्पन्न मनुष्य जानने । भवनवासी, व्यंतर ज्योतिषी, वैमानिक भेद लीएं देव जानने ।
आगें संसार दशा का लक्षण रहित जो सिद्धगति ताहि कहै हैं - जाइजरामरणभया, संजोगविजोगबुक्खसणणाओ। रोगादिगा य जिस्से, ण संति सा होदि सिद्धगई ॥१५२॥
जातिजरामरणभयाः, संयोमवियोगदुःखसंज्ञाः ।
रोगादिकाश्च यस्था, न संति सा भवति सिद्धगतिः ॥१५२।। टोका - जन्म, जरा, मरण, भय, अनिष्ट संयोग, इष्टवियोग, दुख, संज्ञा, रोगादिक नानाप्रकार वेदना जिहिविर्षे न होइ सो समस्तकर्म का सर्वथा नाश तें प्रकट भया 'सिद्ध पर्यायरूप लक्षण कौं धरै, सो सिद्धगति जानती । इस गति विर्ष संसारीक भाव नाहीं, तातै संसारीक गति की अपेक्षा गति मार्गरणा च्यारि प्रकार ही कही।
____ मुक्तिगति की अपेक्षा तीहि मुक्तिगति का नाम कर्मोदयरूप लक्षण नाही है । तारों याको गतिमार्गरणा विर्षे विवक्षा नाही है।
प्रागै गतिमार्गणा विषं जीवनि की संख्या कहैं हैं । तहाँ प्रथम ही नरंक गति विष गाथा दोयकरि कहै हैं
SEEmaAGAapin.
१.बट्खं डागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ २०४, माया .१.३२
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३०२ ]
[ गोम्मटसार जोषका गाथा १५३-१५४
सामण्णा थेरड्या, घरणगुलबिदियमूलगुणसेढी । बिदियादि वारदसअड, छत्तिदुणिजपदहिया सेठी ।। १५३ ।।
सामान्या नैरथिका, घनांगुलद्वितीयमूलगुरण श्रेणी । द्वितीयादिः द्वादश दशाष्टषट्विद्विनिजपदहिता श्रेणी ॥१५३॥
सामान्य सर्व सातौ ही पृथ्वी के मिले हुवे नारकी जगत श्रेणी कों
टीका घनांगुल का द्वितीय वर्गमूल करि गुण, जो परिमाण होइ, तिहि प्रमित हैं । इहां Erie का वर्गमूल कर उस प्रथम वर्गमूल का दूसरी बार वर्गमूल कीजिए, सो ariगुल का द्वितीय वर्गमूल जानना । जैसे अंकसंदृष्टि करि घनांगुल का प्रमाण सोलह ताका वर्गमूल व्यारि, ताका द्वितीय वर्गमूल दोय होय, ताकरि जगत श्रेणी का प्रमाण दोय से छप्पन को गुणे, पांच बारह होय; तैसे इहां यथार्थ परिमाण जानना । बहुरि दूसरी पृथ्वी के नारकी जगत श्रेणी का बारह्वां वर्गमूल, ताका भाग जगत श्रेणी कौं दीए जो प्रमाण होइ तीहि प्रमित हैं । इहां जगत श्रेणी का वर्गमूल करिए सो प्रथम मूल, बहुरि उसका वर्गमूल कीजिए, सो द्वितीय वर्गमूल, बहुरि उस द्वितीय वर्गमूल का वर्गमूल कीजिए सो तृतीय वर्गमूल, इत्यादिक से हो इहां अन्य वर्गमूल जानना | बहुरि तीसरी पृथ्वी के नारकी जगत श्रेणी का दशवां वर्गमूल का भाग जगत श्रेणी को दीएं जो प्रमाण आवे तितने जानने । बहुरि चौथी पृथ्वी के नारकी जगत श्रेणी का आठवां वर्गमूल का भाग जगत श्रेणी कौं दीएं जो परिमाण यावे, तितने जानने । बहुरि असें ही पांचवी पृथ्वी, छठी पृथ्वी, सातवीं पृथ्वी के नारकी अनुक्रम तें जगत श्रेणी का छठा, तीसरा, दूसरा वर्गमूल का भाग जगत श्रेणी कौं दीएं, जो जो परिमाण श्रावै, तितने तितने जानने। जैसें दोय से छप्पन का प्रथम वर्गमूल सोलह द्वितीय वर्गमूल च्यारि, तृतीय वर्गमूल दोय, इनिका भाग क्रम तें दोय से छप्पन को दीएं सोलह चौसठि एक सौ अट्ठाईस होई । तैसें
इहां भी यथासंभव परिमाण जानना ।
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हेट्ठमछप्पढवीणं, रासिविहीणो दु सव्वरासी दु । पदमावणि िरासी, रइयाणं तु निद्दिट्ठो ॥ १५४ ॥
अधस्तनषट्पृथ्वीनां राशिविहीनस्तु सर्वराशिस्तु । प्रथमrati राशि:, नैरधिकाणां तु निर्दिष्टः ॥ १५४ ॥
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सम्यमानवधिका पाटीका ]
टीका -- नीचली जे दूसरी वंशा पृथ्वी सौं लगाइ सातवीं पृथ्वी पर्यंत छह पृथ्वी के नारकीनि का जोड दीएं साधिक जगत श्रेणी का बारह्वां मूल करि भाजित जगत श्रेणी प्रमाण होइ सो पूर्व सामान्य सर्वनारकोनि का परिमारण कहा, तामै घटाएं, जितने रहैं, तितने पहिली धम्मा पृथ्वी के नारकी जानने । इहां घटावनेरूप
राशिक असे करना ! सामान्य नारकीनि का प्रमाण विर्षे जगच्छ गणी गुण्य है। बहुरि घनांमुल का द्वितीय वर्गमूल गुणकार है, सो इस प्रमाण विर्षे जगच्छ णीमात्र घटावना होइ, तो गुरणकार का परिमारए में स्यों एक घटाइए तो जो जगच्छणी का बारह्वां वर्गमूल करि भाजित साधिक जगच्छ णीमात्र घटावना होइ, तौ गुणकार में स्यों कितना धटै, इहां प्रमाणराशि जगत श्रेणी, फलराशि एक, इच्छाराशि जगत श्रेणी का बारह्वां वर्गमूल करि. भाजित जगत श्रेणी, सो इहां फल करि इच्छा को गुणे प्रमाण का भाग दीएं साधिक एक का बारह्वां भाग जगत श्रेणी के वर्गमूल का भाग पाया । सो इतना धनांगुल का तीच वर्गमूल में स्यों घटाइ अवशेष करि जगत श्रेणी की गुण, धर्मा पृथ्वी के नारकीनि का प्रमाण हो हैं ।
आमैं तिर्यंच जीयां की संख्या दोय गाथा करि कहैं है--- संसारी पंचक्खा, तप्पुण्णा सिगदिहोणया कमसो। सामण्णा पंचिदी, पंचिदियपुष्णतेरिक्खा ॥१५॥
संसारिणः पंचाक्षाः, तत्यूर्णाः त्रिगतिहीनकाः क्रमशः ।
सामान्याः पंचेंद्रियाः, पंचेंद्रियपूर्णतरश्चाः ॥१५॥
टीका - संसारी जीवनि का जो परिमाण तीहिविर्षे नारकी, मनुष्य, देव इनि तीनौं गतिनि के जीवनि का परिमाण घटाएं, जो परिमाण रहै, तितने प्रमाण सर्व सामान्य तिर्यंच राशि जानने । बहुरि आगे इंद्विय मार्गरणाविर्षे जो सामान्य पंचेंद्रिय जीवनि का परिमारए कहिएगा, तामसौं नारकी, मनुष्य, देवनि का परिमाण घटाएं, पंचेंद्रिय तिर्यंचनि का प्रमाण हो हैं ।
___ बहुरि आग पर्याप्त पंचेंद्रियनि का प्रमाण कहिएगा, तामेस्यों पर्याप्त नारकी, मनुष्य, देवनि का परिमाण घटाएं, पंचेंद्रिय पर्याप्त तिर्यंचनि का परिमारण हो है।
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| गौमसार बौवकापड माथा १५६-१५७:१५८ छस्सयजोयरपकविहदजगपदर जोणिरणीण परिमाणं । पुण्णूणा पंचक्खा, तिरियअपज्जत्तपरिसंखा ॥१५६।।
षट्शतयोजनकृतिहतजगत्प्रतरं योनिमतीनां परिमाणं । .
पूर्णानाः पंचाक्षाः, तिर्यगपर्याप्तपरिसंख्या ॥ १५६ ॥
टीका - छस्से योजन के वर्ग का भाग जगत प्रतर कौं दीएं, जो परिमाण होइ, सो योनिमती द्रव्य तिर्यंचरणोनि का परिमाण जानना । छस्स योजन लंबा, छस्सै योजन चौड़ा, एक प्रदेश ऊंचा असा क्षेत्र विर्षे जितने आकाश प्रदेश होई, ताको भाग जगत प्रतर कौं देना, सो इनि योजननिकी प्रतरांगुल कीजिए, तब चौगुणा पएट्ठी कौं इक्यासी हजार कोडि करि गुरिणए, इतने प्रतरांगुल होइ तिनिका भाग जगत प्रतर कौं दीजिए, तब एक भाग प्रमाण द्रव्य तिर्यंचणी जामनीं । बहुरि पंचेंद्रिय तियंचनि का परिमारा विर्षे पंचेंद्रिय पर्याप्त तिर्यंचनि का प्रभार घटाएं, अवशेष अपर्याप्त पंचेंद्रियनि का परिमाण हो है ।
आगें मनुष्य गति के जीवनि की संख्या तीन गाथानि करि कहै हैं-- सेढी सूईअंगुलआदिमतदियपदभाजिदेगूणा । सामण्णमणुसरासी, पंचमकदिधणसमा पुण्णा ॥१५७॥
श्रेणी सूच्यंगुलादिमतृतीयपदभाजितकोना।
सामान्यमनुष्यराशिः, पंचमकृतिघनसमाः पूर्णाः ॥१५७।। टीका - जगतश्रेणी कौं सूच्यंगुल के प्रथम वर्गमूल का भाग दीजिए, जो परिमाण प्रावै, ताकी सूच्यंगुल का ततोय वर्ग मूल का भाग दीजिए, जो परिमाण पावै, तामें एक घटाएं, जितने अवशेष रहैं, तितने सामान्य. सर्व मनुष्य जानने । बहुरि द्विरूप वर्गधारा संबंधी पंचम वर्गस्थान बादाल है, ताका धन कीजिए; जितने होइ तितने पर्याप्त मनुष्य जानने । ते कितने हैं ? .--.
तल्लीनमधुगविमलं, धूमसिलागाविचोरभयभेरू । तटहरिखझसा होति.हु, माणुसपज्जत्तसंखंका ॥१५८॥
तल्लीनमधुगविमलं, घुमसिलागाविचोरभयमेरू । तटरिखझसा भवंति हि, मानुषपर्याप्तसंख्यांकाः ॥ ५४॥
REASONIA
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मध्याज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
टीका - इहां अक्षर संज्ञा करि वामभाग से अनुक्रम करि अंक कहैं हैं । सो प्रक्षर संज्ञा करि अंक कहने का सूत्र उक्त च कहिए है-पार्या
कटपयपुरस्थवर्ण वनक्षपंचाष्टकल्पितः क्रमशः ।
खरजनशून्यं संख्या मात्रौपरिमाक्षरं त्याज्यं ॥ याका अर्थ - ककार को आदि देकरि नव अक्षर, हिनिकरि अनुक्रम ते एक, दोय, तीन इत्यादिक अंक जानने । जैसे ककार लिख्या होइ, तहां एका जानना, खकार होइ तहां दुवा जानना । गकार लिख्या होइ तहां तीया जानना । जैसे ही झकार पर्यंत नव ताई अंक जानने । क ख ग घ ङ च छ ज झ । बहुरि जैसे ही टकार
ने आदि देकरि । नव अक्षरनि तें एक, दोय, तीन आदि नव . पर्यंत अंक जानने ट ठ ड ढ ण त थ द ध । बहुरि ऐसे ही पकारने आदि देकरि पंच अक्षरनि ते एक, दोय
मादि पंच अंक जानने । प फ ब भ म । बहुरि ऐसे ही यकार ने आदि देकरि अष्ट
अक्षरनि से एक आदि अष्ट पर्यंत अंक जानने । य र ल व श ष स ह । बहुरि जहां
प्रकार आदि स्वर लिखे हों वा नकार वा नकार लिख्या होइ, तहां बिंदी जानना । अहुरि अक्षर के जो मात्रा होइ तथा कोई ऊपरि अक्षर लिख्या होइ, तो उनका कछू प्रयोजन नाही लेना । सो इस सूत्र अपेक्षा इहां अक्षर संज्ञा करि अंक कहे हैं । आमें भी श्रुतज्ञानादि का वर्णन विषं ऐसे ही जानना। सो इहां त कहिए छह, ल कहिए तीन, ली कहिए तीन, न कहिए बिंदी, म कहिए पांच, धु कहिए नव, ग कहिए तीन, इत्यादि अनुक्रम में च्यारि, पांच, तीन, नव, पांच, सात, तीन, तीन, च्यारि, छह, दोय, च्यारि, एक, पांच, दोय, छह, एक, पाठ, दोय, दोय, नत्र, सात ए अंक जानने । 'अंकानां वामतो गतिः' तात ए अंक बाईं तरफ से लिखने । '७, ६२२८१६२, ११४२६४३, ३७५६३५४, ३६५०३३६' सो ए सात कोडाकोडि कोडाकोडि बागवे लाख अठाईस हजार एक सौ बासठि कोडा कोडि कोडि इकावन लाख नियालीस हजार छ सौ तियालीस कोडाकोडि संतीस लाख गुणसठि हजार तीन सौ चौबन कोडि गुणतालीस लाख पचास हजार तीन सौ छत्तीस पर्याप्त मनुष्य जानने । इनिके अंक दाहिणी तरफ सौं अक्षर संज्ञा करि अन्यत्र भी कहे हैं -
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३०६ 1
[ मोम्मटसार जीवकाण्ड गाया १५६
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साधरराजकोरेणांको भारतीविलोलसमधीः ।
मुणवर्गधर्मनिगलितसंख्यावन्मानवेषु वर्णक्रमाः ।। सो इहाँ सा कहिए सात, धू कहिए नव, र कहिए दोय, रा कहिए दोय, ज कहिए पाठ, की कहिए एक, तें कहिए छह, इत्यादि दक्षिण भाग ते अंक जानने ।
पज्जत्तमणुस्सारणं, तिचउत्थो माणुसीण परिमारणं। सामण्णा पूण्णणा, मणुवअपज्जत्तगा होति ॥१५॥
पर्याप्तमनुष्याणां, त्रिचतुर्थो मानुषीरण परिमारणं । सामान्याः पूर्योना, मानवा अपर्याप्तका भवति ॥१५९।।
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टीका -- पर्याप्त मनुष्यनि का प्रमाण कह्या, ताका च्यारि भाग कीजिए, तामें तीन भाग प्रमाण मनुषिणी द्रव्य स्त्री जाननी । बहुरि सामान्य मनुष्य राशि में स्यों पर्याप्त मनुष्यनि का परिमाण घटाएं, अवशेष अपर्याप्त मनुष्यनि का परिमाण हो है । इहां 'प्राङ्मानुषोत्सराम्मनुष्याः' इस सूत्र करि पैंतालीस लाख योजन व्यास धरै मनुष्य लोक है। ताका 'विक्खंभवम्गदहगुण' इत्यादि सूत्र करि एक कोडि बियालीस लाख तीस हजार दोय सै मुणचास योजन, एक कोश, सतरह से छयासठि धनुष, पांच अंगुल प्रमाण परिधि हो है। बहुरि याकौं व्यास की चौथाई ग्यारह लाख पचीस हजार योजन करि गुरणे, सोलह लाख नव से तीन कोडि छह लाख चौवन हजार छ सै एक योजन पर एक लाख योजन का दोय सं छप्पन भाग विर्षे उगणीस भाग इतना क्षेत्रफल हो है । बहुरि याके अंगुल करने सो एक योजन के सात लाख अडसठि हजार अंगुल हैं । सो वर्गराशि का गुणकार बर्गरूप होइ, इस न्याय करि सात लाख अडसठि हजार का वर्ग करि तिस क्षेत्रफल कौं गुर0 नब हजार च्यारि से बियालीस कोडाकोडि कोड़ि इक्यावन लास्त्र च्यारि हजार बब सै अडसठि कोडाकोडि उण बीस लाग्द तियालीस हजार च्यारि मैं कोडि प्रतरांगुल हैं । बहुरि ए प्रमारणांगुल हैं. सो इहां उत्सेधांगल न करने, 'जात चौथा काल की प्रादि विष वा उत्सर्पिणी काल का तीसरा काल का अन्तविर्षे वा विदेहादि क्षेत्र विष प्रात्सांगुल का भी प्रमाण प्रमाणांगुल के समान ही है । सो इनि प्रतरांगुलनि के प्रमाण तें भी पर्याप्त मनुष्य संख्यात गुणे हैं । तथापि प्राकाश की अवगाहन की विचित्रता जानि संदेह न करना।
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सम्यानचनिया भाषाटीका
प्राग देवगति के जीवनि की संख्या च्यारि गाथानि करि कहै हैं - तिण्णिसयजोयणाणं, बेसदछप्पण्णभंगुलाणं च । कदिहदपदरं वेंतर, जोइसियारणं च परिमाणं ॥१६०॥ त्रिशरयोजनामा द्विशतषट्पंचाशदंगुलानां च ।
कृतिहतप्रतरं व्यंसरज्योतिष्काणां च परिमाणम् ॥१६॥
टीका - तीन सै योजन के वर्ग का भाग जगत्प्रतर कौं दीएं, जो परिमाए होइ, तितना व्यंतरमि का प्रमाण जानना । तीन से योजन लंबा, तीन से योजन चौड़ा, एक प्रदेश ऊंचा ऐसा क्षेत्र का जितने आकाश का प्रदेश होइ, ताका भाग दीजिए, सो याका प्रतरांगुल कीएं, पैसठ हजार पांच से छत्तीस कौं इक्यासी हजार कोडि गुणां करिए इतने प्रतरांगुल होइ, तिनिका भाग जगत्प्रतर कौं दीए व्यंतरनि का प्रमाण होइ है।
बहुरि दोय से छप्पन अंगुल के वर्ग का भाग जगत्प्रतर कौं भाग दीएं, जो परिमाण धावै, लितना ज्योतिषोनि का परिमाण जानना । दोब सै छप्पन अंगुल चौड़ा इतना ही लम्बा एक प्रदेश ऊंचा, असा क्षेत्र का जितना आकाश का प्रदेश होइ ताका भाग दीजिए, सो याका प्रतरांगुल पंसठि हजार पांच से छत्तीस है । ताका भाग जगत्पतर कौं दीएं ज्योतिषी देवनि का परिमारग हो है ।
घणगुलपढमपर, सदियपदं सेढिसंगररां कमसो। . भवरणे सोहम्मबुगे, देवारणं होदि परिमारणं ॥१६१॥ धनांगुलप्रथापदं, तृतीयय श्रेणिसंगणं क्रमशः ।
भवने सौधर्मद्विके, देवानां भवति परिमाणम् ॥१६१॥ टीका - धनांगुल का जो प्रथम वर्गमूल, तिहिने जगत्त्रेणी करि गुणें, जो परिमाण होइ, तितने भवनवासीनि का परिमाण जानना ।
बहुरि घनांगुल का जो तृतीय वर्गमूल तिहिनें जगत्श्रेणी करि गुणें जो परिमारण होइ, तितने सौधर्म अरु ईशान स्वर्ग का वासी देवनि का परिमाण जानना ।
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=== Hindeभान्मारमा
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[ गोम्मटसार जीवकाच माया १६२-१६३ तत्तो एगारणवसगपणचउरिणयमूलभाजिदा सेढो । पल्लासंखेज्जबिमा, पत्तेयं पारणदादिसुरा' ॥१६२॥
लत एकादशनवसप्तपंचचतुनिअमूलभाषिता श्रेणी ।
पल्यासंख्यातकाः, प्रत्येकमानतादिसुराः ।। १६२ ॥ टोका -- बहुरि तहां ते ऊपरि सनत्कुमार-माहेंद्र, बहुरि ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, बहुरि लांतव - कापिष्ठ, शुक्र - महाशुक्र, बहुरि शतार - सहस्रार इनि पांच युगलनि विर्षे अनुक्रमते जगत्त्रेणी का ग्यारहवां, नवमां, सातवा, पांचवां, चौथा जो वर्गमूल, तिनिका भाग अगरणी की बोरं, जितना जितना परिमाण पावै, तितना-तितना तहां के वासी देवनि का प्रमाण जानना ।
बहुरि ता ऊपरि पानत-प्राणत युगल, बहुरि पारण-अच्युत युगल, बहुरि तीन अधोग्नेवेयक, तीन मध्य प्रवेयक, तीन उपरिम ग्रेवेयक, बहुरि नव अनुदिश विमान, बहुरि सर्वार्थसिद्धि विमान विना च्यारि अनुत्तर विमान इन एक-एक विर्षे देव पल्य के असंख्यातवै भाय प्रमाण जानने ।
तिगुणा सत्तगुणा बा, सन्वट्ठा माणुसीपमाणादो। सामण्णदेवरासी, जोइसियादो विसेसहिया ॥१६३॥ त्रिगुणा सप्तगुणा:वा, सर्वार्था, मानुषीप्रमाणतः ।
सामान्यदेवराशिः, ज्योतिष्कतो विशेषाधिकः ।।१६३॥ टीका - बहुरि सर्वार्थसिद्धि के वासी अहमिंद्र देव, मनुषिणोनि का जो परिमाण, पर्याप्त मनुष्यनि का च्यारि भाग में तीन भाग प्रमाण कहा था, तातै तिगुणा जानना। बहुरि कोई आचार्य का अभिप्रायले सात गुणा है । बहुरि ज्योतिषी देवनि का परिमारण विर्षे भवनवासी, कल्पवासी, देवनि का प्रमाण करि साधिक अंसा ज्योतिषी देवनि के संख्याल भाग, जो व्यंतर राशि, सो जोड़े, सर्व सामान्य देवनि का परिमारण हो है । इति श्री प्राचार्य नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विचित गोम्मटसारं द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीवतस्वप्रदीपिका नाम संस्कृतटीका के अनुसारि-इस सम्यानचन्द्रिका नामा भाषाटीका विर्ष प्ररूपित जे वीस प्ररूपरणा, तिनिवि गसिप्ररूपमा नामा छटा अधिकार संपूर्ण भया ॥६॥
--- CRORASARAL
१. पखंडागम - धवला पुस्तक ३, पृष्ठ १७, साया-१३ ।
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- सातता अधिकार : इन्द्रिय-मार्गणा-प्ररूपणा
॥ मंगलाचरण । लोकालोकप्रकाशकर, जगत पूज्य श्रीमान ।
सप्तम तीर्थकर नमौं, श्रीसुपार्श्व भगवान ।। अथ इंद्रियमार्गणा का प्रारंभ कर है। तहां प्रथम इंद्रिय शब्द का निरुक्ति
अहमिदा जह देश, अविसेसं अहमहति मण्णंता । ईसंति एक्कोक्क, इंदा इव इंदिये जाण ॥१६४॥ आहमिद्रा यथा देवा, प्रविशेषमहमहमिति मन्यमानाः ।
ईशते एककमिद्रा, इव इंद्रियारिण जानीहि ।।१६४।। टीका - जैसे वेबकादिक विष उपजे, असे अहमिंद्र देव; ते चाकर ठाकुर के (सेवक स्वामी के) भेद रहित 'मैं ही मैं हौ' ऐसे मानते संते, जुदे जुदे एक-एक होइ, प्राज्ञादिक करि पराधीनताते रहित होते संते, ईश्वरता कौं धरे हैं। प्रभाव को धरे हैं। स्वामीपना कौं धरै हैं। तैसे स्पर्शनादिक इंद्रिय भी अपने-अपने स्पादिविषय विर्षे ज्ञान उपजावने त्रिओं कोई किसी के प्राधीन नाहीं; जुदे-जुदे एक-एक इंद्रिय पर की अपेक्षा रहिता ईश्वरता कौं धरै हैं । प्रभाव को धरै हैं । तात अहमिद्रवत् इन्द्रिय हैं। असे समानतारूप निरुक्ति करि सिद्ध भया, असा इन्द्रिय शब्द का अर्थ कों हे शिष्य ! तू जानि ।
प्रागै इन्द्रियनि के भेद स्वरूप कहै हैं... : . सविनावरणखोवसमुत्थविसुद्धी हु तज्जबोहो वा। भाविवियं तु दववं, देहुइयज़देहविष्हं तु ॥१६॥
मत्यावरणक्षयोपशमोत्थविशुद्धिहि तज्जबोधो वा । .:. भार्वेद्रियं तु द्रव्यं, वेहोदयजदेहचिह्न तु ॥१६५।।
१. पोंडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १३५, गाथा ६५ ।
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३१० ]
| गोम्मटतार नीयकाण्ड मापा १६५
टोका - इंद्रिय दोय प्रकार हैं - एक भावेंद्रिय, एक द्रव्येद्रिय ।।
तहां लब्धि-उपयोगरूप लौ भावेंद्रिय है। तहां मतिज्ञानावरा के क्षयोपशम ते भई ओ विशुद्धता इंद्रियनि के जे विषय, तिनके जानने की शक्ति जीव के भई, सो ही है लक्षण जाका, सो लधि कहिए ।
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समाकलन ndandebasnetManInHAMAKALINE
बहुरि मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से निपज्या ज्ञान, विषय जानने का प्रवर्तनरूप सो, उपयोग कहिए । जैसे किसी जीव के सुनने की शक्ति है । परंतु उपयोग कहीं और जायगरं लगि रहा है, सो विना उपयोग किछु सुनै नाहीं। बहुरि कोऊ जान्या चाहै है अर क्षयोपशम शक्ति नाहीं, तो कैसे जाने ? ताले लब्धि पर उपयोग दोऊ मिलें विषय का ज्ञान होइ । ताते इनिकौं भावेंद्रिय कहिए ।
भाव कहिए चेतना परिणाम, तीहिस्वरूप जो इंद्रिय, सी भावेंद्रिय कहिए ।
जाते इंद्र जो प्रात्मा, साका जो लिंग कहिए चिह्न, सो इंद्रिय है। अंसी निरुक्ति करि भी सब्धि-उपयोगरूप भावेंद्रिय का ही दृढपना हो है।
बहुरि निर्वृत्ति अर उपकरण रूप द्रव्येद्रिय है । तहां जिनि प्रदेशनि करि विषयनि कौं जानें, सो निर्वत्ति कहिए । बहरि वाके सहकारी निकटवर्ती जे होइ, तिनिकौं उपकरण कहिए । सो जातिनामा नामकर्म के उदय सहित शरीरनामा नामकर्म के उदयतें निपज्या जो निर्वृत्ति-उपकरणरूप देह का चिह्न, एकेंद्रियादिक का शरीर का यथायोग्य अपने-अपने ठिकाने आकार का प्रकट करनहारा पुद्गल द्रव्यस्वरूप इंद्रिय, सो द्रव्येद्रिय है। जैसे इंद्रिय द्रव्य-भाव भेद करि दोय प्रकार है । तहाँ लब्धि-उपयोग भावेंद्रिय है।
तहां विषय के ग्रहण करने की शक्ति, सो लब्धि है । अर विषय के ग्रहणरूप व्यापार, सो उपयोग है।
अब इंद्रिय शब्द की निरुक्ति करि लक्षण कहै हैं--
'प्रत्यक्षनिरतानि इंद्रियारिख अक्ष कहिए इन्द्रिय, सो अक्ष अक्ष प्रति जो प्रवर्त, सो प्रत्यक्ष कहिए । असा प्रत्यक्षरूप विषय अथवा इंद्रिय ज्ञान तिहि विर्षे निरतानि कहिए व्यापार रूप प्रवते, ते इंद्रिय है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाघाटोका !
दुहां तक - जो इस लक्षण विर्षे विशेष के प्रभाव ते तिन इंद्रियनि के संकर व्यतिकररूप करि प्रवृत्ति प्राप्त होय; जो परस्पर इंद्रियनि का स्वभाव मिलि जाय, सो संकर कहिए । अपने स्वभावते जुदापना का होना, सो व्यतिकर कहिए ।
तही ताणान - जो इहा 'प्रत्यक्ष नियमिते रतानि इंद्रियारिण' अपने-अपने नियमरूप प्रत्यक्ष विर्षे जे रत, ते इंद्रिय हैं, असा लक्षण का प्रतिपादन है। ताते नियमरूप कहने करि अपना-अपना विशेष का ग्रहण भया । अथवा संकर व्यतिकर दोष निवारण के अथि 'स्वविषनिरतानि इंद्रियारिस' स्वविषय कहिए अपना-अपना विषय, तिहि विर्षे 'नि' कहिए निश्चय करि-निर्णय करि रतानि कहिए प्रवते, ते इंद्रिय हैं, असा कहना।
इहां तर्क - जो संशय, विपर्यय विर्षे निर्णयरूप रत नाहीं है । तातें इस लक्षण करि संशय, विपर्ययरूप विषय ग्रहण विर्षे प्रात्मा के अतींद्रियपना होइ ।
तहाँ समाधान - जो रूदि के बल तें निर्णय विर्षे वा संशय विपर्यय विर्षे दोऊ जायगा तिस लक्षण को प्रवृत्ति का विरोध नाहीं। जैसे 'गच्छतीति गौ' गमन कर, ताहि गो कहिए; सो समभिरुद्ध-नय करि गमन करते वा शयनादि करतें भी गो कहिए । तैसे इहां भी जानना । अथवा 'स्ववृत्तिनिरतानि इंद्रियाणि' स्ववृत्ति कहिए संशय, विपर्यय रूप वा निर्णय रूप अपना प्रवर्तन, तीहि विष निरतानि कहिये व्यापार रूप प्रवर्ते, ते इंद्रिय हैं; असा लक्षण कहना।
इहां तर्क -- जो अंसा लक्षण कीएं अपने विषय का ग्रहण रूप व्यापार विर्षे जब न प्रवर्तं, तीहि अवस्था विष प्रतींद्रियपना कहना होइ ।
तहां समाधान - असे नाही, जातें पूर्व ही उत्तर दीया है । रूहि करि विषय-ग्रहण व्यापार होते वा न होते पूर्वोक्त लक्षण संभ है । अथवा 'स्वार्थनिरतानि इंद्रियारिण' अर्यते कहिए जानिए, सो अर्थ, सो अपने विर्षे वा विषयरूप अर्थ विर्षे जे निरत, ते इंद्रिय हैं । सो इस लक्षण विधं कोऊ दोष नाही; तातै इहां किछु तर्क रूप कहना ही नाहीं। अथवा 'ईवनात् इंद्रियारिस' इंदनात् कहिए स्वामीपनां तं इंद्रिय हैं । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द इनिका जाननेरूप ज्ञान का प्रावरणभूत जे कर्म, तिनिका क्षयोपशमते अपना-अपना विषय जाननेरूप स्वामित्व कौं धरै द्रव्येद्रिय है कारण जिनिका. ते इंद्रिय हैं । असा अर्थ जानना । उक्तं च
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३१२]
[ मोम्मटसार जीवकाण्ड गामा १६६
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यदिबस्यात्मनो लिगं पदि केंद्रेण कर्मरगा ।
सृष्टं जुष्टं तथा दृष्टं दत्तं चेति तदिद्रियम् ।। याका अर्थ - इन्द्र को है पाल्पा, जामा रिह मोगाद्रित है। अथवा इन्द्र जो कर्म, ताकरि निपज्या वा सेवा वा तैसे देख्या,वा दीया, सो इन्द्रिय है ।
मलविद्धमरिणव्यक्तिर्यथानेकप्रकारतः !
कर्मविद्वात्मविज्ञप्तिस्तथानेकप्रकारतः ।। याका अर्थ - जैसे मल संयुक्त मरिण की व्यक्ति अनेक प्रकार से हो है । जैसे, कर्म संयुक्त आत्मा की जानने रूप क्रिया अनेक प्रकारते होय है-असे इंद्रियः शन्द की निरुक्ति का अनेक प्रकार करि वर्णन कीया। बहुरि तिनि इंद्रियनि विर्षे निर्वत्ति दोय प्रकार -- अभ्यतर, बाह्य ।
तहां जो निज-निज इंद्रियावरण को क्षयोपशमता की विशेषता लीएं प्रात्मा के प्रदेशनि का संस्थान, सो अभ्यंतर-निवृत्ति है।
बहुरि तिस ही क्षेत्र विर्षे जो शरीर के प्रदेशनि का संस्थान, सो बाह्यनिर्वृत्ति है।
बहुरि उपकरण भी दोय प्रकार है -- अभ्यंतर, वाहा ।
तहां इन्द्रिय पर्याप्ति करि आई जो नो-कम वर्गणा. तिनिका स्कंघरूप जो स्पर्शादिविषय ज्ञान की सहकारी होइ, सो तौः अभ्यंतर-उपकरण है। पर ताके प्राश्रयभूत जो चामडी आदि, सों बाह्य-उपकरण है । अंसा विशेष जानना ।
आगे इनि इन्द्रियनि करि संयुक्त जीवनि का कहैं हैं - फासरसगंधरूवे, सद्दे रणारणं च चिण्हयं जेसि । इगिबितिचदुपचिदिय, जीवा णियभेयभिष्मा प्रो ॥१६६॥ स्पर्शरसगंधरूपे, शब्दे ज्ञानं च विलकं येषाम् । एकदित्रिचतुःपंद्रियजीदाः निजभेदभिन्ना ओः ॥१६६५
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१. 'प्रो' इति शिष्धसंबोकनार्थ प्राकृते पम्पयम् । म.प्र.
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सम्यानचन्द्रिका भाषाका ]
टोका - जिनि जीवनि का स्पर्श विर्षे ज्ञान है, असा चिह्न होइ, ते एकेंद्रिय हैं । बहरि जिनिका स्पर्श अर रस विषे ज्ञान है, असा चिह्न होइ ते जीव द्वींद्रिय हैं । बहुरि जिनिका स्पर्श, रस, गंध विष ज्ञान है, असा चिह्न होइ, ते जीव तेइन्द्रिय हैं। बहरि जिनिका स्पर्श, रस, गंध, वर्ण विज्ञान है; असा चिह्न होइ, ते जीव चतुरिंद्रिय हैं । बहुरि जिनिका स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द विर्षे ज्ञान है, असा चिह्न होइ, ते. जीव पंचेंद्रिय हैं । ते सर्व जीव अपने-अपने भेद करि जुदे हैं -- ऐसे जानने ।
आमैं एकेंद्रियादिक जीवनि के केती-केती इंद्री संभव हैं, सों कहै हैंए इंदियस्स फुसरणं, एक्कं वि य होदि सेसजीवाणं । होति कमउड्डियाई, जिन्भाधाणच्छिसोत्ताई ॥१६७॥
एफेंद्रियस्य स्पर्शनमेकमपि च भवति शेषजीवानां ।
भवंति क्रमधितानि, जिहाघ्राणाक्षिश्रोत्राणि ।।१६७॥ टोका - इंद्रिय पंच हैं। सिनि विर्षे सर्व शरीर कौं स्पर्शन कहिए । जिह्वा कौं रसना कहिए, नासिका कौं धारण कहिए, नेत्र कौं चक्षु कहिए, कर्ण की श्रोत्र काहिए। .
___ तहां एकेद्रिय जीव के एक स्पर्शन इंद्री ही है। बहुरि अवशेष जीवनि के एक-एक बधता इन्द्रिय अनुक्रमतें जानने । सो बेइंद्री के रसना इंद्री बध्या, तेइंद्री के प्राण इंद्री बध्या, चतुरिद्रिय के चक्षु इन्द्रिय बध्या, पंचेंद्रिय के श्रोत्र इंद्रिय बध्या। जाते एक है इन्द्रिय जिनिक, ते जीव एकैद्रिय हैं । दोय हैं इन्द्रिय जिनिक, ते द्वींद्रिय हैं । तीन हैं इन्द्रिय जिनिकै, ते त्रींद्रिय हैं । च्यारि हैं इन्द्रिय जिनके, ते चतुरिद्रिय हैं। पांच हैं इन्द्रिय जिनके, ते पंचेंद्रिय हैं । ऐसे निरुक्ति हो है ।
पार्टी स्पर्शनादि इन्द्रियनि के विषयभूत क्षेत्र का परिमारण कहै हैं -- धणवीसउदसयकदी, जोयणछादालहीरगतिसहस्सा। अट्ठसहस्स धणूरणं, विसया बुगुणा असणिण त्ति ॥१६॥
धनुर्विशत्यष्टदशककृतिः योजनषट्चत्वारिशमानसिंहस्राणि । अष्टसहस्र धनुषा, विषया द्विगुरणा असंझीति ।। १६८ ॥
१. पट्खंगाम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ २६१, माथा १४२ ।
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[ गोम्मटसार काण्ड गस्या १६६
टीका - एकेंद्रिय जीव के स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का क्षेत्र, बीस की कृति (वर्ग) च्यारि से धनुष प्रमाण जानना । बहुरि बेइन्द्रियादिक श्रसैनी पंचेंद्रिय पर्यंत के दु-दूर जानना, सो द्वींद्रिय के आठ से धनुष । वींद्रिय के सोला से धनुष । चतुरिद्रय बत्तीस से धनुष । असैनी पंचेंद्रिय के चीसठि से धनुष - स्पर्शन इंन्द्रिय का विषय क्षेत्र जानना । इतना इतना क्षेत्र पर्यंत विष्ठता जो स्पर्शनरूप विषय ताक जानें |
बहुरि द्वींद्रिय जीव के रसमा इन्द्रिय का विषय क्षेत्र, प्राठ की कृति चौसठ धनुष प्रसारण जानना । आगे दुणां-दुणा, सो तेइन्द्रिय के एक सौ प्रठाईस घतुष । चतुरिद्रिय के दोय से छप्पन धनुष । श्रसैनी पंचेंद्रिय कैं पांच से बारा धनुष - रसना इंद्रिय का विषयभूत क्षेत्र का परिमारण जानना ।
बहुरि ते इन्द्रिय के घाण इन्द्रिय का विषयभूत क्षेत्र दश की कृति, सौ धनुष प्रमाण जाना | आयें दूर-दूर्गा सो, चौइंद्री के दोय से धनुष । असैनी पंचेंद्रिय कें च्यारि से धनुष । घ्राण इन्द्रिय का विषयभूत क्षेत्र का प्रमाण जानना ।
afrat इन्द्रिय नेत्र इन्द्रिय का विषय क्षेत्र छियालीस घाटि तीन हजार योजन जानना । यातें दुर्गा पांच हजार नौ से आठ योजन असेनी पंचेंद्रिय के नेत्र इन्द्रिय का विषयभूत क्षेत्र जानना । बहुरि असैनी पंचेंद्रिय के श्रोत्र इन्द्रिय का विषय क्षेत्र का परिमाण ग्राठ हजार धनुष प्रमाण जानना ।
सणिस्स बार सोदे, तिन्हं णव जोयशागि चक्छुस्स । सत्तासहस्सा बेसदतेसट्ठिमदिरेया ॥ १६६ ॥
संज्ञिनो द्वादश धोत्रे, त्रयाणां नव योजनानि चक्षुषः । सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्विशतत्रिषष्ट्यतिरेकासि ॥। १६९ ।।
टोका - सैनी पंचेंद्रिय के स्पर्शन, रसना, वारा इनि तीनो इन्द्रियनि का नवनत्र योजन विषय क्षेत्र है । बहुरि नेत्र इन्द्रिय का विषय क्षेत्र सैतालीस हजार दोघं संतरेसठ योजन, बहुरि सात योजन का बोस भागकर अधिक है । बहुरि श्रोत्र इन्द्रिय का विषयक्षेत्र बारह योजन है !.
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सपना भावाटीका ]
तिण्णिसयसट्ठिविरहिब, लक्खं दशमूलताडिदे मूलं । raगुणि सट्ठिहिये, चक्खुप्फासस्स श्रद्धासं ॥ १७० ॥
त्रिशतवष्टिविरहितलक्षं दशमूलताडिते मूलम् । नवगुपिते षष्टिते, चक्षुःस्पर्शस्य अध्वा ॥ १७०१:
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टीका - सूर्य का वार ( भ्रमण ) क्षेत्र पांच से बारा योजन चौड़ा है, ता एक से अस्सी योजन तो जंबूद्वीप विषे है । पर तीन से बत्तीस योजन लवण समुद्र विष है । सो अब सूर्य श्रावण मास कर्कसंक्रांति विषै अभ्यंतर परिधि विषे आये, तब जंबूद्वीप का अन्त सौ एक सीं अस्सी योजन उरे भ्रमण करें है, सो इस अभ्यंतर परिधि का प्रमाण कहे हैं लाख योजन जंबुद्वीप का व्यास में सौं दोनों तरफ का चार क्षेत्र का परिमाण तीन से साठि योजन घटाया, तब निन्याराव हजार छ से व्यालीस योजन व्यास रह्या । याका परिधि के निमित्त 'विक्संभवगदहगुण' इत्यादि सूत्र अनुसारि याका वर्ग करि ताकौं दश गुणा कहिए, पीछे जो परिमाण होइ, ताका वर्गमूल ग्रहरण कीजिए, यों करते तीन लाख पन्द्रह हजार निवासी योजन प्रमाण या परिधि भया, सो दोय सूर्यनि की अपेक्षा साठि मुहूर्त में इतने क्षेत्र विषै भ्रमण होइ, तो अभ्यंतर परिधि विष दिन का प्रमाण अठारह मुहूर्त, सो मध्याह्न समय सूर्य मध्य वै तब अयोध्या की बराबर होइ; ताते नौ मुहूर्त मैं कितने क्षेत्र में भ्रमण होइ, सें त्रैराशिक करना । इहां प्रमाणराशि साठि ( ६० ), फलराशि (३ १५,०८१), इच्छाराशि स्थापि, उस परिधि के प्रमाण को नौ करि गुणे, साठि का भाग दीजिए, तहां लब्ध प्रमाण संतालीस हजार दोय से सठि योजन अर सात योजन का बीसवां भाग इतना चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र जानना ।
भावार्थ याका यह है - जो अयोध्या का चक्री सूर्य कौं इहातें पूर्वोक्त प्रमाण योजन पर देखें है । उत्कृष्ट विषय क्षेत्र का हैं ।
अभ्यंतर परिधि विषै तिष्ठता तातें इतना चक्षु इन्द्रिय का
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३१६ ]
! गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा : १७१
एकेंद्रियादि पंचेंद्रिय जीवनि के स्पर्शनादि इन्द्रियनि के उत्कृष्ट विषय ज्ञान का यंत्र
इंद्रियनि के नाम एवद्रिय द्रींद्रिय श्रीट्रिय
०
स्पर्शन
रसन
प्राण
चक्षु
श्रोत्र
धनुध । धनुष
४००
o
८००
૪
धनुड
१६००
१२८
चतुरि
"वनुष योजन
०
३२००
१ २५६
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मैं इन्द्रियनि का आकार कहै हैं-
ara सोदं धारणं, जिन्भायारं मसूरजवणाली । अतिमुत्तखुरण्पसमं, फास तु अरणेयसंठारणं ॥ १७१ ॥
संज्ञी पंचेंद्रिय
चक्षुःश्रोत्रप्राखजिह्वाकारं मसूरथवनात्यः ।
अतिमुक्तक्षुरप्रसमं, स्पर्शनं तु अनेकसंस्थानम् ॥ १७१॥
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टीका :- चक्षु इंद्री तौ मसूर की दालि का आकार है । बहुरि श्रोत्रः इन्द्री
जब की जो नाली, तहिके आकार है । बहुरि घ्राण इन्द्रिय अतिमुक्तक जो कदंब का फूल, ताके आकार है । बहुरि जिल्ह्वा इन्द्रिय खुरपा के आकार है । बहुरि स्पर्शन इन्द्रिय अनेक प्रकार है, जाते पृथ्वी यादि वा बेंद्री आदि जीवन का शरीर का आकार अनेक प्रकार हैं । ताते स्पर्शन इन्द्रिय का भी आकार अनेक प्रकार कह्या, जातै स्पर्शन इन्द्रिय सर्व शरीर विषै व्याप्त है ।
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सभ्यतान्त्रिका भाषाटीका 1
... प्राण निर्वतिरूप द्रव्येद्रिय स्पर्शनादिकनि का प्राकार कहा, सो कितने-कितने क्षेत्र प्रदेश कौं रोक-पैसा अवगाहना का प्रमाण कहै हैं -
अंगुलअसंखभाग, संखेज्जगणं, तवो विसेसहियं । तत्तो असंखगुणिदं, अंगुलसंखेज्जयं तत्तु ॥१७२॥
अंगुलासंख्यभामं, संख्यातगुणं ततो विशेषाधिकः ।
ततोऽसंख्यगुणितमंगलसंख्यातं तत्तु ॥ १७२ ।। टीका - घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण प्राकाश प्रदेशनि कौं चक्षु इन्द्रिय रोके है । सो घनांगुल कौं पल्याका असंख्यातवां भाग करि तौ गुरणीए अर एक अधिक पल्य का असंख्यातवा भाग का. अर दोय वार संख्यात का अर. पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिये, जो प्रमाण प्रावै, तितना चक्षु इन्द्रिय की अवगाहना है । बहुरि यात संख्यातमुरणा श्रोत्र इन्द्रिग्स की अवगाहना है । यहां इस गुणकार करि एक बार संख्यात के भागहार का अपवर्तन करना । बहुरि याको पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीएं, जो परिमाण प्रावे, तितना उस ही श्रोत्रइंद्रिय की अवगाहना विर्षे मिलाए, प्राण इन्द्रिय की अवगाहना होइ । सो इहां इस अधिक प्रमाण करि एक अधिक पल्य का असंख्यातवा भाग का भागहार पर पल्य का असंख्यातवां भाग गणकार का अपवर्तन करना। बहुरि याकी पल्य का असंख्यातवां भाग करि गरणीए, तब जिह्वा इन्द्रिय की अवगाहना होइ। इस गुणकार करि पल्य का असंख्यातवां भागहार का अपवर्तन करना । ऐसें यह जिह्वा इन्द्रिय की अवगाहना धनांगुल के संख्यात वे भाग मात्र जानना ।
प्रागै स्पर्शन इन्द्रिय के प्रदेशनि को अवगाहना का प्रमाण कहै हैं - सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जावस्त तदियसमयहिह्म । अगुलअसंखभागं, जहष्णमुक्कस्सयं मध्छे ॥१३॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य तृतीयसमये ।
अंगुलासंख्घभाग, जघन्यमुत्कृष्टकं मत्स्ये ॥१७३॥ टोका - स्पर्शन इन्द्रिय को जघन्य अवगाहना सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपप्तिक के उपजन ते तीसरा समय विर्ष जो जघन्य शरीर का अवगाहना. धनांगुल के
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। गोम्मटसार जीवकाण्ड गायर १७४-५७५
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असल्यात भाग मात्र हो है. सोइ है । बहुरि उत्कृष्ट प्रवगाहना स्वयंभू रमण समुद्र विषे महामच्छ का उन्लष्ट शरीर संतान घनांगल मात्र हो दै. सगे है -
प्रागै इन्द्रियज्ञानवाले जीवनि कौं कहि । अब अतींद्रिय ज्ञानबाले जीवनि का निरूपण करैं हैं -
ण वि इंदियकरणजुदा, अवगहादीहि गाहया अत्थे। रणेव य इंदियसोक्खा, अणिदियारणंतरणारगसुहा' ॥१७४॥
नापि इंद्रियकरणयुता, अवग्रहादिभिः ग्राहकाः अर्थे ।
नैव च इंद्रियसौख्या, अनिद्रियानंतज्ञानसुखाः ।।१७४॥ टोका - जे जीव नियम करि इन्द्रियनि के करण भोहैं टिमकारना आदि व्यापार, तिनिकरि संयुक्त नाहीं हैं; ताते ही अवग्रहादिक क्षयोपशम ज्ञान करि पदार्थ का ग्रहण न करें हैं । बहुरि इन्द्रियजनित विषय संबंध करि निपज्या सुख, तिहिकरि संयुक्त नाहीं हैं, ते अर्हत वा सिद्ध अतींद्रिय अनंत ज्ञान वा अतींद्रिय अनंत सुखकरि विराजमान जानने; जाते तिनिका ज्ञान अर सुख सो शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि तें उत्पन्न भया है।
प्रागै एकेद्रियादि जीवनि की सामान्यपन संख्या कहै हैं - थावरसंखपिपीलिय, भमरमणुस्सादिगा सभेदा जे । जुगवारमसंखेज्जा, रवंतारणता जिगोदभवा ॥१७॥
स्थावरशंखपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिका सभेदा थे।
युगवारमसंख्येया, अनंतानंता निगोदभवाः ।।१७५॥ टोका - स्थावर जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पती ए - पंच प्रकार तो एकेंद्री । बहुरि संख, कौडी, लट इत्यादि केंद्री। बहुरि कीडी, मकोडा इत्यादि तेंद्री। बहुरि भ्रमर, माखी, पतंग इत्यादि ची इन्द्री । बहुरि मनुष्य, देव, नारकी पर जल वरादि तिर्यंच, ते पंचेंद्री । ए जुदे-जुदे एक-एक असंख्यातासंख्यात प्रमाण हैं। बहुरि निगोदिया जो साधारण वनस्पती रूप एकेंद्री ते अनंतानंत हैं ।
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. १. षट्खंडागम - धबला पुस्तक १, पृष्ठ २५१, गाथा १४० ।
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सम्यानद्रिका भावाटीका ।
प्रागें विशेष संख्या कहै हैं । तहां प्रथम ही एकेंद्रिय जीवनि की संख्या कहै
तसहीरणो संसारी, एयक्खा ताण संखगा भागा। पुण्णारणं परिमारणं, संखज्जदिन अपुण्णारणं ॥१७६॥
सहीनाः संसारिणः, एकाक्षाः तेषां संख्यका भागाः ।
पूर्णानां परिमाणं, संख्येयकमपूर्णानाम् ॥ १७६ ॥ . टीका - सर्व जीव-राशि प्रमाण मैं स्यौं सिद्धनि का प्रमाण घटाए, संसारीराशि होइ । सोइ संसारी जीवनि का परिमाण मैं स्वौं त्रस जीवनि का परिमारण घटाएं, एकद्रिय जीवनि का परिमारण हो है । बहुरि तीहि एकोद्रिय जीवनि का परिमाण कौं संख्यात का भाग दीजिये, तामैं एक भाग प्रमाण तौ अपर्याप्त एकेंद्रियनि का परिमाण है । बहुरि अवशेष बहुभाग प्रमाण पर्याप्त एकेंद्रियनि का परिमाण है ।
आमैं एकेंद्रियनि के भेदनि की संख्या का विशेष कहै हैं - बादरसहमा तेसिं पुण्णापुण्णे ति छविहारणं पि । तस्कायमग्गरगाये, भणिज्जमारपक्कमो रगयो ।।१७७॥
बावरसूक्ष्मास्तेषा, पूर्णापूर्ण इति घडविधानामपि ।
तत्कायमार्गरणायां, भणिष्यमारणक्रमो शेयः ।।१७७।।
टीका -- सामान्य एकेंद्रिय राशि के बादर पर सूक्ष्म ए दोय भेद । बहुरि एक-एक भेद के पर्याप्त - अपर्याप्त ए दोय-झोय भेद -- असे च्यारि भए; तिनिका परिमारण आगें कायमार्गरणा विर्षे कहिएगा, सो अनुक्रम जानना सो कहिए हैं । सामान्य पनै एकेंद्रिय का जो परिमाण, ताकौं असंख्यात लोक का भाग. दीजिए, तामें एक भाग प्रमाण तो बादर एकद्रिय जानने । पर अवशेष बहभाग प्रमाण सूक्ष्म एकेद्रिय जानने । बहुरि बादर एकेंद्रियनिक परिमाण कौं असंख्यात लोक का भाग दीजिए। तामें एक भाग प्रमाण तो पर्याप्त हैं। अर अवशेष बहुभाग प्रमाण अपर्याप्त हैं । बहुरि सूक्ष्म एकेंद्रिय का परिमारण कौं संख्यात का भाग दीजिए, तामै एक भाग प्रमाण तो अपर्याप्त हैं । बहुरि अवशेष भाग प्रमाण पर्याप्त हैं । बादर विर्षे तौं पर्याप्त थोरे हैं; अपर्याप्त धने हैं । बहुरि सूक्ष्म विर्षे पर्याप्त धने हैं, अपर्याप्त थोरे हैं; असा भेद जानना।
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। एका ८.१७४ आगे स जीवनि की संख्या तीन माथानि करि कहै हैं
बितिचपमारणमसंखेगवहिदपदरंगुलेरण हिपदरं । होगकम पडिभागो, आवलियासंखभागो दु॥१७८॥ द्वित्रिचतुः पंचमानमसंख्येनावहितप्रतरांगुलेनहितंप्रतरम् ।
हीनक्रमं प्रतिभाग, प्रावलिकासंख्यभागस्तु ॥१७८॥ .
ढोका - द्वींद्रिय, त्रौंद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय - इनि सर्व सनि का मिलाया हुवा प्रमाण, प्रतरांगुल कौं असंख्यात का भाग दीजिए, जो प्रमाण आवे, तावा भाग जगत्तर कौं दीएं यों करते जितना होइ, तितना जानना । इहां द्वींद्रिय राशि का प्रमाण सर्वते अधिक है। बहुरि तातें श्रींद्रिय विशेष घाटि है । तातें चौंद्रिय विशेष घाटि है । सातै पंचेंद्रिय दिशेष घाटि है, सो घाटि कितने-कितने हैं - असा विशेष का प्रमाण जानने के निमित्त भागहार पर भागहार का भागहार पावली का प्रसंख्यातवां भाग मात्र जानना ।
सो भागहार का अनुक्रम कैसे हैं ? सो कहिये हैं---
बहुभागे समभागो, चउण्णमेदोसिमेक्कभागसि । उत्तकमो तत्थ वि बहुभागो बहुगस्स देओ दु ॥१७६॥
बहुभागे समभागश्चतुमितेषामेकमागे ।
उक्तकलस्तत्रापि बहुभामो बहुकस्य देयस्तु ।।१७९॥ टीका - स जीवनि का जो परिमाण कहा, तीहिन पावली का असंख्यातवां भाग का भाम दीजिये। तामै एक भाग तौ जुदा राखिये अर जे अवशेष बहू माग रहे, तिनिके च्यारि वट (बटवारा) कीजिये, सो एक-एक वट द्वींद्रिय, श्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रियनि कौं बरोबरि दीजिये। बहुरि जो एक भाग जुदा राख्या था, ताको प्रावली का असंख्यातवां भाग कौं भाग दीजिये । तामैं एक भाग तो जुदा राखिए अर अवशेष बहुभाग द्वींद्रियनि कौं दीजिये । जाते सर्व विषं बहुत प्रमाण वींद्रिय का है । बहुरि जो एक भाग जुदा राख्या था, ताकी बहुरि भावली का असंख्यातथा भाग का भाग दीजिए। तामें एक भाग तो जुदा रखिये, बहुरि अवशेष भाग ते-इंद्रियनि कौं दीजिए । बहुरि जो एक भाग जुदा राख्या था, तार्को बहुरि अविली
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যানগ্নিকা মাথায় ?
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का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिये । तामें बहु भाग तो चौंइंद्रियनि की दीजिए। अर एक भाग पंचेंद्रिय की दीजिए । असें दीएं हूवे परिमाण कहैं से नीचें स्थापिए । बहरि पूर्व जे बराबरि च्यारि बट किए थे, तिनिकों ऊपरि स्थापिए । बहुरि अपनेअपने नीचे ऊपरि के परिमारण कौं मिलाएं, द्वींद्रियादि जीवनि का परिमाण हो है।
तिबिपचपुण्रण पमारणं, पदरंगुलसंखभागहिदपदरं । होणकम पुष्णूणा, बितिचपजीवा अपज्जत्ता ॥१८०॥ विद्विपंचचतुः पूर्णप्रमाणं, प्रतरांगुलासंख्यभागहितप्रतरम् ।
होनम पूर्णोना, द्वित्रिचतुः पंचजीया · अपर्याप्ताः ।।१०। ।
टीका - बहुरि पर्याप्त सजीव प्रतरांगुल का संख्यातवां भाग का भाग जगत्प्रतर कौं दीएं, जो परिमाण पावै, तितने हैं, तिनि विर्षे बने तो तेइंद्रिय हैं । तीहिस्यों घाटि द्वींद्रिय हैं। तिहिस्यों घाटि पंचेंद्रिय हैं । तिहिसौं घाटि चौइंद्रिय हैं, सो इहां भी पूर्वोक्त 'बहुभागे समभागो' इत्यादि सूत्रोक्त प्रकार करि सामान्य पर्याप्त अस-राशि कौं प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग देइ, एक भाग जुदा राखि अवशेष बहुभागनि के च्यारि समान भाग करि, एक-एक भाग तेंद्री, बेंद्री, पंचेंद्री, चौद्रीनि की दैनां । बहुरि सिसं एक भांग कौं भागहार प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग देइ, एक भाग जुदा राखि, बहुभाग तेइंद्रियनि कौं देना । बहुरि तिस एक भाग कौं भागहार का भाग देइ, एक भाग जुदा राखि, बहुभाग द्वींद्रियनि की दैनां । बहुरि तिस एक भाग कौं भागहार का भाग देइ, एक भाग जुदा सखि, बहुभाग पंचेद्रियनि देना । पर एक भाग चौइंद्रियनि की देना । जैसे अपना-अपना समभाग ऊपरि स्थापि, देय भाग नीचे स्थापि, जोडे, तेंद्रीं आदि पर्याप्त जीवनि का प्रमाण हो है । बहुरि पूर्वै जो सामान्यप, बेइंद्रिय अादि जीवनि का प्रमाण कह्या था, तामें सौं इहां कहा जो अपना-अपना पर्याप्त का परिमाण सो घटाय दीएं, अपनांअपना, बेंद्री प्रादि पंचेंद्री पर्यंत अपर्याप्त जीवनि का परिमारण हो है । सो अपर्याप्तनि विः धने तो बेइंद्रिय, तिहिस्यों धाटि तेइंद्रिय, तिहिंसौं घाटि चौइंद्रिय, तिहिंसौं घाटि पंचेंद्रिय हैं-असे इनिका परीमारण का
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आठवां अधिकार : काय-मार्गणा प्ररूपणा
मंगलाचरण ॥
चंद्रप्रभ जिन को भजौं चंद्रकोटि सम जोति ।
जाके केवल लब्धि नव समवसरस जुत होति ।। अथ काय-मार्गणा कौं कहै हैं -
जाई अविणाभावी, तसथावरउवयजो हवे काओ। सो जिरणमदह्मि भरिणओ, पुढवीकायादिछठभेश्रो ॥१८१॥
मात्यविनाभाविप्रसस्थावरोदयजो भवेत्कायः ।
स जिनमसे भसितः, पृथ्वीकायादिषड्भेदः ॥१८१॥ टीका - एकद्रियादिक जाति नामा नामकर्म का उदय सहित जो अ-स्थावर मामा नामकर्म का उदय करि निपज्या स-स्थावर पर्याय जीव के होइ, सो काय कहिए । सो काय छह प्रकार जिनमत विर्षे कह्या है । पृथ्वीकाय १, अपकाय २, तेजकाय ३, वायुकाय ४, वनस्पतीकाय ५, सकाय ६-ए छ भेद जानना ।
कायते कहिए ए वस हैं, ए स्थावरहै, असा कहिए, सो काय जानना । तहां जो भयादिक तें उद्वेगरूप होइ भागना आदि क्रिया संयुक्त हो है, सो वस कहिए । बहुरि जो भयादिक आए स्थिति क्रिया युक्त होइ, सो स्थावर कहिए । अथवा बीयते कहिए पुद्गल स्कंधनि करि संचयरूप कीजिये, पुष्टता को प्राप्त कीजिए, सो काय औदारिकादि शरीर का नाम काय है। बहुरि काय विर्षे तिष्ठता जो प्रात्मा की पर्याय, ताकी भी उपचार करि काय कहिए । जाते जीव विपाकी जो स-स्थावर प्रकृति, तिनिके उदय तें जो जीव की पर्याय होइ, सो काय है । ऐसा व्यवहार की सिद्धि है । बहुरि पुद्गल विपाको शरीर नामा नाम कर्म की प्रकृति के उदय तें भया शरीर, ताका इहां काय पशब्द करि ग्रहण नाही है।
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सम्यग्ज्ञानविका भाषाटीका ]
आगे स्थावरका के पांच भेद कहै हैं .
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पुढवी ग्राऊतेऊ, वाऊ कम्मोदरेण तत्थेव । पियवण्णचउक्कजुदी, तांगं देहो हवे नियमा ॥ १८२ ॥
पृथिव्यप्तेजोवायुकम्मोदयेन तत्रैव निजवर्णचतुष्कयुतस्तेषां देहो भवेनियमात् ॥१८२॥
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[ ३२३
टीका - पृथ्वी, अप, तेज, वायु विशेष धरै जो नाम कर्म की स्थावर प्रकृतिके भेदरूप उत्तरोत्तर प्रकृति, ताके उदय करि जीवनि के तहां ही पृथिवी, आप, तेज, वायु रूप परिणये जे पुद्गलस्कंध, तिनि विषे अपने-अपने पृथिवी आदि रूप वर्णादिक चतुष्क संयुक्त शरीर नियम करि हो हैं । सें होतें पृथिवीकायिक अपकायिक, तेजकायिक, araatfoक जीव हो हैं ।
तहां पृथिवी विशेष लीए स्थावर पर्याय जिनकें होइ, ते पृथिवीकायिक कहिये । श्रथवा पृथिवी है काय कहिये शरीर जिनका, ते पृथिवीकायिक कहिए । जैसे ही अपकायिक, तेजकायिक, वातकायिक जानने । तिर्यंच गति, एकेंद्री जाति श्रदारिक शरीर, स्थावर काय इत्यादिक नामकर्म की प्रकृतिति के उदय अपेक्षा जैसी freक्ति संभव है ।
बहुरि जो जीव पूर्व पर्याय को छोडि, पृथ्वी विषै उपजने की सन्मुख भया होइ, सो विग्रह गति विषे अंतराल में यावत् रहै, तावत् वाक पृथ्वी जीव कहिये । जातें इहां केवल पृथिवी का जीव ही है, शरीर नाहीं ।
बहुरि जो पृथिवीरूप शरीर को घर होइ, सो पृथिवीकायिक कहिए । जातें वहां पृथिवी का शरीर वा जीव दोऊ पाइए है ।
बहुरि जीव तो निकसि गया होइ, वाका शरीर हो होइ, ताक पृथिवीकाय कहिये । जाते वहां केवल पृथिवी का शरीर ही पाइए है । अंसे तीन भेद जानते । बहुरि अन्य ग्रंथिति विषै च्यारि भेद कहे हैं। तहां ए तीनों भेद जिस विषं गर्भित होइ, सो सामान्य रूप पृथिवी जैसा एक भेद जानना । जातें पूर्वोक्त तीनों भेद पृथिवी के ही हैं । जैसे ही जीव श्रपुकायिक, अप्काय । बहुरि तेजः जीव, तेजः कायिक, तेजःकाय । बहुरि वातजीव, वातकायिक, वातकrवरूप तीन-तीन भेद जानने 1.
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{ गोम्मटसार जीवका गाथा १०३-१८४ बावरसुहुमदयेण य, बादरसुहमा हवंति तद्दहा । धादसरीरं थूलं, अघाददेह हवे सुहुमं ।।१८.३॥ .
बादरसूक्ष्मोदयेन 'च, बादरसूक्ष्मा भयंति तदेहाः ।
घातशरीरं स्थूल, अधातदेहं भवेत्सूक्ष्मम् ॥१८३।। टीका - पूर्वं कहे जे पृथिवीकायिकादिक जीव, ते बादर नामा नाम कर्म की प्रकृति के उदय से बादर शरीर धरै, बादर हो है । बहुरि सूक्ष्म नामा नामकर्म की प्रकृति के उदय से सूक्ष्म होइ । जातै बादर, सूक्ष्म प्रकृति जीव विपाकी हैं । तिनके उदय करि जीव की बादर-सूक्ष्म कहिए । बहुरि उनका शरीर भी बादर सूक्ष्म ही हो है । तहां इंद्रिय विषय का संयोग करि निपज्या सुख-दुःख की ज्यों अन्य पदार्थ करि आपका पात होइ, रुकं वा आप करि और पदार्थ का घात होइ, रुकि जाय, असा घात शरीर ताको स्थूल वा बादर-शरीर कहिए । बहुरि जो किसी कौं घात माहीं वा आपका घात अन्य करि जा न होइ, असा अघात-शरीर, सो सूक्ष्म-शरीर कहिए । बहुरि तिनि शरीरनि के धारक जे जीव, ते घात करि युक्त है शरीर जिनिका ते धातदेह तो बादर जानने । बहुरि अघातरूप है देह जिनका, ते अघातदेह सूक्ष्म जानने । असे शरीरनि के रुकना वा न रुकना संभव है।
तदेहमंगुलस्स, असंखभागस्स विदमाणं तु । आधारे थूला ओ, सब्वत्थ पिरंतरा सुहुभा ॥१८४॥ सहमंगुलस्यासंख्यभागस्य वृंदमानं तु ।
अाधारे स्थूला ओ, सर्वत्र निरंतराः सूक्ष्माः ।।१८४।। टीका - तिनि बादर वा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेज कायिक, वातकायिक जीवनि के शरीर धनांगल के असंख्यात भाग प्रमाण हैं । जाते पूर्व जीवसमासाधिकार विर्षे अवगाहन का कथन कीया है। तहाँ सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक की जघन्य शरीर अवगाहना से लगाइ बादर पर्याप्त पृथिवीकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत बियालीस स्थान कहे, तिनि सबनि विष घनांगुल को पल्य के असंख्यातवां भाग का भागहार संभव है । अथवा तहां ही 'वीपुण्णजहणोत्तिय असंखसंखं गुणं तत्तों इस सूत्र करि बियालीसवां स्थान की असंख्यात का गुणकार
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावार्टीका
कीएं अगले स्थान विर्षे संख्यात घनगुल प्रमाण'- अवगाहना हो है । तातें तिस बियालीसवां स्थान विर्षे धनांगुल को असंख्यात का भागहार प्रकट ही सिद्धि भया । तहां सूक्ष्म अपर्याप्त वातकाय की जघन्य अवगाहना वा पृथ्वीकाय बादर पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण, तहां ही जीवसमासाधिकार विर्षे कहा है, सो जानना । बहुरि 'प्राधारे थूलाओ' आधारे कहिए अन्य पुद्गलनि का प्राश्रय, तीहि विर्षे वर्तमान शरीर संयुक्त जे जीव, ते सर्व स्थूलः केहिए बादर जानने । यद्यपि
आधार करि तिनके शरीर का दादर स्वभाव रुकना न हो है। तथापि नीचे गिरना रूप जो गमन, ताका रुकना हो है, सो तहां प्रतिघात संभव है । ताते पूर्वोक्त घातरूप लक्षण ही बादर शरीरनि का दृढ भया।
बहरि सर्वत्र लोक विर्षे, जल विर्षे वा स्थल विर्षे वा आकाश विर्षे निरंतर आधार की अपेक्षा रहित जिनके शरीर पाइए, ते जीव सूक्ष्म हैं। जल-स्थल रूप आधार करि तिनिके शरीर के गमन का नीचे ऊपरि इत्यादि कहीं भी रुकना न हो है । अत्यंत सूक्ष्म परिणमन ते ते जीव सूक्ष्म कहिए हैं। अंतरयति कहिए अंतराल करै है, असा जो अंतर कहिए अाधार, तातै रहित ते. निरंतर कहिए । इस विशेषण करि भी पूर्वोक्त ही लक्षण दृढ भया । 'ओ' असा संबोधन पद जानना । याका अर्थ यहु- जो हे शिष्य ! असं तू जानि । बहुरि यद्यपि बादर अपर्याप्त वायुकायिकादि जीवनि की अवगाहना स्तोक है । बहुरि यात सूक्ष्म पर्याप्त वायुकायिकादिक पृथ्वीकायिक पर्यंत जीवनि की जधन्य वा उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यात गुणी है । तथापि सूक्ष्म नामकर्म के उदय की समर्थता से अन्य पर्वतादिक तें भी तिनिका रुकना न हो है; निकसि जाय हैं । जैसे जल का बिंदु वसते निकसि जाय; रुक नाही, तैसें सूक्ष्म शरीर जानना।
बहुरि बादर नामकर्म के उदय के वश तें अन्यकरि रुकना हो है । जैसे सरिसौं वस्त्र से निकस माही, तैसें बादर शरीर जानना ।
बहुरि यद्यपि ऋद्धि कौं प्राप्त भए मुनि, देव इत्यादिक, तिनिका शरीर बादर है; तो भी ते वज़ पर्वतादिक से स्कै नाहीं; निकसि जांय हैं, सो यह तपजनित अतिशय की महिमा है, जाते तप, विद्या, मणि, मंत्र, प्रौषधि इनिकी शक्ति के अतिशय का महिमा अचित्य है, सो दीखे है । जैसा ही द्रव्यत्व का स्वभाव है । बहुरि स्वभाव विर्षे किछु तर्क नाहीं । यह समस्त वादी मात हैं । सो इहां अतिशयवानों का ग्रहण
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३२६ ]
[ गोम्मटसार जीवकावया १०५-१८६
नाहीं । तातें अतिशय रहित वस्तु का विचार विषं पूर्वोक्त शास्त्र का उपदेश ही वादर सूक्ष्म जीवन का सिद्ध भया ।
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उदये तु वणरफदिकम्मरस य जीवा वणफदी होंति । पत्तेय सामण्णं, पदिद्विदिवरे त्ति पत्तेयं ॥१८५॥
सबसे तु वनस्पतिकर्मगच जीवा वनस्पतयो भवति । प्रत्येक सामान्य प्रतिष्ठितेतरे इति प्रत्येकं ॥११८५ ॥१
टोकर - वनस्पती रूप विशेष को परे स्थावर नामा नामकर्म की उत्तरोत्तर प्रकृति के उदय होते, जीव वनस्पतीकायिकं हो हैं । ते दोय प्रकार - एक प्रत्येक शरीर, एक सामान्य कहिए साधारण शरीर । तहां एक प्रति नियम रूप होइ, एक जीव प्रति एक शरीर होइ, सो प्रत्येक शरीर है। प्रत्येक शरीर जीव जानने । बहुरि समान का भाव, जिनिका ते सामान्य शरीर जीव हैं ।
प्रत्येक है शरीर जिनिका, ते सो सामान्य, सामान्य है शरीर
भावार्थ- जीवन का एक ही शरीर साधारण समानरूप होइ, सो साधारण शरीर कहिए । अँसा शरीर जिनि होइ ते साधारणशरीर जानने । तहां प्रत्येक शरीर के दोय भेद - एक प्रतिष्ठित, एक अप्रतिष्ठित । इहा गाथा विषे इति शब्द प्रकारवाची जानना । तहां प्रत्येक वनस्पती के शरीर बादर निगोद जीवन करि प्राश्रित संयुक्त होंइ, ते प्रतिष्ठित जानने । जे बादर निगोद के आश्रित हों, ते प्रतिष्ठित जानने ।
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मूलम्पोरबीजा, कंदा तह खंदबीजबीजरुहा । समुच्छिमा य भणिया, पत्तेयाणंतकाया य ॥१८६॥
मूलाग्र पर्वबीजा:, कंवास्तथा स्कंधबीजबीजरुहाः । : सम्मूधिमा भरिणता, प्रत्येकानंतकायाश्च ॥१८६॥ टीका - जिनका मूल जो जड़, सोइ बीज होइ, ते आदा, हलंद आदि मूल"बीज जानने । "बहुरि जिनिका अग्र, जो अग्रभाग सो ही बीज होंइ ते आर्यक आदि अग्रबीज जानने । बहुरि जिनिका पर्व जो पेली, सो ही बीज होंइ, ते सांठा आदि "पर्वबीज जानने। बहार है, बीज जिनिका, ते पिडालु, सूरखा श्रादि कंदबीज
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सम्मानचन्द्रिका माषा टीका ] जानने । बहुरि स्कंध, जो पेड, सो ही है बीज जिनिका ते सालरि, पलास प्रादि स्कंधबीज जानने। बहुरि जे बोज ही ते लगें ते गेहू, शालि आदि बीजरुह जानने । बहुरि जे मल अादि निश्चित बीज की अपेक्षा ते रहित, आप आप उपजे ते सम्मछिम कहिए, समततै भए पुद्गल स्कंध, तिनि विष उपज, असे दोब आदि सम्मूछिम जानने ।
असे ए कहे ते सर्व ही प्रत्येक वनस्पती हैं । ते अनंत जे निगोद जीव, तिनके कायः' कहिए शरीर जिनिविर्षे पाइए असे 'अनंतकाय का हर प्रतिष्ठिस-प्रत्येक हैं । बहुरि चकार 6 अप्रतिष्ठित-प्रत्येक हैं। असे प्रतिष्ठित : कहिए साधारण शरीरनि करि प्राश्रित है, प्रत्येक शरीर जिनका ते प्रतिष्ठितःप्रत्येक-शारीर हैं । बहुरि तिनकरि आश्रित नाहीं हैं, प्रत्येक-शरीर जिनिका, ते अप्रतिष्ठितः प्रत्येक-शारीर हैं । असे ए मूलबीज आदि संमूछिम पर्यंत सर्व दोय-दोय अवस्था लोएं जानने । बहुरि कोऊ जानंगा कि इनिविर्षे संमूछिम के तौ संमूछिम जन्म होगा, अन्यक गर्भादिक होगा, सो नाहीं है । ते सर्व ही प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित प्रत्येक-शरीरी जीव संलिम ही हैं । बहुरि प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर की सर्वोत्कृष्ट भी अवगाहना घनांगुल के असंख्यात भाग मात्र ही है। तातै पूर्वोक्त मादा आदि देकर एक-एक स्कंध विष असंख्यात प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर पाइए हैं। कैसे? घनांगुल की दोय बार पल्य को असंख्यातबा भाग, अर नव बार संख्यात का भाग दीए, जो प्रमाण होई, तितर्ने क्षेत्र विर्षे जो एक प्रतिष्ठित प्रत्येक-शरीर होइ, तो संख्यात धनांगुल प्रमाणं पादा, मूला आदि स्कंध विः केते पाइए ? असें राशिक कीएं, लब्धं राशि दोय बरि पल्यं का असंख्यातवां भाग, दश बार संख्यात मांडि, परस्पर गुणे, जितना प्रमाण होइ, तितचे एक-एक प्रादा आदि स्कंध विर्षे प्रतिष्ठित प्रत्येक-शरीर पाइए हैं । बहुरि एक स्कंध विर्षे अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती जीवनि के शरीर यथासंभव असंख्यात भी होंइ, का संख्यात भी होइ । बहुरि जेते प्रत्येक शरीर हैं, तितने हो तहां वनस्पती जीव जानने; जातें तहां एक-एक शरीर प्रति एक-एक ही जीव होने का नियम है ।
बीजे जोरणीभदे, जीवो चंकमदि सो व अपणो बा। जे वि य मलादीया, ते पत्तेया. पढमवाए ॥१८७॥ बोसे योनीभूते, जीवः चामति स या अन्यो वा। .. येऽपि च मूलादिकास्ते प्रत्येकाः प्रथमतायाम् ॥१८.७॥
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सर जोषकाण्ड गाथा १
६२८ ]
टोफा - बीजे. कहिए पूर्व जे कहे, मूल को प्रादि देकरि, बीज पर्यंत बीजजीव उपजने का आधारभूत पुद्गल स्कंध, सो योनीभूते कहिए जिस विषै जीव उपजें जैसी शक्ति संयुक्त होते संतें जल वा कालादिक का निमित्त पाइ, सोई जीव वा और जीव श्रानि उपड़े हैं ।
भावार्थ -- पूर्वे जो बीजं विषे जीव तिष्ठं था, सो जीव तो निकसी गया अर 'उस बीज विषे असी शक्ति रही जो इस विषै जीव प्रति उपजै, तहां जलादिक का निमित्त होते पूर्वे जो जीव उस बीज कौं अपना प्रत्येक शरीर करि पीछे अपना ग्रायु के नाश ते मरण पाइ निकसि गया था, सोई जीव बहुरि तिस ही अपने योग्य जो मूलादि बीज, तींहि विषै पानि उपजै है । अथवा जो वह जीव और ठिकाने उपज्या हो, तो इस बीज विषै अन्य कोई शरीशंसर विषै तिष्ठता जीव अपना आयु के नाश तँ मरण पाइ, आनि उपजे है । किछु विरोध नाहीं ।
जैसे गेहूं विषं जीव था, सो निकसि गया । बहुरि याक बोया, तब उस ही विषे सोई जीव वा अन्य जीव आनि उपज्या; सो यावत् काल जीव उपजने की शक्ति is area काल योनीभूत कहिए । बहुरि जन ऊगने की शक्ति न हो तब प्रयोनीभूत कहिए, जैसा भेद जानना । बहुरि जे मूल आदि देकरि वनस्पति काय प्रत्येक रूप प्रतिष्ठित प्रसिद्ध हैं । तेऊ प्रथम अवस्था विषै जन्म के प्रथम समय तें लगाइ अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत अप्रतिष्ठित प्रत्येक ही रहे हैं । पीछे निगोदजीव जब श्राश्रय करें हैं, तब प्रतिष्ठित प्रत्येक होय हैं ।
आगे श्री माधव चंद्र नामा आचार्य त्रैविद्यदेव सो सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित . जीवनि का विशेष लक्षण तीन गाथानि करि कहें हैं
गूढसिरसंधिपव्वं, समभंगमहीरुह (पं) च छिण्णरुहं । साहारणं सरीरं तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥१८८॥
गूढ शिराधिपर्व, समभंग महोरुकं च छिन्नरुहम् ॥ साधारण शरीर तद्विपरीतं च प्रत्येकम् ॥१८८॥
टीका -- जिस प्रत्येक वनस्पती शरीर का सिरा, संधि, पर्व, गूढ होइ; बाह्य
दीखे नाहीं, वहां सिरा तौ लंबी लकीरसी जैसे कांकडी विषै होइ । बहुरि संधि बीचि
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सम्यग्जानचन्द्रिका भाषाटीका ]
18 में छेहा जैसे दाड्यौ वा नारंगी विर्षे हो है । बहुरि पर्व, गांठि जैसे साठा विर्षे हो है, सो कच्ची अवस्था विर्षे जाके ए बाह्य दीखें नाही, ऐसा वनस्पती बहुरि समभंग कहिए जाका टूक ग्रहण कीजिये, तां कोऊ तातूं लगा न रहे, समान बरावरि टूटै असा । बहुरि अहीरहं कहिए जाके विर्षे सूत सारिखा तातूं न होइ असा । बहुरि छिन्नरहं कहिए जो काट्या हुवा ऊगै असा वनस्पती सो साधारण है । इहां प्रतिष्ठित प्रत्येक साधारण जीवनि करि प्राश्रित की उपचार करि साधारण कहा है । बहुरि तद्विपरीत कहिये पूर्वोक्त गूढ, सिरा आदि लक्षण रहित नालियर, प्रामादि शरीर अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जानना । गाथा विर्षे कहा है जो चकार सो इस भेद कौं
मले कंदे छल्ली, पवाल सालदलकसम फलबीजे। समभंगे सदि रणंता, असमे सदि होति पत्तया ॥१८६॥
मूले कंदे त्वक्प्रधालशालावलकुसुमफलबोजे ।
समभंगे सति नांता, असमे सति भवंति प्रत्येकाः ॥१८९॥ ___टीका - मूल कहिये बड़, कंद कहिये पेड़, छल्ली कहिए छालि, प्रवाल कहिए कोंपल, अंकुरा; शाला कहिए छोटी डाली, शाखा कहिए बड़ी डाहली, दल कहिए पान, कुसुम कहिए फूल, फल कहिए फल, बीज कहिये जाते फेरि उपजे, सो बीज; सो ए समभंग होइ, तो अनंत कहिए; अनंतकायरूप प्रतिष्ठित प्रत्येक हैं। बहुरि जो मूल आदि वनस्पती समभंग न होइ, सो अप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं । जीहि बनस्पति का मूल, कंद, छाल इत्यादिक समभंग होइ, सो प्रतिष्ठित प्रत्येक है । अर जाका समभंग न होइ सो अप्रतिष्ठित प्रत्येक है । तोड्या थका तांतू कोई लग्या न रहै, बराबरि टूटै, सो समभंग कहिए ।
कंदरस व मूलस्स व, सालाखंदस्स वावि बहलतरी। छल्ली साणंतजिया, पत्तेयजिया तु तणुकवरी ॥१६॥
कंवस्य वा मूलस्य वा, शालास्कंधस्य वापि बहलतरी। - त्वक् सा अनंतजीया, प्रत्येकजीवास्तु तनुकतरी ॥१९०।।
टीका - जिस वनस्पती का कंद की वा मूल की वा क्षुद्र शाखा की वा स्कंध को छालि मोटो होइ, सो अनंतकाय है । निगोद जीव सहित प्रतिष्ठित प्रत्येक
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[ होम्मटसार जोधकाण्ड गाथा १६१-१९२
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सPIRAMMARmarmummarAmAR
है । बहुरि जिस वनस्पती का कंदादिक की छालि पतली होइ, सो अप्रतिष्ठित प्रत्येक है।
प्रागै श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती साधारण वनस्पती का स्वरूप सात गाथानि करि कहै हैं--
साहारणोबयेण णिगोदसरीरा हवंति सामण्णा । ते पुण दुविहा जीवा, बादर सुहमा ति विण्णेया ॥१६॥
साधारणोदयेन निगोवशरीरा भवति सामान्याः ।
ते पुर्नाद्वविधा जीवा, बादर-सूक्ष्मा इति विज्ञेयाः ।।१९१॥ दीका - साधारण नामा नामकर्म की प्रकृति के उदय ते निगोद शरीर के धारक साधारण जीव हो हैं । नि - कहिये नियतज अनंते जीव, तिनिको यो कहिये एक ही क्षेत्र कौं, द कहिये देइ, सो निगोद शरीर जानना । सो जिनके पाइए ते निगोदशरीरी हैं । बहुरि तेई सामान्य कहिये साधारण जीव हैं। बहुरि ते बादर पर सूक्ष्म असे भेद नै दोय प्रकार पूर्वोक्त बादर सूक्ष्मपना लक्षण के धारक जानने ।
साहारणमाहारो, साहाररणमारणपारणगहरणं च । साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं भणियं ॥१६२॥ साधारणमाहारः, साधारणमानपानग्रहरणं च।
साधारणजीवानां, साधारणलक्षणं भरिणतम् ॥१९२॥ टीका -- साधारण नामा नामकर्म के उदय के वशवर्ती, जे साधारण जीव, तिनिके उपजते पहला समय विर्षे आहार पर्याप्ति हो है; सो साधारण कहिए अनंत जीवनि के युगपत एक काल हो है। सोपाहार पर्याप्ति का कार्य यह जो आहार वर्गणारूप जे पुद्गल स्कंध, तिनिकों खल-रस भागरूप परिणमा है । बहुरि तिनही आहार वर्गणारूप पुद्गल स्कंधनि कौं शरीर के आकार परिणमावनेरूप है कार्य जाका, असा शरीर पर्याप्ति, सो भी तिनि जीवनि के साधारण हो है। बहुरि तिनही कौं स्पर्शन इंद्रिय के प्राकार परिणमावना है कार्य पाका, असा इन्द्रिय पर्याप्ति, सो
भी साधारण हो है । बहुरि सासरस्वास ग्रहणरूप है कार्य जाका, असा मानपान ...१. षट्स डागम -- धवला पुस्तक १, पृष्ठ २७२, गाथा १४५
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सम्यग्ज्ञानविका भाषाका ]
ई ३३१
पर्याप्ति, सो भी साधारण हो है । बहुरि एक निगोद शरीर है, तीहि विषे पूर्व अनंत जीव थे । बहुरि दूसरा, तीसरा आदि समय विषं नये अनंत जीव उस ही विषे अन्य अनि उपजै, तो लहां जैसे वे नये उपजे जे जीव आहार आदि पर्याप्ति को घर हैं, तैसे ही पूर्व पूर्व समय विषे उपजे थे जे अनंतानंत जीव ते भी उन ही की साथि श्राहारादिक पर्याप्तिनि को घरे हैं सदृश युगपत् सर्व जीवनि के प्राहारादिक हो है । तातें इनिकों साधारण कहिये है । सो यह साधारण का लक्षण पूर्वाचार्यनि करि कह्या हुवा जानना ।
१ जत्थेक्क मरइ जोवो, तत्थ दु मरणं हवे अनंताणं । arees are एक्को, वक्कणं तत् णंताणं ॥ १६३ ॥
ret faयते जीवस्तन्न तु मरणं भवेदन्तानाम् । प्रक्रामति यत्र एकः प्रक्रमणं तत्रान्तानाम् ॥१९३॥
टीका एक निमोद शरीर विषै जिस काल एक जीव अपना आयु के नाश भर, तिसही काल विषे जिनकी श्रायु समान होइ, असे मनंतानंत जीव युगपत् मरें हैं । बहुरि जिस काल विषै एक जीव तहां उपजे है, उस हो काल विषै उस ही जीव की साथि समान स्थिति के धारक अनंतानंत जीव उपजे हैं, जैसे उपजना मरना का समकालपना कौं भी साधारण जीवनि का लक्षण कहिए है । बहुरि द्वितीयादि समयनि विषै उपजे अनंतानंत जीवनि का भी अपना आयु का नाश होते साथि ही मरना जानना । जैसे एक निगोद शरीर विषै समय-समय प्रति अनंतानंत जीव साथि ही मरे हैं; साथि हो उपजे हैं । निगोद शरीर ज्यों का त्यों रहै है; सो निगोद शरीर की उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात कोडाकोडी सागरमात्र है । सो प्रसंख्यात लोकमात्र समय प्रमाण जानना । सो स्थिति यावत् पूर्ण न होइ तावत् अँसे ही जीवनि का उपजना, मरना हुवा करें है ।
इतना विशेष - जो कोई एक बादर निगोद शरीर विषै वा एक सूक्ष्म निगोद शरीर विषं अनंतानंत जीव केवल पर्याप्त हो उपजे हैं । तहां नाहीं उप है । बहुरि कोई एक शरीर विषै केवल अपर्याप्त ही उपजे 'हैं; तहां पर्याप्त नाहीं उपजे हैं। एक शरीर विषै पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ नाहीं उपजें है । जातै तिन जीवनि के समान कर्म के उदय का नियम है ।
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१. 'जत्येवु वक्कम दि' इति षट्खंडागम
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- ववला पुस्तक १, पृष्ठ २७२, गाया १४६ ।
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गोम्मटसार जोक्काण्ड गाथा १९४
बहुरि एक साधारस जीव के कर्म का ग्रहण शक्तिरूप लक्षण धरै, जो काय योग, ताकरि ब्रह्मा हुवा, जो पुद्गल-पिंड, ताका उपकार कार्य, सो तिस शरीर विर्ष तिष्ठते अनंतानंत अन्य जीवनि का घर तिस जीव का उपकारी हो है । बहुरि अनंतानंत साधारण जीवनि का जो काय योग रूप शक्ति, ताकरि ग्रहे हूये पुद्गलपिंडनि का कार्यरूय उपकार, सो कोई एक जीव का वा तिन अनंतानंत साधारण जीवनि का उपकारी समान एकै साथिपनै हो है । बहुरि एक बादर निगोद शरीर विर्षे वा सूक्ष्म निगोद शरीर विर्षे क्रम तें पर्याप्त बादर निगोद जीव वा सूक्ष्म निगोद जीद उपजें हैं। तहां पहले समय अनंतानंत उपज हैं । बहुरि दूसरे समय तिनते असंख्यात गुणा धाटि उपज हैं ! असे ही प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण काल पर्यंत समय-समय प्रति निरंतर असंख्यात गुणा घाटि क्रमकरि जीव उपजै हैं । तातै परै जघन्ध एक समय, उत्कृष्ट पावली का असंख्यातवां भाग प्रमारण काल का अंतराल हो है । तहां कोऊ जीवन उपज है । तहां पीछे बहुरि जघन्य एक समय, उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण काल पर्यंत निरंतर असंख्यात गुणा धादि क्रम करि तिस निगोद शरीर विर्षे जीव उपज हैं। जैसे अन्तर सहित वा निरंतर निगोद शरीर विर्षे जीव उपज हैं । सो यावत् प्रथम समय विर्षे उपज्या साधारण जीव का जघन्य निर्वृति अपर्याप्त अवस्था का काल अवशेष रहै, तावत् असें ही उपजना होइ । बहुरि पोछे तिनि प्रथमादि समयनि विर्षे उपजे सर्व साधारण जीव, तिनिक आहार, शरीर, इंद्रिय, सासोस्वास, पर्याप्तिनि की संपूर्णता अपने-अपने योग्य काल विर्षे होइ है।
खंधा असंखलोगा, अंडरआवासयुलविदेहा वि। हेल्लिजोरिणगायो, असंखलोगरण गुणिदकमा ।१६४॥
स्कंधा असंख्यलोकाः, अंडरावासपुलविदेहा अपि ।
अधस्तनयोनिका, असंख्यलोकेन गुरिणतक्रमाः ।।१९४।। टोका - बादर निगोद जीवनि के शरीर की संख्या जानने निमित्त उदाहरणपूर्वक यह कथन करिए है । इस लोकाकाश विर्षे स्कंध यथा योग्य असंख्यात लोक प्रमाण हैं । जे प्रतिष्ठित प्रत्येक जीवनि के शरीर, तिनिकौं स्कंध कहिये हैं ! सो यहु यथा योग्य असंख्यात करि लोक के प्रदेश गुणें, जो प्रमाण होइ, तितने प्रतिष्ठित
प्रत्येक शरीर इस लोक विर्षे जानने । बहुरि एक-एक स्कंध विर्षे असंख्यात लोक __. प्रमारण अंडर हैं।
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EXA
सम्पासानचन्द्रिका भरपाटीका )
। ३३३ इहां प्रश्न -- जो एक स्कंध विर्षे असंख्यात लोक प्रमाण अंडर कैसे संभवै ?
ताका समाधान - यहु अवगाहन की समर्थता है । जैसे जगत श्रेणी का धन प्रमाण लोक के प्रदेशनि विर्षे अनंतानंत पुद्गल परमाणू पाइए । जैसें जहां एक निगोद जीव का कारण स्कंध है, तहां ही अनंतानंत जीवनि के कार्माण शरीर पाइये है । तैसें ही एक-एक स्कंध विर्षे असंख्यात लोक प्रमाण अंडर हैं। जे प्रतिष्ठित प्रत्येक शरर के प्रत्यथरूम विशेष हैं । जैसे मनुष्य शरीर विष हस्तादिक हो हैं, तैसे स्कंध विर्षे अन्डर जानने । बहुरि एक-एक अन्डर विर्षे असंख्यात लोक प्रमाण आवास पाइए है । ते आवास भी प्रतिष्ठित प्रत्येक के शरीर के अवयव रूप विशेष ही जानने । जैसे हस्त विषं अंगुरी आदि हो हैं । बहुरि एक-एक आवास विर्षे असंख्यात लोक प्रमाण पुलवी हैं। ते पुरिण प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर के अवयव रूप विशेष ही जानने । जैसे एक अंगुली विर्षे रेखा आदि हो हैं । बहुरि एक-एक पुलवी वि असंख्यात लोक प्रमाण बादर निगोद के शरीर जानने। असे ए अंडरादिक अधस्तन योनि कहे । इनि विर्षे अधस्तन जो पीछे कहा भेद, ताकी संख्या की उत्पत्ति कौँ कारण ऊपरि का भेद जानना । जैसें तहां एक स्कंध विष असंख्यात लोक प्रमाण अन्डर हैं, तो असंख्यात लोक प्रमाण स्कंधन विर्षे केते अंडर हैं ? असे
राशिक करि लब्धराशि असंख्यात लोक गय असंख्यात लोक प्रमाण अंडर जानने । बहुरि असे ही प्रावासादि विर्षे राशिक कीएं तिनत असंख्यात लोक गुरणे आवास जानने । बहुरि तिनते असंख्यात लोक गुणे पुलवी जानने । बहुरि तिनतें असंख्यात लोक गुणे बादर निमोद शरीर जानने । ते सर्व निगोद शरीर पांच जायगा प्रसंख्यात लोक मांडि, परस्पर गुणे, जेता प्रमाण होइ तितने जानने ।
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IRTAIटर
जंबदीवं भरहो, कोसलसागदतग्घराई वा। खधंडरत्रावासा, पुलविसरीराणि विठ्ठता ॥१६॥ जंबूद्वीपो भरतः कोशल साकेततद्गृहाणि वा ।
स्कंधांडरावासाः, पुलविशरीराणि ष्टांताः ॥१९५॥ . टीका - स्कंधनि का दृष्टांत जंबूद्वीपादिक जानने । जैसें भध्य लोक विर्षे जंबुद्वीपादिक द्वीप हैं, तैसें लोक विर्षे स्कंध हैं। बहुरि अंडरनि कर दृष्टांत भरतादि क्षेत्र जानने । जैसे एक जंबूद्वीप विर्षे भरतक्षेत्र आदि क्षेत्र पाइए; तसे स्कंध विर्षे
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Cantonespapes
[ मोम्मटसार जीवकाल्ड गापा १६६ अंडर जानने । बहुरि आवासनि का दृष्टांत कोशल प्रादि देश जानने ! जैसे भरतक्षेत्र विर्षे कोशल देश आदि अनेक देश पाइए, तैसें अंडर विर्षे प्रावास जानने । बहरि पुलवोनि का दृष्टांत अयोध्यादि नगर जानने। जैसे एक कोशलदेश विर्षे अयोध्या नगर आदि अनेक नगर पाइए, तैसें प्रावास विले पुलवी जानने । बहुरि शरीरनि का दृष्टांत अयोध्या के गृहादिक जानने ; जैसे अयोध्या वि मंदरादिक पाइए, तैसें पुलवी विर्षे बादर निगोद शरीर जानने । बहरि वा शब्द करि यहु दृष्टांत दीया । असे ही और कोऊ उचित दृष्टांत जानने ।
एगणिगोदसरीरे, जीवा दवप्पमाणदो दिट्ठा। सिद्धेहि अणंतगुरणा, सव्वेण वितीदकालेण ॥१६६॥ एकनिगोदशरोरे, जीवा प्रध्यप्रमाणतो दृष्टाः ।।
सिद्धरनंतगुणाः सर्वेण व्यतीतकालेन ॥१९॥ टीका - एक निगोद शरीर विर्षे वर्तमान निगोद जीव, ते द्रव्यप्रमाण, जो द्रव्य अपेक्षा संख्या, तात अनंतानंत है; सर्व जीव राशि कौं अनंत का भाग दीजिए, तामै एक भाग प्रमाण सिद्ध हैं । सो अनादिकाल ते जेते सिद्ध भए, तिनितें अनंता गुरणे हैं । बहुरि अवशेष बहुभाग प्रमाण संसारी हैं । तिनके असंख्यात भाग प्रमाण एक निगोद शरीर विषै जीव विद्यमान हैं, ते अक्षयानंत प्रमाण हैं । जैसैं परमागम विर्षे कहिए है।
बहुरि तैसे ही अतीतकाल के समान ते अनंत गुरणे हैं। इस करि काल अपेक्षा एक शरीर विषे निगोदजीवनि की संख्या कही ।
बहुरि जैसे ही क्षेत्र, भाव अपेक्षा तिनकी संख्या पागम अनुसारि जोडिए । तहां क्षेत्र प्रमाण ते सर्व प्रकाश के प्रदेशनि के अनंतवें भाग वा लोकाकाश के प्रदेशनि ते अनंत गुरण जानने ।
भाव प्रमाण ते केवल ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदनि के अनंतवै भाग पर सर्वावधि ज्ञान गोचर जे भाव, तिनितें अनंत मुणे जानने । असे एक निगोद शरीर विर्षे जीवनि का प्रमाण कह्या ।
मा
१. षट्सपायम - पवना पुस्तक १, पृष्ठ २७३, गाया १४७ तथा पृष्ठ ३६६ गाथा २१० तथा थक्ला
पुस्तक ४, पृष्ठ ४७६ गाथा ४३.
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सम्यमानचस्तिका भाषाटीका 1
मुहां प्रश्न - जो छह महीना पर साठ समय के मांही छ: सै आर जीव कर्म नाश करि सिद्ध होइ, सो असे सिद्ध बधते जांहि संसारी घटते जाहि, तातै तुम सदा काल सिद्धनि ते अनंत गुणे एक निगोद शरीर विर्षे जीव कैसे कहो हो ? सर्व जीव राशि हैं अनंत गुणां अनागत काल का समय समूह है । सो यथायोग्य अनंतवां भाग प्रमाण काल गए, संसारी-राशि का नाश अर सिद्ध-राशि का बहुत्व होइ, ताते सर्वदा कालं सिद्धनि ते निगोद शरीर विषं निगोद जीवनि का प्रमाण अनंत गुणा संभव नाही ?
ताका समाधान -- कहै हैं - रे तर्किक भव्य! संसारी जीवनि का परिमारण प्रक्षयानंत है । सो केवली केवल ज्ञान दृष्टि करि पर थ तकेवली श्रु तज्ञान दृष्टि करि असें ही देखा है । सो यह सूक्ष्मता तर्क गोचर नाही; जातै प्रत्यक्ष प्रमाण पर आगम प्रमाण करि विरुद्ध होइ, सो तर्क अप्रमाण है जैसे किसी ने कहा अग्नि उरा नाहीं; जाते अग्नि है, सो पदार्थ है; जो जो पदार्थ है, सो सो उष्ण नाही; जैसे जल उष्ण नाहीं है; असी तर्क करी, परि यहु तर्क प्रत्यक्ष प्रमाण करि विरुद्ध है। अग्नि प्रत्यक्ष उष्ण है; सात यह तर्क प्रमाण नाहीं । बहरि किसीने कह्या धर्म है परलोक विर्षे दुःखदायक है; जाते धर्म है, सो पुरुषाश्रित है । जो जो पुरुषाश्रित है, सो सो परलोक विर्षे दुःखदायक है, जैसे अधर्म है; जैसी तर्क करी, परि यहु तर्क पागम प्रमाण करि खंडित है । आगम विर्षे धर्म परलोक विर्षे सुख दायक कहा है: ताते प्रमाण नहीं । असे ही जे केवली प्रत्यक्ष पर आगमोक्त कथन ताते विरुद्ध तेरो तर्क प्रमाण नाहीं ।
इहां बहुरि सर्क करौ--जो सकं करि विरोधी पागम कैसे प्रमाण होइ ?
ताका समाधान जो प्रत्यक्ष प्रमाण पर अन्य तर्क प्रमाण करि संभवता जो आगम, ताके अविरुद्वपरणां करि प्रमाणपना हो है । तौ सो अन्य तर्क कहा ? सो कहिए हैसर्व भव्य संसारी राशि अनंतकाल करि भी क्षय कौं प्राप्त न होइ; जाते यहु राशि प्रक्षयानंत है। जो जो अक्षयानंत है, सो सो अनंतकाल करि भी क्षयकौं प्राप्त न होइ । जैसे तीन काल के समयनि का परिमारग कह्या कि इतनां है, परि कबहूं अंत नाही वा सर्वद्रव्यनि का अगुरुलघु के अविभाग प्रतिच्छेद के समूह का परिमाण कह्या, परि अंत नहीं । तैसें संसारी जीवनी का भी प्रक्षयानंत प्रमाण जानना । जैसा यह अनुमान तैं पाया जो तर्क, सो प्रमाण है।
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३३६ ]
| गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा १६८
बहरि प्रश्न--जो अनंतकाल करि भी क्षय न होना साध्य, सो अक्षयामत के हेतु ते दृढ कीया । तात् इहां हेतु के साध्यसमत्व भया? .
-
-
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ताका समाधान-भव्यराशि का अक्षयानंतपना प्राप्त के पागम करि सिद्ध है। ताते साध्यसमत्व का अभाव है। बहुत कहने. करि कहा ? सर्व तत्वनि का वक्ता पुरुष जो है प्राप्त, ताकी सिद्धि होते तिस प्राप्त के वचनरूप जो भागम, ताकी सूक्ष्म, अंतरित, दुरि पदार्थनि विष प्रमाणता की सिद्धि हो है । तातें तिस प्रागमोक्त पदार्थनि विष मेरा चित्त निस्संदेह रूप है । बहुत वादी होने करि कहा साध्य है ?
बहुरि प्राप्त की सिद्धि कैसे ?
सो कहिए है "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखः' असा वेद का वचन करि, बहुरि 'प्रणम्य शंभं' इत्यादि नैयायिक वचन करि, बहुरि 'बुद्धो भवेई' इत्यादि बौद्ध वचन करि, बहुरि भोक्षमार्गस्य नेतारं, इत्यादि जैन वचन करि, बहुरि अन्य अपनाअपना मत का देवता का स्तवनरूप वचननि करि सामान्यपने सर्व मतनि विर्षे प्राप्त मान है । बहुरि विशेगापहला, बीतमाहेब स्याद्वादी ही प्राप्त है । ताका युक्ति करि साधन कीया है । सो विस्तार ते स्याद्वादरूप जैन न्यायशास्त्र विर्षे प्राप्त की सिद्धि जामनी । असें हो निश्चयरूप जहाँ खंडने वाला प्रमाण न संभव है, तातै प्राप्त अर प्राप्त करि प्ररूपित प्रागम की सिद्धि हो है । तातै प्राप्त आगम करि प्ररूपित ज्यो मोक्षतत्व अर बंदतत्त्व सो प्रदश्य प्रमाण करना असें आगम प्रमाण ते एक शरीर विषै निगोद जीवनि के सिद्ध-राशि तें अनंत गुरगाएनो संभव है । बहुरि अक्षयानंतपना भी सर्व मतवाले मान है । कौऊ ईश्वर विष भान है। कौऊ स्वभाव विरे मान है । तातै कह्या ह्या कथन प्रमाण है ।।
अत्थि अणंता जीवा, जेहिं ण पत्तो हसाण परिणामो। भावकलंकसुपउरा, णिगोदवासं ग मंचंति ॥१६७ ॥
संति अजंता जीया, यैनं प्राप्तस्त्रसानां परिणामः । भावकलंकसुप्रचुरा, निगोश्वासन संचंति ।। १९७ ॥
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१. घटण्डागम घयला पुस्तक १, पृष्ठ २७३, माथा १४८ परखण्डानम्-धवला पुस्तक पृष्ठ ४७७ माथा ४२ किन्तु तत्र भावकल-कैपउरा इति पाठः।
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सभ्यपानन्द्रिका भाषाटीका ]
टीका - इस गाथा विषं नित्यनिगोद का लक्षण कहा है। अनादि संसार विर्षे निगोद पर्याय ही कौं भोगवते अनंते जीव नित्यनिगोद नाम धारक सदाकाल हैं। ते कैसे हैं ? जिनि करि त्रस जे बेइंद्रियादिक, तिनिका परिणाय जो पर्याय, सो कबहं न पाया । बहुरि भाव जो निगोद पर्याय, तिहिनै कारणभूत जो कलंक कहिये कषायनि का उदय करि प्रगट भया अशुभ लेश्यारूप, तीहिं करि प्रचुरा कहिये अत्यंत संबंधरूप हैं । जैसे ए नित्यनिगोद जीव कदाचित् निगोदवास कौं न छोड़े हैं । याहीतै निगोद पर्याय के प्रादि अंत रहितपनां जानि, अनंतानंत जीवनि के नित्य निगोदपना कहा । नित्य विशेषण करि अनित्य निगोदिया चतुर्गति निगोदरूप प्रादि अंत निगोद पर्याय संयुक्त केई जीव हैं, जैसा सूचै है । जाते रिणच्चचदुग्गदिणिगोद इत्यादिक परमागम विर्षे निगोद जीव दोय प्रकार कहै हैं ।
भावार्थ - जे अनादि ते निगोद पर्याय ही कौं धरै हैं, ते नित्यनिगोद जीव हैं । बहुरि बीचि अन्य पर्याय पाय, बहुरि निगोद पर्याय धरै, ते इतर निगोद जीव जानना । सो वे आदि अंत लीये हैं । बहुरि जिनि के प्रचुर भाव कलंक है, ते निगोद वास कौं न छाडे, सो इहां प्रचर शब्द है ,सो एकोदेश का प्रभावरूप है, सकल अर्थ का वाचक है; ताते याकरि यहु जान्या, जिनकै भाव कलंक थोराहो है, ते जीव कदाचित् नित्यनिगोद तें निकसि, चतुर्गति में प्राव हैं । सो छह महीना अर आठ समय मैं छः सै पाठ जीव नित्यनिगोद में सौं निकस हैं ,सो ही छह महीना आठ समय में छ: से पाठ जीव संसार सौं निकसि करि मुक्ति पहँ चै हैं ॥ १७ ॥
प्रागै त्रसकाय की प्ररूपणा दोय गाथा करि कहै हैंविहि लिहि चदुहिं पंचहि, सहिया जे इंदिएहि लोयलि। ले सकाया जीवा, रगया वीरोवसेण ॥१६८ ॥
द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुभि: पंचभिः सहिता ये इंद्रियर्लोके ।
ते त्रसफाया जीवा, शेधा वीरोपदेशेन ॥१९८ ।। टीका - दोय इंद्री स्पर्शन-रसन, तिनि करि संयुक्त द्वौद्रिय, बहुरि तीन इंद्रिय स्पर्शन-रसन-प्राण, तिनि करि संयुक्त श्रींद्रिय, बहुरि च्यारि इंद्रिय स्पर्शन-रसन धारण-चक्षु, इनि करि संयुक्त चतुरिंद्रिय बहुरि पांच इंद्रिय स्पर्शन-रसन-धारण-चक्षुश्रोत्र, इनि करि संयुक्त पचेंद्रिय, ए कहे जे जीव, ते सकाय जानने । असे श्री वर्धमान'
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३३८ ]
मोटसार जीजकाण्ड गाथा १९६
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तीर्थकर परमदेव के उपदेश ते परंपराय क्रम करि चल्या प्राया संप्रदाय करि शास्त्र का अर्थ धरि करि हमहूं कहे हैं; ते जानने ।।
उववादमारणतिय, परिणदतसमझिऊण सेसतसा । तसणालिबाहिरहिह य, गत्थि ति जिणेहि णिद्दिल ॥ १६६ ॥
उपपादमारणांतिकपरिणसत्रसमुज्झित्वा शेषत्रसाः। .
असनालीवाटे च, न संतीति जिननिदिष्टम् ।। १९९ ।। टीका - विवक्षित पर्याय का पहला समय विर्षे पर्याय की प्राप्ति, सो उपपाद कहिए । बहुरि मरण जो प्राण त्याग पर अंत जो पर्याय का अंत जाकै होइ, सो मरणांतकाल, वर्तमान पर्याय के प्रायु का अंत अंतर्मुहूर्त मात्र जानना । तीहि मरणांतकाल विष उपज्या, सो मारणांतिकसमुद्धात कहिए। अागामी पर्याय के उपजने का स्थान पर्यंत प्रात्मप्रदेशनि का फैलना, सो माररणांतिकसमुद्धात जानना । असा उपपादरूप परिणम्या पर मारणांतिक समुद्धातरूप परिणम्या पर चकार ते केवल समुद्धात रूप परिणम्या जो त्रस, तीहि बिना स्थाननि विर्षे अवशेष स्वस्थानस्वस्थान अर विहारक्तस्वस्थान पर अवशेष पांच समुद्धातरूप परिममे सर्व ही असजीव, सनाली वारै जो लोक क्षेत्र, तीहि विर्षे न पाइए हैं; जैसा जिन जे अर्हतादिक, तिनिकरि कहा है । ताते जैसे नाली होई, तैसे अस रहने का स्थान, सो असनाली जाननी । अस नाली इस लोक के मध्यभाग विर्षे चौदह राज ऊंची, एक राजू चौड़ीलंबी सार्थक नाम धारक जाननी । अस जीव त्रसनाली विष ही हैं । बहुरि जो जीव प्रसनाली के बाह्य वातवलय विर्षे तिष्ठता स्थावर था, उसने अस का आयु बांधा। बहरि सो पूर्व वायुकायिक स्थावर पर्याय को छोडि, आगला विग्रहगति का प्रथम समय विर्षे अस नामा नामकर्म का उदय अपेक्षा करि सनाली के बाह्य त्रस हूवा, ताते उपपादवाले त्रस का अस्तित्व सनाली बाह्य कहा। बहुरि कोई जीच बसनाली के माहि वस हैं, बहुरि असनाली बाहिर तनुवातवलय संबंधी वायुकायिक स्थावर का बंध किया था । सो आयु का अंतर्मुहूर्त अवशेष रहै, तब आत्मप्रदेशनि का फैलाव जहां का बंध किया था, तिस स्थानक सनाली के बाह्य तनुदातवलय पर्यन्त गमन करें । तातै मारणांतिक समुद्धातवाले बस का अस्तित्व असनाली बाह्य कहा।
__बहुरि केवली दंड-कपाटादि प्राकार करि त्रसनाली बार अपने प्रदेशनि का फैलावनरूप समुद्घात करै हैं। तातै केवलसमुद्धात वाले त्रस का अस्तित्व बसनाली
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सम्यग्नानचन्तिका भावाटीका ।
[ ३३० बाह्य कह्या । इनि बिना और प्रस का अस्तित्व असनाली बाह्य नाहीं है; असा अभिप्राय शास्त्र के कर्ता का जानना ।
" ' आगे वनस्पतीवत् अन्य भी जीवनि के प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठितपना का भेद दिखावे हैं
पुढवीआदिचउण्हं, केवलियाहारदेवरिपरयंगा । अपविडिदा णिगोदहि, पदिठिदंगा हवे सेसा ॥२००॥ पृथिव्यादिचतुर्णा, केवल्याहारदेवनिरयांगानि । । ..
अप्रतिष्ठितानि निगोदैः, प्रतिष्ठितांगा भवंति शेषाः ॥२०॥ टोका - पृथ्वी आदि चारि प्रकार जीव पृथ्वी -, अप - तेज - वायु इनि का शरीर, बहुरि केवली का शरीर, बहुरि आहारक शरीर, बहुरि देवनि का शरीर, बहुरि नारकीनि का शरीर ए सर्व निगोद शरीरनि करि अप्रतिष्ठित हैं; प्राश्रित नाहीं । इनि विर्षे निमोद शरीर न पाइए है। बहुरि अवशेष रहे जे जीव, लिनि के शरीर प्रतिष्ठित जानने । इनि विर्षे निगोद शरीर पाइए है । तातै अवशेष सर्व निगोद शरीरनि करि प्रतिष्ठित हैं, प्राश्रित हैं । तहां सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती, द्वींद्रिय, वींद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेंद्रिय, तिर्यच पर पूर्व कहे तिनि बिना अवशेष मनुष्य इनि सबनि के शरीर विष निगोद पाइए हैं ।
आगै स्थावरकायिक, सकायिक जीवनि के शरीर का आकार कहैं हैं- ' मसुरंबुबिंबुसूई-कलावधयसण्णिहो हवे देहो। . पुढवीप्रादिचउण्ह, तरुतसकाया अणेयविहा ॥२०१५ .
मसूरांबुदिदुसूचीकलापध्वजसन्निभो भवेद्देहः ।
पृथिव्यादिचतुराँ, तरुत्रसकाया अनेकविधाः ।। २०१॥ ... टोका - पृथिवीकायिक जीवनि का शरीर मसुर अन्न समान गोल आकार धर है । बहुरि अपकायिक जीवनि का शरीर जल की बूंद के समान गोल आकार धरे है । बहुरि अग्निकायिक जीवनि का शरीर सुईनि का समूह के समान लंबा भर ऊर्ध्व दिर्षे चौड़ा बहुमुखरूप प्राकार धरै है । बहुरि वातकायिक जीवनि का शरीर
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ऐसारलार भोवकास गाथा २०२
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ध्वजा समान लबा, चौकौर साकार धर है । असे इनिके आकार कहे । तथापि इनिकी अवगाहना धनागुल के असंख्यात भागमात्र है; तातें जुदे-जुदे दीसें नाहीं । जो पृथ्वी आदि इंद्रियगोचर है, सो घने शरीरनि का समुदाय है, असा जानना । बहुरि तरु, जे बनस्पतीकायिक पर द्वोंद्रियादिक प्रसकायिक, इनि के शरीर अनेक प्रकार आकार धरे हैं, नियम नाहीं । ते धनांगुल का असंख्यातवां भाग तें लगाइ, संख्यात घनांगुल पर्यंत अवगाहना धरे हैं। जैसे जानना ।
आगे काय मार्गणा के कथन के अनंतर काय सहित संसारी जीवनि का दृष्टांतपूर्वक व्यवहार कहैं हैं---
जह भारवहो पुरिसो, वहइ भरं गेहिऊण कावलियं । एमव वहइ जीवो, कम्मभरं कायकावलियं ॥ २०२।।
यथा भारवहः पुरुषो, वहति भारं गृहीत्वा कावटिकम् ।
एवमेव वहति जीवः, कर्मभारं कायकाटिकम् ।। २०२॥ टोका - लोक विषं जैसें बोझ का वहनहारा कोऊ पुरुष, कावडिया सो कावड़ि में भर्या जो बोझ भार, ताहि लेकरि विवक्षित स्थानक पहुंचावै है ।
से ही यहु संसारी जीव, औदारिक आदि नोकर्मशरीर विषै भऱ्या हूवा ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म का भार, ताहि लेकरि नानाप्रकार योनिस्थानकनि कौं प्राप्त कर है । बहुरि जैसे सोई पुरुष कावड़ि का भार की गेरि, कोई एक इष्ट स्थानक विष विश्राम करि तिस भार करि निपज्या दुःख के वियोग करि सुखी होइ तिष्ठ है। तैसें कोई भव्य, जीव, कालादि लब्धिनि करि अंगीकार कीनों जो सम्यग्दर्शनादि सामिग्री, तीहि करि युक्त होता संता, संसारी कावडि का विर्षे भर्चा कर्म भार कौं छांडि, लिस भार करि निपज्या नाना प्रकार दुःख-पीड़ा का वियोग करि, इस लोक का अग्रभाग विर्षे सुखी होई तिष्ठ है । असा हित उपदेश रूप आचार्य का अभिप्राय है ।
.. आगे दृष्टांसपूर्वक कायमार्गरणा रहित जे सिद्ध, तिनिका उपाय सहित . स्वरूप की कहैं हैं -
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पृष्ठ 'सं. १४०, गाथा ५७ ।
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सभ्यामन्त्रिका भाषाटोका ]
जह कंचरणमग्गि-मयं, सुचइ किरण कालियाए य । तह कायबंध-मुक्का, अकाइया झाण- जोगेण ॥२०३॥
यश कांचनवमिगतं, मुच्यते किट्टेन कालिकया च तथा कार्यबंधमुक्ता, अकायिका - ध्यानयोगेन ॥२०३॥
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टीका जैसे लोक विषै मल युक्त सीना, सो अग्नि को प्राप्त संता, अंतरंग पारा आदि की भावना करि संवार्थी हुंवा बाह्य मल तो कोटिका भर अंतरंग मल श्वेतादि रूप अभ्यवर्षे, ताकरि रहित हो है । देदीप्यमान सोलहेबान विज स्वरूप की लब्धि को पाइ, सर्व जननि करि सराहिए है । तैसे ध्यानयोग जो धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान रूप भावना, ताकरि थर बहिरंग तपरूपी अग्नि का संस्कार करि निकट भव्य जीव हैं, ते भी श्रीदारिक, तेजस शरीर सहित कार्मारण शरीर का संबंध रूप करि मुक्त होइ । कायिका: कहिए शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी ते अनंत ज्ञानादि स्वरूप की उपलब्धि की पांइ; लोकाग्र विषे सर्व इन्द्रादि लोक करि स्तुति, नमस्कार, पूजनादि करि सराहिए है । काय जिनि पाइए ते कायिक, शरीरधारक संसारी जानने । तिनते विपरीत काय रहित अकायिक मुक्त जीव जानने ।
[ ३४१
आगे श्री माधवचंद्र त्रैविद्यदेव ग्यारह गाथा सूत्रनि करि पृथिवीकायिक आदि जीवन की संख्या कहें हैं
उड्ढरांसिवार, लोगे अण्णोष्णसंग तेऊ ।
भूजलवाऊ अहिया, पंडिभागोऽखलोगो दु ॥ २०४ ॥
सार्धत्रय शिवारं लोके श्रन्योन्यसंगुणे तेजः । भूजलवायवः अधिकाः, प्रतिभागोऽसंख्य लोकस्तु ॥२०४॥
टीका - जगत्थेशी घन प्रमाण लोक के प्रदेश, तीहि प्रमाण शलाका, विरलन, देय - ए तीन राशि करि तहां विरलनराशि का 'विरलन करि, एक-एक जुदाजुदा बखेरि, तहां एक-एक प्रति देवराशि को स्थापि, यतिसंवर्ग करना । जाका व कीया, ताका समंतपने वर्ग करना । सो इहां परस्पर गुणने का नाम वर्गितसंवर्ग
'१' पर्सयायम् - घथला पुस्तक १, पृष्ठ २६२, गांधी १४४५
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{ गोम्मद सार जीवकाण्ड गाथा २०४ है । ताहि करि शलाकाराशि मैं स्यों एक घटावना। बहरि असे करते जो राशि उपध्या, ताहि विरलन करि एक-एक प्रति सोई राशि देइ, वगितसंवर्ग करि शलाकाराशि में सौं एक और घटावना । जैसे लोक प्रमाण शलाका राशि यावत् पूर्ण होइ लावत् करना । असें करते जो राशि उपज्या, तीहि प्रमाण शलाका, विरलन, देयराशि, स्थापि, विरलनराशि का विरलन करि, एक-एक प्रति देय राशि कौं देइ, वगितसंवर्ग करि दूसरी बार स्थाप्या हवा, शलाकाराशि मैं सौ एक घटावना । बहुरि तहां उपज्या हूवा राशि का विरलन करि, एक-एक प्रति सोई राशि स्थापि, गत वर्ष मारि, तितलाकाराशि मैं सौ एक और घटावना । असें दूसरी बार स्थाप्या हूवा शलाकाराशि कौं भी समाप्त करि, तहां अंत विर्षे जो महाराशि भया, तीहि प्रमाण शलाका, विरलन, देय, स्थापि; विरलनराशि का विरलन करि, एकएक प्रति देय राशि को देइ, वगितसंवर्ग करि, तीसरी बार स्थान्या शलाकाराशि से एक घटावना । बहुरि तहां जो राशि भया, ताका विरलन करि, एक-एक प्रति सोई राशि देइ, वगितसंवर्ग करि, तिस शलाकाराशि तें एक और काढ़ना । असे तीसरी बार स्थाप्या हवा शलाकाराशि कौं समाप्त करि, तहाँ अंत विर्षे उपज्या महाराशि, तिहि प्रमाण शलाका, विरलन, देय, स्थापि; विरलतराशि कौं बखेरि, एक-एक प्रति देय राशि कौं देइ वगितसंवर्ग करि, चौथी बार स्थाप्या हूवा शलाकाराशि से एक काढ़ना । बहुरि तहां जो राशि भया, ताका विरलन करि, एक- एक प्रति तिस ही कौं देइ, वगितसंवर्ग करि, तिस शलाकाराशि मैं सौं एक और काढ़ना । जैसे ही क्रम करि पहिली बार, दूसरी बार, तीसरी बार जो स्थापे शलाकाराशि, तिनिकौं जोड़े, जो प्रमाण होइ, तितने चौथी बार स्थाप्या हवा शलाकाराशि मैं सौं घटाएं, अवशेष जितना प्रमाण रहा, तिनकौं एक-एक घटावने करि, पूर्ण होते अंत विर्षे जो महाराशि उपज्या, तीहि प्रमाण तेजस्कायिक जीवराशि है । इस राशि का परस्पर गुणकार शलाकाराशि, वर्म शलाकाराशि, अर्द्धच्छेद राशि तिनिका प्रमाण वा अल्पबहुत्व पूर्वे द्विरूप धनाधन धारा का कथन करते कहा है। तैसे इहां भी जानना । जैसे सामान्यपणे साहा तीन बार वा विशेषपणे किंचित् घाटि, च्यारि शलाकाराशि, पूर्ण जैसे होइ, तैसे लोक का परस्पर गुणन कीएं, जो राशि होड, तितने अग्निकायिक जीवराशि का प्रमाण हैं । बहुरि इनि ते पृथ्वीकायिक के जीव अधिक हैं। इनि ते अपकाय के जीव अधिक हैं । इनितें वातकाय के जीव अधिक हैं । इहां अधिक कितने हैं ? असा जानने के निमित्त भागहार असंख्यात लोक
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सम्यानचन्द्रिका भाषाका
प्रमाण जानना । सो कहिए है- असंख्यात लोकमात्र अग्निकायिक जीवनि का परिमाण ताकौं यथायोग्य छोटा असंख्यात् लोक का भाग दीएं, जेता परिमाण आवै, तितने अग्निकायिक के जीवनि का परिमाण विर्षे मिलायें, पृथ्वीकायिक जीवनि का परिमाण हो है । बहुरि इस पृथ्वीकायिक राशि की असंख्यात् लोक का भाग दीएं, जेता परिमारण पावै, तितने पृथ्वोकायिक राशि वि मिलाये, तितना अपकायिक जीवनि का परिमारण हो है । बहुरि अपकायिक राशि कौं असंख्यात लोक का भाग दीएं, जो परिमाण आवै, तितना अपकायिक राशि विर्षे मिलाएं, चातकायिक जोबनि का परिमाण हो है; प्रैसँ अधिक-अधिक जानने .
अपदिटिठवपत्तेया, असंखलोगष्पमारगया होति । तत्तो पदिन्दिा पुण, असंखलोगेण संगुणिवा ॥२०॥
अप्रतिष्ठितप्रत्येका, असंख्यलोकप्रमारणका भवंति ।
ततः प्रतिष्ठिताः पुनः, असंख्यलोकेन संगुरिणताः ॥२०५ ।। टीका - अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतीकायिक जीव यथायोग्य असंख्यात लोक प्रमाण हैं । बहुरि इनि कौं असंख्यात लोक करि गुरणे, जो परिमाण होइ, तितने प्रतिष्ठित प्रत्येक बनस्पतीकायिक जीव जानने । दोऊनि कौं मिलाएं सामान्य प्रत्येक वनस्पतीकायिक जीवनि का प्रमाण हो है। ..
तसरासिपढविआदी, चउक्कपत्तेयहीरणसंसारी । साहाररपजीवाणं, परिमाणं होदि जिविढें ॥२०६॥
असराशिपृथिव्यादि चतुष्कप्रत्येकहीनसंसारी ।
साधारसजीवानां, परिमाणं भवति जिनदिष्टम् ।।२०६॥ टोका - आगें कहिए है - पावली का असंख्यातवां भाग करि भाजित प्रतरांगुल का भाग जगत्प्रतर कौं दीएं, जो होइ, तितना असराशि का प्रमाण अर पृथ्वीअप-तेज-वायु इचि च्यारिनि का मिल्या हूवा साधिक चौगुणा तेजकायिक राशि प्रमाण, बहुरि इस प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती का मिल्या हवा परिमाण, असे इंनि तीन राशिनि कौं संसारी जीवनि का परिमाण में घटाएं, जो अवशेष रहैं, तितना साधारण वनस्पती, जे निगोद जीव, तिनिका परिमाण अनंतानंत जानना; जैसा जिनदेव ने कहा।
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३४४ ]
[ गोम्मटसार गरेका पाथा २०७-२०८.
सगसग असंखभागो, बादरकायारण होदि परिमाणं । Her सुमपमाणं, पंडिभागो पव्वणिट्ठो ॥ २०७॥
Faraariख्यभागो, बादरकायानां भवति परिमाणम् । शेषाः सूक्ष्मप्रमाणं प्रतिभागः पूर्वनिर्दिष्टः ॥ २०७ ॥
टीका -- पृथिवी, ग्रुप, तेज, वायु, साधारण वनस्पतीकायिकनि का जो. पूर्व परिमाण कह्या, तिस अपने-अपने परिमाण को असंख्यात का भाग देना । तहां एक भाग प्रमाण तौ अपना-अपना बादर कायकनि का प्रमाण है । अवशेष बहुभाग प्रमाण सूक्ष्म कायकनि का प्रमाण है । पृथ्वीकायिक के परिमाण को असंख्यात का भाग दीजिए। तहां एक भाग प्रसारण बादर. पृथ्वीकायकनि का परिमाण है । अवशेष बहुभाग परिमाण सूक्ष्म पृथ्वीकायिकनि का परिमाण है । जैसे ही सब का जानता । इहां भी भागहार का परिमाण पूर्वे कह्या था, असंख्यात लोक प्रमाण सोई है । तात इहां भी अनिकायादिक- विषै पूर्वोक्त प्रकार अधिक अधिकपना जानना ।
सुहमेसु संखभाग, संखा भागा अपुण्णमा इबरा । जसि श्रपुण्णद्वादो, पुण्णद्धाः संखगुणिवकमा ॥२०८॥
सूक्ष्मेषु संख्यभागः, संख्या भागा अपूर्णका इतरे । यस्मादपूर्णाद्वातः पूर्णाद्वा संख्यगुणितमाः ।। २०८ ॥
टोका - पृथ्वी, अप, तेज, वायु, साधारण वनस्पती, इनिका पूर्वे जो सुक्ष्म जीवनि का परिमाण कह्या, तींहि विषै अपने-अपने सूक्ष्म जीवनि का परिमाण कौं संख्यात का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण तो अपर्याप्त हैं । बहुरि अवशेष बहुभाग प्रमाण पर्याप्त हैं। सूक्ष्म जीवनि विषे अपर्याप्त राशि लें पर्याप्त राशि का प्रसारण बहुत जानना । सो कारण कहैं हैं; जातें पर्याप्त अवस्था का काल अंतर्मुहूर्तमात्र है। इस काल तें पर्याप्त अवस्था का काल संख्यातगुणा है, सो दिखाइए है। कोमल पृथ्वीकायिक का उत्कृष्ट आयु बारह हजार वर्ष प्रमाण है । बहुरि कठिन पृथ्वी कायिक का बाईस हजार वर्ष प्रमाण है । जलकायिक का सात हजार वर्ष प्रमाण है। तेजकायिक का तीन दिन प्रमाण है । वातकायिक का तीन हजार वर्षे: | वनस्पती कायिक कर दश हजार वर्ष प्रमारा है ।
प्रमारण
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सम्यानन्दिका भाषाटोका ]
[३४५
इहां प्रसंग पार निकलत्रय निमें बैंती मा बारा वर्ष, लेंडी का गुणचास दिन, चौद्री का छह महिना प्रमाण है। असे उत्कृष्ट प्रायु, बल का परिमारण कह्या । तीहि विर्षे अंतर्मुहूर्त काल विर्षे तौ अपर्याप्त अवस्था है। अवशेष काल विर्षे पर्याप्त अवस्था है । सातै अपर्याप्त अवस्था का काल से पर्याप्त अवस्था का काल संख्यातगणा जानना । तहां पृथ्वी कायिक का पर्याप्त-अपर्याप्त दोऊ कालनि विर्षे जो सवे सूक्ष्म जीव पाइए तो अंतर्मुहूर्त प्रमाण अपर्याप्त काल वि. केते पाइए ? असे प्रमाण राशि पर्याप्त-अपर्याप्त दोऊ कालनि के समपनि का समुदाय, फलराशि सूक्ष्म जीवनि का प्रमाण, इच्छाराशि अपर्याप्त काल का समयनि का प्रमाण, तहाँ फल करि इच्छा कौं गुरिण, प्रमाण का भाग दीएं, लब्धराशि का परिमाण पावै; तितने सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त जीव जानने । बहुरि प्रमाण राशि, फलराशि, पूर्वोक्त इच्छाराशि पर्याप्त काल कीएं लब्धराशि का जो परिमाण आवै, तितने सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त जीवनि का परिमारण. जानना। ताही ते संख्यात का भाग दीएं, एक भाग प्रमाण अपर्याप्त कहे । अवशेष (बहु) भाग प्रमाण पर्याप्त कहे हैं । अंसें ही सूक्ष्म अपकायिक, तेजकायिक, वातकायिक, साधारण वनस्पतिकायिक विर्षे अपनाअपना सर्व काल की प्रमाणराशि करि, अपने-अपने प्रमाण की फलराशि करि. पर्याप्त वा अपर्याप्त काल की इच्छाराशि करि लब्धराशि प्रमाण पर्याप्त वा अपर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानता। इहां पर्याप्त वा अपर्याप्त काल की अपेक्षा जीवनि का परिमाण सिद्ध हूबा है।
पल्लासंखेज्जवहिद, पदरंगलभाजिदे जगप्पदरे । जलभूरिणपवादरया, पुण्णा आवलिअसंखभजिदकमा ॥२०६॥ पल्यासंख्यावहितप्रतरांगुलभाजिते जमत्प्रतरे। ..
जलभूनिपवादरकाः, पूर्णा प्रावल्यसंख्यभाजिलक्रमाः ॥२०९॥
टीका --पल्य के असंख्यातवां भाग का भाग प्रतरांगुल कौं दीयें, जो परिमाण - पावै, ताका भाग जगत्प्रतर को दीएं, जो परिमारण आय, तितना बादर अपकायिक पर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना । बहुरि इस राशि कौं प्रावली का असंख्यातवां भागा का भाग दीएं, जो परिमारण प्राव, तितना बादरं पृथ्वी कायिक पर्याप्त जीवनि का प्रमारण जानना। बहरि इस राशि को भी प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीएं; जो परिमारण पावै, तितना बादर प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती पर्याप्त
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। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २१०-२११
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जीवनि का प्रमाण जानना । बहुरि इस राशि कौं भी प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दोएं, जो परिमाण पावै, तितना बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती पर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना ।
इहां 'रिण' इस प्रादि अक्षर से निगोद शब्द करि प्रतिष्ठिस प्रत्येक जानने; जात साधारण का कथन आगें प्रगट कहै हैं ---- .:.: विदावलिलरेगाणमसंखं संखं च तेउवाऊरणं । -:: पज्जत्ताण पमाणं, तेहि विहीणा अपज्जत्ता ॥२१०॥
अंदायलिलोकानामसंख्यं संध्यं च तेजोवायूनाम् ।
पर्याप्तानां प्रमाणं, लैविहीना अपर्याप्ताः ॥२१॥ . टोका - पावली के जेते समय हैं; तिनिका धन कीएं, जो प्रमाण होई, · ताको वृंदावली कहिए । ताकी असंख्यात का भाग दीएं, जो परिमाण आवे, तितना बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना । बहुरि लोक की संख्यात का भाग दीएं, जो परिमारण पावै, तितना बादर वातकायिक पर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना । सूक्ष्म जीवनि का प्रमाण पूर्व कह्या है, तातै इहा बादर ही ग्रहण करने ।
बहुरि पूर्व जो पृथ्वी, आप, तेज, वायु, प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित प्रत्येक बनस्पतीरूप बादर जीवनि का परिमारण कह्या श्रा; तीहि विर्षे अपना-अपना पर्याप्त जीवनि का परिमाण घटाए, अवशेष रहै, तितने-तितने बादर अपर्याप्त.जीव जानने ।
साहारणबादरेस, असंखं भागं असंखगा भागा। पुण्णाणमपुण्णाणं, परिमाण होदि अणुकमसो ॥२११॥
साधारणबादरेषु असंख्य भाग संख्यका भागाः । पूर्णानामपूर्णानां, परिमाणं भवत्यनुक्रमशः १२११।।
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टीका - बादर साधारण वनस्पती का जो परिमारा कहा था, ताकौं असंख्यात का भाग दीजिए। तहां एक भाग प्रमाण तो बादर निगोद पर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना । बहुरि अवशेष असंख्यात बहुभाग प्रमाण बादर निगोद अपर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना। असे अनुक्रम तें इहां काल की अपेक्षा अल्प-बहुत .
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सम्बामनिका भाषादीका ]
[.३४७ नाही कहा है। बादरनि विर्षे पर्याप्तपना दुर्लभ है । तातें पर्याप्त थोरे; अपर्याप्त घने हैं; . असा प्राचार्यनि का अनुक्रम जानि कथन कीया है। जैसा प्राचार्यनि का अभिप्राय जानना । " - आवलिअसंखसंखेणवहिदपवरंगुलेग हिदपदरं । कासो ससाणा, पुष्णूणतसा अपुण्णा हु ॥२१२॥
आवल्यसंख्यसंख्येनावहितप्रसंगुलेन हितातरम् ।
क्रमशस्त्रसतत्पूर्णाः पूनित्रसा · अपूर्णा हि ॥२१२॥ टीका - पावली का असंख्यातवां भाग का भाम प्रतरांगुल कौं दीएं, जो परिमाण पाव, ताका भाग जगत्प्रतर कौं दोएं, जो परिमारण प्रावै, तितना सर्व त्रसराशि का प्रमाण जानना । बहुरि संख्यात का भाग प्रतरांगुल को दीएं, जो परिमाण प्राव, ताका भाग जगत्पतर कौ दीएं, जो परिमाण मावै, तितना पर्याप्त प्रस जीवनि का प्रमाण जानना । बहुरि सामान्य स जीवनि का परिमाण मैं स्यो पर्याप्त सनि का परिमाण घटाएं, जो परिमारग अवशेष रहै, तितना अपर्याप्त स जीवनि का प्रमाए जानना । इहां भी पर्याप्तपना दुर्लभ है ! तातै पर्याप्त बस थोरे हैं, . . अपर्याप्त प्रस बहुत हैं; असा जानना।
प्रामें बादर अग्निकायिक आदि छह प्रकार जीवनि का परिमाण का विशेष निर्णय करने के निमित्त दोय गाथा कहै हैं - .. आवलिमसंखभागेणवहिदपल्लूणसायरछिदा।
बादरतेपणिभूजलवादाएं चरिमसायरं पुण्णं ॥२१३॥
प्रावल्यसंख्यभामेनावहितपल्योनसागरार्धच्छेदाः ।
बावरतेपनिभूजलवातानां चरमः सागरः पूर्णः ॥२१३॥ - टोका - बादर अग्निकायिक, अप्रतिष्ठित-प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती, पृथ्वी, अप, वायु इन छहौं राशि के अर्धच्छेदों का परिमारण प्रथम कहिए है । अर्धच्छेद का स्वरूप पूर्व धारानि का कथन विर्षे कह्या ही था; सो इहां एक बार पावली का असंख्यातवां भाग का भाग पल्य कौं दीएं, जरे एक भाग का परिमाण आव, तितनां सागर में सो घटाइए, तब बादर अग्निकायिक जीवनि का जो परिमाण, बाके .अर्ध
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३४८ )
पोम्मटसार जोमका गाया २१४
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च्छेदनि का परिमाण होई । बहुरि दोय बार पावली का असंख्यातवां भाग का भागः पल्या कौं दीए, जो परिमाण प्रांव, तितनां सागर में सों घटाइएं, तब बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक राशि के अर्धच्छेदनि का परिमारण होइ । बहुरि तीन बार श्रावली: का असंख्यातवां भाग का भाग पल्य.कौं दीएं, जो परिमाण प्रावै, तितना सागर में सों घटाइए, तब बादर प्रतिष्ठित प्रत्येक राशि के अर्धच्छेदनि का परिमाण होइ । बहुरि च्यारि बार पावली का असंख्यातवां भाग का भाग पल्य कौं दीएं, जो परिमाण प्रादे, तितनां सागर में सों घटाएं, पृथ्वीकायिक राशि के अर्धच्छेदनि का परिमाण होइ । बहुरि पांच बार अावली का असंख्यातथा भाग का भागःपल्या कौं दीएं, जो परिमारण,प्रावै, तितता सागर में सों घटाएं, अपकायिक राशि के अर्धच्छेदनि का परिमाण होइ.। बहुरि वातकायिक राशि के अर्घच्छेदनि का परिमारण संपूर्ण सागर प्रमाग, जालना । जाते सूत्र विर्षे असा कहा है. 'अंत विर्षे संपूर्ण सागर हैं।
ते वि विसेसेंगाहिया, पल्लासंखज्जभागमेत्तण ।' सम्हा ते रासोश्रो, असंखलोगेण गुरिगदकमा ॥२१४॥ सेऽपि विशेषेरणाधिकाः, पल्यासंख्यातभागमात्रेण । सस्माले राशयोऽसंख्यलोकन गुणितक्रमाः ॥२१४॥
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टीका -- जा कारण ते जे अर्घच्छेद राशि, ते बादर तेजकायिक राशि के अर्धच्छेद राशि तें लगाइ, अप्रतिष्ठित प्रत्येक प्रादि राशिनि के अर्धच्छेद पांचौ आवली के असंख्यातवें भाग मात्र अपना-अपना एक-एक विशेष करि क्रम ते अधिक हैं । तहां अग्निकायिक राशिनि के अर्धच्छेदविःते अप्रतिष्ठित प्रत्येकराशि के अर्धच्छेद पल्य कौं एक घाटि पावली का असंख्यातवां भाग करि गुरिणएं अर दोय बार पावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, जो प्रमाण होइ, तितने अधिक हैं । बहुरि अप्रतिष्ठित प्रत्येक राशि के अर्धच्छेदनि तें प्रतिष्ठित प्रत्येक राशि के अर्धच्छेद पल्य कौं एकर घाटि पावली का असंख्यातयां भागकरि, गुरिगए अर तीन बार श्रावली का असंख्यातवा भाग का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ तितने अधिक हैं। बहुरि प्रतिष्ठित प्रत्येक राशि के अर्धच्छेदनि रौं बादर पृथ्वीकायिक राशि के अर्धच्छेद पल्य की एक वाटि पावली का असंख्यातवा भाग करि भुणिए: अर च्यारि बार अावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए; जो प्रमाण होइ, तितने अधिक हैं । बहुरि बादर पृथ्वी
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सम्यग्जालत्रिका भागाटोका । कायिक राशि के अर्धच्छेदन : बाबर. मलक यिनः राशि नार्धन्द पल्य. कौं. एक धादिमावली का. असंख्यातवां भाग करि गुपिएं, अरः पांच बार आवलो का असंख्यातवां भागका भाग दीजिएं; जो प्रमाण होइ तितने अधिक हैं। बहरि बादर जलकांथिक राशि के अर्धच्छेदनि ते बादर वातकायिक राशि के अर्धच्छेद: पल्य को एक करि गुणिए, पर पांच बार पावली का असंख्यातवां भाग का भागः दीजिए; जो प्रमाण पाये; तितने अधिक हैं; असें अधिक-अधिक अर्धच्छेदः जानने ।
__ अब इस कथन कौं अंकसंदृष्टि करि प्रगट दिखाइए है | पल्य का प्रमाण पैसठि हजार पाच सें छत्तीस (६५,५३६.) पावली का असंख्यातवां भागः काप्रमाण आठ, सागर का प्रमाण छह.लाख पचपन हजार तीन से साठि.(६,५५,३६०). तहां एक बार, दोय बार, तीन बार, च्यारि बार, पांच बार, आठ का भाग पणछी कौं दीएं, इक्यासी से बाणवै, एक हजार चौबीस, एक सौ अठाईस, सोलह दोयः (८१६२। १०२४११२८।१६।२) इतने पाइए । सो एक्रम : पाठ-आठ गुरणे घाटि हैं । बहुरि इतने-इतने छह लाख पचावन हजार तीन से साठि विर्षे घटाएं; अंत विर्षे संपूर्ण हैं। तासे किछू भी न घटाएं, अग्निकायिकादि राशि के अर्धच्छेदनि का प्रमाण होइ । ६४७१६.८ १. ६५४३३.६ । ६५५२.३२ । ६५५३४४ । ६५५३५८ । ६५५३६० । इहा अधिक प्रमाण ल्यावने कौं पणट्ठी को सात करि गुण, दोय, तीन, च्यारि, पांच बार पाठ का भाग दोएं अंत विर्षे एक करि गुणि, पांच बार पाठ का भाग दीएं, इकहत्तरिसे अड़सठ, आठ से छिनर्व, एक सौ बारह, चौदह, दोय (७१६८ । ८६६ । ११२ । १४ । २) अनुक्रम ते अधिक का प्रमाण मावै है । अँसे ही पूर्वोक्त कथन का भावार्थ :जानना।
बहुरि इहां जितना-जितना अर्धच्छेदनि का अधिक का प्रमाण कहा, तितना तितना दूवा मांडि परस्पर गुण, जो-जो यथासंभव असंख्यात लोकमात्र प्रमाण होइ, तीहि तीहि करि-गुण्या हूवा अनुक्रम ते अग्निकायिकादि हैं अनतिष्ठित प्रत्येकादि राशि जानने । जाते असे सूत्र. पूर्वे गरिणत कथन विर्षे कह्या है -- ..
विरलिपरासीको पुष, जेसियमेत्ताणि अहियरूवारिस ।
तेसि अपरपोषणहवीं, गुरणयारो लद्धरासिस्स ॥ इस सूत्र के अभिप्राय ते जेते-जेते पूर्व राशि के अर्धच्छेदान ते उत्तर राशि के.. अर्धच्छेद अधिक कहे तितने-तितने दुवे मांडि, परस्पर गुणे, जो-जो प्रमाण होइ,
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३५० ।
[ पोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २१५ तितने-तितने प्रमाण करि, पूर्वराशि को गुग, उत्तर राशि का प्रमाण होइ । सो इहां सामान्यपर्ने मुरगकार का प्रमाण सर्वत्र असंख्यात लोकमात्र है । इहां पूर्वोक्त प्रमाण दूवानि को परस्पर गुरणे असंख्यात लोक कैस होइ ? सो इस कथन को प्रकट अंकसंदृष्टि करि अर अर्थसंदृष्टि करि दिखाइए है । जैसे सोलह दूवाति कौं परस्पर गुणे, पणट्ठी होइ, तौ चौसठि दूवानि कौं परस्पर गुणे, कितने होइ, असे राशिक करिएं । तहां प्रमाणराशि विर्षे देय राशि दोय विरलनराशि सोलह,फलराशि पणट्ठी (६५५३६) इच्छाराशि विर्षे देयराशि दोय बिरलनराशि चौसठि ।।
अब इहां लब्धराशि का प्रमाण ल्यावने को करण सूत्र कहै हैं - दिण्णच्छेदेणवहिद-इठ्ठच्छेदेहिं पयदविरलणं भजिये। लद्धमिदइट्ठरासीणण्णोण्णहकोए होदि पयदधरणं ॥२१॥
देशनावहिनेष्टरोदः प्रताधिरलनं भाजिते ।
लब्धमिसेष्टराश्यन्योन्यहत्या भवति प्रकृतधनम् ॥२१॥
टीका - देयराशि के अर्धच्छेद का प्रमाण करि, जे फलराशि के अर्धच्छेद प्रमाणराशि विर्षे विरलनराशि रूप कहे, तिनिका भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तीहि करि इच्छाराशि रूप प्रकृतराशि विर्षे जो विरलनराशि का प्रमाण कह्या, ताकौं भाग दीएं, जो प्रमाण प्राय, तितना जायगा फलराशिरूप जो इष्टराशि, ताकी मांडि परस्पर मुणे, जो प्रमाण आवै, तितना लब्धराशिरूप प्रकृतिधन का प्रमाण हो है । सो इहां देयराशि दोय, ताका अर्धच्छेद एक, तीहिका जे फलराशि परगट्ठी के अर्धच्छेद प्रमाणराशि विर्षे विरलनराशिरूप कहे सोलह, तिनिकौं भाग दीएं, सोलह ही पाएं । इनिका साध्यभूत राशि का इच्छाराशि विषं कहा, जो विरलनराशि चौंसठि, ताकौं भाग दीएं, च्यारि पाएं । सो च्यारि जायगा फलराशिरूप परगट्ठी मांडि ६५५३६ । ६५५३६ । ६५५३६ । ६५५३६ । परस्पर गुरण, लब्धराशि एकही प्रमाण हो है । जैसे ही यथार्थ कथन जानना।
जो पूर्व गणित कथन विर्षे लोक के अर्धच्छेदनि का जेता परिमारण कह्या है। तितने दूवे मांडि परस्पर गुणें ; लोक होइ, तो इहां अग्निकायिक राशि के अर्धच्छेद प्रमाण दूबे मांडि, परस्पर गुरणे कितने लोक होंहि ? असें त्रैराशिक करि इहां प्रमाणराशि विर्षे देय राशि दोय, विरलनराशि लोक का अर्धच्छेदराशि, अर फलराशि
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सम्पज्ञानच स्त्रिका भावाटीका ]
[ ३५१
लोक पर इच्छाराणि विषै देवराशि दोष, विरलनराशि अग्निकायिकराशि के अर्धच्छेद प्रमाण जानना । तहां लब्धराशि ल्यावने को देयराशि दोय, ताका अर्थच्छेद एक, ताका भाग फलराशि (जो ) लोक, ताका अर्धच्छेदरूप प्रमाणराशि विषे विरलनराशि है, ताको भागी लोक का पर्व मात्र पार का साध्यभूत afafe राशि का अर्थच्छेदरूप जो इच्छाराशि, ताविषै विरलनराशि निकायिक राशि के अर्धच्छेद, तिनको भाग दीएं, जो प्रमाण आया, सो किल्लू घाटि संख्यात पल्य कौं लोक का अर्धच्छेदराशि का भाग दीए, जो प्रमाण होइ तितता यहु प्रमाण आया । सो इतने लोक मांडि, परस्पर गुणें, जो असंख्यात लोक मात्र परिमाण भया, सोई लब्धिराशिरूप बादर प्रमिकायिकराशि का प्रमाण इहां जानना । इहां किंचिदून संख्यात पल्य प्रमाण लोकनि कौं परस्पर गुणें, जो महत श्रसंख्यात लोक मात्र परिमारा आया, सो तौ भाज्यराशि जानना । अर लोक का सर्वेच्छेद प्रमाण लोकनि कौं परस्पर गुणें, जो छोटा असंख्यात लोकमात्र परिमाण प्राया, सो भागहार जानना । भागहार का भाग भाज्य कौं दएं, जो प्रमाण होइ, तितना बादर afratfun taff का प्रमाण जानना । बहुरि इहां अग्निकायिकराशि विषै जो भागहार का, सो अगले प्रतिष्ठित प्रत्येक आदि राशिनि विषै जो भागहार का प्रमाण पूर्वोक्त प्रकार कीएं श्रावै, तिनि सबनि तैं असंख्यात लोक गुणा जानना । जाते सागर में स्यों जो-जो राशि घटाया, सो-सो क्रमते श्रावली का असंख्यातवां भाग गुणा घाटि । तातें प्रमाणराशि फलराशि पूर्वोक्तवत् स्थापि पर इच्छाराशि विष विरलनराशि अपने-अपने अर्धच्छेद प्रमाण स्थापि, पूर्वोक्त प्रकार त्रैराशि करि प्रतिष्ठित प्रत्येक आदि राशि भी सामान्यपने श्रसंख्यात लोकमात्र हैं । तथापि उत्तर उत्तरराशि असंख्यात लोक गुणा जानना । भागहार जहां घटता होइ, वहां राशि ता होइ, सो इहां भागहार असंख्यात लोक गुरणा घटता क्रमतें भया; तातें राशि असंख्यात लोक गुरणा भया । इहां असंख्यात लोक वा आवली का असंख्यातवां भाग की संदृष्टि स्थापि अर्थसंदृष्टि का स्थापन है । सो आगे संदृष्टि अधिकार विषै "लिखेंगेः ।
इति आचार्य श्रीनेमिचंद्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीवतत्त्व
प्रदीपिका नाम संस्कृतटीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामा इस भाषा
ater for itasis विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा, तिनिविष htraser नामा पाठवा अधिकार संपूर्ण भया ।
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लववां अधिकार: योग-मार्गेणा-प्ररूपणा
॥ मंगलाचरण ॥
कुंदकुसुमसम दंतत, पुष्पवंत जिनराय । बंदी ज्योति अनंतमय, पुष्पदंतवत काय ॥९॥
ari meroर्ता योगमार्गणा का निरूपण करें हैं। वहां प्रथम ही योग का सामान्य लक्षण कहैं हैं
-
पुग्गलविवाहदेहोवयेण मणवयणकाजुत्तस्स ।
जीवस्स जा हु सत्ती, कम्मागमकारण जोगो ॥ २१६॥
पुद्गलविपाकदेहोदयेन मनोवचनकाययुक्तस्य ।
जीवस्य याहि शक्तिः कर्मागमकारणं योगः ॥२१६॥
'टीका - संसारी जीव के कर्म, जो ज्ञानावरणादिक-कर्म पर उपलक्षण तें 'श्रदारिकादिक नोकर्म, तिनि का आगम कहिए कर्म नोकर्म वर्गणारूप पुद्गलस्कंधनि का कर्म - नोकर्मरूप परिणमना, ताक कारणभूत जो शक्ति बहुरि उस शक्ति का धारी जो श्रात्मा, ताके प्रदेशनि का चंचलरूप होना, सो योग कहिए है ।
कैसा है जीव ? पुद्गलविपाकी जो यथासंभव अंगोपांग नाम प्रकृति वा देह जो शरीर नाम प्रकृति ताका उदय जो फल देना रूप परिणमना, ताकरि मन वा भाषा वा शरीररूप जे पर्याप्त, तिनिकों धरें हैं ।
मनोवर्गणा, भाषावर्गणा, कायवर्णरणा का अवलंबन कर संयुक्त है। हा अंगोपांग वा शरीर नामा नामकर्म के उदय ते शरीर, भाषा, मन: पर्याप्तिरूप परिणम्या काय, भाषा, मन वर्गणा का अवलंबन युक्त ग्रात्मा, तार्कों लोकमात्र सर्व प्रदेशft विषै प्राप्त जो पुद्गल कंवनि को कर्म-नोकर्मरूप परिगमावते कौं कारणभूत शक्ति-समर्थता सो भाव-योग हैं।
बहुरि उस शक्ति का धारी आत्मा के प्रदेशनि "विषे किछु चलनरूप सकंप होना सो द्रव्य योग है ।
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सम्यग्लामचशिवका भावाडीकर ]
। ३५३
...इहा यह अर्थ जानना जैसें अग्नि के संयोग करि लोहे के जलावने की शक्ति हो है। अंगोपांग शरीर नामा नामकर्म के उदय करि मनो वर्गणा वा भाषा -वर्गणा का पाए पुद्गल स्कंध पर आहार वर्गणा का पाए नोकर्म पुद्गल स्कंध, तिनि का संबंधकरि जीव के प्रदेशनि के कर्म-नोकर्म ग्रहण की शक्ति-समर्थता हो है।
आमें योगनि का विशेष लक्षण कहैं हैंमणक्यणाण पउत्ती, सच्चासच्चुभयअणुभयत्थेसु। . तण्णाम होदि तदा, तेहिं दुजोगा हु तज्जोगा ॥२१७॥ मनोवचनयोः प्रवृत्तयः, सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु ।
तनाम भवति तदा, तैस्तु योगादि तद्योगाः ॥२१७॥
टीका - सत्य, असत्य, उभव, अनुभय रूप जे पदार्थ, तिनि विर्षे जो मन, वचन को प्रवृत्ति होइ, उनके जानने कौं वा कहने कौं जीव की प्रयत्नरूप प्रवृति होइ, सो सत्यादिक पदार्थ का संबंध से, तो सत्य, असत्य, उभय, अनुभय है, विशेषण जिनि का, असे च्यारि प्रकार मनोयोग पर च्यारि प्रकार वचनयोग जानने । तहां यथार्थ जैसा का तैसा सांचा ज्ञानगोचर जो पदार्थ होइ, ताकौं सत्य कहिए । जैसे जल का जानना के गोचर जल होइ जातै स्नान-पानादिक जल संबंधी क्रिया उसतें सिद्ध हो है; तातें सत्य कहिए ।
बहुरि अयथार्थ अन्यथारूप पदार्थ जो मिथ्याज्ञान के गोचर होइ, ताकौं असत्य कहिए। जैसें. जल का जानना के गोचर भाउली ( मगजल ) होइ; जाते स्नान-पानादिक जल संबंधी क्रिया भाडली स्यों सिद्ध न हो हैं; तात् असत्य कहिए ।
बहुरि यथार्थ वा अयथार्थ रूप पदार्थ जो उभय ज्ञान गोचर होइ, ताकी उभय कहिए। जैसे कमंडलु विर्षे घट का ज्ञान होइ, जातै घट की ज्यौं जलधारणादि • क्रिया कमंडलु स्यों सिद्ध हो है; तात सत्य है । बहुरि घटका-सा आकार नाहीं है। तातें मसत्य है; असें यह उभय जानना।
बहुरि जो यथार्थ अयथार्थ का निर्णय करि रहित पदार्थ, जो अनुभय ज्ञान गोचर होइ, तांको अनुमय कहिए । 'सत्य-असत्यरूप कहने योग्य नाहीं, जैसे यह किछू प्रतिभास है, असें सामान्यरूप पदार्थ प्रतिभास्या, तहां उस पदार्थ करि कौन
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। गोम्मटसार जीयकाण्ड गाथा २१८-२१६
क्रिया सिद्ध हो है, असा विशेष निर्णय न भया, तातै सत्य भी न कह्या जाय, बहुरि सामान्यपने प्रतिभास्या तातें असत्य भी न कह्या जाय ताते याकौं अतुभय कहिए । - सै च्यारि प्रकार पदार्थनि विर्षे मन की का वचन की प्रवृत्ति होइ सो च्यारि प्रकार मनोयोग का च्यारि प्रकार बचनयोग जानने ।
इहां घट विर्षे घट को विकल्प, सो सत्य, अर घट विर्षे पट का विकल्प, सो असत्य, पर कुंडी विर्षे जलधारण करि घट का विकल्प, सो उभय पर संबोधन आदि विर्षे हे देवदत्त ! इत्यादि विकल्प सो अनुभय जानना ।
आमैं सत्य पदार्थ हैं गोचर जाकै, असा मनोयोग सो सत्य मनोयोग; इत्यादिक विशेष लक्षण च्यारि गाथानि करि कहैं हैं -
सम्भावमणो सच्चो, जो जोगो तेण सच्चमणजोगी। तन्धिवरीओ मोसो, जाणुभयं सच्चमोसोस्तेन ति ॥२१॥ . सद्भावमनः सत्यं, यो योगः स तु सत्यमनोयोगः । ....
तद्विपरीतो मृषा, जानीहि उभयं सत्यभूषेति ॥२१८॥ टीका - 'सद्भावः' कहिए सत्पदार्थ हो है गोचर जाका, असा जो मन सत्य पदार्थ के ज्ञान उपजावनेकी शक्ति लीएं भाव-मन होइ, तीहि सत्यमन करि निपज्या जो चेष्टा प्रवर्तन रूप योग, सो सत्यमनोयोग कहिये ।
बहुरि असे ही विपरीत असत्य पदार्थरूप विषय के ज्ञान उपजावने की शक्ति रूप जो भाव-मन, ताकरि जो चेष्टा प्रवर्तन रूप योग होइ, सो असत्यमनोयोग
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बहुरि युगपत् सत्य-असत्य रूप पदार्थ के ज्ञान उपजाने की शक्तिरूप जो भाव-मन, ताकारि जो प्रवर्तन रूप योग होइ, सो उभयमनोयोग कहिये-जैसे हे भव्य ! तू जानि ।
ण य सच्चमोसजुत्तो, जो दु मणो सो असच्चमोसमणो।
जो जोगो तेण हवे, असच्चमोसो दु मरणजोगो २ ॥२१६॥ १- पटखंडागम-धवला पुस्तक १, पृ. सं. २६३, मा. सं. १५३ । कुछ पाउनेद-समावो सचमणो, . सब्धियरोदो, सच्चमस्सं ति ।
२-पंद्रखंगम - धवला पुस्तक-१ पृष्ठ सं. २०४, गा."सं.१५७।
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सम्यग्ज्ञानन्द्रिका भाषाटोका !
न च सत्यभूषायुक्तं यत्तु मनस्तदसत्यभूषामनः । यो योगस्तेन भवेत् असत्यमृषा तु मनोयोगः ॥२१९॥
टीका जो मन सत्य र भूषा कहिए असत्य, तीहि करि युक्त न होइ बहुरि सत्य असत्य का निर्णय करि रहित जो अनुभय पदार्थ, ताके ज्ञान उपजावने की शक्तिरूप जो भाव मन, तींहि करि निपज्या जो प्रवर्तनरूप योग, सो सत्य-असत्य रहित अनुभव मनोयोग कहिए । अँसें च्यारि प्रकार मनोयोग कह्या ११२१६||
वस विहसच्चे वयणे, जो जोगो सो दु सच्चर्वाचिजोगो । तव्विवरीओ मोसो, जाणुभयं सच्चमोसो ति ॥ २२० ॥
afare वचने, यो योगः स तु सत्यवचोयोगः । तद्विपरीतो भूषा, जानीहि उभयं सत्यमुषेति ॥ २२० ॥
[ ३५५.
टीका सत्य अर्थ का कहनहारा सो सत्य वचन है । जनपद ने आदि देकरि दस प्रकार सत्यरूप जो पदार्थ, तींहि विषै वचनप्रवृत्ति करने की समर्थ, स्वरनामा नामकर्म के उदय ते भया भाषा पर्याप्त करि निपज्या, जो भाषा वर्गणा श्रालंबन लौएं श्रात्मा के प्रदेशनि विषै शक्तिरूप भाववचन करि उत्पन्न भया जो प्रवृत्तिरूप विशेष, सो सत्यवचन योग कहिए ।
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बहुरि तीहियों विपरीत श्रसत्य पदार्थ विर्षे वचनप्रवृत्ति को कारण जो भाव वचन, तींहि करि जो प्रवर्तनरूप योग होइ, सो असत्य वचन कहिए ।
बहुरि कमंडलु विषै यहु घट है इत्यादिक सत्य-असत्य पदार्थ विषै वचन प्रवृत्ति कौं कारण जो भाव वचन, तींहि करि जो प्रवर्तनरूप योग होइ, सो उभय वचन योग कहिए; असे हे भव्य ! तू जानि ।
जो णेव सच्चमोसो, सो जाण असच्चमोसवचिजोगो । श्रमणाणं जा भासा, सण्णीणामंतरपी यादी २ ||२२१||
यो नैव सत्यभूषा, स जानीहि असत्यमुपानयोयोगः श्रमनसां था. भाषा, संज्ञिनामामंत्रण्यादि: ॥२२१॥
१.
पखंडागम-धवला पुस्तक १, पृ. २८ गा. सं. १५८ २. - पटूखंडागम - वदला पुस्तक १. पृ. २०८. सं. १५६
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| गोम्मटसार जोधकाण्ड गामा २२२-२२३ टीका - जो सत्य असत्यरूप । होइ अंता पदार्थ वाई वचनप्रवृत्ति कौं कारण जो भाष वचन, तीहि करि जो प्रवर्तनरूप योग होइ, सो सत्य असत्य निर्णय रहित अनुभय वचन योग जानना । ताका उदाहरण - उत्तर प्राधा सूत्र करि कहैं है । जो बेइंद्रियादिक प्रसैनी पंचेंद्रिय पर्यंत जीवनि के केवल अनक्षररूप भाषा है, सो सर्व अनुभय वचन योग जानना । वा सैनी पंचेंद्रिय जीवनि के आगे कहिए है, जो आमंत्रणी आदि अक्षररूप भाषा, सो सर्व अनुभय- वचन योग जानना । ___ आग जनपद आदि दस प्रकार सत्य कौं उदाहरण पूर्वक तीनि गाथानि करि
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जणवदसम्मदिठवरणा, जामे रुवे पडुचचववहारे। संभावरणे य भावे, उवमाए दसविहं सच्चं ॥२२२॥
जनपदसम्मतिस्थापनानाम्नि रूपे प्रतित्यव्यवहारयोः ।
संभावनायां च भावे, उपमायां दशविध सत्यम् ॥२२२।। टीका - जनपद विष, संवति वा सम्मति विर्षे, स्थापना विर्ष, नाम विर्ष, रूप विर्षे, प्रतीत्य विषै, व्यवहार विणे, संभावना वि, भाव विर्षे, उपमा विष असें दस स्थाननि विर्षे दस प्रकार सत्य जानना ।
भत्तं देवी चंदप्पह, पडिमा तह य होदि जिणदत्तो। सेदो दिग्धो रज्झदि, कूरो ति य ज हबे वयरणं ॥२२३॥
भक्तं देवी चंद्रप्रभप्रतिमा तथा च भवति जिनदत्तः ।
श्वेतो दीर्घा रध्यते, कूरमिति च यद्भवेद्वचनम् ॥२२३॥ टीका -- दस प्रकार सत्य कहा, ताका उदाहरण अनुक्रम से कहिए हैं ।
देशनि विर्षे, व्यवहारी मनुष्यनि विर्षे प्रवृत्तिरूप वचन सो जनपद सत्य कहिए । जैसे प्रोदन कौं महाराष्ट्र देश विर्षे भातू वा भेटू कहिए । अंध्रदेश विर्षे वंटक था मुकू कहिए । कर्णाट देश विर्षे कूलु कहिए । द्रविड़ देश विर्षे चोरु कहिए, इत्यादिक जानना ।
बहुरि जो संवृति कहिए कल्पना बा सम्मति कहिए बहुत जीवनि करि तैसें ही मानना सर्व देशनि विषं समान रूढिरूप नाम, सो संवति सत्य कहिए वा इस
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सम्हानचन्द्रिका भाषाटीका 1 दो को मप्रतिसत्य कहिए । जैसे किसो विर्षे पटरानीपना न पाइए पर वाका नाम देवी कहिए ।
बहुरि जो अन्य विर्षे अन्य का स्थापन करि, तिस मुख्य वस्तु का नाम कहना; सो स्थापनासत्य कहिए । जैसे रत्नादिक करि निर्मापित चंद्रप्रभ तीर्थंकर की प्रतिमा को चंद्रप्रभ कहिए ।
बहुरि देशादिकं की अपेक्षा भातु इत्यादिक नाम सत्य है । तैसे अन्य अपेक्षा रहित केबल व्यवहार निमित्त जिसका जो नाम होइ, सो कहना, सो नामसत्य कहिए । जैसे किसी का नाम जिनदत्त है; सो जिन भगवान करि दीया होइ, ताकौं जिनदत्त कहिए; सो इहां दान क्रिया की अपेक्षा बिना ही जिनदत्त नाम कहिए।
बहुरि जो पुद्गल के अनेक गुण होत सतें रूप की मुख्यता लीएं वचन कहिए सो रूपसत्य कहिए । जैसे यह पुरुष सफेद है; अंसा कहिए । तहां बाके केशादिक श्याम वा रसादिक अन्य गुण वाकै पाइए है; परि उनकी मुख्यता न करी ।
बहुरि जो विवक्षित वस्तु से अन्य वस्तु की अपेक्षा करि तिस विवक्षित वस्तु कौं हीनाधिक मान वचन कहिए; सो प्रतीत्यसत्य कहिए । याही का नाम प्रापेक्षिक सत्य है । जैसे यहु दीर्घ है असा कहिए, सो तहां किसी छोटे की अपेक्षा याकौं दीर्घ कह्या बहुरि यहु ही यात दीर्घ की अपेक्षा छोटा है; परन्तु वाकी विवक्षा न लीन्ही । प्रैसे हो स्थूल सूक्ष्मादिक कहना, सो प्रतीत्यसत्य जानना ।
बहुरि जो नंगमादि नय की अपेक्षा प्रधानता लीएं वचन कहिए, सो व्यवहारसंत्य जानना । जैसें नैगम नय की प्रधानता करि असा कहिए कि "भात पचै है' सो भात तो पचे पीछे होगा; अब तो चावल ही हैं। तथापि थोरे ही काल में भात होना है; तातै नैगम नय की विवक्षा करि भात पर्याद परिणमने योग्य द्रव्य अपेक्षा सत्य कहिए । आदि शन्द करि संग्रहनयादिक का भी व्यवहार विधान जानना ।
नयंनि का व्यवहार की अपेक्षा जैसे सर्व पदार्थ सत्व रूप हैं वा असत्त्व रूप हैं इत्यादिक वचनं सों व्यवहारसत्य है । नगमादि नय ते संग्रह नयादिक का व्यवहार हो है, जात याकी व्यवहारसत्य कहिए ।
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३५८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गामा २२४
सक्को जंबूदीवं, पल्लट्टदि पाववज्जवयणं च । पल्लोवमं च कमसो, जणपदसच्चादिविदुरांता ॥२२४॥
शको जंबूद्वीपं परिवर्तयति पापयर्जवचनं च । पत्थोपमं च क्रमशो, जनपदसत्यादिष्टांताः ॥ २२४॥
टोका - असंभवपरिहार पूर्वक वस्तु के स्वभाव का विधानरूप लक्षण धरै; जो संभावना तीहि रूप वचन सो संभावना सत्य कहिए। जैसे इंद्र जंबूद्वीप पलटावने कौं समर्थ है, जैसा कहिए। तहाँ जंबूद्वीप को पलटाने की शक्ति संभव नाहीं । ताका परिहार करि केवल वामें अँसी शक्ति ही पाइए है; जैसा जंबूद्वीप पलटावने की क्रिया की अपेक्षा रहित वचन सो सत्य है । जैसे बीज विषै अंकूरा उपजावने की शक्ति है, सो यह क्रिया की अपेक्षा लीएं वचन है । जातें असंभव का परिहार करि वस्तु स्वभाव का विधानरूप जो संभावना, ताके नियम करि क्रिया की सापेक्षता नाहीं है । जातें किया है, सो अनेक बाह्य कारण मिलें उपजै है |
बहुरि अतींद्रिय जो पदार्थ, तिनि विषै सिद्धांत के अनुसारि विधि निषेध का संकल्परूप जो परिणाम, सो भाव कहिए । तींहि नै लीएं जो बचन, सो भावसत्य कहिए। जैसे जो सूकि गया होंइ वा अग्नि करि पच्या होंइ वा घरटी, कोल्हू इत्यादि यंत्रaft fन्न कीया हों अथवा खटाई वा लूरण करि मिश्रित हवा होंइ वा भस्मीभूत हुवा होइ वस्तु, ताकौ प्रासुक कहिए। याके सेवन तें पापबंध नाहीं । इत्यादिक पापवर्जनरूप वचन, सो भावसत्य कहिए । यद्यपि इनि वस्तुनि विषै इंद्रियगोचर सूक्ष्म जीव पाइए हैं; तथापि आगम प्रमारण तें प्रासु प्रासुक का संकल्परूप भाव के आश्रित भैसा बचन सो सत्य है; जातें समस्त अतींद्रिय पदार्थ के ज्ञानीनि करि कह्या हुवा वचन सत्य है । चकार करि वैसा ही और भावसत्य
जानना ।
बहुरि जो किसी प्रसिद्ध पदार्थ की समानता किसी पदार्थ को कहिए सो उपमा हैं । तीहि रूप वचन सो उपमासत्य कहिए। जैसे उपमा प्रमाण विषै पल्योपम कह्या, तहां धान भरखे का जो खास ( गोदाम ) ताकों पल्य कहिए, ताकी उपमा जा होइ जैसी संख्या को पल्योपम कह्या, सो इहां उपमासत्य है । श्रसंख्यातासंख्यात रोम खंडनि के आश्रयभूत वा तीहि प्रमाण समयनि के आश्रयभूत जो संख्या
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सम्यग्जानन्तिका भावाटीका 1
[ ३५६
विशेष, ताके कोई प्रकार वाडा विर्षे रोम भरने करि, पल्य की समानता का
आश्रय करि, पल्योपम कहिए है । चकार करि सागर आदि उपमासत्य के विशेष जानने।
असे अनुक्रम ते जनपदादिक सत्य के भोजनादिक उदाहरण क्रम से कहे।
प्रागै अनुभव वचन के आमंत्रणी आदि भेदनि के निरूपण के निमित्त दोय गाथा कहैं हैं -
आमंतणि आणवणी, याचणिया पुच्छणी य पण्णवरणी। . . पच्चक्खाणी । संसयवयणी इच्छाणुलोमा य ॥२२५॥
प्रामंत्रणी आज्ञापनी, याचनो प्रापृच्छनो च प्रज्ञापनी ।
प्रत्याख्यानी · संशयवचनी इच्छानुलोम्नी व ॥२२॥ टीका - 'हे देवदत्त ! तु प्राव' इत्यादि लावनेरूप जो भाषा, सो आमंत्रणी कहिए । बहुरि 'तु इस कार्य कौं करि' इत्यादि कार्य करवाने की प्राज्ञारूप जो भाषा सो आज्ञापनी कहिए । बहुरि 'तू मोको यह वस्तु देहु' इत्यादि मांगनेरूप जो भाषा सो याचनी कहिए । बहुरि 'यह कहां है ?' इत्यादि प्रश्नरूप जो भाषा सो आपृच्छनी कहिए । बहुरि 'हे स्वामी मेरी यह वीनती है' इत्यादि किंकर की स्वामी सौं बीनतीरूप जो भाषा, सो प्रज्ञापनी कहिए । बहुरि 'मैं इस वस्तु का त्याग कीया' इत्यादि त्यागरूप जो भाषा, सो प्रत्याख्यानी कहिए । बहुरि जैसे 'यहु बुगलों की पंकति है कि ध्वजा है' इत्यादि संदेहरूप जो भाषा, सो संपायवचनी कहिए । बहरि जैसे 'यह है लेस मोकौं भी होना' इत्यादि इच्छानुसारि जो भाषा, सो इच्छानुवचनी कहिए।
रणवमी अणक्खरगदा, असच्चमोसा हवंति भासायो। सोदाराणं जह्मा, वत्तावत्रं ससंजरगया ॥२२६॥
नदमी अक्षरगता, असत्यमृषा भवंति भाषाः ।
श्रोत णां यस्मात् व्यक्ताव्यतांशसंशापिकाः ॥२२६॥ टीका - पाठ भाषा तो प्रागै कहों पर नवमी अक्षररूप बेइंद्रियादिक असैनी जीवंनि के जो माषा हो है, अपने-अपने समस्यारूप संकेत की प्रकट करणहारी; सो
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SAIRAIMALHEmaiIANIM ED
[ गोम्मटसार बाबका गापा २२७ अनुभय भाषा जाननी । असे सल्य असत्य लक्षण रहित आमंत्रही प्रादि अनुभव भाषा जाननी । इनि विषं सत्य असत्य का निर्णय नाहीं, सो कारण कहैं हैं। जाते और मानननि का सुननेवाला के सामान्यपना करि तौ अर्थ का अवयव प्रगट हवा, ताते असत्य न कही जाइ । बहुरि विशेषपना करि अर्थ का अवयव प्रगट न हवा तात सत्य भी न कह्या जाय, तातें अनुभय कहिए । जैसे कहीं 'तू आव' सो इहां सभी सुननेवाला नै सामान्यपर्न जान्या कि बुलाया है, परंतु वह प्रावैगा कि न आवमा असा विशेष निर्णय तौं उस बचन में माहीं । ताते इसकौं अनुभय कहिए । असें सब का जानना । अन्य भी अनुभय वजन के भेद हैं । तथापि इन भेदनि वि गर्मित जानने । अथवा जैसे ही उपलक्षण ते असी ही व्यक्त अव्यक्त वस्तु का अंश की जनावनहारी और भी अनुभ्य भाषा जुदी जाननी।।
इहां कोऊ कहैगा कि अनक्षर भाषा का तो सामान्यपना भी व्यक्त नाही हो है, याकौं अनुभय वचन कैसे कहिए ?
ताकौं उत्तर - कि अनक्षर भाषावाले जीवनि का संकेतरूप वचन हो है । तिस हैं उनका बचनं करि उनके सुख-दुख प्रादि का अवलंबन करि हर्षादिक रूप अभिप्राय जानिएं है । तातें अनक्षर शब्द विषं भी सामान्यपना की व्यक्तता संभ है।
प्रागं ए मन वचन योग के भेद कहे, तिनिका कारण कहें हैंमरणवणाणं मूलणिमित्तं खलु पुष्णदेहउदो छ । मोसुभयाणं मूलणिमित्तं खलु होदि आवरणं ॥२२७॥
मनोवचनयोर्मूलनिमित्त खलु पूर्णदेहोदयस्तु ।
वृषालययोर्मूलनिमित्त खलु भवत्यावरणम् ।।२२७॥ टीका - सत्यमनोयोग वा अनुभयमनोयोग बहुरि सत्यवचनयोग वा अनुभयवचनयोग, इनिका मुख्य कारमा पर्याप्त नामा बामकर्म का उदय अर शरीर नामा नामकर्म का उदय जानना । जातै सामान्य है, सो विशेष विना न हो है । तानै मन वचन का सामान्य ग्रहण हूवा, तहां उस ही का विशेष जो है, सत्य पर अनुभय, ताका ग्रहण सहज ही सिद्ध भया । अथवा असत्य-उभय का आगे
मा
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सम्यमानधिका भाषाटोका ।
निकट ही कथन है । तातें इहां अवशेष रहे सत्य-अनुभय, तिनि का ही ग्रहण करना। बहरि आवरण का मंद उदय होत असत्यपना की उत्पत्ति नाहीं हो है । ताते असत्य या उभय मनोयोग अर वचनयोग का मुख्य कारण आवरण का तीव्र अनुभाग का । उदय जानना । इसहू विर्षे इतनां विशेष है, तीव्रतर आवरण के अनुभाग का उदय असत्य मन-वचन को कारण है। पर तीन आवरण के अनुभाग का उदय उभय मन-वचन की कारण है ।
इहां कोऊ कहै कि असत्य बा उभय मन-वचन का कारण दर्शन का चारित्र मोह का उदय क्यौं न कही ?
ताका समाधान - कि असत्य पर उभय मन, बचन, योग मिथ्यादृष्टीवत् असंयत सम्यग्दृष्टी के या संयमी के भी पाइए । तातै तु कहै सो बन नाहीं । ताते सर्वत्र मिथ्यादृष्टी आदि जीवनि के सत्य-असत्य योग का कारण मंद वा तीव्र पावरण के अनुभाग का उदय जानना । केवली के सत्य-अनुमय योग का सद्भाव सर्व
आवरण के अभाव तें जानना । अयोग केवली के शरीर नामा नामकर्म का उदय नाहीं । तातै सत्य पर अनुभय योग का भी सद्भाव नाहीं है ।
इहां प्रश्न उपजे है कि केवली के दिव्यध्वनि है, ताके सत्य-वचनपना वा अनुभय वचनपना कैसे सिद्धि हो है ?
ताको समाधान-केवली के दिव्यध्वनि हो हैं; सो होते ही तौ अनक्षर हो है; सो सुनने वालों के कर्णप्रदेश कौं यावत् प्राप्त न होइ तावत् काल पर्यंत अनक्षर ही है । तातें अनुभव बचन कहिए । बहुरि जब सुनने वालों के कर्ण विष प्राप्त हो है; तब अक्षर रूप होइ, यथार्थ वचन का अभिप्राय रूप संशयादिक को दूर करें है। तातें सत्य वचन कहिए । केवली का अतिशय करि पुद्गल वर्गणा तसे ही परिणमि जांय है। ... आगे सयोग केवली के मनोयोग कैसे संभव है ? सो दोय गाथानि करि कहैं हैं -
मणसहियाणं वयणं, विठं तप्पुत्वमिति सजोगम्हि । ... उत्तो मरणोवयारेणिदियणाणेण होणम्मि ॥२२८॥
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દર
मनः सहितानां वचनं दृष्टं तत्पूर्वमिति योगे ।
उक्त
| गोम्मटसार जीवकाण्डंग (२८-२१५
मन उपचारेणेंद्रियज्ञानेन होने ॥२२८॥
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टीका - इन्द्रिय ज्ञान जो मतिज्ञान, तींहि करि रहित सा जु सयोग केवली, तीहि विषै मुख्यपने तो मनो योग है नाहीं, उपचारतें है । सो उपचार विषै निमित्त का प्रयोजन है; सो निमित्त इहां यह जानना जैसे हम प्रादि छद्यस्थ जीव मन करि संयुक्त, तिनिके मनोयोग पूर्वक अक्षर, पद, वाक्य, स्वरूप वचनव्यापार देखिए है । तातें केवली के भी मनोयोग पूर्वक वचन योग कार ।
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इहां प्रश्न कि छद्यस्थ हम आदि अतिशय रहित पुरुषनि विषै जो स्वभाव देखिए, सो सातिशय भगवान केवली विषै कैसे कल्पिए ?
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ताका समाधान सादृश्यना नाहीं है; इस ही वास्ते छत्रस्थ के मनोयोग मुख्य कया । श्रर केवली के कल्पनामात्र उपचाररूपं मनोयोग कहा है ।
सो इस कहने का भी प्रयोजन कहें हैं
|
गोवंyaurat, araमण जिवचंद मणवम्गरपबंधाणं, आगमणादो दु सणजोगो ॥२२६॥
गोपांगोदयात् द्रव्यमनोऽर्थं जितेंद्रचंद्रे | मनोवगणास्कंधानामागमनात् तु मनोयोगः ।। २२९ ॥
टीका - जिन है इंद्र कहिए स्वामी जिनिका सें जो सम्यग्दृष्टी, तिनिके चंद्रमा समान संसार श्राताप पर अज्ञान अंधकार का नाश करनहारा, जैसा जो सयोगी जिन, तीहि विषै अंगोपांग नामा नामकर्म के उदय तें द्रव्यमन फूल्या आठ पांखडी का कमल के आकार हृदय स्थानक के मध्य पाईए हैं। ताके परिणमनेकौं कारणभूत मन वर्गा का श्रागमन तें द्रव्य मन का परिणमन है । ताते प्राप्तिरूप - प्रयोजन तें पूर्वोक्त निमित्त तैं मुख्यपने भावमनोयोग का प्रभाव है । तथापि मनयोग उपचार मात्र कथा है । अथवा पूर्व गाथा विषे कला था; आत्मप्रदेशनि के कर्म नोकर्म का ग्रहणरूप शक्ति, सो भावमनोयोग, बहुरि याहीं तें उत्पन्न भया मनोवगणारूप पुद्गलनि का मनरूप परिणमना, सो द्रव्यमनोयोग, सो इस गाथा सूत्र करि संभव है । ता केवली के मनोयोग का है । तु शब्द करि केवली के
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मालम्लायमणमासम्मम्मम्ममा
सम्यग्ज्ञानानका भाषाटीका पूर्वोक्त उपचार कह्या, तिसके प्रयोजनभूत सर्व जीवनि की दया, तत्त्वार्थ का उपदेश शुक्लध्यानादि सर्व जानने ।
आगं काययोग का निरूपण प्रारंभ है । तहां प्रथम ही काय योग का भेद औदारिक काययोग, ताकौं निरुक्तिपूर्वक कहै हैं -
पुरुमहदुदारुरालं, एयठ्ठो संविजारण तम्हि भवं । • औरालियं तमु (त्तिउ)च्चइ औरालियकायजोगो सो ॥२३०॥
पुरुमहदुदारमुरालमेकार्थः संविजानीहि तस्मिन्भवम् ।
सौगालिक अनुमते औरालिककाययोगः सः ॥२३०॥ टीका - पुरु वा महत् वा उदार वा उराल वा स्थूल ए एकार्थ हैं । सो स्वार्थ विर्षे ठण् प्रत्यय तें जो उदार होइ.वा उराल होंइ, सो औदारिक कहिए बा पौरालिक भी कहिए अथवा भव अर्थ विर्षे ठण् प्रत्यय ते जो उदार विर्षे वा उराल विष उत्पन्न होइ, सो प्रोदारिक कहिए वा औरालिक भी कहिए । बहुरि संचयरूप पुद्गलपिंड, सो प्रौदारिक काय कहिए । औदारिक शरीर नामा नामकर्म के उदय है निपज्या औदारिक शरीर के प्राकार स्थूल पुद्गलनि का परिणमन, सो औदारिक काय जानना । वैक्रियिक आदि शरीर सूक्ष्म परिणमै है, तिनिकी. अपेक्षा यह स्थूल है; ताते औदारिक कहिए है।
इहां प्रश्न -- उपजै है कि सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि जीवनि के स्थूलपना नाही है; तिनिको औदारिक शरीर कैसे कहिए है ?
ताको समाधान - इन हूत बैंक्रियिकादिक शरीर सूक्ष्म परिणम है, ताते तिनकी अपेक्षा स्थूलपना पाया । अथवा परमामम विर्षे असी रूढि है; तातें समभिरूढि करि सूक्ष्म जीवनि के औदारिक शरीर कह्या; सो औदारिक शरीर के निमित्त प्रात्मप्रदेशनि के कर्म-नोकर्म ग्रहण की शक्ति, सो औदारिक काय योग कहिए है । अथवा औदारिक वर्गणारूप पुद्गल स्कंधनि कौं प्रौदारिक शरीररूप परिणमावने की कारण, जो आत्मप्रदेशनि का चंचलपना, सो औदारिक काययोग हे भव्य ! तू जानि । अथवा औदारिक काय सोई औदारिककाय योग है । इहां कारण
१- षट्वंटागम श्वमा पुस्तक १, पृ. २६३ भाषा स. १६० पाठभेद-न विजाण तिवृत्तं ।
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गोम्मटसार छीयकाण्ड मावा २३१-२३२
Wwwimminer-maiIAENTISTRamdN EMALEELINMEmerameniante
विर्षे कार्य का उपचार जानना । इहां उपचार है सो निमित्त पर प्रयोजन धरै है। तहां औदारिक काय तें जो योग भया, सो औदारिक काय योग कहिए; सो ग्रह तो निमित्त । बहुरि तिस योग से ग्रहे पुद्गलनि का कर्म-नोकर्मरूप परिगमन, सो प्रयोजन संभव है । तातै निमित्त पर प्रयोजन की अपेक्षा उपचार कह्या है।
प्रागें औदारिक मिश्रकाययोग को कहैं हैं -
ओरालिय उत्तत्थं, विज़ारण भिस्सं तु अपरिपुण्यं तं । जो हो संगरोगो, झोराणियमिरराजोगो सो ॥२३१॥
औरालिफमुक्तार्थ, विजानीहि मिश्र तु अपरिपूर्ण तत् ।
यस्तेन संप्रयोगः, औरालिकमिश्रयोगः सः ॥२३१॥ टीका - पूर्वोक्त लक्षण लीएं जो औदारिक शरीर, सो यावत् काल अंतर्मुहूर्त पर्यंत पूर्ण न होइ, अपर्याप्त होइ, तावत् काल प्रौदारिक मिश्र नाम अनेक के मिलने का है; सो इहा अपर्याप्त काल संबंकी तीन समयनि विर्षे संभवता जो कार्माण योग, ताकी उत्कृष्ट कार्माण वर्गणा करि संयुक्त है। तारे मित्र नाम है । अथवा परमागम विषं असें ही रूढि है। जो अपर्याप्त शरीर कौं मिश्र कहिए, सो तीहि औदारिक मिश्न करि सहित संप्रयोग कहिए, ताके अधि प्रवा जो आत्मा के कर्म-नोकर्म ग्रहणे की शक्ति धरै प्रदेशनि का चंचलपना; सो योग है । सो शरीर पर्याप्ति की पूर्णता के अभाव ते औदारिक वर्गणा स्कंधनि कौं संपूर्ण शरीररूप परिणमायने कौं असमर्थ है । अंसा औदारिक मिश्र काययोग तु जानि ।
प्रागै विक्रियिक काय योग कौं कहैं हैं-- विविहगुणइड्ढिजुतं, विक्किरियं वा हु होदि वेगुव्यं । तिस्से भवं च णेयं, वेगुन्वियकायजोगो सो २ ॥२३२॥
विविधगुणद्धियुक्त, विक्रियं वा हि भवति विगूर्वम् । तस्मिन् भवं छ जेयं, वैदिककाययोगः सः ॥२३२॥ .
१ षखंडागम - धवला पुस्तक १ पृष्ठ २६३, गा. सं. १६१. २. पखंडाराम - चला पुस्तक १, पृष्ठ २६३, माथा १६२ ।
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३६६ ]
[ गोम्मटसार जोक्करण्ड गाथा २३४-२३५
बहुरि जो अपने शरीर ही कौं अनेक विकाररूप करें, सो अपृथक् विक्रिया
कहिए ।
आगे वैकिक मिश्रकाय योग कहें हैं-
वेगुवियत्तत्थं, विजार मिस्सं तु अपरिपुष्णं तं । जो तेण संपयोगो, बेगुवियमिस्सजोगो सो ' ॥ २३४॥
antaraक्तार्थ, विजानीहि मिश्रं तु अपरिपूर्ण तत् । यस्तेन संप्रयोगों, विकमिश्रयोगः सः ॥२३४॥
टीका - पूर्वोक्त लक्षण ने लीएं जो वैमूर्विक वा वैक्रियिक शरीर, सो यावत् काल अंतर्मुहूर्त पर्यंत पूर्ण न होइ शरीरं पर्याप्ति की संपूर्णता का प्रभाव करि free raat उपजायने कौं असमर्थ होइ, तावत् काल वैक्रियिक मिश्र कहिए । मिश्रपना इहां भी श्रदारिक मिश्रवत् जानना । तींहि वैक्रियिक मिश्र करि सहित संप्रयोग कहिए कर्म - नोकर्म ग्रहण की शक्ति को प्राप्त अपर्याप्त कालमात्र आत्मा के प्रदेशनि का चंचल होना; सो वैक्रियिक मिश्र काययोग कहिए । अपर्याप्त योग का नाम मिश्र योग जानना ।
आहार काययोग कौं पांच गाथानि करि कहें हैंआहारस्सुदएण य, पमत्तविरदस्स होवि आहारं । असंजमपरिहरण, संदेहविणासणट्ठे च ॥ २३५॥
आहारस्योदयेन च प्रमत्तविरतस्य भवति आहारकम् । संयम परिहरणार्थ, संदेहविनाशनार्थ च ॥ २३५॥
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टीका - प्रमत्त विरति षष्ठम गुणस्थानवर्ती मुनि, ताके आहारक शरीर are area के उदय तें आहार वर्गरणारूप पुद्गल स्कंधनि का ग्राहारक शरीररूप परिणमने करि आहारक शरीर हो है । सो किस अथ हो है ? पढाई द्वीप fat afferaries निमित्त वा संयम दूर करने के निमित्त वा ऋद्धियुक्त होते
१. टुडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ २९४ गाथा १६३ ।
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सम्यवासयन्तिका भावाटीका )
भी श्रुतज्ञानावर बोयात राय का क्षयोपशम की मंदता होते कौऊ धय॑ध्यान का विरोधी शास्र का अर्थ विर्षे संदेह उपजै ताके दूरि करने के निमित्त आहारक शरीर उपज है।
णियखेत्ते केवलिदुगविरहे णिकम्मरणपहुदिकल्लाणे। परखेत्ते संवित्ते, जिरणजिणघरवंदणद्रं च ॥२३६॥ .
निजक्षेत्र केलिद्विकविरहे निष्क्रमणप्रभूतिकल्याणे ।
परक्षेत्रे संवृत्ते, जिनजिनगृहवंदनार्थ . च ॥२३६॥ . . दीका - निज क्षेत्र जहां अपनी गमनशक्ति होइ, तहां केवली श्रुतकेवली न पाइए । बहुरि परक्षेत्र, जहां अपने औदारिक शरीर की गमन शक्ति न होंइ, तहां केवली श्रुतकेवली होइ अथवा तहां तपज्ञान निर्वाण कल्याणक होइ, तौ तहां असंयम दूर करने के निमित्त वा संदेह दूर करने के निमित्त वा जिन पर जिनमंदिर तिन की वंदना करने के निमित्त, गमन करने का उद्यमी भया, जो प्रमत्त संयमी, ताके आहारक शरीर हो है।
उत्तमअंगम्हि हवे, धावुविहीणं सुहं असंहणणं । सुहसंठाणं धबलं, हत्थपमाणं पसत्युदयं ॥२३७॥
उतमांगे भवेत्, धातुविहीनं शुभमसंहननम् ।
शुभसंस्थानं धवल हस्तप्रमाणं प्रशस्तोदयं ॥२३७१। टीका - सो आहारक शरीर कैसा हो है ? रसादिक सप्त धातु करि रहित हो है । बहुरि शुभ नामकर्म के उदय ते प्रशस्त अवयव का पारी शुभ हो है । बहुरि संहनन जो हाडों का बंधान तीहि करि रहित हो है । बहुरि शुभ जो सम चतुरस्त्रसंस्थान वा अंगोपांग का आकार, ताका धारक हो है । बहुरि चंद्रकांतमणि समान श्वेत वर्ण हो है । बहुरि एक हस्त प्रमाण हो है । इहां चौवीस व्यवहारांगुल प्रमाण एक हस्त जानना । बहुरि प्रशस्त जो आहारक शरीर बंधनादिक पुण्यरूप प्रकृति, तिनि का है उदय जा, असा हो है । असा आहारक शरीर उत्तमांग जो है मुनि का मस्तक, तहां उत्पन्न हो है ।
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३६८ ]
। गोम्मटसार जीत्रकाण्ड पाथः २३८-२३६-२८०
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अध्वाधादी अंतोमहत्तकालदिदी जहणिदरे। पज्जत्तीसपुण्णे, मरणं पि कदाचि संभवई ॥२३॥
अन्याधाति अंतर्महुर्तकालस्थिती जघन्येतरे ।
पर्याप्तिसंपूर्णयां, मरणमपि कदाचित् संभवति ॥२३॥ टीका - सो प्राहारक शरीर अंव्याबाध है; वैक्रियिक शरीर की ज्यों कोई वन पर्वतादिक करि रुकि सकै नाहीं। आप किसी को रोक नाहीं । बहुरि जाकी जघन्य वा उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण स्थिति है; जैसा है । बहुरि जर आहारक शरीर पर्याप्ति पूर्ण होइ, तब कदाचित् कोई आहारक काययोग का धारी प्रमत्त मुनि का आहारक काययोग का काल विर्षे अपने आयु के क्षय ते मरण भी संभव
आहरदि अणेण मुरणी, सुहमे अत्थे सयस्स संदेहे । गता केवलिपासं, तह्मा आहारगो जोगो १ ॥२३६॥
पाहारत्यनेन मुनिः, सूक्ष्मानान् स्वस्य संदेहे ।
गत्वा केलिपाश्वं तस्मादाहारको योगः ॥२३९॥ टोका - आहारक ऋद्धि करि संयुक्त प्रमत्त मुनि, सो पदार्थनि विर्षे आप के संदेह होते, ताके दूरि करने के अथि के वली के चरण के निकट जाइ, आप तें अन्य जो केवली, तीहिकरि जो सूक्ष्म यथार्थ अर्थ कौं प्राहरति कहिए ग्रहण कर; सो आहारक कहिए । पाहारस्वरूप होइ, ताकौं आहारक कहिए। सो ताके तो शरीर पर्याप्ति पूर्ण होते, पाहार वर्गणानि करि आहारक शरीर योग्य पुद्गल स्कंत्रनि के प्रहरण करने की शक्ति धरै; आत्मप्रदेशनि का चंचलपना; सो प्राहारक काययोग जानना।
आगे आहारक मिश्र काययोग कौं कहें हैं-- आहारयमुत्तत्थं, विजाण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं ।
जो तेण संपजोगो, आहारयमिस्सजोगो सो २ ॥२४॥ १ षटखण्डागम • अवता पुस्तक १, पृष्ठ २६६ गरेपा ११४ । २. पट्खण्डागम-पथला पुस्तक १. पृष्ठ २६६, गाथा १६५ ।
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सयाज्ञामचविका भावाटोका ]
श्राहारकमुक्तार्थं विजानीहि मिश्रं तु अपरिपूर्णं तत् । यस्लेन संप्रयोगः श्राहारक मिश्रयोगः सः ॥ २४० ॥
टीका - पूर्वोक्त लक्षण लीएं श्राहारक शरीर, सो यावत् काल अंतर्मुहूर्तपर्यंत पूर्ण न हो, प्रहार वर्गणारूप पुद्गल स्कंधनि का आहारक शरीररूप परिणामावने कौं असमर्थ होइ, तावत् काल श्राहारक मिश्र कहिए । इहां पूर्वी जो श्रदारिक शरीररूप वर्गणा है, ताके मिलाप ते मिश्रपना जानना । तोहि श्राहारक मिश्र करि सहित जो संप्रयोग कहिए अपूर्ण शक्तियुक्त श्रात्मा के प्रदेशनि का चंचलपना, सो हार मिश्रयोग हे भव्य ! तू जानि ।
आमै कार्माण काय योग को कहें हैं
कम्मेव व कम्मन, कम्नइयं जो दु तेरण संजोगो । कम्मइयकायजोगो, इगिविगतिगसमयकालेसुः ॥ २४१॥
eta च कर्मभवं कार्मणं यस्तु तेन संयोगः । कार्मर काययोगः, एकद्विकत्रिक समयकालेषु ॥॥२४१॥
[ १६६
टीका - कर्म कहिए ज्ञानावरणादिरूप पुद्गल स्कंध, सोइ कार्माण शरीर जानना । अथवा कर्म जो कार्माण शरीर नामा नामकर्म, ताके उदय करि भया, सो कार्मारण शरीर कहिए । तींहि कार्मारण स्कंध सहित वर्तमान जो संप्रयोगः कहिए आत्मा के कर्मग्रहणशक्ति धरै प्रदेशनि का चंचलपना, सो कामका योग है | सो विग्रह गति विषं एक समय वा दोय समय या तीन समय काल प्रमाण हो है । अर केवल समुद्रात विषै प्रतरद्विक अर लोक पूर्ण इनि तीन समयनि विष हो है । और काल विषै कार्मारण योग न हो है । याही तें यहु जान्या, जो कार्माण विना और के योग कहे, ते रुक नाहीं, तो अंतर्मुहूर्त पर्यंत एक योग का परिणमन उत्कृष्ट रहै; पीछे श्रीर योग होइ । बहुरि जो अन्य करि रुकं, तौ एक समयकों आदि देकरि अंतर्मुहूर्त पर्यंत एक योग का परिणमन यथासंभव जानना । सो एक जोव की अपेक्षा ती असें है । अर नाना जीव की अपेक्षा 'उपसम सुहम' इत्यादि गाथानि करि आठ सांतर मार्गशा विता अन्य मार्गणानि का सर्व काल सद्भाव का ही है ।
१. पटखंडागम - घवचा पुस्तक १, पृष्ठ २६७, गाय १६६ ।
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३७० )
गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २४२.२४३
प्रागें योगनि की प्रवृत्ति का विधान दिखावै है-- वेगुश्विय-आहारयकिरिया ण समं पमत्तविरदसि । जोगोवि एक्ककाले, एक्केव य होदि णियमेण ॥२४२।।
बैविकाहारकक्रिया न समं प्रससविरते ।
योगोऽपि एककाले, एव च भवति नियमेन ॥२४२॥ टीका -- प्रमत्त विरत षष्ठम गुणस्थानवर्ती मुनि के समकाल विर्षे युगपत् वैक्रियिक काययोग की क्रिया पर आहारक योग की क्रिया नाहीं ! असा नाही कि एक ही काल विर्षे आहारक शरीर कौं धारि, गमनागमनादि कार्य करें करें पर विक्रिया ऋद्धि कौं धारि, विक्रिया संबंधी कार्य कौं भी करै, दोऊ में स्यौं एक ही होइ । या यहु जान्या कि गणरादिकनि के और ऋद्धि युगपत् प्रवर्ते तो विरुद्ध नाहीं । बहुरि से ही अपने योग्य अंतर्मुहर्त मात्र एक काल विर्षे एक जीव के युगपत् एक ही योग होइ, दोय वा तीन योग युगपत् न होइ, यहु नियम है। जो एक योग का काल विर्षे अन्य योग संबंधी गमनादि क्रिया की प्रवृत्ति देखिए है, सो पूर्वं जो योग भया था, ताके संस्कार से हो है । जैसे कुंभार पहिले चाक दंड करि फेऱ्या था, पीछे कुंभार उस चाक कौं छोडि अन्य कार्य कौं लाग्या; वह चाक संस्कार के बल ते केतक काल माप ही फिर्या करै; संस्कार मिटि जाय, तब फिरै नाहीं । तैसे प्रात्मा पहिले जिस योगरूप परिणया था, सो उसको छोडि अन्य योगरूप परिणया, वह योग संस्कार के बल तैं आप ही प्रवत है। संस्कार मिटें जैसे छोड्या हवा बारा मिरै, नैसे प्रवर्तना मिटें है । ताते संस्कार ते एक काल विर्षे अनेक योगनि की प्रवृत्ति जामना । बहुरि प्रमत्तविरति के संस्कार की अपेक्षा भी एक काल वैक्रियिक का आहारक योग की प्रवृत्ति न हो है । असे याचार्य करि वर्णन किया है। सो जानना।
प्रागै योग रहित प्रात्मा के स्वरूप कौं कहै हैंजेसि | संति जोगा सुहासुहा पुण्णपावसंजणया । ते होंति प्रजोगिजिणा, अणोवमाणंतबलकलिया ॥२४३॥
येषां न संप्ति योगाः, शुभाशुभाः पुध्यपापसंजनकाः ।। ते भवंति अयोमिजिनाः, अनुपमानंतबलकलिताः ॥२४॥
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१. यट्खखरगम -धवला पुस्तक १, पृष्ठ २१२, माथा १५५१
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ना भाटीका
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टीका - जिन प्रात्मनि के पुण्य पापरूप कर्म प्रकृति के बंध करें उपजावन हारे शुभरूप वा अशुभरूप मन, वचन, काय के योग न होहि ते प्रयोगी जिन.. चौदह्वां अंत गुणस्थानवतीं वा गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान जानने ।
कोऊ जानेगा कि योगति के अभाव तें उनके बल का प्रभाव है । जैसे हम सारिखे जीवनि के योगनि के माश्रयभूत बल देखिए है ।
तहां कहिए हैं । कैसे हैं-सिद्ध ? 'अनुपमानंतबलकलिताः' कहिए जिनके बल कौं हम सारिखे जीवनि का बल की उपमा न बने है । बहुरि केवलज्ञानवत् अक्षयानंत अविभाग प्रतिच्छेद लोएं है, जैसा बल-वीर्य, जो सर्व द्रव्य-गुण- पर्याय का gava ग्रह की समर्थता, तींहि करि व्याप्त है। तीहि स्वभाव परिगए हैं । araft का बल कर्माधीन है । तातें प्रमाण लीए है; अनंत नाहीं । परमात्मा का बलं केवलज्ञानादिवत् आत्मस्वभावरूप है । ताते प्रमाण रहित अनंत है। सा
जानना ।
आगे शरीर का कर्म पर नोकर्म भेद दिखावे हैं -
-
ओरालियवेगुब्विय, आहारयतेजणामकम्मुदये । चउणोकम्मसरीरा, कम्मेव य होदि कम्मइयं ॥ २४४॥
श्रौलिर्वविकाहारकते जो नामकर्मादये ।
चतुनकर्मशरीराणि, कर्मैव च भवति कार्मणम् ॥ २४४॥
टीका - श्रदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजसरूप जो नामकर्म की प्रकृति तिनके उदय तैं जे ए प्रदारिक आदि व्यारि शरीर होंइ, ते नोकर्म शरीर जानने । नो शब्द का दो अर्थ है, एक तौ निषेधरूप पर एक ईषत् स्लोकरूप । सो वहां कार्मारण की ज्यों ए च्यारि शरीर आत्मा के गुण को घात नाहीं वा गत्यादिकरूप न । तातें कर्म तें विपरीत लक्षण धरने करि इनको अकर्म कहिए | वा कर्म शरीर के ए सहकारी है । तातें ईषत् कर्म शरीर कहिए । ae afrat नोकर्म शरीर कहै । जैसे मन को नो-इंद्रिय कहिए हैं; तैसे नोकर्म जानने । बहुरि कार्मारण शरीर नामा नामकर्म के उदय ते ज्ञानावरणादिक कर्म स्कंधरूप कर्म, सोई कर्म शरीर जानना ।
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[ गोम्मटसार जीवका गाथा २४५-२४६
६७ ]
आगे जे ए श्रदारिकादिक शरीर कहै, तिनिका समयप्रबद्धादिके की संख्या 'दtय गाथानि करि कहिए हैं -
परमाणू हि श्रतहि, वग्गणसष्णा हु होदि एक्का हु । ताहि अरगतहि पियमा, समयबद्धों हवे एक्को ॥ २४५ ॥
परमाणुभिरतः वर्गखासंज्ञा हि भवत्येका हि । ताभिरत नियमात् समयप्रवद्धो भवेदेकः ॥ २४५॥
टीका- सिद्धराशि के अनंत भाग पर प्रभव्यराशि स्यौं अनंतगुरणा असा जो मध्य अनंतानंत का भेद, तींहि प्रमाण पुद्गल परमाणूनि करि जो एक स्कंध होइ, सो वर्गणा, जैसा नाम जानना । संख्यात वा श्रसंख्यात परमाणूनि करि वर्गरणा न हो है । जातै यद्यपि श्रागें पुद्गल वर्गरणा के तेईस भेद कहेंगे । तहां अणुवर्गरणा, संख्यातामुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा आदि भेद हैं । तथापि इहां श्रदारिक आदि शरीरनि का प्रकरण विषै आहारवर्गणा वा तैजसवर्गरणा वा कामणवर्गणा का हो ग्रहण जानना । बहुरि सिद्धनि के अनंतवे भाग वा अभव्यानि ते अनंतगुणी जैसी मध्य अनंतानंत प्रमाण वर्गणा, तिनि करि एक समयप्रबद्ध हो है । समय विषै वा समय करि यहु जीव कर्म-नोकर्मरूप पूर्वोक्त प्रसारण वर्गणानि का समूहरूप स्कंध करि संबंध कर है । तातें थाकौं समयप्रबद्ध कहिए है । सा वर्गा का वा समयप्रबद्ध का भेद स्याद्वादमतं विष हैं। अन्यभत विष नाहीं । यह विशेष नियम शब्द करि जानना ।
इहां कोऊ प्रश्न करें कि एक ही प्रमाण को सिद्धराशि का अनंतयां भाग वा भव्यराशि है अनंतगुणा अँसे दोय प्रकार कह्या, सो कौन कारण ?
ताकां समाधान कि सिद्धराशि का अनंतवां भाग के अनंत भेद हैं। तहां श्रभव्यराशि तं अनंतगुणा जो सिद्धराशि का अनंत भाग होड, सो इहां प्रमाण जानना 1 से अल्प- बहुत्व करि तिस प्रमाण का विशेष जानने के अर्थ दोय प्रकार ह्या है | अन्य प्रयोजन नाहीं ।
तार्ण समयबद्धा, सेडिअसज्जभागगुणिदकमा
पंतेण य तेजदुगा, परं परं हींदि सुहमें खु ॥ २४६॥
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भ्यासानमखिफा भावाटीका 1
सेषां समयप्रबद्धाः, श्रेष्यसंख्येयभागगुणित क्रमाः ।। अनंतेन च तेजोद्विकाः, परं परं भवति सूक्ष्म खलु-१२४६।।
...
टीका - तिन पंच शरीरवि के समय प्रबद्ध सर्व ही परस्पर समान नाहीं है,। उत्तरोत्तर अधिक परमाणुनि का समूह लीएं हैं; सो कहिए हैं । परमाणूनि का प्रमाण करि औदारिक शरीर का समथप्रबद्ध सर्व तें स्तोक है । याते श्रेणी का असंख्यातवा, भाग गुरखा परमाणू प्रमाण वैक्रियिक का समयबद्ध है । बहुरि यातें भी. धोरिंगका असंख्यातवां भाग गुणा परमाणू प्रमाण प्राहारक का समयप्रबद्ध है । असें आहारक पर्यंत जगतश्रेणी का असंख्यातवां भाग कौं गुणकार की विवक्षा जाननी । तातै परै आहारक के समय प्रबद्ध ते अनंतगुणा परमाणु प्रमाण तेजस का समयमद्ध है । बहुरि यातें भी अनंतगुणा परमाणू प्रमाण कारण का समय प्रबद्ध है। इहां 'अनंतेन तेजोद्विक' इस करि तैजसकागि विर्षे अनंतानंत गुणा प्रमाण जानना ।
बहुरि इहां कोऊ आशंका कर कि जो उत्तरोत्तर अधिके अधिके परमार कहे, तो उत्तरोत्तर स्थूलता भी होयगी ?
तहां कहिए है-परं परं सूक्ष्मं भवति कहिए उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं । औदारिक तं वैक्रियिक सूक्ष्म है । क्रियिक ते पाहारक सूक्ष्म है । आहारक तें तैजस सूक्ष्म है। तैजस ते काणि सूक्ष्म है । यद्यपि परमाणू तो अधिक अधिक हैं, तथापि स्कंध का बंधन में विशेष हैं । तातें उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। जैसे कपास के पिंड तै- लोह के पिंड में अधिकपना होते भी कपास के पिंड 6 लोह का पिंड क्षेत्र थोरा रोक; तैसे जानना ।
प्राग औदारिकादिक शरीरनि. काः समयप्रबद्ध अर वर्गणा, ते कितने-कितने क्षेत्र विषै रहै ? असा प्रवगाहना भेदनि कौंकहैं हैं --
ओगाहणाणि तारणं, समयपबद्धाणं वग्गरणाणं च । अंगुलप्रसंखभागा, उवरुवरिमसंखगुणहीणा ॥२४७॥ :: अवगाहनानि तेषां समयप्रबद्धानों वर्गमान च।
अंगुलासंख्याभागा उपर्यु परि असल्यगुणहीनानि २४७॥
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Pawra
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२७४ }
गोम्मटसार जोनकाय गाथा २४८ टीमा .. तिनि पारिवानिकीर संबंधी समयप्रबद्ध वा वर्गरणा, तिनिका अवगाहनाक्षेत्र धनांगुल के असंख्यातवें भागमात्र है । तथापि ऊपरि-ऊपरि असंख्यातगुरणां घाटि क्रम से जानना । सोई कहिए है - औदारिक शरीर के समयप्रबद्धनिका अवगाहनाक्षेत्र सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का भाग धनांगुल कौं दीएं, जो परिमाण प्राव, तितना जानना । बहुरि थाकौं सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिये तब औदारिक शरीर को वर्गणा के अवगाहना क्षेत्र का प्रमाण होइ । बहुरि याते सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण, जो असंख्यात, तिहिं असंख्यातगुणा घटता कम तें वैक्रियिकादि शरीर के समयप्रबद्ध का वा वर्गणा की अवगाहना का परिमाण हो है । वैक्रियिक शरीर का समयबद्ध की अवगाहना की सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग करि गुरिण, औदारिक समयप्रबद्ध की अवगाहना हो है । वैक्रियिक शरीर की वर्गणा की अवगाहना कौं सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग करि गुरणे, औदारिक की वर्गणा की अवगाहना हो है । जैसे ही वैक्रियिक ते आहारक की, आहारक तें तैजस की, लैजस तें कामणि की समयप्रबद्ध वा वर्गणा की अवगाहना असंख्यालगुणी क्रम तें धाटि जाननी ।
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इस ही अर्थ कौं श्री माधवचंद्र विद्य देव कहैं हैं - तस्समयबद्धवग्गणओगाहो सइगलासंखभागहिदबिदअंगुलमुवरुवरि तेन भजिवकमा ॥२४८॥
तत्समयबद्धवर्गरणावगाहः सूच्यंगुलासंख्य
भागहितवृदांगुसमुपयु परि तेन भजितक्रमाः ॥२४८॥ टीका - तिनि सयमप्रबद्ध वा वर्गरणा की अवगाहना का परिमाण सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग का भाग घनागुल की दीए जो परिमाण होइ, तितना जानना। बहुरि ऊपरि-ऊपरि पूर्व-पूर्व से सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र जानने । गुणहानि का अर भाग देने का एक अर्थ है । सो वैक्रियिक का समयप्रबद्ध वर्गणा की अवगाहना को सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग करि गुणे, मौदारिक का समय प्रबद्ध वर्गणा की प्रवगाहना होइ । अथवा श्रीदारिक का समयप्रबद्ध वर्गणा की अवगाहना की सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का भाय दीयें वैक्रियिक शरीर का समयबद्ध वर्गणा का परिमाण होइ । दोऊ एकार्थ हैं; असे ही सब का जानना ।
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सम्याशानन्द्रका भाषाटोका !
प्राग बिनसोपचय का स्वरूप कहैं हैं - जीवादो गंतगुणा, पडिपरमाणुम्हि विस्ससोवचया । जीवण य समवेदा, एक्केक्कं पडिसमाणा हु॥२४॥
जीवतोऽनंतगुरणाः प्रतिपरमारणौ घिस्रसोपचयाः ।
जीवेन च समवेता एकैकं प्रति समानाः हि ॥२४९।। टोका -- कर्म वा नोकर्म के जितने परमाणु हैं, तिनि एक-एक परमाणूनि प्रति जीवराशि तें अनंतानंत गुणा विनसोपचयरूप परमाणू जीव के प्रदेशनि स्यों एक क्षेत्रावगाही हैं । विससा कहिए अपने ही स्वभाव करि आत्मा के परिणाम विना ही उपछीयंसे कहिए कर्म-नोकर्म रूप विना परिगए असे कर्म-नोकर्म रूप स्कंध, तीहिं विर्षे स्निग्ध-रूक्ष गुरग का विशेष करि मिलि, एक स्कंधरूप होहि; ते विस्त्रसोपचय कहिए; असा निरुक्ति करि ही याका लक्षण आया; ताते जुदा लक्षण न कह्या । विस्त्रसोपचयरूप परमाणु कर्म-नोकर्मरूप होने को योग्य हैं। उन ही कर्म नोकर्म के स्कंध विर्षे एकक्षेत्रावगाही होइ संबंध रूप परिणमि करि एक स्कंधरूप हो हैं । वर्तमान कर्म नोकर्मरूप परिणए हैं नाहीं; असे विस्रसोपचयरूप परमाणू जानने । ते कितने हैं ? सो कहिए हैं
___ जो एक कर्म वा नोकर्म संबंधो परमाणू के जीवराशि तें अनंत गुरणे विस्रसोपच्यरूप परमाणु होइ, तौ किछु घाटि ड्योढ गुण हानि का प्रमाण करि गणित समयप्रबद्ध प्रमाण सर्वसत्त्वरूप कर्म वा नोकर्म के परमाणूनि के केते विनसोपचय परमाणू होंहि; जैसे त्रैराशिक करना । इहां प्रमाण राशि एक, फलराशि अनंतगुणा जीवराशि, इच्छाराशि किंचिदून द्वयर्धगुणहानि गुरिंगत समयप्रबद्ध । तहां इच्छा कौं फलराशि करि गुणि, प्रमाण का भाग दीएं, लब्धराशिमात्र आत्मा के प्रदेशनि विर्षे तिष्ठते सर्व विस्रसोपचय परमाणूनि का प्रमाण जानना । बहुरि इस वित्रसोपचय परमाणूनि का परिमाण विर्षे किंचिढून द्वयर्धगुणहानि गुरिणत समयप्रबद्ध मात्र कर्म
नोकर्मरूप परमाणू नि का परिमाण कौं मिलाएं, विस्त्रसोपचय सहित कर्म नोकर्म का - सत्त्व हो है।
प्रारी कर्म-नोकर्मनि का उत्कृष्ट संचय का स्वरूप वा स्थान वा लक्षण प्ररूप हैं
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। गोम्मटसार जीयकाट माया २५७.०२५२
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उक्कस्सटिदिचरिमे, सगसगउक्कस्ससंचयो होदि । पणदेहाणं वरजोगादिससामग्गिसहियारणं ॥२५.०॥
उत्कृष्ट स्थितिचरमे, स्वकस्वकोत्कृष्ट संचयो भवति ।
पंचदेहानां वरयोगादिस्वसामग्रीसहितानाम् ॥२५॥ टीका - उस्कृष्ट योग आदि अपने-अपने उत्कृष्ट बंध होने की सामग्री करि सहित जे जीव, तिनिक प्रौदारिकादिक पंच शरीरनि का उत्कृष्ट संचय जो उत्कृष्टपर्ने परमाणूनि का संबंध, सौ अपनी-मनी कृष्ट रिरि का अंत समय विर्षे हो है। तहां स्थिति के पहले समय से लगाइ एक-एक समयः विर्ष एक-एक समयप्रबद्ध बधै । बहुरिआगे कहिए हैं, तिसप्रकार एक-एक समयप्रबद्ध का एक-एक निषेक की निर्जरा होइ, अवशेष संचयरूप होते. संत अंत समय विर्षे किछु धाटि, ड्योढगुणहानि करि समयबद्ध कौं गुणे, जो परिमारण होइ, तितना उत्कृष्ट पर्ने सत्त्व हो है । 'श्रागै श्री माधवचंद्र विद्य देव उत्कृष्ट संचय होने की सामग्री कहैं हैं---
आवासया हु अक्प्रद्धाउस्सं जोगसंकिलेसो य । -प्रोकटुक्कट्टणया, छचनेदे गुणिवकम्मसे ॥२५१॥
आवश्यकानि हि भवादा प्रायुष्यं योगसंक्लेशौ च ।
अपकर्षरमोत्कर्षरणके, षट् चैते गुणितकर्भाशे ॥२५१।। टीका --- गुरिंगतकांश कहिए उत्कृष्ट संचय जाकै होइ, असा जो जीव, तोहि विर्षे उत्कृष्ट संचय को कारण ए छह अवश्य होइ । तातै उत्कृष्ट संक्य करने वाले जीव के ए यह यावश्यक "केहिए। १. भवाद्धा, २. प्रायुर्बल, ३. योग, ४. संक्लेश, ५. अपकर्षण, ६. उत्कर्षण ए छह जानने । इनिका स्वरूप विस्तार लीएं आगे कहिएगा।
अब पंच शरीरनि का बंध, उदय, सत्त्वादिक वि परमाणूनि का प्रमाण का विशेष जानने कौं स्थिति आदि कहिए है। तहां. औदारिकादिक पंच. शरीरनि की उत्कृष्ट स्थिति का परिमाण कहैं हैं---
पल्लतियं उबहीणं, तेत्तीसंतोमुहुत्त उवहीणं । छाबट्ठी कमट्ठिदि, बंधुक्कस्सहिदी तारणं ॥२५२॥
स्मन्
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सम्यग्जान सन्धिका भाषाटोका ]
पल्यत्रयमुदधोना, अलिशदंतर्मुहूर्त उबधीनाम् ।
षट्पष्टिः कर्मस्थिति, बंधोस्कृष्टस्थितिस्तेषाम् ।।२५२।। . . .
टीका - तिनि औदारिक आदि पंच शरीरनि की बधरूप उत्कृष्ट स्थिति विषं औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य है । वैऋियिक शरीर की तेतीस सागर है । प्राहारक शरीर की अंतर्मुहूर्त है । तैजस शरीर की छयासठि सांगर है । कार्माण की स्थितिबंध विर्षे जो उत्कृष्ट कर्म की स्थिति सो जाननी । सो सामान्यपनै सत्तर कोडाकोडी सागर है। विशेषपने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अतराय की तीस कोडाफोडी; मोहनीय की सत्तर कोडाकोडी; नाम-गोत्र की बीस कोडाकोडी: श्रायु की तेतीस सागर प्रभारण जाननी । असे पंच शरीरनि की उत्कृष्ट स्थिति कही।
अब इहां यथार्थ ज्ञान के निमित्त अकसंदृष्टि करि दृष्टांत कहिए है -
जैसै समयप्रबद्ध का परिमाण तरेसठि से (६३००) परमाणू स्थिति अडतालीस समय होइ, तैसें इहां पंच शरीरनि की समयप्रबद्ध के परमाणुनि का परिमारण अर स्थिति के जेते समय होहि, तिनि का परमाणू का परिमाण पूर्वोक्त जानना।
प्रागै इनि पंचशरीरनि की उत्कृष्ट स्थितिनि विर्षे मुणहानि अायाम का परिमारग कहैं हैं -
अंतोमुत्तमेतं, गुणहाणी होदि आदिमतिगाणं। . . पल्लासंखेज्जदिम, गुणहारणो तेजकम्माणं ॥२५३॥
अंतर्मुहर्तमात्रा, गुरगहानिर्भवति आदिमत्रिकानां ।
पल्यासंख्यात भागा गुरणहानिस्तेजः कर्मणोः ।।२५३॥ . __टोका -- पूर्व-पूर्व मुराहानि उत्सर-उत्तर गुणहानि विर्षे गुणहानि का वा निषेकनि का द्रव्य दुरणा-दूणा घटता होइ है । तात गुणहानि नाम जानना । सो जैसे अडतालीस समय को स्थिति विर्षे पाठ-आठ समय प्रमाण एक-एक गुणहानि का आयाम हो हैं । तैसे आदि के तीन शरीर प्रौदारिक, वैऋियिक, आहारक तिनकी तो उत्कृष्ट स्थिति संबंधो गुण हानि यथायोग्य अंतर्मुहूर्त प्रमाण है । अपने-अपने योग्य अंतर्मुहूर्त के जेते
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३७८ }
[ गोम्मटसार ates गाथा २५३
समय होंइ, तितना गुग्गाहानि का प्रायाम जानना । प्रायाम नाम लंबाई का है । सो समय-समय संबंधी निषेक क्रम तें होंइ । तातें यायाम सी संज्ञा कहीं । बहुरि तेजसकारण की उत्कृष्ट स्थिति संबंधी गुणहानि अपने-अपने योग्य पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तहां पल्य की जो वर्गशलाका, ताके जेते अर्धच्छेद होंइ, तितने पल्य के अच्छे नि में घटाएं, जो अवशेष रहे; ताक असंख्यात करि गुरौं, जो परिणाम होइ, तितनी तेजस की सर्व नानागुणहानि है । इस परिमाण का भाग तेजस शरीर को उत्कृष्ट स्थिति संख्यात पल्य प्रमाण है । ताकी दीएं जो परिमाण श्रावै, तीहि प्रमाण पल्य के असंख्यात में भागमात्र तेजस शरीर की गुणहानि का आयाम है । बहुरि पल्य की वर्गशलाका के जेते अर्धच्छेद होंइ, तिनिकों पल्य के श्रच्छेदनि में घटाएं जो श्रवशेष रहे, तितनी कार्माण की सर्वनानागुणहानि है । इस परिमाण का भाग कार्माण की उत्कृष्ट स्थिति संख्यात ल्यप्रमाण है । ताक दीएं जो परिमाण व तीहि प्रमाण पल्य के असंख्यातवें भागमात्र कार्माण शरीर की गुणहानि का आयाम है । असें गुणहानि आयाम कला ।
बहुरि जैसे आठ समय की एक गुणहानि होइ, तौ अडतालीस समय की ती गुरपहानि होइ ? असें त्रैराशिक कीएं सर्वस्थिति विषे नानागुणहानि का प्रमाण छह प्रा । तैसे जो श्रदारिक शरीर की एक अंतर्मुहूर्तमात्र एकगुणहानि शलाका है । सो तीन पल्य की नानागुणहानि कितनी है ? से त्रैराशिक करिए। तहां प्रमाणराशि अंतर्मुहूर्त के समय, फलराशि एक, इच्छाराशि तीन पल्य के समय तहां फलराशि करि इच्छा राशि को गुणि, प्रमाण राशि का भाग दीएं, लब्ध प्रमाण तीन पल्य की अंतर्मुहूर्त का भाग दीएं, जो परिमाण आवे, तितना आया, सो उत्कृष्ट श्रदारिक शरीर की स्थिति विषे नानागुणहानि का प्रमाण जानना ।
से हो वैक्रियिक शरीर विषं प्रमाणराशि अंतर्मुहूर्त, फलराशि एक, इच्छाराशि तेतीस सागर कीये तेतीस सागर को अंतर्मुहूर्त का भाग दीयें, जो प्रमाण श्रावै विना नानागुणहानि का प्रमाण जानना ।
बहूरि प्रहारक शरीर विषै प्रमाणराशि छोटा अंतर्मुहूर्त, फलराशि एक, इच्छाराशि बड़ा अंतर्मुहूर्त कीए अंतर्मुहूर्त को स्वयोग्य छोटा अंतर्मुहूर्त का भाग दीए जो परिमाणं श्रावै, तिलना नानागुणहानि शलाका का प्रमाण जानना |
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सम्पशामचक्रिका भाषाटीका ]
बहरि तैजस शरीर विर्षे प्रमागराशि पूर्वोक्त गुणहानि पायाम, फलराशि एक, इच्छाराशि छयासठ सागर कीए पत्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेद करि हीन पल्य का अर्थच्छेदनि तें असंख्यात गुणा नानागुणहानि का प्रमाण हो है ।
बहुरि कारण शरीर विर्षे प्रमाण राशि पूर्वोक्त गुणहानि आयाम, फलराशि एक, इच्छाराशि मोह की अपेक्षा सत्तरि कोडाकोडि सागर कीएं पल्य की वर्ग शलाका का अर्धच्छेद करि हीन पल्य का अर्धच्छेदमात्र नानागुणहानि का प्रमाण जानना ।
अब औदारिक आदि शरीरनि का गरगहानि श्याम साधिए हैं- जैसे जो छह नानागुणहानि का प्रडतालीस समय प्रमाणस्थिति आयाम होइ, तो एकगणहानि का कितना आयाम होइ ? असे त्रैराशिक करिये । इहां प्रमाणराशि छह, फलराशि अस्तालीम, इन्वाराणि एक भया । नहां लभ राशिमात्र एकगुणहानि प्रायाम का प्रमाण पाठ आया, तैसे अपना-अपना नानागुणहानि प्रमाण का अपना-अपना स्थिति प्रमाण आयाम होइ, तो एकगुरमहानि का केता पायाम होइ ? असे त्रैराशिक करिए । तहां लब्धराशि मात्र गणहानि का आयाम हो है ।
तहां श्रौदारिक विर्षे प्रमाण राशि अंतर्मुहूर्त करि भाजित तीम एल्य, फल राशि तीन पल्य इच्छाराशि एक कीएं लब्धराशि अंतर्मुहूर्त हो है ।
बहरि वैक्रियिक विष प्रमाणराशि अंतर्मुहूर्त करि भाजित तेतीस सागर, फलराशि तेतीस सागर इच्छाराशि एक कीएं लब्धराशि अंतर्मुहूर्त हो है । .
बहरि प्राहारक विर्षे प्रमाणराशि संख्यात, फलराशि अंतर्मुहुर्त, इच्छाराशि एक कीएं लब्धराशि छोटा अंतर्मुहूर्त हो है ।
बहरि तैजस विर्षे प्रमाणराशि पल्य की वर्ग शलाका का अर्धच्छेदनि करि हीन पल्य के अर्धच्छेदनि से असंख्यातगुणा, फल छथासठि सागर, इच्छा एक कीएं - लब्ध राशि संख्यात पल्य कौं पल्य की वर्गशालाका का अर्धच्छेदनि करि हीन पल्य के
अर्धच्छेदनि ते असंख्यात गुरणे प्रमाण का भाग दीएं, जो प्रमाण प्राव;, तितना जानना ।
बहुरि कीर्माण विर्षे प्रमाणराशि पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेदनि करि हीन पल्य के अर्धच्छेद मात्र, फलराशि सत्तरि कोडाकोडी सागर इच्छाराशि एक
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वनराशाजपा E E
३८० ]
[ मोम्मटसार जीवकाण्ड गरथा २५३ कीएं लब्धराशि संख्यात पल्य को पल्य की वर्गशलाका के अर्धच्छेदनि करि हीन पल्य के अर्धच्छेदराशि का भाग़ दीएं, जितना प्रावे तितना जानना । असें लब्धराशि मात्र एकमुणहानि का प्रायाम जानना । इतने-इतने समयनि के समूह का नाम एकगुणहानि है । सर्व स्थिति विर्षे जेती गुणहानि पाइए, तिस प्रमाण का नाम नानागुणहानि है; असा इहां भावार्थ जानना |
बहुरि नानागुणहानि का जेता प्रमाण तितने दुवे मांडि, परस्पर गुरणे, जितना प्रमाण होइ, सो अन्योन्याभ्यस्तराशि जानना। जैसे नानागणहानि का प्रमारण छह सो छह का विरलन करि एक-एक जायगा दोय के अंक मांडि, परस्पर सुगौं बौसठ होंड; सोई योन्याशास्तगाशि का प्रमाण जानना । तैसे ही औदारिक प्रादि शरीरनि की स्थिति विर्षे जो-जो नानागुणहानि का प्रमाण कह्या, ताका विरलन करि एक-एक बखेरि पर एक-एक जायगा दोय-दोय देइ, परस्पर गुरणे, अपना-अपना अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण हो है । तहां लोक के जेते अर्धच्छेद हैं; तितने दूवेनि को परस्पर गुरणे, लोक होइ । तो इहां नानागुणहानि प्रमाण दूवे मांडि, परस्पर गुणें, केते लोक होइ ? असे त्रैराशिक करना। तहां लब्धराशि ल्यावने के अर्थि सूत्र कहिए है--
दिण्णच्छेदेरणवाहिद, इष्टुच्छेदेहि पयदविरलणं भजिदे ।।
लद्धमिदइट्ठरासी, णण्णोष्णहदीए होदि पयवधणं ॥२१४॥ जैसा कायमार्गणा विर्षे सूत्र कहा था, ताकरि इहां देय राशि दोय, ताका अर्धच्छेद एक ताका भाग इष्टच्छेद लोक के अर्धच्छेद कौं दीएं, इतने ही रहे, इनि लोक के अर्धच्छेदनि के प्रमाण का भाग, औदारिक शरीर की स्थिति संबंधी नानामुणहानि के प्रमाण कौं दीएं, जो प्रमाण पावै, तितने इष्टराशिरूप लोक. मांडि, परस्पर गुणें, जो लब्धि प्रमारण होइ, तितना औदारिक शरीर की स्थिति विर्षे अन्योन्याभ्यस्त राशि का प्रभारण' असंख्यातलोकमात्र हो है । बहुरि सैंसे ही वैक्रियिक शरीर विर्षे नानागुणहानि का प्रमाण कौं लोक का अर्धच्छेद राशि का भाग दीएं, जो प्रमाण प्राय, तितने लोक मांडि परस्पर मुणे, बैनि यिक शरीर की स्थिति विषे .अन्योन्याभ्यस्त विर्षे राशि हो है । सो यह मौदारिक शरीर की स्थिति संबंधी अन्योन्याभ्यस्त राशि ते असंख्यात लोक गुणा जानना। काहे त ? जाते अंतर्मुहूर्त करि भाजित तीन पल्य ते अंतर्मुहर्त करि भाजित तेतीस सागर कौं एक सौ दश कोडाकोडी का गुणकार संभव
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in- CHAAR
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सम्यामानानका भाषाटोका । है । सो यहां एक धादि एक सौ दश कोडाकोडी मुरणां जो.प्रौदारिक शरीर की नानागुणहानि का प्रमाण, तितना औदारिक शरीर की नानागुणहानि का प्रमाण नै बैक्रियिक शरीर की नानामुणहानि का प्रमाण अधिक भया सो -
विरलमरासीदो पुरण, जेतियमेसारिण अहियरूवारिण।
तेसि अगोग्राहदी, गुरण्यारो लद्धरासिस्स ।। इस सूत्र करि इस अधिक प्रमाणमात्र दुवे मांडि, परस्पर गुण, जो असंख्यातलोकमात्र परिमाण आया, सोई औदारिक का अत्योन्याभ्यस्तराशि ते वैक्रियिक का अन्योन्याभ्यस्तराशि विर्षे गुणकार जानना । अथवा जो अंतर्मुहूर्त करि भाजित तीन पल्या प्रमाण: औदारिक, शरीर संबंधी नानागुणहानि का अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यात लोकमात्र होइ, तो एक सौ दश कोडाकोडि गुणा अंतर्मुहर्त करि भाजित तीनः पल्य प्रम नै कियिक सीन की मालागुवाहानि का अन्योन्याभ्यस्तराशि कितनी होई? असा त्रैराशिक कीएं दिएणच्छेदेणवहिद' इत्यादि सूत्र करि एक सौ दश कोडाकोडि बार प्रौदारिक शरीर संबंधी अन्योन्याभ्यस्तराशि माडि, परस्पर गुरणे, क्रियिक, शरीर संबंधी अन्योन्याभ्यस्तराशि हो है। बात भी प्रौदारिक संबंधी. अन्योन्याभ्यस्त राशि ते वैक्रियिक संबंधी अन्योन्याभ्यस्तराशि विर्षे असंख्यातलोक का गुणकार सिद्ध भया।
बहुरि अाहारक शरीर की नानागुणहानि संख्यात है, सो संख्यात का विरलन करि एक-एक प्रति दोय देइ, परस्पर गुरणे, यथायोग्य संख्यात, होइ; सो आहारक शरीर का अन्योन्याभ्यस्तराशि जानना। .
बहरि तैजस शरीर की स्थिति संबंधी नानागुणहानि शलाका कारण शरीर की स्थिति संबंधी नानामुणहानि शलाका ते असंख्यात गुणी है, सो पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेद पल्य अर्धच्छेदनि में घटाएं, जो प्रमाण होंइ, तात असंख्यातगुरगी जाननी । सो इहां सुगमता के अर्थि, याकर पल्य का अर्घच्छेदराशि का भाग देना - तहाः पत्य की वर्गशलाका का अर्थच्छेदराशि कौं असंख्यात करि गुणिएं, अर पल्य
का अर्वच्छेदराशि का भाग दीजिए, इतता : घटाबने योग्य जो भण राशि, लाको जुदा राखिए, अवशेष ऋण रहित सशिपल्य का अर्धच्छेदशि कौं असंख्यातगुणा दीजिए, पल्यः का अर्धच्छेदराशि का भाग दीजिए, इतना रह्या, सो इहां-भाज्यराशि विर्ष अर भागहारराशि विर्षे पल्य का अर्थच्छेदराशि कौं, समान जानि, अपवर्तन
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड माथा २५३
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करना । अवशेष गुणकाररूप असंख्यात रहि गया, सो इस असंख्यात का जेता प्रमाण होइ तितना ही पल्य मांडि, परस्पर गुरगन करना, जाते असंख्यातगुणा पत्य का अर्घच्छेद प्रमाण दूवा मांडि, परस्पर गुण, जेता प्रमाण होइ, तितमा ही पल्य का अर्धच्छेद राशि का भाग दीएं, अवशेष मुणकार मात्र असंख्यात रह्मा, तितना पल्य मांडि, परस्पर गुणे प्रमाण हो है । जैसे पल्य का प्रमाण सोलह, ताके अर्थच्छेद च्यारि, असंख्यात का प्रमाण तीन, सो तीनि करि च्यारि कौं गुणें, बारह होइ । सो बारह जायगा दूबा मांडि, परस्पर गुणे, च्यारि हजार छिनवै होइ । सोई बारह की च्यारि का भाग दीएं, गुणकार मात्र तीन रह्या, सो तीन जायगा सोलह मांडि, परस्परगुरणे, च्यारि हजार छिनवै होइ । तातै सुगमता के अर्थि पूर्वोक्त राशि कौं पल्य का अर्धच्छेद राशि का भाग देइ, लब्धिराशि असंख्यात प्रमाण पल्य मांडि, परस्पर मुणन कीया । सो इहां यह गुणकाररूप असंख्यात है । सो पल्य का अर्धच्छेदनि के असंख्यासमें मात्र माझ मादनः को अच्छेवराशि समान जानना । जो पल्य का अर्धच्छेद समान यह असंख्यात होइ, तौ इतने पल्य मांडि, परस्पर गुरणे, संजस शरीर की स्थिति संबंधी अन्योन्याभ्यस्तराशि सूच्यंगुल प्रमाण होइ; सो है नाहीं; ताते शास्त्र विर्षे क्षेत्र प्रमाण करि सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र काल प्रमाण करि असंख्यात कल्पकाल मात्र तेजस शरीर की स्थिति संबंधी अन्योन्याभ्यस्त राशि का प्रमाण कहा है। तातै पल्य का अर्धच्छेद का असंख्यातवां भाग मात्र असंख्यात का विरलन करि एक-एक प्रति पल्य कौं देइ, परस्पर मुणे, सूत्र्यंगुल का असंख्यातवां भाग मात्र प्रमाण हो है । सो द्विरूप वर्गधारा विर्षे पल्यराशिरूप स्थान से ऊपरि इहां विरलनराशिरूप असंख्यात के जेते अर्धच्छेद होंहि, तितने वर्गस्थान गए यह राशि हो है। बहुरि -
विरलनरासीदो पुरण, जेसियमेत्तारिण होणरूवारिण। सेसि अण्णोपणहदी, हारो उप्पण्परासिस्स ॥
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इस सूत्र के अभिप्राय तें जो ऋणरूप राशि जुदा स्थाप्या था, ताका अपवर्तन कीएं, एक का असंख्यातवां भाग भया । याकौं पल्य करि गुणे, पल्य का असंख्यातयां भाग भया, जाते असंख्यात गुणा पल्य को वर्गशलाका का अर्धच्छेद प्रमाण दूधा मांडि, परस्पर गुणे, भी इतना ही प्रमाण है । तातै सुगमता के अथि इहां पल्य का अर्धच्छेद राशि का भाग देइ, एक का असंख्यातवां भाग पाया, ताकरि पल्य का
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গ্রহনন্থিা মাথায়ীকা ।
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गुणन कीयां है। सो असें करतें जो पल्य का असंख्यातवां भाग भया, ताका भाग पूर्वोक्त सच्यंगल का असंख्यातवां भाग कौं देना । सो भाग दीएं भी आलाप करि सूच्यंगल का असंख्यातवां भाग ही रह्या । लोई तैजस शरीर की स्थिति सम्बन्धी अन्योन्याभ्यस्तराशि जानना । बहुरि कार्माण शरीर की स्थिति सम्बन्धी नानागणहानि शलाका पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेद करि हीनपल्य का अर्धच्छेद प्रमाण है । इसका बिरलन करि, एक-एक प्रति दोय देइ परस्पर गुणे, ताका अन्योन्याभ्यस्तराशि पल्य की वर्गशलाका का भाग पल्य कौं दीएं, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । जाते इहां पल्य का अर्धच्छेद प्रमाण दुवा मांडि, परस्पर गुणें, पल्य होइ, सो तौ भाज्य भया । पर 'विरलनरासीबो पुरषजेत्तिय मेत्ताणि होणारूबारिण' इत्याटि सूग करि दीनाभिरूप पल्य की बर्गशलाका का अर्धच्छेद प्रमाण दूवा मांडि, परस्पर गुण पल्य की वर्गशलाका होइ; सो भागहार जानना । बहुरि जैसे गुरणहानि प्रायाम आठ, ताकी दूणा कीएं दोगुणहानि का प्रमाण सोलह हो है । तैसें औदारिक आदि शरीरनि का जो-जो गुरणहानि मायाम का प्रमाण है, ताकौं दूणा कोएं, अपनी-अपनी दोगुणहानि हो है । याही का दूसरा नाम निषेकहार जानना ।
असे द्रव्यस्थिति, गुणहानि, नानागुणहानि, अन्योन्याभ्यस्तराशि, दोगुणहानि का कथन करि, अवस्थिति के समय सम्बन्धी परमाणूनि का प्रमाणरूए निषेकनिका कथन करिए हैं।
तहां प्रथम अंक संदृष्टि करि दृष्टांत कहिए है । द्रव्य तरेसठि से (६३००) स्थिति अडतालीस (४८), गुणहानि आयाम पाट (८), नानागुणहानि छह (६), दोगुणहानि सोलह (१६), अन्योन्याभ्यस्तराशि चौसठ (६४) ।
तहां औदारिक आदि शरीरनि के समय प्रबद्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप च्यारि प्रकार बंध पर हैं।
तहा प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध योग ते हो हैं, स्थितिबंध, अनुभागबंध कषाय से हो हैं । तहां विवक्षित कोई एक समय विषं बंध्या कारण का समय प्रबद्ध की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरि कोडाकोडि सागर की बंधी; तिस स्थिति के पहले समय ते लगाय सात हजार वर्ष पर्यंत तो पाबाधाकाल है । तहाँ कोई निर्जरा न होइ । तातें इहाँ कोई निषेक रचना नाहीं । अवशेष स्थिति का प्रथम समय तें लगाइ अंत समय पर्यंत अपना-अपना काल प्रमाण स्थिति धरै, जे परमाणूनि के पुज, ते निषेक कहिए । तिनकी रचना अंकसंदृष्टि करि प्रथम दिखाइए है ।
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[ मोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २४३
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विवक्षित एक समय विषं बध्या कामरिण का समयप्रवद्ध, ताका परमाणनि का प्रमाण' रूप' द्रव्य तरेसठि से है । तहां --
रूपोरगणोरणमवहिददध्वं तु चरिम मुरगदव्वं ।
होदि तदो दुगुस्स कमा आदिमगुणहारिण दव्योत्ति ॥ इस सूत्र अनुसारि एक घाटि अन्योन्याभ्यस्तराशि का भाग सर्वद्रव्य कौं दीएं अंत.की. गुणहानि का द्रव्य होइ । तातें दूरगा-दूरणा प्रथमगुणहानि पर्यंत. द्रव्य जानना। सो इहां अन्योन्याभ्यस्तराशि चौसठि में स्यों एक घटाइ, अवशेष ६.३.का भाग सर्वद्रव्य ६३०० कौं दीएं, सौ (१००) पाएं, सोई नानागुणहानि ह, तिनिविर्षे अंत की छठी गुणहानि का द्रव्य जानना । तातें दूणा-दूणा प्रथम गुणहानि पर्यत द्रव्य जानना । असे होते एक धादि नानागुणहानि शलाका प्रमाण दूवा मांडि, परस्पर गणे, जो अन्योन्याभ्यस्त राशि का आधा प्रमाण होइ, ताकरि अंत की गरगहानि के द्रव्य कौं गुण, प्रथमगुणहानि का द्रव्य हो है । सो एक धाटि नानागुणहानि. पाच, तीह प्रमाण दुवा मांडि, परस्पर गुरणे बत्तीस होइ, सोई अन्योन्याभ्यस्तराशि चौसठि का प्राधाप्रमाण, ताकरी अंतगुरणहानि का द्रव्य सौ कौं गुणें प्रथम - गुणहानि का द्रव्य बत्तीस से हों है । सर्व गुणहानि का द्रव्य अंत ते लगाइ प्रादि पर्यंत एक . 'सै; दोय सै, च्यारि सै; पाठ से, सोलह सै, बत्तीस से प्रमाण जानना बहुरि तहां प्रथम मुणहानि का द्रव्य बत्तीस से । तहां 'श्रद्धाणेरण समवधणे, खंडिदे . मज्झिमधरणमागच्छदि' इस सूत्र करि 'अध्वान' जो गुणहानि यायाम प्रमारण गच्छ, ताका स्वकीय गुणहानि संबंधी द्रव्य कौं भाग दीएं, मध्य समय संबंधी मध्यधन प्राव है । सो इहां बत्तीस स कौं गच्छ पाठ का भाग दीएं (मध्यधन) च्यारि सै हो है । बहुरि "रूस यद्धारा प्रद्धणूरियसेयहारेण मज्झिमधरणमयहरिवेषचयं" इस सूत्र के अनुसारि एक घाटि गच्छ का प्राधा प्रमागग करि हीन जो निषेकहार कहिए दो गुणहानि, तारि मध्यधन कौ भाजित कीएं, चय का प्रमाण पावै है । स्थानस्थान प्रति जितना-जितना अर्थ वा घट ताका नाम 'यय जानना । सो इहां एक घाटि गच्छ सात, ताका आधा साढा तीन, सो निकहार सोलह में घटाएं. साढा बारह ताका भार्ग मध्यधन च्यारि मैं कौं दीएं, बत्तीस पाए ! सोई प्रथम गुणहानि विर्षे चय कर प्रमाण जानना । बहुरि इस चय कौं निषेकहार, जो दोगुणहानि, ताकरि गुणे प्रथमा गुणहानि का प्रथम निषेक होइ, सो इहाँ बत्तीस कौं सोलह करि गुणे, प्रथम गुणहानि का प्रथम निषेक पांच से बारह प्रमाणरूप हो है।
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भावार्थ - जो तरेसठ से परमाणू का समय प्रबद्ध बंध्या था, ताकी स्थिति far sararara भए पीछे, पहले समय तिन परमाणूनि विषै पांच से बारह परमाणू निर्जरे हैं । प्रैस अन्य समय संबंधी निषेकति विषै उक्त प्रमाण परमाणूनि की निर्जरा होने का क्रम जानना । बहुरि 'तत्तोविसेसहोरणकर्म' तातै ऊपर-ऊपरि तिस गुणहानि के अंत निषेक पर्यंत एक-एक वय घटता अनुक्रम जानना । तह प्रथम' निषेक ते एक घाटि गच्छप्रमाण चय घट; एक अधिक गुणहानि प्रायाम करि गुणित चय प्रमाण अंत निषेक हो है । सो इहां द्वितीयादि निषेकनि के विषै बत्तीस-बत्तीस: घटावना | तहां एक घाटि गच्छ सात, तीहि प्रमाण चय के भये दोय से चौबीस, सो. इतने प्रथम निषेकनि तैं घटें, अंत निषेक विषै दोष से अठ्यासी प्रमाण हो है. सो एक अधिक गुणहानि नव, ताकरि चय बत्तीस कौं गुण भी दोय से अठ्यासी हो है । से प्रथम गुरगहानि विषै निषेक रचना जाननी । ५१२, ४८०, ४४८, ४१६०. ३८४, ३५२, ३२०, २८८ ।
बहुरि जैसे ही द्वितीय गुणहानि का द्रव्य सोलह से, ताक गुणहानि श्रायाम:रूप गच्छ का भाग दीएं, मध्यधन दोय से होइ; याकों एक घाटि गुणहानि आयाम का आधा प्रमाण करि होन निषेकहार सांठा बारह, ताको भाग दीएं, द्वितीय गुणहानि विषै चय का प्रमाण सोलह होइ । बहुरि याकों दो गुणहानि सोलह करिं गुणै, द्वितीय गुणहानि का प्रथम निषेक दोय से छप्पन प्रमाण हो है । ऊपर-ऊपरि द्वितीयादि निषेक, अपना एक-एक चय करि घटता जानना । तहां एक घाटि गच्छ प्रमाण ar घटे, एक अधिक गुरुहानि आयाम करि गुमित, अपना चय प्रभार अंत का free एक at aaratस प्रमाण हो है । बहुरि तृतीय गुणहानि विषै द्रव्य आठ से
गुरहान का भाग दीएं, मध्यमधन सौ (१००), याक एक घाटि गुणहानि का आधा करि हीन दोगुणहानि का भाग दीएं, चय का प्रमाण माठ, याको दोगुणहानि afe afty प्रथम निषेक एक सौ अट्ठाईस या ऊपर अपना एक-एक चय घटता होइ, एक घाटि गच्छ प्रमाण चथ घटें एक अधिक गुणहानि आयाम करि, गुणित स्वकीय चयमात्र अंतनिषेक बहतरि हो है ।
से ही इस क्रम करि चतुर्थ श्रादि गुणहानि विषं प्राप्त होइ, अंत गृरणहानि विषे द्रव्य सी (१००), ताक पूर्वोक्त प्रकार गुणहानि का भाग-दौएं मध्यवन साढ़ा बारह, या एक घाटि गुणहानि का आधा प्रमाण करि हीन दोगुणहानि का भाग
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। गोम्मटसार जीवकाण्ड माया २५३
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दीएं, चय का प्रमाण एक, याकी दोगुणहानि करि गुणे, प्रथम निषेक का प्रमाण सोलह, तातै परि अपना एक-एक चय घटता होई । एक घाटि गच्छ प्रमाण चय घटे, एक अधिक गुण हानि करि गुरिणत स्वकीय चय मात्र स्थिति के अंतनिषेक का प्रमाण नव हो है। जैसे द्वितीयादिक अंतगुणहानि पर्यंत विर्षे द्रव्यादिक हैं । ते मुणकाररूप हानि का अनुक्रम लीएं है । तातै गुणहानि असा नाम सार्थक जानना ।
इहां तर्क - जो प्रथम गुरूहानि विर्ष ता पूर्व मुशहानि के अभाव ते गुणहानिपना नाही ?
ताका समाधान - कि मुख्यपने ताका मुरगहानि नाम नाहीं है । तथापि ऊपरि की गरगहानि कौं गुणहानिपना कौं कारणभूत जो चय, ताका हीन होने का सद्भाव पाईए है । तात उपचार करि प्रथम कौं भी गुणहानि कहिए । गुणकार रूप घटता, जहां परिमाण होइ, ताका नाम गुणहानि जानना । असे एक-एक समय प्रबद्ध की सर्वगुणहानिनि विर्षे प्राप्त सर्वनिषेकनि की रचना जाननी । बहुरि असे प्रथमादि मुणहानिनि के द्रव्य वा चय वा निषेक ऊपरि-ऊपरि गुणहानि विर्षे आधे-आधे जानने । इतना विशेष यह जानना-जो अपना-अपना गुणहानि का अंत निषेक विष अपना-अपना एक चय घटाएं, ऊपरि-परि का गुरगहानि का प्रथम निषेक होइ, जैसे प्रथम गुण हानि का अंत निषेक दोय से अठ्यासी विर्षे अपना चय बत्तीस घटाएं, द्वितीय गुणहानि का प्रथम निषेक दोष सौ छप्पन हो है । जैसे ही अन्यत्र जानना ।
4 अंक संदृष्टि करि निषेक की रचना
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प्रथम गुणहान द्वितीय गुणहामितृतीय गुगा हानि चतुर्थ गुनहानि पंथम मुष्णहानि पहलम गुगहानि
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[ ३८७
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से उत्कृष्ट स्थिति अपेक्षा कामरण का अंक संदृष्टि करि वर्णन किया । अब यथार्थ वन करिए हैं
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कार्माण का समयबद्ध विषे जो पूर्वोक्त परमाणूनि का प्रमाण, सो द्रव्य जानना | ताकौं पूर्वोक्त प्रमाण अन्योन्याभ्यस्तराशि विधें एक घटाइ अवशेष का भाग दोएं, अंत गुणहानि का द्रव्य हो है । यातें प्रथम गुणहानि पर्यंत दूना-दूना द्रव्य जानना | लहां श्रन्योन्याभ्यस्वराशि का प्रथा प्रमाण करि अंतगुणहानि के द्रव्य ft गुण, प्रथम गुणहानि का द्रव्य हो है । याक पूर्वोक्त गुणहानि प्रायाम प्रमाण का भाग दीएं, मध्यमधन होइ है । याक एक घाटि गुणहानि श्रायाम का आधा प्रमाण करि हीन दूना गुणहानि के प्रमाण का भाग दीएं, प्रथम गुणहानि संबंधी चय हो है । arat दो गुणहानि करि गुणें, प्रथम गुणहानि का प्रथम निषेक हो है । बहुरि तातें अपना-अपना अंत निषेक पर्यंत एक-एक चय घटता होइ । एक घाटि गुणहानि आयाम मात्र चय घटें, एक अधिक गुणहानि करि गुणित अपना चय प्रमारा अंत निषेक हो है । याही प्रकार द्वितीयादि गुणहानि विषै अपना-अपना द्रव्य की निषेक रचना जानती । वहां अंत गुणहानि विषै द्रव्य का गुणहानि आयाम का भाग दीएं, मध्य धन होइ । या एक घाटि गुणहानि का प्राधा करि हीन दो गुणहानि का भाग दीएं, चय होइ । थाकौं दो गुणहानि करि गु, प्रथम निषेक होइ । तातें ऊपर अपना एक-एक वय घटता होइ । एक घाटि गुणहानि श्रायाम मात्र चय घटे, एक afer गुणहानि कर अपना चय को गुणे, जो प्रमाण होइ, सिंह प्रमित अंत निषेक हो है । जैसे कारण शरीर की सर्वोत्कृष्ट स्थिति विषै प्राप्त एक समयप्रबद्ध संबंधी समस्त गुणहानि की रचना जाननी । असें प्रथमादि गुणहानि तं द्वितीयादि गुणहानि के द्रव्य वा चय वा निषेक क्रम तें आधे श्राधे जानने । श्रावाधा रहित स्थिति विषै गुणहानि आयाम का जेता प्रमाण तितना समय पर्यंत तो प्रथम गुणहानि जाननी । तहां विवक्षित समयप्रबद्ध के प्रथम समय विषे जेते परमाणू निर्जरें, तिनिके समूह का नाम प्रथम निषेक जानता । दूसरे समय जेते परमाणू निर्जरें, तिनके समूह का नाम द्वितीय निषेक जानना । असे प्रथम गुणहानि का अंत पर्यंत जानना । पीछे तांके अनंतर समय तें लगाइ गुणहानि आयाम मात्र समय पर्यंत द्वितीय गुणहानि जामनी । तहां भी प्रथमादि समयनि विषै जेते परमाणू निर्जरें, तिनिके समूह का नाम प्रथमादि निषेक जानने । जैसे क्रम में स्थिति के अंत समय विषे जेते परमाणू निर्जरें, तिनिके समूह का नाम अंत गुणहानि का अंत निषेक जानना ।
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.. . बहुरि जैसे कार्माणशरीर का वर्शन कीया; तस ही औदारिक आदि तेजस पर्यत नोकर्मशरोर के समय प्रबद्धनि की पूर्वोक्त अपना-अपना स्थिति, मुग हानि, नाना गुण हानि, दो मुणहानि, अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण आदि करि, इहां पाबाबाकाल है नाही; ताते अपनी-अपनी स्थिति का प्रथम समय ही ते लगाय निषेक रचना करनी । जातें औदारिक आदि शरीरनि का जैसे ही आर्ग वर्णन कीजिये हैं। ...
प्रागे औदारिक आदि के समयबद्धनि का बंध, उदय, सत्त्व, अवस्था विर्ष वन्य का प्रसारण निकी हैं . : .. .. - एक्कं समयपबद्धं, बंधदि एक्कं उदेखि चरिमम्मि ।
गुणहाणीण दिवढं, समयपबद्धं हवे सत्तं ॥२५४॥ .
..एकं समयप्रबद्धं, बध्नाति एकमुवेति घरमे । ....... ... . : मुणहानीना द्वयध, समयबद्धं भवेत् . सत्त्वम् ॥२५४॥ ! : .. :: टीका - औदारिक आदि शरीरनि विर्षे तेजस पर कार्माण इनि दोऊनि का जीव के अनादि लें निरंतर संबंध है । तातै इनिका सदाकाल उदय पर सत्व संभव हैं । तातें जीव मिथ्यादर्शन आदि परिणाम के निमित्त ते समय-समय प्रति. तेजस .: संबंधी पर कार्मारण संबंधी एक-एक समयप्रबद्ध कौं बांध है। पुद्गलवर्गणानि कौं
तेजस शरीर रूप पर ज्ञानावरणादिरूप आठ प्रकार कर्मरूप परिणमा है । बहुरि . इनि दोऊ शरीरनि का समय-समय प्रति एक-एक समयप्रबद्ध उदयरूप हो है ।
अपना फल देने रूप परिणतिरूप परिमाण करि फल देइ, तैजस शरीरपना कौं-बा कार्माण शरीरपना कौं छोडि गर्ल है। निर्जर है । बहुरि विक्षित समय प्रबद्ध की स्थिति का अंत निषेक संबंधी समय विर्षे किंचिदून द्वधर्धगुण हानि करि गुणित समय प्रबद्ध प्रमाण सत्व हो है । इतने परमाणू सत्तारूप एकठे हो हैं । सर्वदा संबंध हैं परमार्थ करि. इनि दोऊनि का सत्वद्रव्य, .. समय-समय प्रति सदा ही. इतना
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१ . बहुरि औदारिक, वैक्रियिक शरीरनि के समय प्रबद्धनि विषं विशेष है। सो • कहिए हैं. । . तिनि प्रौदारिक.वा. वैक्रियिक शरीरनि के ग्रहण का प्रथम समय से लगाइ अपने प्रायु का. अंत समय पर्यंत शरीर लामा, नासकर्म के उदय संयुक्त जीव, सो समय-समय प्रति एक-एक तिस शरीर के समय प्रबद्ध कौं बांध है। पुद्गलवर्गणानि
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मम्यज्ञानन्दिका भावाटीका ]
कौं तिस शरीररूप परिणमा है । उदय कितना है ? सो कहै हैं -- शरीर ग्रहण का प्रथम समय विर्षे बंध्या जो समयप्रबद्ध, ताका पहला निषेक उदय हो है। ... . . इहां प्रश्न - जो गाथा विर्षे समय-समय प्रति एक-एक समयप्रबद्ध का उदय कह्या है । इहां एक निषेक का उदय कसे कहो हो ?
ताको समाधान - कि निषेक है सो समयप्रबद्ध का एकदेश है। ताफों उपचार करि समयप्रबद्ध कहिए हैं । बहुरि दूसरा समय विर्षे पहिले समय बंध्या था जो समयप्रबद्ध, ताका तो दूसरा निषेक अर दूसरे समय बंध्या जो समयप्रबद्ध ताका पहिला निषेक, असे दोय निषेक उदय हो हैं। बहुरि असें ही तीसरा आदि समय विर्षे एक-एक बधता निषेक उदय हो है । औसे कम करि अंत समय विर्षे उदय पर सत्त्वरूप संचय सो युगपत् द्वयर्धगुण हानि करि मुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण हो है । बहुरि पाहारक शरीर का तिम शारीर ग्रहण का समय प्रथम त लगाय अपना अंतर्मुहूर्त मात्र स्थिति का अंत समय विर्षे किंचिन द्वयर्धगुणहानि करि मुरिणत समय प्रबद्धप्रमाण द्रव्य का उदय अर सत्त्वरूप संचय सो युगपत् हो है इतना विशेष जानना । इहां समय-समय प्रति बंधै सो समयप्रबद्ध कहिए । ताते समय-समय प्रति समयप्रबद्ध का बंधना तो संभव पर समयप्रबद्ध का उदय अर किंचिदून द्वयर्धगुणहानिगुणित समयप्रबद्धमात्र सत्त्व कैसे हो है, सो वर्णन इहां ही आगे करेंगे ।
प्रागें औदारिक, वैक्रियिक शरीरनि विर्षे विशेष कहै हैं
णवरि य दुसरीराणं, गलिवबसेसाउमेतठिविबंधो। गुणहारगीण दिवड्ढे, संचयमुदयं च चरिमम्हि ॥२५॥ नवरि च द्विशरीरयोगलितावशेषायुर्मात्रस्थितिबंधः । मुबहानीनां द्वयर्थ, संचयमुवयं च चरमे ॥२५॥
टीका -- औदारिक, बैंक्रियिक शरीरनि का शरीर ग्रहण का प्रथम समय से लगाइ अपनी स्थिति का अंत समय पर्यंत बंधे हैं, जे समयप्रबद्ध तिनि का स्थितिबंध गलितावशेष श्रायुमात्र जानना। जितना अपना आयु प्रमाण होई, तीहि विर्षे जो व्यतीत भया, सो गलित कहिए । अवशेष रह्या सो गलितावशेष आयु कहिए है; तीहि प्रमाण जानना । सोई कहिए हैं-शरीर ग्रहण का प्रथम समय विष जो समय
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३६. 1
[ गोम्मटसार जीवकापड गाथा २५६ प्रबद्ध बंध्या, ताका स्थितिबंध संपूर्ण अपना प्रायुमात्र हो है । बहुरि दूसरे समय जो समय प्रबद्ध बंध्या, ताका स्थितिबंध एक समय धाटि अपना प्रायु प्रमाण हो है । बहुरि तीसरे समय बंध्या जो समयप्रबद्ध, ताका स्थितिबंध दोय समय घाटि अपना आयु प्रमाण हो है । असे ही चौथा मादि उत्तरोत्तर समयनि विषं बंधे जे समयप्रबद्ध तिनिका स्थितिबंध एक-एक समय घटता होता अंत समय विर्षे बंध्या हवा समय'प्रबद्ध का स्थितिबंध, एक समयमात्र हो है। जाते प्रथम समय ते लमाइ अंत समय
यंत बंधे जे समयप्रबद्ध, तिनकी अपने प्रायु का अंत कौं उलंधि स्थिति न संभव है। अंमैं जिस-जिस समय प्रबद्ध की जितनी-जितनी स्थिति होइ, तिस-तिस समयप्रबद्ध को तितनी-तितनी स्थितिमात्र निषेक रचना जाननी। अंत विर्षे एक समय की स्थिति समयप्रबद्ध की कही । तहां एक निषेक संपूर्ण समयप्रबद्धमात्र जानना । बहुरि
अंत समय विषं गलितावशेष समयप्रबद्ध किंचिदूनद्वयर्द्धगुणहानिमात्र सत्वरूप एकठे 'हो हैं । जे समयप्रबद्ध बंधे, तिनि के निधेक पूर्वं गले, निर्जरारूप भए, तिनितें अवशेष निषेकरूप जे समयप्रबद्ध रहे, तिनिकौं गलितावशेष कहिए । ते सर्व एकठे होइ किछु घाटि ड्योढ गुणहानिमात्र समयप्रबद्ध ससारूप एकठे अंत समय विर्षे होहि हैं। बहुरि तीहि अंत समय विर्षे ही तिनि सबनि का उदय हो है । आयु के अंत भए पीछे ते रहैं नाहीं। तातें तीहि समय सर्व निर्जरें हैं; असे देव नारकोनि के तौ दैनियिक शरीर का अर मनुष्य-तिर्यचनि के औदारिक शरीर का अंत समय विर्षे किचिन द्वय,गुणहानिमात्र समयप्रबद्धनि का सत्त्व और उदय युगपत् जानना ।
प्रागै किस स्थान विर्षे सामग्रीरूप कैसी आवश्यक संयुक्त जीव विर्षे उत्कृष्ट संचय हो है; सो कहै हैं---
ओरालियवरसंचं, देवुत्तरकुरुवजादजीवस्स ।
तिरियमणुस्सस्स हवे चरिमवुचरिमे तिपल्लठिविगस्स ॥२५६॥ ... औरालिकवरसंचयं, देवोत्तरकुरूपजालजीवस्य ।
तिर्यग्मनुष्यस्य भवेत्, चरमद्वि चरमे त्रिपस्यस्थितिकस्य ॥२५६॥ टोका - यौदारिक आदि शरीरनि की जहां जीव कै उत्कृष्टपन बहुत परमाणू एकठे होइ; तहां उत्कृष्ट संचय कहिए । तहां जो जीव तीन पल्य आयु धर, देवकुरु वा उत्तरकुरु भोंगभूमि का तियंच वा मनुष्य होइ उपज्या; तहां उपजने
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सम्यग्ज्ञानन्द्रिकर भाषाटोका ] के पहिले समय तिस जीव को तहां योग्य जो उत्कृष्ट योग, ताकरि आहार ग्रहण कीया; बहुरि ताकौं योग्य जो उत्कृष्ट योग की वृद्धि, ताकरि वर्धमान भया, बहुरि सो जीव उत्कृष्ट योग स्थाननि की बहुत बार ग्रहण कर है; पर जघन्य योगस्थाननि को बहुत बार ग्रहण न करै है, तिस जीव कौं योग्य उत्कृष्ट १ योगस्थान, सिनिकौं बहुत बार प्राप्त होइ है; पर तिस जीव कौं योग्य जधन्य योगस्थान, तिनिकौं बहुत बार प्राप्त न हो है । बहुरि अधस्तन स्थितिनि के निषेक का जघन्य पद कर है। याका अर्थ यहु-जो ऊपरि के निषेक संबंधी जे परमाण, तिन थोरे परमाणूनि कौं अपकर्षण करि, स्थिति घटाइ, नीचले निषेकनि विर्षे निक्षेपण कर है; मिलावै है । बहुरि उपरितन स्थिति के निषेनि का उत्कृष्टपद करै है । याका अर्थ यहु-जो नीचले निषेकनि विर्षे तिष्ठते परमाणू, तिनि बहुत परमाणू नि का उत्कर्षण करि, स्थिति को बधाइ, ऊपरि के निषेकनि विर्षे निक्षेपण करै है; मिलावै है । बहुरि अंतर वि गमनविकुवरणा कौं न करै है; अंतर विर्षे नखच्छेद न करै है। याका अर्थ मेरे जानने में नीकै न आया है । तात स्पष्ट नाहीं लिख्या है; बुद्धिमान जानियो । बहुरि तिस जीव के आयु विर्षे वचनयोग का काल स्तोक होइ, मनोयोग का काल स्तोक होह । बहुरि वचनयोग स्तोक बार होइ । मनोयोग स्तोक बार होइ।
भावार्थ - काययोग का प्रवर्तन बहुत बार होइ, बहुत काल होइ । असे पायु का अंतर्मुहर्त अवशेष रहैं: आर्गे कर्मकाण्ड विर्षे योगयवमध्य रचना कहेंगे । ताका ऊपरला भाग विर्षे जो योगस्थान पाइए है । तहां अंतर्मुहूर्तकाल पर्यंत तिष्ठ्या . पीछे प्रामें जो जीव यक्मध्य रचना कहेंगे; तहां अंत की गुणहानि संबंधी जो योगस्थान, तहां प्रावली का असंख्यातवां भागमात्र काल पर्यंत तिष्ठ्या । बहुरि प्रायु का विचरम समय विष अर अंत समय विर्षे उत्कृष्ट योगस्थान कौं प्राप्त भया। तहां तिस जीव के तिन अंत के दोऊ समयनि विर्षे औदारिक शरीर का उत्कृष्ट संचय हो है । बहुरि वैक्रियिक शरीर का भी वैसे ही कहना । विशेष इतना जो . अंसर विर्षे नखच्छेद न करै है, यह विशेषण न संभव है।
वेगुब्वियवरसंचं, बावीससमुद्द आरणदुगम्हि। जह्मा वरजोगस्स य, वारा अण्णत्थ ण हि बहुगा ॥२५७॥ १ - अ, ख, ग इन तीन प्रति में यहाँ अनुत्कृष्ट शब्द मिलता है ।
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३६२]
गोम्मटसार जीवकाम माथा २५८
वैविकवरसंचयं, द्वाविंशतिसमुद्र पारणविके ।
यस्माद्वरयोगस्य च, वारा अन्यत्र नहि बहुकाः ।।२५७।। . टीका - बैंक्रियिक शरीर का उत्कृष्ट संचय, सो प्रारण-अच्युत दोय स्वर्गनि के ऊपरला पटल संबंधी बाईस सागर प्रायु संयुक्त देव, तिन विर्षे संभवें है । अन्यत्र नीचले, ऊपरले पटलनि विष वा सर्व नारकीनि विषं न संभवै है; जातै प्रारणअच्युत बिना अन्यत्र वैक्रियिक शरीररूप योग का बहुत बार प्रवर्तन न हो है । चकार त तिस योग्य अन्य सामग्री, सो भी अन्यत्र बहुत बार न संभवे है ।
आग तेजस शरीर पर कार्मण शरीरनि का उत्कृष्ट संचयस्थान का विशेष
तेजासरीरजेठे, सत्तमचरिमम्हि बिदियवारस्स । कम्मस्स वि तत्थेव य, णिरये बहुबारभमिबस्स ॥२५॥ तेजसशरोरज्येष्ठं, सप्तमचरमे द्वितीयवारस्य ।
. कामरणस्यापि तत्रैव च, निरये बहुवारभ्रमितस्य ॥२५॥ टीका - तेजसशरीर का भी उत्कृष्ट संचय औदारिकशरीरवत् जानना । विशेष इतना जो सातवीं नरक पृथ्वी विर्षे दूसरी बार जो जीव उपज्या होइ । सातवीं पृथ्वी विषं उपजि, मरि, तिर्यत्र होइ, फेरि सातवों पृथ्वी विर्षे उपज्या होइ; तिस ही जीवके हो है।
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. बहुरि प्राहारक शरीर का भी उत्कृष्ट संचय औदारिकशरीरवत् जानना । विशेष इतना जो प्राहारक शरीर कौं उपजावनहारा प्रमत्तसंयमी ही के हो है ।
बहरि कारण शरीर का उत्कृष्ट संचय सो सातवीं नरक पृथ्वी विर्षे नारकिन विषं जो जीव बहु बार भ्रम्या होइ, तिस ही के होइ है। किस प्रकार हो है ? सो कहैं हैं-कोई जीव बादर पृथ्वी कायनि विर्षे अंतर्मुहर्त पाटि, पृथक्त्व कोडिपूर्व करि अधिक दोय हजार सागर हीन कर्भ की स्थिति को प्राप्त भया । तहां तिस बादर पृथ्वीकार संबंधी अपर्याप्त पर्याय योरे धरै, पर्याप्त पर्याय बहुत धरै, तिनिका एकट्ठा किया हुवा पर्याप्त काल बहुत भया । अपर्याप्त काल थोरा भया । ऐसें इनिकौं पालता संता जब-जब श्रायु बांधै, तब-तब जघन्य योग करि बांध, यहु यथायोग्य उत्कृष्ट योग
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सम्पज्ञानन्द्रिका भावाटोका ]
करि आहार ग्रहण करै । पर उत्कृष्ट योगनि की वृद्धि करि बंधै । बहुरि यथायोग्य उत्कृष्ट योगनि को बहुत बार प्राप्त होइ, जघन्य योगस्थाननि कौं बहुत बार प्राप्त न होइ। बहरि संक्लेश परिणामरूप परिण्या यथायोग्य मंदकषायरूप विशुद्धता करि विशुद्ध होइ, पूर्वोक्त प्रकार अधस्तन स्थितिनि के निषेक का जघन्यपद करें। . उपरितन स्थितिनि के निषेक का उत्कृष्ट पद कर है। असें भ्रमण करि, बादर. असपर्याय विष उपज्या, तहां भ्रमता तिस जीव के पर्याप्त पर्याय थोरे, अपर्याप्त.. पर्याय बहुत भएं, तिनिका एकठा कीया पर्याप्तकाल बहुत भया । अपर्याप्तकाल थोरा. भया । जैसें भ्रमण करि पीछला पर्याय का ग्रहण विधैं सातवी नरक पृथ्वी के नारक जे बिले, तिनि विर्षे उपज्या । तहां तिस पर्याय के ग्रहण का प्रथम समय विर्षे यथायोग्य उत्कृष्ट योग करि आहार ग्रहण कीया । बहुरि उत्कृष्ट योगवृद्धि करि बध्या। , बहुरि थोरा अंतर्मुहूर्त काल करि सर्व पर्याप्ति पूर्ण कीए । बहुरि तिस नरक विर्षे तेतीस सागर काल पर्यंत योग आवश्यक पर संक्लेश पावश्यक कौं प्राप्त भया ।
सैं भ्रमण करि आयु का स्तोक काल अवशेष रहैं, योगयवमध्य रचना का ऊपरला " भागरूप योगस्थान विर्षे अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत तिष्ठि, अर पीछे जीव यवमध्य रचना। की अंत गुरमहानिरूप योगस्थान विर्ष भावली का प्रसंख्यातवां भागमात्र काल पर्यंत तिष्ठि आयु का अंत ते तीसरा, दूसरा समयनि विर्षे उत्कृष्ट संक्लेश कौं पाई; अंत । समय विर्षे उत्कृष्ट योगस्थान कौं पाइ, तिस पर्याय का अंत समय विर्षे जीव तिष्ठ्या ताकै कारण शरीर का उत्कृष्ट संचय होइ है, । अँसें औदारिक आदि शरीरनि का का उत्कृष्ट संचय होने की सामग्री का विशेष कह्या ।
भावार्थ - पूर्व उत्कृष्ट संचय होने विर्षे छह आवश्यक कहे थे; ते इहां यथासंभव जानि लेना । पर्याय संबंधी काल ती भवाद्ध है । पर आयु का प्रमाणे सो आयुष्य है ! यथासंभव योगस्थान होना, सो योग है। तीव्र कषाय होना सो संक्लेश है। ऊपरले निषेकनि के परमाणू नीचले निषेकनि विर्षे मिलावना, सो अपकर्षण है। नीचले निषेकनि का परमाणु अपरि के निषेनि विर्षे मिलावना; सो उत्करण है । असे ए छह प्रावश्यक यथासंभव जानने ।
- बहुरि एक प्रश्न उपजे है कि एक समय विर्षे जीव करि बांध्या जो एक समयप्रबद्ध, ताके प्राबाधा रहित अपनी स्थिति का प्रथम समय तें लगाइ, अंत समय पर्यंत समय-समय प्रति एक-एक निषेक उदय आवै है । पूर्व गाथा विषं समय-समय प्रति एक-एक समयप्रबद्ध का उदय का आयना कैसे कह्या है ?
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३९४ ]
1 मोम्मरसार औषकाण गाथा २५०
मार्गद
ताका समाधान – जो समय-समय प्रति बंधे समय प्रबद्धनि का एक-एक निषेक एकठे होइ, विवक्षित एक समय विर्षे समय प्रबदमात्र हो है ।
__ कैसे ? सो कहिएहै - अनादिबंध का निमित्तक रि बंध्या विवक्षित समयप्रबद्ध, ताका जिस काल विर्षे अंत निषेक उदय हो है; तिस काल विर्षे, ताके अनतरि बंध्या समयप्रबद्ध का अंत ते दुसरा निषेक उदय हो है । ताके अनंतरि बंध्या समयप्रबद्ध का अंत में तीसरा निषेक उदयं हो है । जैसे चौथा प्रादि समयनि विर्षे अंध, समयप्रबद्धनि का अंत ते चौथा आदि निषेकनि का उदय क्रम करि आबाधाकाल रहित विवक्षित स्थिति के जेते समय तितने स्थान जाय, अंत विष जो समयप्रबद्ध बंध्या. ताका आदि निषक उदय हो है । अस सबनि कौं जोडे, विवक्षित एक समय विर्षे एक समयप्रबद्ध उदय आवे है ।
अंकसंदृष्टि करि जैसे जिन समयप्रबद्धनि के सर्व निषेक गालि गए, तिनिका तौ उदय है ही नाहों । बहुरि जिस समयप्रबद्ध के सैंतालीस निषेक पूर्वं गले, ताका अंत नव का निषेक वर्तमान समय विर्षे उदय आवै है । बहुरि जाके छियालीस निषेक पूर्वै गले, ताका दश का निधेक उदय हो है । जैसे ही क्रम ते जाका एकहू निषेक पूर्वं न गल्या, ताका प्रथम पांच से बारा का निषेक उदय हो है । असे वर्तमान कोई एक समय विर्षे सर्व उदय रूप निषेक । ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ । १८ २.० २२ २४ २६ २८ ३० ३२ । ३६ ४० ४४ ४८ ५२ ५६ ६० ६४ । ७२ ८० ८८ ६६ १०४ ११२ १२० १२८ । १४४ १६० १७६ १६२ २०८ २२४ २४० २५६ । २८८ ३२० ३५२ ३०४ ४१६ ४४८ ४८० ५१२ । असे इनिकों जोडे संपूर्ण समय प्रबद्धमात्र प्रमाण हो है ।
आगामी काल विर्षे जैसे नवीन समयप्रबद्ध के निषेकनि का उदय का सद्भाव होता जाइगा, तैसें पुरालो समयप्रबद्ध के निषेकनि के उदय का अभाव होता जायगा। जैसे आगामी सनय विर्षे नवीन समयप्रबद्ध का पांच से बारा का निषेक उदय आवैगा; तहां वर्तमान समय विषं जिस समयप्रबद्ध का पांच से बारा का निषेक उदय था, ताका पांच से बारा का निषेक का प्रभाव होइ, दूसरा च्यारि से असी का निषेक उदय होगा । बहुरि जिस समय प्रबद्ध का वर्तमान समय विर्षे च्यारि से असी का निषेक उदय था, ताका तिस निषेक का अभाव होइ, च्यारि सै अड़तालीस के निषेक का उदय होगा। असें कम से जिस समयप्रबद्ध का वर्तमान समय विर्षे नव
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सम्यशामचन्द्रिका मावाटोहा ]
[ ३९५ . का निषेक उदय था, ताका आगामी समय विर्षे सर्व अभाव होगा । जैसे ही क्रम समय प्रति जानना । तातें समय-समय प्रति एक-एक समयप्रबद्ध का एक-एक निषेक मिलि, एक-एक समयप्रबद्ध का उदय हो है । बहुरि गलैं पीछे अवशेष रहैं, सर्व निषेक, तिनिकौं जो., किंचित् ऊन व्यर्धगुणहानि मुरिणत समयनबद्ध प्रमाण सत्व हो है । कैसे ? सो कहिए हैं - जिस समयप्रबद्ध का एकहू निषेक गल्या नाही, ताके सर्व निषेक नीचे पंक्ति विषं लिखिए । बहुरि ताके ऊपरि जिस समयप्रबद्ध का एक निषेक गल्या होर, ताके माना कि मिा अगलिक पंक्ति विर्षे लिखिए । बहुरि ताके ऊपर जिस समय प्रबद्ध के दोय निषेक गले होइ, ताके आदि के दोय निषेक बिना अवशेष निषेक पंक्ति विर्षे लिखिए । जैसे ही ऊपरि-ऊपरि एक-एक निषेक घटता लिखि, सर्व के ऊपरि जिस समय प्रबद्ध के अन्य निषेक गलि, एक अवशेष रह्या होइ, ताका अंत निषेक लिखना । असे करते त्रिकोए रचना
षष्ठम गुणहानि पंथम गुणहानि चतुर्थ गुणहानि तृतीय गुणहानि द्वितीय गुरप हानि प्रथम गुणहानि
७७२
८५२
३३५८ ३७०८
४०६०
.. ME .xn .2
१८४
१६४४ १८०४ १९८० २१७२ २३८० २६०४ २८४४
४६८ ५२०
5
२१० २३८ २६८
११४०
૨ १३७२
४५६० ५३०० ५७८८ ६३००
३००
७०.
जोड़ ४०८
४०३२
८८६४
१८५२८
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-
अंकसंदृष्टि करि जैसे नीचे ही नीचे अडतालीस निषेक लिखे, ताके ऊपर . पांच से बारा का दिना सैतालीस निषेक लिखे । ताके ऊपरि पांच से बारा अर च्यारि सै प्रसी का बिना छियालीस निषेक लिखे । प्रेसें ही क्रम ते ऊपरि ही ऊपरि नव का निषेक लिख्या; असें लिखते त्रिकूटी रचना हो है । तात इस त्रिकोण यंत्र का जोडा ह्या सर्व द्रव्य, प्रमाण सत्य द्रव्य जानना । सो कितना हो है ? सो कहिए है - किचिदून व्यर्धगुणहाचि गुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण हो है । पूर्व जो पुणहानि
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मार्ग
५६६ ]
[ गोम्मटसर जीवकान्ड गाथा २५८
श्रायाम का प्रमाण कह्या, तामै श्रधा गुणहानि आयाम का प्रमाण मिलाए, व्यर्धसुहानि हो है । ता किछू वाटि संख्यात गुणी पल्य की वर्गशलाका करि अधिक जो गुणहानि का अठारहवां भाग का प्रमाण सो घटावना, घटाएं जो प्रमाण होइ, dier नाम इहां किचिदून उदद्यर्धगुरगहानि जानना । ताकरि समयप्रबद्ध के विषै जो परमाणूनि का प्रमाण कला, ताकौ गुरौं, जो प्रमाण होइ सोइ त्रिकोण यंत्र वि प्राप्त सर्व निषेकनि के परमाणू जोडे, प्रसारण हो है । जैसे अंक संदृष्टि करि कीया.. हूवा त्रिकोणयंत्र, ताकी सर्वपंक्ति के अंकन करें जोड़ें, इकहतरी हजार तीन से च्यारि हो हैं । यर गुणहानि श्रायाम आठ, तामैं श्राधा गुणहानि आयाम च्यारि मिलाए,
वर्धगुणहानि का प्रमाण बारह होइ, ताकरि समयबद्ध तरेसठ सौ को गुण, पिचहत्तर हजार छ से होइ । इहां त्रिकोण यंत्र का जोड़ घटता भया । तातें किंचि गुणहानि गुरित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्त्व कहा । तहां ब्द्यर्धगुणहानि विष उनका प्रमाण दाष्टति विषे महत्प्रमाण है । तातें पूर्वोक्त जानना ।
इहां अंकसंदृष्टि दृष्टांत विषै गुणहानि का अठारहवां भाग करि गुरिणत समयबद्ध का प्रमाण अठाईस से, तामै गुणहानि बाठ, नानागुणहानि छै करि गुणित समयबद्ध का तरेसठवां भाग, अडतालीस सैं, तामैं किचित् अधिक आधा समयप्रबद्ध का प्रमाण तेतीस से च्यारि घटाइ थवशेष चौदह से छिनवे जोडें, बियालीस # छिनवे भए सो व्यर्धगुणहानि गुणित समयबद्ध विषै घटाएं, त्रिकोण यंत्र का जोड हो है ।
बहुरि इस त्रिकोण यंत्र का जोड इतना कैसें भया ? सो जोड देने का विधान हीन-हीन संकलन करि वा अधिक अधिक संकलन करि वा अनुलोम-विलोम संकलन करि तीन प्रकार का है। तहां घटता घटता प्रमाण लीएं निषेकनि का क्रम तैं जोडना, सो हीन-हीन संकलन कहिए । बघता-बघता प्रमाण लीए निषेकनि का क्रम तें जोडना, सो अधिक अधिक संकलन कहिए। होन प्रमाण लीए वा अधिक प्रमाण लोएं निषेकनि का जैसे होइ तैसे जोड़ना, सो अनुलोम-विलोम संकलन कहिए सो से जोड़ देने का विधान में संदृष्टि अधिकार विषै लिखेंगे; तहां जानना । इहां जोड विषै संदृष्टि समझने में व श्रावती; तातें नाहीं लिख्या है । असें प्रयु बिना कर्मप्रकृतिनि का समय-समय प्रति बंध, उदय, सत्व का लक्षण कह्या ।
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३७
सम्यानचन्द्रिका मायटोका
बहरि प्रायु का अन्यथा लक्षण है, जालें अायु का अपकर्षण कालनि विर्षे वा असंक्षेप अंत काल विर्षे ही बंध हो है । बहुरि आबावा काल पूर्व भव विष व्यतीत हो है । तातै आयु की जितनी स्थिति, तितनी ही निषेकनि की रचना जामनी । आबाधाकाल घटावना नाहीं । बहुरि आयुकर्म का उत्कृष्ट संचय कोडि पूर्व वर्ष प्रमाण प्रायु का धारी जलचर जीव के हो है। तहां कर्मभूमियां मनुष्य कोटि पूर्व वर्ष प्रमाण आयु का धारी यथायोग्य संक्लेश वा उत्कृष्ट योग करि पर भव संबंधी कोटिपूर्व वर्ष का आयु जलचर विर्षे उपजने का बांध्या, सो आग कहिएगी योग यवमध्य रचना, ताका ऊपरि स्थान विर्षे अंतर्मुहूर्त तिष्ठ्या, बहुरि अंत जीव गुणहानि का स्थान विर्षे वली का असंख्यातवां भागमात्र काल तिष्ठ्या, कम ते काल गमाइ, कोडिपूर्व आयु का धारी जलचर विर्षे उपज्या । अंतर्मुहूर्त करि सर्व पर्याप्तनि करि पर्याप्त भया । अंतर्मुहुर्त करि बहुरि परभव संबंधी जलचर विर्षे उपजने का कोडिपूर्व प्रायु को बांधे है। तहां दीर्घ आयु का बंध काल करि यथायोग्य संक्लेश करि उत्कृष्ट योग करि उत्कृष्ट योग करि बांध है । सो योग यवरचना का अंत स्थानवी जीव बहुत बार साता कौं काल करि युक्त होता अपने काल विर्षे पर भव संबंधी आयु को घटाप, ताक आयु-वदना द्रव्य का प्रमाण उस्कृष्ट हो है; सो द्रव्य रचना संस्कृत टोका तें जाननी । या प्रकार औदारिक आदि शरीरनि का बंध, उदय, सत्त्व विशेष जानने के अर्थि वर्णन कीया ।
आग श्री माधवचंद्र विद्यदेव बारह गाथानि करि योग मार्गणा विष जीवनि की संख्या कहै हैं -
बादरपुण्णा तेऊ, सगरासीए असंखभागमिदा । विक्किरियसत्तिजत्ता, पल्लासंखेज्जया वाऊ ॥२५॥
बायरपूर्णः, तेजसाः, स्वकराशेरसंख्यभागमिताः ।
विक्रियाशक्तियुक्ताः, पल्यासंख्याता वायवः ॥२५९।। टीका - बादर पर्याप्त तेजकायिक जीव, तिनि विर्षे उन ही जीवनि का जो पूर्वे परिमाण आवली के धन का असंख्यातवां भागमात्र कहा था, तिस राशि कौं असंख्यात का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ, तितने जीव विक्रिया शक्ति करि संयुक्त जानने ।
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३६ }
। गोम्मसार औषकाम गाथा २६०-२६१
Arrenorma
बहरि बादर पर्याप्त वातकायिक जीव लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण कहे थे । तिनि विर्षे पल्य का असंख्यातवां भार प्रमाण जीव, विक्रिया शक्ति युक्त जानते । जाते 'बादरतेऊवाऊपंचेंदिययुषरणगा विगुब्धति' इस गाथा करि बादर पर्याप्त अग्निकालिक अर पचनकाशिक जीयान के क्रिषिक योग का सद्भाव कहा है ।
पल्लासंखेज्जाहविदंगुलगुणिदसेढिमेत्ता हु । वेगुब्वियपंचक्खा, भोगभुमा पुह बिगुब्बंति ॥२६०॥
पल्यासंख्याताहतवृंदांगुलगुणित श्रेरिणमात्रा हि।
वैविकपंचाक्षा, भोगभुमाः पृथक् विपूर्वति ॥२६॥
टीका - पल्य का असंख्यातवा भाग करि धनांगुल कौं गुणे, जो परिमाण होइ, ताकरि जगच्छे णी गुण, जो परिमाण आये, तितने वैक्रियिक योग के धारक पर्याप्त पंचेंद्री तिर्यंच वा मनुष्य जानने । तहां भोगभूमि विर्षे उपजे तिर्यच वा मनुष्य अर कर्मभूमि विर्षे चक्रवर्ती ए पृथक् विक्रिया की भी कर हैं । इनि विना सर्व कर्मभूमियानि के अपृथक् विक्रिया ही है ।।
जो मूलशरीर से जुदा शरीरादि करना, सो पृथक् विक्रिया जाननी । अपने शरीर ही कौं अनेकरूप करना, सो अपृथक् विक्रिया जाननी । वेहि सादिरेया, तिजोगिणो तेहिं हीण तसपुण्णा । बियजोगिणो तदूणा, संसारी एक्कजोगा हु ॥२६॥
देवः सातिरेकाः, त्रियोगिनस्तैीनाः असपूर्णाः ।
द्वियोगिनस्तदना, संसारिणः एकयोगा हि ।।२६१॥ टीका -- देवनि का जो परिमाण साधिक ज्योतिष्कराशि मात्र कह्या था; तीहि विर्षे धनांगुल का द्वितीय मूल करि मुरिणत जगच्छे,रणी प्रमाण नारकी पर संख्यात पणट्ठी प्रतरांगुल करि भाजित जगत्प्रतर प्रमाण संज्ञी पर्याप्त तिर्यच अर बादाल का धन प्रमाण पर्याप्त मनुष्य इनिकों मिलाएं, जो परिमाण होइ, तितने त्रियोगी जानने । इनिकै मन, बचन, काय तीनों योग पाइए हैं।
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सम्यग्जामचन्द्रिका भावाटीका ]
[ ३६६
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बहरि जो पूर्वं पर्याप्त स जीवनि का प्रमाण कहा था, तामै त्रियोगी जीवनि का परिमाण घटाएं, जो अवशेष परिमाण रहै; तितने द्वियोगी जीव जानने । झानक वचन, काय दोष ही योग पाइप है।
बहुरि संसारी जीवनि का जो परिमाण, तामै द्वियोगी पर त्रियोगी जीवनि का परिमाण घटाएं जो अवशेष परिमाण रहै, तितने जीव एक योगी जानने । इनि के एक काययोग ही पाइए है; असें प्रगट जानना । - अंतोमहत्तमेसा, चउमरणजोगा कमेण संखगुरणा ।
तज्जोगो सामण्णं, चउवचिजोगा तदो दु संखगुणा ॥२६२॥
अंतर्मुहूर्तमात्राः, चतुर्मनोयोगाः कमेण संख्यगुणाः ।
तद्योगः सामान्यं, चतुर्वचोयोगाः ततस्तु संख्यगुणाः ॥२६२॥ टीका ~ च्यारि प्रकार मनोयोग प्रत्येक अंतर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति लीएं हैं । सथापि अनुक्रम तें संख्यात गुणे जानने। सोई कहिए हैं - सत्य मनोयोग का काल सक्तै थोरा है; सो भी अंतर्मुहूर्त प्रमाण है; ताकी संदृष्टि-एक अंतर्मुहूर्त । बहुरि यात संख्यातगुणा काल असत्य मनोयोग का है, ताकी संदृष्टि-च्यारि अंतर्मुहूर्त । इहां संख्यातं की सहनानी च्यारि जाननी । बहुरि याते संख्यात गुणा उभय मनोयोग का काल है। ताकी संदृष्टि - सोलह अंतर्मुहूर्त । बहुरि यात संख्यातगुणा अनुभय मनोयोग का काल है; ताको संदृष्टि-चौसठि अंतर्मुहूर्त । जैसे च्यारि मनोयोग का काल का जोड दीएं जो परिमारण हवा, सो सामान्य मनोयोग का काल है; तिहि की संदृष्टि - पिच्यासी अंतर्मुहूर्त । बहुरि सामान्य मनोयोग का काल से संख्यातगुणा च्यारि वचनयोग काल है । तथापि क्रम में संख्यातगुणा है: तो भी प्रत्येक अंतर्मुहूर्त मात्र ही है। तहां सामान्य मनोयोग का कालत संख्यातगुणा सत्य वचनयोग का काल है; ताकी संदृष्टि-चौगुणा पिच्यासी ( ४४८५ ) अंतर्मुहूर्त । बहुरि यात संख्यात गुणा असत्य वचनयोग का काल है - ताकी संदृष्टि सोलहगुणा पिच्यासी ( १६४८५ ) अंतर्मुहूर्त । बहुरि यातै संख्यातगुणा उभय वचनयोग का काल है - ताकी संदृष्टि-चौसठगुणा पिच्यासी (६४४५५ ) अंतर्मुहूर्त । बहुरि यात संख्यात गुणा अनुभय वचनयोग का काल है; ताकी दृष्टि-दोय सै छप्पन गुणा पिच्यासी ( २५६४८५ ) अंतर्मुहूर्त ।
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४०० ]
होम्मटमार जीवकाम गाथा २६३
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तज्जोगो सामण्णं, कानो संखाहदो तिजोगमिदं । सब्वसमासविभजिदं, सगसगगुणसंगुणे दु सगरासी ॥२६३॥
तद्योगः सामान्यं, कायः संख्याहतः त्रियोगिमितम् । सर्वसमासविभक्त, स्वकस्वकगुरणसंगुरणे तु स्वकराशिः॥२६३॥
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टीका - बहुरि जो चार्यों वचन योगनि का काल कह्या, ताका जोड दीएं, जो परिमाए होइ, सो सामान्य वचन बोग का काल है ताकी संदृष्टि तीन से चालीस गुरणा पिच्यासी ( ३४०४८५ ) अंतर्मुहूर्त । यात संख्यात गुरणा काल' काययोग का जानना । ताकी संदृष्टि तेरह से साठि गुणा पिच्यासी (१३६० ४-५) अंतर्मुहूर्त । असे इनि तीनों योगनि के काल का जोड दीएं, सतरह से एक गुणा पिच्यासी ( १७०१४८५ ) अंतर्मुहूर्त प्रमाण भया । ताके जेते समय होंहि, तिस प्रमाण करि त्रियोग कहिए । पूर्व जो त्रियोगी जीवनि का परिमाण कहा था, ताकौं भाग दीजिए 'जो एक भाग का परिमाण प्राव, ताकौं सत्यमनोयोग के काल के जेते समय, तिन'करि गुण, जो परिमारण प्रादै, तितने सत्य मनोयोगी जीव जानने । बहरि ताही कौं 'असत्य मनोयोग काल के जेते समय, तिन करि गुण, जो परिमाण आवै, तितने असत्य मनोयोगी जीव जानने । असें ही काययोग पर्यंत सर्व का परिमाण जानना । इहां सर्वत्र वैराशिक करना । तहां जो सर्व योगनि का काल विर्षे पूर्वोक्त त्रियोगी सर्व 'जीव पाइए, तो विवक्षित योग के काल विर्ष केते जीव पाइए ? असे तीनो योगनि का जोड दिएं जो काल भया, सो प्रमाण राशि, त्रियोगी जीवनि का परिमाण फल राशि, अर जिस योग की विवक्षा होइ तिसका काल इच्छा राशि, जैसे करि के फलराशि कौं इच्छाराशि करि गुरिण प्रमाणराशि का भाग दीएं, जो-जो परिमाण आवें, तितने-तितने जीव विवक्षित योग के धारक जानने ।
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बहुरि द्वियोगी जीवनि विर्षे वचनयोग का काल अंतर्मुहुर्त मात्र, ताकी संदटि. एक अंतर्मुहूर्त, याते संख्यातमुणा काययोग का काल, ताकी संदृष्टि च्यारि अंतमुंहूर्त, इनि दोऊनि के काल को जोड, जो प्रमाण होइ, ताका भाग द्वियोमी जीव राशि की. दीएं, जो एक भाग का परिमाण होइ, ताकौं अपना-अपना काल करि गुरणे, अपना-अपना राशि हो है। तहां किछू घाटि सराशि के प्रमाण की संदृष्टि अपेक्षा पांच करि भाग देइ, एक करि गुरणे, द्वियोगीनि विर्षे वचन योगीनि का
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सम्पज्ञानचनिका भावाटीका ] प्रमाण हो है । पांच का भाग देइ, च्यारि करि गुरणे द्वियोगीनि विर्षे काययोगीति का प्रमाण हो है ।
कम्मोरालियमिस्सयोरालद्धासु संधिवअरपंता । कम्मोरालियमिस्सय, ओरालियजोगिणो जीवा ॥२६४॥
कार्मरणौदारिकमिश्नकौरालाद्धासु संचितानंसाः ।
कार्मरणौरालिकमिश्रकौरालिकथोगिनो जीवाः ॥२६४॥
टीका - कार्माण काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, औदारिक काययोग 'इनि के कालनि विर्षे संचित कहिए एकठे भएं, जे कार्माण काययोगी, औदारिक मित्र काययोगी, औदारिक काययोगी जीव, ते प्रत्येक जुदे-जुदे अनंतानंत जानने; सोई कहिए है ।
समयत्तयसंखावलिसंखगणावलिसमासहिदरासी । सगगुणगुणिवे थोवो, असंखसंखाहयो कमसो ॥२६५।।
समय त्रयसंख्यावलिसंख्यगरणालिसमासहितराशिम् ।
स्वकमुणगुणिते स्तोकः, असंख्यसंस्थाहतः क्रमशः ॥२६॥ :. टोक - कामण काययोग का काल तीन समय है, जातें विग्रह गति विर्षे अनाहारक तीनि समयनि विर्षे कार्माण काय योग ही संभव है । बहुरि औदारिक मिश्र काययोग का काल संख्यात प्रावली प्रमाण है; जाने अंतर्मुहुर्त प्रमाण अपर्याप्त अवस्था विष औदारिकमिश्र का काल है । बहुरि तातै सख्यातगुणा औदारिक काययोग का काल है; जाते तिनि दोऊ कालनि बिना अवशेष सर्व औदारिक योग का ही काल है; सो इनि सर्व कालनि का जोड दीएं जो समयनि का परिमाण भया, ताक द्विसंयोगी त्रिसंयोगी राशि करि हीन संसारी जीव राशिमात्र एक योगी जीव राशि के परिमाण की भाग दीएं जो एक भाग विष परिमाण आव, तीहि कौं क्लार्माण काल करि गुण, जो परिमारण होइ, तितने कार्माण काययोगी हैं । पर तिस ही एक भाग कौं प्रौदारिक मिश्र काल. करि गुणें, जो परिमाण होइ, तितने प्रौदारिक मिश्र योगी जानने । बहुरि तिस ही एक भाग की औदारिक के काल करि गणे, जो परिमाण होइ, तितने प्रौदारिक काययोगी जानने ।
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४०२
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड माथा २६६ इहां कार्माण काययोगी तो सब तै स्तोक हैं । इनि तें असंख्यात गुणें प्रौदारिकमिश्र काययोगी हैं। इन ते संख्यातगुणे प्रौदारिक काययोगी हैं । इहां भी जो तीन काययोग के काल विर्षे सर्व एक योगी जीय पाइए, तो कारण शरीर आदि विवक्षित के काल विर्षे केते पाइए? असे त्रैराशिक हो है। तहां तीनों काययोगनि का काल सो प्रमाणराशि, एक योगी जीवनि का परिमाण सो फलराशि, कार्मणादिक विवक्षित का काल मो इच्छाराशि, फल राशि कौं इच्छाराशि करि गुरणे, प्रमाण राशि का भाग दीएं, जो-जो प्रमाण पावै, तितने तितने विवक्षित योग के धारक जीव जानने । क्रमशः इस शब्द करि प्राचार्य ने कहा है कि धवल नामा प्रथम सिद्धांत के अनुसारि यह कथन कीया है । या करि अपना उद्धतता का परिहार प्रगट कीया है ।
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सोवक्कमाणुवक्कमकालो संखज्जवासठिदिवाणे । आवलिअसंखभागों, संखेज्जावलिपमा कमसो ॥२६६।।
सोपक्रमानुपक्रमकालः संख्यातवर्षस्थितिवाने । आवल्यसंख्यभामा, संख्यातावलिप्रमः क्रमशः ॥२६६॥
टीका - वैक्रियिक मिश्र पर वैक्रियिक काययोग के धारक जे जीव, तिनकी संख्या च्यारि गाथानि करि कहैं हैं । संख्यात वर्ष की है स्थिति जिनकी असे जे मुख्यता करि दश हजार वर्ष प्रमाण जघन्य स्थिति के धारकवान कहिए व्यंतर देव, तिनि विर्षे उनकी स्थिति के दोय भाग हैं; एक सोपक्रम काल, एक अनुपक्रम काल ।
___ तहां उपक्रम कहिए उत्पत्ति, तीहि सहित जो काल, सो सोपक्रम काल कहिए । सो आवलो के असंख्यालवें भागमात्र है; जो व्यंतर देव उपजिवो ही करें, वीपि कोई समय अंतर नहीं पड़े, तो प्रावली का असंख्यातवा भाग प्रमाण काल पर्यंत उपजिवो करें।
बहुरि जो उत्पत्ति रहित काल होइ; सो अनुपक्रम काल कहिए । सो संख्यात प्रावली प्रमाण है। बारह मुहूर्तमात्र जानना । जो कोई ही ध्यंतर देव न उपज, तौ बारह मुहूर्त पर्यंत न उपजै, पीछे कोई उपजै ही उपजै; असें अनुक्रम में काल जानने ।
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[ ४०३ .. तहि सव्वे सुद्धसला, सोवक्कमकालदो दु संखगुणा । ... तत्तो संखगुणूणा, अपुण्णकालम्हि सुद्धसला ॥२६७॥ .
तस्मिन् सर्वाः शुद्धशलाकाः, सोपकमकालतस्तु संख्यगुणाः । ....
ततः संख्यगुणोना, अपूर्णकाले शुद्धशलाकाः ॥२६७॥ ....
टीका - तीहि दश हज़ार वर्ष प्रमाण जघन्य स्थिति विर्षे सर्व पर्याप्त वा अपर्याप्त काल संबंधी अनुपक्रम काल रहित कौं केवल शुद्ध उपक्रम काल की शलाका कहिए । जेती बार संभवै तेता प्रमाण, सो उपक्रम काल से संस्थात गुणी है । बहुरि अपर्याप्त काल संबंधी शुद्ध उपक्रम शलाका ताने संख्यात गुणो घाटि हैं, जो जघन्य स्थिति विर्षे शुद्ध उपक्रम शलाका का परिमाण कह्या था, ताके संख्यातवें भाग अपर्याप्त काल संबंधी शुद्ध उपक्रम शलाका जानना । सोई दिखाइए है
सोपक्रम-अनुपक्रम काल दोऊ कालनि को मिलाई हुई एक शलाका होइ, ती दश हजार वर्ष प्रमाण स्थिति की केती शलाका होइ ? प्रेस राशि करिए । तहां सोपक्रम पर अनुपक्रम काल कौं मिलाए, पावली का असंख्यातवां भाग अधिक संख्यात प्रावली प्रमाण तो प्रमाणराशि भया, अर फलराशि एक शलाका, पर इच्छाराशि दश हजार वर्ष, तहां फल करि इच्छाराशि कौं गुरिण, प्रमाण का भामं दोएं, किंचिदून संख्यातगुणा संख्यात प्रमाण मिश्र शलाका हो है । 'जघन्य स्थिति विर्षे एती बार उपक्रम वा अनुपक्रम का काल बर्ते है । बहुरि प्रमाणराशि शलाका एक, फलराशि उपक्रम काल प्रावली का असंख्यातवां भाग, इच्छाराशि मिश्रशलाका किंचिदून संख्यात गुणा संख्यात कीएं, तीहि जघन्य स्थिति प्रमाण काल विर्षे शुद्ध उपक्रम शलाका का काल का परिमाण किंचिदून संख्यात गुणा संख्यात गुणित आवली का असंख्यातवां भागमात्र हो है । बहुरि प्रमाण जघन्य स्थिति, फैल "शुद्ध उपक्रम शलाका का काल, इच्छा अपर्याप्त कीएं. अपर्याप्त काल संबंधी शुद्ध उपक्रम शलाका · का काल संख्यात गुणा आवली का असंख्यातवां भागमात्र होइ । अथवा अन्य प्रकार कहैं हैं - प्रमाण एक शुद्ध उपक्रम शलाका का काल, फल एक शलाका, इच्छा सर्व शुद्ध उपक्रम काल करिएं पर्याप्त-अपर्याप्त सर्व काल संबंधी शुद्ध उपक्रम शलाका किचिदून संख्यात गुणी संख्यात जाननी । बहुरि प्रमाण एक शलाका, फल शुद्ध उपक्रम शलाका का काल प्रावली का असंख्यातवां भागमात्र, इच्छा सर्व शुद्ध शालाका किंचिदून संख्यात गुणित संख्यात करिएं, लब्धराशि विर्षे सर्व जघन्य स्थिति संबंधी
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[ोम्मटसार लोयकाण्ड गाथा २६८-२६६
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शुद्ध उपक्रम काल प्रावली का असंख्यातवां भाग कौं किचिदून संख्यात गुणा संख्यात करि गुरणे, जेता प्रमाण प्रावै, तितना हो है । बहुरि प्रमाण एक शलाका, फल एक शलाका काल आवली का असंख्यातवां भागमात्र काल, इच्छा अपर्याप्त काल संबंधी शालाका संख्यात करिए, तहां लब्धिराशि विर्षे अपर्याप्तकाल संबंधी शुद्ध उपक्रम शलाका का काल संख्यात गुणा पावली का असंख्यातवा भागमात्र हो है । इहां दोय प्रकार वर्णन किया; तहां दोऊ जायगा जघन्य उपजने का अंतर एक समय है; ताकौं विचारि शुद्ध उपक्रम शलाका साधी है; असा जानना । अनुपक्रम काल करि रहित जो उपक्रम काल; सो पद्ध उपक्रम काल जानना । ... तं सुद्धसलागाहिदणियरासिमपुण्णकाललद्धाहिं। - सुद्धसलांगाहिं गुणे, वैतरवेगुन्वमिस्सा हु ॥२६॥
तं शुद्धशलाकाहितनिजराशिमपूर्णकाललब्धाभिः ।
शुद्धशलाकाभिरणे, व्यंतरवैगूर्वमिश्रा हि ॥२६८॥ .... टीका - तीहि जघन्य स्थिति प्रमाण सर्व काल संबंधी शुद्ध उपक्रम शलाका का परिमाण, किंचिदून संख्यातगुणा संख्यात करि गुरिणत प्रावली का असंख्यातवा भागमात्र का, ताका भाग व्यंतर देवनि का जो पूर्व परिमारण कहा था, ताकौं दीजिए, जो परिमाण आवं, ताकौं अपर्याप्त काल संबंधी शुद्ध उपक्रम शलाका का प्रमाण संख्यात गुणा पावली का असंख्यातवां भागमात्र, ताकरि गुण, जो परिमाण आवे, तितने वैक्रियिक मिश्र योग के धारक व्यंतर देव जानने । सो ए व्यंतर देवनि का जो पूर्वं परिमाण कहा था, ताके संख्यातवें भाग बैंक्रियिक मिश्र योग के धारक व्यंतर देव हैं । संख्यात वर्ष प्रमाण स्थिति के धारक व्यंतर धने उपजे हैं; तातें उन ही की मुख्यताकरि इहां परिमाण कहा है।
हिं सेसदेवणारयमिस्सजुद्दे सम्वमिस्सवेगुव्वं । सुरणिरयकायजोगा, वेगुस्वियकायजोगा हु ॥२६॥ - तस्मिन् क्षेषदेवनारकमिश्युते सर्थनिश्वगर्वम् ।
. सुनिरयकाययोगा, वैविककाययोगा हि ॥२६९।।
टीका - तीहि वैक्रियिक मिश्र काययोग के धारक व्यंतर देवनि का परिमाणः विर्ष अवशेष में भवनवासी, ज्योतिषी, वैमानिक देव अर सर्व नारकी वैक्रियिक मित्र
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सम्यम्झानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४०५ योग के धारक, निनिका परिणाम मिलाएं, सर्व वैक्रियिकमिश्र काययोर के धारक जीवनि का परिमाण हो है । व्यंतर देवां बिना अन्य देव वा नारकी, तिनकै अनुपक्रम काल जो न उपजने का काल, सो बहुत है । तातें सबनि ते वैऋियिकमिथ योग के धारक व्यंतर देव बहुत हैं । शस्तै शोरनि की रन विषं मिलाय करि परिमार कह्या । बहुरि काययोग के धारक देव पर नारकी, तिनिका परिमाण मिलाएं बैंक्रियिक काययोग के धारक जीवनि का परिमाण हो है। पूर्व जो त्रियोगी जीवनि का परिमाण विर्षे काययोगी जीवनि का परिमारण कहा था, तामै स्यों तिर्यंच, मनुष्य संबंधी प्रौदारिक, आहारक काययोग के धारक जीवनि का परिमाण घटाएं, जो परिमाण रहै; तितने वैक्रियिक काययोग के 'धारक जीव जानने । मिश्र योग के धारक जीव एक काययोगी ही हैं; सो उनका परिमाण एक योगीनि का प्रमाण विर्षे गभित जानना ।
आहारकायजोगा, चउवणं होंति एकसमयम्हि । पाहारमिस्सजोगा, सत्तावीसा उक्कस्सं ॥२७०॥
आहारकाययोगाः, चतुष्पंचाशत् भवंति एकसमये।
श्राहारमिश्रयोगाः, सप्तविंशलिस्तूकृष्टम् ॥२७॥ टीका - उत्कृष्टपने एक समय विर्षे युगपत् आहारक काययोग के धारक चौवन (५४) हो हैं । बहुरि आहारक मिश्र काययोग के धारक सत्ताईस ( २७ ) हो हैं । उत्कृष्टपने पर एक समय विर्षे असे ए दोय विशेषण मध्य दीपक समान हैं। जैसे बीचि वर्या हुआ दीपक दोऊ तरफ प्रकाश कर है; तैसें इनि दोऊ विशेषणनि तें जो पूर्वे गति आदि विषै जीवनि की संख्या कहि पाए, अर आगै देदादिक विर्षे जीवनि की संख्या कहिएगी; सो सब उत्कृष्टपन युगपत् अपेक्षा जाननी । जो उत्कृष्टपर्ने समय विर्षे युगपत् होइ, तो उक्त संख्या प्रमाण जीव होहि । उक्त संख्या ते हीन होइ तौ होइ, परन्तु अधिक कदाचित् न होंइ । ऐसी विवक्षात इहां कथन जानना' । बहुरि जघन्यपने ते वा नाना काल की अपेक्षा संख्या का विशेष अन्य जैनागम त जानना असे योगमार्गणा विर्षे जीवनि की संख्या कही है। इति श्री आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय माम पंचसंग्रह ग्रंथ की जोवतत्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यक्षानचन्द्रिका नाना भाषा
टीका विर्षे जीवकाण्ड विर्षे प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा, तिनि विर्षे योग . प्ररूपणा है नाम जाका असा नवमा अधिकार सम्पूर्ण भया ॥६॥
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दसवां अधिकार : वेद-मार्गणा-प्ररूपणा
॥ मंगलाचरण । दूरि करत भव ताप सब, शीतल जाके बैन ।
तीन वनमारका नौं, सोसल जिग सुखदम ॥ आगें शास्त्र का कर्ता आचार्य छह गाथानि करि वेदमार्गरणा कौं प्ररूपै हैं - पुरिसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसिच्छिसंढओ भावे। णामोदयण दवे, पाएण समा कहिं विसमा ॥ २७१ ॥
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परुषस्त्री पंढवेदोदयेन पुरुषस्त्रीषंढाः भावे । नामोदयेन द्रव्ये, प्रायेण समाः क्वचिद् विषमाः ॥२७॥
MAHARMACEUT K anasarambasamonleew-iranamaskar ERARIAAAAAAAPAwamaAINRIA
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टोका - चारित्र मोहनीय का भेद नोकषाय, तीहरूप पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद नामा प्रकृति, तिनिके उदय ते भाव जो चैतन्य उपयोग, तीहि विर्षे पुरुष, स्त्री, नपुंसकरूप जीव हो है । बहुरि निर्माण नामा नामकर्म के उदय करि संयुक्त अंगोपांग का विशेषरूप नामकर्म की प्रकृति के उदय से, द्रव्य जो पुद्गलीक पर्याय, तीहिंविर्षे पुरुष, स्त्री, नपुंसक रूप शरीर हो है । सो ही कहिए है-पुरुषवेद के उदयतें स्त्री का अभिलाषरूप मैथुन संज्ञा का धारी जीव, सो भाव पुरुष हो है । बहुरि स्त्री वेद के उदय ते पुरुष का अभिलाषरूप भैथुन संज्ञा का धारक जीव, सो भाव स्त्री हो है। बहुरि नपुंसकवेद के उदय ते पुरुष अर स्त्री दोऊनि का युगपत् अभिलाषरूप मैथुन संज्ञा का धारक जीव, सो भाव नपुंसक हो है ।
बहुरि निर्माण नामकर्म का उदय संयुक्त पुरुष बेदरूप आकार का विशेष लीएं, अंगोपांग नामा नामकर्म का उदय ते भूछ, डाढी, लिंगादिक चिह्न संयुक्त शरीर का धारक जीव, सो पर्याय को प्रथम समय ते लगाय अन्त समय पर्यंत द्रव्य पुरुष
बहुरि निर्माण नाम का उदय संयुक्त स्त्री वेदरूप आकार का विशेष लीएं अंगोपांग नामा नामकर्म के उदयतै रोम रहित मुख, स्तन, योनि इत्यादि चिह्न संयुक्त
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सम्यमानचन्तिका भाषाटोका ]
। ४० शरीर का धारक जीब, सो पर्याय का प्रथम समय से लगाइ अंत समय पर्यंत द्रव्य स्त्री होइ है।
बहुरि निर्माण नामा नामकर्म का उदय तें संयुक्त नपुंसक वेदरूप आकार का विशेष लीएं अंगोपांग नामा नामप्रकृति के उदय तें मछ, डाढी इत्यादि वा स्तन, योनि इत्यादिक दोऊ चिह्न रहित शरीर का धारक जीव, सो पर्याय का प्रथम समय से लगाइ अंत समय पर्यंत द्रव्य नपुंसक हो है ।
सो प्रायेण कहिए बहुलता करि तौ समान वेद हो है । जैसा द्रव्यवेद होइ तैसा ही भाव वेद होइ बहुरि कहीं समान वेद न हो है, द्रव्यवेद अन्य होइ, भाव वेद अन्य होइ । तहां देव अर नारकी अर भोग भूमियां तिर्यच, मनुष्य इनिकै तो जैसा द्रव्य वेद है, तैसा ही भाव वेद है । बहुरि कर्मभूमियां तिर्यच अर मनुष्य विर्षे कोई जीवनि के लौ जैसा द्रव्य वेद हो है, तैसा ही भाव वेद है, बहुरि केई जीवनि के द्रव्य वेद अन्य हो है अर भाव वेद अन्य हो है । द्रव्य तें पुरुष है पर भाव से पुरुष का अभिलाषरूप स्त्री वेदी है । वा स्त्री पर पुरुष दोऊनि का अभिलाषरूप नपुंसकवेदी है। जैसे ही । द्रव्य तें स्त्रीवेदी है अर भाव स्त्रीका अभिलाषरूप पुरुषवेदी है । वा दोऊनि का अभिलाषरूप नपुंसक वेदी है । बहुरि द्रव्य तें नपुंसक बेदी है ! भाव ते स्त्री का अभिलाषरूप पुरुष वेदी है । वा पुरुष का अभिलाषरूप स्त्री देदी है। जैसा विशेष जानना, जातै प्रागम विर्षे नवमा गुणस्थान का सवेद भाग पर्यंत भाव ते तीन वेद हैं । अर द्रव्य ते एक पुरुष वेद ही है, असा कथन कह्या है ।
बेबस्सुदीररणाए, परिणामस्स य हवेज्ज संमोहो। संमोहेण ण जाणदि, जीवो हि गुणं व दोषं वा ॥२७२॥
घेदस्योदोरणायां, परिणामस्य च भवेत्संमोहः ।
संमोहेन न जानाति, जीवो हि गुणं वा दोषं वा ।।२७२॥ टीका - मोहनीय कर्म की नोकषायरूप घेद नामा प्रकृति, ताका उदीरणा बा उदय, तीहि करि प्रात्मा के परिणामनि कौं रागादिरूप मैथुन है नाम जाका असा सम्मोह कहिए चित्त विक्षेप, सो उपज है । तहां बिना ही काल पाएं कर्म का फल निपजै, सो उदीरणा कहिए । काल पाएं फल निपड्रै, सो उदय कहिए । बहुरि उस सम्मोह के उपजने से जीव मुरण कौं वा दोष कौं न जान, असा अविवेक रूप
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जीवकाण्ड गाथा २७३-२७४
अर्थ वेद के उदय भया सम्मोह तें हो है । ताले ज्ञानी जोव को परमागम भावना का बल करि यथार्थ स्वरूपानुभवन ग्रादि भाव ते ब्रह्मचर्य अंगीकार करना योग्य है; ऐसा आचार्य का अभिप्राय है ।
पुरगुरणभोगे सेवे, करेवि लोयस्मि पुरुगुणं कम्मं ।
पुर उत्तमे य जह्मा, तह्मा सो वण्णिो पुरिसो ॥२७३॥
पुरुगुणभोगे शेले, करोति लोके पुरुगुणं कर्म ।
पुरूतमे च यस्मात् तस्मात् स वर्णितः पुरुषः ।।२७३॥१
टीका - जातें जो जीव पुरुगुण जो उत्कृष्ट सम्यग्ज्ञानादिक, तीहि विर्षे शेते कहिए स्वामी होइ प्रवर्ते ।
बहुरि पुरुभोग जो उत्कृष्ट इंद्रादिक का भोग, तीहि विषैः शेते कहिए भोक्ता होय प्रवर्ते ।
बहुरि पुरुमुख कर्म जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूप पुरुषार्थ, तीहिने शेते कहिए करें ।
बहुरि पुरु जो उत्तम परमेष्ठी का पद तीहि विषै शेते कहिए तिष्ठे । तातें सो द्रव्य भाव लक्षण संयुक्त द्रव्य भाव तें पुरुष का है । पुरुष शब्द की निरुक्ति करि वर्णन कीया है ।
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धातुनि के अनेक अर्थ हैं । तातें शी स्वप्ने इस धातु का स्वामी होना, मोना करना, तिष्ठना से अर्थ कहे, विरोध न उपजायें है। बहुरि इहां पृषोदर शब्द की ज्यों अक्षर विपर्यास जानने । तालवी, शकार का, मूर्धनी षकार करना । अथ 'atsarifa' इस धातु ते निपज्या पुरुष शब्द जानता ।
छादयदि सयं दोसे, णयदो छाददि परं वि दोसेण । छाणसीला जह्मा, ता सा वणिया इत्थों ॥ २७४ ॥
छादयति स्वकं दोष: नयतः छादयति परमपि दोषेण । छादनशीला स्मात् तस्मात् सा वर्णिता स्त्री ॥ २७४ ॥
१ षट्संदानम - ववला पुस्तक १, पृष्ठ ३४३ गाथा १७१ ।
२. खंडागम - घवला पुस्तक १, पृष्ठ २४३, गाथा १७०
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सम्परामाका भावाटीका ]
टीका - जाते जो स्वयं कहिए आपकौं दोधः कहिए मिथ्यात्व अज्ञान, असंयम, क्रोधादिक, तिनि करि स्तृणाति कहिए, आच्छादित कर है । बहुरि नाही केवल आप ही कौं श्राच्छादित करै है; जाते पर जु है पुरुषवेदी जीव, ताहि कोमल वचन कटाक्ष सहित विलोकन, सानुकूल प्रवर्लन इत्यादि प्रवीणतारूप व्यापारनि ते अपने वंश करि दोष जे हैं हिंसादिक पाप, तिनि करि स्तृणाति कहिए आच्छाद है; असा आच्छादन रूप ही है स्वभाव जाका तात, सो द्रव्य भाव करि स्त्री असा नाम कहां हैं । असी स्त्री शब्द की निरुक्ति करि वर्णन' कीया।
यद्यपि तीर्थंकर की माता मादि सम्यग्दृष्टिणी स्त्रीनि विषै दोष नाही, तथापि वे स्नी शोरी पर गर्वोक्त दोष ऋरि संयुक्त स्त्री धनी । तातें प्रचुर व्यवहार अपेक्षा असा लक्षण प्राचार्य ने स्त्री का कह्या ।
णेविस्थी व पुमं, गउसो उहय-लिंग-विदिरित्तो। इटावग्गिसमारणग-वेदणगरुनो कलुस-चित्तो ॥२७॥ .
नैव स्त्री नैव पुमान्, नपुंसक उभर्यालगन्यतिरिक्तः ।
इष्टापाकाग्निसनानकदेवनागुरुकः कलुषचित्तः ॥२७५।। टीका - जो जीव पूर्वोक्त पुरुष वा स्त्रीनि के लक्षण के अभाव तें पुरुष नाहीं बा स्त्रो नाहीं; तात दौऊ ही वेदनि के डाढी, मूंछ वा स्तन, योनि इत्यादि चिह्न तिनिकरि रहित है । बहुरि इष्ट का पाक जो ईंट पचावने का पंजावा, ताकी अग्नि समान तीव्र काम पीडा करि गरवा भर्या है । बहुरि स्त्री बा पुरुष दोऊनि का अभिलाषरूप मैथुन संज्ञा करि मैला है चित्त जाका, असा जीव नपुंसक है ऐसा आगम विर्षे कह्या है । यह नपुंसक शब्द की निरुक्ति करि वर्णन कीया । स्त्री पुरुष का अभिलाषरूप तीन कामवेदना लक्षण धरै, भावनपुंसक है; असा तात्पर्य जानना ॥२७५।।
तिणकारिसिठ्ठपागग्गि-सरिस-परिणाम-वेयणुम्मुक्का । अवगय-वेदा जीवा, सग-संभवरणंत-बरसोक्खा ॥२७॥
१. पटांडागम - अवला पुस्तक १, पृष्ठ ३४४ गाथा सं. १७२ पाठभेद - उर - उभय, इट्टाबग्यि - इट्टाबाग, वेदरा -- देवरा । २. षट्खंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३४४, गांधा १७३। पाठभेद --कारिस तरिगट्ट-वागगि।
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7:
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड माथा २७७
तृकाशेषेष्टपाकाग्निसदृश परिणामवेद नोन्मुक्ताः । eeradar जीवाः, स्वकसंभवानंतवरसौख्याः ।। २७६ ।।
टोका - पुरुष वेदी का परिणाम, तिखाकी अग्नि समान है। स्त्री वेदी का परिणाम कारीष का अग्नि समान है । नपुंसक वेद का परिणाम पंजाबाकी अग्नि समान है । असें तीनों ही जाति के परिणामनि की जो पीडा, तीहि करि जे रहित भए हैं; से भाववेद अपेक्षा अनिवृत्तिकरण का अपगत वेदभाग ते लगाय, अयोगी पर्यंत अर द्रव्य भाव वेद अपेक्षा गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान जानने ।
कोक जायेगा जहा कान सेवन नाहीं; तहां सुख भी नाहीं ?
ताक कहैं हैं-कैसे हैं ते प्रवेदी ? अपने ज्ञान दर्शन लक्षण विराजमान आत्मतत्त्व ते उत्पन भया जो अनाकुल प्रतींद्रिय अनंत सर्वोत्कृष्ट सुख, ताके भोक्ता हैं । यद्यपि नवमा गुणस्थान के प्रवेद भाग ही तें वेद उदय तें उत्पन्न कामवेददारूप संक्लेश का अभाव है । तथापि मुख्यपने सिद्धनि ही मैं आत्मीक सुख का सद्भाव दिखाइ वर्णन कीया । परमार्थं तें वेदनि का प्रभाव भए पीछे ज्ञानोपयोग की स्वस्थतारूप ग्रात्म जनित आनन्द यथायोग्य सबनि के पाइये है ।
श्री माधवचन्द्र विद्यदेव वेद मार्गणा विषै जीवनि की संख्या पांच गाथानि करि कहैं हैं -
जोइसियवाणजोरिणितिरिक्खपुरुसा य सण्णिणो जीवा । उपसलेस्सा, संखगुणा कमेणेदे ॥ २७७ ॥
ज्योतिष्कवानयोनितिर्यक्पुरुषाव संज्ञिनो जीवाः । तसेनः पथलेश्याः, संख्यगुणोनाः क्रमेरते ॥ २७७॥
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टीका पैंसठ हजार पांच से छत्तीस प्रतरांगुल का भाग जगत्प्रतर को दीएं, जो परिमाण आवे, तितने ज्योतिषी हैं। ता संख्यात गुणे घाटि व्यंतर हैं । संख्यात गुणे घाटि कहो वा संख्यातवां भाग कहो दोऊ एकार्थ हैं । बहुरि तातें संख्यात गुणे घाटि योनिमती तिथंच है। तिर्यंच गति विषै द्रव्य स्त्री इतनी हैं । बहुरि ताते संख्यात गुणे घाटि द्रव्य पुरुष वेदी तिर्यच हैं । बहुरि तातें संख्यात गुणे घाटि सनी पंचेंद्री तिर्यंच हैं। बहुरि ता संख्यात गुणा घाटि पीत लेश्या का धारक सैनी पंचद्री तियंच हैं ।
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सम्यशामत्रिका भाषाका ] बहुरि तीह स्यों संख्यात गुणा धाटि पन-लेश्या का धारक सैनी पंचेंद्री तिर्यच हैं । असे ए सब संख्यात गुणा घाटि कह्या ।
इगिपुरिसे बत्तीसं, देवी तज्जोगभजिददेवोधे । सगगुरणगारेण गुणे, पुरुसा महिला य देवेसु ॥२७॥
एकपुरुषे द्वात्रिंशद्देव्यः तद्योगभक्तदेवौधे ।
स्वकगुणकारेण गुणे, पुरुषा महिलाश्च देवेषु ॥२७८।। टीका - देवगति विर्ष एक पुरुष के बत्तीस देवांगना होइ । कोई ही देव के बत्तीस सौं धाटि देवांगना नाहीं । अर इंद्रादिकनि के देवांगना तिनत संख्यात गुणी बहुत हैं। तथापि जिनके बहुत देवांगना हैं, जैसे देव तौ थोरे हैं। अर बत्तीस देवांगना जिनके हैं; असे प्रकीर्णकादिक देव घने तिनसे असंख्यात गुणे हैं । तास एक एक देव के बत्तीस-बत्तीस देवांगना की विवक्षा करि अधिक की न करि कही । सो बत्तीस देवांगना पर एक देव मिलाएं तैतीस भए, सो पूर्व जो देवनि का परिमाण कहा था, ताकौं तैतीस का भाग दीएं जो एक भाग का परिमाण आवै, ताकी एक करि गुण तितना ही रह्या, सो इतने तो देवगति विर्ष पुरुष जानने। पर याकौं बत्तीस गुणां कीएं जो परिमाण होइ, तितनी देवांगना जाननीं।
भावार्थ - देवराशि का तेतीस भाग में एक भाग प्रमाण देव है, बत्तीस . भाग प्रमाण देवांगना हैं।
देहि सादिरेया, पुरिसा देवीहि साहिया इत्थी। तेहिं विहीण सवेदो, रासी संढाण परिमाणं ॥२७६॥
देवः सातिरेकाः, पुरुषाः देवीभिः साधिकाः स्त्रियः ।
तविहीनः सवेदो, राशिः घटानां परिमाणम् ॥२७९।। टीका - परुष वेदी देवनि का जो परिमाण कमा, तीहि विष परुष देदी तिर्यच, मनुष्यनि का परिमाण मिलाएं, सर्व पुरुष वेदी जीवनि का परिमाण हो है.। बहुरि देवांगना का जो परिमाण कह्या तीहि विर्षे तिर्य चरणी वा मनुष्यणी का परिमाण मिलाएं सर्व स्त्रीवेदी जीवनि का परिमारण हो है । बहुरि नवमा गुणस्थान का वेद रहित भाग नै लगाइ प्रयोग केवली पर्यंत जीवनि का संख्या रहित सर्व
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×१२ ]
| गोसार नोक गाथा २८०.२०१
संसारी जीवनि का परिमाण में स्यों पुरुष वेदी पर स्त्री वेदी जीवनि का परिमाण घटाएं जो अवशेष प्रमाण रहे; तितने नपुंसकवेदी जीव जानने ।
roar gइत्थसणी, सम्मुच्छरसण्णिपुण्णमा इबराः । कुरुजा असष्णिगन्भजनपुइत्थीवाणजो इंसिया ॥ २८० ॥
थोवा तिसु संखगुणा, तत्तो आवलिअसंखभागगुणा । पल्लासंखेज्जगुणा, तत्तो सव्वत्थ संखगुणां ॥२८१ ॥
गर्भनपुंस्त्रीसंज्ञिनः सम्मूर्छन संजिपूर्णका इतरे । कुरुजा असंज्ञिगभंजनपुंस्त्रीवानज्योतिष्काः ॥ २८०॥
eater fry संख्याः, तत श्रावल्यसंख्यभागमुखाः । पल्या संख्येयगुणाः, ततः सर्वत्र संख्यगुणाः ॥२८१॥
टीका - सैनी पंचेद्री गर्भज नपुंसक वेदी, बहुरि सैनी पंचेद्री गर्भज पुरुष वेदी, बहुरि सैनी पंचेंद्रिी गर्भज स्त्री वेदी, बहुरि सम्मूर्छन सैनी पंचेंद्रिय पर्याप्त नपुंसक वेदी, बहुरि सम्मूर्छन सैनी पंचेंद्री अपर्याप्त नपुंसक वेदी, बहुरि भोगभूमियां गर्भज सैनी पंचेंद्री पर्याप्त पुरुष वेदी वा स्त्री वेदी, बहुरि सैनी पचेंद्री गर्भज नपुंसक वेदी, बहुरि प्रसंनी पंचेंद्रिी गर्भज पुरुष वेदी, बहुरि प्रसंनी पंचेंद्री गर्भज स्त्री वेदी, बहुरि व्यंतरदेव, पर ज्योतिषदेव-ए ग्यारा जीवराशि अनुक्रम लें ऊपर-ऊपर लिखनी ।
पूर्वे जो ग्यारा राशि कहे, तिनि विषै नीचली राशि सैनी पंचेंद्रिी गर्भज नपुंसक वेदी सरे सर्व स्तोक है । आठ बार संख्यात भर भावली का असंख्यातवां भाग अर पल्य का असंख्यातवां भाग अर पेंसठि हजार पांच से छत्तीस प्रतरांगुल, इनका भांग जगत्प्रतर को दीएं, जो परिमाणं श्रावै, तितने जानने ।
बहुरि याके ऊपर सैनी पंचेंद्रिी गर्भज पुरुष बेदी स्यों लगाइ, तीन राशि अनुक्रम ते संख्यात गुरणा जानना ।
. बहुरि चौथी राशि तें पंचम राशि संमूर्छन सैनी पंचेंद्री पर्याप्त नपुंसक वेदी आवली का असंख्यातवां भाग गुणाः जानता ।
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चन्द्रिका भाषाटोका |
[ ४३
बहुरि इस पंचम राशि तें षष्ठराशि पल्य का प्रसंख्यातवां भाग गुणा
जानना ।
बहुरि यात ग्रसैनी पंचेंद्रो गर्भज नपुंसक वेदी स्यों लगाइ, ज्योतिषी पर्यंत सप्तम, अष्टम नवम, दशम एकादशम राशि अनुक्रम ते संख्यात गुणा जानना । वेद मार्गणा विषे जीवनि की संख्या कही ।
की
इति श्राचार्य श्रीचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ काम संत के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामा भाषा टीका के विषै जीवकांड विषै प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा तिनि विषै वेदमार्गणा प्ररूपणा नामा दशमां
अधिकार समाप्त भया ।
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ग्याहरवां अधिकार : कषाय-मार्गणा-प्ररूपणा
॥ मंगलाचरण ।। पावन जाको श्रेयमग, मत जाको श्रियकार ।
प्राश्रय श्री श्रेयांस को, करहु श्रेय मम सार ।। प्रागै शास्त्रकर्ता प्राचार्य चौदह गाथानि करि कषाय मार्गणा का निरूपण
जानना
सुहदुक्खसुबहुसस्स, कम्मक्खेत्तं कसेदि जीवस्स । संसारदरमेरं, तेण कसाओ त्ति णं बेति ॥२८२३॥
सुखदुःखसुबहमस्यं, कर्मक्षेत्रं कृषति जीवस्य ।
संसारदूरमर्यादं, सेन कषाय इतोमं अवंति ॥२८२॥ टीका - जा कारण करि संसारी जीव के कर्म जो हैं ज्ञानावरणादिक मूल, उत्तर-उत्तरोत्तर प्रकृतिरूप शुभ-अशुभ कर्म, सोई भया क्षेत्र कहिए, अन्न उपजने का आधार भूत स्थान, ताहि कृयति कहिए हलादिया तें जैसे खेत कौं सवारिए, तसे जो सवारे है, फल निपजावने योग्य कर है, तीहि कारण करि क्रोधादि जीव के परिणाम कषाय हैं, असा श्रीवर्धमान 'भट्टारक के गौतम गणधरादिक कहैं हैं ! ताते महाधवल : द्वितीय नाम कषायप्राभूत आदि विर्षे गणधर सूत्र के अनुसारि जैसे कषायनि का स्वरूप, संख्या, शक्ति, अवस्था, फल आदि कहे हैं । तैसे ही मैं कहोगा । अपनी रुचिपूर्वक रचना न करौंगा । जैसा प्राचार्य का अभिप्राय जानना ।
कैसा है कर्मक्षेत्र? इंद्रियनि का विषय संबंध से उत्पन्न भया हर्ष परिणामरूप नानाप्रकार सुख अर शारीरिक, मानसिक पीडा रूप नाना प्रकार दुख सोई बहुसस्य कहिए बहुत प्रकार प्रश्न, सो जीहिं विर्षे उपज्या है जैसा है।
बहुरि कैसा है कर्मक्षेत्र ? अनादि अनंत पंच परावर्तन रूप संसार है, मर्यादा सोमा जाकी असा है।
१ षट्वं लागम - धवला पुस्तक १, पृ. १४३, मा सं.६०. * यह जयधवल द्वितीय नाम कषायप्रामृत है।
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भावार्थ -- जैसे किसी का किंकर पालती सो खेत विर्षे बोया हूवा बीज, जैसे बहुत फल की प्राप्त होइ वा बहुत सीव पर्यंत होइ, तसे हलादिक तें धरती का फाडना इत्यादिक कृषिकर्म कौं करै है।
__ तैसे संसारी जीव का किंकर क्रोधादि कषाय नामा पालती, सो प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग रूप कर्म का बंध, सो ही भया खेत, तीहिं विर्षे मिथ्यात्वादिक परिणाम रूप बीज, जैसे कालादिक की सामग्री पाइ, अनेक प्रकार सुख-दुःख रूप बहुत फल कौं प्राप्त होइ वा अनंत संसार पर्यंत फल कौं प्राप्त होइ । तैसे कार्य को करे, ताते इन क्रोधादिकनि का कषाय असा नाम कहा, 'कृषि विलेखने' इस धातु का अर्थ करि कषाय शब्द का निरुक्तिपूर्वक निरूपण प्राचार्य करि कीया है।
सम्मत्तदेससयलचरित जहक्खाद-चरणपरिणामे । घावंति वा कषाया, चउसोलअसंखलोगमिवा ॥२८३॥ सम्यक्त्वदेशसकलचरित्रयथाख्यातचरमपरिणामान्।
घातयंति वा कषायाः, चतुः षोडशासंख्यलोकमिताः ॥२८३।।
टीका - अथवा 'कषतीति कषायाः' जे हते, घात करें, तिनिकों कषाय कहिए। सो ए क्रोधादिक हैं, ते सम्यक्त्व वा देश चारित्र वा यथाख्यात चारित्र रूप आत्मा के विशुद्ध परिणामनि कौं पाते हैं । ताते इनिका कषाय असा नाम है । यहु कषाय शब्द का दूसरा अर्थ अपेक्षा लक्षण कह्या ।
तहां अनंतानुबंधी क्रोधादिक हैं, तो तत्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्त्व कौं घाते हैं, जातें अनंत संसार का कारण मिथ्यात्य वा अनंत संसार अवस्थारूप काल, ताहि अनुवंनंति कहिए संबंधरूप करें; तिनकौं अनंतानुबंधी कहिए ।
बहुरि अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक कहे, ते अणुव्रतरूप देश चारित्र कौं धातें - हैं, जाते अप्रत्याख्यान कहिए ईषत् प्रत्याख्यान किंचित् त्यागरूप अणुव्रत, ताकौं आवृण्वंति कहिए पावरे, नष्ट करें; ताकौं अप्रत्याख्यानावरण कहिए। .
बहुरि प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक हैं; ते महाव्रतरूप सकल चारित्र की बातें हैं; जाते प्रत्याख्यान कहिए सकल त्यागरूप महादत, ताकौं श्रावृण्वंति कहिए पावर, नष्ट करें, ताकौं प्रत्याख्यानावरण कहिए ।
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[रेष्मदसार जीवकापड गाथा २८४
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बहुरि संज्वलन क्रोधादिक हैं, ते सकल कषाय का अभावरूप यथाख्यात चारित्र कौं धाते हैं, जाते 'स' कहिए समीचीन, निर्मल यथाख्यात चारित्र, ताकी 'स्वलंति' कहिए दहन करें, तिनको संज्वलन कहिए। इस निरिक्त ते संज्वलन का उदय होते संत भी सामायिकादि अन्य चारित्र होने का अबिरोध सिद्ध हो है ।
____असा यह कषाय सामान्यपने एक प्रकार है। विशेषपने अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरग, संज्वलन भेद ते च्यारि प्रकार है । बहुरि इनके एकएक के क्रोध, मान, माया, लोभ करि च्यारि-च्यारि भेद कीजिए तब सोलह प्रकार हो हैं । अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ'; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ असे सोलह भेद भएं।
बहुरि उदय स्थानकों के विशेष की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण है, जाते कषायनि का कारणभूत जो चारित्रमोह, ताकि प्रकृति के भेद असंख्यात लोक प्रमाण
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RECENHANA
सिल-पुढवि-भेद-धूली-जल-राइ-समाणो हवे कोहो । पारय-तिरिय-परामर-गईसु उप्पायओ कमसो ॥२४॥ शिलापृथ्वीभेवधुलिजलराशिसमानको भवेत् क्रोधः। नारकतिर्यग्नरामरगतिषूत्पादकः क्रमशः ॥२८४॥
टीका-शिला भेद, पृथ्वी भेद, धूलि रेखा, जल रेखा समान क्रोध कषाय सो अनुक्रम ते नारक, तिर्यच, मनुष्य, देब गति विर्षे जीव कौं उपजावन हारा है । सोई कहिए हैं
जैसे शिला, जो पाषाण का भेद खंड होना, सो बहत धने-काल गए बिना मिल नाही; तैसें बहुत घने काल गए बिना क्षमारूप मिलन कौं न प्राप्त होइ, असा जो उत्कृष्ट शक्ति लीएं क्रोध, सो जीव कौं नरक गति विर्षे उपजावै है ।
बहुरि असे पृथ्वी का भेद-खंड होना, सो घने काल गएं बिना मिले नाही, तैसें धने काल गए बिना, जो क्षमारूप मिलने की न.प्राप्त होइ असा जो अनुत्कृष्ट शक्ति लीएं क्रोध, सो जीव को तिर्यच गति विष उपजावै है।
१ षट्वंडागम-धवला पुस्तक १, पृ. ३५२, गा. सं. १७४.
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सम्प्रज्ञानश्वद्रिका भाषाढीका ]
बहरि जैसें दूलि विषै की हुः तील, तर बोस हाल गएं बिना मिलल नाही, तैसें थोरी काल गएं बिना जो क्षमारूप मिलन को प्राप्त न होई, असा अजघन्य शक्ति लिए क्रोध, सो जीव को मनुष्य गति विर्षे उपजावै है।
बहुरि जैसे जल विष करी हुई लीक, बहुत थोरा काल गएं बिना मिल नाही, तैसें बहुत थोरा काल गएं बिना जो क्षमारूप मिलन को प्राप्त न होइ; असा जो जघन्य शक्ति लीएं क्रोध, सो जीव कौं देव गति विष उपजावै है । तिस-तिस उत्कृष्टादि शक्ति युक्तः क्रोधरूप परिणम्या जीव, सो तिस-तिस नरक आदि गति विर्षे उपजने कौं कारग प्रायु-गति प्रानुपूर्वी आदि प्रकृतिनि कौं बांध है; असा अर्थ जानना।
इहां राजि शब्द रेखा वाचक जानना; पंक्ति वाचक न जानना । बहुरि इहां शिला भेद. आदि उपमान अर उत्कृष्ट शक्ति प्रादि क्रोधादिक उपमेय, ताका समानपना अतिधना कालादि गएं बिना मिलना न होने की अपेक्षा जानना।
सेलटिट्-कटठ्-वेत्ते, रिणयभेएणणुहरंतो माणो।. ..' णारय-तिरिय-णरामर-गईसु उपायओ कमसो ॥२५॥ शैलास्थिकाष्ठवेत्रान् निजभेनानुहरन् मानः ।
नारकतिर्यग्नरामरगतिथूत्पादकः क्रमशः ।।२८५॥ टोका - शैल, अस्थि, काष्ठ, बेंत समान जो अपने भेदनि करि उपमीयमान च्यारि प्रकार मान कषाय, सो क्रम ते नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव गति विर्षे जीव कौं उपजावै है । सो कहिए है --
- जैसै शैल जो पाषाण सो बहत घने काल "बिना नमावने योग्य न हो; तैसे बहुत धने काल बिना जो विनय रूप नमन की प्राप्त न होई, असा जो उत्कृष्ट शक्ति लीएं मान, सो जीवनि को नरक गति विर्षे उपजा है।
.. बहुरि जैसें अस्थि जो हाड, सो धने काल बिना नमावने योग्य न होइ; तैसे घने काल - बिना जो विनयरूप नमन कौँ प्राप्त न होइ.।, असा जो अनुल्कृष्ट शक्ति लीएं मान, सो जीव कौं तिथंच गति विर्षे उपजाव है।
१ षट्खंयम पवला पुस्तक १,०३५२, गा० सं०.१७५
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[ गोम्मटसार जीवका पापा २९६ बहरि जैसे काठ धोरा काल बिना नमावने योग्य न होइ, सैसै थोरा काल बिना जो विनयरूप नमन को प्राप्त न होइ । जैसा जो अजघन्य शक्ति लीएं मान, सो जीव कौं मनुष्य गति विर्षे उप जावं है ।
बहुरि जैसे बैंत की लकडी बहुत थोरे काल बिना नमाधने योग्य न होइ, तैसं बहुत थोरा काल बिना जो विनयल्प नमन को प्राप्त न होइ । असा जो जघन्य पशक्ति लीएं मान, सो जीव को देव गति विर्षे उपजावै है । इहां भी पूर्वोक्त प्रकार प्रकृति बंध होना वा उपमा, उपमेय का समानपना जानना ।
वेगवमलोरभ-सिंगे गोमत्तए य खोरप्थे। सरिसी माया णारय-तिरिय-परामर-गईसु खिवदि जियं ॥२८६॥
वेणूपमूलोरभ्रकगेण गोमूत्रेण च क्षुरप्रेण । . . सदृशो माया नारकतिर्यग्नरामरगतिषु क्षिपति जीवम् ॥२८६।।
टीका - बेरायमूल, उरभ्रकग, गोमूत्र, क्षुर समान माया ठिगनेरूप परिणति, सो कम से नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव गति विर्षे जीव कौं उपजाव है । सोई कहिए हैं -
जैसे घेण्यमूल, जो बांस की जड़ की गांठ सो बहुत घने काल बिना सरल न होइ, तैसें बहुत धने काल बिना जो सरल न होइ, असा जो उस्कृष्ट शक्ति कौं लीएं माया, सो जीव कौं नरक गति विर्षे उपजावै है।
बहुरि जैसे उरभ्रकग, जो मीठे का सोंग, सो घने काल बिना सरल न होइ, तेसै धने काल बिना जो सरल न होइ, असा जो अनुत्कृष्ट शक्ति लीएं माया, सो जीव कौं तिर्यंच गति वि उपजावं है ।
बहुरि जैसे गोमूत्र, जो गायमूत्र की धारा, सो थोरा काल बिना सरल न होइ, तैसें थोरा काल बिना सरल न होइ, असी अजघन्य शक्ति लीए माया, सो जीव कौं मनुष्य गति विर्षे उपजा है।
बहुरि जैसे खुर, जो पृथ्वी कपरि बृषभादिक का खोज, सो बहुत थोरा काल बिना सरल न होइ, तैसें बहुत थोरा काला बिना जो सरल न होइ, असी जो जघन्य शक्ति लीएं माया, सो जीव कौं देव पति विर्षे उपजावै है । इहां भी पूर्वोक्त प्रकार प्रकृति बन्ध होना वा उपमा उपमेय का समानपना जानना ।
१- पखंडागम-पवला पुस्तक १,५ ३५२ माथा सं. १७६ । ..
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सभ्यलाभन्द्रिका भाषाटीका ]
[.४१६
किसिराय-चक्क-लणु-मल-हरिद्द-राएण सरिसओ लोहो । णारय-तिरिक्ख-माणुस-देवेसुष्पायरो कमसो' ॥२७॥ क्रिमिरागचकतनुमलहरिद्वारागरण सदृशो लोभः ।
मारकतिर्यग्मानुषदेवेषु उत्पादकः क्रमशः ॥२८७॥ टीका - क्रिमिराग, चक्रमल, तनुमल, हरिद्वाराग समान जो लोभ विषयाभिलाषरूप परिणाम, सो क्रम ते नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव गति विर्षे उपजाये है । सोई कहिए है -
जैसे क्रिमिराग कहिए किरमिची रंग, सो बहुत धने काल गये बिना नष्ट न होइ, तैसें जो बहुत घने काल बिना नष्ट न होइ, असा जो उत्कृष्ट शक्ति लीएं लोभ, सो जीव कौं नरक गति विर्षे उपजावै है।
बहुरि जैसे चक्रमल जो पहिये का मैल, सो घने काल बिना नष्ट न होइ, तैसे धने काल बिना नष्ट न होई, असा जो अनुत्कृष्ट शक्ति लीए लोभ, सो जीवकी तिर्यंच गति विष उपजावं है।
बहुरि जैसे तनुमल, जो शरीर का मैल, सो थोरा काल बिना नष्ट न होइ, तैसे थोरा काल बिना नष्ट न होइ असा जो प्रजघन्य शक्ति लीएं लोभ, सो जीव कौं मनु य गति विष उपजावै है ।
बहुरि जैसे हरिद्राराम कहिए हलद का रंग सो बहुत थोरा काल बिना नष्ट न होइ, तैसें बहुत थोरे काल बिना नष्ट न होइ, जैसा जो जघन्य शक्ति लीएं लोभ, सो जीव कौं देव गति विर्षे उपजावै है । जैसे जिन-जिन कषायनि से जो-जो गति का उपजना कह्या, तिन-तिन कषायनि तें तिस ही तिस गति संबंधी प्रायु वा पानुपूर्वी इत्यादिक का बंध जानना।
रणारय-तिरिक्ख-पर-सुर-गईसु उप्पण्णपढमकालम्हि। कोहो माया माणो, लोहुदो अणियमो वाऽपि ॥२८॥
नारकतिर्यग्नरसुरगतिपत्पन्नप्रथमकाले ।।
क्रोधो माया मानो, लोभोदयः अनियमो वाऽपि ॥२८८॥ १. - षट्खंडागम-धवला, पुरसफ १, पृ. ३५.२, गा.. सं. १७५. . . .
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४२० ]
। गोम्मटसार जीवकाण्ड'गाथा २८९ टीका - नरक, तियंच, मनुष्य, देव विर्षे उत्पन्न भया, जीव के पहिला समय विष क्रम ते क्रोध, मान, माया लोभ का उदय हो है । नारकी उपजै तहां उपजते ही पहले समय क्रोध कषाय का उदय होइ । असे तिथंच के माया का, मनुष्य के मान का, देव के लोभ का उदय जानना । सो असा नियम कषायप्राभृत दूसरा सिद्धांत का कर्ता यतिवृषभ नामा आचार्य, ताके अभिप्राय करि जानना ।
बहुरि महाकर्म प्रकृति प्राभृत प्रथम सिद्धांत का कर्ता भूतबलि नामा प्राचार्य, ताके अभिप्राय करि पूर्वोक्त नियम नाहीं । जिस तिस कोई एक कषाय का उदय हो है । असे दोऊ आचार्यनि का अभिप्राय विर्षे हमारे संदेह है; सो इस भरतं क्षेत्र विर्षे केवली श्रुतकेवली नाहीं; वा समीपवर्ती आचार्यनि के उन प्राचार्यनि ते अधिक ज्ञान का धारक नाहीं; तातै जो विदेह विर्षे गये तीर्थक रादिक के निकटि शास्त्रार्थ विर्षे संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय का दूर होने करि निर्णय होई, तब एक अर्थ का निश्चय होइ तातें हमौने दोऊ कथन कीए हैं।
अरपपरोभय-बाधण बंधासंजम-णिमित्त-कोहादी। जास त्थि कसाया, अमला अकसाइणो जीवा ॥२८॥
प्रात्मपरोभयबाधनबंधासंयमनिमित्तक्रोधादयः ।
येषां न संति कषाया, अमला अकायिणो जीथाः १२८९।। टीका - आपकौं व परकौं था दोऊ को बंधन के वा बाधा के वा असंयम के कारणभूत जैसें जु क्रोधादिक कषाय वा पुरुष वेदादिरूप नोकषाय, ते जिनके न पाइये, ते द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म मल करि रहित सिद्ध भगवान अकषायी जानने । उपशांत कषाय से लेकर च्यारि मुणस्थानवी जीव भी अकषाय निर्मल हैं । तिनके गुणस्थान प्ररूपणा ही करि अकषायपना की सिद्धि जाननी। तहां कोऊ जीव के तौ क्रोधादि कषाय असे हो हैं, जिनसे आप ते श्राप को बांध, पाप ही आप के मस्तकादिक का घात करें। आप ही आप के हिसादि रूप असंयम परिणाम करै । बहुरि - कोई जीव के क्रोधादि कषाय असे हो हैं, जिनते और जीवनि को बांध, मारें, उनके असंयम परिणाम करावै । बहुरि कोई जीव के क्रोधादि कषाय अॅसें हो हैं, जिनते अप का बा और जीवनि का बांधना, छात करना, असंयम होना होइ, सो असें ए कषाय अनर्थ के मूल हैं।
१ षखंडागम-धघका पुस्तक १, पृ० ३५३, पाथा सं० १७८,
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॥२९
॥
उस्मातामा भाग 1
{ ४२१ कोहादिकसायाणं, चउचउदसवीस होति पदसंखा। सत्तोलेस्साआउगबंधाबंधगदभेदेहि ॥२६॥
क्रोधादिकषायाणो, चत्वारः चतुर्वश विंशतिः भवंति पदसंख्याः।
शक्तिलेश्यायुष्कबंधाबंक्ष्यसभेदः 'टीका - क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय, तिनकी शक्ति स्थान के भेद करि च्यारि संख्या है । लेश्या स्थान के भेद करि चौदह संख्या है। आयुर्बल के बंधने के प्रबंधने के स्थान भेद करि बीस संख्या है ।
ते स्थान प्राग कहिए हैं... सिल-सेल-वेणुमूल-क्किमिरायादी कमेण चत्तारि । कोहादिकसायाणं, सत्ति पडि होति णियमेण ॥२६॥
शिलाशैलवेणुमूलक्रिमिरामादीनि कमेस चत्वारि । क्रोधाविकषायाखां, शक्ति प्रति भवंति नियमेन ॥२९१॥
....:
टीका - क्रोधादिक जे कषाय, तिनिकै शक्ति कहिए अपना फल देने की सामर्थ्य, ताकी अपेक्षा ते निश्चय करि च्यारि स्थान हैं । ते अनुक्रम ते तीनतर, तीव, मंद, मंदतर, अनुभागरूप का उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य, जवन्य अनुभाग रूप जानने । सहा शिलाभेद, शैल, वेणुमूल, क्रिमिराग ए तो उत्कृष्ट शक्ति के उदाहरण जानने । मादि शब्द ते पूर्वोक्त अनुत्कृष्टादि शक्ति के उदाहरण दुष्टांतमात्र कहे हैं, ते सर्व जानने । ए दृष्टांत प्रगट व्यवहार का अवधारण करि हैं। पर परमागम का व्यवहारी प्राचार्यनि करि मंदबुद्धी शिष्य' समझावने के अर्थि व्यवहार रूप कीएं हैं । जाते दृष्टांत के बल करि ही मंदबुद्वी समझे हैं । ताते दृष्टांत की मुख्यता करि जे दृष्टांत के नाम, तेई शक्तिनि के नाम प्रसिद्ध कीएं हैं। . .. ... किण्हं सिलासमारणे, किण्हादी छक्कमेण भूमिम्हि । - छक्कादी सुक्को त्ति य, धूलिम्मि जलम्मि सुक्कक्का ॥२६२॥
कृष्णा शिलासमाने, कृष्णादयः षट् क्रमेण भूमौ । षटकादिः शुल्केति च धूलौ जले शुक्लका ॥२९२॥
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{ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २६२ .
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टोका - शिला भेद समान जो कोष का उत्कृष्ट शक्ति स्थान, तीहि विष एक कृष्ण लेश्या ही है । यद्यपि इस उत्कृष्ट शक्ति स्थान विर्षे षट्स्थान पतित संक्लेशहानि लीए यातलोकप्रमाग कामगि के सदा स्थान हैं। बहुरि तथापि ते सर्वस्थान कृष्णलेश्या ही के हैं, कृष्णलेश्या हो के उत्कृष्ट, मध्यम, भेदरूप जानने।
षट्स्थान पतित संक्लेश-हानि का स्वरूप असा जानना--- जेते कषायनि के अविभाग प्रतिच्छेद पहिले थे, तिनसौं बाटि होने लगे ते अनंत भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुण हानि, अनंत गुणहानि रूप घटे । असे तीव्र कषाय घटने का नाम षट्स्थान पतित संक्लेश हानि कहिए । कषायति के अविभाग प्रतिच्छेद अनंत हैं । तिनकी अपेक्षा षट्स्थान पतित हानि संभव है । पर स्थान भेद असंख्यात लोक प्रमाण ही हैं । नियम शब्द करि, ताका अंत स्थान विर्षे उत्कृष्ट शक्ति की व्युच्छित्ति हो है । बहुरि भूमि भेद समान क्रोध का अनुत्कृष्ट शक्ति स्थान, सींहि विर्षे अनुक्रम से छहों लेश्या पाइए हैं। सो कहिए है - भूमि भेद समान क्रोध का अनुत्कृष्ट शक्तिस्थान का पहिला उदय स्थान ते लगाइ, षट्स्थान पतित संक्लेशहानि लीएं, असंख्यात लोक प्रमाण उदय स्थानकनि विर्षे तो फेवल कृष्णलेश्या ही है । कृष्ण लेश्या ही का मध्य भेद पाइए है; जात अन्य लेश्या का लक्षण तहां नाहीं ।
बहुरि इहां से भाग षट्स्थान पतित संवलेश-हानि को लीएं असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषं मध्यम कृष्णलेश्या, उत्कृष्ट नील लेश्या पाइए है । जातै इहां तिनि दोऊ लेश्यानि का लक्षण संभव है । बहुरि इनि तें प्रागै षट्स्थान पतित संक्लेशहानि लीएं असंख्यात लोक प्रमाण उदय स्थानकनि विर्षे मध्यम कृष्ण लेश्या, मध्यम नील लेश्या, उत्कृष्ट कपोत लेश्या पाइए है; जाते इहां तिनि तीनों लेश्यानि के लक्षण संभव हैं । बहुरि इनितें प्रागै षट्स्थान पतित संक्लेश-हानि लीएं असंख्यात लोक प्रमारण उदयस्थानकनि विर्षे मध्यम कृष्णलेश्या, मध्यम नील लेश्या, मध्यम कपोत [लेश्या, मध्यम पीत लेश्या अर जघन्य पद्म लेश्या, जघन्य पीत लेश्या पाइए है। ] * - जात इहां तिनि च्यार्यो [पाचौं लेश्यानि के लक्षण संभव है । बहुरि इनतें षट्स्थान पतित संश्लेश-हानि लोएं असंख्यात लोक प्रमाण उदयस्थानकनि विषं, मध्यम कृष्ण, नील, कपोत, पीत लेश्या अर जघन्य पा लेश्या पाइए है, जालें. इहां तिनि पंच लेश्यानि का लक्षण संभव है। बहुरि इनितें षट्स्थान पतित संक्लेश-हानि लोएं
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ल' प्रति में इतना और दिया गया है।
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सम्यमानर्धात्रका भाषाटी
। ४२३ असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विर्षे मध्यम कृष्णा, नील, कपोत, पीत, पय लेश्या पर जघन्य शुक्ल लेश्या पाइए है । जातें इहां तिनि छही लेश्यानि का लक्षण संभव है । जैसे क्रोध का अनुत्कृष्ट शक्तिस्थान का जे स्थान भेद, तिनि विर्षे क्रम से छहौ लेश्या के स्थानक जा । इहां अंतस्थान विर्ष उत्कृष्टशक्ति की व्युन्छित्ति हई । बहरि धूली रेखा समान क्रोध का अजघन्य शक्तिस्थान, ताके स्थानकनि विष छह लेश्या है एक एक घाटि शुक्ल लेश्या पर्यंत लेश्या पाइए है । सोई कहिए है - धूली रेखा समान क्रोध का प्रथम स्थान से लगाइ, षट्स्थान पतित संक्लेश-हानि को लीएं प्रसंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विर्षे जघन्य कृष्ण लेश्या, मध्यम नील, कपोत, पीत, पध, शुक्ल लेश्या पाइए हैं; जात इहां छहों लेश्यानि के लक्षण संभव है । इहां अंतस्थान विर्षे कृष्णलेश्या का विच्छेद हुदा । बहुरि इहां से प्रागै इस ही शक्ति का षट्स्थान पतित संक्लेश-हानि लीएं असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विर्षे जघन्य नील लेश्या, मध्यम कपोत, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या पाइए है । जाते इहां तिनि पंच लेश्यानि का लक्षण संभव है । इहां अंतस्थानक नि विर्षे नील लेश्या का विच्छेद हुवा ।
बहुरि इहां ते आग षट्स्थान पतित संक्लेश-हानि लीएं असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विर्षे जघन्य कपोत लेश्या मध्यम पीत, पद्म, शुक्ल, लेश्या पाइए है; जाते इहां तिनि च्यारि लेश्वानि के लक्षण संभव है । इहां अंतस्थान विष कपोत लेश्या का विच्छेद हुवा । असे संक्लेश, परिणामनि की हानि होते संते जो मंदकषायरूप परिणाम भया, ताकौं विशुद्ध परिणाम कहिए । ताके अनंते अविभाग प्रतिच्छेद हैं; सो तिनकी अनंत भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, अनंतगुण बृद्धि रूप जो वृद्धि, सो षट्स्थान पतित विशुद्धवृद्धि कहिए, सो उस च्यारि लेश्या का स्थान ते पागें षट्स्थान पतित विशुद्धवृद्धि लीएं असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विर्षे उत्कृष्ट पीत लेश्या, मध्यम पद, शुक्ल लेश्या पाइए है; जाते इहां तीन तिनि लेश्यानि ही का लक्षण संभव है । इहां अंतस्थानकनि विर्षे पीतलेश्या · का विच्छेद हुवा।
बहुरि इहां से षट्स्थान पतित विशुद्ध वृद्धि लीएं असंख्यात लोक अमारण स्थानकनि विर्षे उत्कृष्ट पद्मलेश्या, मध्यम शुक्ललेश्या ही पाइए है । जातें इहां तिनि दोय ही लेश्यानि के लक्षण संभव है। इहां अंतस्थान विर्षे पालेश्या का विच्छेद हुवा।
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[ गोम्मटसार जीवका गाथा २६३.
बहरि इहां तें षट्स्थान पतित विशुद्धि वृद्धि लीएं प्रसंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषे मध्यम शुक्ललेश्या हो पाइए है; जातें इहां तिस ही लेश्या के लक्षण पाइए है। सें धूली रेखा समान क्रोध का जघन्य शक्तिस्थान के जे उदयरूप स्थानक, तिमि विषे लेश्या कही । इहां प्रतस्थान विषे अजघन्य शक्ति की व्युच्छित्तिः भई । बहुरि इहां तैं श्रागें जल रेखा समान क्रोध का जघन्य शक्तिस्थान, ताके षट् स्थान पतित विशुद्धि वृद्धि लाएं असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषे मध्यम शुक्ललेश्या पाइए है । बहुरि याही के अंतस्थान विषै उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या पाइए हैं, जैसे च्यारि प्रकार शक्तियुक्त क्रोध विषै लेश्या अपेक्षा चौदह स्थानक कहे । उत्कृष्ट शक्ति.. स्थान विषे एक, अनुत्कृष्ट शक्तिस्थानकनि विषै छह, भजघन्य शक्तिस्थानक विषै छहः. जघन्य शक्तिस्थानक विषै एक असे चौदह कहे ।
४२४ ]
sri किसी के भ्रम होइगा कि ए च्यारि शक्तिस्थानक कहे, इन ही का ringबंधी आदि नाम है ?
सो नाही, जो से कहिए तो षष्ठगुणस्थान विषे संज्वलन ही हैं; तहां एक शुक्ललेश्या हो संभवै जातै इहां जघन्य शक्तिस्थान दिषे एक शुक्ल लेश्या ही कही है; सो षष्ठ गुणस्थान विषै तो लेश्या तीन हैं । तातें अनंतानुबंधी इत्यादि भेदः सम्य
दिवाने की अपेक्षा हैं; ते अन्य जानने । बहुरि ये शक्तिस्थान के भेद तीव्र मंद अपेक्षा हैं; से अन्य जानने । सो जैसे ए क्रोध के चौदह स्थान लेश्या अपेक्षा कहे.. तैसे ही उत्कृष्टादिक शक्तिस्थानकति विषै मान के वा माया के वा लोभ के भी जानने
heatre सुण्णं, पिरयं च य भूगएगबिट्ठाणे । निरयं इगिबितिआऊ, तिट्ठाणे चारि सेसपदे ॥२४३॥
शैलगकृष्णे शून्यं निरयं स च कद्विस्थाने | निरयमेकद्वित्र्यालिस्थाने चत्वारि शेषपवे ॥२९३॥
टीका शिला भेद समान उत्कृष्ट क्रोध का शक्तिस्थान विषे श्रसंख्यातलोक प्रमाण उदयस्थान कहे; तिति विषै केई स्थान असे हैं जिनिविषे कोक श्रायु बं नाहीं । सो यंत्र विषै तहां शून्य लिखना । जाते जहां अति तीव्र कषाय होइ,,
हां था का बंध होइ नाहीं । बहुरि तहां ही ऊपरि के कई स्थान धोरे कषाय
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सभ्यशालन्त्रिका भाषा टीका
1. ४२५ लीएं हैं। तिनिविर्षे एक नरकायु ही बंध है, सो इहां एक. का. अंक लिखना । बहुरि तात अनंतगुण घटता संल्के श लीएं पृथ्वी भेद समान कषाय विर्क के जे कृष्णलेश्या के स्थान हैं वा कृष्ण का नील दोय लेण्या के जे स्थान हैं: तिनिविर्षे एक नरक प्राय ही बंध है । सो तिनि दोय स्थान नि विर्षे एक-एक का अंक लिखना । बहुरि तिस ही विर्षे केइ अगले स्थान कृष्ण, नील, कपोत तीन लेश्या के हैं, सो तिनिविर्षे केई स्थाननि विर्षे तो एक नरकायु ही का बंध हो है । बहुरि केई अगले स्थाननि विर्षे नरक वा तिर्यच दोय प्रायु बंधे हैं । बहुरि केई अगले स्थाननि विर्षे नरक, तिर्यंच मनुष्य तीन आयु बंधे हैं। सो तीन लेश्या के स्थान विर्षे एक, दोय, तीन का अंक लिखना । बहुरि तिस ही पृथ्वी के भेद समान. शक्तिस्थान विर्ष केई कृष्ण नील, कपोत, पीत इनि च्यारि लेश्या के स्थान है । केइक कृष्णादि पा लेश्या पर्यंत पंच के स्थान है । के इक कृष्णादिक शुक्ल लेश्या पर्यंत. षट्लेश्या के स्थान हैं । सी. इन तीनू ही जायगा मरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव संबंधी च्यार्यो ही प्रायु बध हैं, सो तीनों जायगा च्यारि-च्यारि का अंक लिखना ।
धूलिगछक्कट्ठाणे, चउराऊतिगद्गं च उवरिल्लं । पणचदुधाणे देव, देवं सुण्णं च तिठाणे ॥२६॥
धूलिगषट्कस्थाने, चतुराय पि त्रिकदिक चोपरितनम् ।
पंचचतुर्थस्थाने देवं देवं शून्यं च तृतीयस्थाने ॥२९४॥ टीका - बहुरि पूर्वोक्त स्थान ते अनंतानंतगुणा घाटि संक्लेश लीएं धूलि रेखा समान शक्तिस्थान विर्षे केई कृष्णादि शुक्ललेश्या पर्यंत, षटलेश्या के स्थान हैं । तिनि विर्षे केई स्थाननि विर्षे तौ नरकादिक. च्यार्यो प्रायु बंधे हैं, । केई अगले स्थाननि विर्षे नरकायु बिना तील प्रायु ही अंघ हैं । केई अगले स्थाननि विर्षे मनुष्य, देव दोय ही प्रायु बध हैं । सो तहां च्यारि, तीन, दोन के अंक लिखने । बहुरि तिस ही धूलि. रेखा समान शक्तिस्थान विर्ष केई कृष्ण लेश्या बिना पंच लेश्या के स्थान हैं। केई कृष्ण नील बिना च्यारि लेश्या के स्थान हैं । इनि दोऊ जायगा एक देवायु हो बंध हैं । सो दोऊ जायगा एक-एक का अंक लिखनाः । बहुरि तिस ही धूलि रेखा समान- शक्तिस्थान विर्षे केई. पीतादि तीन शुभलेश्या संबंधी स्थान हैं । लिनिवि केई स्थाननि विर्षे तो एक देवायु ही वंधे हैं, तहां एक का अंक लिखना । बहुरि केई
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४२६ ]
[ गोम्मटार मीकाण्ड गाया २६५
गले स्थान तीव्र विशुद्धता को लीएं हैं, तहां किसी ही आयु का बंध न हो हैं, सो वहां शून्य लिखना ।
सुष्णं बुगड़गिठाणे, जलम्हि सुण्णं असंखभजिवकमा । चउ-चोदस-वीसपदा, असंखलोगा हु पत्तेयं ॥२६५॥
शून्यं द्विकस्थाने, जले शून्यमसंख्यभजितक्रमाः । चतुश्चतुर्दशविंशतिपया असंख्य लोका हि प्रत्येकम् ॥ २९५ ॥
•
टीका - बहुरि तिस ही धूलि रेखा समान शक्तिस्थान विषे केई स्थान पद्म, शुक्लदो लेश्या संबंधी हैं । केई स्थान एक शुक्ल लेश्या संबंधी हैं । सो इनि दोऊ ही जायगा किसी ही आयु का बंध नाहीं सो दोऊ जायगा शुन्य लिखना | बहुरि तातें अनंतगुण ती fear जल रेमा समान शक्तिस्थान के सर्व स्थान her शुक्ल ever संबंधी हैं । तिनि विषै किसी ही प्रायु का बंध नाहीं हो है । सो वहां शून्य लिखना | जाते अति तीव्र विशुद्धता आयु के बंध का कारण नाहीं हैं। जैसे कषायनि के शक्तिस्थान व्यारि कहे । अर लेश्या स्थान चौदह कहे । श्रर श्रायु के बंधने के वान बंधने के स्थान बीस कहे । ते सर्व ही स्थान असंख्यात लोक प्रमाण असंख्यात लोक प्रमाण, असंख्यात लोक प्रमाण जानने । परन्तु उत्कृष्ट स्थान तें लगाइ जघन्य स्थान पर्यंत श्रसंख्यात गुणे घाटि जानने । असंख्यात के भेद बने हैं । ता सामान्य सर्व ही असंख्यात लोक प्रमाण कहे । सोई कहिए है - सर्व कषायनि के उदयस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं । तिनिकों यथा योग्य प्रसं यात लोक का भाग दीजिए, तिनिविषै एक भाग बिना अवशेष बहुभाग प्रमाण शिला भेद समान उत्कृष्ट शक्ति संबंधी उदय स्थान हैं । ते भी असंख्यात लोक प्रमाण बहुरि जो वह एक भाग अवशेष रह्या, ताक असंख्यात लोक का भाग दीएं एक भाग fair waशेष बहुभाग प्रमाण पृथ्वी भेद समान अनुत्कृष्ट शक्ति संबंधी उदयस्थान हैं । ते भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं । बहुरि जो एक भाग अवशेष रह्या, ताक असंख्य लोक का भाग दीएं, एक का भाग बिना अवशेष भागं प्रमाण धूलि 'रेखा समान प्रजघन्य शक्तिस्थान संबंधी उदयस्थान हैं । ते भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं । बहुरि अवशेष एक भाग रह्या, तीहि प्रमाण जल रेखा समान जधन्य शक्ति संबंधी उदय स्थान हैं; तें भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं ।
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सम्मानचन्द्रिका भाषाटीका ]
# च्यारि शक्तिस्थान विषे उदयस्थान का प्रमाण कला । अब चौदह लेश्या स्थानानि विषे उदयस्थाननि का प्रमाण कहिए है - पहिले कृष्ण लेश्या स्थाननि विजेते शिला भेद समान उत्कृष्ट शक्तिस्थान विषै उदयस्थान हैं । ते ते सर्व तिस उत्कृष्ट शक्ति को प्राप्त कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट स्थान तें लगाइ यथायोग्य कृष्ण लेश्या के मध्य स्थान पर्यंत षट्स्थानपतित संक्लेश-हानि लीए, श्रसंख्यातलोकमात्रस्थान हैं; ते उत्कृष्ट शक्ति के स्थान समान जानने
इति मे नादि पृथ्वी भेद समान शक्तिस्थान विषै प्राप्त कृष्ण लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं, जातं ते स्थान पृथ्वी भेद समान शक्ति स्थान विषै जेते उदय स्थान हैं, तिनिकों यथा योग्य असंख्यात लोक का भाग दीएं एक भाग बिना बहुभाग मात्र हैं ।
बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाटि, तहां ही कृष्ण, नील दोय लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमारग ते तिस श्रवशेष एक भाग कौं यथा योग्य प्रसंख्यात - ate का भाग दीएं, बहुभाग मात्र हैं। एक भाग बिना अवशेष भाग मात्र प्रमाण की बहुभाग संज्ञा जाननी ।
बहुरि तिनि प्रसंख्यात गुणे घाटि, तहां ही कृष्ण, नील, कपोत तीन लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं; ते तिस अवशेष एक भाग की योग्य प्रसंख्यात लोक का भाग का दीएं, बहुभाग मात्र हैं ।
बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाटि तहां ही कृष्णादि च्यारि लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं । ते अवशेष एक भाग की योग्य प्रसंख्यात लोक का भाग दीयें बहुभाग मात्र हैं ।
बहुरि तिनि असंख्यात गुणे घाट, तहां ही कृष्णादि पंच लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमाण है । ते अवशेष एक भाग की योग्य असंख्यात लोक का भाग दीएं बहुभाग मात्र हैं । बहुरि तिनितें असंख्यात लोक गुणे घाटि तहां ही कृष्णादि छह लेश्या के स्थान प्रसंख्यात लोक प्रमाण हैं । ते तिस अवशेष एक भाग मात्र हैं । इहां पूर्व स्थान तें बहुभागरूप प्रसंख्यात लोकमात्र गुणकार घट्या; ताले असंख्यात गुणा घाट का है । बहुरि तिनिवें प्रसंख्यात गुणे घाटि धूलि रेखा समान शक्तिस्थान विषे प्राप्त कृष्णादि छह लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमाण
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४१८ ]
! गोम्मटसार जीवकरण्ड गाथा २६५
हैं । ले धूलि रेखा समान शक्तिस्थान संबंधी सर्व स्थाननि के प्रमाण को योग्य प्रसं ख्यात लोक का भाग दीएं, एकभाग बिना बहुभाग मात्र हैं । बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाट, तहां ही कृष्ण रहित पंच लेश्या के स्थान प्रसंख्यात लोक प्रमाण हैं । तेति श्रवशेष एक भाग कौं- योग्य असंख्यात लोक का भाग दीएं बहुभाग मात्र हैं । बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाटि तहां ही कृष्ण नील रहित च्यारि लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं । ते तिस अवशेष एकभाग को योध्य असंख्य लोक का भाग दीएं बहुभाग मात्र हैं । बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाट, तहां ही तीन शुभ लेश्या के स्थान असंख्यात लोक मात्र हैं । ते अवशेष एक भाग
योग्य प्रसंख्यात लोक का भाग दीएं बहुभाग मात्र हैं । बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे वाटि, पीत रहित दोय शुभ लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं । ते तिस एक भाग को योग्य प्रसंख्यात लोक का भाग दीएं, बहुभाग मात्र हैं । बहुरि तिनते असंख्यात गुरणे घाटि तहां ही केवल शुक्ल लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं । ते तिस अवशेष: एकभाग मात्र जानने । इहां बहुभाग रूप प्रसंख्यात लोक मात्र गुणकार घट्या सातै श्रसंख्यात गुणा घाटि कला है । बहुरि तिनि श्रसंख्यात गुणे घाटि जल रेखा समान शक्ति विषे प्राप्त सर्व शुक्ल लेश्या के स्थान संख्यात लोक प्रमाण हैं । ते जल रेखा शक्ति विषै प्राप्त स्थाननि का प्रमाणमात्र है । इहां धूलि रेखा समान शक्ति के सर्व स्थाननि विषै जे केवल शुक्ल लेश्या के स्थान कहे, तहां भागहार अधिक हैं। परन्तु गुणकारभूत असंख्यात लोक का तहां बहुभाग है । इहां एक भाग है । तातें असंख्यात गुणा घाटि कला है । श्र आयु के बंध-प्रबन्ध के बीस स्थान, तिनि विषै उदय स्थाननि का प्रमाण कहिए है
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प्रथम शिला भेद समान उत्कृष्ट शक्ति विषै प्राप्त कृष्ण लेश्या के स्थान, fafe विषे कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट स्थान तै लगाइ, असंख्यात लोक प्रमाण श्रायु के प्रबन्ध स्थान हैं । ते उत्कृष्ट शक्ति विष प्राप्त सर्व स्थाननि का प्रसारण करें असंख्यात लोक का भाग दीएं, बहुभाग मात्र हैं । बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाट, वहां ही नरकायु बन्धने कौं कारण असंख्यात लोक प्रमारण स्थान हैं । ते तिस श्रवशेष एक भाग मात्र हैं । पूर्वे बहुभाग इहां एक भाग तातें असंख्यातगुणा घाटि कला है | बहुरि विनितं असंख्यात गुणे घाटि पृथ्वी भेद समान अनुत्कृष्ट शक्ति विषे प्राप्त कृष्ण hear के पूर्वोक्त सर्व स्थान, ते नरकायु बन्ध कों कारण असंख्यात लोक
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प्रमाण हैं । बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाटि, तहां ही कृष्णनील लेश्या के.. पूर्वोक्त सर्व स्थान ते नरकायु बन्ध कौं कारण असंख्यात लोक प्रमाण हैं । बहुरि तिनते असंख्यात गुणे घाटि तहां ही कृष्णादि तीनि लेश्या के स्थाननि विषै नरकायु बन्ध को कारण स्थान, ते तिन कृष्णादि तीन लेश्या स्थाननि के प्रमाण कौं योग्य असंख्यातः लोक का भाग दीएं बहुभाग मात्र असंख्यात लोकप्रमाण हैं । बहुरि तिनतें असंख्यात गुणे घाटि तहां ही कृष्णादि तीन लेश्या के स्थानति विषै नरक, तिच आयु के बन्ध को कारण स्थान, ते तिस अवशेष एक भाग को योग्य: असंख्यात लोक का भाग दीएं, बहुभाग मात्र असंख्यात लोक प्रमाण हैं । बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाट, तहां कृष्णादि तीन लेश्या के स्थाननि विषै नरक, तिच मनुष्य प्रायुबन्ध के कारण- स्थान, ते अवशेष एक भाग मात्र असंख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि तिनित संख्यातगुणे घाट, तहां ह्रीः पूर्वोक्त कृष्णादि व्यारि लेश्या के स्थान, सर्व ही स्याओं आयुबन्ध के कारण, ते असंख्यात लोक प्रमाणहैं । बहुरि तिनितें असंख्यातगुणे घाट, तहां ही पूर्वोक्त कृष्णादि पंच लेश्या के स्थानः सर्व ही चयार्थी आयुबन्ध के कारण, ते असंख्यात लोक प्रमाण हैं । बहुरि fafed असंख्यात गुणे घाट, तहां ही पूर्वोक्त कृष्णादि छहाँ लेश्या के स्थान सर्व ही व्याय प्रायुबन्ध के कारण ते श्रसंख्यात लोक प्रमाण हैं । पूर्व स्थान विष गुरकार बहुभाग था । इहां एक भाग रह्या, ताते प्रसंख्यात गुणा घाटि का है । बहुरि तिन असंख्यात गुरो घाटि धूलि रेखा समान शक्ति विषं प्राप्त षट्लेश्या स्थाननि विषे व्यार्यों आयुबन्ध के कारण स्थान ते तिन अजघन्य शक्ति: विषे प्राप्त पलेश्या स्थाननि के प्रमाण को प्रसंख्यात लोक का भाग दीएं, बहुभाग मात्र असंख्यात लोक प्रमाण हैं । बहुरि तिनितं प्रसंख्यात गुणे घाटि, तहां ही षट्लेश्या के स्थाननि विषे नरक बिना तीन युवन्ध के कारण स्थान ते तिस अवशेष एकभाग की असंख्यात का भाग दीएं, बहुभागमात्र असंख्यात लोक प्रमाण हैं । बहुरि तिनितं असंख्यात गुणे घाट, तहां ही षट्लेश्या के स्थान विषै मनुष्य देवायु बन्ध के कारण स्थान, ते तिस अवशेष एकभाग मात्र असंख्यात लोक प्रमाण हैं। इहां पूर्व बहुभाग थे, इहां एक भाग है । तातें असंख्यात गुणा घाटि का । बहुरि तिनि असंख्यात गुणे वाटि, तहां ही पूर्वोक्त कृष्णं बिना पंच लेश्या के स्थान सर्व ही देवायु के बन्ध के कारण हैं । ते असंख्यात लोक प्रमाण जानने । बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाटि, तहां ही पूर्वोक्त कृष्ण, नील रहित च्यारि लेश्या के
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४३०१
| गोम्मटसार जीवकान्ड गाथा २६५
स्थान सर्व ही देवायु बन्ध कीं कारण हैं । ते प्रसंख्यात लोक प्रमाण जानने । बहुरि faft प्रसंख्यात गुणे घाटि, तहां ही शुभ तीन लेश्या के स्थाननि विषे देव बन्धक कारण स्थान, ते तिस प्रजघन्य शक्ति विषै प्राप्त विश्या स्थानान er प्रमाण की योग्य असंख्यात लोक का भाग दीएं, बहुभाग मात्र श्रसंख्यात लोक प्रमाण हैं । बहुरि तिनितें असंख्यात गुरौं घाट, तहां ही शुभ तीन लेश्या के स्थाननि fare किसी ही arr बन्ध को कारण नाहीं; जैसे स्थान तिस अवशेष एक भागमात्र प्रसंख्यात लोक प्रमाण जानने । बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाट, तहां ही पूर्वोक्त पद्म शुक्ल दोय लेश्या के स्थान सर्व ही श्रायु बन्ध को कारण नाहीं । ते असंख्यात लोक प्रमाण हैं । यातें पूर्व स्थान विषै भागहार असंख्यात गुणा घटता है । तातें संपुष पाटिका है। हरि तिनिते असंख्यात गुणे घाटि, तहां ही पूर्वोक्त शुक् लेश्या के स्थान सर्व ही श्रायुबन्ध को कारण नाहीं । ते असंख्यात लोक प्रमाण हैं । पूर्वे बहुभाग का गुणकार था, इहां एक भाग का गुणकार भया । तातें असंख्यात गुणा घटता का है । बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाटि, पूर्वोक्त जल रेखा समान शक्ति विषे प्राप्त शुक्ल लेश्या के स्थान, सर्व ही किसी ही आयु बन्ध क कारण नाहीं । ते असंख्यात लोक प्रमाण हैं । पूर्व स्थान विखें जे भागहार कहें, तिनले तिस ही भागहार का गुणकार असंख्यात गुणा है; तातें असंख्यात गुणा घाटि कहा है। असे प्यारि पद चौदह पद बीस पद क्रम ते असंख्यात गुणा घाटि हे, तथा असंख्यात के बहुभेद हैं । तातें सामान्यपने सबनि कौं असंख्यात लोक प्रमाण कहे । विशेषपने यथासंभव असंख्यात का प्रमाण जानना । जैसे ही भागहार विषै भी यथासंभव असंख्यात का प्रमाण जानना ।
आगे श्री माघवचंद्र त्रैविद्यदेव, तीन गाथानि करि कषाय मागंगा विषै tatafir की संख्या कहै हैं
:
पुह पुह कसायकालो, गिरये अंतोमुहुत्तपरिमाणो ।
लोहादी संखगुरगो, देवेसु य कोहपहुवीवो ॥ २६६ ॥
पृथक् पृथक् कषायकालः, निरये अंतर्मुहूर्तपरिमाणः । लोभादिः संख्यगुणः देवेषु च क्रोवप्रभृतितः ॥१२९६॥
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[ ४३१
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[ गोम्मटसार भौवाeg गया २६७
मार्गदा
टीका - नरक गति विर्षे नारकोनि के लोभादि कषाय नि का उदय काल अंतर्मुहर्त मात्र है । तथापि पूर्व-पूर्व कषाय ते पिछले-पिछले कषाय का काल संख्यात गुरखा है । अंतर्मुहर्त के भेद घने, ताते हीनाधिक होतें भी अंतर्मुहुर्त ही कहिए। सोई कहिए हैं -- 'सर्व लें स्तोक अंतर्मुहूर्त प्रमारण लोभ कषाय का काल है । यात संख्यात गुणा माया कषाय का काल है । यातें सख्यात गुणा मान कषाय का काल है । याते संख्यात मुरणा क्रोध कषाय का काल है ।
बहरि देव गति वि क्रोधादि कषायनि का काल प्रत्येक अंतर्मुहर्त मात्र है । तथापि उत्तरोत्तर संख्यात गुणा है । सोई कहिए है - स्तोक अंतर्मुहूर्त प्रमाण तो क्रोध कषाय का काल है। तात संख्यात गुणा मान कषाय का काल है । तातै संख्यात गुरंगा माया कषाय का काल है। तातै संख्यात गुणा लोभ कषाय का काल है।
भावार्थ - नरक गति विर्षे क्रोध कषायरूप परिराति बहुतर हरे है । और कषायनिरूप क्रम से स्तोक रहै है।
देव गति विर्षे लोभ कषायरूप परिणति बहुतर रहै हैं । और कषायनिरूप क्रम तें स्तोक-स्तोक रहै है ।
सब्वसमासेणवहिवसगसगरासी पुणो वि संगुणिले । .. सगसगगुणगारहिं य, सगसगरासीण परिमाणं ॥२६७॥
सर्वसमासेनावहितस्वकस्वकराशौ पुनरपि संगुरिणते ।
स्वकस्वकगुणकारश्च, स्वकस्वकराशीनां परिमाणम् ॥२९७॥ टीका - सर्व च्यार्यों कषायनि का जो काल कह्या, ताके जेते समय होंहि, तिनिका समास कहिए, जोड दीएं, जो परिमारण प्रावै, ताका भाग अपनी-अपनी गति संबंधी जीवनि के प्रमाण कौं दीएं, जो एक भाग विर्षे प्रमाण होइ, ताहि अपनाअपना कषाय के काल का समयनि के प्रमाण रूप गुणकार करि गुण, जो-जो परिमाण होइ, सोई अपना-अपना क्रोधादिक कषाय संयुक्त जीवनि का परिमारण जानना । अपि शब्द समुच्चय वाचक है; ताते नरक गति दा देब गति विर्षे जैसे ही करना । सोई दिखाइए है -च्यार्यों कषायनि का काल के समयनि का जोड़ दीएं,
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सम्यग्ज्ञानन्त्रिक भाषाठीका )
जो परिमाण होइ, तितने काल विर्षे जो नरक गति विर्षे जीवनि का जो परिमारण कहा, तितने सर्व जीव पाइए, तो लोभ कषाय के काल का समयनि का जो परिमाण होइ है. तितने काल विर्षे केते जीव पाइए ? असे त्रैराशिक कीएं, प्रमाणराशि सर्वकषायनि का काल, फलराशि सर्व नास्कराशि, इच्छाराशि लोभकषाय का काल तहां प्रभारणराशि का भाग फलराशि को देंइ, इच्छाराशि करि गुरौँ जो लब्धराशि का परिमाण आवै, तितने जीद इकधाण जातेमका ति दि जानने । बहुरि जैसे ही प्रमाणराशि, फलराशि, पूर्वोक्त इच्छाराशि मायादि कषायनि का काल कीएं, लन्धराशि मात्र अनुक्रमते मायावाले, मानवाले, क्रोधवाले जीवनि का परिमाण नरक गति विर्षे जानना।
- इहां दृष्टांत -- जैसे लोभ का काल का प्रमाण एक (१), माया का च्यारि (४), मान का सोलह (१६), क्रोध का चौसठ (६४) सब का जोड दीएं पिच्यासी भए । नारकी जीवनि का परिमारण सतरा से ( १७०० ), ताहि पिच्यासी का भाग दीएं, पाए बीस (२०), ताकौं एक करि गुरणे बीस (२०)हुवा, सो लोभ कषायवालों का परिमाण है । च्यारि करि गुणें असी (८०) भए सो मायावालों का परिमारण है। सोला करि गुणें तीन सौ बीस (३२०) हुवा सो, मानवालों का परिमाण है चौसठि करि मुणे बार से असी (१२८०) भए सो, क्रोधवालों का परिमारण है; असे दृष्टांत करि यथोक्त नरक गति विर्षे जीव कहे। अंस ही देव गति विर्षे जेता जीवनि का परिमाण है, ताहि सर्व कषायनि के काल का जोया हूवा समयनि का परिमारण का भाग दीएं, जो परिमारण पावै, ताहि अनुक्रमतें क्रोध, मान, माया, लोभ का काल का परिमाण करि गुरणे, अनुक्रमतें क्रोधवाले, . मानवाले, मायावाले, लोभवाले जोवनि का परिमारा देव मति विर्षे जानना ।
गरतिरिय लोह-माया-कोहो माणो बिइंदियादिश्च । प्रावलिअसंखभज्जा, सगकाल वा समासेज्ज ॥२६॥
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नरतिरश्चोः लोभमायाक्रोधों मानो द्वींद्रियादिवत् ।
आवल्यसंख्यभाज्याः, स्वकालं वा समासाद्य ॥२९८।। टोका - मनुष्य-तिर्यंच गति विर्षे लोभ, माया, क्रोध, मानवाले जीवनि को संख्या पूर्व इंद्रिय-मार्गरणा का अधिकार विषं जैसे बैद्री, सेंद्री, चौइंद्रो, पचेंद्री विर्षे
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[ मोम्मटसार भोरा गावा ६५
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जीवनि की संख्या 'बह भागे समभागो' इत्यादि गाथा करि कही थी। तैसे इहां भी संख्या का साधन करना । सोई कहिये है -- मनुष्यगति विषं जो जीवमि का परिमाण है, तामें कषाय रहित मनुष्यनि का प्रमारंग घटाएं, जो अबशेष रहै, ताकौ प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीएं, तहां एक भाग जुदा राखि, अवशेष बहुभाग का प्रमाण रह्या, ताके च्यारि भाग करि च्यार्यों कषायनि के स्थाननि विर्षे समान देने । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताकौं प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहाँ एक भाग को जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहे, तिनिौ लोभ कषाय के स्थान समान भाग विर्षे जो प्रमाण था, तामै जोडै, जो परिमारण होइ, तितने लोभकषाय वाले मनुष्य जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग कौं भावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग को जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहे, तिनिकौं माया कषाय के स्थान समान भाग विर्षे जो परिमारण था, तामैं मिलाएं, जो परिमाण होइ, तितने मायाकषाय वाले मनुष्य जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग की आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाम कौं जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहै, तिनिकों क्रोधकषाय के स्थान समान भाग विर्षे जो परिमाण था, तिस विर्षे मिलाएं, क्रोधकषाय वाले मनुष्यान का परिमाण हो । बहुरि तिस अवशेष एक भाग का जेता परिमारा होइ, ताकौं मानकषाय के स्थान समान भाग विर्षे जो परिमारण था, तामैं मिलाएं, मानकाय वाले मनुष्यनि का परिमाण होइ, असे ही तिथंच गति विर्षे जानना । विशेष इतना जो वहां मनुष्य गति के जीवन का परिमारण विर्षे भाग दीया था। इहां तिर्यंच गति के जीवनि का जो देव, नारक, अनुरुप राशि करि हीन सर्व संसारी जीवराशि मात्र परिमाण, ताकौं भाग देना; अन्य सर्व विधान तैसे ही जानना । असे कषायनि विर्षे तिर्यंच जीवनि का परिमाण जानिए । अथवा अपना-अपना कषायनि का काल को अपेक्षा जीवनि की संख्या जानिए; सो दिखाइए है । च्यार्यों कषायनि का काल के समयनि का जो अंतर्मुहूर्त मात्र परिमाण है, ताकौं प्रावली का असंख्यातवां भांग का भाग दीजिए। सहां एक भाग को जुदा राखि, अवशेष के च्यारि भाग करि, च्यारी जायगा समान दीजिए । बहुरि अवशेष एक भाग कौं पावली का प्रसंख्यातवां भाग का भाग देइ, एक भाग कौं जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहे, तिनिकौँ समान भाग विषं जो परिमाण था, तामें मिलाएं. लोभकषाय के काल का परिमाण होइ । बहुरि तिस अबशेष एक भाग को तैसं भाग देइ, एक भाग बिना अवशेष बहुभाग समान भाग का प्रमाण विर्षे मिलाएं, माया का काल होइ । बहुरि तिस अवशेष एक भाग कौं तैसें भाग
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सम्यग्ज्ञानन्द्रिका भाषादोका 1
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देइ, एक भाग को जुदा राखि, श्रवशेष बहुभाग समान भाग संबंधी परिमाण विषै मिलाएं क्रोध का काल होइ । बहुरि जो अवशेष एक भाग रह्या, ताक समान भाग संबंधी परिमाण विषं मिलाएं, मानकषाय का काल होइ ।
अब इहां त्रैराशिक करना जो व्यारि कषायति के काल का परिमाण विषं सर्व मनुष्य पाइए, तौ लोभ कषाय का काल विषे केते मनुष्य पाइए ?
-
इहां प्रमाणराशि व्यारों कषायनि का समुच्चयरूप काल का परिमाण भर फलराशि मनुष्य गति जीवनि का परिमाण र इच्छाराशि लोभ कषाय के काल का परिमाण । तहां फलराशि को इच्छाराशि करि गुणि, प्रमाण राशि का भाग दीएं, जो लब्धराशि का प्रमाण आवै, तितने लोभकषायवाले मनुष्य जानने । असें ही प्रमाण फलराशि पूर्वोक्त कीएं, माया को मान काल कौं इच्छाराशि कीएं, लब्धराशि मात्र मायावाले वा क्रोधवाले वा मानवाले मनुष्यनि की संख्या जाननी । बहुरि याही प्रकार तियंच गति विषै भी लोभवाले, मायावाले, क्रोधवाले, मानवाले जीवन की संख्या का साधन करना । विशेष इतना जो उहाँ फलराशि मनुष्यति का परिमाण था, इहां फलराशि तियंच जीवनि का परिमारण जानना । अन्य विधान तैसे ही करना । जैसे कषायमार्गणा विषै जीवनि की संख्या है।
इति आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्वांतचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रन्थ को जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका
नाम भाषाटीका विषै जीवकांड विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा तिनि विषे कषायमार्गणा प्ररूपणा नाम ग्यारमा afare सम्पूर्ण भया ॥११॥
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बारहवां अधिकार : ज्ञानमार्गणाधिकार
मंगलाचरण
WITH: Mithin T
वंदौ वासव पूज्यपद, वास पूज्य जिन सोय ।
गर्भादिक में पूज्य जो, रस्त द्रव्य तें होय ।। यामै श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती ज्ञान मार्गणा का प्रारंभ करें हैं । तहां प्रथम ही निरुक्ति लीएं, ज्ञान का सामान्य लक्षण कहैं हैं -
जारपइ तिकालविसए, दव्वगुरणे पज्जए य बहुभेदे। पच्चक्खं च परोक्खं, अरगेण गाणे त्ति रणं बेति ॥२६॥
जानासि त्रिकालविषयान्, द्रव्यगुणान् पर्यायांश बहुभेदान् ।
प्रत्यक्षं च परोक्षमनेन मानमिति इदं वति ।।२९९॥ टीका - त्रिकाल संबंधी हुए, हो है, होहिगे असे जीवादि द्रव्य वा ज्ञानादि गुण वा स्थावरादि पर्याय नाना प्रकार हैं । तहां जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ए द्रव्य हैं । बहुरि ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, सुख, वीर्य आदि वा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि वा गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्वें, अवगाहनहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व आदि गुरण हैं। बहुरि स्थावर, त्रस आदि वा अणु, स्कंधपना आदि वा अन्य अर्थ, व्यंजन आदि भेद लीएं अनेक पर्याय हैं । तिनको प्रत्यक्ष वा परोक्ष जीय नामा पदार्थ, इस करि जाने है, तातैं याकौं ज्ञान कहिए । 'शायते अनेनेसि ज्ञान' असी ज्ञान शब्द की निरुक्ति जाननी । इहां जाननरूप क्रिया का प्रात्मा कर्ता, तहां करणस्वरूप ज्ञान, अपने विषयभूत अर्थनि का जाननहारा जीव का गुण है -- असे अरहतादिक कहैं हैं । असाधारण कारण का नाम करण है । बहुरि यह सम्यग्ज्ञान है; सोई प्रत्यक्ष या परोक्षरूप प्रमाण है। जो ज्ञान अपने विषय को स्पष्ट विशद जानें, ताकौं प्रत्यक्ष कहिए । जो अपने विषय को अस्पष्ट - अविशद जानें, ताकौं परोक्ष कहिए । सो इस प्रमाण का स्वरूप या संख्या वा विषय या फल वा लक्षण बहुरि ताके अन्यथा बाद
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१पखंडानम बवला पुस्तक १, गाथा सं. ६१, पृष्ठ १४५ ! पाठभेद--सिकारुविश्वए-तिकाक्तसहित-एगाणे गाएं।
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सम्पज्ञानचन्द्रिका भावाटीका
का निराकरण वा स्याद्वाद मत के प्रमाण का स्थापन विशेषपने जैन के तर्कशास्त्र है, तिनि विषं विचारना ।
इहा अहेतुवादरूप प्रागम विर्षे हेतुवाद का अधिकार नाहीं । ताते सविशेष ने कया। हेतु करि जहां अर्थ कौं दृढ कीजिए ताका नाम हेतुवाद है, सो न्यायशास्त्रनि. विर्षे हेतुवाद है। इहां तो जिनागम अनुसारि वस्तु का स्वरूप कहने का अधिकार जानना।
आगें ज्ञान के भेद कहैं हैं - पंछध होशि पाणा, शिसुद्ध-मोही-मरणं च केवलयं । खयउपसमिया चउरो, केवलणार हवे खइयं ॥३०॥
पंचव भवंति सानानि, मलिश्रुतावधिमनश्च केवलम् ।
क्षायोपशमिकानि चत्वारि, केवलज्ञानं भवेत् क्षायिकम् ॥३०॥ टीका-मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय, केवल ए सम्यग्ज्ञान पंच ही हैं; हीन अधिक नाहीं । यद्यपि संग्रहनयरूप द्रव्याथिक नय करि सामान्यपने ज्ञान एक ही है। तथापि पर्यायाथिक नय करि विशेष कीएं पंच भेद ही हैं। तिनि विर्षे मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय ए च्यारि ज्ञान क्षायोपशमिक हैं ।
जात मतिज्ञानावरणादिक कर्म का वीर्यान्तराय कर्म, ताके अनुभाग के जें सर्वेधातिया स्पर्धक हैं; तिनिका उदय नाहीं, सोई क्षय जानना । बहुरि जे उदय अवस्था कौं न प्राप्त भए, ते सत्तारूप तिष्ठ हैं, सोई उपशम जानना । उपशम वो क्षय करि उपजे, ताकौं क्षयोपशेम कहिए अथवा क्षयोपशम है प्रयोजन जिनिका, ते क्षायोपशमिक कहिए। यद्यपि क्षायोपशामिक विर्षे तिस प्रावरण के देशघातिया स्पर्धकनि का उदय पाइए है । तथापि वह तिस ज्ञान का घात करने की समर्थ नाहीं है; तातें ताकी मुख्यता न करी ।
याका उदाहरण कहिए है - अवधिज्ञानावरण कर्म सामान्यपर्ने देशघाती है। तथापि अनुभाग का विशेष कीएं, याके केई स्पर्धक सर्वघाती हैं ; केई स्पर्धक देशघाती हैं । तहां जिनिकै अवधिज्ञानं किछ भी नाहीं, लिनिक सर्वघाती स्पर्धकनि का उदय जानना । बहुरि जिनि के अंवधिज्ञान पाइए हैं परं प्रावरण उदय पाइए है; तहां
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[ गोमतसार जीवका गाथा ३०१-३०२
देशघाती स्पर्धकनि का उदय जानना । बहुरि केवलज्ञान क्षायिक ही है, जाते केवलज्ञानावरण, वीर्यांतराय का सर्वथा नाश करि केवलज्ञान प्रकट हो है। क्षय होते उपज्या वा क्षय है प्रयोजन जाका, ताकौ क्षायिका कहिए । यद्यपि सावरण अवस्था विर्षे भारत में शामिहावना है, लवामितरूप प्रावरण के नाश करि ही है, तातै व्यक्तता की अपेक्षा केवलज्ञान क्षायिक कह्या; जाते व्यक्त भएं ही कार्य सिद्धि संभव है।
प्रागै मिथ्याज्ञान उपजने का कारण वा स्वरूप वा स्वामित्व वा भेद कहैं हैं
अण्णाणतियं होदि हु, सण्णाणतियं खु मिच्छ अणउदये। णवरि विभागं गाणं, पंचिंदियसणिपुण्रणेव ॥३०१॥ अज्ञानत्रिकं भवति खलु, सज्ञानत्रिकं खलु मिथ्यात्वानोदये ।
नवरि विभंग शान, पंचेंद्रियसंज्ञिपूर्ण एव ॥३०१॥
टीका - जे सम्यग्दृष्टी के मति, श्रुति, अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान हैं; संजी पंचेंद्री पर्याप्त वा निवृत्ति अपर्याप्त जीव के विशेष ग्रहणरूप ज्ञेयाकार सहित उपयोग रूप है लक्षण मिनिका असे हैं; तेई तीनों मिथ्यात्व वा अनंतानुबंधी कोई कषाय के उदय होते तत्त्वार्थ का अश्रद्धान रूप परिण्या जीव के तीनों मिथ्याज्ञान हो हैं। कुमति, कुश्रुति, विभंग ए नाम हो हैं । पथरि असा प्राकृत भाषा विषं विशेष अर्थ कौं लीएं अव्यय जानना ! सो विशेष यहु - जो अवधि ज्ञान का विपर्ययरूप होना सोई विभंग कहिए । सो विभंग अज्ञान सैनी पंचेंद्री पर्याप्त ही के हो है । याही ते कुमति, कुश्रुति, एकेद्रिय आदि पर्याप्त अपर्याप्त सर्व मिथ्यादृष्टी जीवनि के पर सासादन गुणस्थानवर्ती सर्व जीवनि के संभव है ।
प्रामें सम्यग्दृष्टि नामा तीसरा गुणस्थान विर्षे ज्ञान का स्वरूप कह हैं -
मिस्सुक्ये सम्मिस्सं, अण्णाणतियेण णाणतियमेव । संजमबिसेससहिए, मणपज्जवरणाणमुद्दिवें ॥३०२॥ ।
मिश्रोदये संमिश्र, अज्ञानत्रयेण ज्ञानप्रयमेव । संयमविशेषसहिते, ममःपर्ययज्ञानमुद्दिष्टम् ॥३०२।।
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सम्यमानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ४३६
टीका - मित्र कहिए सम्यग्मिथ्यात्व नामा मोहनीय कर्म की प्रकृति, ताके उदय होते, तीनों प्रज्ञान करि मिल्या तीनों सम्यग्ज्ञान इहां हो हैं; जाते जुदा कीया जाता नाहीं, तातै सम्यग्मिथ्यामति, सम्यग्मिथ्याश्रुत, सम्यग्मिथ्या अवधि अंसे इहां नाम हो हैं। जैसे इहां एक काल विर्षे सम्यग्रूप वा मिथ्यारूप मिल्या हुवा श्रद्धान पाइए है । तैसे ही ज्ञानरूप वा अज्ञानरूप मिल्या हुवा ज्ञान पाइए है । इहां न तो केबल सम्याज्ञान ही है, न केवल मिथ्याज्ञान है, मिथ्याज्ञान करि मिल्या सम्यग्ज्ञानरूप मिश्र जानने ।
बहुरि मनःपर्यय ज्ञान विशेष संयम का धारक छठा गुणस्थान ते बारहवां गुणस्थान पर्यंत सात गुणस्थानवर्ती लप विशेष करि वृद्धिरूप विशुद्धताके धारी महामुनि, तिन ही के पाइए है; जातै अन्य देशसंयतादि विर्षे तैसा तप का विशेष न संभव है।
द्वारे गिनादान का विशेष लक्षण तीन गाथानि करि कहैं हैं - विस-जंत-कूड-पंजर-बंधादिसु विणुवएस-करणेण । जा खलु पवद्दए मइ, मइ-अण्णाणं ति णं बेति ॥३०३॥
विषयंत्रकूटपंजरबंधादिषु विनोपदेशकरणेन ।
या खलु प्रवर्तते मतिः, मत्यज्ञानमितीदं अवंति ॥३०३॥ टीका - परस्पर वस्तु का संयोग करि मारने की शक्ति जिस विर्षे होइ जैसा तैल, कर्पूरादिक वस्तु, सो विष कहिए ।
बहुरि सिंह, व्याघ्रादि क्रूर जीवनि के धारन के अधि जाकै अभ्यंतर छैला आदि रखिए । अर तिस विर्षे तिस कर जीव कौं पाव धरते हो किवाड़ जुडि जाय, असा सूत्र की कल करि संयुक्त होइ, काष्ठादिक करि रच्या हुवा हो है, सो यन्त्र कहिए।
बहुरि माछला, काछिवा, मूसा, कोल इत्यादिक जीवनि के पकड़ने के निमित्त काष्ठादिकमय बने, सो कूट कहिए ।
बहुरि तीतर, लवा, हिरण इत्यादि जोवनि के पकड़ने के निमित्त फंद कौं लीएं जो डोरि का जाल बने, सो पीजर कहिए ।
१. षट्लंडागम - धवला पुस्तक १, गाथा १७६, पृष्ठ ३६० ।
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। पोस्मसार जीवकामगाया ३०४
बहुरि हाथी, ऊंट आदि के पकड़ते निमित्त खाडा के ऊपरि गाठि का विशेष लीएं जेबरा की रचनारूप विशेष, सो बंध कहिए ।
अादि मन्द करि खीनि का पांख लगने निमित्त ऊंचे दंश के ऊपरि चिगटास लगावना, सो बंध वा हरिणादिक का सींग के अग्रभाग सूत्र की मांठि देना इत्यादि विशेष जानने । जैसें जीवनि के मारणे, बांधने के कारणरूप कार्यनि विर्षे अन्य के उपदेश विना ही स्वयमेव बुद्धि प्रवर्त; सो कुमति ज्ञान कहिए।
उपदेश तें प्रवतें तो कुश्रुत ज्ञान हो जाइ । तातै विना ही उपदेश असा विचाररूप विकल्प लीएं हिंसा, अनत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रह का कारण प्रातरौद्र ध्यान कौं कारण शल्य, दंड, गारव अादि अशुभोपयोगों का कारण जो मन, इंद्रिय करि विशेष ग्रहणरूप मिथ्याज्ञान प्रवर्त; सो मति प्रज्ञान सर्वज्ञदेव कहैं हैं ।
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आभीयमासुरक्खं, भारह-रामायणादि-उवएसा । तुच्छा असाहणीया, सुय-अण्णाणं त्ति णं बेति ॥३.०४॥?
प्राभीतमासुरक्षं भारतरामायणाशुपदेशः ।
सुच्छा असाधनीयाः श्रुताज्ञानमिति इदं अबति ।।३०४॥ टीका - आभीताः कहिए ( समंतपनै ) भयवान, जे चौरादिक, तिनिका शास्त्र सो पाभीत हैं । बहुरि असु जे प्रारण, तिनिको चौरादिक तें रक्षा जिनि ते होई, असे कोटपाल, राजादिक, तिनिका जो शास्त्र सो असुरक्षा है । बहुरि कौरव पांडवों का युद्धादिक वा एक भार्या के पंच भर्ता इत्यादिक विपरीत कथन जिस विर्षे पाइए, असा शास्त्र सो भारत है । बहुरि रामचंद्र के बानरों की सेना, रावण राक्षस है, तिनिका परस्पर युद्ध होना इत्यादिक अपनी इच्छा करि रच्या हवा शास्त्र, सो रामायण है। आदि शब्द ते जो एकांतवाद करि दुषित अपनी इच्छा के अनुसार रच्या हुवा शास्त्र, जिनिविर्षे हिंसारूप यज्ञादिक गृहस्थ का कर्म है, जटा धारण, त्रिदंड धारणादिरूप तपस्वी का कर्म है, सोलह पदार्थ हैं; वा छह पदार्थ हैं; वा भावन, विधि, नियोग, भूत ए च्यारि हैं; वा पचीस सत्त्व हैं; था भद्वैत ब्रह्म का स्वरूप है दा सर्व शून्य है इत्यादि वर्णन पाइए है; ते शास्त्र 'तुच्छाः कहिए परमार्थ
१. पदवंडागम - धवला पुस्तक १, माथा १८०, पृष्ठ ३६० ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नाटीका
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तैं रहित हैं । बहुरि 'असाधनीया: ' कहिए प्रमाण करने योग्य नाहीं । याही तैं संत पुरुषft की आदरने योग्य नाहीं । भैंसे शास्त्राभ्यासनि ते भया जो श्रुतज्ञान की सी प्रभासा लीएं कुज्ञान, सो श्रुत अज्ञान कहिए । जातै प्रमाणीक इष्ट अर्थ तें विपरीत अयाका विषय हो है । इहां मति, श्रुत ज्ञान का वर्णन उपदेश लीएं किया है । र सामान्य तौ स्व-पर भेदविज्ञान रहित इंद्रिय, मन जनित जानना, सो सर्व कुमति, कुश्रुत है ।
faatयमोहिणारण, खत्रोवसमियं च कम्सबीजं च । वेभंगो ति पउच्चs, समत्तणाणीण समयम्हि ॥ ३०५ ॥ १ विपरीतमवधिज्ञानं, क्षायोपशमिकं च कर्मवीजं च ।
विभंग इति प्रषयले समाप्तज्ञानिनां समये ॥ ३०५ ॥
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टीका - मिथ्यादृष्टी जीवनि के अवधिज्ञानावरण, वीतराय के क्षयोपशम तें उत्पन्न भया; जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लीएं रूपी पदार्थ है विषय असा प्राप्त, श्रागम, पदार्थनि विषे विपरीत का ग्राहक, सो विभंग नाम पा है । fव कहिए विशिष्ट जो अवधिज्ञान, ताका भंग कहिए विपरीत भाव, सो विभंग कहिए; सो तिर्यंच - मनुष्य गति विषै तौ तीव्र कायक्लेशरूप द्रव्य संयमादिक करि उपजे है; सो गुणप्रत्यय हो है ।
बहुरि देवनरकगति विषै भवप्रत्यय हो है । सो सब ही विभंगज्ञान मिथ्यात्यादि कर्मबंध का बीज कहिए कारण है । चकार ते कदाचित् नरकादिक गति विषै 'पूर्वभव सम्बन्धी दुराचार के दुःख फल को जानि, कहीं सम्यग्दर्शनज्ञानरूप धर्म . का भी बीज हो है; असा विभंगज्ञान, समाप्तज्ञानी जो संपूर्ण ज्ञानी केवली, तिनिके मत विषै का है ।
में स्वरूप वा उपजने का कारण वा भेद वा विषय, इनिका प्राश्रय करि मतिज्ञान का निरूपण नव गाथानि करि कहैं हैं
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अहिमुह - नियमिय-बोहणमाभिणिबोहियमणिदि इंदियजं । अवगहईहावायाधारणगा होति पत्तेयं ॥३०६॥२
१. पट्ागम - धवला पुस्तक १, गाथा १८१, पृष्ठ ३६१ ।
२. पट्ागम - धवला पुस्तक १ गाथा १८२, पृष्ठ ३६१ । ३. पाठभेद - बहु श्रोग्हाईसा सलुरु दतीस लि-सय-भेयं ।
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४२]
गम्मन्सार शेवकाण्ड साया ३०७ अभिमुखनियमितबोधनमाभिनिमोधिकनिद्रियेद्रियज ।
अवग्रहहावायधारणका भवंति प्रत्येकं ॥३०॥ टीका - स्थूल, वर्तमान जिस क्षेत्र विर्षे इंद्रिय-मन की प्रवृत्ति होइ, तहां तिष्ठता असा जो इंद्रिय - मन के ग्रहण योग्य पदार्थ, सो अभिमुख कहिए । बहुरि इस इंद्रिय का यह ही विषय है, असा नियमरूप जो पदार्थ, सो नियमित कहिए, असे पदार्थ का जो जानना, सो अभिनिबोध कहिए । अभि कहिए अभिमुख अर 'नि' कहिए नियमित जो अर्थ, ताका निबोध कहिए जानना, असा अभिनिबोध, सोई प्राभिनिबोधिक है । इहां स्वार्थ विर्षे ठण प्रत्यय आया है। सो यह आभिनिबोधिक मतिज्ञान का नाम जानना । इंद्रियनि के स्थूल रूप स्पर्शादिक अपने विषय के ज्ञान उपजावने की शक्ति है । बहुरि सूक्ष्म, अंतरित, दूर पदार्थ के ज्ञान उपजावने की शक्ति नाहीं है । तहां सूक्ष्म पदार्थ तो परमाणु प्रादिक, अंतरित पदार्थ प्रतीत अनागत काल संबंधी, दूर पदार्थ मेरु गिरि, स्वर्ग, नरक, पटल आदि दूर क्षेत्रवर्ती जानने। असे मतिज्ञान का स्वरूप कहा है।
सो भतिज्ञान कैसा है ?
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अनिद्रिय जो मन, पर इंद्रिय स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्ष, श्रोत्र, इनि करि उपज है । मतिज्ञान उपजने के कारण इंद्रिय अरु मन हैं । कारण के भेद से कार्य विर्षे भी भेद कहिए, तात मतिज्ञान छह प्रकार है। तहां एक-एक के च्यारि-च्यारि भेद हैं - अन्नग्रह, ईहा, 'प्रवाय, धारणा । सो मन ते वा स्पर्शन ते वा रसना ते बा घ्राण ते वा चक्षु ते वा श्रोत्र ते ए अक्ग्रहादि च्यारि-च्यारि उत्पन्न होइ, ताते चौबीस भेद भएं।
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अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा का लक्षण शास्त्रकर्ता प्रागें स्वयमेव कहेंगे। वेंजणप्रत्थअवग्गहभेदा हु हवंति पत्तपत्तत्थे। कमसो ते वावरिया, पढमं ण हि चक्खुमणसारणं ॥३०७॥ ।
व्यंजनार्थावग्रहमेदी, हि भवतः प्राप्ताप्राप्तार्थे । क्रमशस्तौ ध्यायुतौ, प्रथमो महि चक्षुर्मनसोः ॥३०७॥
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सम्यग्ज्ञानन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४४३ टीका - मतिज्ञान का विषय दोय प्रकार एक व्यंजन, एक अर्थ । तहां जो विषय इंद्रियनि करि प्राप्त होइ, स्पर्शित होइ, सो व्यंजन कहिए । जो प्राप्त न होइ, सो अर्थ कहिए । तिनिका विशेष ग्रहणरूप व्यंजनावग्रह अरु अर्थावग्रह भेद प्रवर्ते हैं ।
इहां प्रश्न - जो तत्त्वार्थ सूत्र की टीका विर्षे ती अर्थ असा कीया है - जो व्यंजन नाम अव्यक्त शब्दादिक का है, इहां प्राप्त अर्थ की व्यंजन कह्या सो कैसे है ?
ताका समाधान - व्यंजन शब्द के दोऊ अर्थ हो हैं । विगतं अंजनं व्यंजन दूरि भया है अंजन कहिए व्यक्त भाव जाकै, सो व्यंजन कहिए । सो तत्त्वार्थ सूत्र की टीका विषं तो इस अर्थ का मुख्य ग्रहण कीया है । पर 'व्यज्यते प्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यंजन' जो प्राप्त होइ ताकौं व्यंजन कहिए । सो इहां यह अर्थ मुख्य ग्रहण कीया है। जातें अंजु धातु गति, व्यक्ति, सक्षण अर्थ विर्षे प्रवर्ते है । तातें व्यक्ति अर्थ का अर पक्षण अर्थ का ग्रहण करने ते कर्णादिक इंद्रियनि करि शब्दादिक अर्थ प्राप्त हूबे भी यावत् व्यक्त न होंइ, तावत् व्यंजनावग्रह है, व्यक्त भएं अर्थावग्रह हो है । जैसे नवा माटी का शरावा, जल की बूंदनि करि सींचिए, तहां एक दोय बार आदि जल की बंद व्यक्त न होड: शोषित होइ जाय%; बहुत बार जल की बंद परें, व्यक्त होइ, तैसे कर्णादिक करि प्राप्त हुवा जो शब्दादिक, तिनिका यावत् व्यक्तरूप ज्ञान न होइ, जो मैंने शब्द सुन्या, असा व्यक्त ज्ञान न होइ, तावत् व्यंजनावरह कहिए । बहुरि बहुत समय पर्यंत इंद्रिय अर विषय का संयोग रहैं; व्यक्तरूप झान भए अर्थावग्रह कहिए। बहुरि नेत्र इंद्रिय अरमन, ए दूरही ते पदार्थ की जान हैं; तात इनि दोऊनि के व्यंजनावग्रह नाहीं; अर्थावग्रह ही है ।
इहां प्रश्न - जैसे कर्णादिक करि दुरि ते शब्दादिक जानिए है, तैसे ही नेत्र करि वर्ण जानिए है, वाकौं प्राप्त कह्या, अर याकौं अप्राप्त कह्या सो कैसे हैं ?
ताका समाधान - दूरि जो शब्द हो है, ताकौं यह नाहीं जाने है। जो दरि भया शब्द, ताके निमित्त ते आकाश विर्षे जे अनेक स्कंध तिष्ठे हैं। ते शब्दरूप परिगए हैं । तहां कर्ण 'इंद्रिय के समीपवर्ती भी स्कंध शब्दरूप परिणए हैं, सो तिनिका करणं इंद्रिय करि स्पर्श भया है; तब शब्द का ज्ञान हो है। जैसे ही दुरि तिष्ठता सुगंध, दुर्गंध वस्तु के निमित्त ते पुद्गल स्कंध तत्काल तद्रूप परिणव हैं। तहां जो नासिका इंद्रिय के समीपवर्ती स्कंध परिणए हैं; तिनिके स्पर्श तें गंध का ज्ञान हो है। असे ही अग्न्यादिक के निमित्त ते पुद्गल स्कंध उष्णादिरूप परिणवै हैं; तहां जो
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४४४ ]
गोम्मटसार
काण्ड गाथा ३०८
स्पर्शन इंद्रिय के समीपवर्ती स्कंध परिगए हैं; तिनिके स्पर्श तैं स्पर्श ज्ञान हो है । जैसे ही आम्लादि वस्तु के निमित्त ते स्कंध तद्रूप परिणव हैं, तहां रसना इंद्रिय के समीपवर्ती जो स्कंध परिणए, तित्तिके संयोग तें रस का ज्ञान हो है । बहुरि यहु श्रुत ज्ञान के बल करि, जाके निमित्त तें शब्द आदि भए ताक जानि, असा मानें है कि मैं दूरवर्ती वस्तु को जान्या, असे दूरवर्ती वस्तु के जानने विषै भी प्राप्त होना सिद्ध भया । श्रर समीपवर्ती को तो प्राप्त होकर जानें ही है । इहां शब्दादिक परमाणु अर कर्णादिक इंद्रिय परस्पर प्राप्त होइ, अर यावत् जीव के व्यवत ज्ञान न होइ तावत् व्यंजनाग्रह है, व्यक्तज्ञान भए अर्थावग्रह हो है । बहुरि सन अर नेत्र दूर ही हैं जाने है, असा नाहीं; जो शब्दादिक की ज्यों जाने है, ताते पदार्थ तौ दूरि तिष्ठे है ही, जब इन में ग्रहै, तब व्यक्त ही ग्रहै; जाते व्यंजनावग्रह इति दोऊनि के नाहीं: अर्थावग्रह ही है । उक्तं च
पुट्ठ सुवेदि स अप
पुख प्रसवे रूवं ।
गंध रसं च फासं, बद्धं पुढं वियागादि ॥१॥
बहुरि नैयायिक मतवाले जैसा कहैं हैं - मन र नेत्र भी प्राप्त होइ करि ही वस्तु की जाने हैं। ताका निराकरण जैनन्याय के शास्त्रनि विषै अनेक प्रकार कीया श्रोत्र है । बहुरि व्यंजन जो अव्यक्त शब्दादिक, तिनि विषे स्पर्शन, रसन, प्राण, इंद्रियनि करि केवल प्रवग्रह ही हो है; ईहादिक न हो हैं । जातै ईहादिक तो एक'देश वा सर्वदेश व्यक्त भएं ही हो हैं । व्यंजन नाम श्रव्यवत का है; तातें च्यारि इंद्रियनि करि व्यंजनावग्रह के व्यारि भेद हैं ।
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विसारणं विसईण, संजोगानंतर हवे णियमा । श्रवहणाणं गहिवे, विसेसकखा हवे ईहा ॥ ३०८ ॥
विषयातं विषयिणा, संयोगानंतर भवेशियमात् । ज्ञानं गृहीते, विशेषाकांक्षा भवेदोहा ॥ ३०८ ॥
ater विषय जो शब्दादिक पदार्थ अर विषयी जे करर्णादिक इंद्रियां, इनिका जो संयोग कहिये योग्य क्षेत्र दिवे तिष्ठनेरूप संबंध, ताक होते संतें ताके अनंतर ही वस्तु का सत्तामात्र निर्विकल्प ग्रहण जो यह है, इतना प्रकाशरूप, सो दर्शन नियम
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सम्पासाननलिका माथाडीका
कार हो है। ताके अनन्तर पीछ ही देख्या जो पदार्थ ताके वर्ण संस्थानादि विशेष ग्रहणरूप प्रयग्रह नामा ज्ञान हो है।
इहां प्रश्न - जो गाया विर्षे तो पहिले दर्शन न कहा, तुम कैसे कहो हो ?
ताको समाधान - जो अन्य ग्रंथनि में कहा है-'अक्षार्थयोगे ससालोफोर्थाकारविकल्पधीरवग्रहः' इंद्रिय अर विषय के संयोग होते प्रथम सत्तावलोकन मात्र दर्शन हो है, पीछे पदार्थ का आकार विशेष जाननेरूप अवग्रह हो है -- असा प्रकलं. काचार्य करि कहा है । बहुरि 'दंसपपुव्वं साणं मत्थाणं हवेदि गियमेरा' छमस्थ जीवन के नियम ते दर्शन पूर्वक ही ज्ञान हो है असा नेमिचंद्राचार्यने द्रव्य - संग्रह नामा अंथ में कहा है । बहुरि तत्त्वार्थ सूत्र की टीकावाले में असा ही कहा है तातें इहां ज्ञानाधिकार विर्षे दर्शन का कथन न क्रीया तो भी अन्य ग्रंथनि ते असे ही जानना। सो अवग्रह करि तौ इतना ग्रहण भया । ..
जो यह श्वेत वस्तु है, बहुरि श्वेत तौ बुग़लनि की पंक्ति भी हो है, ध्वजा रूप भी हो है; परि बुगलेनि की पंकतिरूप विषय कौं अवलंबि यह बुगलेनि की पंकति ही होसी वा ध्वजारूप विषय की अवलंबि यहु ध्वजा होसी असा विशेष वांछारूप जो ज्ञान, ताकौं ईहा कहिए । बहुरि बुगलनि की यह पंकति ही होसी कि ध्वजा होसी असा संशयरूप ज्ञान का नाम ईहा नाहीं है । वा बुगलनि पंकति विर्षे यह ध्वजा होसी असा विपर्यय ज्ञान का नाम ईहा नाहीं है; जाते इहां सम्यग्ज्ञान का अधिकार है । सम्यग्ज्ञान प्रमाण है । पर संशय, विपर्यय है, सो मिथ्याज्ञान है । तातें संशय विपर्यय का नाम ईहा नाहीं । जो वस्तु है, ताका यथार्थरूप असा ज्ञान करना कि यह अमुक ही वस्तु होसी; असे होसीरूप जो प्रतीति, ताका नाम ईहा है । अवग्रह तें ईहा विषं विशेष ग्रहण भया; तात याके वाके विर्षे भतिज्ञानावरण के क्षयोपशम का तारतम्य करि भेद जानना।
ईहणकरणेण जया, सुपिण्णी होवि सो अवायो दु । कालांतरे वि णिणिक-वत्थु-समरणस्स कारणं तुरियं ॥३०६।।
ईहनकरणेन यदा, सुनियो भवति स अवायस्तु । कालांतरेऽपि निीतवस्तुस्मरणस्य कारणं तुर्यम् ॥३०९॥
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गोम्मटसार जोवकाण्ड पाथा ३१०
टोका - ईहा के करने करि ताके पीछे जिस वस्तु की ईहा भई थी, ताका भले प्रकार निर्णय रूप जो ज्ञान, ताकौं अवाय कहिए ।
जैसे पाखनि का हलावना आदि चिह्न करि यहु निशय कीया जो बुगलनि की पंकति ही है, निश्चयकरि और किछु नाहीं; असा निर्णय का नाम अवाय है । तु शब्द करि पूर्व जो ईहा विर्षे वांछित वस्तु था, ताही का भले प्रकार निर्णय, सो अवाय है । बहुरि जो वस्तु किछू और है; पर और ही वस्तु का निश्चय करि लीया है, तो वाका नाम अवाय नाहीं, वह मिथ्याशान है।
बहुरि तहां पीछे बार-बार निश्चयरूप अभ्यास ते उपज्या जो संस्कार, तीहि स्वरूप होह, केते इक काल कौं व्यतीत भएं भी यादि प्रावने को कारणभूत जो ज्ञान सो धारणा नाम चौथा ज्ञान का भेद हो है। जैसे ही सर्व इंद्रिय वा मन संबंधी अदग्रह, ईहा, अवाय, धारणा भेद जानने ।
बहु बहुविहं च खिप्पारिपस्सिवणुत्तं ध्रुवं च इवरं च । तत्थेक्कक्के जादे, छत्तीसं तिसयभेदं तु ॥३१०॥
बष्टु बहुविधं च क्षिप्रानिःमृदनुक्तं ध्रुवं च इतरञ्च ।
तत्रैककस्मिन् जाते, षनिशत्त्रिंशतभेदं तु ॥३१०।। टोका - अर्थरूप वा व्यंजनरूप जो मतिज्ञान का विषय, ताके बारह भेद हैं - बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव, ए छह । बहुरि' इतर जे छहौं इनके प्रतिपक्षी एक, एकविध, प्रक्षिप्र, निसृत, उक्त, अध्र व ए छह ; जैसे बारह भेद जानने । सो व्यंजनावग्रह के च्यारि इंद्रियनि करि च्यारि भेद भए, अर अर्थ के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा लें पंच इंद्रिय छठा मन करि चौबीस भेद भएं । मिलाएं ते अठाईस भेद भएं । सो व्यंजन रूप बहु विषय का च्यारि इंद्रियनि करि अवग्रह हो है । सो च्यारि भेद तौ ए भएं । अर अर्थ रूप बहु विषय का पंच इंद्रिय, छठा मन करि गुण अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा हो हैं। सातै चौबीस भएं । जैसे एक, 'बहु विषय संबंधी अठाईस भेद भएं । असे ही बहुविध प्रादि भेदनि विर्षे अठाईस-अठाईस भेद हो हैं। सब को मिलाएं बारह विषयनि वि मतिज्ञान के तीन से छत्तीस (३३६) भेद हो हैं । जो एक विषय विर्षे अठाईस मतिज्ञान के भेद होइ तौ बारह विषयनि
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सभ्यखामचविका भाषाटोका ]
| ४४७
विषे केते होंहि असें वैराशिक कीएं लब्धराशि मात्र तीन से छत्तीस मतिज्ञान के भेद हो हैं ।
बहुदत्तिजादिगणं, बहुबहुविहामयरमियरगहणम्हि । arernal सिद्धा, खिप्यादी सेवरा य तहा ॥३११॥
बहुव्यक्तिजातिग्रहणे, बहुबहुविधमितरदितरग्रहणे ।
स्वनामतः सिद्धाः, क्षिप्रादयः सेतराश्च तथा ||३११।।
टीका - जहां बहुत व्यक्ति का ग्रहणरूप मतिज्ञान होइ, ताके विषय कौं बहु कहिए । बहुरि जहां बहुजाति का ग्रहणरूप मतिज्ञान होइ, ताके विषय को बहुविध कहिए । बहुरि से ही इतर का ग्रहण विधें जहां एक व्यक्ति को ग्रहण रूप मतिज्ञान होइ, ताके विषय की एक कहिए। बहुरि जहां एक जाति का ग्रहणरूप मतिज्ञान होइ, ताके विषय कौं एकविध कहिए ।
इहाँ उदाहरण दिखाइए हैं- जैसे खाड़ी गऊ, सांवली गऊ, मूंडी मऊ इत्यादि अनेक गऊनि की व्यक्ति को बहु कहिए। बहुरि गऊ, भैंस, घोडे इत्यादि अनेक जाति की बहुविध कहिए। बहुरि एक खांडी मऊ जैसी गऊ की एक व्यक्ति कौं एक कहिए । बहुरि खांडी, मूंडी, सांवली गऊ है; जैसी एक जाति की एकविध कहिए। एक जाति विषै अनेक व्यक्ति पाइए हैं। जैसे बारह भेदनि विषै च्यारि तो कहे ।
बहूरि प्रवशेष क्षिप्रादिक च्यारि र इनिके प्रतिपक्षी व्यारि, ते अपने नाम ही तैं प्रसिद्ध हैं । सोही कहिए है - क्षिप्र शीघ्र कौं कहिए | जैसे शीघ्र पडती जलधारा वा जलप्रवाह । बहुरि अनिसृत, गूढ कौं कहिए जैसे जल विषे मगन हूवा हाथी । बहुरि क्त, विना कहे कीं कहिए, जैसे बिना ही कहे किछु अभिप्राय ही लें जानने में आवे । बहुरि ध्रुव अचल कौं वा बहुत काल स्थायी कौं कहिए; जैसे पर्वतादि । बहुरि क्षिप्र ढीले कीं कहिए। जैसे मंद चालता घोटकादिक । बहुरि निसृत, प्रगट कौं कहिए; जैसे जल तें निकस्या हूवा हाथी । बहुरि उक्त कहे को कहिए, जैसे काहूनें कह्या यहु घट है । बहुरि ध्रुव, चंचल वा विनाशीक को हिए; जैसे क्षणस्थायी बिजुरी श्रादि । से बाहर प्रकार मतिज्ञान के विषय हैं ।
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समAMAKentatimarwasenawation:CancerARIA
४४८ ]
[ोम्मापार ओवकाण्ड पाय ३१२-३१३ भावार्थ -- जाकौं जानिए यह शीघ्र प्रवत है; सो क्षिप्र कहिए । बहुरि जाकौं जानिए यह गूढ है, सो अनिसृत कहिए । बहुरि जाकौं बिना कहैं जानिए; सो अनुक्त कहिए । बहुरि जाकौं जानिए यहु ध्र व है; सो ध्रुव कहिए इत्यादिक मतिज्ञान के विषय हैं । इनिकौं मतिज्ञान करि जानिए है।
वत्थुस्स परेसादो, वत्थुग्गहणं तु वत्थुदेसं वा। सयलं वा अवलंबिय, अणिस्सिद अण्णवत्थुगई ॥३१२॥ वस्तुनः प्रदेशात, वस्तुग्रहणं तु वस्तुहेशं वा ।
सकलं वा अवलंब्य, अनिसृतमन्यधस्तुगंतिः ॥३१२॥
टीका - किसी वस्तु का प्रदेश कहिए, एकोदेश अंश प्रगट हैं । ताते जो वह एकोदेश अंश जिस वस्तु बिना न होइ, असें अप्रगट वस्तु का ग्रहण कीजिए; सौ अनिस्तज्ञान है। अथवा एक किसी वस्तु का एकोदेश अंशं कौं वा सर्वांग वस्तुं हौं कौं अवलंबि करि, ग्रहण करि अन्य कोई अप्रकट बस्तु का ग्रहण करना; सो भी अनिसृत ज्ञान है । इनिक उदाहरण प्राग कह हैं -
पुक्खरंगहणे काले, हथिस्स य वदरणगवयगहणे वा। वत्थु तरचंदस्स य, धेणुस्स य बोहरणं च हवे ॥३१३॥
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पुष्करग्रहणे काले, हस्तिनश्च ववनगवयग्रहणे वा।
दस्त्वंतरचंद्रस्य च, धेनोश्च बोधनं च भवेत् ॥३१३॥ टोका - पुष्कर कहिए जल तै बाहिर प्रमट दीसती असी जल विष न्या हूचा हस्ती की संडि, ताको जानने तैं जैसी प्रतीति हो है कि इस जल विर्षे हस्ती मगन है; जाते हस्ती बिना सुंडि न हो है । जिस बिना जो न होइ, ताको लिसका साधन कहिए; जैसें अग्नि बिना धूम नाहीं, ताः अग्नि साध्य हैं, धूम साधन है । सो साधन ते साध्य का जानना; सो अनुमान प्रमाण है। इहां सूडि साधन, हस्ती साध्य है । सूडि ले हस्ती का ज्ञान भयो, तात इहां अनुमान प्रमाण प्राया। बहुरि किसी स्त्री का मुख देखा,, सो मुख: का ग्रहण समय विर्षे चन्द्रमा का स्मरण भया; प्रागे चन्द्रमा देख्या था, स्त्री के मुख की पर चन्द्रमा की सदशता है, सो स्त्री का मुख: देखिसे ही चन्द्रमा यादि आया, सो चन्द्रमा, तिस काल विर्षे प्रकट न था, ताकी
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सम्बाहामस्तिका भाषाटीका ]
ज्ञान भया, सो यह स्मृति प्रमाण हैं। अथवा चन्द्रमा समान स्त्री का मुख है। सो स्त्री का मुख देखते चन्द्रमा का ज्ञान भया । साते याको प्रत्यभिज्ञान प्रमाण भी कहिये । जैसे ही वन वि गवया नामा तिर्यचकी देख्या तहां असा यादि आया कि गऊ के सदृश गक्य हो है; तातै यह स्मृति प्रमाण है। अथवा गऊ समान गवय हो है। सो गऊ का ज्ञान विय को देखते ही भया; तातैयाको प्रत्यभिज्ञान भी कहिए । वा कहिए जैसे श दाहरण कहे तमें और भी जानने। जैसे रसोई विर्षे अग्नि होते संतै धूवा हो है, अर द्रह विर्षे अग्नि नाहीं, तातै धूवा भी नाहीं । तातै सर्व देश कालविर्षे अग्नि पर धूवां के अन्यथा अनुपपतिः भाच है। अन्यथा कहिए अग्नि न होइ तो अनुपपत्ति कहिए धूवा भी ना होइ, सोः प्रैसा अन्यथा अनुपपसि का ज्ञान, सो तक नामी प्रमाण भी मतिज्ञाना है ।
या प्रकार अनुमान स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क ए च्यारों परोक्ष प्रमाण अनिसृत है विषय जाका, असा मतिज्ञानः के भेद जानने ।
पांचवां पागम नामा परोक्ष प्रमाण श्रुतज्ञान का भेद जानना । एकोदेशपने भी विशदता, स्पष्टता इनिके जानने विर्षे नाहीं । तात इनिकों परोक्ष प्रमाण कहे; और इनके बिना जो पाँच इन्द्रियनि कॅरि बहु, बहुविध आदि जानिए हैं, तें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष जानने; जाते इनिक जानने में एकोदेश विशदता, निर्मलता, स्पष्टता, पाइए है । व्यवहार विर्षे भी जैसे कहिए: है. जो मैं नेत्रनि स्यौं प्रत्यक्ष देख्या ।
बहुरि इस मतिज्ञान विषं पारमार्थिक प्रत्यक्षपना है नाहीं; जाते अपने विषय कौं तारतम्य रूप संपूर्ण स्पष्ट न जानें । पूर्व प्राचार्यनि करि प्रत्यक्ष का लक्षरए विशद वा स्पष्ट ही कहा हैं । जैसे ए सर्व मंतिज्ञान के भेद जानने; ते भेद प्रमाण हैं; जाते ए सर्व सम्यग्ज्ञान हैं। बहुरि "सम्यग्ज्ञान प्रमाण" अँसी सिद्धांत विर्ष कहा है।
एक्कचउक्कं चउबीसठ्ठावीसं च तिप्पडि किच्चा । इगिछदवारसगुरिणदे, मदिणाणे होति ठाणारिणः ॥३१४॥
एकचतुष्कं चतुर्विशत्यष्टाविंशतिच' त्रिप्रति कृत्वा ।
एकषद्वादशगुरिणते, मंसिझाने भवति स्थानानि ।।३१४॥ टीका - मतिज्ञान सामान्य अपेक्षा करि तौ एक है, पर अंवग्रह, ईहा, अवाय धारणा की अपेक्षा च्यारि है । बहुरि पांच इंद्रियाद छठा मन करिअर अवग्रह, ईहा,
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[ गोम्मटसार जौवकाण्ड गाथा ३१५ ... अवाय, धारणा की अपेक्षा चौबीस है । बहुरि व्यंजन पर अर्थ का भेद कीएं अठाईस है; सो एक, च्यारि, चौबीस, अठाईस ( १।४।२४१२८ )। इन च्यार्यों को जुदै-. जुदे तीन जायगा मांडिए । तहां एक जायमा तौ सामान्यपने अपने-अपने विषय कौं जानें हैं, असा विषय संबंधी एक भेद करि गुणिए, तब तो एक, च्यारि, चौबीस, अठाईस ही भेद भएं । बहुरि दुसरी जायगा बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव ए छह प्रकार विषय के भेद करि गुरिगए, तब छह (६), चौबीस (२४), के एक सौ चवालीस (१४४), एक सौ अडसठि (१६८) असे मतिज्ञान के प्राधे विषय भेदनि की अपेक्षा भेद भएं । बहुरि तीसरी जायगा उनके प्रतिपक्षी सहित बारह विषय भेदनि करि गुरिगए, तहां बारह (१२), अडतालीस (४८), दोय से अठ्यासो (२८८), तीन से छत्तीस (३३६) सर्व विषय भेदनि की अपेक्षा भतिज्ञान के भेद भएं । असें विवक्षाभेद करि मतिज्ञान के स्थान दिखाएं।
भाग श्रतज्ञान की प्ररूपणा का प्रारंभ करता संता प्रथम ही श्रुतज्ञान का सामान्य-लक्षरण कहैं हैं -
अत्थादो प्रत्यंतरमुवलंभंतं भणंति सुवणाणं । आभिणिबोहियपुब्वं, णियमेणिह सद्दजं पमुहं ॥३१५॥
अर्थाश्र्थातरमुपलभमान भणंति श्रुतज्ञानम् ।
प्राभिनिबोधिकपूर्व, नियमेनेह शब्दजं प्रमुखम् ।।३१५।। टीका -- मतिज्ञान करि निश्चय कीया जो पदार्थ, तिसकौं अवलंबि करि, तिसही पदार्थ के सम्बन्ध कौं लीएं, अन्य कोई पदार्थ, ताकौं जो जाने, सो श्रुतज्ञान है । सो श्रुतज्ञानावरण, बीयांतराय कर्म के क्षयोपशम से उपजै है; असे मुनीश्वर कहै हैं। __कैसा है श्रुतज्ञान ?
माभिनियोधिक जो मतिज्ञान, सो है पहिले जाके, पहिल मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से मतिज्ञान होइ, पीछे मतिज्ञान करि जो पदार्थ जान्या, ताका अवलंबन करि अन्य कोई पदार्थ का जानना होइ; सोई श्रुतज्ञान है । असा नियम जानना ।
१. प्रखंडागम -- धवला पुस्तक १; गाथा १८३, पृष्ठ ३६१ ।
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सम्परनामचन्द्रिका भाषाटीका 1 पहिौं मतिज्ञान भए बिना, सर्वथा श्रुतज्ञान न होइ । तीहिं श्रुतज्ञान के दोय भेद हैं । एक अक्षरात्मक, एक अनक्षरात्मक ! इनि विर्षे शब्दजं कहिए प्रक्षर, पद, छंदादिरूप शब्द से उत्पन्न भया, जो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान, सो प्रमुख कहिए मुख्य-प्रधान है; जाते देना, लेना, शास्त्र पढना इत्यादिक सर्व व्यवहारनि का मूल अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । बहुरि लिम जो चिह्न, तातें उत्पन्न भया, असा अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान सो एकेंद्रिय तें लगाइ पंचेंद्रिय पर्यंत सर्व जीवनि के है । तथापि याने किछू व्यवहार प्रवृत्ति नाही; तातें प्रधान नाहीं ।
__.. बहुरि "श्रूयते इति श्रुतः शब्दः तदुत्पन्नमर्थज्ञानं श्रुतं' सुरिणए ताकौं शब्द कहिए। शब्द से भया जो अर्थज्ञान, ताकौं श्रुतज्ञान कहिए । इस में भी अर्थ विष मारामा शुरुमागही प्रधान पाया । अथवा श्रुत असा रूहि शब्द है, सो मतिज्ञान पूर्वक अर्थातर का जानने रूप ज्ञान का विशेष, तीहिं अर्थ विर्षे प्रवर्ते है । जैसें कुशल शब्द का अर्थ तो यहु जो कुश कहिए डाभ ताकौं लाति कहिये दे, सो कुशल । परंतु रूढ़ि ते प्रवीण पुरुष का नाम कुशल है । तैसे यह श्रुत शब्द जानना ।
तहां 'जीवः अस्ति' असा शब्द कहा। तहां कर्ण इन्द्रिय रूप मतिज्ञान करि जोधः अस्ति असे शब्द कौं ग्रह्या । बहुरि तीहि ज्ञान करि 'जीव नामा पदार्थ हैं' असा जो झाम भया, सो श्रुतज्ञान है। शब्द अर अर्थ के वाच्य-वाचक संबंध है । अर्य वाच्य है, शब्द वाचक है । अर्थ है सो उस शब्द करि कहने योग्य है । शब्द उस अर्थ का कहन हारा है । सो इहां 'जीवः अस्ति' असे शब्द का जानना तौ मतिज्ञान है । पर उसके निमित्त ते जीव नामा पदार्थ का अस्तित्व जानना, सो श्रुतज्ञान है। अस ही सर्व अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का स्वरूप जानना । अक्षरात्मक जो शब्द, ताते उत्पन्न भया जो ज्ञान, ताकौं भी अक्षरात्मक कह्या ।
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इहां कार्य विषं कारण का उपचार किया है। परमार्थ ते झान कोई अक्षर- रूप है नाहीं । बहरि जैसे शीतल पवन का स्पर्श भया, तहाँ शीतल पवन का जानना, तौ मतिज्ञान है । बहुरि तिस ज्ञान करि वायु की प्रकृति वाले को यह शीतल पवन अनिष्ट है। जैसा जानना, सो श्रुतिज्ञान है। सो यहु अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । अक्षर के निमित्त ते भया नाहीं। जैसे ही सर्व अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान का स्वरूप जानना।
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VIMANISHORI
४५२ ।
[ पोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३१६-३१७-३१८
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प्रागं श्रुतज्ञान यारात्मक अलका रामक भवनि फौं दिखावे हैं--- लोगाणमसंखमिदा, अणक्खरप्पे हवंति छट्ठाणा। वेरूबछवग्गपमाणं रूऊणमक्खरगं ॥३१६॥
लोकानामसंख्यमितानि, अनक्षरात्मके भयंति पदस्थानानि । . द्विरूपषष्ठवर्गप्रमारणं रूपोनमक्षरगं ॥३१६॥
टीका - अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद पर्याय अर पर्यायसमास, तीहि विर्षे जघन्य सौं लगाइ उत्कृष्ट पर्यंत असंख्यात लोक प्रमाण ज्ञान के भेद हो हैं । ते भेद असंख्यात लोक बार घट्स्थानपतित वृद्धि की लीए हैं । बहुरि प्रक्षरात्मक श्रुतज्ञान है, सो द्विरूप वर्गधारा विषै जो एकट्ठी नामा छठा स्थानक कह्या, तामैं एक घटाएं, जो प्रमाण रहै, तितने अपुनरुक्त अक्षर हैं । तिनकी अपेक्षा संख्यात भेद लीएं है । विवक्षित अर्थ कौं प्रकट करने निमित्त बार बार जिन अक्षरनि कौं कहिए; असे पुनरुक्त अक्षरनि का प्रमाण अधिक संभव है । सो कथन प्रागै होइगा । . आगे श्रुतज्ञान का अन्य प्रकार करि भेद कहने के निमित्त दोय गाथा
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पज्जायक्खरपदसंघाद' पडिवत्तियाणिजोगं च । दुगवारपाहुडं च य, पाहुडयं वत्थुपुथ्वं च ॥३१७॥
तेसिं च समासेहि य, वीसविहं वा हु होदि सुदणाणं । .. आवरणस्स वि भेदा, तत्तियमेत्ता हवंति त्ति ॥३१८॥
पर्यायाक्षरपदसंघास प्रतिपतिकानुयोमं च । . . ..
विकवारप्राभृतं च, च प्रामृतकं बस्तु पूर्व म ॥३१७॥ . . . तेषां च समासश्च, विशविधं दा हि भवति श्रुतज्ञानम् ।
प्रावरणस्यापि भेदाः, तावमात्रा भवति इति ।।३१८॥ टोका - १. पर्याय, २. अक्षर, ३. पद, ४. संघात, ५. प्रतिपत्तिक; ६. अनुयोग, ७: प्राभृत-प्राभृत, ८. प्राभृत, ९. वस्तु, १०. पूर्व दश तो ए कहे।।
१. षट्पागम - धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २१ को टीका । २. षट्खंडागम - अचला पुस्तक ६, पृष्ठ २१ की टीका ।
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सम्यग्नलचन्द्रिका भाषाका
ira ते पर्याय आदिक दश भेद कहे, तिनके समासनि करि दश भेद भए, मिलिकरि श्रुतज्ञान के बीस भेद भएं । ते कहिए हैं - १. पर्याय, २. पर्यायसमास, ३. अक्षर, ४. अक्षरसमास, ५. पद, ६. पदसमास, ७. संघात, ८. संघातसमास, ६. प्रतिपत्तिक, १०. प्रतिपत्तिकसमास, ११. अनुयोग, १२. अनुयोगसमास, १३. प्राभृतक-प्राभृतक, १४. प्राभूतक-प्राभृतकसमास. १५. प्राभृत, १६. प्राभृतसमास, १७. वस्तु, १८. वस्तुसमास, १६. पूर्व २०. पूर्वसमास असे बीस भेद हैं।
इहां अक्षरादि गोचर जो अर्थ, ताके जाननेरूप जो भाव श्रुतज्ञान, ताकी मुख्यता जाननी । बहुरि जाते श्रुतज्ञानावरण के भी तितने ही बीस भेद हैं; तातें श्रुतज्ञान के भी बीस भेद ही कहे हैं । .
आगे पर्याय नामा प्रथम श्रुतज्ञान का भेद, ताका निरुपण के अथि च्यारि गाथा कहैं हैं
णवरि विसेसं जाणे, सुहमजहणणं तु. पज्जयं णाणं । पज्जायावरणं पुरण, तदणंतरणाणभेदम्हि ॥३१॥
नवरि विशेष जानीहि, सूक्ष्मजधन्य तु पर्यायं ज्ञानम् ।
पर्यायावरणं पुनः, तदनंतरज्ञानभेदे ॥३१९॥ टोका - यह नवीन विशेष जानहु, जो पर्याय नामा प्रथम श्रुतज्ञान का भेद, सो सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्त संबंधी सर्व तें जघन्य श्रुतज्ञान जानना । बहुरि पर्याय श्रुतज्ञान का प्रावरण, सो पर्याय श्रुतज्ञान कौं नाहीं पावर है। बाके अनंतरि जो पर्याय ज्ञान तैं अनंत भाग वृद्धि लीएं पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद, तीहि विष पर्याय ज्ञान का प्रावरण है; जाते उदय प्राया जो पर्याय ज्ञान, आवरणके समय प्रबद्ध का उदयरूप निषेक, ताकै सर्वघाती स्पर्धकनि का उदय नाहीं, सो क्षय है ; अर तेई सर्वधाती स्पर्धक, जे अगिले. निषेक संबंधी सत्ता में तिष्ठ हैं, तिनिका उपशम है । अर देशघाती स्पर्धकनि का उदय है; सो असा पर्याय ज्ञानाबरण का क्षयोपशम सदा पाइए ताते; पर्याय झान का आवरण करि पर्याय ज्ञान आवरै नाहीं । पर्यायसमासज्ञान का प्रथमभेद ही आवरं है । जो पर्याय ज्ञान भी आपरै तो ज्ञान का अभाव होइ, ज्ञान गुणका अभाव भए, गुणी (अॅसें) जीव द्रव्य का भी अभाव होइ, सो जैसे होइ नाही; तातें पर्यायज्ञान निराबरण ही है ।
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४५४ ]
[ गोम्मटसार जीयकाण्ड माथा ३२०-३२१
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अनुभाग रचना विष भी स्थापित कीया जो सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र श्रुतज्ञानावरण का द्रव्य, जो परमाणु नि का समूह, सो द्रव्य के अनुभाग की क्रम से हानि-वृद्धि करि संयुक्त है । बहुरि नानागुण हानि स्पर्धक वर्गणारूप भेद लीएं हैं, तिस द्रव्य विर्षे सर्व थोरा उदयरूप अनुभाग जाका क्षीण भया, असा जो सर्वधाती स्पर्धक, तिसही कौं पर्याय ज्ञान का आवरण कह्या है; तितने आवरण का सदा काल उदय न होइ; तात भी पर्याय ज्ञान निरावरण ही है ।
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सहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जावस्स पढमसमयम्हि । हवदि हु सवजहणं, रिगच्चुग्घार्ड णिरावरणं ॥३२०॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये । भवति हि सर्वजघन्यं, नित्योहाट निरावरणम् ॥३२०।।
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टीका - सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक जीव का जन्म होते पहिला समय विर्षे सर्व ते जघन्य शक्ति को लीएं पर्याय नामा श्रुतज्ञान हो है: सो निरावरण है। इतने ज्ञान का कबहूं आच्छादन न होई। याहीतें नित्योद्धादं कहिए सदाकाल प्रकट प्रकाशमान है । सो यहु माथा पूर्वाचार्यनि करि प्रसिद्ध है । इहां अपना कह्या व्याख्यान की दृढता के निमित्त उदाहरणरूप लिखी है।
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सहमणिगोषअपज्जत्तगेसु सगसंभवेसु भमिऊण । चरिमापुण्रगतिवक्काणादिमवक्कट्ठियेव हवे ॥३२१॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकेषु स्वकसंभवेषु भ्रमित्वा । चरमापूर्णत्रिय कारणां आदिमयनस्थिते एव भवेत् ।।३२१।।
टीका - मूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक जीव, सो अपने विषं संभवते जे छह हजार बारह बार क्षुद्रभव, तिनि वि भ्रमण करि अंत का लब्धि अपर्याप्तकरूप क्षुद्रभव विर्षे तीन वक्रता लोएं, जो विग्रह गति, ताकरि जन्म धर्या होइ, ताके विग्रह गति में पहिली वक्रता संबंधी समय विष तिष्ठता जीव ही के सर्व ते जघन्य पर्याय नामा श्रुतज्ञान हो है । बहुरि तिसही के स्पर्शन इंद्रिय संबंधी जघन्य मतिज्ञान हो है ।
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१. पखंडारम -- धवला पुस्तक ६. पृष्ठ २१ की दीका ।
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सम्पानचदिका भाषाटीका )
[ ४५५
बहुरि तिसही के प्रचक्षुदर्शनावरण के क्षयोपशम से उपज्या जघन्य अचक्षुदर्शन भी हो है । सो इहां बहुत क्षुद्रभवरूप पर्याय के धरने से उत्पन्न भया बहुत संक्लेश, ताके बधने करि आवरण का अति तीव्र अनुभाग का उदय हो है । तातै भद्रभवनि का अंत क्षुद्रभवनि विर्षे पर्यायज्ञान कह्या है। बहुरि द्वितीयादि समयनि विष ज्ञान बधता संभव हैं; तातै तीनि वक्र विर्षे प्रथम बक्र का समय ही विर्षे पर्यायज्ञान कह्या है ।
सहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि । फासिदियगदिपुव्वं, सुदणाणं लद्धिमक्खरयं ॥३२२॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये ।
स्पर्शनेंद्रियमतिपूर्व श्रुतज्ञानं लब्ध्यक्षरकं ।।३२२१॥ टोका -- सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक जीव के उपजने का पहिला समय विर्षे सर्व तें जघन्य स्पर्शन इंद्रिय संबंधी मतिज्ञानपूर्वक लब्धि अक्षर है, दूसरा नाम जाका, असा पर्याय ज्ञान हो है । लब्धि कहिए श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम, वा जानन शक्ति, ताकरि अक्षरं कहिए अविनाशी, सो असा पर्यायज्ञान ही है; जातें इतना क्षयोपशम सदाकाल विद्यमान रहै है।
प्रागै दश गाथानि करि पर्यायसमास ज्ञान की प्ररूपं हैं । अबरुवरिम्मि अरणंतमसंखं संखं च भागवड्ढोए । संखमसंखमणतं, गुणवढी होति हु कमेण ॥३२३॥
अवरोपरि अनंतमसंख्य संख्यं च भागवृद्धयः ।
संख्यमसंख्यमनंतं, गुणवृद्धयो भवंति हि कमेण ।।३२३॥ टीका -- सर्व तें जघन्य पर्याय नामा ज्ञान, ताके ऊपरि आगें अनुक्रम ते मार्ग कहिए है । तिस परिपाटी करि १. अनंत भागवृद्धि, २. असंख्यात भागवृद्धि, ३. संख्यात. भागवृद्धि, ४. संख्यात गुणवृद्धि, ५. असंख्यात गुणवृद्धि, ६. अनंतगुण वृद्धि, ७. ए षट्स्थान पतित वृद्धि हो हैं ।
१ पखंअगम - धमला पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की टीका । २. पखंडापम - धघला पुस्तक ६, पृष्ठ २२ को टीका।
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मोम्मटसार जीवकाण्ड गांथा ३२४.३२५
इहा कोऊ कहै कि सर्व जघन्य ज्ञान की अनंत का भाग कैसे संभबैं ?
ताका समाधान-जो द्विरुपवर्गधारा विर्षे अनंतानंत वर्गस्थान भए पीछे, क्रम से जीवराशि, पुद्गल राशि, काल समयराशि, श्रेणी आकाशराशि हो है । तिनिके ऊपरि अनंतानंत वर्गस्थान भएं सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक संबंधी जघन्य ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण हो है । जाका भाग न होइ असे ज्ञान शक्ति के अंश, तिनिका असा परिमाण है । तातै तिनिकी अपेक्षा अनंत का भागहार संभव है।
जीवाणं च य रासी, असंखलोगा वरं ख संखेज्ज । भागगुणम्हि य कमसो, अवठ्ठिदा होति छहारणे ॥३२४॥
जीवानां च च राशिः असंस्थलोका बरं खलु संख्यातम् ।
भागगुरुयोन क्रमशः अवस्थिता भवंति षट्स्थाने ॥३२४।। टीका - इहां अनंतभाग आदिक छह स्थानकनि विर्षे ए छह संदृष्टि प्रयस्थित कहिए; नियमरूप जाननी । अनंत विर्षे तो जीवराशि के सर्व जीवनि का परिमाण सो जानना । असंख्यात विषं असंख्यात लोक जो असंख्यात गुणा लोकाकाश के प्रदेशनि का परिणाम सो जानना । संख्यात विर्षे उत्कृष्ट संख्यात जो उत्कृष्ट संख्यात का परिणाम सो जानना । सोई तीनों प्रमाण भाग वृद्धि विर्षे जानना । ये ही गुरणवृद्धि वि जानना । भागवृद्धि विर्षे इनि प्रमानि का भाग पूर्वस्थान को दीएं, जो परिणाम प्राव, तितने पूर्वस्थान विर्षे मिलाएं, उत्तरस्थान होइ । गुणवृद्धि विर्षे इनि प्रमारानि करि पूर्वस्थान की गुणे, उत्तरस्थान हो हैं ।
उबंक चउरक, पणछस्सतंक अट्ठअंकं च । छब्बड्ढोणं सण्णा, कमसो संविकिरणळें ॥३२॥
उर्वकश्चतुरंकः पंचषट्सप्तांकः प्रष्टोकश्च ।
घड्बद्धीनां संज्ञा, क्रमशः संदृष्टिकरणार्थम् ॥३२५॥ - टीका - बहुरि लघुसंदृष्टि करने के निमित्त अनंत भाग वृद्धि प्रादि छह वृद्धिनि की अन्यसंज्ञा संदृष्टि सो कहै हैं - तहां अनंत भागवृद्धि की उर्वक कहिए उकार उ, असंख्यात भागवृद्धि की च्यारि का अंक (४), संख्यात भागवृद्धि की पांचका अंक (५), संख्यात गुगवृद्धि की छह का अंक (६), असंख्यात गुणवृद्धि की
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सम्यानचन्द्रिका भाषाटोका 1
सात का अंक (७), अनंत गुणवृद्धि की प्राउ का अंक (८), असें ए सहनानी जाननी।
अंगुलअसंखभागे, पुवगवड्ढीगदे दु परवड्ढी। एक्कं वारं होदि हु, पुणो पुणो चरिम उड्ढि ती ॥३२६॥ . अंगुलासंख्यातभागे, पूर्वगद्धिगसेतु परवृद्धिः ।
एकं वारं भवति हि, पुनः पुनः चरमवृद्धिरिति ।।३२६॥ . टीका-पूर्ववद्धि जो पहिली पहिली वृद्धि, सो सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाम प्रमाण होई; तब एक एक बार परवृद्धि कहिए पिछली पिछली वृद्धि होइ, असे बार बार अंत की वृद्धि, जो. अनंतगणा वृद्धि तीहि पर्यंत हो है: असा जानना । ।
अब याका अर्थ यंत्र द्वार कर दिखाइए हैं । तहां यंत्र विर्षे अनंतभागादिक को उकार आदि संदृष्टि कही थी, सो लिखिए है ।
पर्याय समास ज्ञान विर्षे वृद्धि का यंत्र
उउ ५ | उउ४ उ६४ | उ उ ५ "उस
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बहुरि सूच्यंगुल का प्रसंख्यातवां भाग प्रमाण बार की जायगा दोय बार लिखिए है । सो इहां पर्याय नाम श्रुतज्ञान का भेद, ताते अनंत भाग वृद्धि लिए पर्याय समास नामा-श्रुतज्ञान का प्रथम भेद हो है । बहुरि इस प्रथम भेद तें अनंत भागवृद्धि लोएं पर्याय समास का दूसरा भेद हो है । अस सूच्वंगुल का असंख्यातबा भाग प्रमाण अनंत भागवृद्धि होइ, तब एक बार असंख्यात भागवृद्धि होइ । इहां अन्त भागवृद्धि पहिली कहो थी, तातें पूर्व कहिए । अर असंख्यात भागवृद्धि वाके पीछे कही थो, ताते याकौं पर कहिए । सो इहां यंत्र विर्षे प्रथम पंक्ति का प्रथम कोष्ठ विर्षे दोय बार उकार लिख्या; सों तो सूच्यंगुल' का असंख्यातवां भाग प्रमाण अनंत भाग्
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गोम्मरसार बोषकाण्ड गाथा ३२६
वृद्धि को सहनानी जाननी । और ताके आग च्यारि का अंक लिख्या; सो एक बार असंख्यात भागवृद्धि की सहनानी जाननी । बहुरि इहां ते सूर्यगृल का असंख्यातवां भाग प्रमाण अनंत भागवृद्धि भए पोछे दूसरा एक बार असंख्यात भागवृद्धि होइ । अंसें ही अनुक्रम से सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण असंख्यात भाग वृद्धि हो है । तातें यंत्र विर्षे प्रथम पंक्ति का दूसरा कोठा विर्षे प्रथम कोठावत् दोय उकार, एक च्यारि का अंक लिख्या । दूसरी बार लिखने से सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाम बार जानि लेना।
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बहुरि इहां ते प्रामें सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण अनंत भागवृद्धि होइ, तब एक बार संख्यात भागवृद्धि होइ । यातें प्रथम पंक्ति का तीसरा कोठा वि दोय उकार पर एक पांच का अंक लिख्या । अब इहां से जैसे पूर्व अनंत भागवृद्धि लीएं, सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाएर असंख्यात भागवृद्धि होइ; पीछे सुभ्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण अनंत भागवृद्धि होइ, तब एक बार संख्यात भागवृद्धि भई, तैसें ही याही अनुक्रम लें दूसरा संख्यात भागवृद्धि भई । बहुरि याही अनुक्रम से तोसरा भई, असे संख्यात भागवद्धि भी सच्यंगल का असंख्यातवां भाग प्रमाण बार हो है । तात इहां यंत्र विर्षे प्रथम पंक्ति विर्षे जैसे तीन कोठे किये थे, तसे अंगुल का असंख्यातवां भाग को सहनानी के अर्थि दूसरा तीन कोठे उस ही पंक्ति विर्षे कीए । इहां असंख्यात भागवृद्धि कौं पूर्व कहिए, संख्यात भागवृद्धि कौं पर कहिए । बहुरि इहा ते सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण अनंत भागवृद्धि होइ, एक बार असंख्यात भागवृद्धि होइ' असे सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागप्रमाण असंख्यात भागवृद्धि होइ; सो याकी सहनानी के अथि यंत्र विषं दोय उकार अर च्यारि का अंक करि संयुक्त दोय कोठे कीए । बहुरि यातें आगें सूच्यं मुल का असंख्यातवां भागप्रमाण अनंत भागवृद्धि होइ करि एक बार संख्यात गुणवृद्धि होइ; सो याकी सहनानी के प्रथि प्रथम पंक्ति का नवमा कोठा विर्षे दोय उकार अर छह का अंक लिख्या । बहुरि जैसे प्रथम पंक्ति विष अनुक्रम कह्या, तसे ही प्रादि तें लेकरि सर्व अनुऋम दूसरा भया । तब एक बार दूसरा संख्यात गुणवृद्धि भई । असे ही अनुक्रम से सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमारण संख्यात मुगवृद्धि हो है; सो सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण तैसें होने की सहनानी के अधि यंत्र विर्षे जैसी प्रथम पंक्ति थी, तैसे ही वाके नीचे दूसरी पंक्ति लिखी । बहुरि इहां तें जैसे प्रथम पंक्ति विर्षे अनुकम कहा था, तैसे अनुक्रम तें बहुरि बृद्धि भई । विशेष इतना जो उहां पीछे ही पीछे एक बार संख्यात
यामानाAMALAINED
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লালক্ষ্যে
তীক্ষা ।
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गुणवृद्धि भई थी, इहां पीछे ही पीछे एक बार असंल्यात गुणवृद्धि भई । याही तें यंत्र विर्षे तीसरी पंक्ति प्रथम पंक्ति सारिखी लिखी। नवमा कोठा मैं उहां तो दोय उकार पर छह का अंक लिख्या था, इहां तीसरी पंक्ति विर्षे नवमा कोठा विर्षे दोय उकार अर सप्त का अंक लिख्या । इहां और सर्व कहिए पर असंख्यात गुणवृद्धि पर कहिए । बहुरि इहाते जैसें तीनों ही पंक्ति विषं आदि से लेकरि अनुक्रम तें वृद्धि भई, तैसे ही अनुक्रम से सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण होइ । तब असंख्यात गुणवृद्धि भी सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण होइ निवर, सो इहां यंत्र विर्षे सूच्यंगुल का प्रसंख्यातवां भाग प्रमाण तैसे ही होने की सहनानी के प्रथि जैसे तीन पंक्ति करी थीं, तैमैं ही दूसरी पंक्ति लिखी, असे छह पंक्ति भई ।
अब इहां से प्रागै जैसे आदि तें लेकरि अनुक्रम से तीनों पंक्ति विर्षे वृद्धि कही थी, तैसे ही तैसे अनुक्रम नै फेरि सर्ववृद्धि भई । विशेष इतना जो तीसरी पंक्ति का अंत विर्षे जहां असंख्यात गुणवृद्धि कही थी, सो इहां तीसरी पंक्ति का अंत विर्षे एक बार अनंत गुणवृद्धि हो है । याही ते यंत्र विषं भी पहिली, दूसरी, तीसरी सारिखी तीन पंक्ति और लिखी । उहां तीसरी पंक्ति का नवमां कोठा विर्षे दोय उकार सप्त का अंक लिया था। इहां तीसरी पंक्ति का नवमां कोठा विर्षे दोय उकार अर पाठ का अंक लिख्या; सो इहां अनंत गुणवृद्धि कौं पर कहिए'; अत्य सर्व पूर्व कहिए । याके पामें कोई वृद्धि रही नाही; ताते याको पूर्व संज्ञा न होइ, याही ते यह अनंत गुणवृद्धि एक बार ही हो है । सो इस अनंत गुणवृद्धि कौं होत संतै जो प्रमाण भया, सोई नवीन षट्स्थानपतित वृद्धि का पहिला स्थानक जानना । जैसे पर्यायसमास ज्ञान विर्षे असंख्यात लोक मात्र बार षट्स्थानपतित वृद्धि हो है।
अब याका कथन प्रकट कर दिखाइए है-द्विरूप वर्गधारा विषे जोवराशि तें अनंतानंत गुणां जघन्य पर्याय नाभा ज्ञान की अपेक्षा अपने विषय कौं प्रकाशनेरूप शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद कहे हैं, सो इस प्रमाण की जीवराशि प्रमाण अनंत का भाग दीएं जो परिमाण आवै, ताकौं उस जघन्य ज्ञान विर्षे मिलाएं, पर्यायसभास ज्ञान का प्रथम भेद हो है । इहां एक बार अनंत भागवृद्धि भई । बहुरि इस .पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद की जीवराशि प्रमाण अनंत का भाग दिएं, जो परिमाण आवै, तितना उस पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद विष मिलाएं, पर्यायसमास ज्ञान का दूसरा भेद हो है । इहां दूसरा अनंत भागवृद्धि भई । बहुरि उस दूसरे भेद कौं
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( गोम्मटसार जीवकान्ड गाथा ३२६. अनंत का भाग दीएं, जो परिमाण आवै, तिलना उस दूसरा भेद विषै मिलाएं, पर्यायसमास ज्ञान का तीसरा भेद हो है । इहां तीसरा अनंत भागवृद्धि भई । बहुरि उस तीसरे भेद को अनंत का भाग दीएं जो परिमारण प्रया, तितना उस तीसरा भेद विषे मिलाएं, पर्यायसमास ज्ञान का चौथा भेद हो है । इहां चौथा अनंत भागवृद्धि भई । इसही अनुक्रम तें सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण अनंत भागवृद्धि हूवा थका पर्यायसमास ज्ञान का भेद भया, ताकौं एक बार प्रसंख्यात लोक प्रमाण जो असं ख्यात, ताका भाग दिएं जो परिमाण प्रावे, तितना उस ही भेद विषै मिलाएं,. एक: बार असंख्यात भागवृद्धि लीएं पयायसमास ज्ञान का भेद हो है । बहुरि या अनंत का भाग दीएं, जो परिमाण प्रावे, तितना इस ही विषै मिलाएं, पर्यायसमास ज्ञान का भेद भया । इहां तें बहुरि अनंत भागवृद्धि का प्रारम्भ हुवा, सो जैसे ही सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण अनंत भागवृद्धि भए जो पर्यायसमास ज्ञान का भेद भया, arat फेरि श्रसंख्यात का भाग दीए जो परिमाण माया, ताकों उस ही भेद विषै मिलाएं, दूसरा श्रसंख्यात भागवृद्धि लीएं पर्यायसमास ज्ञान का भेद हो है ।
जैसे ग्रनुक्रम ते सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण असंख्यातः भागवृद्धि भी पूर्ण होइ । तहां जो पर्यायसंमास ज्ञान का भेद भया । ताकों बहुरि अनंत का भाग दीएं, जो परिमाण भया, ताकी तिस ही में मिलाएं, पर्यायसमास ज्ञान का भेद होइ । तब इहां अनंत भागवृद्धि का प्रारम्भ हुवा, सो सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण अनंत भागवृद्धि पूर्ण होइ, तब जी पर्यायसमास ज्ञान का भेद भया, ताक उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीएं, जो परिमाण होइ, ताकौं उस ही विषै मिलाएं, पहिले संख्यात भागवृद्धि लीएं, पर्यायसमास का भेद हो है । यातें आगे फेरि अनंत भाग वृद्धि का प्रारम्भ हुवा सो जैसे ही पूर्वे यंत्रद्वार करि जो अनुक्रम का है, तिस अनुक्रम के अनुसारि वृद्धि जाति लेनी । इतना जानि लेना; जिस भेद लें आगे अनंत भागवृद्धि होइ, तहां तिस ही भेद कौं जीवराशि प्रमाण अनंत का भाग दीएं, जो परिणाम आयें तितना तिस ही भेद विषै मिलाएं उस तें अनंतरवतीं भेद होइ । बहुरि जिस भेद हैं
* असंख्यात भागवृद्धि होइ, तहां तिस ही भेद को असंख्यात लोक प्रमाण असंख्यात का भाग दीएं, जो परिमाण आवै, तार्कों तिस ही भेद विषै मिलाएं, उस भेद तै नंतरवर्ती भेद हो है । बहुरि जिस भेद तें प्रा श्रसंख्यात भागवृद्धि होइ, तहां तिस ही भेद कौं उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण संख्यात का भाग दीएं जो परिमाण आयें, तिलना fre ही भेद विषै मिलाएं, उस भेद तैं मामिला भेद होइ । बहुरि जिस भेद ते था
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सम्यग्ज्ञानन्द्रिका बाटोका ]
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संख्यात गुणवृद्धि होइ, तहां तिस भेद को उत्कृष्ट संख्यात करि गुणिए, तब उस भेद तैं अनंतरवर्ती भेद हो । बहुरि जिस भेद तें आगे असंख्यात गुणवृद्धि होइ, तहां तिस ही मेंद को लोकरि गुणिए, तब उस भेद तैं श्रागिला भेद होइ । बहुरि जिस भेद तें आगे अनंत गुणवृद्धि होइ, तहां तिस ही भेद कौं जीवराशि का प्रमाण अनंत करि गुरिगए, तब तिस भेद ते प्रमिला भेद होइ । जैसे षट्स्थानपतित वृद्धि का अनुक्रम जानना ।
इहां जो संख्या कही है, सो सर्व संख्या ज्ञान का अविभाग प्रतिच्छेदनि की जामनी । अरु जो इहां भेद कहे हैं, तिनका भावार्थ यह है- जो जीव के के तो पर्याय ज्ञान हीं होइ और उसते बघती ज्ञान होइ तो पर्यायसमास का प्रथम भेद ही होय; असा नाही कि पर्यायज्ञान तें एक, दोय आदि विभाग प्रतिच्छेद बंधता भी किसी जीव के ज्ञान होइ थर उस पर्यायसमास के प्रथम भेद तैं बघता ज्ञान होइ तो पर्यायसमास ज्ञान का दूसरा भेद ही होइ । अँसे अन्यत्र भी जानना ।
अब इहां अनंत भागवृद्धिरूप सूच्यंगुले के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान कहे, तिनिका जघन्य स्थान ते लगाइ, उत्कृष्ट स्थान पर्यंत स्थापन का विधान कहिए है ।
तो प्रथम संज्ञा कहिए है - विवक्षित मूलस्थान कौं विवक्षित भागहार का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, ताक प्रक्षेपक कहिए । तिस प्रमाण कौं तिस ही भागहार का भाग दीएं जो प्रमाण आवै, ताको प्रक्षेपकपक कहिए | ताक भी विवक्षित भागहार का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, ताकौ पिशुलि कहिए । ताक भी विवक्षित भागहार का भाग दोएं, जो प्रमाण आवै ताको पिशुलिपिशुलि कहिए। ताकी भी विवक्षित भागहार का भाग दिये, जो प्रमाण आवै, ताकौ चूर्णि कहिए | ताक भी विवक्षित भागहार का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, ताक चूरिंचूर्णि कहिए। जैसे ही पूर्व प्रमाण को विक्षित भागहार का भाग दीएं द्वितीयादि चूणिचूरिंग कहिए ।
अब इहां दृष्टरूप अंक संदृष्टि करि प्रथम कथन दिखाइए है- विवक्षित जघन्य पर्यायज्ञान का प्रमाण, पैंसठ हजार पांच से छत्तीस ( ६५५३६ ) । विवक्षित भागहार अनंत का प्रमाण च्यारि ( ४ ), तहां पूर्वोक्त क्रम तें भागहार का भाग दीएं, प्रक्षेपक का प्रमाण सोलह हजार तीन सौ चौरासी ( १६३८४) । प्रक्षेपप्रक्षेपक का.. प्रमाण च्यारि हजार छिन (४०९६ ) | पिशुलिका प्रमाण एक हजार चोईस
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[ गोम्मटसार जीवका गाया ३२६
( १०२४) । पशुलिपिशुलि का प्रमाण दोय से छप्पन ( २५६ ) | चूरिंग का प्रमाण चौसठ (६४) । चूरिंगचूरिंग का प्रमाण सोलह (१६ ) असें द्वितीयादि चूर्णचूरिंग का प्रमाण च्यारि प्रादि जानने ।
इहां ऊपर जघन्य ६५५३६ स्थापि, नीचे एक बार प्रक्षेपक १६३८४ स्थापि, जोड़ें, पर्यासमास के प्रथम शेव का इक्यासी हजार व बीस (१९२०) प्रमाण हो है ।
बहुरि ऊपरि जघन्य ( ६५५३६ ) स्थापि, नीचें दोय प्रक्षेपक ( १६३८४४ १६३८४) एक प्रक्षेपकप्रक्षेपक स्थापि, जोड़ें पर्यायसमास के द्वितीय भेद का एक लाख दोय हजार च्यारि से (१०२४०० ) प्रमाण हो हैं ।
बहुरि ऊपर जघन्य ६५५३६ स्थापि, नीचे तीन प्रक्षेपक ( १६३८४) १६३८४ १६३८४) तीन प्रक्षेपकप्रक्षेपक एक पिशुलि स्थापि, जोडें, तीसरे भेद का एक लाख अठाईस हजार (१२८००० ) प्रमाण हो है !
बहुरि ऊपरि जयन्य स्थापि, नीचें नीचें व्यारि प्रक्षेपक, छह प्रक्षेपक प्रक्षेपक, च्यारि पिशुलि, एक पिशुलिपिशुति स्थापि, जोड़ें, चौथे भेद का एक लाख साठि हजार (१६०००० ) प्रमाण हो है ।
बहुरि ऊपरि जघन्य स्थापि, नीचे नीचे पांच प्रक्षेपक दश प्रक्षेपक प्रक्षेपक, दश पिशुलि पांच पिशुलिपिशुलि, एक चूर्णि स्थापि, जोड़ें, पांचवें भेद का दोय लाख ( २,००००० ) प्रभाग हो है ।
बहुरि ऊपरि जघन्य स्थापि, नीचें नीचें छह प्रक्षेपक, पंचदश प्रक्षेपक प्रक्षेपक, बीस पिशुलि, पंद्रह पिशुलिपिशुलि, छह चूर्णि एक चूर्णिकूणि स्थापि, जोडें, छठे स्थान का दोय लाख पचास हजार ( २५०००० ) प्रमाण हो है । जैसे ही क्रम तें सर्व स्थाननि विषै ऊपरि तौ जघन्य स्थापन करना । ताके नीचें नीचें जितना गच्छ का प्रमाण तितने प्रक्षेपक स्थापन करने । इहां जेथवां स्थान होइ, तिस स्थान विषे तितना गच्छ जानना । जैसें छठा स्थान विषे गच्छ का प्रमाण छह होइ । बहुरि तिनके नीचे एक घाटि गच्छ का एक बार संकलन धन का जेता प्रमाण, तितले प्रक्षेपप्रक्षेपक स्थापने । बहुरि तिनके नीचें दोयं घाटि गच्छ का दो बार संकलन धन का जेता प्रमाण, तितने पिशुलि स्थापन करने । बहुरि तिनके नीचे तीन घाटि
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सम्पाजानन्टिक भाषाका ]
गच्छ का तीन बार संकलन धन का जेता प्रमारप, तितने पिशुलिपिशुलि स्थापन करने । बहरि तिनके नीचें च्यारि घाटि गच्छ का च्यारि बार संकलन धन का जेता प्रमाण, लितने चूणि स्थापन करने ! बहुरि तिनके नीचें पांच वादि गच्छ का पांच बार संकलन धन का जेता प्रमाण, तितने चूणिचूणि स्थापन करने । अस ही नीचे नीचें छह आदि धाटि गच्छ का छह आदि बार संकलन धन का जेता जेता प्रमाण, तितने तितने द्वितीयादि चूणिचूणि स्थापन करने । असें स्थापन करि, जोडे, पर्यायसमास ज्ञान के भेद विर्षे प्रमाण प्राय है ।
__अब इहां एक बार दोय बार आदि संकलन धन कहे, तिनिका स्वरूप इहां ही आगे वर्णन करेंगे। असे अंकसंदृष्टि करि वर्णन कीया । अब यथार्थ वर्णन करिए है
पर्याय समास ज्ञान का प्रथम भेद विर्षे पर्यायज्ञान ते जितने बधै तितने जुदे कीएं, पर्यायज्ञान के जेते अविभाग प्रतिच्छेद हैं, तीहिं प्रमाण मूल विवक्षित जानना । यहु जघन्य ज्ञान है । तातें इस प्रमाण का नाम जघन्य स्थाप्या। बहरि इस जघन्य कौं जीवराशि मा: अनंत का भाग दीएं, जो प्रमाण पावै, ताका नाम प्रक्षेपक जानना । इस प्रक्षेपक कौं जीवराशि मात्र अनंत का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, सो प्रोपकप्रक्षेपक जानना । जैसे ही क्रम ते जीवराशि मात्र अनंत का भाम दीएं, जो जो प्रमाण पावै, सो सो क्रम ते पिशुलि पर पिशुलिपिशुलि पर चूर्तिण अर चूणिचूणि अर. द्वितीय चूणिचणि आदि जानने । सो पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद विर्षे ऊपरि जघन्य स्थापि, नीचे ताकी वृद्धि का एक प्रक्षेपक स्थापना । बहुरि दुसरा भेद विर्षे ऊपरि जघन्य स्थापि, नी नीचे ताकी वृद्धि के दोय प्रक्षेपक, एक प्रक्षेपकप्रक्षेपक स्थापने । बहुरि तीसरा भेद विषं ऊपरि जघन्य स्थापि, नीचे नीचे ताकी वृद्धि के तीन प्रक्षेपक, तीन प्रक्षेपकप्रक्षेपक, एक पिशुलि स्थापने । बहुरि चौथा भेद विर्षे जघन्य ऊपरि स्थापि, ताके नीचें नीचे ताके वृद्धि के च्यारि प्रक्षेपक, छह प्रक्षेपकप्रक्षेपक, च्यारि पिशुलि, एक पिशुलिपिशुलि स्थापने । बहुरि पांचवां भेद विर्षे जघन्य ऊपरि स्थापि, ताके नीन् नीचें पांच प्रक्षेपक, दश प्रक्षेपकप्रक्षेपक, दश पिलि, पाच पिशुलिपिशुलि,. एक चूणि स्थापने । बहुरि छठा भेद विर्षे ऊपरि जघन्य स्थापि, ताके नीचे नीचे ताकी वृद्धि के छह प्रक्षेपक, पंद्रह प्रक्षेपक प्रक्षेपक, बीस पिलि, पंद्रह पिशुलिपिशुलि, छह चूर्णि, एक चूणिचूणि स्थापने । असे ही सूच्यगुल का असंख्यातवां भागमात्र जे अनंत भागवृद्धि संयुक्त पर्यायसमास ज्ञान के स्थान, तिनि विर्षे अपने - अपने जघन्य के नीचे नीचे प्रक्षेपक गच्छमात्र
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गोम्मसार क्षेत्रकाण्ड गाथा ३२६
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४६४ ! स्थापने । प्रक्षेपकप्रक्षेपक एक घाटि गच्छ का एक बार संकलन बनमात्र स्थापने । पिशुलि नोय घाटि गच्छ का, दोय बार संकलन धनमात्र स्थापने। पिलिपिशुलि तीन धाटि मच्छ का, तीन बार संकलन धनमात्र स्थापने । चूणि च्यारि घाटि गच्छ को च्यारि बार संकलन धनमात्र स्थापने । चूणिचूणि पांच घाटि मच्छ का, पांच बार संकलन धनमात्र स्थापने। असें ही क्लम से एक एक घाटि गच्छ का एक एक अधिक बार संकलन मात्र चरिणणि ही अंत पर्यंत जानने ।' तहां अनंत भागवृद्धि युक्त स्थाननि विर्षे अंत का जो स्थाव, तीहि विष जघन्य तौ ऊपरि स्थापना । साके नीचें नीनं सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण प्रक्षेपक स्थापने । एक घाटि सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का एक बार संकलन धनमात्र प्रक्षेपकप्रक्षेपक स्थापने । दोय घाटि सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का दोय बार संकलन धनमात्र पिशुलि स्थापने । तीन धार्टि सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग का तीन बार संकलन धनमात्र पिशुलिपिशुलि स्थापने । च्यारि घाटि सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का, च्यारि बार संकलन धनमात्र चूरिग स्थापने। पांच घाटि सच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का पांच बार संकलन धनमात्र चूणिचूरिण स्थापने । याही प्रकार नीचें नीचें चूणिचूणि छह आदि घाटि, सूच्यगुल का असंख्यातवां भाग का छह आदि बार संकलन धनमात्र स्थापने। तहां द्विचरम चूरिगणि दोय का दोय पाटि सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग बार संकलन धनमात्र स्थापन करने । बहुरि अंत का चूणिचूरिंग एक का एक घाटि सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग बार संकलन धनमात्र स्थापन करना । परमार्थ ते अंत चूणिचूगि का संकलन धन नाही है; जाते द्वितीयादि स्थान का अभाव है. 1 . याही जायगा (एक ही जायया) अंत चूरिण चूरिण का स्थापन करना । अॅसें वृद्धि का अनुक्रम जानना । बहुरि इहाँ षट्स्थान प्रकरण विर्षे अनंत. भागवृद्धि युक्त स्थाननि के कहे जे भेद, लिनि विर्षे सर्वत्र प्रक्षेपक तो गच्छमात्र है; जेथवा भेद होइ तितने तहां प्रक्षेपक स्थापने; तातै मुगम है। . . .. . बहुरि प्रक्षेपकप्रक्षेपक श्रादिकनि का प्रमाण एक बार, दोय बार आदि संकलन धन का विधान जाने बिना जान्या न जाय; तातै सो संकलन धन का विधान कहिए हैं -
जितने का संकलन धन का होय, तितनी जायगा जैसे अंक स्थापि, जोडने । जैसे छठा स्थान विर्षे दोय घाटि गच्छ का संकलन धन कहा, तहां च्यारि जायगा या प्रकार अंक स्थापि, जोडने । कैसे अंक स्थापि जोडिये ? सो कहिये हैं जितने का
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सभ्यज्ञानवन्द्रिका भावारीका
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करना होय, तितनी जायगा एक आदि एक एक बधता अंक मांडि, जो., एक बार संकलन धन हो है । बहुरि एक बार संकलन धन विधान विर्षे जो पहिले अंक लिख्या • था, सोई इहां दोय बार संकलनं विर्ष पहिले लिखिए। पर उहां एक बार संकलन
का दूसरा स्थान विर्षे जो अंक था, ताकौं याका पहिला स्थान विर्षे जोडे, जो प्रमाण होई, सों दूसरा स्थान वि लिखिये । पर उहां तीसरा स्थान विर्षे जो अंक था. ताकौ याका दूसरा स्थान विर्षे जोडें; जो होइ, सो तीसरा स्थान विर्षे लिखिये । असे क्रमते लिखि, जोडे, दोय बार संकलन धन हो है । बहुरि इस दोय बार संकलन धन विषं जो पहिले अंक लिख्या; सोई इहां लिखिये । पर इस प्रथम स्थान में दोय बार संकलन का दूसरा स्थान का अंक जोडै; दूसरा स्थान होई । याम बाका तीसरे स्थान का अंक जोडें, याका तीसरा स्थान होइ । असे क्रम तें जितने का करना होइ, तितना जायगा लिखि जोडे । तीन बार संकलन धन होइ । याही प्रकार च्यारि बार प्रादि संकलन धनका विधान जानना ।।
इहां उदाहरण कहिये है। जैसे पर्यायसमास का छठा भेद विर्ष पांच का एक बार संकलन (धन) करना । तहां पांच जायगा क्रम ते एक, दोय, तीन, च्यारि, पांच का अंक मांडि, जो; पंद्रह होइ । सो इतने प्रक्षेपकप्रक्षेपक जानना । बहुरि च्यारि का दोय बार संकलन (धन) करना । तहा च्यारि जायगा क्रम तें एक, तीन, छह, दश मांडि जो वीस होइ; सो इतने इतने पिशुलि जानने । बहुरि तीन का तीन बार संकलन (धन) करना तहां तीन जायगा क्रम से एक, च्यारि, दश मांडि जोडे, पंद्रह होइ; सो इतने पिशुलिपिशुलि जानने । बहुरि दोय का च्यारि बार संकलन करना । तहां दोय जायगा एक, पांच, मांडि जोडे, छह होइ । सो इतने चूणि जानने । बहुरि एक का पांच जायगा संकलन (धन) करना तहाँ एक जायगा एक ही है; तातें ये चूणिचूणि एक ही जानना । जैसे ही अन्यत्र भी जानना । अब जैसे ये अंक मांडि जोडें, एक बार संकलनादि विष जो प्रमाण होइ, ताके ल्यावने कौं करगसूत्र कहिये है ।
'व्येकपयोत्तरघासः सरूपयारोद्धृतो मुखेन युतः ।
रूपाधिकारांताप्तपदाधकहतो वित्तं ॥१॥ ::. जितने का संकलनःधन करना होइ, तिस प्रमाण इहां गच्छ जानना । तामैं एक घटाइ, अवशेषः कौं उत्तर जो क्रम से जितनी जितनी बार वधता संकलन का
LLAHABADI
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ROHIBHARA.
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हो, तर गुणिए, जो प्रमाण होइ, तार्कों जितनी बार संकलन कारें, तामें एक जोड, जो प्रमाण होइ, ताका भांग दीजिए, जो लब्ध होई, तामें मुख जो पहिला स्थान का प्रमाण सो जोड़िए; जो प्रमाण होइ, ara जितनी बार संकलन का होई तितनी जायगा गच्छ तें लगाइ, एक एक बंधता अंक मांडि, परस्पर गुण, जो प्रमाण होइ, सो तौ भाज्य । पर एक सैं लगाई एक एक बघता अंक मांडि, परस्पर गुरौं, जो प्रमाण होइ, सो भागहार । तहां भाज्य कौं भागहार का भांग दीएं, जो लब्धराशि होइ, ताकरि गरिए, असें करतें समस्त विवक्षित बार संकलन वन आ है ।
समच्छेद करि मिलाएं,
। सो तामें एक प्रावि
हां उदाहरण कहिए है - जैसे छठा पर्यासमास का भेद विषै च्यारि घाटि गच्छ का जो दोय, ताका व्यारि बार संकलन धनमात्र चूणि कहिए । सो इहाँ गच्छ दोय, तामें एक घटाएं, एक यार्कों एक बारादि संकलन धन रचना अपेक्षा दोय बार आदि संकलन की रचना उपजै है । सो एक एक बार बंधता संकलन भया, तातें उत्तर का प्रभाग एक, ताकरि गुरौं भी एक ही भया । याक इहां च्यारि बार संकलन कह्या; सो च्यारि में एक मिलाएं, पांच भया, तितिका भाग दीएं एक का पांचवां भाग भया । यामै मुख जो श्रादिका प्रमाण एक सो छह का पांचवां भाग भया । बहार इहां व्यारि बार ह्या एक एक बधता, च्यारि पर्यंत अंक मांड ( ११२/३/४ ) परस्पर गुरौं, चौबीस (२४) भये; सो भागहार, अर गच्छ दोय का प्रमाण तें लगाइ एक एक बता अंक मांडि सौं बोस ( १२० ) भाज्या, सो भाज्य की भागहार ताकरि पूर्वोक्त ग्रह का पांचवां भाग को गुण छह संकलन धन जानना । जैसे ही तीन का तीन बार घटाये दोय उत्तर, एक करि गुणै भी दोय, इहां अधिक बार प्रमाण च्यारि, ताका भाग दीये प्राधा, मैं मुख एक जोडे ड्योढ़ भया । बहुरि एक आदि बार प्रमाण पर्यंत एक एक अधिक अंक (१२/३ ) परस्पर गुर्णे, भागहार छह पर गच्छ आदि एक एक अधिक अंक ( ३|४|५) परस्पर गुणे, भाज्य साठि भाज्य की भागहार का भांग दीए, पाये दश इनिकरि पूर्वोक्त ड्योढ कौं गुणें, छठा भेद विषै तीन घाटि गच्छ का तीन बार संकलन धनमात्र पिशुलिपिशुलि पंद्रह हो है । असें सर्वत्र विवक्षित संकलन धन ल्यावने ।
(२।३२४४५) परस्पर गुरौं एक का भाग दीयें, लब्धिराशि पांच, भये । सोई दोय का व्यारि बार संकलन धन पीछे गच्छ तीन, एक तीन बार संकलन है । तातें एक
बहुरि संस्कृत टीकाकार केशव अपने अभिप्राय करि तिनि प्रक्षेपक प्रक्षेपका का प्रमाण ल्यावने निमित दोय गाथारूप करण सूत्र कहैं हैं
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सम्यानचन्द्रिका भाषा टीका 1
[ ४६७
तिरियपवे रूऊणे, तदिहेटिल्लसंकलगवारा ।
कोटधरणस्सारणयने, पभवं इणउड्ढपदसंखा ॥१॥ अनंत भागवृद्धि युक्त स्थाननि विर्ष जेथवां स्थान विवक्षित होइ, तीहि प्रमाण तिर्यग् गच्छ कहिये । तामै एक घटाएं, ताके नीचे संकलन बार का प्रमाण हो है।
इहां उदाहरण -- जैसे छठा स्थान विर्षे गच्छ का प्रमाण छह में एक घटाएं, ताके नीचें पांच संकलन बार हो है । प्रक्षेपक सम्बन्धी कोठा के नीचे एक बार, दोय बार, तीन, च्यारि बार, पांच बार, संकलन, प्रक्षेपकप्रक्षेपक आदि के एक एक कोठानि विर्ष संभव है; असे ही अन्यत्र जानना । बहुरि विवक्षित कोठानि का संकलन धन ल्यायने के अथि जेथवां भेद होइ, तीहि प्रमाण जो ऊर्ध्व गच्छ, तीहि विर्षे जेती बार विवक्षित संकलन होइ, तितना घटायें, अवशेष मात्र प्रभव कहिये आदि जानना।
तत्तोरूबहियकमे, गुरणमारा होति उड्ढयसछो ति ।
इगिरूवमादिस्योत्तरहारा होति पभवो ति ॥२॥ अर्थ - तिस प्रादि से लगाइ, एक-एक बघता ऊर्ध्वगच्छ का प्रमाण पर्यंत, अनुम करि विवक्षित के गुणकार होंहि । बहुरि तिनिके नीचें एक तें लगाइ, एक एक बधता, उलटा क्रम करि प्रभव जो प्रादि, ताका भी नीचा पर्यंत तिनिके भागहार होंहि । गुणकारनि कौं परस्पर गुण, जो प्रमाण होइ, ताकौं भागहारनि कौं परस्पर गुण, जो प्रमाण होइ, ताका भाग दीएं, जेता प्रमाण प्रावै, तितने तहां प्रक्षेपकप्रक्षेपक आदि संबंधी कोठा विर्षे वृद्धि का प्रमाण पावै है ।
.. इहां उदाहरण कहिए है - अनंत भागवृद्धि युक्त स्थान विर्षे विवक्षित छठा स्थान विर्षे एक घाटि तिर्यग्गच्छ प्रमाण एक बार श्रादि पांच संकलन स्थान हैं । तिनि वि च्यारि बार संकलन संबंधी कोठानि विषं प्रमाण ल्याइए है। विवक्षित संकलन बार च्यारि, तिनिका इहां छठा भेद विवक्षित है । तातै ऊर्ध्वगच्छ, छह, तामें घटाएं, अवशेष दोय रहे; सो आदि जानना। इस प्रादि दोय ते लगाइ, एक एक अधिक ऊर्ध्वगच्छ छह पर्यंत तो क्रम करि मुणकार होइ । अर तिनके नीचें उलटे क्रम करि आदि पर्यंत एक आदि एक एक अधिक भामहार होइ; सो इहां च्यारि बार
१.१ प्रति में संकलन संकलन शब्द है।
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गोष्मदसार जीवकाण्ड गाथा ३२६
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संकलन का कोठा विषं चरिण है । चरिण का प्रमाण जघन्य का पांच बार अनंत का भाग दीए, जो प्रमाण होइ सो तितना है । तिस प्रमाण के दोय, तीन, च्यारि, पांच, छह तो क्रम ते गुणकार होइ; पर पांच, च्यारि, तीन, दोय, एक भागहार होइ । तहां गुणकारनि करि चूणि कौं. गुणें भागहारनि का भाग दीएं, यथायोग्य अपवर्तन कीए, छह गुणां, चूणिमात्र तिस कोठा विर्षे प्रमाण प्राव है।
भावार्थ - असा जो दोय, तीन, च्यारि, पांच का गुणकार अर भागहार का तो अपवर्तन भया । छह कौं एक का भागहार रह्या, तात्तै छह गुणां चूणिमात्र तहां प्रमाण है। बहुरि असे ही अनंत भागवृद्धि युक्त अंत भेद विर्षे यह स्थान सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का जो प्रमाग तेथवां है । तातै तिर्यग्गच्छ सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागमात्र है । तामै एक घटाएं, अवशेष एक वार आदि संकलन के बार है । तिनिविर्षे विवक्षित च्यारि बार संकलन का कोठा विर्षे प्रमारंग ल्याइए है। विवक्षित संकलन बार च्यारि, ऊर्ध्वगच्छ सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग मात्र मैं स्यों घटाएं, अवशेष मात्र प्रादि है। यात एक एक बघता क्रम करि अर्ध्वगच्छ सूच्यंगुल का असंख्यातवां काम र्यत सौ गुणकार हो । घर उलट नाम करि एक प्रादि एक एक बधता पांच पर्यंत भागहार होइ, सो ज्यारि बार संकलन का कोठा विर्षे
रिंग है । ताते चूणि कौं तिनि गुणकारनि करि गुरणे भागहारनि का भाग दीएं, लब्धमात्र तिस कोठा विर्षे वृद्धि का प्रमाण है । इहां गुणकार भागहार समान नाही; तातै अपवर्तन होइ सकता नाहीं । इहां लब्धराशि का प्रमाण अवधिज्ञान गोचर जानना । बहुरि तिसही अनंत भागवृद्धि युक्त अंत का भेद विर्षे विवक्षित द्विचरम चूर्णिचरिण का दोय घाटि, सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग मात्र बार संकलन घन का प्रमाण ल्याइए है । इहां भी तिर्यग्गच्छ सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग मात्र है । तामै एक घटाएं, एक बार आदि संकलन के बार हो हैं। तहां विवक्षित संकलन बार दोय घाटि, सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागमात्र, सो ऊर्ध्वगच्छ सूच्यंगुल का असंख्यातवा भागमात्र मैं घटाएं, अवशेष दोय रहे; सो आदि जानना । इसते लगाई एक एक बधता ऊर्ध्वगच्छ पर्यंत मुणकार अनुक्रम करि हो है । पर एक आदि एक एक बधता अपने इष्ट बार का प्रमाण ते एक अधिक पर्यंत उलटे क्रम करि भागहार हो है । इहां दोय आदि एक घाटि सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग पर्यंत अंक गुणकार बा भागहार विर्षे समान है । तातें तिनिका अपवर्तन कीया । अवशेष सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का गुणकार रह्या । एक का भागहार रह्या । इहाँ इस कोठा
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सम्रानचन्द्रिका भाषाका
• विषे द्विचरम गिचूर्णि है; ताका प्रमाण जघन्य को सूच्यंगुल का असंख्यातवा भागमात्र बार भाग दीएं जो प्रमाण यावे, तितना जानना । याक पूर्वोक्त गुणकार करि गु एक का भाग दीएं, लिस कोठा संबंधी प्रमाण भाव है । बहुरि असे ही अंत का चूचूर्णि विषै संकलन है ही नाही; जाते अंत का चूचूिर्णि एक ही है। सो जघन्य को सूच्यंगुल का प्रसंख्यातवां भागमात्र बार अनंत का भाग दीएं अंत चूर्णि चूर्णि का प्रमाण हो है । तार्कों एक करि गुण भी तितना ही तिस कोठा विषै वृद्धि का प्रमाण जानना । वैसे सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागमात्र अनंतभाग वृद्धि युक्त स्थान होइ तब एक श्रसंख्यात भागवृद्धि युक्त स्थान हो है । इहां ऊर्वक जो अनंत भागवृद्धि युक्त अंत स्थान, ताक चतुरंक जो श्रसंख्यात का भाग दीयें, जो एक भाग का प्रमाण पावै, तितनां तिस ही पूर्वस्थान विषै जोड्या, सो इहां जघन्य ज्ञान साधक कहिये कि अधिक भया । अंकसंदृष्टि का दृष्टांत विषे स्तोक प्रमाण है । तातें जघन्य तौ गुणकार भया । यथार्थ विषै महत् प्रमाण है तातें असें वृद्धि होते भी साधिपना ही भया है । अब जैसे जघन्य ज्ञान कौं मूल स्थापि, जैसे अनंतभागवृद्धिस्थान प्रक्षेपकादि विशेष लीये कहे थे। तैसे इहांतें आगे इस साधिक जघन्य कौं मूल स्थापि, अनंत भाग वृद्धि युक्त स्थान सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग मात्र जानने । जैसे ही पूर्वोक्त यन्त्र द्वार करि जैसे अनुक्रम दिखाया, तैसें अनंत गुणवृद्धि पर्यंत क्रम जानना । तह भाग वृद्धि विधें प्रक्षेपकादिक वृद्धि का विशेष जानना सो जिस स्थान हैं आगे भागवृद्धि होइ; ताकौं मूल स्थापन करना । तार्कों एक बार जिस प्रमाण की भागवृद्धि होइ, ताका एक बार भाग दीए, प्रक्षेपक हो है । दोय वार भाग दियें प्रक्षेपकप्रक्षेपक हो है । तीन वार आदि
भाग दीयें, पिशुलि आदिक
हो है; जैसा विधान जानना । जैसे सर्वत्र षट्स्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम जानना ।
श्राविमाणय, पंच य बड्ढी हवंति सेसेसु ।
छबडोओ होंति हु, सरिता सव्वत्य पदसंखा ॥ ३२७॥
प्रस्थाने व पंच व वृद्धयो भवंति शेषेषु ।
षड्बुद्धयो भवति हि सदा सर्वत्र पदसंख्या ॥ ३२७॥
टीका इस पर्यायसमास ज्ञान विषै प्रसंख्यात लोक मात्र बार षट्स्थान संभव है । तिनिविषे पहिली बार तो पांच स्थान पतितवृद्धि हो है । जातें जो पीछे हो पीछे अनंतगुण वृद्धिरूप भेद भया, ताकी दूसरी वार षट्स्थानपलित वृद्धि का
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[ गोम्पटसार जीवकाल्ड यायः ३२८
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ग्रादि स्थान कह्या है । बहुरि जैसे पहिले षट्स्थानपतित वृद्धि का क्रम कह्या, तार्को पूर्ण करि दुसरा तसे हो फेरि षट्स्थानपतित वृद्धि होइ असे ही तीसरा होइ । इत्यादि असंख्यात लोक वार षट्स्थान हो है । तिनिविर्षे छहौ वृद्धि पाइये है । अनंत गुणवृद्धि रूप तो पहिला ही स्थान होइ । पीछे क्रमत पांच वृद्धि, अंत की अनंत भागवृद्धि पर्यंत होइ । बहुरि जो अनंत मागादिक सर्व वृद्धि कहीं, तिन सबनि का स्थान प्रमाण सदृश सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग मात्र जानना । तातें जो वृद्धि हो है; सो अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण बार हो है ।।
छठाणाणं प्रादी, अळंक होदि चरिममव्वंकं । जम्हा जहण्णरणाणं, अट्ठकं होदि जिणदिळें ॥३२॥
घटस्थानानामादिरप्टोकं भवति चरममुर्वकम् ।
यस्माज्जघन्यज्ञानमष्टांकं भवति जिनह (दि)ष्टं ।।३२८॥ टीका - षट्स्थानपतित वृद्धि रूप स्थाननि विर्षे श्रष्टांक कहिये; अनंतगुणवृद्धि सो आदि है । बहुरि उर्वकं कहिये अनंत भागवृद्धि; सो अंतस्थान है ।
भावार्थ - पूर्वं जो यंत्रद्वार करि वृद्धि का विधान कह्या, सो सर्व विधान होइ निवरै, तब एक बार षट्स्थानपतित वृद्धि भई कहिए । विशेष इतना जो नवमी पंकतिका का नवमां कोठा वि. दोय उकार पर एक पाठ का अंक लिख्या है। सो ताका अर्थ यहु जो सूध्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण अनंत भाग वृद्धि होइ करि एक वार अनंतगुण वृद्धि हो है । सो यह अनंतगुण वृद्धि रूप जो भेद सो नवीन पटस्थानपतित वृद्धि का प्रारम्भ कीया। ताका ग्रादि का स्थान जानना । इसते लगाइ प्रथम कोठादिक संबंधी जो रचना कही थी, तीहि अनुक्रमतै षट्स्थानपतित वृद्धि हो है । तहां उस ही नवमी पंकति का नवमां कोठा विर्षे आठ का अंक के पहिली जो उकार लिखा था, ताका अर्थ यह जो सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग मात्र बार अनंत भागवृद्धि भई, तिनिविर्षे अंत की अनंत भागधुद्धि लीएं, जो स्थान सोई; इस षट्स्थानपतित वृद्धि का अंत स्थान जानना । याहीत षट्स्थान पतित वृद्धि का आदि स्थान अष्टांक कह्या पर अंतस्थानक उर्वक कह्या है । बहुरि पहिली बार अनंतगुण वृद्धि बिना पंच वृद्धि कही, अर पीछे छहौ वृद्धि कही हैं।
यहां प्रश्न - जो पहिली बार आदि स्थान जघन्य ज्ञान है । ताकी अष्टांक रूप अनंत मुणवृद्धि संभवै भी है कि नाही ?
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सम्मानचन्द्रिका भरपाटीका )
ताका समाधान - जो द्विरूप वर्ग धारा विर्षे इस जघन्य ज्ञान तै पहिला स्थान एक जीव के अगुरुलघुगुणनि के अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण है; तातें जयन्यज्ञान अनंतगुरणा है । तातै पहिलीबार भी प्रादि स्थान जो जघन्यज्ञान, तीहि विर्षे अनंत गुणवृद्धि अन्य अपेक्षा संभव है । बहुरि ज्ञान ही की अपेक्षा संभव नाही; तातै पहिली बार पंच वृद्धि ही कही संभव है। असैं जिनदेवने कहा है; वा देल्या है । बहुरि अंत का षट्स्थान विष भी आदि अष्टांक, अंत ऊर्वक हैं । तातें प्रागै अष्टांक जो अनंत गुगावृद्धिरूप स्थान, मो अर्थ अक्षर ज्ञान है; सो आगे कहेंगे; सो जानना।
एक्कं खलु अट्ठक, सत्तंक कंडयं तदो हेट्ठा । रूवहियकंडएण य, गुणिदकमा जाव उध्वंकं ॥३२॥
एक खलु अष्टांक सप्ताफ कांडकं ततोऽधः ।
रूपाधिककांडकेन च, गुरिगतमा यावदुर्वकम् ।।३२९।। टीका - एक बार जो षट्स्थान होइ, तीहि विर्षे अष्टाक कहिए अनंत गुणवृद्धि सो तो एकबार ही हो है । जातं 'अंगुल असंख भागं' इत्यादि सूत्र अनुसार अष्टांक के पर कोई वृद्धि नाहीं । तातै बाके पूर्वपना का अभावतें बार बार पलटने का अभाव है । बहुरि सप्तांक कहिए असंख्यात गुणवृद्धि; सो कांडकं कहिए सूच्यंगुल का असं. ख्यातवां भागमात्र हो है । बहुरि ताके नीचें षडंक कहिए संख्यात गुणवृद्धि, पंचक कहिए संख्यात भाग वृद्धि, चतुरंक काहिए असंख्यात भागवृद्धि, ऊर्वकं कहिए अनंतभागवृद्धि, ए च्यार्यो एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग करि गुणित अनुक्रम तें जाननीं । इहां यावत् अर्वकं इस क्चन करि उर्वक पर्यंत अनुक्रम की मर्यादा कही है । सोई कहिए है - असंख्यात गुणवृद्धि का प्रमाण सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग. प्रमाण कहा है । ताकौं एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग करि गुण, जो परिमाण होइ, तितनी बार संख्यात गुणदृद्धि हो है । बहुरि याकौं भो एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग करि गुण जो परिमारण होइ तितनी बार संख्यात भागवृद्धि हो है । बहुरि याकौं भी एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग करि मुरणे जो परिमाण होइ तितनी बार असंख्यात भागवृद्धि हो है । बहुरि याकौं भी एक अधिक सूच्चंगुल का असंख्यातदां भाम करि गुण जो परिणाम होइ तितनी बार अनंत
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[ गोम्मटसर फाण्ट गाथा ३३०.
भागवृद्धि हो है । जैसे एक बार षट्स्थान पतित वृद्धि होने विषै पूर्वोक्त प्रमाण लीएं एक एक वृद्धि हो है । दूसरी बार आदि विषै पहिले अष्टांक हो है । तार्के श्रागे ऊर्वक हो है । तातें एक ही ग्रष्टांक है; पैसा कया है ।
सव्वसमासो रियमा, ख्वाहियकंडयस्य बग्गस्स । द लिजिह रिद्दिट्ठ ॥ ३३० ॥
सर्वसमासो नियमात् रूपाधिककांडकस्य वर्गस्य । वृंदस्य च संवर्गो, भवतीति जिननिर्दिष्टम् ॥३३०० टीका पूर्व जो छहाँ वृद्धिनि का परिमारण कह्या तीहिं सर्व का जोड दीएं, रूपाधिक कडक कहिये । एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग ताका वर्ग श्रर घन, ताका संवर्ग कीएं संते, जो प्रमाण होइ, तितनां हो है । अँसा जिनदेवनि कहा है।
भावार्थ -- एक अधिक सूच्यंगुल का प्रसंख्यातवां भाग की दोय जायगा मांडि परस्पर गुणन कीये, जो परिमाण होय, सो तो रूपाधिक कांडक का वर्ग कहिए । बहुरि एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग कौं तीन जायया मांडि, परस्पर गुणन कीएं, जो परिमाण होइ, ताक रूपाधिक कांडक का घन कहिए। बहुरि इस वर्ग को पर पद को परस्पर गुगन कीएं, जो परिमाण होइ, अथवा एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग की पांच जायगा मांडि, परस्पर गुणन कीएं, जो परिमारण होइ, तितनी बार एक षट्स्थान [ पतित ] | वृद्धि विषे अनंत भागादिक वृद्धि हो है । जैसे अंक संदृष्टि करि पूर्वे यंत्र विष आठ का अंक एक बार लिख्या, अर सात का अंक दो बार लिख्या; मिलि तीन भए । बहुरि छह का अंक छह बार लिख्या;. मिलि तीन का वर्ग नव भया । बहुरि पंच का अंक अठारह बार लिख्या, मिलि तीन का धन सत्ताईस भया । बहुरि च्यारि का अंक चौवन बार लिख्या, मिलि तीन करि गुणत तीन का घन इक्यासी भया । बहुरि ऊर्वक एक सौ बासठ बार लिख्या, मिलिकरि तीन का वर्ग करि गुणित, तीन का घन दोय से तियालीस हुवा । तैसे ही अनंतगुणवृद्धि एक बार विषै कांडकमात्र असंख्यात गुणवृद्धि जोड़ें, एक अधिक ही कडक हो है । बहुरि तह अपने प्रमाण एक रूप के घर संख्यात गुणवृद्धि का कांडक प्रमाण के समान गुण्यपरणों देखि, जोड़ें, रूपाधिक कांडक का वर्ग हो है । बहुरि तिहि
१. 'पति' शब्द किसी प्रति में नहीं मिलता।
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सम्यग्यामचन्द्रिका भावाटीका
अपने प्रमाण एक के अर संख्यात भागवृद्धि का कांडक प्रमाण के समान गुण्यपणौं देखि, जोडे, रूपाधिक कांडक का धन हो है । बहुरि तिहिं अपने प्रमाण एक के पर असंख्यात भागवृद्धि का कांडक प्रमाण के समान गुण्यपनौं देखि,जोर्ड, रूपाधिक काडक का (वर्गकरि) १ गुरिणत रूपाधिक कांडक का घन हो हैं । बहुरि तोहि अपने प्रमाण एक के अर अनंत भागवृद्धि का प्रमाण के समान गुण्य पनौं देखि जोडे, रूपाधिक कांडक का वर्ग करि गुरिणत रूपाधिक कांडक का घन' प्रमाण हो है । इहां अंकसंदृष्टि विर्षे कांडक का प्रमाण दोय जानना । यथार्थ विष सूच्यगुल का असंख्यातवा भागमात्र जानना । बहुरि अंकसंदृष्टि विर्षे जैसै अष्टांक, सप्तांक मिलि, तीन भए । बहुरि इस प्रमाण लीएं एक तो यहु अर कांडकमात्र दोय षडंक मिलि, तीन भए । ए तीन तो गुणकार पर पूर्वोक्त तीन गुण्य सो गुणकार करि गुण्य कौ गुण, तीन का वर्ग भया । तैसे ही अनंत गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि की मिल्या हूवा अपना प्रमाण रूपाधिक कांडक, तिहिं मात्र एक तो यहु अर कांडकमात्र संख्यात गुणवृद्धि, सो मिलि रूपाधिक कांडकमात्र गुणकार हूवा । याकरि पूर्वोक्त रूपाधिक कांडकमात्र गुण्य कौं गुणे, रूपाधिक कांडक का बर्ग हो है; असे ही अन्य विषं भी जानि लेना । असें जो यह सूच्यगुल का असंख्यातवां भाग का वर्ग करि ताहीका धन की गुण, जो प्रमाण हो है; सो असंख्यात धनांगुलमात्र हो है । वा संख्यात धनांगुलमात्र हो है । वा धनांगुलमात्र हो है। वा घनांगुल के संख्यातवें भाग मात्र हो है । वा धनांगुल के असंख्यातवें भागमात्र हो है । सो हम जान्या नाहीं; सर्वजदेव यथार्थ जान्या है; सो प्रमाण है। .
उक्कस्ससंखमेतं, तत्ति चउत्थेक्कवालछप्पण्णं । सत्तदसमं च भाग, गंतूण य लद्धिअक्खरं दुगुरणं ॥३३१॥
उत्कृष्ट संख्यासमात्र; तत्त्रिचतुर्थंकचत्वारिंशत्षट्पंचाशम् ।
सप्तदशमं च भाग; गत्वा च लब्ध्यक्षरं द्विगुणम् ॥३३॥ - टीका - एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यात भाग करि गुण्या हवा अंगुल का असंख्यातवा भाग प्रमाण ती अनंत भागवृद्धि स्थान होई । अर अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण असंख्यात भागवृद्धि स्थान होइ तब एक बार संख्यात भागबृद्धि हो है । तहाँ पूर्ववृद्धि होते जो साधिक जघन्यज्ञान भया, ताकी एक अधिक
१. "वर्गकरि' शब्द किसी प्रति में नहीं मिलता।
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गोम्मटसार जीवकाश गाथा ३१
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उत्कृष्ट संख्यात करि गुणिये अर उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीजिये, तितने मात्र भया । बहरि प्रागै पूर्वोक्त अनुक्रम लीये अनंत असंख्यात भागवृद्धि सहित संख्यात भागवृद्धि
के स्थान उत्कृष्ट संख्यात मात्र होइ । तहां प्रक्षेपक संबंधी वृद्धि का प्रमाण जोडे, .. लब्ध्यक्षर जो सर्व तैं जघन्य पर्याय नामा ज्ञान, सो साधिक द्विगुणां हो है । कैसं ? सो कहिये है -
पूर्ववृद्धि भयें जो साधिक जघन्यज्ञान भया, सो मूल स्थाप्या ! बहुरि इहां संख्यात भागवृद्धि की विवक्षा है । ताते याको उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीयें, प्रक्षेपक हो है । बहुरि मच्छमात्र प्रक्षेपक वृद्धि होइ, सो इहाँ उत्कृष्ट संख्यात. मात्र संख्यातवृद्धि के स्थान भये हैं। तातै उत्कृष्ट संख्यातमात्र प्रक्षेपक बधावने । तहाँ मूल साधिक जघन्य ज्ञान तो जुदा राखना । पर जिस माफिEEL मार हौं डलष्ट संख्यात का भाग दीयें, प्रक्षेपक हो है। पर इहां उत्कृष्ट संख्यातमात्र प्रक्षेपक है । ताते उत्कृष्ट संख्यात ही का गुणकार भया, सो मुणकार भागहार का अपवर्तन कीये, साधिक जघन्य रह्या । याकौं जुदा राख्या हूबा साधिक जघन्य विर्षे जोडें, जघन्यज्ञान साधिक दुणां हो है । बहुरि 'तत्ति चउत्थं' कहिये पूर्वोक्त संख्यात भागवृद्धि संयुक्त उत्कृष्ट संख्यातमात्र स्थान, तिनिकौं च्यारि का भाग देइ, तिन विर्षे तीन भाग प्रमाण स्थान भये । तहां प्रक्षेपक अर प्रक्षेपक - प्रक्षेपक, इनि दोऊ वृद्धिनि को साधिक जधन्य विर्षे जोड, लब्ध्यक्षर ज्ञान साधिक दूणां हो है । कैसे सो कहिये है – इहाँ पूर्ववृद्धि भये जो साधिक जघन्य ज्ञान भया, ताकौं दोय बार उत्कृष्ट संख्यात का भाग दियें, प्रक्षेपक - प्रक्षेपक हो है । सो एक धाटि गच्छ का एक बार संकलन धनमात्र प्रक्षेपक - प्रक्षेपकनि की वृद्धि इहां करनी । तहां पूर्वोक्त केशववणी करि कह्या करण सूत्र के अनुसार तिस प्रक्षेपक • प्रक्षेपक की एक धादि उत्कृष्ट संख्यात का तीन चौथा भाग करि अर उत्कृष्ट संख्यात का तीन चौथा भाग करि गणन करना । पर दोय का एक का भाग देना । साधिक जघन्य ज्ञान की सहनानी जैसी है । ज असे कीएं साधिक जघन्य कौं एक शादि, तीन गणां उत्कृष्ट संख्यात का पर तीन गुणा उत्कृष्ट संख्यात का गुणकार भया । पर दोय बार उत्कृष्ट संख्यातका अर च्यारि, दोय, च्यारि, एक का भागहार भया । तहां एक घाटि संबंधी ऋणराशि साधिक जघन्य कौं तीन का गुणकार पर उत्कृष्ट संख्याल का अर बत्तीस का भागहार कीएं हो है। ताको जुदा राखि, अवशेष का अपवर्तन कोएं, साधिक जघन्य कौं नब का गुणकार, बत्तीस का भागहार मात्र प्रमाण भया । इहाँ दोय बार उत्कृष्ट संख्यात का गुणकार
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सभ्यरसानचरितका भाषाटीका ]
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पर भामहार का अपवर्तन कीया । गुणकार तीन तीन परस्पर गुणे, नव का गुणकार भया ! च्यारि, दोय, च्यारि, एक भागहारनि कौं परस्पर गुणों, बत्तीस का भागहार भया । जातें दोय, तीन, प्रादि राशि गुणकार भागहार विष होय । तहां परस्पर गुणे, जेता प्रमाण होइ, तितना गुणकार वा भागहार तहां जानना । जैसे ही अन्यत्र भी समझना । बहुरि यामैं एक गुणकार साधिक जघन्य का बत्तीसवां भागमात्र है । तार्को जुदा स्थापि, अवशेष साधिक जघन्य कौं आठ का गुणकार, बत्तीस का भागहार रहा, ताका अपवर्तन कोएं, साधिक जघन्य का चौथा भाग भया । बहुरि प्रक्षेपक गच्छ प्रमाण है; सो साधिक जघन्य कौं एक बार उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीएं प्रक्षेपक होइ । ताकी उत्कृष्ट संख्यास का तीन चौथा भाग करि गुणना; तहां उत्कृष्ट संख्यात गृणकार भागहार का अपवर्तन कीएं, साधिक जघन्य का तीन चौथा भागमात्र प्रमाण भया । यामैं पूर्वोक्त एक चौथा भाग जोडें, साधिक जघन्य मात्र वृद्धि का प्रमाण भया । यामें मूल साधिक जघन्य जोडें, लब्ध्यक्षर दूरणा हो है । इहां प्रक्षेपक - प्रक्षेपक संबंधी ऋणराशि धनराशि ते संख्यात गुणा धाटि है । तातें साधिक अधन्य का बत्तीसवां भागमात्र घनराशिविर्षे ऋणराशि घटावने कौं किचित् ऊन करि अवशेष पूर्योक्त विष जोडे, साधिक दूरणा हो है। बहुरि 'एक्कदालछप्पण्णं' कहिये, पूर्वोक्त संख्यात भागवृद्धि संयुक्त उस्कृष्ट संख्यात मात्र स्थाननि कौं छप्पन का भाग देइ, तिनि विर्षे इकतालीस भागमात्र स्थान भये । तहां प्रक्षेपक अर प्रक्षेपक - प्रक्षेपक संबंधी वृद्धि जोडे, लब्ध्यक्षर दुणा हो है । कैसे ?
सो कहिये है - साधिक जघन्य की उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीएं, प्रक्षेपक होइ. सो प्रक्षेपक गच्छमात्र है । तात याकौं उत्कृष्ट संख्यात इकतालीस छप्पनयां भाग करि गुण, उत्कृष्ट संख्यात का अपवर्तन कीएं, साधिक जघन्य कौं इकतालीस का गुणकार छप्पन भागहार हो है । बहुरि प्रक्षेपक - प्रक्षेपक एक घाटि गच्छ का एक बार संकलन धनमात्र है। सो पूर्वोक्त सूत्र के अनुसारि साधिक जघन्य कौं दोय बार उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीएं प्रक्षेपक प्रक्षेपक होइ । ताकौं एक घाटि इकतालीस गुणां उत्कृष्ट संख्यात अर इकतालीस गुरगां उत्कृष्ट संख्यात का गुणकार पर छप्पन, दोय छप्पन, एक का भागहार भया । इहां एक घाटि संबन्धी ऋण साधिक जघन्य की इकतालीस का गुणकार पर उत्कृष्ट संख्यात एक सौ बारा छप्पन का भागहार मात्र जुदा स्थापि, अवशेष विर्षे दोय बार उत्कृष्ट संख्यात का अपवर्तन कोएं, साधिक जघन्य कौं सोला से इक्यासी का गुरणाकार अर
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गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३३१
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एक सौ बारा गुरगा छप्पन का भागहार हो है । इहां गुणाकार विर्षे इकतालीस इकतालीस परस्पर गुरणे, सोलह से इक्याती भये हैं । बहुरि भागहार विर्षे छप्पन कौं दोय करि गुणं, एक सी बारह भये । अगले छप्पन कौं एक करि गुण, छप्पन भये जानने । बहुरि इहां मुगाकार में एक दुदा मापिये, ताना साधिक जघन्य कौं एक सौ बारह गुणा छप्पन का भागहार मात्र घन जानना । अवशेष साधिक जघन्य कौं सोलह से अस्सी का गुणकार एक सौ बारा गुणां छप्पन का भागहार रह्या । तहाँ एक सौ बारह करि अपवर्तन कीयें साधिक जघन्य कौं पंद्रह का गुणकार छप्पन का भागहार भया । यामें प्रक्षेपक संबंधी प्रमाण जघन्य कौं इकतालीस का गुणकार अर छप्पन का भागहार मात्र मिलाएं अपवर्तन कोए, साधिक जघन्य मात्र वद्धि का प्रमाण भया । याम मूल साधिक जघन्य जोडे, लब्ध्यक्षर ज्ञान दूणां हो है । इहां प्रक्षेपक - प्रक्षेपक संबंधी पूर्वोक्त धन से ऋण संख्यात गुणा घाटि है । तातें किंचित् ऊन कीया, जो धन राशि, ताकौं अधिक कोए साधिक दूणा हो. हैं । बहुरि 'सत्त दशमं च भाग वा कहिए अथवा संख्यात (भाग) वृद्धि संयुक्त उत्कृष्ट संख्यात मात्र स्थानकनि कौं दश का भाग दीजिये । तहां सात भाग मात्र स्थान भए । तहां प्रक्षे. पंक पर प्रक्षेपक - प्रक्षेपक पर पिशुलि नामा तीन वृद्धि जोडें, साधिक जघन्य ज्ञान दूणा हो है । कैसे ?
सो कहिए है - साधिक जघन्य को एक बार उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीये प्रक्षेपक हो है । सो गच्छ मात्र है । ताते याकौं उत्कृष्ट संख्यात का सात दशवां भाग करि गुरणे, उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीएं, साधिक जघन्य कौं सात का गुणकार अर दश का भागहार हो है । बहुरि प्रक्षेपक - प्रक्षेपक एक घाटि मच्छ का एक बार संकलन धनमात्र हो है । सो साधिक जघन्य कौँ दोय बार उत्कृष्ट संख्यात को भाग दीएं, प्रक्षेपक - प्रक्षेपक होइ, ताकौं पूर्व सूत्र के अनुसारि एक घाटि सात गुणा उत्कृष्ट संख्यात का अर सात गुणा उत्कृष्ट संख्यात का तौ गुणकार अर दश दोय पर दश एक का भागहार भया । बहुरि पिशुलि दोय घाटि गच्छ का पर दोय बार संकलन धनमात्र हो है । सो साधिक जघन्य को तीन बार उस्कृष्ट संख्यात का भाय दीएं पिशुलि हो है । ताकौं पूर्व सूत्र के अनुसारि दोय धाटि सात गुणा उत्कृष्ट संख्यात अर एक घाटि सात गुणा उत्कृष्ट संख्यात सातगुणा उत्कृष्ट संख्यात का तो सुरराकार पर दश तीन, दश दोय, दश एक का भागहार भया । इनि विर्षे पिलि का गुणकार विर्षे दोय घटाया था, तीहिं संबंधी प्रथम ऋण का प्रमाण साधिक
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सम्यग्ज्ञानममिका भाषाटोकर ]
[ ४७७.
जघन्य कौं दोय का अर एक घाटि सात गुणा उत्कृष्ट संख्यात का अर सात गुणा उत्कृष्ट संख्यात का गुणकार बहुरि दोय बार? उत्कृष्ट संख्यात का पर छह का पर तीन बार दश का भागहार कीएं हो है । ताकी जुदा स्थापि, अवशेष का अपवर्तन कीएं, साधिक जघन्य कौं एक घाटि सात गुणा उत्कृष्ट संख्यात का अर गुरणचास का तो गपकार भया । बहरि उत्कृष्ट संख्यात छह हजार का भागहार हो है। इहां गुणकार विर्षे एक घाटि है; तोहि संबंधी द्वितीय ऋण का प्रमाण साधिक जघम्य को गुणचास का गुणकार बहुरि उत्कृष्ट संख्यात पर छह हजार का भागहार कीएं हो है । ताकौं जुदा स्थापि, अवशेष का अपवर्तन कोएं, साधिक जघन्य की तीन सैं तियालीस का गुणकार पर छह हजार का भागहार हो है । इहां गुणकार मैं तेरह घटाइ, जुदा स्थापिए। तहां साधिक जघन्य की तेरह का गुणकार पर छह हजार का भागहार जानना । अवशेष साधिक जघन्य कौं तीन से तीस का गुरगकार प्रर. छह हजार का भागहार रह्या । तहां तीस करि अपवर्तन कीएं साधिक जघन्य कौं ग्यारह का गुणकार, दश गुणा बीस का भागहार भया; सो एक जायगा स्थापिए। बहुरि इहां तेरह गुणकार मैं स्यों काढि जुदे स्थापि थे, तीहि संबंधी प्रमाण से प्रथम, द्वितीय ऋण संबंधी प्रमाण संख्यातगुणा घाटि है। तात किंचित् ऊन करि साधिक जघन्य किंचिदून तेरह गुणा कौं छह हजार का भाग दीएं, इतना घन अवशेष रथा, सो जुदा स्थापिए । बहुरि प्रक्षेपक - प्रक्षेपक संबंधी गुणकार विर्षे एक घटाया था, तिहि संबंधी ऋगा का प्रमाण साधिक जघन्य कौं सात का गुणकार, बहुरि उत्कृष्ट संख्यात भर दोय से का भागहार कीएं हो है । ताकी जुदा स्थापि, अवशेष पूर्वोक्त प्रमाण. साधिक जघन्य की उत्कृष्ट संख्यात का मुरणकार पर दोय बार सात का गुणकार, अर उत्कृष्ट संख्यात दश दोय दश एक का भागहार, ताका अपवर्तन वा परस्पर गुणन कीएं, साधिक जघन्य कौं गुणचास का गुणकार दोय से का भागहार भया । यामै पूर्वोक्त पिशुलि संबंधी ग्यारह गुणकार मिलाएं, साधिक जचन्य की साठि का गुणकार दोय से का भागहार भया । इहां बीस करि अपवर्तन कीएं, साधिक जघन्य कौं तीन का गुणकार, दश का भागहार भया । याम प्रक्षेपक संबंधी प्रमाण्ड साधिक जघन्य कौं सात का गुणकार, दश का भागहार जोडे, दश करि अपवर्तन कीएं, वृद्धि का प्रमाण साधिक जघन्य हो है । यामैं मूल साधिक जघन्य जोडें, लब्ध्यक्षर दूणा हो है । बहुरि पूर्व पिशुलि संबंधी ऋण रहित धन विर्षे किचिदून तेरह
१. ब, में प्रति में 'तीनवार' मिलता है ।
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[ गोम्मसार औषकापड गामा ३३२ का गुणकार था; तिस विधं प्रक्षेपक - प्रक्षेपक संबंधी ऋरण संख्यात गुणा घाटि है । ताकी घटाक्ने के अर्थि बहुरि किचित् ऊन कीएं, जो साधिक जघन्य कौं दोय बार किंचिदून तेरह का गुणकार पर छह हजार का भागहार भया । सो इतना प्रमास पूर्वोक्त दूख लब्ध्या रवि जो साभिक दूसा हो है । असें प्रथम ही संख्यात भागवृद्धि युक्त जे स्थान, तिनि विर्षे उत्कृष्ट संख्यात मात्र स्थाननि का सात दशयां भाग प्रमाण स्थान पिशुलि वृद्धि पर्यंत भए लब्ध्यक्षर ज्ञान दूणा हो है । बहुरि लिसही का इकतालीस छप्पनवां भाग प्रमाण स्थान प्रक्षेपक- प्रक्षेपक वृद्धि पर्यत भएं, लब्ध्यक्षर ज्ञान दूणा हो है । बहुरि आगे भी संख्यात (भाग) वृद्धि का पहिला स्थान ते लगाइ उत्कृष्ट संख्यात मात्र स्थाननि का तीन चौथा भाग मात्र स्थान प्रक्षेपक - प्रक्षेपक वृद्धि पर्यंत भएं, लब्ध्याक्षर ज्ञान दूरगां हो है । बहुरि तैसे ही संख्यात वृद्धि का पहिला स्थान से लगाइ, उत्कृष्ट संख्यातमात्र स्थान प्रक्षेपक वृद्धिपर्यंत भएं, लब्ध्यक्षरज्ञान दूसा हो है ।
इहां प्रश्न - जो साधिक जघन्य ज्ञान दूरणा भया सो साधिक जघन्य ज्ञान सौ पर्यायसमास ज्ञान का मध्य भेद है, इहां लब्ध्यक्षर ज्ञान दूणा कैसे कह्या है ?
ताका समाधान - जो उपचार करि पर्यायसमास ज्ञान के भेद को भी लब्ध्यक्षर कहिए । जातें मुख्यपने लब्ध्यक्षर है नाम जाका, असा जो पर्याय ज्ञान, ताका समीपवर्ती है।
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भावार्थ - इहां असा जो लब्ध्यक्षर नाम नैं इहां पर्यायसमास का यथासंभव मध्यभेद का ग्रहण करना । बहुरि चकार करि गस्था कहिए असें स्थान प्रति प्राप्त होइ, लब्ध्यक्षर ज्ञान दूणा हो है, असा अर्थ जानना ।
एवं असंखलोगा, अरणक्खरप्पे हवंति छट्ठारणा। - ते पज्जायसमासा, अक्खरगं उवरि बोच्छामि ॥३३२॥
एवमसंख्यलोकाः, अनक्षरात्मके भवंति षट्स्थानानि । ते पर्यायसमासा अक्षरगसुपरि वक्ष्यामि ॥३३२।।
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१. षट्खंडागम-भवला पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की टीका ।
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f ૪૨
सम्पाद्रिका माटोका ]
टीका - याप्रकार अक्षरात्मक जो पर्यासमास ज्ञान के भेद, तिनि वि षट्स्थान ( पतित ) वृद्धि प्रसंख्यात लोकमात्र बिरियां हो है । सो ही कहिए है - जो एक अधिक सूच्यंगुल का प्रसंख्यात भाम का वर्ग करि तिस ही के धन को गुरौं, जो प्रमाण होइ, तितने भेदनि विषै एक बार षट्स्थान होइ, तौ असंख्यात लोक प्रमाण पर्यायसमास ज्ञान के भेदनि विषै केती बार षट्स्थान होइ; असें त्रैराशिक करना । तहां प्रमाणराशि एक अधिक सूच्यंगुल के प्रसंख्यातवां भाग का वर्ग करि गुणित, ताहीका घनप्रमाण भर फलराशि एक, इच्छाराशि श्रसंख्यात लोक पर्यायमारा के स्थान का कौं गुणि, प्रमाण का भाग दीएं, जेवा लब्धराशि का प्रमाण भावे, तितनी बार सर्व भेदनि विषै षट्स्थान पतित वृद्धि हो है । सो भी असंख्यात लोक मात्र हो है । जातं असंख्यात के भेद घने हैं । तातें हीनाfur होते भी असंख्यात लोक ही कहिए। याप्रकार असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान वृद्धि कर वर्धमान जघन्य ज्ञान से अनंत भागवृद्धि लीएं प्रथम स्थान तें लगाइ, अंत का स्थान विष अंत का अनंत भागवृद्धि लीएं, स्थान पर्यंत जेते ज्ञान के भेद, ते ते सर्व पर्यायसमास ज्ञान के भेद जानने ।
अब इहांते मार्गे अक्षरात्मक श्रुतज्ञान को कहै हैं -
चरिमुव्वंकेण वहिद अत्थक्खरगुरिगदचरिममुष्वंकं । अत्थक्खरं तु गाणं, होदि ति जिहि मिहिद्धं ॥ ३३३॥१
चरमोकेर | वहितार्थाक्षरमुखितचर मोर्वकम् ।
प्रर्याक्षरं तु ज्ञानं भवतोति जिननिदिष्टम् ।।३३३॥
टीका - पर्याय समास ज्ञान विषै असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान कहे । तिनिविषे वृद्धि को कारण संख्यात, श्रसंख्यात, अनंत ते प्रवस्थित हैं; नियमरूप प्रमाण धरें हैं । संख्यात का प्रमाण उत्कृष्ट संख्यात मात्र असंख्यात का असंख्यात लोक मात्र, अनंत का प्रमाण जीवराशि मात्र जानना । बहुरि अंत का षट्स्थान विधे अंत का उर्वक जो अनंतभागवृद्धि, ताक लीएं पर्याय समास ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट भेद, तातें
rain कहिए, अनंत गुणवृद्धि संयुक्त जो ज्ञान का स्थान, सो श्रर्थाक्षर श्रुतज्ञान है । पूर्वे भ्रष्टांक का प्रमाण नियमरूप जीवराशि मात्र गुणा था, इहां अष्टांक का
१. षट्खंडागम - पवला पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की टीका ।
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४८० 1
{ मोम्मटप्सार जानकावड माथा ३३३
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'प्रमाण, सो न जानना, अन्य जानना । सोई कहिए है - असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान नि विर्षे जो अंत का षट्स्थान, ताका अंत का ऊर्वक बुद्धि लीएं जो सर्वोत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञान ताकौं एक बार अष्टांक करि गुणं, अर्थाक्षर ज्ञान हो है । तात याकौं अष्टांका ति युक्त स्थान कहिए । । सो अष्टांक कितने प्रमाण लीएं हो है; सो कहिए है - श्रुत केवलज्ञान भएक घाटि, एकट्ठी प्रमाण अपुनरुक्त अक्षरनि का समूह रूप है। ताकी एक याटि, एकट्टी का भाग दीएं, एक अक्षर का प्रमाण प्राकै है । तहां जेता ज्ञान के अविभाग प्रतिक छेदनि का प्रमाण है; ताकौं सर्वोत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञान का भेदरूप ऊर्वक के अविभाग प्रतिच्छेदनि के प्रमाण का भाग दीएं जेता प्रमाण प्रावै, सोई इहां अष्टांक का प्रमाण जानना । तातें अब तिस अक्षर ज्ञान की उत्पत्ति को कारण, जो अंत का ऊर्वक, ताकरि भाजित जो अक्षर, तीहि प्रमाण अष्टांक करि गुण्य, जो अंत का ऊर्वक, ताकौं गुरणे; अर्थाक्षर ज्ञान हो है । यह कथन युक्त है । औसा जिनदेव कह्या है । बहुरि यह कथन अंत विषं धर्या हुवा दीपक समान जानना । तातें जैसे ही पूर्व भी चतुरंक आदि अष्टांक पर्यंत षट् स्थाननि के भागवृद्धि युक्त वा मुणवृद्धि युक्त जे स्थान हैं, ते सर्व अपना अपना पूर्व ऊर्वक युक्त स्थान का भाग दीएं, जेता प्रमाण भावे, तितने प्रमाण करि तिस पूर्वस्थान ते गुरिगत जानने । असे श्रुत केवलज्ञान का संख्यातवां भाग मात्र अर्थाक्षर श्रुतज्ञान जानना । अर्थ का ग्राहक अक्षर से उत्पन्न भया जो ज्ञान, सो अक्षर ज्ञान कहिए । अथवा कार्यते कहिए जानिए, सो अर्थ, अर द्रव्य करि न विन सो अक्षर । जो अर्थ सोई अक्षर, ताका जो ज्ञान, सो अर्थाक्षरज्ञान कहिये । अथवा अयंते कहिये श्रुतकेवलज्ञान का संख्यातवां भा. ग करि जाका निश्चय कीजिये; जैसा एक अक्षर, ताका ज्ञान, सो अक्षरज्ञान कहिये।
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अथवा अक्षर तीन प्रकार है --- लब्धि अक्षर, निर्वृत्ति अक्षर, स्थापना अक्षर । तहां पर्यायज्ञानावरण आदि श्रुतकेवलज्ञानावरण पर्यंत के क्षयोपशम ते उत्पन्न भई जो पदार्थ जानने की शक्ति, सो लब्धिरूप भाव इंद्रिय, तीहि स्वरूप जो प्रक्षर कहिये अविनाश, सो लब्धि - अक्षर कहिये । जाते अक्षर ज्ञान उपजने कौं कारण है । बहुरि कंठ, होठ, तालवा प्रादि अक्षर बुलावने के स्थान पर होठनि का परस्पर मिलना, सो स्पष्टता ताकौं प्रादि देकरि प्रयत्न, तीहिं करि उत्पन्न भया शब्द
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सभ्यशानचन्द्रिका माघाटीमा 1
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रूप अकारादि स्वर अर' ककारादिक व्यंजन पर संयोगी. अक्षर, सो निर्वृत्ति अक्षर कहिये । बहुरि पुस्तकादि विर्षे निज देश की प्रवृत्ति के अनुसारि अकारादिकनि का आकार करि लिखिए सो स्थापना अक्षर कहिये । इस प्रकार जो एक अक्षर, ताके सुनने ते भया जो अर्थ का ज्ञान, हो अक्षर श्रुतज्ञान है; असा जिनदेवने कहा है । उन ही के अनुसारि मैं भी कुछ कहा है।
प्राग श्री माधवचंद्र वैविधदेव शास्त्र के विषय का प्रमाण कहैं हैं - पण्णवरिणज्जा भावा, अणंतभागो बु अणभिलप्पारणं । पण्णवणिज्जारणं पुण, अणंतभागो सुदरिणबद्धो ॥३३४॥
प्रज्ञापनीया भावा, अनसभागस्तु अनभिलाप्यानाम् ।
प्रज्ञापनीयानां पुनः, अनंतभागः श्रुतनिबद्धः ॥३३४॥ टीका - अनभिलाप्यानां कहिए वचन गोचर नाही, केवलज्ञान ही के मोचर जे भाव कहिए जीवादिक पदार्थ, तिनके अनंतवें भागमात्र जीवादिक अर्थ, ते प्रज्ञापबीमाः कहिए सीवर की सातिशय दिव्यध्वनि करि कहने में आवें असें हैं । बहुरि तीर्थंकर की दिव्यध्वनि करि पदार्थ कहने में आवे हैं तिनके अनंतवें भागमात्र द्वादशांग श्रुतविर्षे व्याख्यान कीजिए है । जो श्रुतफेवली कौं भी गोचर नाहीं; असा पदार्थ कहने की शक्ति दिव्यध्वनि विर्षे पाइए है । बहुरि जो दिव्यध्वनि करि न कहा जाय, तिस अर्थ की जानने की शक्ति केवलज्ञान विर्षे पाइए है । असा जानना।
आगें दोय गाथानि करि प्रक्षर समास को प्ररूपें हैं -- एयक्खराखु उवरिं, एगगेणक्खरेण बड्ढतो। संखेज्जे खलु उड्ढे, पदणाम होदि सुदणाणं ॥३३५॥ १
एकाक्षरात्तुपरि, एकैकेनाक्षरेण बर्धमानाः ।
संख्येये खलु वृद्धे, पदनाम भवति श्रुतज्ञानम् ॥३३५॥ टीका - एक अक्षर ते उपज्या जो ज्ञान, ताके ऊपरि पूर्वोक्त षट्स्थानपतित वृद्धि का अनुक्रम विना. एक एक अक्षर बधता सो दोय अक्षर, तीन अक्षर; च्यारि अक्षर इत्यादिक एक घाटि पद का प्रक्षर पर्यंत अक्षर समुदाय का सुनने करि उपजें असे प्रक्षर समास के भेद संख्यात जानने । ते दोय पाटि पद के अक्षर जेते होइ
१.-पखंडायम-पवला, पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की टीका।
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४८२]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३३६ तितने हैं । बहुरि इसके अनंतरि उस्कृष्ट अक्षर समास के विर्षे एक अक्षर बधत पदनामा श्रुतज्ञान हो है।
सोलस-सय-चउतीसा, कोडी तियसीदिलक्खयं चैव । सत्तसहस्साट्ठसया, अट्ठासीवी य पदवण्णा ॥३३६॥
षोडशशतचतुस्लिंशत्कोटयः त्र्यशीतिलक्षकं चैद ।
सप्तसहस्राण्यष्टशतानि अष्टाशीलिश्च पदवर्णाः ॥३३६॥ तरीका - पद तीन प्रकार है -- अर्थपद, प्रमाणपद, मध्यमपद ।
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तहां जिहिं अक्षर समूह करि विवक्षित अर्थ जानिये, सों तो अर्थपद कहिये । जैसे कहा कि 'गामयाज शुक्लां दंडेन' इहां इस शब्द के च्यारि पद हैं - १. गां, २. अभ्याज, ३. शुक्ला, ४. दंडेन । ये च्यारि पद भए । अर्थ याका यह - जो गाय की बेरि, सुफेद कौं दंड करि । असें कहा कि 'अग्निमानय' इहां दोय पद भए । अग्नि, पानय । अर्थ यह जो - अग्नि को ल्याव । असे विवक्षित अर्थ के अर्थी एक, दोय आदि अक्षरनि का समूह, साकौं अर्थपद कहिये ।
बहुरि प्रमाण जो संख्या, तिहिने लीएं, जो पद कहिये अक्षर समूह, ताकौं प्रमाण पद कहिये । जैसें अनुष्टुप छंद के च्यारि पद, तहां एक पद के आठ अक्षर होइ ! 'नमः श्रीवर्द्धमानाय' यह एक पद भया । याका अर्थ यह जो श्रीवर्धमान स्वामी के अर्थि नमस्कार होहु; असे प्रमाणपद जानना ।
बहुरि सोलासे चौतीस कोडि लियासी लाख सात हजार आठसै अध्यासी (१६३४८३०७८८८) गाथा विर्षे कहे अपुनरुक्त अक्षर, तिनिका समूह सो मध्यमपद कहिये । इनिवि अर्थ पद पर प्रमाण पद तो हीन - अधिक अक्षरनि का प्रमाण कौं लोएं, लोकव्यवहार करि ग्रहण कीएं हैं । तातें लोकोत्तर परमागम विषं गाथा विर्षे कहो जो संख्या, तीहि विर्षे वर्तमान जो मध्यमपद, ताहीका ग्रहण जानना । ।
भाग संघात नामा श्रुतज्ञान की प्ररूपें हैं --
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१.पटांडाफम - धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २३ की टीका ।
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greater उर्वार, एगेगेणक्खरेण वड्ढतो । संखेज्जसहस्तपदे, उड्ढे संघादणाम सुखं ।। ३३७॥१
एकपदा परि एकैकेनाक्षरेख वर्धमानाः । संख्यातसहस्रपदे, बुद्धे संघातनाम श्रुतम् ॥ ३३७ ॥
-
टीका एक पद के ऊपर एक एक अक्षर बघते बघते एक पद का अक्षर प्रमाण पदसमास के भेद भएं, पदज्ञान गुणा भया । बहुरि इस एक एक अक्षर ae aed पदका अक्षर प्रमाण पदसमास के भेद भएं, पदज्ञान तिगुणा भया । जैसे ही एक एक अक्षर की बघवारी लीए पद का प्रक्षर प्रमाण पदसमास ज्ञान के भेद गुणा पंचगुणा आदि संख्यात हजार करि गुण्या हूंवा पद का प्रमाण में
1
एक अक्षर घटाइयें तहां पर्यंत पदसमास के भेद जानने । पदसमास ज्ञान का उत्कृष्ट भेद विषै सोई एक अक्षर मिलायें, संघात नामा श्रुतज्ञान हो है । सो च्यारि गति fa एक गति के स्वरूप का निरूपणहारे जो मध्यमपद, तिनिका समूहरूप संघात ज्ञान के सुने तं जो श्रर्यज्ञान भया, ताक संघात श्रुतज्ञान कहिये ।
में प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान के स्वरूप को कहे हैं
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एक्कदर गदि णिवय-संघादसुदादु उवरि युवखं वा । व संखज्जे, संघादे उडिदम्हि पडिवत्ती ॥३३८॥
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१ षट्डागमधला पुस्तक ६, पृष्ट २३ को टोका |
२. बध, प्रति में 'यह' शब्द मिलता है ।
एकतर गतिनिरूपक संघातश्रुतापरि पूर्व वा । वर्षो संख्येये, संघाते वृद्धे प्रतिपत्तिः ।।३३८ ॥
| ४३
संघात नामा श्रुतज्ञान, ताके लीयें, एक एक पद की वृद्धि
।
टीका एक गति का निरूपण करणहारा जो ऊपर पूर्वोक्त प्रकार करि एक एक प्रक्षर की बधवारी करि संख्यात हजार पद का समूहरूप संघात श्रुत होइ संख्यात हजार संघात श्रुत होइ । तिहि में स्यों एक अक्षर समास के भेद जानना । बहुरि अंत का संघात समास श्रुतज्ञान का उत्कृष्ट भेद विषै वह अक्षर मिलाइये, तब प्रतिपत्तिक नामा श्रुतज्ञान हो है । सो नरकादि च्यारि गति
बहुरि इस ही अनुक्रम तें घटाइये तहां पर्यंत संघात
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४८४ ]
[ गोम्मटसार जीवा गाथा ३३६-३४०
का स्वरूप विस्तार पर्ने निरुपण करतहारा जो प्रतिपत्तिपक ग्रंथ, ताके सुनने तें जो अज्ञान भया, ताक प्रतिपत्तिः श्रुतज्ञान कहिए
अनुयोग श्रुतज्ञान की प्ररूप हैं -
चउगइ- सरूथपरूवय- पडिवत्तीदो दु उवरि युधं वा । व संखेज्जे, पडिवत्तीउड्ढम्हि प्रणियोगं ॥ ३३६ ॥
चतुर्गतिस्वरूपरूपकप्रतिपत्तितस्तु उपरि पूर्व था । वर्णे संख्याते प्रतिपत्तिवृद्धे श्रनुयोगं ॥ ३३९ ॥
टीका - च्यारि गति के स्वरूप का निरूपण करणहारा प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान के ऊपर प्रत्येक एक एक अक्षर की वृद्धि लोयें संख्यात हजार पदनि का समुदायरूप संख्यात हजार संघात पर संख्यात हजार संघातनि का समूह प्रतिपत्तिक, सो असें प्रतिपत्ति संख्यात हजार होइ तिनिविषे एक अक्षर घटाइये तहां पर्यंत प्रतिपत्तिक समास श्रुतज्ञान के भेद भए । बहुरि तिसका अंत भेद व यह एक अक्षर मिलायें, अनुयोग नामा श्रुतज्ञानं भया, सो चोद मार्गणा के स्वरूप का प्रतिपादक अनुयोग नामा श्रुत, ताके सुनने से जो ज्ञान भया, ताको अनुयोग नामों श्रुतज्ञान कहिए । आगे प्राभृतप्राभृतं श्रुतज्ञान को दोय गाथानि करि कहे हैं बोस- मग्गण-संजुद अणियोगादुवरि वडिदे वण्ले । चउरावी- श्रणियोगे दुगवारं पाहुडं होदि ॥३४०॥२
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चतुर्दशमार्गणायुतानुयोगादुपरि धिते वलें । agragati fasarरं प्राभृतं भवति ||३४०॥
टीका - चौदह मार्गणा करि संयुक्त जो अनुयोगं ताके ऊपरि प्रत्येक एक - एक अक्षर की वृद्धि करि संयुक्त पद संघात प्रतिपतिक इनिको पूर्वोक्त अनुक्रम वृद्धि होते च्यारि आदि अनुयोगनि की वृद्धि विर्षे एक प्रक्षर घटाइये । तहां पर्यंत अनुयोग समास भेद भए । बहुरि का अंत भेद विषै वह एक अक्षर मिलायें, प्रभूत प्राभृतक नामा श्रुतज्ञान हो हैं ।
१ षट्संडागम - घवला पुस्तक ६, पृष्ठ २४ की टीका । २ डाम - धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २४ की. टीका |
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सयाज्ञानन्द्रिका साबाटोका
अहियारो पाहुडयं, एयहो पाहुडस्स अहियारो। याहुडपाहुडगाम, होदि ति जिर्णोह णिहिट्ठ॥३४१॥
अधिकारः प्राभूतमेकार्थः प्राभूतस्याधिकारः ।
प्राभृतप्राभृतनामा, भवति इति जिननिर्दिष्टम् ॥३४१॥ टीका - प्रागें कहियेगा, जो वस्तु नामा श्रुतज्ञान, ताका जो एक अधिकार, 'ताहीका नाम प्राभूतं कहिये । बहुरि जो उस प्राभुतक का एक अधिकार, साका नाम प्राभृतक प्राभृतक कहिये; जिनदेवने कह्या है।
आमैं प्राभृतक का स्वरूप कहैं हैं - दुगवारपाहुडादो, उरि वण्णे कमेण चउवीसे। दुगवारपाहुडे संउड्ढे खलु होदि पाहुडयं ॥३४२॥
द्विकवारप्राभृतादुपरि वर्णे क्रमेण चतुविशतौ।
हिकवारप्रो वृद्धे पर भारति नका ॥४१॥ टोका - द्विकवार प्राभूतक जो प्राभृतक - प्राभृतक, ताके ऊपरि पूर्वोक्त अनुक्रम से एक एक अक्षर की वृद्धि लीयें चौबीस प्राभृतक - प्राभृतकनि की वृद्धि विर्षे एक अक्षर घटाइये, तहां पर्यंत प्राभृतक - प्राभृतक समास के भेद जानने । बहुरि ताका अंत भेद विर्षे एक अक्षर मिलायें; प्राभृतक नामा श्रुतज्ञान हो है। . भावार्थ - एक एक प्राभृतक नामा अधिकार विर्षे चौबीस-चौबीस प्राभृतकप्राभूत्तक नामा अधिकार हो है।
आर्गे बस्तु नामा श्रुतज्ञान की प्ररूप हैं --- वीसं वीसं पाहुड-अहियारे एक्कवत्थुअहियारो। एक्केक्कवण्णउड्ढी, कोण सम्वत्य णायन्वा ॥३४॥२
विशतो विशती प्रामताधिकारे एको वस्त्यधिकारः। .
एकंकवर्णवृद्धिः, क्रमेण सर्वत्र ज्ञातन्या ३४३॥ १. लखंडागम - धवप्ता पुस्तक ६, पृष्ठ २४ की टीका । २, षडागम - नवला पुस्तक ३, पृष्ठ २५ की टीका।
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४५६ ]
गोम्मटसार ओवकाण्ड गाथा ३४४
टीका - तिहि प्राभूतक के ऊपर पूर्वोक्त अनुक्रम तें एक एक अक्षर की वृद्धि नैली, पदादि की वृद्धि करि संयुक्त बीस प्राभृतक की वृद्धि होते संतै, वामें एक अक्षर घटाइये, वहां पर्यंत प्राभृतक समास के भेद जानने । बहुरि ताका अंत भेद विष यह एक अक्षर मिलायें, वस्तु नामा अधिकार हो है ।
भावार्थ- पूर्व संबंधी एक एक वस्तु नामा अधिकार विषे बीस बीस प्राभुतक पाइये हैं । बहुरि सर्वत्र अक्षर समास का प्रथम भेद से लगाइ पूर्वसमास का उत्कृष्ट भेद पर्यंत अनुक्रम तें एक एक प्रक्षर बढावना । बहुरि पद का बढ़ावना, बहुरि समास का ढावना इत्यादिक परिपाटी करि यथासंभव वृद्धि सबनि विष जानना; सो सूत्र के अनुसारि व्याख्यान टीका विषे करते ही आये हैं ।
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मैं तीन गाथानि करि पूर्व नामा श्रुतज्ञान कौं कहैं हैं दसचोदसद्ध अटारसयं बारं च बार सोलं च । वीसं तीसं पण्णारसं च, दस चदुसु वत्थूरणं ॥ ३४४॥
वंश चतुर्दशाष्ट श्रष्टावशक द्वादश च द्वादश पोडश च । विशति: त्रिशत् पंचदश च दश चतुर्षु वस्तूनाम् ||३४४१॥
टीका - तिहि वस्तु श्रुत के ऊपरि एक एक अक्षर की वृद्धि लीएं, अनुक्रम पदादिक की वृद्धि करि संयुक्त क्रम तें दश आदि वस्तुनि की वृद्धि होत संत, उनमें सौं एक एक अक्षर घटावनं पर्यंत वस्तु समास के भेद जानने । बहुरि तिनके अंत raft विषै अनुक्रम ते एक एक अक्षर मिलाएं, चौदह पूर्व नामा श्रुतज्ञान होइ । तहां श्रागे कहिए हैं ।
उत्पाद नामा पूर्व आदि चौदह पूर्व, तिनिविषं अनुक्रम तैं दश (१०), चौदह (१४), आठ (८), अठारह (१८), बारह (१२), बारह (१२), सोलह (१६), बीस (२० ), तीस (३०), पंद्रह (१५), दश (१०), दश (१०), दश ( १० ) ; दश (१०) वस्तु नामा अधिकार पाइए हैं ।
१ - पखंडागम-पवला पुस्तक ६, पृष्ठ २५ की टीका ।
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४७
सध्याशानचत्रिका भाटोका !
उपाय-पुत्वगाणिय-विरियपवादस्थिणत्थियपवादे । णाणासच्चपवादे, आदाकम्मप्पवादे य ॥३४॥ पच्चाक्खाणे विज्जाणवादकल्लाणपाणवादे य । किरियाविसालपुवे, कमसोथ तिलोबिंदुसारे ३ ॥३४॥
उत्पादपूर्वाग्रायणीयवीर्यप्रवावास्तिनास्तिकप्रवादानि । ज्ञानसत्यप्रवादे, आत्मकर्मप्रवादे च ॥३४५।। प्रत्याख्यानं वीर्यानुवादकल्याणप्राणवादानि च ।
क्रियाविशालपूर्व, क्रमशः अथ त्रिलोकबिंदुसारं च ॥३४६।। टीका - चौदह पूर्वनि के नाम अनुक्रम ते असें जानने । १. उत्पाद, २. आग्रायणीय, ३. बीर्यप्रवाद, ४. अस्ति नास्ति प्रवाद, ५. ज्ञानप्रवाद, ६. सत्यप्रवाद, ७. आत्मप्रवाद, ८. कर्मप्रवाद, ६. सल्यानमार, १७. निलागुगाद, १३. कल्याणबाद, १२. प्राणवाद, १३. क्रियाविशाल, १४. त्रिलोकविदुसार ये चौदह पूर्वनि के नाम जानने ।
इनिकै लक्षण प्राग कहेंगे -- इहां असें जानना पूर्वोक्त वस्तुश्रुतज्ञान के ऊपरि क्रम ते एक एक अक्षर की वृद्धि लीएं, पदादिक की वृद्धि होते, दश बस्तु प्रमाण में स्यों एक अक्षर घटाइए, तहां पर्यंत वस्तु समास ज्ञान के भेद हैं । ताके अंत भेद विर्षे वह एक अक्षर मिलाएं, उत्पाद पूर्व नामा श्रुतज्ञान हो है ।
बहुरि उत्पाद पूर्व श्रुतज्ञान के ऊपरि एक-एक अक्षर-अक्षर की वृद्धि लीयें, पदादि की वृद्धि संयुक्त चौदह वस्तु होंहि ।
तामैं एक अक्षर घटाइये, तहां पर्यंत उत्पादपूर्व समास के भेद जानने । ताके अंत भेद विर्षे वह एक अक्षर बध, अग्रायणीय पूर्व नामा श्रुतज्ञान हो हैं । असें ही क्रम से आगे आगें पाठ आदि वस्तु की वृद्धि होते, तहां एक अक्षर घटायने पर्यंत तिस तिस पूर्व समास के भेद जानने । तिस तिस का अंत भेद विर्षे सो सो एक अक्षर मिलाएं, वीर्य प्रवाद आदि पूर्व नामा श्रुतज्ञान हो है ! अंत का त्रिलोकबिंदुसार नामा पूर्व प्रागै ताका समास के भेद नाहीं है । जाते याके आगे श्रुतज्ञान के भेद का अभाव है।
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४६
गोम्मरसार जीवकाण्ड गाया ३४७-३४८-३४९ आगे चौदह पूर्वनि विर्षे वस्तुनामा अधिकारनि को वा प्राभृतनामा अधिकारनि की संख्या कहै हैं ~~~
पणणउदिसया वत्थू, पाहुड्या तियसहस्सणवयसया। एदेसु चोइसेसु वि, पुब्वेस हवंति मिलिदाणि ॥३४७॥
पंचमवतिशतानि वस्तूनि, प्राभृतकानि त्रिसहस्रनवशतानि ।
एतेषु चतुर्दशस्वपि, पूर्वेषु भवंति मिलितानि ।।३४७॥ टीका - जो उत्पाद आदि जिलोकबिंदुसार पर्यंत चौदह पूर्व, तिनिविर्षे मिलाए हुवे, दश ग्रादि वस्तु नामा अधिकार सर्व एक सौ पिच्यारणवै (१९५) हो हैं। बहुरि एक एक वस्तु विर्षे बीस बीस प्राभृतक कहे. ते सर्व प्राभृतक नामा अधिकार तीन हजार नव से (३६०० } जानने ।
भाग पूर्व कहे जे श्रुतज्ञान के बास भेद, तिनिका उपसंहार दोय गाथानि करि कहै हैं --
अत्थक्खरं च पदसंघातं, पडिवत्तियाणिजोगं च । दुगवारपाहुडं च य, पाहुड्यं वत्थु पुव्वं च ॥३४८॥ कमवण्णुतरवढिय, ताण समासा य अक्खरगहाणि । पाणवियप्पे वीस, गंथे बारस य चोहसयं ॥३४६॥
अर्थाक्षरं च परसंघात, प्रतिपत्तिकानुयोगं च । द्विकवारप्राभृतं च च, प्राभृतकं वस्तु पूर्व च ॥३४८॥ झमवर्णोत्तरवधिले, तेषां समासाश्च अक्षरगताः ।
ज्ञानविकल्पे विशतिः, ग्रंथे द्वादश च चतुर्दशकम् ।।३४९॥ टोका - अर्थाक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग, प्राभृतकप्राभृतक, प्राभूतक, वस्तु, पूर्व ए नव भेद बहुरि एक एक अक्षर की वृद्धि श्रादि यथा संभव वृद्धि लीए इन ही अक्षरादिकनि के समास तिनि करि नब भेद, असे सर्व मिलि करि अठारह भेद, अक्षरात्मक द्रव्यश्रुत के हैं । अर ज्ञान की अपेक्षा इन ही द्रव्यश्रुतनि के सुनने से जो ज्ञान भया, सो उस ज्ञान के भी अठारह भेदः
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सम्यानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४६ कहिए । बहुरि अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के पर्याय अर पर्यायसमास ए दोय भेद मिलाएं; सर्व श्रुतज्ञान के बीस भेद भए । बहुरि ग्रंथ जो शास्त्र, ताकी विवक्षा करिए लौ आचारांग आदि द्वादश अंग पर उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्व अर चकारतें सामायिकादि चौदह प्रकीरणक, तिमिस्वरूप द्रव्यश्रुत जानना । ताके सनने तें-जो ज्ञान भया, सो भाव श्रुतज्ञान जानना । पुद्गल द्रव्यस्वरूप अक्षर पदादिकमय तौ द्रव्यश्रुत है । ताके सुनने से जो श्रुतज्ञान का पर्यायरूप ज्ञान भया, सो भावश्रुत है। ..
अब जो पर्याय आदि भेद कहे, तिचि शब्दनि की निरुक्ति व्याकरण अनुसारि कहिए हैं । परीयंते कहिए सर्व जीव जाकरि व्याप्त हैं सो पर्याय कहिए । पर्यायशान बिना कोऊ जीव नाहीं । केवल ज्ञानीनि के भी पर्यायज्ञान संभव है। जैसे किसी के कोटि धन पाइए है, तो वाकै एक धन तो सहज ही वामें पाया तैसें महाज्ञान विषं स्तोकज्ञान गर्भित भया जानना ।
बहुरि अक्ष कहिए कर्णइंद्रिय, ताकौं अपना स्वरूप कौं राति कहिए ज्ञान द्वार करि दे है, तातै अक्षर कहिए ।
. बहुरि पद्यते कहिए जाकरि प्रात्मा अर्थ को प्राप्त होइ, ताकौं पद कहिए ।
बहुरि सं कहिए संक्षेप तै, हम्यते, गम्यते कहिए जानिए एक मति का स्वरूप जिहिं करि, सो संघात कहिए ।
बहुरि प्रतिपद्यते कहिए विस्तार से जानिए हैं, च्यारि गति जाकरि, सो प्रतिपति कहिए । नामसंज्ञा विर्ष के प्रत्यय ते प्रतिपत्तिक कहिए ।।
बहुरि अनु कहिए मुणस्थाननि के अनुसारि, युज्यते कहिए संबंधरूप जीव जा विर्षे कहिए है, सो अनुयोग कहिए ।
बहुरि प्रकर्षण कहिए नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव , अथवा निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान, अथवा सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व इत्यादि विशेषकरि आभृतं कहिए परिपूर्ण होइ, असा जो वस्तु का अधिकार, सो प्राभृत कहिए । पर जाकी प्राभूत संज्ञा होइ, सो प्राभृतक कहिए । बहुरि प्रामृतक का जो अधिकार, सो प्राभृतकप्राभृतक कहिए ।
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गोमहसार जौवकापट माषा ३५० ।
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बहुरि वसंति कहिए पूर्वरूपी समुद्रका अर्थ, जिस विषं एकोदेशपन पाइए, सो. पूर्व का अधिकार वस्तु कहिए ।
बहुरि पूरयति कहिए शास्त्र के अर्थ को पोषं, सो पूर्व कहिए । असे दश भेदनि की निरुक्ति कही।
बहुरि सं कहिए संग्रह करि पर्याय आदि पूर्व पर्यंत भेदन की अंगीकार करि अस्थते कहिए प्राप्त करिए, भेद करिए, ते समास कहिए ।
पर्याय ज्ञान ते जे पीछे भेद, तिनको पर्याय समास कहिए । ___ अक्षर ज्ञान ते जे पीछे भेद, तिनकौं अक्षर समास कहिए । असे ही दश भेद... जानने।
असे पूर्व चौदह पर वस्तु एक सौ पिच्याण अर प्राभृतक तीन हजार नव सै पर प्राभृतक - प्राभृतक तिराणवै हजार छह सै अर अनुयोग तीन लाख चौहत्तरि हजार च्यारि से पर प्रतिपतिक अर संघात अर पद क्रम तै संख्यात हजार गुणे अर एक पद के अक्षर सोलह सौ चौंतीस कोडि तियासी लाख सात हजार पाठ से अठ्यासी अर समस्त श्रुत के अक्षर एक घाटि. एकट्ठी प्रमाण, इनिकौ पद के प्रक्षरनि का भाग दीएं, जो लब्धराशि होइ सो द्वादशांग के पदों का प्रमाण जानना ।
अब शेष अक्षर है, ते अंगबाह्य श्रुत के जानने ।। तहां प्रथम द्वादशांग के पदनि की संख्या कहैं हैं - बारुत्तरसयकोडी, तेसीदी तहय होंति लक्खार । अट्ठावण्णसहस्सा, पंचेव पदाणि अंगारणं ।।३५०॥
द्वादशोत्तरशतकोट्यः ग्यशोतिस्तथा च भवति लक्षाणाम् ।
अष्टापंचाशत्सहस्रारिंग, पंचव पदानि अंगानाम् ॥३५॥ टीका - एक सौ बारह कोडि तियासी लाख अठावन हजार पांच पद . (११२,८३,५८,००५) सर्व द्वादशांग के जानने । अंग्यते कहिए मध्यम पदनि करि जो लखिये, सो अंग कहिए । अथवा सर्व श्रुत का जो एक एक प्राचारांगादिक रूप अवयव, सो अंग कहिए । जैसे अंग शब्द की निरुक्ति है ।
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मम्यशानचन्त्रिक भाषाटीका !
प्रागै जो अंगबाह्य प्रकीर्गक, तिनिके अक्षरनि की संख्या कहै हैं -
अडकोडिएयलक्खा, अट्ठसहस्सा य एयसदिगं च । .. पण्णतरि वण्णाओ, पइण्णयाणं पमाणं तु ॥३५१॥
अष्टकोटय कलक्षाणि, अष्टसहस्राणि च एकशतकं च ।
पंचसप्ततिः वराः, प्रकीर्णकानां प्रमासं तु ॥३५१॥ टीक - बहरि सामायिकादिक प्रकीर्णकनि के अक्षर आठ कोडि एक लाख आठ हजार एक सौ पिचहत्तरि (८०१०८१७५) जानने ।
आगे इस अर्थ के निर्णय करने के अथि च्यारि गाथानि करि अक्षरनि की प्रक्रिया कहै हैं -
तेत्तीस वेजिरणाइं, सत्तावीसा सरा तहा भणिया। चत्तारि य जोगवहा, चउसट्ठी मूलवण्णाश्रो ॥३५२॥
प्रयस्त्रिशत व्यंजनानि, सप्तविंशतिः स्वरास्तथा भरिणताः । - चस्वारनं योगवहाः, चतुषष्टिः मूलवर्णाः ॥३५२॥
टीका - प्रो कहिये, हो भव्य ! तेतीस (३३) तो व्यंजन अक्षर हैं । आधी मात्रा जाके बोलने के काल विर्षे होइ, ताकौं व्यंजन कहिये - क, ख, ग, घ, ङ् ।
य, र, ल, न् । श, ष, स, ह ए तेतीस व्यंजन अक्षर हैं।
बहुरि सत्ताईस स्वर अक्षर हैं। अ, इ, उ, ऋ, लु, ए, ऐ, ओ, प्रो ए नव अक्षर, इनिके एक • एक के ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत तीन भेदनि करि गुण सत्ताईस भेद हो हैं । जैसे - अ, पा, प्रा३ । इ, ई, ई ३ । उ, ऊ, ऊ ३ । ऋ, ऋ, ऋ३ । लु, ल , ल ३ ए, ए, ए ३ । ऐ, ऐ, ऐ३ । प्रो, ओ, प्रो ३ । प्रौ, औ, औ ३ ! ए सत्ताईस स्वर हैं । जाकी एक मात्रा होय ताकौ ह्रस्व कहिये । जाकी दोय मात्र होइ, ताकौं दीर्घ कहिए । जाकी तीन मात्रा होइ ताकौं प्लुत कहिए ।।
बहुरि च्यारि योगवाह प्रक्षर हैं । अनुस्वर, विसर्ग, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तहां अं जैसा अक्षर अनुस्वार है । प्रः असा अक्षर विसर्ग है। कः असा अक्षर जिह्वामूलीय है । प: असा अक्षर उपध्मानीय है । ए चौसठि मूल अक्षर अनादिनि
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४६२
गोम्मटसार जीवाण्ड पाथा ३५३' धन परमागम विर्षे प्रसिद्ध हैं । सिद्धो वर्णः समानायः' इति वचनात् । व्यज्यते काहिए अर्थ, जिनिकरि प्रकट करिए ते व्यंजन कहिए । स्वरंति कहिए अर्थ को कहैं ते स्वर कहिए । योगं कहिए अक्षर के संयोग को वहंति कहिए प्राप्त होंइ ते, योगवाह कहिए । मूल कहिए (और) अक्षर के संयोग रहित संयोगी अक्षर उपजने कौं कारण ये चौसानि मूलवर्ण हैं । इस अर्थ करि द्वितीयादि - अक्षर के संयोग रहित चौसठि अक्षर हैं । इनिविर्षे द्रोय प्रावि अक्षर मिलें संयोगी हो है । जैसे नकार व्यंजन, प्रकार स्वर मिलिकरि क जैसा अक्षर हो है । आकार के मिलने ते का असा अक्षर हो है । इत्यादि संयोगी अक्षर उपजने को कारण चौसठि मूल अक्षर जानने। .
इहा प्रश्न - जो व्याकरण विर्षे ए, ऐ, ओ, प्रो इनिकौं लस्व न कहै है । इहां ए भी ह्रस्व कैसे कहे ?
ताको समाधान - जो संस्कृत भाषा विर्षे ह्रस्वरूप ए, ऐ, ओ, औ नाहीं हो है तातें न कहे। प्राकृत भाषा विर्षे या देशांतर की भाषा विषं ए, ऐ, प्रो, औ, ये अक्षर भी ह्रस्व हो हैं, तातै इहां कहे हैं।
बहुरि एक दीर्घ ल कार संस्कृत भाषा विर्ष लाही है; तथापि अनुकरण विर्षे देशांतर की भाषा विष हो है; तातै इहां कह्या है।
चउसट्ठिपदं विरलिय, दुगं च दाऊण संगुरणं किच्चा । रूऊरणं च कुए पुण, सुदणाणस्सक्खरा होति ॥३५३॥
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चतुःषष्टिपदं विरलयिस्वा, विकं च वस्वा संगुणं कृत्वा ।
रूपोने च कृते पुनः, श्रुतज्ञानस्याक्षराणि भवंति ।।३५३॥ टीका - मूल अक्षर प्रमाण चौसठि स्थान, तिनिका विरलन करिये, बरोबरि पंक्तिरूप एक -एक जुदा चौसठि जायगा मांडिए । तहां एक २ के स्थान दोय दोय का अंक २ मांडिये, पीछे उनकौं परस्पर गुणन करिये, दोय दून्यों ज्यारि (४) च्यारि दून्यो पाठ {८) पाठ दून्यो सोलह (१६) असें चौसठि पर्यंत गुणन कीये, जो एकट्ठी प्रमाण प्रात्व, तासे एक घटाइये, इतने अक्षर सर्व द्रव्य श्रुत के जानने ते ये प्रक्षर अपुनरुक्त जानने जाते जो वाक्य का अर्थ की प्रतीति के निमित्त उन ही कहै अक्षरनि कौं बारंबार कहे, तो उनका किछु संस्था का नियम है नाहीं ।
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सम्माननलिका भाटीका
[ ४६३
तिनि पुनरुक्त अक्षरनि का प्रमाण कितना है ? सो कहें हैं -
एकट्ठे च च य छस्सत्तयं च च य सुष्ण-सत्त-तिय-सत्ता । सुणं व परण पंच य, एक्कं छक्केक्कगो य परमं च ॥३५४॥
एकाष्ट च च च षट्सप्तकं च च च शून्यसप्तत्रिकंसप्त । शून्यं तव पंच पंच व एक पटक पंचक व ॥। ३५४।।
टोका एक, आठ, व्यारि, व्यारि, छह, सात, च्यारि, च्यारि, बिंदी, सात, तीन, सात, बिंदी, नव, पांच, पांच, एक, छह, एक, पंच इतने अंक क्रम तें लिखें, जो प्रमाण होइ, तितने अक्षर सर्व श्रुत के जानने । १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ इतने अक्षर हैं । द्विरूप वर्गधारा का छठा वर्गस्थान एकट्टी प्रमाण है । तामैं एक घटायें, जैसे एक आदि पंच पर्यंत वीस अंक रूप प्रमाण हो है । बहुरि इहां विशेष कहिये है । एक अक्षर, एक संयोगी, द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि चोसठि संयोगी पर्यंत जानने । तिनकी उत्पत्ति का अनुक्रम दिखाइये है 1 यहां कहे मूलवर्ण चौसठि, तिनकों बरोबर पंक्ति करि लिखिये ।
बहुरि तहां केवल के वर्ण वियें तो एक प्रत्येक भंग ही हैं । द्विसंयोगी आदि नाहीं हैं ।
बहुरि वर्ण सहित विषे प्रत्येक भंग एक, द्विसंयोगी एक से दोय भंग हैं । बहुरि ग वर्ण सहित विषे प्रत्येक भंग एक दिसंयोगी दोय, त्रिसंयोगी एक च्यारि भंग हैं ।
बहुरि घ वर्ण सहित विषं प्रत्येक भंग एक, द्विसंयोगी तीन त्रिसंयोगी तीन चतुः संयोगी एक असे याठ संग जानना ।
अरिङ वर्ण सहित विषै प्रत्येक भंग एक, द्विसंयोगी व्यारि, त्रिसंयोगी छह, चतुः संयोगी च्यारि, पंच संयोगी एक जैसे सोलह भंग हैं ।
बहुरि च वर्ण सहित त्रिषे प्रत्येक भंग एक द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी, चतुः संयोगी, पंच संयोगी, षट् संयोगी, क्रम तें पांच, दश, दश, पांच, एक से बत्तीस भंग हैं । बहुरि छ वर्ण सहित विषै प्रत्येक द्वि, त्रि, चतुः, पंच, पद्, सप्त संयोगी भंग क्रम तें एक, छह, पंद्रह, वीस, पंद्रह, छह, एक से चौसठ भंग हैं ।
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[ गोम्मटसरर जीवकाण्ड गाथा ३५४ बहुरि ग वर्ण सहित विर्षे प्रत्येक द्वि, त्रि, चतुः, पंच, षट्, सप्त, अष्ट संयोगी भंग क्रम ते एक, सात, इकईस, पैतीस, पैंतीस, इकईस, सात, एक असे एक से अट्ठाईस भंग हैं।
बहरि झ वर्ण सहित विषं प्रत्येक, द्वि, त्रि, चतुः, पंच, षट्, सप्त, अष्ट, नव, संयोगी भंग कम ते एक, आठ, अट्ठाईस, छप्पन, सत्तरि, छप्पन, अठाईस, पाठ, एक असे दोय से छप्पन भंग हैं।
__बहुरि ज वर्ण सहित विर्षे प्रत्येक द्वि, त्रि, चतुः, पंच, षट्, सप्त, अष्ट, नव, दश संयोगी भंग क्रम से एक, नव, छत्तीस, चौरासी, एक सै छवीस, एक से छन्वीस, चौरासी, छत्तीस, नव; एक असे पांच से बारह भंग हैं ।
___ इस ही अनुक्रमकरि चौसठि स्थाननि विर्षे प्रत्येक आदि भंग पूर्व पूर्व स्थान ते उत्तर उत्तर स्थान दिर्षे दुणे दूर्ण हो हैं ।
...चौसठ ६४ पयंत
प्रस्धेक
-
-
--
द्विसंयोगों
| ६ | १० | १५ | २१ | २८ | ३६
निसंयोपी
ओड
चतुःसंयोपी
जोन
पंचसंयोगी
जोटा
१६.
पसंयोगी
सप्तसंयोगही
प्रष्टसंयोगी
अवसंयोगी
दशसंपरेपी
००
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सम्धसामचन्द्रिका भाषाटीका ]
इहां प्रत्येक भंगनि का स्वरूप कहा ? सो कहिये है-जुदे जुदे अहरारूप प्रत्येक भंग हैं, ते एक ही प्रकार हैं । जैसे दशवां अ वर्ग की विवक्षा विर्षे अ वर्ण की जुदा ग्रहण करिये यहु एक ही प्रत्येक भंग का विधान आनना । बहुरि दोय, तीन आदि अक्षरनि के संयोग ते जे भंग होइ, तिनकौं द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि कहिये । ते अनेक प्रकार हो हैं । जैसें दशवा अ वर्ण की विवक्षा विर्षे दोय अक्षरनि का संयोग-- क् ञ् । ख ञ् । म् ञ् । ध् । छ । ञ् । छ् ञ् । ज्ञ् । झ ञ् । असें नव प्रकार हो हैं।
बहुरि तीनि अक्षरनि का संयोग क् ख् ञ् । क् ग् ञ् । क् घ् ञ् । क् ञ् । क् च् ञ् । क् छ् म् । क् ज् अ । क् झ् ब् । ख् ग् ञ् । ख घन् । ख् हुन् । रु च
। ख्छ । ख् । भने । ५ । । च । ग छ ज । ग ज्ञ् । ग झ ञ् । घ ङ, ञ् । घ् च् ञ् । ध् छ ञ् । ५ ज ञ् । व् झ् ञ् । ईचञ् । ङ छन् । अज्ञ् । अझ ञ् । च् छ् । च् ज् ञ् । च् झ ञ्। छ ज ञ् । छ् ज् । ज् झ् ञ् । प्रेस छत्तीस प्रकार भंग हो है । जैसे ही अन्य जानने ।
बहुरि जितने की विवक्षा होइ, तितनां संयोगी भंग एक ही प्रकार हो है । जैसे दश अक्षरनि की विवक्षा विर्षे दश अक्षरनि का संयोग रूप दश संयोगी भंग एक ही हो है । जैसें भंगनि का स्वरूप जानना ।
इहां श्री अभयचन्द्रसूरि सिद्धान्त चक्रवर्ती के चरणनि का प्रसाद करि केशववर्णी संस्कृत टीकाकार सो तिन एक दोय संयोगी प्रादि भंगनि की संख्या का साधन विर्षे करण सूत्र कहै हैं
पत्तेयभंगमेगं, हे संजोग विरुवपदमत्तं ।
तियसंजोगादिपमा, रूवाहियवारहीरणपदसंकलिदं । विवक्षित स्थान विषं सर्वत्र प्रत्येक भंग एक एक ही है । बहुरि द्विसंयोगी भंग एक घाटि गच्छ प्रमाण है। इहां जेथवां स्थान विवक्षित होंइ, तीहिं प्रमाण मच्छ जानना । बहुरि त्रिसंयोगी आदि भंगनि का क्रम ते एक अधिक बार हीन गच्छ का संकलन धनमात्र प्रमाण है।
भावार्थ - यहु-जो त्रिसंयोगी, चतुःसंयोगी आदि विर्षे एक बार, दोय बार आदि संकलन करना। बहुरि जेती बार संकलन होइ, तातें एक अधिक प्रमाण कौं
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४६६ विवक्षित गच्छ में घटाएं, अवशेष जेता प्रमाण रहै, तितने का तहाँ संकलन करना । जैसे वैशवां स्थान की विवक्षा विर्षे त्रिसंयोगी भंग ल्यावने को एक बार संकलन पर एक बार का प्रमाण एक, तातै एक अधिक दोय, सो गच्छ देश में घटाएं आठ होई । असे आठ का एक बार संकलन धनमात्र तहाँ त्रिसंयोगी भंग जानना । असे ही अन्यत्र जानना । बहुरि संकलन धन ल्यायने की पूर्व केशवव करि उक्त करण सूत्र कहे थे
तत्तो रूबहियकमे, गुणगारा होति उगच्छो ति ।
इगिरूवमादिरूउत्तरहारा होति पभवो ति ॥ . इन सूत्रनि के अनुसारि विवक्षित संकलन धन स्यायना । अब असे करण सूत्र के अनुसार उदाहरण दिखाइए है। विवक्षित.दशमां का वर्ण, तहां प्रत्येक भंग एक, द्विसयोगी एक घाटि मच्छमात्र नव, मिसंयोगी भंग दोय घाटि गच्छमात्र पाठ, ताका एक बार संकलन धनमात्र सो संकलन धन के साधन करण सूत्र के अनुसारि पाठ, नव को दोय, एक का भाग दीएं छत्तीस हो हैं। जाते आठ, नव कौं परस्पर गुणे, बहत्तर भाज्य, दोय, एक की परस्पर गुरु भागहार दोय, भागहार का भाग भाज्य कौं दीएं छत्तीस भए । असें ही चतुःसंयोगी भंग तीन पाटि गच्छ का दोय बार संकलन धनमात्र है । तहां सात, आठ, नव कौं तीन, दोय, एक का भाग दीएं, चौरासी
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बहरि पंच संयोगी च्यारि धादि गच्छ का तीन बार संकलन धनमात्र है। तहां छह, सात, अंठ, नव कौं च्यारि, तीन, दोय, एक का भाग दीएं एक सै छब्बीस हो हैं ।
बहुरि छह संयोगी पांच घाटि सच्छ का च्यारि बार संकलन धनमात्र हैं । तहां पांच, छह, सात, आठ, नव कौं पांच, च्यारि, तीन, दोय, एक का भाग दीएं एक से छब्बीस हो हैं। ... बहुरि सप्प संयोगी छह घाटि गच्छ का पांच बार संकलन धनमात्र है. तहां च्यारि, पांच, छह, सात, आठ, नव कौं छह, पांच, च्यारि, तीन, दोय, एक का भाग दीएं चौरासी हो हैं।
बहुरि पाठ संयोगी सात घाटि गच्छ का छह बार संकलन धनमात्र है । तहां तौने, च्यारि, पांच, छह, सात, पाठ, मवें कौं सात, छह, पांच, च्यारि, तीन, दोय, एक को भाग दीएं छत्तीस हो हैं ।
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सध्यमानश्वनिका भावाटीका !
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बहुरि नव संयोगी आठ घाटि गच्छ का सात बार संकलन धनमात्र है । तहां दोय, तीन, च्यारि, पांच, छह, सात, पाठ, नव कौं आठ, सात, छह, पांच, च्यारि, तीन, दोय, एक का भाग दीएं नव हो हैं । बहुरि दश संयोगी नव घाटि गच्छ का आठ बार संकलन धनमात्र है। इहां परमार्थ लें संकलन नाहीं । आतै एक का सर्द बार संकलन काही दो है: नाते एक है; जैसे सबनि का जोड दीएं दशवां स्थान विधे पांच से बारह भंग भएं । असे ही सर्व स्थाननि विष स्थावना। तहाँ अंत का चौसठियां स्थान विर्षे प्रत्येक भंग एक; बहुरि द्विसंयोगी भंग एक घाटि गच्छमात्र सरेसडि, बहुरि त्रिसंयोगी भंग दोय घाटि गच्छ का एक बार संकलन धनमात्र तहाँ बासठि, तरेसठि की दोय, एक का भाग दीएं, उगणीस सै तरेपन हो हैं।
___ बहुरि चतुःसंयोगी तीन धाटि गच्छ का दोय बार संकलन धनमात्र, तहां इकसठि, बासठि, तरेसठि कौं तीन, दोय, एक का भाग दीएं, गुणतालीस हजार सात सं ग्यारह भंग हो हैं।
बहुरि पंच संयोगी च्यारि घाटि गच्छ का तीन वारं संकलन धनमात्र, तहां साठि, इकसठि, बासठि, तरेसठि कौ च्यारि, तीन, दोय, एक का भाग दीए पांच लाख पिच्याणवै हजार छ से पैसठ हो हैं। जैसे ही षट् संयोगी आदि भंग पांच
आदि एक एक बधता घाटि गच्छ का तीन प्रादि एक एक बधता बार संकलन धनमात्र जानने । तहां पूर्वोक्त ते गुरणसति, अठावन आदि भाज्य विर्षे पर पांच, छह आदि भागहारनि विष अधिक अधिक मांडि, भाज्य कौं भागहार का भाग दीएं, जेता जेता प्रमाण पावै, तितना तितना तहां तहां षट्संयोगी प्रादि भंग जानने । तहां तरेसठि संयोगी भंग बासठि घाटि गच्छ दोय, ताका एकसठि बार संकलन धनमात्र तहां दोय, तीन आदि एक एक बधता तरेसठि पर्यंत कौं बासठि, इकसठि आदि एक एक घटता एक पर्यंत का भाग दीएं , यथा संभव अपर्वतन कीएं तरेसठि भंग हो हैं । बहुरि चौसठि संयोगी भंग एक ही है। असे चौसठिवां स्थान विर्षे प्रत्येक प्रादि : चौसठि संयोगी पर्यंत भंगनि की जोड़ें, एकट्ठी का प्राधा प्रमाणमात्र भंग होइ । असे एक प्रादि एक एक अधिक चौसठि पर्यन्त अक्षरनि के स्थाननि विर्षे पत्तेयभंगमेन' इत्यादि करण सूत्रनि करि भंग हो है।
अथवा गुणस्थानाधिकार विषं प्रमार्दनि का व्याख्यान करते अक्ष संचार विधान कहा था, तिस विधान कर भी असे ही भंग हो हैं । ते भंग क्रम से एक,
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| गोम्मटसार जीयकाय गाथा ३५५ दीयं, चारि, पाठ, सोलह, बत्तीस, चौसठ, एक से अठाईस, दोय सै छप्पन, पांच से बारह एक हजार चौबीस, दोय हजार अडतालिस, च्यारि हजार छिनर्व, पाठ हजार एक से बानवे, सोलह हजार तीन से चौरासी, बत्तीस हजार सात से अडसठि, पैंसठि हजार पांच से छत्तीस, एक लाख इकतीस हजार बहत्तरि, दोय लाख बासठि हजार एक से चवालीस, पांच लाख चौबीस हजार दोय सै अठासी, दश लाख अडतालीस हजार पांच से छिहत्तरि, बीस लाख सित्ताणवै हजार एक सं बावन, इकतालीस लाख चौराणवै हजार तीन से दोय, तियासी लाख अठासी हजार छ सै चारि, एक कोडि सडसठिलाख तेहत्तरि हजार दोष से पाठ इत्यादि दूरणे दूरण हो हैं । अत स्थान हैं चौथा, तीसरा, दूसरा अन्तस्थान विर्षे एकट्टी का सोलहवां, आठवां, चौथा, दूसरा, भागमात्र भए, तिन सबनि कौं जोर्ड, 'चउसद्विपदं विरलिय' इत्यादि सूत्रोक्त एक घाटि एकट्ठी मात्र भंग हो है । अथवा 'अन्तधणं गुणगुणियं' 'आदि विहीणं रूउणुतरभजिय' इस करण सूत्र करि अन्त एकट्ठी क साधा लाकौं गुणकार दोय करि गुणे, एकट्ठी, तामै एक घटाएं, एक घाटि एकट्टी एक घाटी गुणकार एक, ताका भाग दीएं भी इसने ही सर्व भंग हो हैं। जैसे सर्वश्रुत संबंधी समस्त अक्षरनि की संख्या एक घाटि एकट्टी प्रमाण जानना ।
__ इहां जैसे अ, आ, आ, इ, ई, ई इनि छह अक्षरनि विर्षे प्रत्येक भंग छह, द्वि संयोगी पंद्रह, त्रि संयोगी वीस, चतुः संयोगी पंद्रह, पंच संयोगी छह, छह संयोगों एक मिलि तरेसठि भंग होइ । छह जायगा दूवा मांडि, परस्पर मुणे एक घटाय तरेसठि हो हैं । तैसें चौसठि मूल अक्षरनि विर्ष पूर्व एक एक स्थान वि एक एक प्रत्येक भंग मिलि, चौसठि भएं । असें ही सर्व स्थानकनि के द्वि संयोगी, वि संयोगी आदि भंग मांडि, जितने जितने होइ, तितने तितने द्वि संयोगी, त्रि संयोमी आदि भम जानने ! सबनि कौं जोड़ें, एक घाटि एकट्ठी प्रमाण हो हैं । सोई चौसठि जायगा दोय का अंक मांडि, परस्पर गुण, तहां एक घटाएं, एक घाटि एकट्ठी प्रमाण श्रुतज्ञान के अक्षर .जामने।
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मझिम-पदक्खरवहिदवण्णा से अंगपुख्यगपदाणि । सेसक्खरसंखा ओ, पइण्णयारणं पमारणं तु ॥३५॥
मध्यमपदाक्षरावहितवरास्ते अंगपूर्वगपदानि । शेषाक्षरसंख्या अहो, प्रकीर्णकानां प्रमाणं तु ॥३५५।।
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सम्यग्ज्ञानवनिका भाषाटोका ]
टीका - एक घाटि एकट्ठी प्रमाण समस्त श्रुत के अक्षर कहे तिनिकौं परमागम विर्षे प्रसिद्ध जो मध्यम पद, ताके अक्षरनि का प्रमाण सोला से चौतोस कोडि तियासी लाख सात हजार आठ सै अठ्यासी, ताका भाग दीए, जो पदनि का प्रमाण प्रावै तितने तो अंगपूर्व संबंधी मध्यम पद जानने । बहुरि अवशेष जे अक्षर रहे, ते प्रकीर्णकों के जानने । सो एक सौ बारह कोडि तियासी लाख अठावन हजार पांच इतने तो अंग प्रविष्ट श्रुत का पदनि का प्रमाण पाया । अवशेष पाठ कोडि एक लाख आठ हजार एक सै पिचहत्तरि अक्षर रहे, ते अंगबाह्य प्रकीर्णक के जानने । असे अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य दोय प्रकार श्रुत के पदनि का वा अक्षरनि का प्रमाण हे भव्य ! तू जानि ।
प्रामें श्री माधवचन्द्र विद्यदेव तेरह गाथानि करि अंगपूर्वनि के पदनि की संख्या प्ररूप हैं -
आयारे सुद्दयडे, ठाणे समवायणामगे अंगे। सो लिखापतीए साहारह धम्मकहा ॥३५६॥
प्राचारे सूत्रकृते, स्थाने समवायनामके अंगे।
ततो व्याख्याप्रज्ञप्तौ नाथस्य धर्मकथायाम् ।।३५६।। टीका - द्रव्य श्रुत की अपेक्षा सार्थक निरुक्तिः लीएं, अंगपूर्व के पदनि की संख्या कहिए है । जातै भावश्रुत विषै. निरुक्त्यादिक संभव नाहीं । तहां द्वादश अंगनि विर्षे प्रथम ही आचारांग है । जाते परमागम जो है, सो मोक्ष के निमित्त है । याही ते मोक्षाभिलाषी याकौं प्रादरे हैं । तहाँ मोक्ष का कारण संवर, निर्जरा, तिनिका कारण पंचाचारादि सकल चारित्र है । तातै तिस चारित्र का प्रतिपादक शास्त्र पहिले कहना सिद्ध भया । तीहि कारण ते च्यारि ज्ञान, सप्त ऋद्धि के धारक गणधर देवनि करि तीर्थकर के मुखकमल से उत्पन्न जो सर्व भाषामयः दिव्यध्वनि, ताके सुनने ते जो अर्थ अवधारण किया, तिनिकरि शिष्य प्रति शिष्यनि के अनुग्रह निमित्त द्वादशांगरूप श्रुत रचना करी । .. .......... ... ...
तीहिं विर्षे पहिले प्राचारांग कह्या । सो आचरन्ति कहिए समस्तपन मोक्ष मार्म कौं पाराध हैं, याकरि सो प्राचार; तिहि. प्राचारांग विर्षे असा कथन है - जो कैसें चलिए? कैसे खडे रहिये ? कैसे बैठिये ? कैसे सोइए ? कैसे बोलिए? कैसे
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। गोम्मटसार जीया गाथा ३५६
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खदिए ? कैसे पाप कर्म न बंधैं ? इत्यादि गणधर प्रश्न के अनुसार यतन ते चलिये, यतन तें खड़े रहिये, यत्तन से बैठिए, यतन से सोइए, यतन ते बोलिए, यतन तै खाइये जैसे पापकर्म न बंधे इत्यादि उत्तर वचन लीयें मुनीश्वरनि का समस्त आचरण इस आचारांग विर्षे वर्णन कीजिये है। . बहुरि सूत्रयति कहिए संक्षेप में अर्थ की सूच, कहै, असा जो परमागम, सो सुत्र ताके अर्थकृतं कहिये कारणभूत ज्ञान का विनय आदि निर्विघ्न अध्ययन प्रादि क्रिया विशेष, सो जिसविर्षे वर्णन कीजिए है । अथवा सूत्र करि कीया धर्मक्रियारूप वा स्वमत • परमत का स्वरूप क्रिया रूप विशेष, सो जिस विर्षे वर्णन कीजिये, सो सूत्रकृत नामा दूसरा अंग है।
बहुरि तिष्ठन्ति कहिए एक आदि एक एक बधता स्थान जिस विर्षे पाइये, सो स्थान नामा तीसरा अंग है । तहां अंसा वर्णन है । संग्रह नय करि प्रात्मा एक है; व्यवहार नय करि संसारी पर मुक्तं दोय भेद संयुक्त है । बहुरि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इति लीन लक्षणानि काटि संयुत्ता हैं । बहुरि कर्म के वश नै च्यारि गति विर्षे प्रभ है । ता” चतुःसंक्रमण युक्त है । बहुरि औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, श्रीदयिक, पारिवामिक भेद करि पंचस्वभाव करि प्रधान है । बहुरि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्च, अध: भेद करि छह गमन करि संयुक्त है । संसारी जीव विग्रह गति विष विदिशा में गमन नः कारे, श्रेणीबद्ध छहौ दिशा विर्षे गमन करै है । बहुरि स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्ति .. नास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्ति प्रवक्तव्य, स्यान्तास्ति प्रवक्तव्य, स्यादस्तिनास्तिप्रवक्तव्य इत्यादि सप्त भंगी विर्षे उपयुक्त है । बहुरि अाठ प्रकार कर्म का आश्रय करि संयुक्त है । बहुरि जीव, अजीव, पात्रब, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप ये नव पदार्थ हैं विषय जाके ऐसा नवार्थ है । बहुरि पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय भेद ते दश स्थान हैं। इत्यादि जीव कौं प्ररुप है । बहुरि पुद्गल सामान्य अपेक्षा एक है; विशेष करि अणु स्कन्ध के भेद ते दोय प्रकार हैं, इत्यादि पुद्गल कौं प्ररुपै है । जैसे एकने प्रादि देकरि एक एक बधता स्थान इस अंग विर्षे परिणये है।
: बहुरि 'स' कहिए समानता करि अवेयंते कहिये जीवादि पदार्थ जिसविर्षे जानिये, सो समवायांग चौथा जालना || इस विर्षे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा समानता प्ररुपै हैं।
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सभ्यज्ञामचन्द्रिका भाषादीका
तहां द्रव्य करि धर्मास्तिकार पर अधर्मास्तिकाय समान है । संसारी जीवनि करि संसारी जीव समान हैं । मुक्त जीव करि मुक्त जीव समान हैं। इत्यादिक द्रव्य समवाय हैं। ..बहुरि क्षेत्र करि प्रथम नरक का प्रथम पाण्डे का सीमंत नामा इंद्रकविला पर अढाई द्वीपरूप मनुष्यक्षेत्र, प्रथम स्वर्ग का प्रथम पटल का ऋजु नामा, इंद्रक विमान अर सिद्धशिला, सिद्धक्षेत्र ये समान हैं। बहुरि सातवां नरक का अवधि स्थान नामा इंद्रक विला अर जंबूद्वीप पर सर्वार्थसिद्धि विमान ये समान हैं इत्यादि क्षेत्र समवाय है ।
बहुरि काल करि एक समय, एक समय समान है । प्रावली प्रावली समान है। प्रथम पृथ्वी के नारकी, भवनवासी, व्यंतर इनिकी जघन्य आयु समान है । बहुरि सातवी पृथ्वी के नारकी, साधसिद्धि के देव निको उत्कृष्ट प्रायु समान है, इत्यादिक कालसमवाय है।
बहुरि भाव करि केवलज्ञान, केवलदर्शन समान हैं । इत्यादि भावसमवाय है असे इत्यादि समानता इस अंग विष वणिये हैं।
बहुरि 'वि' कहिये विशेष करि बहुत प्रकार, ग्राहया कहिये गणघर के कीये प्रश्न, प्रज्ञाप्यते कहिये जानिये, जिसविर्षे जैसा व्याख्याप्रज्ञप्ति नामा पांचवां अंग जानना । इस विर्षे असा कथन है कि - जीव अस्ति है कि जीव नास्ति हैं, कि जीव एक है कि जीव अनेक है; कि जीव नित्य है कि जीव अनित्य है; कि जीव वक्तव्य हैं कि प्रवक्तव्य है इत्यादि साठि हजार प्रश्न गणधर देव तीर्थंकर के निकट कीये । ताका वर्णन इस अंगविर्षे है।
. बहुरि नाथ कहिये तीन लोक का स्वामी, तीर्थकर, परम भट्टारक, तिनके धर्म की कथा जिस विर्षे होइ असा वाथधर्मक्रया नाम छठा अंग हैं । इस विष जीवादि पदार्थनि का स्वभाव वर्णन करिए है । बहुरि धातियाकर्म के नाश तें उत्पन्न भया केवलज्ञान, उस ही के साथि तीर्थंकर नामा पुण्य प्रकृति के उदय से जाके महिमा प्रकट भयो; असा तीर्थकर के पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न, अर्धरात्रि इति च्यारि कालनि विर्ष छह छह घडी पर्यन्त बारह सभा के मध्य सहज ही दिव्यध्वनि होय है । बहुरि गएधर, इंद्र, चक्रवति इनके प्रश्न करने हैं और काल विर्ष भी दिव्यध्वनि हो है । असा दिव्यध्वनि निकटवर्ती श्रोतृजननि कौं उत्तम क्षमा प्रादि दश प्रकार वा रत्नत्रय स्वरूप
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[ पोम्मटसार जीवकाच गाथा ३५७
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धर्म कहै है । इत्यादि इस अंग विर्षे कथन है । अथवा इस ही छठा अंग का दूसरा नाम ज्ञातृधर्मकथा है । सो याका अर्थ यह है • ज्ञाता जो गणधर देव, जानने की है इच्छा जाकै, ताका प्रश्न के अनुसारि उत्तर रूप जो धर्मकथा, ताकौं ज्ञातृधर्मकथा कहिए । जे अस्ति, नास्ति इत्यादिकरूप प्रश्न गणधरदेव कीये, तिनिका उत्तर इस अंग विर्षे वर्णन करिये हैं । अथवा ज्ञाता ले तीर्थकर, गणधर, इंद्र, चक्रवादिक, तिनिकी धर्म संबंधी कथा इसविर्षे पाइये है । तातें भी ज्ञातृधर्मकथा असा नाम का धारी छठा अंग जानना।
तो वासयअज्झयणे, अंतयडे रण सरोववाददसे । पहाणं वायरणे, विवायसुत्ते य पदसंखा ॥३५७॥
तत उपासकाध्ययने, अंतकृते अनुत्तरोपपाददशे ।
प्रश्नानां व्याकरणे, विपाकसूत्रे च पदसंख्या ।।३५७॥ टीका - बहुरि तहां पीछे उपासते कहिये आहारादि दान करि वा पूजनादि करि संघ कौं सेवे; असे जे श्रावक, तिनिकौं उपासक कहिये । ते 'अधीयते' कहिये पढे, सो उपासकाध्ययन नामा सातवां अंग है । इस विष दर्शनिके, बतिक, सामायिक, प्रोषधोपवाल, सचित्तविरति, रात्रिभक्तविरति, ब्रह्मचर्य, प्रारंभनिवृत्त, परिग्रहनिवृत्त, अनुमतिविरत, उद्दिष्टविरत ये गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमा वा वत, शील, प्राचार क्रिया, मंत्रादिक इनिका विस्तार करि प्ररूपरण है।
बहुरि एक एक तीर्थकर का तीर्थकाल विर्षे दश दश मुनीश्वर तीव्र चारि प्रकार का उपसर्ग सहि, इंद्रादिक करी करि हुई पूजा आदि प्रातिहार्यरूप प्रभावना . पाइ, पापकर्म का नाश करि संसार का जो अंत, ताहि करते भये, तिनिकौं अंतकृत कहिये तिनिका कथन जिस अंग में होइ ताकौं अंतकृशांग पाठवां अंग कहिये । तहां श्री वर्धमान स्वामी के बारे नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलिक, विकृविल, किष्कविल, पालवष्ट, पुत्र ये दश भये । अंसें ही वृषभादिक एक एक तीर्थंकर के वार दश दश अंतकृत् केवली हों हैं । तिनिका कथन इस अंग विर्षे है ।
बहुरि उपपाद है प्रयोजन जिनिका असें औपपादिक कहिये ।
बहुरि अनुत्तर कहिये विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित, सर्वार्थ सिद्धि इनि विमाननि विर्षे जे औपपादिक होंहि उपजें, तिनिकौं अनुत्तरौपपादिक कहिये । सो
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सम्यम्मानन्तिका भाषाटा ] एक एक तीर्थंकर के बारे दश दश महामुनि दारुण उपसर्ग सहि करि, बड़ी पूजा पाइ, समाधि करि प्रारण छोड़ि, विजयादिक अनुत्तर विमाननि विर्षे उपजें । तिनिकी कथा जिस अंग विधै होइ, सो अनुत्तरौपपादिक दशांग नामा नवमा अंग जानना । तहां श्रीवर्धमान स्वामी के बार-ऋजुदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, नंद, नंदन, सालिभद्र, अभय, वारिषेण, चिलातीपुत्र ये दश भये । जैसे ही दश दश अन्य तीर्थकर के समय भी भये हैं । तिनि सबनि का कथन इस अंग विष है।
बहुरि प्रश्न कहिये धूम्हारा पुर५, ओ यूक यानियत माहिये, जिसविर्षे वर्णन करिये, सो प्रश्न व्याकरण नामा दशयां अंग जानना । इसविष जो कोई बूझनेवाला गई वस्तु कौं, वा मूठी की वस्तु कौं, या चिता वा धनधान्य लाभ, अलाभ सुख, दुःख, जीवना, मरणा, जीति, हारि इत्यादिक प्रश्न बूझै; अतीत, अनागत, वर्तमानकाल संबंधी, ताकौं यथार्थ कहने का उपायरूप व्याख्यान इस अंग विर्षे है। अथदा शिष्य कौं प्रश्न के अनुसार प्राक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेजिनी, निर्वेजिनी ये च्यारि कथा भी प्रश्नव्याकरण अंग विर्षे प्रकट कीजिये है।
तहां तीर्थकरादिक का चरित्ररूप प्रथमानुयोग, लोक का वर्णन रूप करणानुयोग, श्रावक मुनिधर्म का कथनरूप चरणानुयोग, पंचास्तिकायादिक का कथनरूप द्रव्यानुयोग, इनिका कथन अर परमत की शंका दूरि करिए, सो आक्षेपिणी कथा ।
बहुरि प्रमाण - नय रूप युक्ति, तीहिं करि न्याय के बल तें सर्वथा एकांतवादी आदि परमतनि करि कह्या अर्थ, ताका खंडन करना, सो विक्षेपिणी कथा ।
बहरि रत्नत्रयरूपधर्म अर तीर्थकरादि पद की ईश्वरता वा ज्ञान, सुन्न, वीर्यादिकरूप धर्म का फल, ताके अनुराग को कारण सो संवेजिनी कथा ।
बहरि संसार, देह, भोग के राग ते जीव नारकादि विषै दरिद्र, अपमान, पीडा, दुःख भोगवं है । इत्यादिक विराग होने कौं कारणरूप जो. कथा, सो निर्वेजिनी कथा कहिये । सो प्रैसी भी कथा प्रश्नव्याकरण अंग विर्षे पाइए है ।
बहुरि विपाक जो कर्म का उदय, ताकौं सूत्रयति कहिये कहै, सो विपाक सूत्रनामा ग्यारमा अंग जानना । इसविर्षे कर्मनि का फल देने रूप जो परिणमन, सोई उदय कहिये । ताका तीन, मंद, मध्यम, अनुभाग करि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा वर्णन पाइए. है ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषा ३५८-३५६-३६०
आधार में यादि देकर विपाक सूत्र पर्यंत ग्यारह अंग, तिनिके पदनि की संख्या कहिए है ।
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अट्ठारस छत्तीसं, बादालं घडकडी श्रड बि छप्पण्णं । सत्तरि अट्ठावीसं चोदाल सोलससहस्सा ॥३५८ ॥ इगि- दुग-पंचेयारं, लिवोस बुत्तिणउदिलक्ख तुरियादी । चुलसीविरक्मेया, कोडी य विवागसूत्तम्हि ॥ ३५६ ॥
अष्टादश पत्रिशत्, द्वाचत्वारिंशत् अष्टकृतिः अष्टद्विषट्पंचाशत् । सप्ततिः श्रष्टाविंशतिः, चतुश्चत्वारिंशत् षोडश सहलाखि ॥ ३५८ ॥
एकद्विपंचं कायशत्रयोविंशतिद्वित्रिनयतिलक्षं चतुर्थादिषु । चतुरशीतिलक्षमेका, कोटिश्च विपाकसूत्रे ॥ ३५९ ॥
टीका - प्रथम गाथा विषै अठारह श्रादि हजार कहे । बहुरि दूसरी गाथा विषे चौथा अंग आदि अंगनिविषे एकादिक लाख सहित हजार कहे । श्रर विपाकसूत्र का जुदा वर्णन कीया । श्रब इनि गाथानि के अनुसारि एकादश अंगनि की पदनि की संख्या कहिये है । प्राचारांग विषै पद मठारह हजार ( १८०००), सूत्रकृतांग विषे पद छतीस हजार (३६०००), स्थानांग विषे बियालीस हजार (४२०००), समवायांग विष एक लाख अर आठ की कृति चौंसठ हजार (१६४०००), व्याख्याप्रज्ञप्ति विषे दो लाख अट्ठाईस हजार ( २२८०००), ज्ञातृकथा अंग विषै पांच लाख छप्पन हजार, ( ५५६०००), उपासकाध्ययन अंग विषे ग्यारह लाख सत्तर हजार (११७००००),
कृतदशांग विषे तेईस लाख अट्ठाईस हज़ार ( २३२८००० ), अनुत्तरोपपादक दशांग विषै बारा लाख चवालीस हजार (२२४४०००), प्रश्न व्याकरण अंग विषै तिराणव लाख सोलह हजार ( ९३.१६०००), विपाकसूत्र अंग विषै एक कोडि चौरासी लाख (१८४००००० ) जैसें एकादश अंगनि विषे पदनि की संख्या जाननी ।
वापण रमोनानं, एयारंजुगे दी हु वादम्हि । कनजतजमताननमं, जनकनजयसीम वाहिरे वण्णा ॥ ३६० ॥
areturedोनानं, एकदशांगे सिह वादे |
कनज जमताननमं जनकनजयसीम बाह्ये वर्षाः ॥३६०॥
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सम्परतामास्त्रिका भाषाटीका 1
टीका --- इहां वा मागे अक्षर संज्ञा करि अंकनि की कहैं हैं । सो याका सूत्र पूर्वं गतिमार्गणा का वर्णन विर्षे पर्याप्त मनुष्यनि की संख्या कही है। तहां कह्या है 'कटपयपुरस्थवर्णैः' इत्यादि सूत्र कहा है । तिस ही ते अक्षर संज्ञा करि अंक जानना। क कारादिक नब अक्षरनि करि एक, दोय आदि क्रम तें नव अंक जानने । र कारादि नव अक्षरनि करि नव अंक जानने । प कारादि पंच अक्षरनि करि पंच अंक जानने । य कारादि पाठ अक्षरनि करि पाठ अंक जानने । ज कार कारन कार इनिकरि बिंदी जानिये, असा कहि आए हैं । सो इहां वापरणनरनोनानं इनि अक्षरनि करि चारि, एक, पांच, बिंदी, दोय, बिंदी, बिंदी, बिंदी ए अंक जानना । ताके चारि कोडि पंद्रह लाख दोय हजार (४१५०२०००) पद सर्व एकादश अंगनि का जोड दीयें भये ।
__ बहुरि दृष्टियाद नाम बारहवां अंग, ता.वि 'कनज़तजमसामनम' कहिये एक, बिंदी, पाठ, छह, आठ, पांच, छह, बिंदी, बिंदी, पांच इनि अंकनि करि एक से आठ कोडि अडसठि लाख छप्पन हजार पाँच (१०६६८५६००५) पद हैं सो कहिये । मिथ्यादर्शन, तिनिका है अनुवाद कहिये निराकरण जिस विर्षे असा दृष्टिवाद नामा अंग बारहवां जानना ।
तहां मिथ्यादर्शन संबंधी कुवादी तीन से तरेसठि हैं। तिनि विर्षे कौत्कल, कांठेबिद्धि, कौशिक हरि, श्मश्रु माधपिक रोमश, हारीत, मुंड, प्राश्वलायन इत्यादि क्रियावादी हैं, सो इनिके एकसौ अस्सी (१८०) कुवाद हैं।
बहुरि मारीचि, कपिल, उलूक, गार्य, व्याघ्रभूति, वाइवलि, माठर, मौद्गलायन इत्यादि प्रक्रियावादी हैं, तिनिके चौरासी (८४) कुवाद हैं ।
___ बहरि साकल्य, वाल्कलि, कुसुत्ति, सात्यमुग्रीनारायण, कठ, माध्यंदिन, मौद, पप्पलाद, बादरायण, स्विष्टिक्य, दैत्यकायन, वसु, जैमिन्य, इत्यादि ए अज्ञानवादी हैं । इनिके सडसठि (६५) कुवाद हैं ।
बहरि वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मिकि, रोमहर्षिणि, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, उपमन्यु, ऐंद्रदत्त, प्रगस्ति इत्यादिक ए विनयवादी हैं । इनिके कुवाद बत्तीस
__ सब मिलाएं तीन सै तरेसठि कुवाद भये, इनिका वर्णन भावाधिकार विर्ष कहेंगे । इहां प्रवृत्ति विर्षे इनि कुवादनि के जे जे अधिकारी, तिनिके नाम कहे हैं।
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| गोम्मसार गोवकाण्ड गाथा ३६१-३६२
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बहुरि अंग बाह्य जो सामायिकादिक, तिनि विषै 'जनकनमयसीम' कहिए पाठ, बिंदी, एक, बिदी, पाट, एक, सात, पांच अंक तिनिके पाठ कोडि एक लाख आठ हजार एक सै पिचत्तरि (८०१०८१७५) अक्षर. जानने। .
चंद-रवि-जंबुदीवय-दोधसमुद्दय-वियाहपण्णती। ...
परियम्मं पंचविह, सुत्तं पढमाणि जोगमदो ॥३६॥ । पुवं जल-थल-साया-पागासय-रूवमयमिमा पंच । भेदा हु चूलियाए, तेसु पमाणं इणं कमसो ॥३६२॥
चंद्ररविजंबूद्वीपकद्वीपसमुद्रकव्याख्याप्रजप्तयः । परिगर्म निषिधं, सूत्रं प्रथमानुयोगमतः ॥३६१॥
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पूर्व जलस्थलमायाकाशकरूपगता इमे पंच ।
मेवा हि चूलिकायाः, तेषु प्रमाणमिदं क्रमशः ॥३६२।। टोका --- दृष्टिवाद नामा बारहवां अंग के पंच अधिकार हैं - परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, जूलिका ए पंच अधिकार हैं; तिनि विर्षे परितः कहिए मग ते कारिग कहिये जिन से गुणकार भागहारादि रूप गणित होइ, असे करणसूत्र, वे जिस विधं पाइए, सो परिकर्म कहिये यो परिकर्म पांच प्रकार हैं -- चंद्रप्रज्ञप्ति, सुर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, व्याख्याप्राप्ति ।
तहाँ चंद्रप्रज्ञप्ति - चंद्रमा का विमान, आयु, परिवार, ऋद्धि, गमनविशेष, वृद्धि, हानि, सारा, आधा, चौथाई ग्रहण इत्यादि प्ररूपै है । बहुरि सूर्यप्रज्ञप्ति - सूर्य का आयु मंडल, परिवार, ऋद्धि, गमन का प्रमाणा ग्रहण इत्यादि प्ररूपे है । बहुरि जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति - जंबूद्वीपसंबंधी मेरुगिरि, कुलाचल, द्रह, क्षेत्र, वेदी, वनखंड, व्यंतरनि के मंदिर, नदी इत्यादि प्ररूप हैं । बहुरि द्वीपसागरप्रशप्ति - असंख्यात द्वीप समुद्र संबंधी स्वरूप वा तहां तिष्ठते ज्योतिषी, व्यतर, भवनवासीनि के प्रावास तहां अकृत्रिम जिन मंदिर, तिनको प्ररूप है । बहुरि व्याख्याप्रज्ञप्ति - रूपी, अरूपी, जीव, अजीव प्रादि पदार्थनि का वा भव्य अभव्य आदि प्रमाण करि निरूपण कर है। असे परिकर्म के पंच भेद हैं।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकर भाषाका ].
बहुरि सूत्रयति कहिये मिथ्यादर्शन के भेदनि कौं सूचै, बतावै, ताको सूत्र कहिये । तिस दिय जीव अधर ही है; अकर्ता है; निर्गुण है; अभोक्ता है। स्वप्रकाशक ही है; परप्रकाशक ही है; अस्तिरूप ही है; नास्तिरूप ही है इत्यादि क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, बिनयवाद, तिनके तीन सै तरेसठि भेद, तिनिका पूर्व पक्षपने करि वर्णन करिये है।
बहुरि प्रथम कहिए मिथ्यादृष्टी अवती, विशेष ज्ञानरहित, ताकौं उपदेश देने निमित्त जो प्रवृत्त भया अधिकार - अनुयोग; कहिए सो प्रथमानुयोग कहिए । तिहिं विषं चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवति, नव बलभद्र, नव नारायण, नव प्रतिनारायण इनि तरेसठि शलाका पुरुषनि का पुराण वर्णन कीया है ।
बहुरि पूर्वगत चौदह प्रकार, सो प्रामें विस्तार में लीएं कहेंगे ।
बहुरि चूलिका के पंच भेद जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता, आकाशगता ए पंच भेद हैं ।
तिनि विर्षे जलगता चूलिका तौ जल का स्तंभन करना, जल विष गमन करना, अग्मि का स्तंभन करना, अग्नि का भक्षण करना, अग्नि विर्षे प्रवेश करना इत्यादि क्रिया के कारण भूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरणादि प्ररूप है । बहुरि स्थलगता चूलिका मेरुपर्वत, भूमि इत्यादि विषं प्रवेश करना शीघ्र गमन करना इत्यादिक किया के कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरणादिक प्ररूप है। बहुरि मायागता चूलिका मायामई इन्द्रजाल विक्रिया के कारण भूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरणादि प्ररूप है । बहुरि रूंपगता चूलिका सिंह, हाथी, घोड़ा, वृषभ, हरिण इत्यादि नाना प्रकार रूप पलटि करि धरना; ताके कारण मंत्र, तंत्र, तपश्चरणादि प्ररूप है। वा चित्राम, काठ, लेपादिक का लक्षण प्ररूप है। वा धातु रसायन कौं प्ररूप है । बहुरि आकाशमता धूलिका - अाकाश विर्षे गमन प्रादि को कारण भूत मंत्र, तंत्रादि प्ररूप है.। जैसे चूलिका के पांच भेद जानने । ... ए चंद्रप्रज्ञप्ति प्रादि देकर भेद कहे । तिनिके पदनि का प्रमाण आगे कहिए है, सो हे भव्य तू जानि। .. . ..." गतनम मनगं गोरम, मरगत जवगात नोननं जजलक्खा ।
' मनमन धममननोनननामं रनधजधरानन जलादी ॥३६३॥
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-५०५ ]
( तोम्मटसार जीवा ३६४
याजकनामेनाननभेदाणि पदाणि होति परिकम्मे । कावधि वाचनाननमेसो पुरष चूलियाजोगो ॥ ३६४॥
तन मन गोरम, मरगत जयगालनोमनं जजलक्षाणि । मननन धममननोन नामं रनधजवरानन जलादिषु ॥ ३६३ ॥
याजकनामेनाननमेतानि पदानि भवंति परिकर्मणि । Sarraforarearranषः पुरुः चूलिकायोगः ॥ ३६४।।
टोका
इहां 'कटपयपुरस्थवर्णैः' इत्यादि सूत्रोक्त विधान प्रक्षर ज्ञा करि अंक कहैं हैं; सो अंकनि करि जो प्रमाण भया, सोई वहां कहिए है एक एक अक्षर ते एक एक अंक जानि लेना; सो 'गतनमनोतनं' कहिये छत्तीस लाख पांच हजार (३६०५०००) पद चंद्रप्रज्ञप्ति विष हैं।
'' कहिए पांच लाख तीन हजार ( ५०-३०००) पद सूर्यप्रज्ञप्ति विष हैं ।
बहुरि 'गोरम' कहिये तीन लाख पचीस हजार (३२५००० ) पद जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति विषे हैं ।
T
बहुरि 'मरगतatri' कहिये बावन लाख छत्तीस हजार (५२३६०००) प्र द्वीपसागर प्रज्ञप्ति विषं हैं ।
aft 'जयगाaatri' कहिये चौरासी लाख छत्तीस हजार (८४३६०००) पद व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग के हैं ।
बहुरि 'reter' कहिए प्रयासी लाख ( ( ८८०००००) पद सूत्र सामा भेद विष हैं ।
बहुरि मननन कहिए पांच हजार (५००० ) पद प्रथमानुयोग विषै हैं ।
'बहुरि धमraataar कहिए पिच्या कोट पचास लाख पांच (२५५०००००५) पद पूर्वगत विष हैं। चौदह पूर्वनि के इतने पद हैं ।
बहुरि रनधजधराने कहिए दोय कोडि नव लाख निवासी हजार दोय से (२०६८९२००) पद जलगता आदि चूलिका तिन विषै एक एक के इतने इतने पद
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सभ्यरक्षामचन्द्रिका भाषाटीकर 1.
जानने । जलगता पद (२०६५६२००), स्थलगता २०६८६२००, मायागता २०.६८६२००, आकाशगता २०६८६.२००, रूपगता २०६८६२०० असे ५६ जागा - बहुरि 'याजकनामेनाननं' कहिए एक कोडि इक्यासी लाख पांच हजार (१८१०५०००) पद चंद्रप्रज्ञप्ति प्रादि पांच प्रकार परिकर्म का जोड़ दीये हो हैं ।
बहुरि 'कानवधिवाचनाननं कहिए दश कोडि गुणचास लाख छियालीस हजार (१०४६४६०००) पद पाँच प्रकार चूलिका का जोड़ दीये हो हैं । ... इहां ग कार ते तीन का अंक, त कार से छह का अंक, म कार ते पांच का अंक, र कार से दोय का अंक, न कार ते बिंदी, इत्यादि अक्षर संज्ञा करि अंक संज्ञा कहे हैं । क कार ते लेय ग कार तीसरा अक्षर है; ताते तीन का अंक कह्या । बहुरि द कार तै त कार छठा अक्षर है; ताते छह का अंक कह्या । प कार ते म कार पांचवां अक्षर है; तातें पांच का अंक का । य कार ते र कार दूसरा अक्षर है; तातें दोय का अंक कह्या है । न कार तै बिदी कही है । इत्यादि यहां अक्षर संज्ञा तें अंक जानने।
पण्णवाल पणतीस, तीस पण्णास पण्ण तेरसदं । णउदी दुदाल पुग्वे, पणवण्णा तेरससयाई ॥३६॥ छस्सय पण्णालाई, चउसयपण्णास छसयपणुबोसा । बिहि लक्खेहि बु गुणिया, पंचम रूऊण छज्जुदा छठे ॥३६६॥
पंचाशदष्टचत्वारिंशत् पंचत्रिंशत् त्रिशत् पंचाशत् पंचाशत् त्रयोदशशतं । नवतिः द्वाचत्वारिंशत् पूर्वे पंचपंचाशत् प्रयोदशशतानि ॥३६५॥ षट्छृतपंचाशानि, चतुः शतपंचाशत् पछतपंचविंशतिः ।
द्वाभ्यां लक्षाभ्यां तु मुरिगतानि पंचमं रूपोनं षट्युतानि षष्ठे ॥३६६३५ टोका - उत्पाद आदि चौदह पूर्वनि विर्षे पदनि की संख्या कहिए है। तहां वस्तु का उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, आदि अनेक धर्म, तिसका पूरक, सो उत्पादनामा प्रथम पूर्व है । इस विषं जीवादि वस्तुनि का नाना प्रकार नय विवक्षा करि क्रमवर्ती युगपत् अनेक धर्म करि भये, जे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, ते तीनों तीन काल अपेक्षा नव
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गोम्मटसारंजीयकाण्ड पाथा ३६५-३६६
धर्म भये । सो उन धर्मरूप परिरण्या वस्तु, सो भी नव प्रकार हो है । उपज्या, उपज है, उपजैगा । नष्ट भया, नष्ट हो है, नष्ट होयगा । स्थिर भया, स्थिर है, स्थिर होगया। पैसे गद प्रकार का नाम मा एक मानद नव उत्पन्नपना आदि धर्म जानने । जैसे इक्यासी भेद लीये द्रव्य का वर्णन है। याके दोय लाख तें पचासकौं गुरिणये, असा एक कोडि (१०००००००) पद जानने ।
बहुरि अग्र कहिये, द्वादशांग विर्षे प्रधानभूत जो वस्तु, ताका अयन कहिये ज्ञान, सो ही है प्रयोजन जाका, असा अग्रायणीय नामा दूसरा पूर्व है । इस विर्षे सांत से सुनय पर दुर्नय, तिनिका अर सप्त तत्त्व, नव पदार्थ, षद्रव्य इत्यादि का वर्णन है । याके दोय लाख ते अड़तालीस कौं गुरिणये, असे छिन लाख (६६०००००)
बहुरि वीर्य कहिये जीवादिक वस्तु की शक्ति -- समर्थता, ताका है अनुप्रवाद कहिये वर्णन, जिस विर्षे असा वीर्यानुवाद नामा तीसरा पूर्व है । इस विर्षे आत्मा का वीर्य, पर का वीयं, दोऊ का वीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भाववीर्य, तपोवीर्य इत्यादिक द्रव्य गुण पर्यायनि का शक्तिरूप वीर्य तिसका व्याख्यान है। याकौं दोय लाख ते पैंतीस कौं गुरिणये असें सत्तरि लाख (७००००००) पद हैं।
बहरि अस्ति, नास्ति आदि जे धर्म तिनिका है प्रवाद कहिये प्ररूपण इस विर्षे असा अस्ति नास्ति प्रवाद नामा चौथा पूर्व है। इस विर्षे जीवादि वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि संयुक्त हैं । तातै स्यात् अस्ति है । बहुरि पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विर्षे यह नाहीं है; तातें स्थानास्ति है। बहरि अनुक्रम तें स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा स्यात् अस्ति - नास्ति है । बहुरि युगपत् स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा द्रव्य कहने में न आवे, तातै स्यात् प्रवक्तव्य है । बहुरि स्व द्रव्य, क्षेत्र काल भाव करि द्रव्य अस्ति रूप है। बहुरि युगपत् स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि कहने में प्रादे; तातें स्यात् अस्ति अवक्तव्य है। बहुरि पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि द्रव्य नास्तिरूप है । बहुरि युगपत् स्व - पर द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव करि द्रव्य कहने में न पावै, ताः स्यात्नास्तिप्रवक्तव्य है । बहुरि अनुक्रम तें स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा द्रव्य अस्ति नास्ति' रूप है । पर युगपत् स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा प्रवक्तव्य है; तातें स्यात् अस्ति - नास्ति अवक्तव्य है । अॅसें जिस प्रकार अस्ति नास्ति अपेक्षा सप्त भेद कहे हैं। तैसे एक-अनेक
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सभ्याज्ञानचन्द्रिका मापाटीका ]
धर्म अपेक्षा सप्त भंग हो हैं । अभेद अपेक्षा स्थात् एक है। भेद अपेक्षा स्थात् अनेक हैं । क्रम ते अभेद भेद अपेक्षा स्यात् एक - अनेक है । युगपत् अभेद भेद अपेक्षा स्यात् प्रवक्तव्य है । अभेद अपेक्षा वा युगपत् अभेद-भेद अपेक्षा स्यात एक प्रवक्तव्य है। भेद अपेक्षा वा युगपत् अभेद भेद अपेक्षा स्यात् अनेक अवक्तव्य है । क्रम से प्रभेद -- भेद अपेक्षा वा युगपत् अभेद - भेद अपेक्षा स्यात् एक - अनेक अबक्तव्य है। अॅसें ही नित्य अनित्य नै आदि दे अनंत धर्मनि के सप्त भंग हैं । तहां प्रत्येक भंग तीन अस्ति, नास्ति, प्रवक्तव्य, अर द्विसंयोगी भंग तीन अस्ति नास्ति, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अर त्रिसंयोगी एक प्रस्ति - नास्ति - प्रवक्तव्य । इनि सप्त भंगनि का समुदाय सो सप्तभंगी सो प्रश्न के वश तें एक ही वस्तु विर्षे अविरोधपनै संभवती नाना प्रकार नयनि की मुख्यता, गौरणता करि प्ररूपण कीजिए है । इहां सर्वथा नियमरूप एकांत का अभाव लीए कथंचित् असा है अर्थ जाका सो स्यात् शब्दः जानना । इस अंग के दोय लाख ते तीस कौं गुरिगए सो साठि लाख (६००००००)
बहुरि ज्ञाननि का है प्रवाद कहिए प्ररूपण, जिस विर्षे असा ज्ञानप्रवाद नामा पांचमां पूर्व है । इस विष मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्यय, केवल ए पांच सम्थग्ज्ञान अर कुमति, कुश्रुति, विभंग ए तीन कुज्ञान इनिका स्वरूप, संख्या का विषय का फल इत्यादि अपेक्षा प्रमाण अप्रमाणता रूप भेद वर्णन कीजिए है । पाके दोय लाख ते पचास कौं गुण, एक कोटि होइ तिन में स्यों एक घटाइए जैसे एक धाटि कोडि (६६६६६६६) पद हैं । गाथा विष पंचम रूऊरण असा कहा है । तातै पांचमां अंग में एक घटाया अन्य संख्या गाथा अनुसारि कहिए ही है ।
बहुरि सत्य का है प्रवाद कहिए प्ररूपण इस विर्षे असा सत्यप्रवाद नामा छठा पूर्व है । इस विर्षे वचन गुप्ति - बहुरि वचन संस्कार के कारण, बहुरि बचन के प्रयोग, बहुरि बारह प्रकार भाषा, बहुरि बोलनेवाले जीवों के भेद, बहुरि बहुत प्रकार मृषा वचन, बहुरि दशप्रकर सत्य वचन इत्यादि वर्णन है । तहां असत्य न बोलना वा. मौन धरना सो सत्य वचन गुप्ति कहिए ।
बहुरि धचन संस्कार के कारण दोय एक तौ स्थान, एक प्रयत्न । तहां जिनि स्थानकनि ते अक्षर बोलें, जाहि ते स्थान पाठ हैं - हृदय, कंठ, मस्तक, जिह्वा का मूल, दंत, नासिका, होठ, तालथा । जैसे अकार, क वर्ग, ह कार, विसर्ग इनिका कंठ स्थान है जैसे अक्षरनि के स्थान जानने।
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[ गोम्मटसार जोवका गाथा ३६५-३६६
बहुरि जिस प्रकार अक्षर कहे जांहि ते प्रयत्न पांच हैं- स्पृष्टता, ईषत् स्पृष्टता, विवृतता, ईषद्विवृतता, संवृतता । तहां अंग का अंग तैं स्पर्श भए, अक्षर बोलिए सो स्पृष्टता । किछू थोरा स्पर्श भए बोलिए, सो ईषत्स्पृष्टता अंग को उघाडि बोलिए, सो विवृतता कि थोरा उघाडि बोलिए, सो ईषद्विवृतता अंग तें अंग को ठोकि बोलिए; सो संवृतता । जैसें प कारादिक होठ से होठ का स्पर्श भएं ही उच्चारण होइ, असे प्रयत्न जानने ।
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बहुप्रयोग दो प्रकार शिष्टरूप भला वचन, दुष्टरूप बुरा वचन | बहुरि भाषा बारह प्रकार, तहां इसने जैसा कीया हैं; सा अनिष्ट वचनः कहना, सो अभ्याख्यान कहिए। बहुरि जाते परस्पर विशेष होइ, सो कलह वचन । बहुरि पर का दोष प्रकट करना; सो पैशुन्य वचन | बहुरि धर्म अर्थ काम मोक्ष का संबंध रहित वचन, सो प्रसंबंद्ध प्रलाप वचन | बहुरि इन्द्रिय विषयनि विषै रति का उपजावन हारा वचन; सो रति वचन | बहुरि विषयनि विषै रति का उपजाव हारा बचन सोअरति वचन । बहुरि परिग्रह का उपजावने, राखने की आसक्तता का कारण वचन, सो उपधि वचन | बहुरि व्यवहार विषे ठिगनेरूप वचन, सो निकृतिवचनः । बहुरि तप ज्ञानादिक विषे अविनय का कारण वचन; सो अप्रगति वचन ।' बहुरि चोरी का कारणरूप वचन, सो मोष वचन | बहुरि भले मार्ग का उपदेशरूप वचन, सो सम्यग्दर्शन वचन । बहुरि मिथ्या मार्ग का उपदेशरूप वचन, सो मिथ्यादर्शन वचन | जैसे बारह भाषा है ।
बहुरि बेइंद्रिय आदि सैनी पंचेन्द्रिय पर्यंत वचन बोलने वाले वक्तानि के भेद हैं 'बहुरि द्रव्य क्षेत्र काल भावादिक करि मृषा जो असत्य वचन; सो बहुत प्रकार हैं । बहुरि जनपदादि दश प्रकार सत्यं वचन पूर्वे योग मार्गणा विषै कहि आए हैं; जैसा जैसा कथन इस पूर्व वि है । याके दोय लाख तें पचास को गुणिए श्रर छज्जुदा इस वचन करि छह मिलाइए से एक कोटि छह (१००००००६) पद हैं ।
बहुरि श्रात्मा का प्रवाद कहिए प्ररूपण है, इस विषे सा श्रात्मप्रबाद नामा सातमां पूर्व है । इस विषै गाथा
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जीव कत्ता यं वेत्ता य पाणी भोत्ता य पुग्गलो 1 aat froहू सयंभू य सरीरी तह मालवी ॥
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सम्यक्षामदगिका भाषाटोका
ससा जंतू य मारणी य मायी जोगी य संकुडो ।
असंकुडो य खेसाहू, अंतरपा तहेव य॥ इत्यादि प्रात्मस्वरूप का कथन है; इनका अर्थ लिखिए है।
जोति कहिये जीवे , व्यवहार करि दर्श प्राणनि कौं, निश्चय करि ज्ञान दर्शन सम्यक्त्वरूप चतन्य प्राणनि कौं धार है। पर पूर्व जीया, आग जीवेगा; ताते आत्मा को जीव काहिए।
बहुरि व्यवहार करि शुभाशुभ कर्म कौं पर निश्चयं करि चैतन्य प्राणनि की करै है, तात कर्ता कहिए।
बहुरि व्यवहार करि सत्य असत्य वचन बोल है; ताते वक्ता है । निश्चय करि वक्ता नाहीं है।
बहुरि दोऊ नयनि करि जे प्राण कहे, ते याकै पाइए हैं । ताते प्राणी कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि शुभ अशुभ कर्म के फल कौं पर निश्चय करि निज स्वरूप को भोगव है; तातें भोक्ता कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलनि कौं पूरै है अर गाले है; ताते पुद्गल कहिए । निश्चय करि आत्मा पुद्गल है माहीं।
बहरि दोऊ नयनि करि लोकालोक संबंधी त्रिकालवर्ती सर्व ज्ञेयनि कौं 'वेत्ति' कहिए जाने है, ताते वेदक कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि अपने देह कौं वा केवल समुद्धात करि सर्व लोक कौं अर निश्चय करि ज्ञान ते सर्व लोकालोक कौं वेवेष्टि कहिए व्याप हैं, तात विष्ण कहिए।
बहुरि यद्यपि व्यवहार करि कर्म के वश” संसार विर्षे परिणब है; तथापि निश्चय करि स्वयं पाप ही आप विर्षे ज्ञान - दर्शन स्वरूप ही करि भवति कहिए परिणव है; तातें स्वयंभू कहिए।
बहुरि व्यवहार करि प्रौदारिक प्रादिक शरीर, याक हैं ; तातै शरीरी कहिये; निश्चय करि शरीरी नाहीं है ।
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गोमटसार जीवापाड गायर ३.६५-३६६ बहुरि व्यवहार करि मनुष्यादि पर्यायरूप परिणावं है ; तातै मानव कहिए । उपलक्षण ते नारकी वा तिर्यंच वा देव कहिए । निश्चय करि मनु कहिए ज्ञान, तीहिं वि भवः कहिए सत्तारूप है; तातै मानव' कहिए ।
... बहुरि व्यवहार करि कुटुंब, मित्रादि परिग्रह विर्षे सजति कहिये आसक्त होइ प्रवते है; तातें सक्ता कहिए । निश्चयकरि सक्ता नाहीं है. । ..
बहुरि व्यवहार करि संसार विर्षे नाना योनि विर्षे जायते कहिए उपजे है, जात जंतु कहिये । निश्चय करि जंतु नाहीं है । ....... ... ... ..
बहुरि व्यवहार करि मान कहिए अहंकार, सो याके हैं। तात मानी कहिए । निश्चयकरि मानी नाहीं है। .. .. .. ... .
बहुरि व्यवहार करि माया जो कपटाई; सो याकै है; तातें मायावी कहिए। निश्चय करि मायावी नाहीं है। .. ... . ................ .... बहुरि व्यवहारकरि मन, वचन, काय क्रियारूप योग याकै है ; तातें योगी कहिए । निश्चय करि योमी नाहीं है। .: . बहुरि व्यवहार करि सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना करि प्रदेशनि को संकोचै है; तातै संकुट है । बहुरि : केवलिसमुद्धातः करि सर्व लोक विष व्याप है; तात असंकुट है । निश्चय करि प्रदेशनि का संकोच विस्तार रहित किंचित् ऊन चरम शरीर प्रमाण है; तातै संकुट, असंकुट नाहीं है । .. .. बहुरि दोऊ नय करि क्षेत्र, जो लोकालोक, ताहि जानाति (६) कहिए जाने है। तातै क्षेत्रज्ञ कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि अष्ट कर्मनि के अभ्यंतर प्रवत है । अर निश्चय करि चैतन्य स्वभाव के अभ्यंतर प्रवत है; तर अंतरात्मा कहिए । ....... : चकार से व्यवहार करि कर्म - नोकर्म रूप मूर्तीक द्रव्यं के संबंध ते मूर्तीकः है; निश्चय करि अमूर्तीक है। इत्यादिक आत्मा के स्वभाव जानने । इनिका व्याख्यान इस पूर्व विर्षे है । याके दोय लाख ते तेरह से कौं गुणिए असे छब्बीस कोडि (२६०००००००) पद हैं।
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Aruarनxिकर भाबाट
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बहुरि कर्म का है प्रवाद काहिए प्ररूपण, इसविर्षे असा कर्मप्रवाद नामा आठमा पूर्व है । इसविर्षे मूल प्रकृति, उत्तर प्रकृति, उत्तरोत्तर प्रकृतिरूप भेद लीएं बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता रूप अवस्था को धरै ज्ञानावरणादिक कर्म, तिनिके स्वरूप कौं वा समवधान, ईर्यापथ, तपस्या, अद्यःकर्म इत्यादिक क्रियारूप कर्मनिकों प्ररूपिए है । माके दोय लाग्य से जिले की गुगिए, जैसे एक कोडि अस्सी लाख (१८००००००) पद हैं।
बहुरि प्रत्याख्यायते कहिए निषेधिए है पाप जाकरि, ऐसा प्रत्याख्यान नामा नवमां पूर्व है । इसविर्षे नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा जीवनि का संहनन वा बल इत्यादिक के अनुसार करि काल मर्यादा लीए वा यावज्जीव प्रत्याख्यान कहिए सकल पाप सहित वस्तु का त्याग; उपवास की विधि, ताकी भावना, पांच समिति, तीन गुप्ति इत्यादि वर्णन कीजिए है । याके दोय लाख ते बियालीस कौं गुणिए, जैसे चौरासी लाख (८४०००००) पद हैं। 1. 'बहुरि विद्यानि का है अनुवाद कहिए अनुक्रमतें वर्णन इस विर्षे असा विद्यानुवाद नामा दशमां पूर्व है । इसविर्षे सात से अंगुष्ठ, प्रेत्ससेन आदि अल्पविद्या अर पांच सै रोहिणी आदि महाविद्या, तिनका स्वरूप, समर्थता, साधनभूत मंत्र, यंत्र, पूजा, विधान, सिद्ध भये पीछे उन विद्यानि का फल बहुरि अंतरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन, छिन्न ए आठ महानिमित्त इत्यादि प्ररुपिए । सो याके दोय लाख से पचावन को गरिगए असे एक कोड दश लाख (११००००००)' पद हैं।
बहुरि कल्याणनि का है वाद कहिए प्ररूपण जाविर्षे असा कल्यारपवाद नामा ग्यारह पूर्व है । इस वि तीर्थकर, चक्रवति, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण इनके गर्भ आदिक कल्याण कहिए महा उच्छव बहुरि तिनके कारणभूत षोडश भावना, तपश्चरण प्रादिक क्रिया । बहुरि चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह. मात्र इनिका गमन. विशेष, ग्रहण, शकुन, फल इत्यादि विशेष वर्णन कीजिए हैं ।यांके दोय लाख से तेरह सै कौं गुगिए असे छब्बीस कोडि (२६०००००००) पद हैं ।
बहुरि प्राणनि का है प्राधाद कहिए प्ररूपण इसविर्षे असा प्रारणावाद नामा बारह्वा पूर्व है । इसविर्षे चिकित्सा आदि पाठ प्रकार वैद्यक, पर भूतादि व्याधि दूर करने कौं कारण मंत्रादिक वा विष दूरि करणहारा जो जांगुलिक, ताका कर्म का
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| मोम्मटसार जीवकास गाथा ३६९.३६८
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इला, पिंगला, सुष्मणा, इत्यादि स्वरोदय रूप बहुत प्रकार कारणरूप सासोस्वास का भेद; बहुरि दश प्राणनि की उपकारी वा अनुपकारी वस्तु गत्यादिक के अनुसारि वर्णन कीजिए है; सो जाके दोय लाख से छह से पचास कौं मुगिए, ऐसे तेरह कोडि (१३००००.०००) पद हैं।
बहुरि क्रिया करि विशाल कहिए विस्तीर्ण, शोभायमान जैसा क्रियाविशाल नामा तेरह्वां पूर्व है । इसविर्षे संगीत, शास्त्र, छंद, अलंकारादि शास्त्र, बहत्तरि कला, चौसठि स्त्री का गुरण शिल्प आदि चातुर्यता, गर्भाधान प्रादि चौरासी क्रिया, सम्यग्दशनादि एक से पाठ क्रिया, देववंदना प्रादि पचीस क्रिया और नित्य नैमित्तिक क्रिया इत्यादिक प्ररूपिए हैं । याके दोय लाख ते च्यारि से पचास कौं गुरिगए असे नव कोडि (६०००००००) पद हैं ।
बहुरि त्रिलोकनि का बिदु कहिए अवयव भर सार सो प्ररूपिए है, याविर्षे जैसा त्रिलोकबिंदुसार नामा चौदह्वां पूर्व है । इसविर्षे तीन लोक का स्वरूप पर छब्बीस परिकर्म, पाठ व्यवहार, च्यारि बीज इत्यादि गणित अर मोक्ष का स्वरूप, मोक्ष का कारणभूत क्रिया, मोक्ष का सुख इत्यादि वर्णन कीजिए है । याके दोय लाख तें छह से पचीस कौं गुरिगए, असे बारह कोडि पचास लाख (१२५००००००)पद हैं।
असे चौदह पूर्वनि के पदनि की संख्या हो है । इहां दोय लाख का गुणकार का विधान करि गाथा विर्षे संख्या कही थी; तातै टीका विर्षे भी तेसै ही कही है ।
सामाइय चउवीसत्थयं, तदो वंदरणा पडिक्कमणं । वेणइयं किदियम्म, दसवेयालं च उत्तरज्झयणं ॥३६७॥ कप्पववहार-कप्पाकप्पिय-महकप्पियं च पुंडरियं । महपुंडरीयणिसिहियमिति चोहसमंगबाहिरयं ॥३६८॥
सामायिक सविशस्तवं, सतो वंदना प्रतिकमरणं । वनयिक कृतिकर्म, दशवकालिकं च उत्तराध्ययनं ॥३६७।। कल्प्यव्यवहार - कल्प्याकल्प्य - महाकल्प्यं च पुंडरीकं । महापुंडरीक निषिद्धिका इति चतुर्दशांगवाह ।।३६८३॥
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सावरज्ञानचन्द्रिका भाषाटीमा
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टोका - बहुरि प्रकीर्णक नामा अंगबाह्य द्रव्यश्रुत, सो चोदह प्रकार है। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, दैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प्यव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुंडरीक, महापुंडरीक, निषिद्धिका ।
तहां सं कहिए एकस्यपन करि प्रायः कहिए आगमन पर द्रव्यनि त निवृति होइ, उपयोग की आत्मा विर्षे प्रवृत्ति 'यह मैं ज्ञाता द्रष्टा हौं' असे आत्मा विर्षे उपयोग सो सामायिक कहिए । जातें एक हो आत्मा, सो जानने योग्य है; तातै ज्ञेय है। अर जानने हारा है. तातै ज्ञायक है । तातें आप कौं ज्ञाता द्रष्टा अनुभव है। .
अथवा सम कहिए राग-द्वेष रहित मध्यस्थ आत्मा, तिस विष आयः कहिए उपयोग की प्रवृत्ति; सो सामायिक कहिए, समाय है प्रयोजन जाका सो सामारिक कहिए । नित्य नैमित्तिक रूप क्रिया विशेष, तिस सामायिक का प्रतिपादक शास्त्र सो भी सामायिक कहिए ।
सो नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भेद करि सामायिक छह प्रकार है।
तहां इष्ट - अनिष्ट नाम विर्षे राग द्वेष न करना । अथवा किसी वस्तु का सामायिक असा नाम धरना, सो नाम सामायिक है।
बहुरि मनोहर वा अमनोहर जो स्त्री - पुरुषादिक का प्राकार लीए काठ, लेप, चित्रामादि रूप स्थापना तिन विर्षे राग - द्वेष न करना। अथवा किसी वस्तु विर्षे यह सामायिक है; जैसा स्थापना करि स्थाप्यो हवा वस्तु, सो स्थापनासामायिक है । बहुरि इष्ट - अनिष्ट, चेतन • अचेतन द्रव्य विर्षे राग - द्वेष न करना । अथवा जो सामायिक शास्त्र की जाने हैं पर वाका उपयोग सामायिक विषं नाहीं है, सो जीव वा उस सामायिक शास्त्र के जाननेवाले का शरीरादिक, सो द्रव्य सामायिक है ।
बहुरि ग्राम, नगर, बनादिक इष्ट अनिष्ट क्षेत्र, तिन विर्षे राग द्वेष न करना, सो क्षेत्र सामायिक है ।
बहुरि बसंत आदि ऋतु पर शुक्लपक्ष, कृष्णपक्ष, दिन, वार, नक्षत्र इत्यादि इष्ट • अनिष्ट काल के विशेष, तिनिविर्षे राग-द्वेष न करना, सो काल सामायिक
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गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६०-३६८
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बहुरि भाव, जो जीवादिक तत्त्व विर्षे उपयोगरूप पर्याय, ताके मिथ्यात्वकषायरूप संक्लेशपना की निवृत्ति अथवा सामायिक शास्त्र की जान है अर उस ही विष उपयोग जाका है, सो जीव अथवा सामायिक पर्याय रूप परिणमन, सो भावसामायिक है ।
असें सामायिक नामा प्रकीर्णक कहा है।
बहुरि जिस काल विर्षे जिनका प्रवर्तन होइ, तिस काल विर्षे तिन ही चौबीस तीर्थकरनि का नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव का प्राश्रय करि पंच कल्याणक, चौतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य, परम औदारिक दिव्य शरीर, समवसरणसभा, धर्मोपदेश देना इत्यादि तीर्थंकरपने की महिमा का स्तवन, सो चतुविशतिस्तव कहिए । तरका प्रनिगादक शास्त्र, सो नतिशालिस्ट जामा प्रकीर्णक है। . .
बहुरि एक तीर्थंकर का अवलंबन करि प्रतिमा, चैत्यालय इत्यादिक की स्तुति, सो वंदना कहिए । याका प्रतिपादक शास्त्र, सो चंदना प्रकीर्णक कहिए ।
बहुरि प्रतिक्रम्यते कहिए प्रसाद करि कीया है देवसिक आदि दोष, तिनिका निराकरण जाकरि कीजिए, सो प्रतिक्रमण प्रकीर्णक कहिए। सो प्रतिक्रमण प्रकीर्णक सात प्रकार है - देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐपिथिक उत्तमार्थ ।
तहां संध्यासमय दिन विर्षे कीया दोष, जाकरि निधारिए, सो देवसिंक है । बहरि प्रभातसमय रात्रि विर्ष कीया दोष जाकरि निवारिए, सो रात्रिक है । बहरि पंद्रह दिन, पक्ष विर्षे कीया दोष जाकरि निवारिए, सो पाक्षिक कहिए । बहुरि चौथे महीने च्यारिमास विर्षे कीए दोष जाकरि निवारिए, सो चातुर्मासिक कहिए । बहुरि वर्षवें दिन एकवर्ष विर्ष कीए दोष जाकरि निवारिए, सो सांवत्सरिक कहिए । बहुरि गमन कर से निपज्या दोष जाकरि निवारिए; सो ऐपिथिक कहिए । बहुरि सर्व पर्याय संबंधी दोष जाकरि निवारिए; सो उत्तमार्थ है । जैसे सात प्रकार प्रतिक्रमण जानना।
सो भरतादि क्षेत्र पर दु:षमादिकाल, छह संहनन करि संयुक्त स्थिर वा अस्थिर पुरुषनि के भेद, तिनकी अपेक्षा प्रतिक्रमण का प्रतिपादक शास्त्र, सो प्रतिक्रमस नामा प्रकोर्सक कहिए ।
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सम्परमानकन्द्रिका भाषाटीका 1
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बहरि विनय है प्रयोजन जाका, सो बैनयिक नामा प्रकीर्णक कहिए । इसविर्षे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, उपचार संबंधी पंच प्रकार विनय के विधान का प्ररूपण है।
__बहुरि कृति कहिये क्रिया, ताका कर्म कहिए विधान, इसविर्षे प्ररूपिए है। सो कृतिकर्म नामा प्रकीर्मक कहिए । इसविर्ष अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि नव देवतानि की वंदना के निमित्त आप आधीन होना; सो आत्माधीनता अर गिरद भ्रमणरूप तीन प्रदक्षिणा सर पृष्टी हैं मांस माह जोर नमवार पर शिर नवाइ च्यारि नमस्कार अर हाथ जोड़ि फेरनरूप बारह आवर्त इत्यादि नित्य - नैमित्तिक क्रिया का विधान निरूपिए है।
बहुरि विशेष रूप जे काल, ते विकाल कहिए । तिनिकों होते जो होय सो वैकालिक, सो दश वैकालिक इस विर्षे प्ररूपिए है, असा दशकालिक नामा प्रकोर्णक है । इस विष मुनिका प्राचार अर पाहार की शुद्धता अर लक्षण प्ररूपिए है।
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बहुरि उत्तर जिस विर्षे अधीयते कहिए पदिए; सो उत्तराध्ययन नामा प्रकोर्षक है । इस विर्षे च्यारि प्रकार उपसर्ग, बाईस परिषह, इनिके सहने का विधान वा तिनिका फल पर इस प्रश्न का यहु उत्तर असें उत्तर विधान प्ररूपिए है ।
बहुरि कल्प्य कहिए योग्य आचरण, सो व्यवह्रियते अस्मिन् कहिए प्रवृत्तिरूप कीजिए जाविर्षे असा कल्यव्यवहार नामा प्रकोर्णक है । इस विर्षे मुनीश्वरनि के योग्य प्राचरणनि का विधान अर अयोग्य का सेवन होते प्रायश्चित्त प्ररूपिए है।
बहुरि कल्प्य कहिए योग्य पर अकल्प्य कहिए अयोग्य प्ररूपिए हैं जाविर्षे, असा कल्प्याकल्प्य नामर प्रकीर्णक है । इसविर्षे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा साधुनि कौं यहु योग्य है, यहु अयोग्य है; असा भेद प्ररूपिए है ।
बहुरि महतां कहिए महान् पुरुषनि के कल्प्य कहिए योग्य, असा प्राचरण जाविर्षे प्ररूपिए है, सो महाकल्प्य नामा प्रकीर्णक है । इसविर्षे जिनकल्पी महामुनिनि के उत्कृष्ट संहनन योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विर्षे प्रवर्ते तिनके प्रतिमायोग वा आतापनयोग, अभ्रावकाश, वृक्षतल रूप त्रिकाल योग इत्यादि प्राचरण प्ररूपिए है। अर स्थविरकल्पीति की दीक्षा, शिक्षा, संघ का पोषय, यथायोग्य शरीर का समा
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I deer का गाया ३६६
air; सो आत्मसंस्कार सल्लेखना उत्तम अर्थ स्थान की प्राप्त उत्तम प्राराधना, after faशेष प्ररूपए है ।
बहुरि पुंडरीक नामा प्रकीर्णक भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, कल्पवासी इनि विष उपजने को कारण अंसा दान, पूजा, तपश्चरण, अकामनिर्जरा, सम्यक्त्व, संयम इत्यादि विधान प्ररूपिये है। वा तहां उपजने हैं जो विभवादि पाइए, सो प्ररूपिये है।
बहुत महान जोक, सो महामुंडरीक नामा प्रकीर्णक है । सो महाधिक जे इंद्र, प्रतींद्र, श्रहमिंद्रादिक, तिनविषै उपजने कौं कारण असे विशेष तश्चरणादि, विनिकों रूप है ।
बहुरि निषेधनं कहिए प्रसाद करि कीया दोष का निराकरण; सो निषिद्ध कहिए संज्ञा विषेक प्रत्ययकरि निषिद्धिका नाम भया, सो असा निषिद्धका नाम प्रकीर्णक प्रायश्चित शास्त्र है । इस विषै प्रमादतें कीया दोष का विशुद्धता के निमित्त अनेक प्रकार प्रायश्चित्त प्ररूपिए हैं । याका निसतिका असा भी नाम है ।
जैसे अंगबाह्य श्रुतज्ञान चौदह प्रकार का याके अक्षरनि का प्रमाण पूर्व का ही है ।
श्रुतज्ञान की महिमा कहै हैं
सुदकेवलं च णाणं, दोणि वि सरिसाणि होति बोहादो । सुदणाणं तु परोक्ख, पञ्चक्खं केवलं गाणं ॥ ३६६॥
श्रुतकेवलं च ज्ञान, द्वे अपि सो भवतो बोधात् । श्रुतज्ञानं तु परोक्षं, प्रत्यक्षं केवलं ज्ञानं ॥ ३६९ ॥ ॥
टीका - श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोऊ समस्त वस्तुनि के द्रव्य, गुरण, पर्याय जामने की अपेक्षा समान हैं । इतना विशेष श्रुतज्ञान परोक्ष है; केवलज्ञान
प्रत्यक्ष है ।
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भावार्थ जैसे केवलज्ञान का श्रपरिमित विषय है; तैसें श्रुतज्ञान का अप रिमित विषय है । शास्त्र ते सबैनि का जानने की शक्ति है; परि श्रुतज्ञान सर्वोत्कृष्ट
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सम्पानधविका भाषाटोका ]
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भी हो, तो भी सर्व पदार्थनि विषै परोक्ष कहिए अविशद, अस्पष्ट ही है । जातें मूर्तिक पदार्थनि विषै वा सूक्ष्म अर्थ- पर्यायनि विषै वा अन्य सूक्ष्म श्रंशनि विषै विशदा करि प्रवृत्ति श्रुतज्ञान की न हो है । बहुरि जे मूर्तिक व्यंजनपर्याय वा अन्य स्थूल अंश इस ज्ञान के विषय हैं । तिनि विषे भी अवधिज्ञानादि की नाई प्रत्यक्ष रूप न प्रवर्तें है । तातै श्रुतज्ञान परोक्ष है ।
बहुरि केवलज्ञान प्रत्यक्ष कहिए पदार्थ, स्थूल -- सूक्षा तिथि
विशद पर स्पष्टरूप मूर्तिक- अमूर्तिक है जाते समस्त ग्रावरण अर वीर्यातराय के क्षय ने प्रकट हो है, तातें प्रत्यक्ष है । अक्ष कहिए श्रात्मा, तिहिं प्रति निश्चित होइ, कोई पर द्रव्य की अपेक्षा न चाहे, सो प्रत्यक्ष कहिए । प्रत्यक्ष का लक्षण विशद वा स्पष्ट है | जहां अपने विषय के जानने मैं कसर न होइ ताक विशद या स्पष्ट कहिए ।
बहुरि उपात्त वा अनुपात्तरूप पर द्रव्य की सापेक्षा को लीए जो होइ, सो परोक्ष कहिये । याका लक्षरण प्रविशद - अस्पष्ट जानना । मन, नेत्र अनुपात है; अन्य चारि इंद्री उपात्त हैं ।
श्रुतज्ञान केवलज्ञान विषै प्रत्यक्ष परोक्ष लक्षण भेद से भेद है । बहुरि विषय अपेक्षा समानता है । सोई समंतभद्राचार्य देवागम स्तोत्र विषं कला है
स्याद्वावकेवलज्ञाने, सर्वतत्वप्रकाशने ।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वम्यतमं भवेत् 11
याका अर्थ स्याद्वाद तौ श्रुतज्ञान श्रर केवलज्ञान ए दोऊ सर्व तत्त्व के प्रकाशी हैं, परन्तु प्रत्यक्ष परोक्ष भेद तें भेद पाइए हैं । इनि दोऊ प्रमाणनि विषे अन्य तम जो एक, सो वस्तु है। एक का प्रभाव मानें दोऊनि का अभाव - विनाश
जाना ।
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ari शास्त्रकर्ता पैसठ गाथानि करि अवधिज्ञान की प्ररूप हैं
श्रवयदि ति ओही, सीमाणाणे त्ति वण्णियं समये । भवगुणपच्चयविहियं, जमोहिणारणो त्ति रखं बेंति ॥३७०॥२
१. पाठभेद - जमोहि तमोहि ।
२. पडागम - वला पुस्तक १, गावा सं. १८४ पृष्ठ ३६१ ।
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(गोम्मटसार जीयकाष्ट मामा ३७१
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श्रवधीयत इत्यवधिः सीमाज्ञानमिति वरिणतं समये । भवगुरणप्रत्ययविधिक, यदवधिज्ञानमिति ब्रुवंति ॥३७०।।
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टीका -- अवधीयते कहिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि परिमाण जाका कीजिए, सो अवधिज्ञान जानना । जैसे मति, श्रुत, केवलज्ञान का विषय द्रव्य, क्षेत्रादि करि अपरिमित है; तेसै अवधिज्ञान का विषय अपरिमित नाहीं। श्रुतज्ञान करि भी शास्त्र के बल तें अलोक वा अनन्तकाल आदि जानें । अवधिज्ञान करि जेता द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्रमाण आरौं कहेंगे; तितना ही प्रत्यक्ष जानें । तातें सीमा जो द्रव्य क्षेत्रादि की मर्यादा, ताकी लीए हैं विषय जाका, असा जो ज्ञान, सो अवधिज्ञान है; असे सर्वज्ञदेव सिद्धांत विर्षे कहे हैं।
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सो अवधिज्ञान दोय प्रकार कह्या है । एक भवप्रत्यय, एक गुरगप्रत्यय । तहां भव जो बारकादिक पर्याय, ताके निमित्त तै होइ; सो भवप्रत्यय कहिए, जो नारकादि पर्याय धारै साके अवधिज्ञान होइ ही होइ; तातै इस अवधिज्ञान को भवप्रत्यय कहिए । बहुरि गुणप्रत्यय कहिए सम्यग्दर्शनादि रूप, सो है निमित्त जाका; सो गुणप्रत्यय कहिए । मनुष्य, तिर्यच सर्व ही के नवधिज्ञान नाहीं; जाकै सम्यग्दर्शनादिक को विशुद्धता होइ, ताकै अवविज्ञान होइ; ताते इस अवधिज्ञान कौं गुरणप्रत्यय कहिए ।
भवपच्चाइको सुरणिरयारणं तित्थे वि सम्वगुत्थो। गुणपच्चइगो परतिरियाणं संखादिचिहणभवो ॥३७१॥
भवप्रत्ययकं सुरनारकाणां तीर्थेऽपि सर्वांगोत्थम् ।
गुणप्रत्ययक नरतिररचा शंखादिचिह्न भयम् ॥३७१।। टीका ---- तहां भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवनि के, नारकीनि के अर चरम शरीरी तीर्थकर देवनि के पाइए है । सो यहु भवप्रत्यय अवधिज्ञान 'सर्वांगोत्थं कहिए सर्व प्रात्मा के प्रदेशनि विष तिष्ठता अवधिज्ञानावरण अर वीर्यातराय कर्म, ताके क्षयोपशम ते उत्पन्न हो है।
बहुरि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है, सो पर्याप्त मनुष्य पर संनी पंचेंद्री पर्याप्त तिर्यच, इनिके संभव है । सो यह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान 'शंखादिचिन्हभवम्' कहिए
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नाभि के ऊपरि शंख, कमल, वन, सांथिया, माछला, कलस इत्यादिक का आकार रूप जहां शरीर विष भले लक्षण होइ; तहां संबंधी जे प्रात्मा के प्रदेश, तिनि विषं । तिष्ठता जो अवधिज्ञानावरण कर्म पर वीर्यातराय कर्म, तिनिके क्षयोपशम से उत्पन्न
भवप्रत्यय अवधिज्ञान विर्षे भी सम्यग्दर्शनादि गुण का सद्भाव है, तथापि उन गुणों की अपेक्षा नाहीं करने ते भवप्रत्यय कह्या अर गुणप्रत्यय विर्षे मनुष्य तिर्यंच भव का सद्भाय है; तथापि उन पर्यायनि की अपेक्षा नाहीं करने से गुणप्रत्यय कह्या है।
गुणपच्चइगो छद्धा, अणुगावद्विदपवड्ढमाणिदरा । देसोही परमोही, सब्बोहि त्ति य तिधा मोही ॥३७२॥
गुरणप्रत्ययकः षोढा, अनुमावस्थितप्रवर्धमानेतरे ।
देशाधिः परमावधिः, सर्वावधिरिति च त्रिधा अवधिः ॥३७२।। टीका - जो गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है, सो छह प्रकार है – अनुगामी, अवस्थित, वर्धमान, अर इतर कहिए. अननुगामी, अनवस्थित, हीयमान असें छह प्रकार हैं।
तहां जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीव के साथ ही गमन करें; ताकौं अनुगामी कहिए । ताके तीन भेद - क्षेत्रानुगामी, भवानुगामो, उभयानुगामी । तहाँ जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र विष उपज्या था, तिस क्षेत्र को छोड़ि, जीव और क्षेत्र विर्षे बिहार कीया, तहां भी वह अवधिज्ञान साथि ही रह्मा, विनष्ट न हुवा और पर्याय धरि विनष्ट होइ, सो क्षेत्रानुगामी कहिए । बहुरि जो अवधिज्ञान जिस पर्याय विर्षे उपज्या था, तिस पर्याय को छोडि, जीव और पर्याय को धर्चा तहां भी वह अवधिज्ञान साथि ही रह्या, सो भयानुगामी कहिए । बहुरि जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र वा पर्याय विष उपज्या श्रा, तात जीव अन्य भरतादि क्षेत्र विर्षे गमन कीया वा अन्य देवादि पर्याय धर्चा, तहां साथि हो रहै, सो उभयानुगामी कहिए । ..
बहुरि जो अवविज्ञान अपने स्वामी जीव की साथि गमन न कर, सो अननुगामी कहिए । याके तीन भेद क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी, उभयाननुगामी । तहां जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र विष उपज्या होइ, तिस क्षेत्र विर्षे तो जीव और पर्याय धरौ या
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[ गोम्मटसार जोनका गाव ३७३
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मति घरी वह अवधिज्ञान साथि हो रहे है अर उस क्षेत्र तें जीव और कोई भरत, ऐरावत, विदेहादि क्षेत्रनि विषै गमन करे, तो वह ज्ञान अपने उपजने का क्षेत्र ही fai विनष्ट होइ, सो क्षेत्राननुगामी कहिए। बहुरि जो अवधिज्ञान जिस पर्याय वि उपया होइ, तिस पर्याय विषे तो जीव और क्षेत्र विषै तो गमन करो वा मति करौ विज्ञान साथि र अन्य कोई देव मनुष्य आदि पर्याय धर तो अपने उपजने का पर्याय विषे विनष्ट होइ, सो भवाननुगामी कहिये । बहुरि जो raftart और क्षेत्र विषै वा और पर्याय विषे जीव को प्राप्त होते साथि न रहे; अपने उपजने का क्षेत्र वा पर्याय विषे हो विनष्ट होइ; सो उभयाननुगामी कहिए ।
बहुरि जो अवधिज्ञान सूर्यमंडल की ज्यों घटै बधै नाहीं, एक प्रकार ही रहे; सो अवस्थित कहिए ।
बहुरि जो अवधिज्ञान कदाचित् बधै कदाचित् घटे, कदाचित् अवस्थित रहै; सो अवस्थित कहिये ।
बहुरि जो अवधिज्ञान शुक्ल पक्ष के चंद्रमंडल की ज्यों बघता बघता अपने उत्कृष्ट पर्यंत बधे, सो वर्धमान कहिए ।
बहुरि जो अवधिज्ञान कृष्ण पक्ष के चंद्रमंडल की ज्यों घटता घटता अपने नाश पर्यंत घटै; सो होयमान कहिए । असे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेद कहे ।
बहुरि तैसे ही सामान्यपने अवधिज्ञान तीन प्रकार हैं- देशावधि, परमावधि, सर्वावधि ए तीन भेद हैं । तहां गुणप्रत्यय देशावधि ही छह प्रकार जानना !
raveen ओही, देसोही होदि परमसव्वोही । गुरuveesो खियमा, देसोही वि य गुणे होबि ॥३७३॥
rastrustafधः, देशावधिः भवति परमसर्वावधिः । Terrrrest नियमात्, देशावधिरपि च गुणे भवति ॥ ३७३ ॥
टीका भवप्रत्यय अवधि तौ देशावधि हो है, जाते देव, नारकी, तीर्थंकर इनके परमावधि सर्वावधि होइ नाहीं ।
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बहुरि परमावधि पर सर्वावधि निश्वय सौं गुणप्रत्यय ही है; जातें संयमरूप विशेष गुरण बिना न होंइ ।
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सभ्यासामचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ५२५ ___ बहुरि देशावधि भी सम्यग्दर्शनादि गुण होत संते हो है; तातें गुणप्रत्यय अवधि तो तीन प्रकार ही है । पर भवप्रत्यय अवधि एक देशावधि ही है ।
देसावहिस्स य अवरं, रणरतिरिये होवि संजदह्मि वरं । परमोही सवोही, चरमसरीरस्स विरदस्स ॥३७४॥
देशावधेश्च प्रवर, नरतिरश्नोः भवति संयते वरम् ।
परमावधिः सर्वावधिः, चरमशरीरस्य विरतस्य ।।३७४।। टीका -- देशावधि का जघन्य भेद संयमी वा असंयमी मनुष्य, तिथंच विष ही हो है। देव, नारकी विर्षे न हो है। बहुरि देशावधि का उत्कृष्ट भेद संयमी, महाव्रती, मनुष्य विर्षे ही हो है; जाते और तीन गति विर्षे महावत संभवे नाहीं ।
पहरि परमाधि अर सविधि बरा वा उत्कृष्ट (वा) चरम शरीरी महाव्रतो मनुष्य वि संभव है।
चरम कहिए संसार का अंत विर्षे भया, तिस ही भवते मोक्ष होने का कारण, असा वज्ञवृषभनाराच शरीर जिसका होइ, सो चरमशरीरी कहिए ।
पडिवादी देसोही, अप्पडिवादी हवंति सेसा ओ। मिच्छत्तं अबिरमरणं, ग य पडिवज्जति चरिसदुगे ॥३७॥
प्रतिपाती देशावधिः, अप्रतिपातिनौ भवतः शेषौ अहो।
मिथ्यात्वमविरमणं, न च प्रतिपद्यन्ते चरमद्विके ॥३७५॥ टीका --- देशावधि ही प्रतिपाती है। शेष परमावधि, सर्वावधि प्रतिपाती नाहीं।
प्रतिपात कहिए सम्यक् चारित्र सौं भ्राट होइ, मिथ्यात्व असंयम को प्राप्त होना, तीहिं संयुक्त जो होइ; सो प्रतिपाती कहिए ।
' जो प्रतिपाती त होइ सो अप्रतिपाती कहिए । देशावधियाला तो कदाचित् सम्यक्त्व चारित्र सौं भ्रष्ट होइ, मिथ्यात्व असंयम को प्राप्त हो है । पर चरमविक कहिए अंत का परमावधि - सर्वावधि दोय ज्ञान विर्षे वर्तमान जीव, सो निश्चय सौं
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[ गोमटसार जीवकाम या ३७६-३७७ मिथ्यात्व अर अधिरति कौं प्राप्त न हो है । जाते देशावधि तो प्रतिपाती भी है; अप्रतिपाती भी है। परमावधि, सर्वावधि अप्रतिपाती ही हैं।
दज्वं खेतं कालं, भावं पडि वि जाणदे प्रोही । अवरादुक्कस्सो त्ति य, बियप्परहिदो दु सम्बोही ॥३७६॥
द्रव्यं क्षेत्र काल, भावं प्रति रूपि जानीते अवधिः ।
अवरावुरस्कृष्ट इति च, विकल्परहितस्तु सर्वावधिः ॥३७६।। टोका - अवधिज्ञान जघन्य भेद तें लगाइ उत्कृष्ट भेद पर्यंत असंख्यात लोक प्रमाण भेद धरै है; सो सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्रति मर्यादा लीए रूपी जो पुद्गल अर पुद्गल संबंध कौं घरै संसारी जीव, तिनिकौं प्रत्यक्ष जाने है । बहुरि सर्वावधिज्ञान है, सो जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद रहित, हानि - वृद्धि रहित, अवस्थित सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त है, जाते अवधिज्ञानावरण का उत्कृष्ट क्षयोपशम तहां ही संभव है । ताते देशावधि, परमावधि के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद संभव है।
णोकम्मुरालसंचं, मज्झिमजोगोज्जियं सविस्सचयं । लोयविभत्तं जाणदि, अवरोही बव्वदो रिणयमा ॥३७७॥
नोकौ दारिकसंचयं, मध्यमयोगाजितं सबिनसोपचयम् ।
लोकविभक्तं जानाति, प्रवरावधिः द्रव्यतो नियमात् ॥३७७।। टीका - मध्यम योग का परिणमन ते निपज्या असा नोकर्मरूप औदारिक शरीर का संचय कहिए द्वधं गुणहानि करि औदारिक का समयप्रबद्ध कौं गुणिए, तिहिं प्रमाण औदारिक का सत्तारूप द्रव्य, बहुरि सो अपने योग्य विस्रसोपचय के परमाणूनि करि संयुक्त, ताकी लोकप्रमाण असंख्यात का भाग दीएं, जो एक भाग मात्र द्रव्य होइ, तावन्मात्र ही द्रव्य को जघन्य अवधिज्ञान जान है । यातें अल्प स्कंध कौं न जाने है; जघन्य योगनि तें जो निपज है संचय, सो यातें सूक्ष्म हो है; तातै तिस कौं जानने की शक्ति नाहीं । बहुरि उत्कृष्ट योगनि तें जो निपज है संचय, सो यात स्थूल है, ताकी जान ही हैं जातें जो सूक्ष्म कौं जानें, ताके उसते स्थूल कौं जानने में किछू विरुद्ध (विरोध)नाहीं । तातै यहां मध्यम योगनि करि निपज्या असा औदारिक शरीर का संचय कह्या । बहुरि विस्रसोपचय रहित सूक्ष्म हो है, तातें वाक जानने की शक्ति
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মধ্যনগ্ধা আধাকা । नाहीं; ताते विस्रसोपचय सहित कहा । असे स्कंध कौं लोक के जितने प्रदेश हैं, उतने खंड करिये । तहां एक खंड प्रमाण पुद्गल परमाणूनि का स्कंध नेवादिक इंद्रियनि के गोचर नाहीं ! ताकी जघन्य देशावधिज्ञान प्रत्यक्ष जाने है। जैसा जघन्य देशावधि ज्ञान का विषयभूत द्रव्य का नियम कहा।
सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स, जादस्स तदियसमयम्हि। . अवरोगाहणमाणं, जहण्णयं ओहिखेत्तं तु ॥३७८॥
सूक्ष्मनिमोनापर्याप्तकस्य, जातस्य तृतीयसमये । ।
अवरावगाहनमानं, जघन्यकमवधिक्षेत्रं तु ॥३७८॥ टीका --बहरि सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक के जन्म से तीसरा समय के विर्षे जघन्य अवगाहना का प्रमाण पूर्व जीव समासाधिकार विर्षे कहा था, तीहिं प्रमाण जघन्य अवगाहना का क्षेत्र जानना । इतने क्षेत्र विर्षे पूर्वोक्त प्रमाण लीए वा तिसत स्थूल जेते पुद्गल स्कंध होइ, तिनिकों जघन्य देशावधिज्ञान जान है । इस क्षेत्र के बारै तिष्ठते जे होइ, तिनकौं न जाने है, जैसे क्षेत्र की मर्यादा कही ।
अवरोहिखेत्तदीहं, वित्थारुस्सेहयं ण जाणामो। अण्णं पुण समकरणे, अवरोगाहणपमाणं तु ॥३७६॥
प्रवरावधिक्षेत्रदीर्घ, विस्तारोत्सेधकं न जानीमः ।
अन्यस् पुनः समीकरणे, अवरावगाहनप्रमाणं तु ॥३७९॥ । टीका - बहुरि जघन्य देशावधिज्ञान का विषय भूत क्षेत्र की लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई का प्रमाण हम न जाने है कितना कितना है; जाते इहां असा उपदेश नाही, परंतु परम गुरुनि का उपदेश की परम्परा से इतना जाने हैं; जो भुज, कोटि, वेनि का समीकरण तें जो क्षेत्रफल होइ, सो जघन्य अवगाहना के समान घनांगुल के असंख्यातवें भागमात्र हो है ।
आम्ही साम्ही दोय दिसानि विषं जो कोई एक दिशा संबंधी प्रमाण, सो भुज कहिये।
अवशेष दोय दिसानि विर्षे कोई एक दिशा संबंधी प्रमाण, सो कोटि कहिए !
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५२८ ]
ऊंचाई का प्रमाण कौं, वेध कहिए ।
प्रवृत्ति बिष लंबाई, ऊंचाई, चौड़ाई तीन नाम हैं । सो इनिका क्षेत्र, खंड विधान तें समान प्रमाण करि क्षेत्रफल कीए, जो प्रमाण आवे, तितना क्षेत्रफल जानना । जघन्य श्रवधिज्ञान के क्षेत्र का अर जघन्य अवगाहना रूप क्षेत्र का क्षेत्रफल समान है, इतना तो हम जानें हैं । श्रर भुज, कोटि, वेध का प्रमाण कैसे है ? सो हम जानते नाहीं, अधिक ज्ञानी जाने ही हैं ।
[ गोम्मटसार जौवकाण्ड गाथा ३५०
श्रवरोगाहणमारणं, उस्सेहंगुलप्रसंखभागस्स ।
सूइस्स य घणपदरं, होदि हु तखेत्तसमकरणे ॥ ३८० ॥
टीका कहा, सो कैसा
प्रवरावगाहनमानमुत्सेधांगुला संख्यभागस्य ।
सूचेश्च धनप्रतरं भवति हि तत्क्षेत्रसमीकरणे ॥३८०॥
इहां कोऊ प्रश्न करें कि जघन्य श्रवगाहनारूप क्षेत्र का प्रमाण है ?
ताका समाधान
जघन्य अवगाहना रूप क्षेत्र का आकार कोऊ एक नियम रूप नाहीं तथापि क्षेत्र, खंड विधान करि सदृश कीजिए, तब भुज का वा कोटि का वावेव का प्रमाण उत्सेधांगुल कौं योग्य असंख्यात का भाग दीएं, जो एक भाग का प्रमाण होइ, तितना जानना । बहुरि भुज कौं वा कोटि कौं वा वेध को परस्पर गुरौं, घनांगुल के असंख्यात भागमात्र प्रकट क्षेत्रफल भया, सो जघन्य श्रवगाहना का प्रमाण है । याही के समान जधन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र है । इहां क्षेत्र, खंड विधान करि समीकरण का उदाहरण और भी दिखाइए है ।
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जैसे लोकाकाश ऊंचाई, चौड़ाई, लंबाई विषे होनाधिक प्रमाण लीए है । ताका क्षेत्रफल फैलाइए, तब तीन से तेतालीस राजू प्रमाण घनफल होइ, अर जो हीनाधिक क बधाइ घटाइ, समान प्रमाण करि सात सात राजू की ऊंचाई, लंबाई, चौड़ाई कल्पि परस्पर गुरणन करि क्षेत्रफल कीजिए। तब भी तीन से तेलालीस ही राजू होइ । जैसे ही इहां जघन्य क्षेत्र की लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई हीनाधिक प्रमाण लीएं है । परि क्षेत्र खंड विधान करि समीकरण कीजिए, तब ऊंचाई. का वा चौड़ाई का का लंबाई का प्रभाग उत्सेधांगुल के प्रसंख्यातवें भागमात्र होइ ।
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इनिकौं परस्पर गुणन कीए, घनांगुल का असंख्यातवां भाग प्रमागधन क्षेत्रफल हो है, सो इतना ही प्रमाण जघन्य अवगाहना का है। पर इतना ही प्रमाण जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का है, तातें समान कहै हैं ।
अवरं तु ओहिखेतं, उस्सेहं अंगुलं हवे जम्हा। सुहमोगाहणमाणं, उवरि पमाणं तु अंगुलयं ॥३८१।।
अवरं तु अधिक्षेत्र, उत्सेधमंगुलं भवेद्यस्मात् ।
समावगाहनमानमुपरि प्रमाणं तु अंगुलकम् ।।३८१॥ टीका - बहुरि जो यह जघन्य अवगाहना समान जघन्य देशावधि का क्षेत्र, धनांगुल के असंख्यातवें भाग मात्र कहा, सो उत्सेधागुल का धन प्रमाण जो धनांगुल, ताके असंख्यात भाममात्र जानना । जातें इहां सूक्ष्म निगोद, लब्धि अपार्याप्तक की जघन्य अवगाहना के समान जघन्य देशावधि का क्षेत्र कह्या, सो शरीरनि का प्रमाण है, सो उत्सेधांगुल ही में है, जातें परमागम विर्षे असा कह्या है कि देह, गेह, ग्राम, नगर इत्यादिक का प्रमाण उत्सेधांगुल से है । ताते इहां जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का प्रमाण भी उत्सेधांगुल की ही अपेक्षा जानना ! इस उत्सेधांगुल का ही नाम व्यवहारांगुल है।
___ बहुरि आगै जो 'अंगुलमालियाए भागमसंखेज्ज' इत्यादि सूत्र उक्त कांडकनि विर्षे अंगुल कहा है । सो वह अंगुल प्रमाणांगुल जानना । जाते वाके प्रागै हस्त, क्रोश, योजन, भरत, क्षेत्रादि उत्तरोत्तर कहैं हैं । बहुरि पागम वि द्वीप, क्षेत्रादि का प्रमाण प्रमाणांमुल ते कया है । तातें तहां प्रमाणांगुल ही का ग्रहण करना।
अवरोहिखेत्तमझे, अवरोही अवरदव्वमवगमदि । तद्दन्यस्सवगाहो, उस्सेहासंखघणपदरो ॥३५२॥
अपरावधिक्षेत्रमध्ये अपरावधिः अवरद्रव्यमवगच्छति ।
तद्रव्यस्यावगाहः उत्सेवासंख्यधनप्रसरः ॥३८२।। टीका - तीहि जघन्य अवधिज्ञान संबंधी क्षेत्र विर्षे जे पूर्वोक्त जघन्य अवधि ज्ञान के विषय भूत द्रव्य तिष्ठै हैं; तिमकौं जघन्य देशावधिज्ञानी जीव जानें है। तीहि क्षेत्र विर्षे तैसे औदारिक शरीर के संचय कौं लोक का भाग दीए एक भाग मात्र खंड
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५३० ।
. गोम्मटसार जीवकाण्ड माश ३८३-३८४
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असंख्यात पाइए हैं; तिनि सबनि कौं जान है । बहुरि इस प्रमाण से एक, दोय आदि जिस स्कंधनि के बंधते प्रदेश होंहि तिनिकौं तो जाने ही जान; जाते सूक्ष्म को जानें स्थूल का जानना सुगम है । बहुरि जो पूर्वे जघन्य अवधिज्ञान संबंधी द्रव्य कहा था, तिसकी अवगाहना का प्रमाण, तिस जघन्य अवधि का क्षेत्र का प्रमाण के असंख्यातवें भागमात्र है, तथापि धनांगुल के असंख्यातवें भागमात्र ही है । अर. वाकै भुज, कोटि, वेध का भी प्रमाण सूच्चंगुल के असंख्यातवें भागमात्र है। असंख्यात के भेद घने हैं, ताते यथासंभव जानि लेना।
आवलिअसंखभागं, तीवभविस्सं च कालदो अवरं । प्रोही जाणदि भावे, कालअसंखेज्जमागं तु ॥३८३॥
प्रारभागमतीभविष्यच्च कालतः प्रथरम् ।
अवधिः जानाति भावे, कालसंख्यातभागं तु ॥३८३॥ टीका - जघन्य अवधिज्ञान है, सो काल लैं प्रावली के असंख्यातवें भागमात्र अतीत, अनागत काल कौं जान है । बहुरि भाव ते भावली का असंख्यातबरं भागमात्र काल प्रमाण का असंख्यातवां भाग प्रमाण मात्र, तिनकौं जाने हैं। ..
भावार्थ - जघन्य अवधिज्ञान पूर्वोक्त क्षेत्र विर्षे, पूर्वोक्त एक द्रव्य के प्रायली का असंख्यातवां भाग प्रमाण अतीत काल विर्षे वा तितना ही अनामत काल विर्षे जे आकाररूप व्यंजन पर्याय भए, अर होहिंगे तिनकौं जान हैं, जातै व्यवहार काल के अर द्रव्य के पर्याय ही की पलटन हो है । बहुरि पूर्वोक्त क्षेत्र विर्षे पूर्वोक्त द्रव्य के वर्तमान परिगमन रूप अर्थ पर्याय हैं । तिनि विर्षे प्रायली का असंख्यातवां भाग का असंख्यातवां भाग प्रमाण, जे पर्याय, तिनि कौं जान है । अस जघन्य देशावधि ज्ञान के विषय भूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनि की सीमा - मर्यादा का भेद कहि ।
भाग तिस अवधिज्ञान के जे द्वितीयादि भेद, तिनिकों च्यारि प्रकार विषय भेद कहै हैं ---
अवरव्यादुपरिमदव्ववियप्पाय होहि धुवहारो। सिद्धाणंतिमभागो, अभवसिद्धादणंतगुणो ॥३८४॥ .. .
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सम्यशासनन्तिका भावाटीका ]
अवरद्रव्यावुपरिमतव्यविकल्पाय भवति ध्रुवहारः।
सिद्धानंतिमभागः, अभव्यसिद्धादनंतगुणः ॥३८४।। टीका - जघन्य देशावधि ज्ञान का विषयभूत द्रव्य ते ऊपरि द्वितीयादि अवधि ज्ञान के भेद का विषयभूत द्रव्य का प्रमाण ल्यावने के अर्थि ध्र वहार जानना । सर्व भेदनि विर्षे जिस भागहार का भाग दीएं प्रमाण प्राव, सो ध्रुव भागहार कहिए । जैसे इस जघन्य देशावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य कौं ध्र वभागहार के प्रमाण का भाग दीएं, जो एक भाग का प्रमाण पावै, सो देशावधि का द्रव्य संबंधी दूसरा भेद का विषयभूत द्रव्य का प्रमाण जानना । याको ध्र वहार का भाग दीए, जो एक भाग का प्रमाण आवे; सो देशावधि के तीसरे भेद का विषयभूत द्रव्य जानना ! असे सर्वावधि पर्यंत जानना । पहले पहले धने परमाणुनि का स्कंधरूप द्रव्य कौं ध्रुवभागहार का भाग दीएं, पीछे पीछे एक भागमात्र थोरे परमारणनि का स्कंध आवै, सो पूर्वस्कंध ते सूक्ष्म स्कंध होइ, सो ज्यों ज्यों सूक्ष्म कौं जानें, त्यौं त्यौं ज्ञान की अधिकता कहिए है ; जाते सूक्ष्म कौं जानें स्थूल का तो जानना सहज ही हो है। बहुरि जो वह धवभागहार कहा था, ताका प्रमाण सिद्धराशि की अनंत का भाग दीजिए, ताके एक भाग प्रमाण है । अथवा अभव्य सिद्धराशि की अनंत ते गुणिए, तीहिं प्रमाण है।
धुवहारकम्मदग्गरणगुणगारं कम्मवग्गणं गणिदे। समयपवद्धपमाणं, जाणिज्जो ओहिविसयहिह्म ॥३२॥
ध्रुवहारकार्मणवर्गणागुणकारं कार्मणवर्गणां गुरिणते ।
समयप्रबद्धप्रमारणं, ज्ञासव्यमवधिविषये ॥३८५।। टीका - देशावधिशान का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा जितने भेद होइ, तितने में सौं घटाइए, जो प्रमाण होइ, तितना ध्र वहार मांडि, परस्पर गुरिण, जो प्रमाण होइ, सो कार्माण वर्गणा का गुणकार जानना । तीहिं कार्माण वर्गणा का गुणकार करि कारण वर्गणा कौं गुणें, जो प्रमाण होइ, सो अवधिज्ञान का विषय विर्षे समयप्रबद्ध का प्रमाण जानना । जो जघन्य देशावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य कहा था, लिसहीका नाम इहां समयप्रबद्ध जानना । इसका विशेष प्रामें कहेंगे ।
ध्र वहार का प्रमाण सामान्यपर्ने सिद्धराशि के अनंतवें भागमात्र कह्या, अब विशेषपर्ने ध्र वहार का प्रमाण कहै हैं -
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[ गोम्मरसार जीवका पाथा ३८६-३७-३८८
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मरणदव्ववग्गणाण, वियप्पारणंतिमसमं खु धबहारो। अवरुषकस्सविसेसा, रूवहिया तस्वियपा ॥३६॥
मनोद्रध्यवर्गणानां, विकल्पानंतिमसम खलु ध्रुवहारः ।
अवरोस्कृष्ट विशेषाः, रूपाधिकास्तद्विकल्पा हि ॥३८६।। टीका - मनोवर्गणा के जितने भेद हैं, तिनिकौं अनंत का भाग दोजिए, एक भाग का जितना प्रमाण होइ, सो ध्र वहार का प्रभाए जानना । ते मनोवर्गणा के भेद केते है, सो कहिए है - मनोवर्गणा का जघन्य प्रमाण कौं मनोवर्गणा का उत्कृष्ट प्रमाण में सौं घटाएं, जो प्रमाण अवशेष रहै, तीहिविर्षे एक अधिक कीएं, मनोवर्गणा के भेदनि का प्रमाण हो है । आगै सम्यक्त्व भार्गरणा का कथन वि तेईस जाति की पुद्गल वर्गणा कहेंगे । तहां तैजसवर्गरणा, भाषावर्गणा, मनोवसरणा, कार्मारणवर्गरणा इत्यादिक का वर्णन करेंगे; सो जानना ।
इस मनोवर्गणा का जघन्य भेद अर उत्कृष्ट भेद का प्रमाण दिखाइए है - अवरं होदि अरणंतं, अणंतभागेरण अहियमुक्कस्सं । इदि मणभेदारपंतिमभागो दवम्मि धुवहारी ॥३८७॥
प्रवरं भवति अनंतमनंतभागेनाधिकमुत्कृष्टं ।
इति मनोभेदानंतिमभायो द्रव्ये ध्रुवहारः ॥३८७।। टीका - मनोवर्गणा का जघन्य भेद अनंत प्रमाण हैं । अनंत परमाणूनि का स्कंधरूप जघन्य मनोवर्गणा है । इस प्रसारण कौं अनंत का भाग दीएं, जो प्रमाण आदे, तितना उस जघन्य भेद का प्रमाण विर्षे जोड़ें, जो प्रमाण होइ, सोई मनोवर्गरणा का उत्कृष्ट भेद का प्रमाण जानना । इतने परमाणनि का स्कंधरूप उत्कृष्ट मनोर्वगणा हो है; सो जघन्य तें लगाइ उत्कृष्ट पर्यंत पूर्वोक्त प्रकार जेते मनोवर्गणा के भेद भए, तिनके अनंतवें भागमात्र इहां ध्र वहार का प्रमाण है।
अथवा अन्यप्रकार कहै हैं ---- धुवहारस्स पमारणं, सिद्धाणंतिमपमाणमेत्तं पि । समयपबद्धणिमित्तं, कम्मणवरगाणगुणा दो दु॥३८८॥
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होदि अणंतिमभागो, तग्गुणगारो वि देसओहिस्स। . दोऊरण दवभेदपमारणधुवहारसंवग्गो ॥३८६॥
ध्रुवहारस्य प्रमाणं, सिद्धानंतिमप्रमाणमात्रमपि । समयबद्धनिमित्तं, कार्मणवर्गरणागुणतस्तु ॥३८८।। भवत्यनंतिमभामस्तद्गुणकारोऽपि देशावधेः ।
व नद्रव्यभेदप्रमाण ध्रुवहारसंवर्गः ॥३८९॥ ढोका - ध्र बहार का प्रमाण सिद्धराशि के अनंत भागमात्र है । तथापि अवधि का विषयभूत समयप्रबद्ध का प्रमाण यावते के निमित्त जो कार्माण वर्गणा का गुणकार कह्या, ताके अनंतवें भागमात्र जानना ।
सो तिस कारण बर्गरणा के गुणकार का प्रमाणा कितना है ?
सो कहिए है - देशावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा जितने भेद हैं, तिनमें दोय घटाएं, जो प्रमाण रहै, तितना ध्र वहार मांडि, परस्पर गुणन कीएं, जो प्रमाण आवं, तितना कार्माण वर्गणा का गुणकार जानना । असा प्रमाण कैसें कहा? सो कहिए है -- देशावधिज्ञान का विषय भुत द्रव्य की रचना विर्षे उत्कृष्ट अंत का जो भेद, ताका विषय कार्माण धर्गणा कौं एक बार ध्र वहार का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । बहुरि ताके नीचे द्विचरम भेद, ताका विषय, कार्माण वर्गणा प्रमारण जानना । बहुरि ताके नीचें त्रिचरम भेद, ताका विषय कारण वर्गणा कौं एक बार ध्र वभागहार से गुरणे, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । बहुरि ताके नीचे दोय बार ध्र वभागहार करि कार्माण वर्गणा कौं गुरिगए, तब चतुर्थ चरम भेद होइ । जैसे ही एक एक बार अधिक ध्रुवहार करि कार्माण वर्गणा की गुण ते, दोय घाटि देशावधि के द्रव्यभेद प्रमाण ध्र वहारनि के परस्पर गुणन तें जो गुणकार का प्रमाण भया, ताकरि कार्मारावर्गणा कौं गुणे, जो प्रमाण भया, सोई जघन्य देशावविज्ञान का विषयभूत लोक करि भाजित. नोकर्म औदारिक का संचयमात्र द्रव्य का परिमारण जानना । इहां उत्कृष्ट भेद तें लगाइ जघन्य भेद पर्यंत रचना कही; तातें असे गुणकार का प्रमाण कह्या है । बहुरि जो जघन्य ते लगाइ, उत्कृष्ट पर्यंत रचना कीजिए, तो क्रम से ध्र बहार के भाग देते जाइए, अंत का भेद विर्षे कार्माण वर्गणा कौं एक बार ध्रुवहार का भाग दीए, जो प्रमाण प्रावै, तितना द्रव्य प्रमाण होइ इस
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५३४ ]
[ मम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६०
कथन उस कथन बिषै कुछ अन्यथापना नाहीं है । ऊपर ते कथन कीया तब वहार का गुणकार कहते प्राए, नीचे ते कथन कोया तब ध्रुबहार का भागहार कहते आए, प्रमाण दोऊ कवन विषै एकसा हैं ।
trafe के द्रव्य की अपेक्षा केते भेद हैं ? ते कहिए हैं
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अंगुल संखगुणिवा, खेत्तवियप्पा य दव्यभेदा हु । खैतfar aaoreसविसेस हवे एत्थ || ३६०॥
serसंख्यगुणिताः, क्षेत्रविकल्पाच व्यमेा हि । क्षेत्र विकल्पा प्रवकृष्टविशेषो भवेदत्र ॥ ३९० ॥
टोका - देशावfवज्ञान का विषयभूत क्षेत्र की अपेक्षा जितने भेद है, तिनकों अंगुल का असंख्यातवां भाग करि गुणे, जो प्रमाण होइ, तितना देशावविज्ञान का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा भेद हो है ।
ते क्षेत्र की पेक्षा केले भेद हैं ?
ते कहिए हैं - देशावधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र का जो प्रदेशनि का प्रमाां है, fear भेद देशraft का उत्कृष्ट क्षेत्र के प्रदेशनि का प्रमाण विषै घटाएं, जो अवशेष प्रमाण रहे, तितना भेद देशावधि की क्षेत्र की अपेक्षा है । इनिकों सूव्यंगुल का संख्यातवां भाग करि मुरिए, तामें एक मिलाएं, जो प्रमाण होइ, तितना देशावधि का द्रव्य की अपेक्षा भेद है । काहेते ? सो कहिए हैं - देशावधि का जघन्य भेद विषै पूर्वे जो द्रव्य का परिमाण कहा था, ताक ध्रु बहार का भाग दीएं, जी प्रमाण होइ सो देशाधिका द्रव्य की अपेक्षा दूसरा भेद है । बहुरि इस दूसरा भेद विषै क्षेत्र का परिमाण तितना ही है ।
भावार्थ - देशावधि का जघन्य ते बघता देशावधिज्ञान होइ त देशावधि का दूसरा भेद होइ, सो जघन्य करि जो द्रव्य जानिए था, ताकों ध्रुव भागहार का भाग दीएं, जो सूक्ष्म स्कंधरूप द्रव्य होइ, तार्कों जानें अर क्षेत्र की अपेक्षा जितना क्षेत्र की जघन्यवाला जाने था, तितना ही क्षेत्र को दूसरा भेदवाला जाने है । तातें द्रव्य की अपेक्षा दूसरा भेद भया । क्षेत्र की अपेक्षा er को अपेक्षा दूसरा भेदवाला जानें था, ताकौं
प्रथम भेद ही है । बहुरि जो बहार का भाग दीए, जो सूक्ष्म
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। ५३५ स्कंध भया, ताकौं द्रव्य की अपेक्षा तीसरा भेदवाला जाने । पर यह क्षेत्र की अपेक्षा तितना ही क्षेत्र कौं जानें; तातें द्रव्य की अपेक्षा तीसरा भेद भया । क्षेत्र की अपेक्षा प्रथम भेद ही है । असे द्रव्य की अपेक्षा सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण भेद होइ, तहां पर्यंत जघन्य क्षेत्र मात्र क्षेत्र की जाने । तातें द्रव्य की अपेक्षा तौ सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग प्रमाण भेद भए, अर क्षेत्र की अपेक्षा एक ही भेद भया । बहुरि इहांसे प्रागें असें ही ध्र वहार का भाग देते देते सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग प्रमाण द्रव्य की अपेक्षा भेद होइ, तहां पर्यंत जघन्य क्षेत्र से एक प्रदेश बधता क्षेत्र कौं जाने, तहां क्षेत्र की अपेक्षा दूसरा ही भेद रहै ।
बहुरि तहां पीछे सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग मात्र, द्रव्य अपेक्षा भेदनि विर्षे एक प्रदेश और बधता क्षेत्र की जाने; तहां क्षेत्र की अपेक्षा तीसरा भेद होइ । असें ही सूच्यंगल का असंख्यासवां भाग प्रमाण द्रव्य की अपेक्षा भेद होते होते क्षेत्र की अपेक्षा एक एक बधता भेद होइ; सो असें लोकप्रमाण उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र पर्यंत जानना । तातें क्षेत्र की अपेक्षा भेदनि ते द्रव्य की अपेक्षा भेद सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागप्रमाण गुण कहा । बहुरि अवशेष पहला द्रव्य का भेद था; सो पीछे मिलाया, तातै एक का मिलावना कह्या है ।
तिन देशावधि के जघन्य क्षेत्र अर उत्कृष्ट क्षेत्रनि का प्रमाण कहैं हैं - अंगुलअसंखभाग, प्रवरं उक्कस्सयं हवे लोगो। इदि वग्गरणगुणगारो, असंखधुवहारसंवग्गो ॥३६१॥
अंगुलासंख्यभागमवरमुत्कृष्टकं भवेल्लोकः ।
इति वर्गरणागुणकारोऽ, संख्यध्रुवहारसंदर्यः ॥३९१॥ टोका - जघन्य देशावधि का विषयभूत क्षेत्र सूक्ष्मनिगोद लब्धि अपर्याप्तिक की जघन्य अवगाहना के समान धनांगुल के असंख्यातवें भागमात्र जानना । बहुरि देशावधि का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र लोकप्रमाण जानना । उत्कृष्ट देशावधिवाला सर्वलोक विषं तिष्ठता अपना विषय को जाने, असे दोय घाटि, देशावधि का द्रव्य की अपेक्षा जितने भेद होइ, तितना ध्र वहार मांडि, परस्पर गुणन करना; सोई संवर्ग भया । यों करते जो प्रमाण भया होइ, सोई कार्माण वर्गरणा का गुणकार जानना। सो कह्या ही था ।
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[ गोम्मटसार शौययाण्ड गाथा ३६२-३६३ आगे वर्गणा का परिमाण कहैं हैं -- वग्गणरासिपमाणं, सिद्धाणंतिमपमाणमत्तं पि । दुगसहियपरमभेदपमाणवहारारण संवग्गो ॥३६२॥
वर्गणाराशिप्रमाणं, सिद्धानंतिमप्रमाणमात्रमपि ।
विकसहितपरमभेदप्रमाणावहाराणां संवर्गः ॥३९२॥ टीका - कार्मारणावर्गणा राशि का प्रमाण सिद्धराशि के अनंतवें भागमात्र है । तथापि परमावधिज्ञान के जेते भेद हैं, तिनमें दोय मिलाएं, जो प्रमाण होइ, तितना ध्र वहार मांडि, परस्पर गुणन कीये, जो प्रमाण होइ, तितना परमाणूनि का स्कंधरूप कार्माणवर्गणा जाननी । जाते कार्माणवर्गणर को एक बार ध्रुवहार का भाग दीएं, उत्कृष्ट देशावधि का विषय भूत द्रव्य होइ, पीछे परमावधि के जितने भेद हैं, तेती बार क्रम से ध्रुबहार का भाग दीएं, उत्कृष्ट परमावधि का विषयभूत द्रव्य होइ, ताकी एक बार ध्रुवहार का भाग दीएं, एक परमाणू मात्र सर्यावधि का विषय हो है।
ते परमावधि के भेद कितने हैं ? सो कहिए हैं - परमावहिस्स भेदा, सग-ओगाहण-वियप्प-हद-तेऊ। इदि धुवहार बग्गरणगुणणारं वग्गणं जाणे ॥३६३।।
परमावधेर्भेदाः, स्वकावगाहनविकल्पहततेजसः ।
इति ध्रुवहारं वर्गरणागुणकार वर्गणां जानीहि ॥३९३॥ टीका ---- अग्निकाय के अवगाहना के जेते भेद हैं; तिनि करि अग्निकाय के जीवनि का परिमारण कौं गुगा, जो परिमाण होइ, तिलना परमावधिज्ञान का विषयभत द्रव्य की अपेक्षा भेद है । सो अग्निकाय की जघन्य अवगाहना का प्रदेशनि का परिमाण कौं अग्निकाय की उत्कृष्ट अवगाहना का परिमाण विर्षे घटाए, जो प्रमाण होइ, तिनमें एक मिलाएं, अग्निकाय की अवगाहना के भेदनि का प्रमाण हो है । सो जीवसमास का अधिकार विर्षे मत्स्यरचना करी है, तहां कह ही हैं। बहरि अग्निकाय का जीवनि का परिमाण कायमार्गणा का अधिकार विर्षे कहा है ; सो जानना। इनि दोऊनि कौं परस्पर गुणे, जो प्रमाण होइ, तितना परमावधिज्ञान का विषयभूत
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सम्यग्ज्ञानन्तिका भाषाटीका ] द्रव्य की अपेक्षा भेद है। जैसे ध्र वहार का प्रमाण, वर्गणा गुणकार का प्रमाण, वर्गणा का प्रमाण हे शिष्य ! तू जानि ।
देसोहिअवरदवं, धुवहारेणवहिदे हवे बिवियं। .. तदियादिबियप्पेस वि, असंखबारो ति एस कमो ॥३६४॥
देशावध्यवरद्रव्यं, ध्रुवहारेणावहिते भवेद्वितीयं ।
तृतीयादिविकल्पेष्वपि, असंख्यवार इत्येष क्रमः ॥३९४।। टीका --- देशावधिज्ञान का विषयभूत जघन्य द्रव्य पूर्व कहा था, ताकौं ध्रुवहार का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ, सो दूसरा देशावधि के भेद का विषयभूत द्रव्य होइ । जैसे ही 5 बहार का भाग देते देते तीसरा, चौथा इत्यादि भेदनि का विषयभूत द्रव्य होहि । असे असंख्यात बार अनुक्रम करना ।
असे अनुक्रम होतें कहा होइ ? सो कहिए है -- देसोहिमज्झमेदे, सविस्ससोवचयतेजकम्मंगं । तेजोभासमरणारणं, वग्गणयं केवलं जत्थ ॥३६॥ पस्सदि ओही तत्थ, असंखेज्जाओ हवंति दीउबही। वासाणि असंखेज्जा, होति असंखेज्जगुणिदकमा ॥३६६॥जुम्म।
देशावधिमध्यभेदे, सविनसोपच्यतेजः कर्मागम् । तेजोभाषामनसा, वर्गणां केवला यत्र ॥३९५॥ पश्यस्यवधिस्तत्र, असंख्यया भवति द्वीपोदधयः ।
वर्षाणि असंख्यातानि भवति असंख्यातगुणितक्रमाणि ॥३९६॥ टीका -- देशावधि के मध्य भेदनि विर्षे देशावधिज्ञान जिस भेद विर्ष विनसोपचय सहित तैजस शरीररूप स्कंध कौं जाने हैं । बहुरि तिस ही क्रम ते जिस भेद विर्षे विस्रसोपच्य सहित कामणि शरीर स्कंध कौं जान है । बहुरि इहां से आगे जिस भेद विर्षे विस्रसोपचय रहित केवल तैजस वर्गणा कौं जाने हैं। बहुरि इहां ते आमैं जिस भेद विर्षे विनसोपचय रहित केवल भाषावर्गणा को जाने हैं । इहां ते
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५३८ ]
[ मोम्मटसार जीवका गाया ३६७-३२८-३६६
आगें जिस भेद विषै विस्रसोपचय रहित केवल मनोवरणा को जाने है । तहां इनि पांच स्थानानि विषै क्षेत्र का प्रमाण असंख्यात द्वीप - समुद्र जानना । श्रर काल असंख्यात वर्षमात्र जानना । पूर्वोक्त पंच भेद लीए अवधिज्ञान असंख्यात द्वीप समुद्र fai gain air संख्यात वर्ष पर्यंत अतीत, अनागत, यथायोग्य पर्याय के धारी, तिनकों जाने है। परि इतना विशेष है - जो इनि पंच भेदनि विषै पहिला भेद संबंधी क्षेत्रकाल का परिमाण है । तातें दूसरा भेद संबंधी क्षेत्रकाल का परिणाम असंख्यातगुणा है । दूसरे ते तीसरे का असंख्यात गुणा है । औसे ही पांचवां भेद पर्यंत जानना | सामान्यप सब का क्षेत्र श्रसंख्यात द्वीप - समुद्र वर काल असंख्यात वर्ष कहे हैं; जातें असंख्यात के भेद घने हैं ।
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ततो कम्मइयस्सिगिसमयपबद्धं विविस्ससोवचयं । धुवहारस्स विभज्ज, सव्वोही जाव ताय हवे ॥३६७॥ ततः कार्मणस्य, एकसमयप्रबद्धं विविस्रसोपचयम् । ध्रुवहारस्य विभाज्यं सर्वावधिः यावतावद्भवेत् ॥ ३९७ ।।
टीका वहां पीछे लिस मनोवर्मणा कौं प्रबाहार का भाग दीजिए, से हो भाग देते देते विसोपचय रहित कार्माण का समय प्रबद्धरूप द्रव्य होइ । याक भी ध्रुवहार का भाग दीजिए। भैंसे ही ध्रुबहार का भाग यावत् सर्वावधिज्ञान होइ, वहां पर्यंत जानना । विसोपचय का स्वरूप योगमार्गणा विषै कया है, सो जानना ।
एहि विभज्जते, दुधरिमदेसाव हिम्मि वग्गरणयं ।
aft कम्मsuffrवग्गणमिनिवारभजिदं तु ॥ ३६८ ॥
एतस्मिन् विभज्यमाने, द्विचरमदेशावधौ वर्गणा । चरमे कार्मणस्वर्गणा एकबारभक्ता तु ॥३९८।।
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इस काम समय प्रबद्ध की धुवहार का भाग दीएं संतें देशाचरम भेद विषै कार्मारणवरणा रूप विषयभूत द्रव्य हो है; जातें ध्रुवहार मात्र वर्गगानि का समूह रूप समयप्रबद्ध है । बहुरि याक एक बार बहार का भाग दीएं, चरम जो देशावधि का अंत का भेद, तिस विषै विषयभूत द्रव्य हो है ।
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अंगुल संखभागे, वयवियप्पे गये दु खेत्तम्हि | एगागासपदेसो, बढदि संपुण्णलोगो त्ति ॥ ३६६ ॥
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सम्यकामचन्द्रिका भाषा होका !
[ ५३९ अंगुलासंख्यभागे, द्रव्यविकल्पे गते तु क्षेत्रे।
एकाकाशप्रदेशो, वर्धते संपूर्णलोक इति ॥३९९॥ टोका -सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागप्रमाण द्रव्य की अपेक्षा भेद होते संत, क्षेत्र विषं एक माकाश का प्रदेश बधै असा अनुक्रम जघन्य देशावधि के क्षेत्र तें, उत्कृष्ट देशावधिज्ञान का विषयभूत सर्व संपूर्ण लोक, तीहिं पर्यंत जानना । सो यह कथन टीका विषं पूर्व विशदरूप कह्या ही था।
प्रावलिअसंखभागो, जहण्णकालो कमेण समयेण । बड्ढदि देसोहिवरं, पल्लं समऊणयं जाव ॥४००॥
आवस्यसंख्यभागो, जघन्यकालः क्रमेण समयेन ।
वर्धते देशावधिवरं, पल्यं समयोनकं यावत् ॥४००। टोका - देशावधि का विषयभूत जघन्य काल आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण है । सो यहु अनुक्रम ते ध्रुववृद्धि करि अथवा अध्र बवृद्धि करि एक एक करि समय करि तहां पर्यंत बधै, जहां एक समय घाटि पल्य प्रमाण उस्कृष्ट देशावधि का विषयभूत काल होइ, उत्कृष्ट देशावधिज्ञान एक समय घाटि पल्पप्रमाण अतीत, अनागत काल विर्षे भए वा होंहिगे जे स्वयोग्य विषय तिनै जाने है ।
प्रागै क्षेत्र काल का परिमाण उगणीस कांडकनि विर्षे कह्या चाहै है । कांडक नाम पर्व का है। जैसे साठे को पैली हो है, सो गांठि ते अगिली गांठि पर्यंत जो होइ, ताकी एक पर्व कहिए । तैसे किसी विवक्षित भेद तें लगाइ, किसी विवक्षित भेद पर्यंत जेते भेद होंहि, तितिका समूह, सो एक कांडक कहिए । प्रैसे देशावधिज्ञान विर्षे उगणीस कांडक हैं ।
___ तहां प्रथम कांडक विर्षे क्षेत्र काल का परिणाम प्रदाई गाथानि करि
अगुलअसंखभाग, धुवस्वेण य असंखवारं तु । प्रसंखसंखं भागं, असंखवारं तु अद्धवगे ॥४०१॥
अंगुलासंख्यवारं, ध्रुवरूपेण च असंख्यधारं तु । असंख्यसंख्यं भागं, असंख्यकार तु अध्रुवगे ॥४०१॥
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५४. ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४०२ टोका --- धनांगुल की पावली का भाग दीएं, जो प्रमाण पावै, असा अंगुल का असंख्यातवां भागमात्र ध्र वरूप करि वृद्धि का प्रमाण हो है । सो ध्रुववृद्धि प्रथम कांडक विषं अंत का भेद पर्यंत असंख्यात बार हो है । बहुरि तिस ही प्रथम कांडक विर्षे अंत का भेद पर्यंत अध्र ववृद्धि भी असंख्यात बार हो है । सो अघ्र बवृद्धि का परिमारण धनांगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण वा धनांगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण है।
धुवअद्धवरूवरण य, अवरे खेत्ताम्म वढिदे खेत्ते। . : ... प्रवरे कालम्हि पुरणो, एक्केक्कं वड्ढदे समयं ॥४०२॥
ध्रुवाध्रुवरूपेण च, अवरे क्षेत्रे वद्धिते क्षेत्रे।
अवरे काले पुनः, एकको वर्धते समयः ॥४०२॥ टीका - तीहि पूर्वोक्त ध्र ववृद्धि प्रमाण करि वा अध्र वृद्धि प्रमाण करि जघन्य देशावधि का विषयभूत क्षेत्र को . बधतै सतै जघन्य काल के ऊपरि एक एक समय बधै है।
भावार्थ ---- पूर्वं यह क्रम कहा था, जो द्रव्य की अपेक्षा सूच्यंगुल का असंख्यातवा भागप्रमाण भेद व्यतीत होइ, तब क्षेत्र विर्षे एक प्रदेश बधै । अब इहां कहिए हैं-जघन्य ज्ञान का विषयभूत जेता क्षेत्र प्रमाण कह्या, ताके ऊपरि पूर्वोक्त प्रकार करि एक एक प्रदेश बचते बधः पावली का भाग धनांगल कौं दीएं, जो प्रमाण आवै, तितना प्रदेश बधै, तब जघन्य देशावधि का विषयभूत काल का प्रमाण कह्या था, ताते एक समय और बधता, काल का प्रमाण होइ । बहुरि तितना ही प्रदेश क्षेत्र विर्षे पूर्वोक्त प्रकार करि बधै तब तिस काल तें एक समय और बधता काल का प्रमाण होइ । असे तितने तितने प्रदेश बधे, जो काल प्रमाण विर्षे एक एक समय बंधे, सो तौ घ्र वृद्धि कहिये । बहुरि पूर्वोक्त प्रकार करि ही विवक्षित क्षेत्र से कहीं धनांगुल का असंख्यातवां भाग प्रमारण प्रदेशनि की वृद्धि भए पूर्व काल त एक समय बधता काल होइ, कहीं धनांगुल का असंख्यातबा (संख्यातवां): भाग प्रमाण प्रदेशनि की वृद्धि भएं, पहले काल तें एक समय बधता काल होइ, तहां अध्र ववृद्धि कहिये । असें.प्रथम कांडक विर्षे अंत भेद पर्यंत ध्र ववृद्धि होइ, तो असंख्यात बार हो है । बहुरि अघ्र ववृद्धि होइ तौ असंख्यात बार हो है ।।
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१. सभी छहों हस्तलिखिन प्रतियों में असंख्यात मिला । छपि हुई प्रति में संख्यात है।
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चन्द्रिका नागादीका
संखातीदा समया, पढमे पन्चम्मि उभयदो वड्ढी । खेत्तं कालं अस्सिय, पढमादी कंडये वोच्छं ॥४०३॥
संख्यातीताः समयाः, प्रथमे पवें उभयतो वृद्धिः । क्षेत्रं कालमाश्रित्य प्रथमादीनि कांडकानि वक्ष्ये ।।४०३॥
टीका - असे होते प्रथम पूर्व कहिए पहला कांडक, तीहि विर्षे उभयतः कहिये ध्रुवरूप - अध्र वरूप दोज वृद्धि कर लीएं असंख्याते समय हो हैं ।
भावार्थ -- प्रथम कांडक विर्षे जघन्य काल का परिमारण ते पूर्वोक्त प्रकार ध्रुववृद्धि करि वा अध्रुववृद्धि करि एक एक समयप्रबद्ध तें असंख्यात समय बध हैं। ते कितने हैं ? प्रथम कांडक का उत्कृष्ट काल के समयनि का प्रमाण में स्यों जघन्य काल के समयनि का प्रमाण घटाएं, जो प्रमाण अवशेष रहै, तितने असंख्याते समय प्रथम कांडक विर्षे बध हैं । जैसे ही प्रथम कांडक का उत्कृष्ट क्षेत्र के प्रदेशनि का प्रमाण में स्यों जघन्य क्षेत्र के प्रदेशति का प्रमाण घटाएं, जो प्रमाण अवशेष रहै, तितने प्रदेश प्रथम कांडकनि विर्षे पूर्वोक्त प्रकार करि बध हैं । अब जो वृद्धिरूप समयनि का प्रमाण कह्या, सो जघन्य काल प्रावली का असंख्यातवां भागमात्र तीहि विर्षे जोडिए, तब प्रथम कांडक का अंत भेद विर्षे प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण काल हो है । बहुरि वृद्धिरूप प्रदेशनि का परिमाण की जघन्य क्षेत्र धनांगुल का असंख्यातवां भागमात्र तीहि विर्षे मिलाएं, प्रथम कांडक का अंत भेद विर्षे घनागुल का असंख्यातदा? भाग प्रमाण क्षेत्र हो हैं ।
इहां से प्रागै विषयभूत क्षेत्र - काल अपेक्षा देशावधि के उगणीस कांडक कहूंगा, असा आचार्य प्रतिज्ञा करी है
अंगुलमावलियाए, भागमसंखेज्जदो वि संखेज्जो। अंगुलमावलियंतो, आवलियं चांगुलपुधत्तं ॥४०४॥
अंगुलाधल्योः, भागोऽसंख्येयोऽपि संख्येयः । अंगुलभावल्यंत, प्रावलिकाश्चांगुलपृथक्त्वम् ॥४०४॥
१. मप्रति में संख्यात है।
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५४२ ]
होम्भहसार जीवकाष्ठ गाया ४०५-४०६
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टीका - प्रथम काउका विषं जपाय क्षेत्र धनामुलक अस्पात में भाग प्रमाण है । पर जघन्य काल आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण है । बहुरि तिस ही प्रथम कांडक विर्षे उत्कृष्ट क्षेत्र घनांगल के संख्यातवे? भाग प्रमाण है। पर काल प्रावली का असंख्यातवा भाग प्रमाण है । बहुरि प्रागै उत्कृष्ट भेद अपेक्षा दूसरा कांडक विर्षे क्षेत्र घनांगुल प्रमाण है । पर काल 'प्रालियंत कहिये किछु पाटि प्रावली प्रमाण है । बहुरि तीसरा कांडक विर्षे क्षेत्र पृथक्त्व घनांगुल प्रमाण है । अर काल पृथक्त्व पावली प्रमाण है।
तीन के तौ ऊपरि पर नवमे के नीचें पृथक्त्व संज्ञा जाननी । प्रावलियर्डधत्तं पुरण, हत्थं तह गाउयं महत्तं तु । जोयरग भिण्णमुहुरतं, विवसंतो पष्णुवीसं तु॥४०॥
आवलिपृथक्त्वं पुनः हस्तस्तया गम्यूतिः मुहूर्तस्तु ।
योजनं भिन्नमुहूर्तः, दिवसांतः पंचविंशतिस्तु ।।४०५॥ टीका - चौथा कांडक विर्षे काल पृथवश्व प्रावली प्रमाण अर क्षेत्र एक हाथ प्रमाण है । बहुरि पांचवां कांडक विषं क्षेत्र एक कोश पर काल अंतर्मुहूर्त है । बहुरि छठा कांडक विषं क्षेत्र एक योजन अर काल भिन्न मुहूर्त कहिये, किछू घाटि मुहूर्त है । बहुरि सातवां कांडक विर्षे काल किछ धाटि एक दिन अर क्षेत्र पचीस योजन है ।
भरहम्मि अद्धमासं, साहियमासं च जंबुदीवम्मि । वासं च मणुवलोए, वासयुधत्तं च रुचगम्मि ॥४०६।।
भरते अर्धमासः, साधिकमासश्च जंबूद्वीपे ।
वर्षश्न मनुजलोके, वर्षपृथक्त्वं च रुचके १५४०६।। टीका - आठवां कांडक विर्षे क्षेत्र भरतक्षेत्र पर काल प्राधा मास है । बहुरि नवमा कांडक विषै क्षेत्र जंबूद्वीप प्रमाण अर काल फिछ अधिक एक मास है । बहुरि दशवा कांडक विर्षे क्षेत्र मनुष्य लोक - अढाई द्वीप प्रमाण पर काल एक वर्ष है। बहुरि ग्यारहवां कांडक विर्षे क्षेत्र रुचकद्वीप पर काल पृथक्त्व वर्ष प्रमाण है।
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१. सभी हस्तलिखित प्रतियों में संख्यात मिलता है। पूर्व में छपी प्रति में असंख्यात मिलता है।
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सम्पमानचन्द्रिका माषाटीका ]
संखज्जयमे वासे, दीवसमुद्दा हवंति संखेज्जा। वासम्मि असंखेज्जे. बीवसमुद्दा असंखेज्जा ॥४०७॥
संख्यातप्रमे वर्षे, द्वीपसमुद्रा भवंति संख्याताः ।
घर्षे असंख्येये,द्वीपसमुद्रा असंख्येयाः ॥४०७॥ टीका - बारहवां कांडक विर्षे क्षेत्र संख्यात द्वीप - समुद्र प्रमाण अर काल संख्यात वर्ष प्रमाण है । बहुरि तेरहवां कांडक, जे तैजस शरीरादिक द्रव्य की अपेक्षा पूर्वे स्थानक कहे, तिनि विष क्षेत्र असंख्यात द्वीप - समुद्र प्रमाण है। पर काल असंख्यात वर्ष प्रमाण है । परि इन विर्षे इतना विशेष है - तेरहवा ते चौदहवां विर्षे असंख्यातगुणा क्षेत्रकाल है । असें ही उत्तरोत्तर असंख्यात दुणा क्षेत्र -- काल जानना बहुरि उगणीसवां अंत का कांडक विर्षे द्रव्य तौ कार्माण वर्गणा कौं ध्रुवहार का भाग दीजिए, तीहि प्रमाण पर क्षेत्र संपूर्ण लोकाकाश प्रमाण अर काल एक समय घाटि एक पल्य प्रमाण है।
कालविसेसेरणवाहिद-खेत्तविसेसो धुवा हवे चड्ढी। अर्धववड्ढी वि पुणो, अविरुद्धं इट्ठकंडस्मि ॥४०८॥
कालविशेषेणावहितक्षेत्रविशेषो ध्रुवा भवेद्वद्धिः।
अध्रुववृद्धिरपि पुनः अविरुद्धा इष्टकांडे ॥४०८ टीका - विवक्षित कांडक का जघन्य क्षेत्र के प्रदेशनि का परिमाण, तिस ही कांडक का उत्कृष्ट क्षेत्र के प्रदेशनि का परिमाण में घटाएं, जो प्रमाण रहै, ताकौं क्षेत्र विशेष कहिये । बहुरि विवक्षित कांडक का जघन्य काल के समयनि का परिमाण तिस ही कांडक का उत्कृष्ट काल के समयनि का परिमाण विर्षे घटाएं, अवशेष जो परिमाण रहै, ताकौं काल विशेष कहिए । तहां क्षेत्र विशेष कौं काल विशेष का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ, सोई तिस कांडक विर्षे ध्रुववृद्धि का परिमारण जानना । सो प्रथम कांडक विष असे करते धनागुल कौं प्रावली का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ सो ध्रुववृद्धि का प्रमाण जानना । सुच्यगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण द्रव्य की अपेक्षा भेद भए, तो क्षेत्र विषं एक प्रदेश बधै अर प्रावली करि भाजित घनांगुल प्रमाण प्रदेश बधे, तब काल विर्षे एक समय की बधवारी होइ । जैसे प्रथम कांडक का अंत पर्यंत ध्रुववृद्धि करि जेते समय बधैं, तिनको जघन्य काल विर्षे मिलाएं,
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५४४ ]
] गोम्मटसार कोषका गाथा ४०६
पावली का संख्यातवा भाग प्रमाण प्रथम कांडक का उत्कृष्ट काल हो है । बहुरि जेते जघन्य क्षेत्र ते प्रदेश बधै तितने जघन्य क्षेत्र विषें मिलाएं घनांगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण प्रथम कांडक का उत्कृष्ट क्षेत्र हो है । से ही सर्व कांडक विषे ध्रुववृद्धि का प्रमाण साधन करना । विवक्षित कांडक विष समान प्रमाण लोएं, प्रदेशनि की वृद्धि होतें, जहां समय की वृद्धि होइ, तहां ध्रुववृद्धि जाननी । बहुरि वृद्धि भी यथायोग्य क्षेत्र काल का विरोध करि साधनी ।
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सो कहिए है
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अगुलग्रसंखभागं, संखं वा श्रं गुलं च तस्सेव | संखमसंखं एवं संढीपदरस्स प्रधुवर्गे ॥१०६ ॥
अंगुलासंख्यभागः संख्यं वा अंगुलं तस्यैव । संख्य संख्यमेवं श्रेणीप्रतरयोरध्रुवनायाम् ॥४०॥
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टीका वृद्धि विषै पूर्वोक्त क्रम चांगूल का असंख्यातवां भाग प्रमाण प्रदेश क्षेत्र विषै बधे, तब काल विषै एक समय बधं । प्रथवा घनांगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण प्रदेश क्षेत्र विषै बधे, तब काल विषे एक समय बधे । अथवा धनांगुल प्रमाण अथवा संख्यात घनांगुल प्रमाण अथवा असंख्यात वनांगुल प्रमाण अथवा श्रेणी का असंख्यातवां भाग प्रमाण अथवा श्रेणी का संख्यातवां भाग प्रमाण tear श्रेणी प्रमाण अथवा संख्यात श्रेणी प्रमाण अथवा असंख्यात श्रेणी प्रमाण अथवा प्रतर का असंख्यातवां भाग प्रमाण अथवा प्रतर का संख्यातवां भाग प्रसारण अथवा प्रतर प्रमाण श्रथवा संख्यात प्रतर प्रमाण अथवा असंख्यात प्रतर प्रमाण प्रदेश क्षेत्र विषे बचें, तब काल विषै एक समय बधै, असा अध्रुववृद्धि का अनुक्रम है । इहां किल नियम नाहीं, जो इतने प्रदेश वधै ही समय बधं हातें याका नाम श्रध्रुववृद्धि है । इहां इतना विशेष - जिस कांडक विषै जिस जिस प्रकार वृद्धि संभवे, तिस तिस प्रकार ही वृद्धि जाननी । जैसे प्रथम कांडक विष घनांगुल का प्रसंख्यातवां भाग वाघांगुल का संख्यातवां भाग करि ही अध्रुववृद्धि संभव है । जातें तहां उत्कृष्ट भेद वि भी घनांगुल का संख्यातवां भाग मात्र ही क्षेत्र है, तो तहां घनांगुलादि करि
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१. प्र तथा व प्रति में असंख्यासा शब्द है ।
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सभ्यानामचन्द्रिका भाटीका ]
[ ५४५
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वृद्धि कैसे संभव ? बहुरि अंत के aise विषे घांगुल का संख्यातवा भाग आदि वृद्धि संभव है । से ही अन्य कांडकनि
संख्यात प्रतर पर्यंत सर्व प्रकार करि fararara ft
वृद्धि जाननी ।
कम्भइव धुवहारेणिगिवार भाजिदे दध्वं । उक्करसं खेत्त पुण, लोगो संपुष्णओ होदि ॥ ४१० ॥
कार्मवर ध्रुवहाक वार भाजिते सव्यं । उत्कृष्ट क्षेत्रम् पुनः, लोकः संपूर्णो भवति १४१०॥
टीका - कारण वर्गेणा को एक बार बहार का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ, तितने परमाणूनि का स्कंध को उत्कृष्ट देशावधि जाते है । बहुरि क्षेत्र करि संपूर्ण लोकाकाश को जाते है। लोकाकाश विषे जितने पूर्वोक्त स्कंध होइ, वा तिनत स्थूल होइ, तिन सनि को जाने है ।
पल्ल समऊण काले, भावेण असंखलोगमेत्ता है । दवस य यज्जाया, वरदेसोहिस्स विसया हु ॥ ४११ ॥
पल्यं समयोनं काले, भावेन ग्रसंख्यलोकमात्रा हि । द्रव्यस्य च पर्याया, बरदेशावधविषया हि ।।४११॥
टीका देशावधि का विषय भूत उत्कृष्ट काल एक समय घाटि एक पल्य प्रमाण है । बहुरि भाव असंख्यात लोक प्रमाण हैं । सो इहां काल अर भाव शब्द करि द्रव्य के पर्याय उत्कृष्ट देशावधि ज्ञान का विषयभूत जानना ।
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भावार्थ एक समय घाटि एक पत्य प्रमाण अतीत काल दिषे जे अपने जानने योग्य द्रव्य के पर्याय भए, पर तितने ही प्रमाण अनागत काल विषै अपने जानने योग्य द्रव्य के पर्याय होंहिये, तिनको उत्कृष्ट देशावधि ज्ञान जाने । बहुरि भाव करि तिनि पर्यायनि विषै असंख्यात लोक प्रमाण जे पर्याय, तिनिकों जानें । सेका र भाव शब्द करि द्रव्य के पर्याय ग्रहे । जैसे ही अन्य भेदनि विषे भी
१. हस्तलिखित अ, ग, व प्रति में असंख्यात्यां शब्द है ।
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[ गोम्मटसार जोधकाण्डमा ४१२.४१३.४१४
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५४६ ] जहां काल का वा भाग का परिमारण कहा है, सहा द्रव्य के पर्यायनि का ग्रहण करना।
बहुरि इहां देशावधि का मध्य भेदनि विर्षे भाव का प्रमाण प्रागें सूत्र कहेंगे, तिस अनुक्रम तें जानना ।
काले चउण्ह उड्ढी, कालो भजिदच्य खसउड्ढी य । उड्ढोए दव्दपज्जय, भजिवव्या खत्त-काला ॥४१२॥
काले चतुर्णा वृद्धिः, कालो भजितव्यः क्षेत्रवृद्धिश्च ।
वृद्धचा द्रव्यपर्याययोः, भजितघ्यो क्षेत्रफालौ हि ॥४१२॥ टीका - इस अवधिज्ञान का विशेष विषं जब काल की वृद्धि होइ तब तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव च्यार्यो ही की वृद्धि होइ । बहरि जब क्षेत्र की वृद्धि होइ तब काल का वृद्धि भजनीय है, होइ भी अर नहिं भी होइ । बहुरि जब द्रव्य की पर भाव की वृद्धि होंइ तब क्षेत्र की पर काल की वृद्धि भजनीय है, होइ भी अर न भी होइ । बहुरि द्रव्य की पर भाव की वृद्धि युगपत् हो है । यह सर्व कथन विचार ते युक्त ही है । या प्रकार देशावधि ज्ञान का विषय भूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का प्रमाण कहा ।
प्रागें परमावधि ज्ञान की प्ररूपणा कहै हैं --- देसावहिवरदवं, धुवहारेणवहिदे हवे णियमा। परमावहिस्स अवरं, इव्वपमाणं तु जिणदिळें ॥४१३॥
देशावधिवरद्रध्यं, ध्रुवहारेणावहिते भदेनियमात् ।
परमावधेरवरं, द्रव्य प्रमाणं तु जिनविष्टं ॥४१३॥ टीका - उत्कृष्ट देशावधि ज्ञान का विषयभूत जो द्रव्य कहा, ताकौं एक बार ध्रुवहार का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ तितना परमाणूनि का स्कंध रूप जघन्य परमावधि ज्ञान का विषयभूत द्रव्य नियम करि जिनदेवने कहा है।
अब परमावधि का उत्कृष्ट द्रव्य प्रमाण कहैं हैंपरमावहिस्स मेवा, सग-उग्गाहरगवियप्प-हद-तेऊ । चरिमे हारपमारणं, जेठस्स य होदि दवतु ॥४१४॥
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सम्मानचन्द्रिका भाघाटोका ]
परमावधेर्भेदाः, स्वकावगाहनविकल्पाहततेजसः ।
चरमे हारप्रमाणं, ज्येष्ठस्य च भवति द्रव्यं तु १४१४||
टीका अग्निकाय की श्रवगाहना का जघन्य ते उत्कृष्ट पर्यंत जो भेदनि का प्रमाण, ताकरि अग्निकाय के जीवनि का परिमारण को गुणें, जो प्रमाण होइ, तितने परमावधि ज्ञान के भेद हैं। तहां प्रथम भेद के द्रव्य को ध्रुवहार का भाग दीए, दूसरा भेद का द्रव्य होइ । दूसरा भेद का द्रव्य कौं ध्रुवहार का भाग दीएं, तीसरा भेद का द्रव्य होइ । असें अंत का भेद पर्यंत जानने । अंत भेद विषै ध्रुवहार प्रमाण द्रव्य है । ध्रुवहार का जो परिमाण तितने परमाणूनि का सूक्ष्म स्कंध की उत्कृष्ट परमावधिज्ञान जाने है 1
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हिस्स एक्को, परमाणू होदि णिग्यियप्पो सो । गंगामहाणइस्स, पवाहव्य धुवो हवे हारो ॥४१५॥
सर्वाधेरेकः, परमाणुर्भवति निर्विकल्पः सः गंगामहानद्याः, प्रवाह इव ध्रुवो भवेत् हारः ॥४१५॥
[ ४४७
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टीका उत्कृष्ट परमावधि ज्ञान का विषय ध्रुवहार प्रमाण ताक ध्रुवहार ही का भाग दीजिए, तब एक परमाणू मात्र सर्वावधि ज्ञान का विषय है । सर्वावचि ज्ञान पुद्गल परमाणू की जानें हैं । सो यह ज्ञान निर्विकल्प है । यामें जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद नाहीं । बहुरि जो वह ध्रुवहार कह्या था, सो गंगा महानदी का प्रवाह समान ही है । जैसे गंगा नदी का प्रवाह हिमाचल स्यों निकसि विच्छेद रहित वहिकरि पूर्व समुद्र को प्राप्त होइ तिष्ठचा, तैसें ध्रुवहार जघन्य देशावधि का विषयभूत द्रव्य परमावधि का उत्कृष्ट भेद पर्यंत अवधिज्ञान के सर्व भेदनि विषे प्राप्त होइ सर्वाधि का विषयभूत परमाणू तहां तिष्ठधा, जातें सर्वावधि ज्ञान भी निर्विकल्प है और याका विषय परमाणू है, सो भी निर्विकल्प है ।
परमोहिदव्यभेदा, जेत्तियमेत्ता हू तेत्तिया होंति, 1.
तस्सेव खेत-काल, वियप्पा विसया असंखगुणिवकमा ॥४१६॥
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परमावधिद्रव्यभेदा, यावन्मात्रा हि मात्रा भवति ।
तस्यैव क्षेत्र काल, विकल्पा विषया असंख्यतिक्रमाः ॥ ४१६ ॥
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[ गोम्पसार जीवाण्ड गाया ४१७ टीका - परमावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा जितने भेद कहे, अग्निकाय की अवगाहना के भेदनि का प्रमाण ते अग्निकाय के जीवनि का परिमाण फौं मुरिगए, तावन्मात्र द्रव्य की अपेक्षा भेद कहे, सो एतावन्मान ही परमावधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र की अपेक्षा वा काल की अपेक्षा भेद हैं। जहां द्रव्य की अपेक्षा प्रथम भेद है, तहां ही क्षेत्र - काल की अपेक्षा भी प्रथम भेद है। जहां दुसरा भेद द्रव्य की अपेक्षा है, तहां क्षेत्र - काल अपेक्षा भी दूसरा ही भेद है। असे अंत का भेद पर्यंत जानना बहुरि जघन्य तें लगाइ उत्कृष्ट पर्यंत एक एक भेद विर्षे असंख्यात गुगणा लामात गुणा क्षेत्र व काल जानना ।
कैसा असंख्यात गुणा जानना ? सो कहैं हैं
प्रावलिअसंखभागा, इच्छिदगच्छवच्छधणमाणमेत्ताश्रो। देसावहिस्स खेत्त , काले वि य होंति संवग्मे ॥४१७॥
आवल्यसंख्यभागा; इच्छितगच्छधनमानमात्राः ।
देशावधेः क्षेत्रे, कालेऽपि च भवति संवर्मे ।।४१७॥ .. टोका - परमावधिज्ञान का विवक्षित क्षेत्र का भेद विर्षे या विवक्षित काल का भेद विर्षे जो तिस भेद का संकलित धन होइ, तितना प्रावली का असंख्याता भाग मांडि, परस्पर गुणन कीया, जो प्रमाण होइ, सो विवक्षित भेद विर्षे गुणकार जानना । इस गुणकार करि देशावधि ज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र कौं गुण, परमावधि विर्षे विवक्षित भेद विर्षे क्षेत्र का परिमारण होइ, अर देशावधिज्ञान का उत्कृष्ट काल कौं गुणे, विवक्षित भेद विर्षे काल का परिमाण होइ ।
संकलित धन कहा कहिए -
जेथवां भेद विवक्षित होइ, तहां पर्यंत एक तें लगाइ एक एक अधिक अंक मांडि, तिन सब अंकनि को जोड़ें, जो प्रमाण होइ, सो संकलित धन जानना । जैसे प्रथम भेद विर्षे एक-ही अंक है । याके पहिले कोई अंक नाहीं । तात प्रथम भेद विर्षे संकलित धन एक जानना । बहुरि दूसरा भेद विर्षे एक अर दूवा जोडिए, तब संकलित धन तीन भया । बहुरि तीसरा भेद विर्षे एक, दोय, तीन अंक जोडें, संकलित धन छह भया । बहुरि चौथा भेद विर्ष च्यारि और जोडे, संकलित धन दश भया ।
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म्याज्ञानन्त्रिका भावाटीका ]
[ ४६
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बहुरि पांच भेद विषै पाच को अंक और जोड़ें, संकलित धन पंद्रह होइ । ऐसें सब aft fat संकलित छन जानना । सो इस एक बार संकलित धन त्यावने को करण सूत्र पर्याय समा श्रुतज्ञान का कथन करते कह्या है; तिसतें संकलित धन प्रमाण त्यावना । इस संकलित धन का नाम गच्छ, न वा पद "धन भी कहिए । अब विवक्षित परमावधिज्ञान का पांचवां भेद ताका संकलित धन पंद्रह सो पंद्रह जायगा श्रावली का प्रसंख्यातवां भाग मांडि, परस्पर गुणन कीए, जो परिमारण होइ, सोई पांचवा भेद विषै गुणकार जानना । इस गुणकार करि उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र, tatara प्रमाण, ताक गुरिए, जो प्रमाण होइ, तितना परमावधि का पांचवां भेद का वित क्षेत्र का परिवार जागना । गर इस ही गुणकार करि देशावधि का विषयभूत उत्कृष्ट काल, एक समय घाटि, एक पल्य प्रमाण, ताकौं गुणें, इस पांचवां भेद विष काल का परिमाण होइ । जैसे सब भेदनि विषै क्षेत्र का वा काल का परिमाण जानना |
संकलित धन का जो प्रमाण कह्या या ताकी और प्रकार करि
कहे हैं
गच्छतमा तक्कालियतीवे रूऊगच्छधरणमेत्ता । उभये वि य गच्छस्स य, धरणमेता होंति गुणगारा ॥ ४१८॥
यच्छतमाः तात्कालिकातीते रूपोनगच्छधनमात्राः ।
उभयेऽपि च गच्छस्य च धनमात्रा भवंति गुणकाराः ॥४१८॥
टीका - जेथवां भेद fववक्षित होइ तीहि प्रमाण कौं गच्छ कहिए। जैसें ateria foreferratइ, तो गच्छ का प्रभाग च्यारि कहिए । सो गच्छ के समान धन पर गच्छ तैं तत्काल प्रतीत भया, असा विवक्षित भेद तें पहिला भेद, तहां विवक्षित गच्छ तें एक घाटि का गच्छ धन जो संकलित धन, इति दोऊनि को मिलाइए, तब गच्छ का संकलित धन प्रमाण गुणकार होइ ।
इहां उदाहरण कहिए - जैसे विवक्षित भेद चौथा, सो गच्छ का प्रमाण भी च्यारि सो च्यारि तौ ए अर तत्काल प्रतीत भया तीसरा भेद, ताकां गच्छ धन छह, इन दोऊनि को मिलाए, दश हुवा | सोई दश विवक्षित गच्छ व्यारि, ताका संकलित धन हो है । सोई चौथा भेद विषै गुणकार पूर्वोक्त प्रकार जानना; जैसे ही सर्व भेदनि विषं जानना
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[ गोम्मदसार ओवकापड गाया ४१६-४२० परमावहि-वरखेत्तेणवहिद-उक्कस्स-ओहिखेत्तं तु । सवावहि-गुणगारो, काले वि असंखलोगो दु ॥४१६॥
परमावधिवरक्षेशेणावहितोत्कृष्टावधिक्षेत्र तु ।
सर्वाधिगुण कारः, कालेऽपि असंख्यलोकस्तु ॥४१९॥ टीका - उस्कृष्ट अवधिज्ञान के क्षेत्र का परिमाण कहिए । द्विरूप धनाधनपारा शिर्षे लोग पर गुलमार मालाका अर' वर्गशलाका अर अर्धच्छेद शलाका पर अग्निकाय की स्थिति का परिमाण पर अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र का परिमाण ए स्थानक क्रम ते असंख्यात असंख्यात वर्गस्थान गएं उपजै हैं । तातै पांच बार असंख्यात लोक प्रमाण परिमाण करि लोक कौं गुणें, जो प्रमाण होई, तितना सर्वावधिज्ञान का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र का परिमारण है । याकौं उत्कृष्ट परमावधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र का भाग दीएं, जो परिमारण होइ, सोई सर्वावधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र का परिमाण ल्यावने के निमित्त गुरगकार हो है । इस गुणकार करि परमावधि का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र कौं गुरिणए, तब सर्वावधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र का परिमारण हो है । बहुरि काल परिमारग ल्यावने के निमित्त असंख्यात लोक प्रमाण गुणकार है। इस असंख्यात लोक प्रमाण गुणाकार करि उत्कृष्ट परमावधिज्ञान का विषयभूत काल कौं गुरिगये; तब सर्वावधि ज्ञान का विषयभूत काल का परिमाण
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___ इहां कोऊ कहै कि रूपी पदार्थ तो लोकाकाश विर्षे ही पाइए है । इहां परमावधि-सविधि विर्षे क्षेत्र का परिमाण लोक ते असंख्यातमुरणा कैसे कहिए है ?
सो इसका समाधान मागे द्विरूप धनाधनधारा का कथन विर्षे करि पाए है। सो जानना । शक्ति अपेक्षा कथन जानना।
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अब परमावधि ज्ञान का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र का वा उत्कृष्ट काल का परिमाण ल्याबने के निमित्त करणसूत्र दोय कहिए हैं -
इच्छिदरासिच्छेवं, दिण्णच्छेदेहि भाजिदे तत्थ । लद्धमिवदिण्णरासीणभासे इच्छिवो रासो ॥४२०॥
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सभ्यशानन्द्रका भाषाटीका ।
इच्छितराशिच्छेद, देयच्छेवर्भाजिते तत्र ।
लब्धमितवेयराशीनामभ्यासे इच्छितो राशिः ॥४२०॥ टीका - यह करणसूत्र है, सो सर्वत्र संभव है। याका अर्थ दिखाइए है - इच्छित राशि कहिए विवक्षित राशि का प्रमाण, ताके जेते अर्धच्छेद होइ, तिनिकों देय राशि के जेते अर्धच्छेद होंइ. तिनिका भाग दीएं, जो प्रमाण प्रावै, तिसका विरलन कीजिए, एक एक जुद जुदा स्थापिए । बहुरि तिस एक एक के स्थान के जिस देय राशि के अर्धच्छेदनि का भाग दीया था, तिसही देय राशि कौं मांडि, परस्पर गुणन कीजिए, तो विवक्षित राशि का प्रमाण होइ ।
सो प्रथम याका उदाहरण लौकिक गणित करि दिखाइए है - इच्छित राशि दोय सै छप्पन (२५६), याके अर्धच्छेद पाठ, बहुरि देवराशि चौसाठि (६४) का चौथा भाग सोलह, याके अर्धच्छेद च्यारि, कैसे ? भाज्यराशि चौसठि, ताके अर्धच्छेद छह, तिनिमें स्यों भागहार च्यारि, ताके अर्धच्छेद दोय घटाइए; तब अवशेष च्यारि अर्धच्छेद रहे। अब इनि च्यारि अर्धच्छेदनि का भाग उन आठ अर्धच्छेदनि कौं दीजिए; तब दोय पाया (२), सो दोय का विरलन करि (१,१), एक एक के स्थान की एक चौसठि का चौथा भाग, सोला सोला दीया, याहीत याकौं देय राशि कहिए, सो इनिका परस्पर गुणन कीया, तब विवक्षित राशि का परिमारण दोय सै छप्पन हुवा।
असे ही अलौकिक गणित विर्षे विवक्षित राशि पल्य प्रमाण अथवा सूच्यंगुल प्रमाण वा जगच्छणी प्रमाण वा लोक प्रमाण जो होइ, ताके जेते अर्धच्छेद होइ, तिनिकों देय राशि जो प्रावली का प्रसंख्यातवां भाग, ताके जेते अर्धच्छेद होइ, तिनिका भाग बीए, जो प्रमाण प्रावै तिनिका विरलन करि - एक एक करि बखेरि, बहुरि एक एक के स्थान की एक एक पावली का असंख्यातवां भाग मांडि, परस्पर गुणन कीजिए, तो विवक्षित राशि पल्य वा सूच्यंगुल वा जगच्छणी वा लोकप्रमारण हो हैं।
विष्णच्छेदेणबहिद-लोगच्छेदेण परधरणे भजिदे। लद्धमिदलोगगुणणं, परमावहि-चरिम-गुणगारो ॥४२१॥
देयच्छेदेनावहितलोकच्छेदेन पदधने भजिसे । लब्धमिललोकगुणनं, परमावधिचरमगुणकारः ।।४२१।।
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[ गौम्मसार जोक्कापड गाया ४२१ टीका - देयराशि के अर्धच्छेदनि का भाग लोक के अर्धच्छेदन कौं दीए, जो प्रमाण होइ, ताका विवक्षित पद का संकलित धन कौं भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितना लोकमान परिमाण मांडि, परस्पर गुरगन कीए, जो प्रमाण आवै, सो विवक्षित पद विर्षे क्षेत्र वा काल का गुणकार जानना । जैसे ही परमावधि का अंत भेद विर्षे गुरणकार जानना । सो यहु कथन प्रथम अंकसंदृष्टि करि दिखाइए है । देयराशि चौसठि का चौथा भाग, ताके अर्धच्छेद च्यारि, तिनका भाग दोय से छप्पन का अर्धच्छेद पाठ, तिनिकौं दीजिए; तब दोय पाया । तिनिका भाग विवक्षित स्थान तीसरा ताका पूर्वोक्त संकलितं धन ल्यावने का सूत्र करि तीन, च्यारि कौं दोय, एक का भाग दीएं, संकलित धन छह तिनिकौं दीजिए, तब तीन पाया; सो तीन जायगा दोय से छप्पन मांडि, परस्पर गुणन कोए, जो प्रमाण होइ, सोई तीसरा स्थान विर्षे गुणकार जानना । अब इहां कथन है सो कहिए है -
देयराशि प्रावली का असंख्यातवां भाग, ताके अर्धच्छेद राशि, जो प्रावली के अर्धच्छेदनि में स्यौं भागहारभूत असंख्यात के अर्धच्छेद घटाएं, जो प्रमाण रहै, तितना जानना । सो असें इस देयराशि के अर्धच्छेद संख्यात घाटि परीतासंख्यात का मध्य भेद प्रमाण हो हैं। तिनिका भाग लोकप्रमाण के जेते अर्धच्छेद होइ, तिनकौं दीजिए, जो प्रमाण प्रावै, ताका भाग विवक्षित जो कोई परमावधि ज्ञान का भेद, ताका जो संकलित धन होइ, ताकौं दीजिए, जो प्रमाण आवै, तितना लोक मांडि, परस्पर गुगन कीए, जो प्रमाण आवै, सो तिस भेद विर्ष गुणकार जानना । इस गुणकार करि देशावधि का उत्कृष्ट लोकप्रमाण क्षेत्र कौं गुण, जो प्रमाण होइ, सो तिस भेद विर्षे क्षेत्र का परिमारण जानना ।
बहुरि इस गुणकार करि देशावधि का उत्कृष्ट एक समय घाटि पल्य प्रमाण काल कौं गुण, जो प्रमाण होई, सो तिस भेद विर्षे काल का परिमाण जानना । जैसे ही परमावधि का अंत का भेद विर्षे प्रावली का असंख्यातवां भाग का अर्धच्छेदनि कां भाग लोक का अर्धच्छेद कौँ दीए, जो प्रमाण होइ, ताकौं अंत का भेद विर्षे जो सकलित धन होइ, ताकौं भाग दीएं जो प्रमाण आवै, तितना लोक मांडि परस्पर गुणन कीए जो प्रमाण होइ, सोई अंत का भेद विर्षे गुणकार जानना । इहां अंत का भेद विर्षे पूर्वोक्त संकलित धन ल्यावने कौं करणसूत्र के अनुसारि संकलित धन ल्याइए, तब अग्निकायिक के अवगाह भेदनि करि गुरिणत अग्निकायिक जीवनि का प्रमाण मात्र गच्छ, सो एक अधिक गच्छ पर संपूर्ण मच्छ की. दोय एक का भाग दीए, जो प्रमाण
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का प्रमाण कह्या है, तातें जधन्य देशावधि ज्ञान का विषयभूत भाव का प्रमाण असंख्यात गुणा धाटि जानना।
सम्वोहि त्ति य कमसो, आवलिअसंखभागगुणिवकमा । इतक्षागां भावाणं. पदसंखा सरिसगा होति ॥४२३॥
सर्वावधिरिति छ क्रमशः, पावल्यसंख्यभागमुरिगतमाः ।
प्रध्यानां भावाना, पवसंख्याः सदृशका भवंति ॥४२३।। टीका - देशावधि का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा जहां जघन्य भेद है, तहां ही द्रव्य का पर्याय रूप भाव की अपेक्षा प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण भाव का जानने रूप जघन्य भेद हो है । बहुरि तहां द्रव्य की अपेक्षा दूसरा भेद हो है। तहां ही भाव की अपेक्षा तिस प्रथम भेद का आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण करि गरण, जो प्रमाण' होइ, तीहिं प्रमाण भाव कौं जानने रूप दूसरा भेद हो है । बहुरि जहां द्रव्य की अपेक्षा तीसरा भेद हो है; तहां ही भाव की अपेक्षा तिस दूसरा भेद ते पावली का असंख्यातवां भाग गुणा तीसरा भेद हो है ! असें ही क्रम ते सर्वावधि पर्यंत मानना । अवधिज्ञान के जेते भेद द्रव्य की अपेक्षा है; तेते ही भेद भाव की अपेक्षा है । जैसे द्रव्य की अपेक्षा पूर्व भेद संबंधी द्रव्य कौं ध्रुवहार का भाग दीए, उत्तर भेद संबंधी द्रव्य भया, तैसें भाव की अपेक्षा पूर्व भेद संबंधी भाव की प्रावली का असंख्यातवां भाम करि गुण, उत्तर भेद संबंधी भाव भया । तातै द्रव्य की अपेक्षा पर भाव की अपेक्षा स्थानकनि की संख्या समान है ।
प्राग नारक गति विर्षे अवधिज्ञान का विषभूत क्षेत्र का परिमाण कहैं हैं -. सतमखिदिम्मि कोसं, कोसस्सद्धं पवड्ढदे ताव । जाव य पढमे णिरये, जोयरगमेक्कं हवे पुण्णं ॥४२४॥
सप्तमक्षितौ कोशं, कोशस्माधि प्रवर्धते तावत् । ।
यायमच प्रथमे निरये, योजनमेकं भवेत् पूर्णम् ॥४२४॥ टीका - सातवीं नरक पृथ्वी विर्षे अवधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र एक कोश है । बहुरि प्राधा प्राधा कोश तहां ताईं बध, जहां पहले नरक संपूर्ण एक योजन
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HINनतिका माषाटीका । होइ । असे सातवें नरक अवधि क्षेत्र एक कोश, छठे ड्या, कोश, पांचवें दोय कोश, चौथे अढ़ाई कोश, तीसरे तीन कोश, दूसरे साढे तीन कोश, पहले च्यारि कोश प्रमाण एक योजना जानना।
आगें तिथंचगति मनुष्यगति विर्षे कहै हैं - तिरिये अवरं प्रोधो, तेजोयंते य होदि उक्कस्सं । मण ए अोघं देवे, जहाकम सुणह वोच्छामि ॥४२५॥
तिरश्चि प्रवरमोघः, तेजोऽते च भवति उत्कृष्टं ।
अरे प्रोघं-देवे, यथाक्रम श्रृणुत वक्ष्यामि ॥४२५॥ टीका - तिथंच जीव विर्षे जघन्य देशावधिज्ञान हो है । बहुरि यात लगाइ उत्कृष्टपने सैजसशरीर जिस देशावधि के भेद का विषय है, तिस भेद पर्यंत सर्व सामान्य अवधिज्ञान के वर्णन विर्षे जे भेद कहें, ते सर्व हो हैं । बहुरि मनुष्य गति विर्षे जघन्य देशावधि तें सर्वावधि पर्यंत सामान्य अवधिज्ञान विर्षे जेते भेद कहे,तिनि सर्व भेदनि की लीए, अवधिज्ञान हो है ।
बहुरि देवगति विर्षे जैसा अनुक्रम है, सो मैं कहों हो, तुम सुनहु - पणवीसजोयणाई, विवसंतं च य कुमारभोम्माणं । संखेज्जगुणं खेत्तं, बहुगं कालं तु जोइसिगे ॥४२६॥
पंचविंशतियोजनानि, दिवसांतं च च कुमारभौमयोः ।
संख्यातगुण क्षेत्रां, बहुकः कालस्तु ज्योतिष्के ॥४२६॥ टीका - भवनवासी अर व्यन्तर, इनिकै अवधिज्ञान का विषयभूत जघन्यपने क्षेत्र तो पचीस योजन है। अर काल किछू एक घाटि एक दिन प्रमाण है। बहुरि ज्योतिषी देवनि के क्षेत्र तौ इस क्षेत्र से असंख्यात गुणा है, अर काल इस काल ते बहुत है।
असुराणमसंखेज्जा, कोडीनो सेसजोइसंताणं । संखातोदसहस्सा, उक्कस्सोहीण विसनो दु॥४२७॥
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असुराणामसंख्येयाः, कोटयः शेषज्योसिष्कांतानाम् ।
संख्यातीतहरू, उत्कृष्शायधीनां धियबस्सु ॥३२॥ टीका - असुरकुमार जाति के भवनवासी देवनि के उत्कृष्ट अवधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र असंख्यात कोडि योजन प्रमाण है । बहुरि अवशेष रहे नव प्रकार भवनवासी अर ब्यंतर देव अर ज्योतिषी देव, तिनिकै उत्कृष्ट विषय क्षेत्र असंख्यात सहस योजन प्रसारण है।
सुराणमसंखेज्जा, वस्सा पुरण सेसजोइसंताएं। तस्संखज्जविभाग, कालेण य होदि णियमेण ॥४२८॥
असुराणामसंख्येयानि, वर्षारिण पुनः शेषज्योतिष्कांतानाम् ।
तत्संख्यातभागं, कालेन च भवति नियमेन ॥४२८॥ टोका --- असुरकुमार जाति के भवनवासीनि के अवधि का उत्कृष्ट विषय काल की अपेक्षा असंख्यात वर्ष प्रमाण है । बहुरि इस काल के संख्यातवें भागमात्र अवशेष नव प्रकार भवनवासी वा व्यंतर ज्योतिषी, तिनके अवधि का विषयभूत काल का उत्कृष्ट प्रमाण नियमकरि है ।
भवणतियाणमधोधो, थोवं तिरियेण होवि बहुगं तु । उड्ढेण भवरणवासी, सुरगिरिसिहरो त्ति पस्संति ॥४२६॥
भवनत्रिकारणामोऽधः, स्तोक तिरश्वां भवति बहुकं तु । ऊर्बेन भवनयासिनः, सुरगिरिशिखरतं पश्यति ॥४२९।।
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टोका - भवनवासी, ध्यंतर, ज्योतिषी ए जो भवनत्रिक देव, तिनिक अधोऽधो कहिए नीचली दिशा प्रति अवधि का विषयभूत क्षेत्र स्तोक है । बहुरि तिर्यंच कहिए प्रापका स्थान की बरोबरि दिशानि प्रति क्षेत्र बहुत है । बहुरि भवनवासी अपने स्थानक तें ऊपरि मेरुगिरि का शिखरि पर्यंत अवधिदर्शन कर देखें हैं ।।
सक्कीसाणा पढम, बिदियं तु सणक्कुमार-माहिंदा । तदियं तु बम्ह-लांतव, सुक्क-सहस्सारया तुरियं ॥४३०॥
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सम्यकामचत्रिका भाषाटोका )
[ ५५७ शशानाः प्रथम, द्वितीयं लु सनत्कुमार-माहेंद्राः ।
तृतीयं तु ब्रह्म-लांतथाः शुक्र-सहस्रारकाः तुरियम् ॥४३०॥ टीका - सौधर्म - ईशानवाले देव अवधि करि प्रथम नरक पृथ्वी पर्यंत देखें हैं । बहुरि सनत्कुमार माहेंद्रवाले देव दूसरी पृथ्वी पर्यंत देखें हैं। बहुरि ब्रह्म-ब्रह्मोसर लांतव कापिष्ठवाले देव तीसरी पृथ्वी पर्यंत देखें हैं । बहुरि शुक्र-महाशुक्र, शतारसहस्रास्थाले देव पायी पृथ्वी पर्यत ये है ---
प्राणद-पाणदवासी, पारण तह अच्चुदा य पस्संति । पंचमखिदिपेरंतं, छवि गेवेजगा देवा ॥४३१॥
प्रानतप्रारपतवासिनः, पारसास्तथा अयुताश्च पश्यति ।
पंचमक्षितिपर्यतं, षष्ठों वेयका देवाः ॥४३१॥ टोका - पानत प्राणत के वासी तथा प्रारण अच्युत के वासी देव पांचवी पर्यंत देखें हैं । बहुरि नवनवेयकवाले देव छठी पृथ्वी पर्यंत देखे हैं ।
सव्वं च लोयणालि, पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा। सक्खेत्ते य सकम्मे, रूवगदमरतभागं च ॥४३२॥
सर्वा च लोकनाली, पश्यति अनुत्तरेषु ये देवाः ।
स्थक्षेत्रे च स्वकर्मणि, रूपगतमनंतभागं च ॥४३२॥ टीका - नव अनुदिश विमान पर पांच अनुत्तर विमान के वासी सर्व लोकनाली, जो वसनाली ताकी देखें हैं। .. यह भावार्थ जानना-सौधर्मादियासी देव ऊपरि अपने २ स्वर्ग का विमान का ध्वजादंड का शिखर पर्यंत देखें हैं । बहुरि नव अनुदिश, पंच अनुत्तर विमान के वासी देव अपरि अपने विमान का शिखर पर्वत पर नीचे कौं बाह्य तनुबात पर्यंत सर्व असनाली को देखें है; सो अनुदिश विमानवाले तौ कि एक अधिक तेरह राजू प्रमाण लंबा पर अनुत्तर विमानवाले के च्यारि से पचीस धनुष घाटि, इकवीस योजनं करि हीन, चौदह राजू प्रसारण लंबा पर एक राजू चौड़ा अवधि का विषयभूत क्षेत्र को देखें हैं । पैसा इहां क्षेत्र का परिमाण कीया है। सो स्थानक का नियमरूप जानना । क्षेत्र का परिमाण लीए, नियमरूप न जानना । जातें अच्युत स्वर्ग पर्यंत के वासी विहार करि
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। गोम्मटससार जोधकाण्ड गाया ४३३-४३४ अन्य क्षेत्र को जाइ, अर तहां अवधि होइ तौ पूर्वोक्त स्थानक पर्यंत ही होइ, असा नाही, जो प्रथम स्वर्गवाला पहिले नरक जाइ, अर तहां सेती डेढ राजू नीचे और जानें। सौधर्मद्विक के प्रथम नरक पर्यंत अवधि क्षेत्र है। सो तहां भी तिष्ठता तहां पर्यंत क्षेत्र ही कौं जाने; असे सर्वत्र जानना । बहुरि अपना क्षेत्र विर्षे एक प्रदेश घटावना, पर अपने अवधिज्ञानावरण द्रव्य को एक बार ध्र वहार का भाग देना, जहां सर्व प्रदेश पूर्ण होइ, सो तिस अवधि का विषयभूत द्रव्य जानना।
इस ही अर्थ की नीचें दिखाइए है - कप्पसुरारणं सग-सग-पोहोखत्तं विविस्ससोवचयं । ओहीदवपमारणं, संठाविय धुवहरेण हरे ॥४३३॥ सग-सग-खोत्तपदेस-सलाय-पमारणं समप्पदे जाय । तत्थतणचरिमखंडं, तत्थतणोहिस्स बव्वं तु ॥४३४॥
कल्पसुराणां स्वकस्वकावधिक्षेत्र विविनसोपचयम् । अवधिद्रव्यप्रमाणं, संस्थाप्य ध्रुवहरेण हरेत् ।।४३३॥ स्वकस्वकक्षेत्रप्रदेशलाकाप्रमाणे समाप्यते यावत् ।
तत्रतनचरमखंडं, तत्रतनावधेयं तु ॥४३४॥ टीका - कल्पवासी देवनि के अपना अपना अवधि क्षेत्र पर विस्रसोपचय रहित अवधिज्ञानावरण का द्रव्य स्थापि करि अवधिज्ञानावरए द्रव्य की एक बार ध्रुवहारका भाग देइ, क्षेत्र विर्षे एक प्रदेश घटावना, असे सर्व क्षेत्र के प्रदेश पूर्ण होई, तहां जो अंत विर्षे सूक्ष्म पुद्गलस्कंधरूप खंड होइ, सोई तिस अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य जानना।
इहां उदाहरण कहिए है-सौधर्म ऐशानवालों का क्षेत्र प्रथम नरक पर्यत कह्या है; सो प्रथम नरक से पहला दूसरा स्वर्ग का उपरिम स्थान ड्योढ राजू ऊंचा है । तातें भवधि का क्षेत्र एक राजू लंबा - चौड़ा, ड्योढ राजू ऊंचा भया । सो इस धन रूप ड्योढ राजू क्षेत्र के जितने प्रदेश होइ, ते एकत्र स्थापने । बहुरि किंचिदून घ्य: र्धगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्वरूप सर्व कर्मनि की परमाणूनि का परिमाण है । तिस वि अवधिज्ञानावरण नामा कर्म के जेते परमाणू होई, तिन विर्षे
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सम्याज्ञानचन्द्रिका मावाटीका ]
। ५५९
विवसोपचय के परमाणू न मिलाइए, असे ते अवधिज्ञानावरण के परमाणू एकत्र स्थापने । बहुरि इस अवधिज्ञानावरण के परमाणूनि का प्रमाण को एक बार ध्रुवहार का भाग दीजिये; तब उस क्षेत्र के प्रदेशनि का परिमाण में स्यों एक घटाइए, बहुरि एक बार ध्रुवहार का भाग देतें, एक भाग विर्षे जो प्रमाण आया, ताकौं दूसरा ध्रुवहार का भाग दीजिए; तब तिस प्रदेशनि का परिमारण में स्यों एक और घटाइए। बहुरि दूसरा ध्रुवहार का भाग देते एक भाग विर्षे जो प्रमाण रहवा ताकौं तीसरा ध्रुवहार का भाग दीजिए, तब तिस प्रदेशनि का परिमाण में स्यों एक और घटाइए । एसें जहां ताई सर्व क्षेत्र के प्रदेश पूर्ण होइ; तहां ताई ध्रुवहार का भाग देते जाईये देते-देते अंत के विर्षे जो परिमाण रहै, तितने परमाणू का सूक्ष्म पुद्गल स्कंघ जो होइ, ताको सौधर्म -ऐशान स्वर्गबाले देव अवधिज्ञान करि जाने हैं। इससे स्थूल स्कंध को तो जाने ही जानें । असें ही सानत्कुमार - माहेंद्रवालों के धनरूप चारि राजू प्रमाण क्षेत्र के प्रदेशनि का जो प्रमाग तितनी बार अवधिज्ञानावरण द्रव्य कौं ध्रुवहार का भाग देते देतें जो प्रमाण रहै, तितने परमाणूनि का स्कंध को अवधिज्ञान करि जाने है । जैसे सबनि के अवधि का विषयभूत क्षेत्र के प्रदेशनि का जो प्रमाण होइ, तितनी बार अवधिज्ञानावरण द्रव्य कौं ध्रुवहार का देते देतें जो प्रमारग रहै, तितने परमाणुनि का स्कंध की ते देव अवधिज्ञान करि जाने हैं । वहां ब्रह्म - ब्रह्मोत्तरबालों के साठा पांच राजू, लांतव • कापिष्ठवालों के छह राजू, शुक्र - महाशुक्रवालों के साढा सात राजू, शतार - सहस्रारवालों के आठ राजू, प्रान्त - प्राणतवालों के साढा नव राजू, पारण - अच्युतवाली के दश राजू, अधेयकबालों के ग्यारह राजू, अनुदिश विमानवालों के किछु अधिक तेरह राजू, अनुत्तर विमानवालों के किछु घाटि चौदह राज क्षेत्र का परिमाण जानि, पूर्वोक्त विधान कीएं, तिनि देवनि के अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य का परिमाण पावै है ।
सोहम्मीसाणाणमसंखेज्जाओ हु वस्सकोडीओ।। उपरिमकप्पचउक्के, पल्लासंखोज्जभागो दु ॥४३५॥ तत्तो लांतवकप्पप्पहुवी सम्वत्थसिद्धिपेरंतं । किंचूणपल्लमेत्तं, कालपमारणं जहाजोग्गं ॥४३६॥ जुम्मं । . सौधर्मशानानामसंख्येया हि वर्षकोटयः ।
उपरिमकल्पचतुष्के, पल्यासंख्यासभागस्तु ॥४३५॥
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[ गोम्मटसार अवकाण्ड गाथा ४३७४३८
ततो लांच कल्पप्रभृतिसर्वार्थसिद्धिपर्यंतम् । frfarपत्यमात्र, कालप्रमाणं यथायोग्यम् ॥४३६॥
टीका - सौधर्म ईशानवालों के अवधि का विषयभूत काल असंख्यात कोडि वर्ष प्रमाण है । बहुरि तातें ऊपरि सनत्कुमारादि चारि स्वर्गवालों के यथायोग्य पत्यः का असंख्यातवां भाग प्रमाण है । बहुरि तातें ऊपरि लांवत आदि सर्वार्थसिद्धि पर्यंत-" वालों के यथायोग्य कछू घाटि पत्य प्रमाण है ।
जोsसिताणोहीखत्ता उत्ता ण होंति घणपवरा । कसुराणं च पुणो, विसरित्थं आयदं होदि ॥४३७॥
ज्योतिonintereafधक्षेत्रासि उक्तानि न भवंति धनप्रतराणि । कल्पसुराणां च पुनः विसरशमायतं भवति ॥४३७॥
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टीकर - ज्योतिषी पर्यंत जे भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी असे तीन प्रकार देव, तिनकें जो अवधिका विषयभूत क्षेत्र का है; सो समचतुरस्र कहिए बरोबर चौकोर घनरूप नाहीं है । जातें सूत्र विषे लंबाई, चौड़ाई, उचाई समान नाहीं कही है, याही तैं श्रवशेष रहे मनुष्य, नारकी, तिच तिनि के जो अवधि का विषयभूत क्षेत्र है; सो बरोबर चौकोर घनरूप है । अवधिज्ञानी मनुष्यादिक जहां तिष्ठता होइ, तहां अपने विषयभूत क्षेत्र का प्रमाणपर्यंत चौकोररूप घन क्षेत्र कौं जानें है । बहुरि कल्पवासी देवनि के जो अवधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र है। सो विसदृश आयत कहिए लंबा बहुत, चौडा थोडा सा श्रायतचतुरस्र जानना |
fafarnafai वा, श्रद्ध विलियमणेयभेयगयं ।
मणपज्जयंति उच्च, जं जाणइ तं खु गरलीए ॥४३८ ||
fatafat ग्रर्ध चितितमनेकभेदगतम् ।
मनः पर्यय इत्युच्यते, यज्जानाति तत्खलु नरलोके ॥ ४३८ ||
टीका - चितितं कहिए अतीत काल में जिसका चितवन कीया पर अतितं for an Arian काल विषै चितवेगा पर प्रचतितं कहिए जो संम्पूर्ण चितया नाहीं । सा जो अनेक भेद लीए, अन्य जीव का मन विष प्राप्त हुवा भर्थ ताक जो जानें, सो मनः पर्यय कहिए । मनः कहिए अन्य जीव का मन विषै चितवनरूप
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सम्यग्ज्ञानन्द्रिका भावाटीका ]
[ ५६१
प्राप्त भया अर्थ, ताकी पर्येति कहिए जानें, सो मन:पर्यय है, औसा कहिए है । सो इस ज्ञान की उत्पत्ति मनुष्य क्षेत्र ही विषं हैं, बाह्य नाहीं है ।
पराया मन विषै तिष्ठता जो अर्थ, सो मन कहिए । ताकौ पर्येति, कहिए जानें, सो मन:पर्यय जानना ।
मणपज्जवं च दुविहं, उजुविउलमदित्ति उजुमदी तिविहा । उज्जुमणवणे काए, गवत्थविसया त्ति नियमेण ॥ ४३६ ॥
मन:पर्ययश्च द्विविधः, ऋजुविपुलमतीति ऋजुमतिस्त्रिविधा । ऋजुमनोचने काये, गतार्थविषया इति नियमेन ॥ ४३९||
टीका - सो यहु मन:पर्यय - ज्ञान सामान्यपने एक प्रकार है, तथापि भै दो प्रकार है - ऋजुमति मन:पर्यय, विपुलमति मन:पर्यय ।
वहां सरलपने मन, वचन, काय करि कीया जो अर्थ अन्य जीव का मन विषै चितवनरूप प्राप्त भया ताके जानने तें निष्पन भई, असी ऋन्धी कहिए सरल हैं मति जाकी, सो ऋजुमति कहिए ।
बहुरि सरल वा वक्र मन, वचन, काय करि कीया जो अर्थ अन्य जीव का मन विषै चितवनरूप प्राप्त भया, ताके जानने ते निष्पन्न भई वा नाही नाई निष्पन्न भई असी fayer कहिए कुटिल है मति जाकी, सो विपुलमति कहिए। जैसे ऋजुमति श्रर विपुलमति के भैद तैं मन:पर्ययज्ञान दोष प्रकार है ।
तहां ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान नियम करि तीन प्रकार है । ऋजु मन विष प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा बहुरि ऋजु वचन विषै प्राप्त भया श्रर्थ का जानत हारा, बहुरि ऋजुका विषै प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा से ए तीन भेद हैं ।
विउमदी वि य छद्धा, उजुगाणुजुवयणकायचित्तमय' । अत्थं जाणदि जम्हा, सद्दत्थगया हु ताणत्था ॥ ४४० ॥
बिपुलमतिरपि च षोढा, ऋजुगानृजुवचनकायचित्तंगतम् । प्रथं जानाति यस्मात् शब्दार्थगता हि तेषामर्थाः ॥ ४४० ॥
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IHAमक मारमा
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१६२ ]
[ गोम्मटसार जौवकाण्ड गाया ४४१ टोका-विपुलमति ज्ञान भी छह प्रकार है -१. ऋजुमन कौं प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा, २. ऋजु वचन कौं प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा, ३. ऋजु काय की प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा, ४. बहुरि वक्र मन कौं प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा, ५. बहुरि वन वचन को प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा, ६. बहुरि वक्र काय को प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा । ए छह भेद हैं, जाते सरल बा चक्र मन, वचन, काय को प्राप्त भया पदार्थ कौं जानें है।
बहुरि तिन ऋजुमति विपुलमति ज्ञान के अर्थाः कहिए विषय ते शब्द कौं वा अर्थ को प्राप्त भए प्रगट हो हैं । कसै ? सो कहिए है - कोई भी सरल मन कर निष्पन्न होत संता विभाग संबंधी पदार्थनि कौं चितवन भया, वा सरल वचन करि निष्पन्न होत संता, तिनकों कहत भया वा सरल काय करि निष्पन्न होत संता तिनकों करत भया, पीछे भूलि करि कालांतर विर्षे यादि करने की समर्थ न हूवा पर प्राय करि ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानी को पूछत भया वा यादि करने का अभिप्राय कौं धारि मौन ही तें खडा रह्या, तौ तहां ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान स्वयमेव सर्व को जाने है।
से ही सरल था वक्र मन, वचन, काय करि निष्पन्न होत संता त्रिकाल संबंधी पदार्थनि कौं चितवन भया वा कहत भया का करत भया । बहुरि भूलि. करि केतक काल पीछे यादि करने कौं समर्थ न हवा, आय करि विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी के निकटि पूछत भया वा मौन नै खडा रह्या, तहां विपुलमति मनःपर्ययज्ञान सर्व कौं जाने, असे इनिका स्वरूप जानना ।
तियकालविसयरूवि, चिंतितं वद्रमाणजीवेण । उजुमदिणारणं जाणदि, भूदभविस्सं च विउलमदी ॥४४१॥
त्रिकालविषयरूपि, चितितं वर्तमानजीवेन ।
ऋजुमतिज्ञानं जानाति, भूतभविष्यम विपुलम्मतिः॥४४१॥ टीका - त्रिकाल संबंधी पुनल द्रव्य कौं वर्तमान काल विष कोई जीव चितवन कर है, तिस पुद्गल द्रव्य कौं ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान जानें है ।' बहुरि त्रिकाल संबंधी पुद्गल द्रव्य कौं कोई जीव प्रतीत काल विष चितया था वा वर्तमान काल विर्षे चितवै है वा अनागत काल विर्षे चितवंगा, असे पुद्गल द्रव्य कौं विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जाने है।
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सम्याक्षानचन्द्रिकर मावाटीका ]
सम्वंग-अंग-संभव-चिण्हादुप्पज्जवे जहा ओही। मणपज्जवं च दन्वमणादो उप्पज्जवे रिणयमा ॥४४२॥
सर्वांगांगसंभवधिलादुत्पद्यते यथावधिः ।
मनःपर्ययं च द्रव्यमनस्त उत्पद्यते नियमात् ॥४४२।। टोका - जैसे पूर्व कहा था, भवप्रत्यय अवधिज्ञान सर्व अंग ते उपजे है। पर गुणप्रत्यय शंखादिक चिह्ननि तें उपजे है । तैसे मनःपर्ययज्ञान द्रव्य मन से उपज है । नियम तें और अंगनि के प्रदेशनि विर्षे नाहीं उपज है।
हिदि होदि ह दव्यमणं, वियसियअठ्ठच्छदारविरं वा । अगोवंगुदयादो, मणवग्गणख धवो रिपयमा ॥४४३॥
हदि भवति हि द्रव्यमनः, विकसिताष्टम्छदारविंदवत् ।
अंगोपांगोदयात्, मनोवणास्कंधतो नियमात् ।।४४३॥ टीका - सो द्रव्य मन हृदय स्थान विर्षे प्रफुल्लित आठ पाखुडी का कमल के प्राकार अंगोपांग नाम कर्म के उदय ते तेईस जाति की पुद्गल वर्गणानि विषं मनोवर्गणा है । तिनि स्कंधनि करि निपज है, असा नियम है।
णोइंदिय ति सण्णा, तस्स हवे सेसइंदियारणं वा । वत्तत्ताभावादो, मण मणपज्जं च तत्थ हवे ॥४४४॥
नोइंद्रियमिति संज्ञा, तस्य भवेत् शेद्रियाणां वा ।
व्यक्तत्वाभावात्, मनो मनःपर्ययश्च तत्र भवेत् ॥४४४।। टीका - तिस मन का नोइंद्रिय जैसा नाम है । नो कहिए ईषत्, किंचिन्मात्र इंद्रिय है। जैसे स्पर्शनादिक इंद्रिय प्रकट है, तैसे मन के प्रकटपना नाहीं । तातै मन का नोइंद्रिय असा नाम है; सो तिस द्रव्य मन विर्षे मतिज्ञानरूप भाव मन भी उपजै हैं; अर मनःपर्ययज्ञान भी उपज है ।
मणपज्जवं च गाणं, सत्तसु विरदेसु सत्तइड्ढोणं । . एगादिजुदेसु हवे, वड्ढंतविसिट्ठचररणेसु ॥४४॥
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५६४ ]
[सम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४४६-४४७-४४८
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मनःपर्ययश्च ज्ञान, सप्तसु विरतेषु सप्तीनाम् ।
एकादियुतेषु भवेद्वर्धमानविशिष्टाचरणेषु ।।४४५॥
रीका - प्रमत्त प्रादि सात गुणस्थान विर्षे १. बुद्धि, २. तप, ३. वैक्रियिक, ४. औषध, ५. रस, ६... बल, ७. अक्षीण इनि सात रिद्धिनि विर्षे एक, दोय आदि रिद्धिनि करि संयुक्त, बहुरि वर्षमान विशेष रूप चारित्र के धारी जे महामुनि, तिनिके मनःपर्यय ज्ञान हो है; अन्यत्र नाहीं।।
इंदियरणोइंदियजोगादि, पेक्खिस्तु उजुमदी होदि । हिरवेक्खिय विउलमधी. ओहि वा होहि शिमरे ॥१४॥
इंद्रियलोइंद्रिययोगादिमपेक्ष्य ऋजुमतिर्भवति ।
निरपेक्ष्य विपुलमतिः, अवधिर्वा भवति नियमेन ॥४४६॥ टीका - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है। सो अपने वा अन्य जीव के स्पर्शनादिक इंद्री भर नोइंद्रिय मन पर मन, वचन, काय योग तिनिकी सापेक्ष तें उपज है । बहुरि विपुलमति मन:पर्यय है; सो अवधिज्ञान की सी नाई, तिनकी अपेक्षा बिना ही नियम करि उपजै है ।
पडिवादी पुण पढमा, अप्पडिवादी हु होदि बिदिया हूँ । सुद्धो पढमो बोहो, सुद्धतरो विदियबोहो दु ॥४४७॥
प्रतिपाती पुनः प्रथमः, अप्रतिपाती हि भवति द्वितीयो हि।
शुद्धः प्रथमो बोधः, शुद्धत्तरो द्वितीयबोधस्तु ।।४४७।। टीका - पहिला ऋजुमति मन:पर्यय है, सो प्रतिपाती है । बहुरि दूसरा विपुलमति मनःपर्यय है, सो अप्रतिपाती है । जाके विशुद्ध परिणामनि की घटवारी होइ, सो प्रतिपाती कहिये । जाकै विशुद्ध परिणामनि की घटवारी न होइ, सो अप्रतिपाती कहिये । बहुरि ऋजुमति मनःपर्यय तौ विशुद्ध है; जाते प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम से निर्मल भया है । बहुरि विपुलमति मनःपर्यय विशुद्धतर है; जात अतिशय करि निर्मल भया है।
परमणसि टिव्यमळं, ईहामदिरा उजुटिव्य लहिय । पच्छा पच्चक्खण य, उजुमविरणा जाणदे रिणयमा ॥४४॥
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सम्माजाचन्द्रिका भाषा टीका ]
परमनसि स्थितमर्थमीहामत्या ऋजुस्थितं लक्ष्याः ।
पश्चात् प्रत्यक्षेण च, ऋजुमतिना जानोते. नियमात् ।।४४८॥ ... टीका -- पर जीव के मन विष सरलपर्ने चितवन रूप तिष्ठता जो पदार्थ, ताकौं पहले तो ईहा नामा मतिज्ञान करि प्राप्त होइ, असा विचार कि याका मन विर्षे कहा है, । पीछे ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान करि तिस अर्थ की प्रत्यक्षपने करि ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी जाने है, यह नियम है।
चितियचितियं वा, अद्ध चितियमणेयभेयगयं । अोहिं वा विउलमबी, लाहिऊण विजाणए पच्छा ॥४४॥
वितिसमचितितं का, अर्ध चितितमनेक भेवगतम् । __ अवधि; विपुलमतिः, लखवा विजानाति पश्चात् ।।४४९।।
टीका - प्रतीत काल विर्षे चिंतया वा अनागत काल विष जाका चितवन होगा, असा दिना चितया वा वर्तमान काल विष किछ एक आधासा. चितया असा अन्य जीव का मन विर्षे तिष्ठता अनेक भेद लीएं अर्थ, वाकौं पहिलै प्राप्त होई; वाका मन विर्षे यह है, जैसा जानि । पीछे अवधिज्ञान की नाईं विपुलमति मनःपर्ययज्ञान तिस अर्थ कौं प्रत्यक्ष जान है ।
दव्वं खेत्तं कालं, भावं पडि जीवलक्खियं रूवि । उजविउलमदी जारपदि, अवरवरं मझिमं च तहा ॥४५०॥
द्रव्यं क्षेत्रं कालं, भावं प्रति जीवलक्षितं रूपि ।
ऋजुविपुलमती जानीतः प्रवरवरं मध्यमं च तथा १४५०।। - टीका - द्रव्य प्रति वा क्षेत्र प्रति वा काल प्रति का भाव प्रति जीव करि लक्षित कहिये चितवन कीया हूवा जो रूपी पुद्गल द्रव्य वा पुद्गल के संबंध कौं धरै संसारी जीव द्रव्य, ताकी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद करि ऋजुमति या विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान जाने है।
अवरं दध्वमुरालियसरीरणिज्जिएणसमयबद्ध तु । चक्विवियरिणज्जरपणं, उक्कस्सं उजुमदिस्स हवे ॥४५१॥
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[गोम्मरसार जीवकास गाथा ४५२-४५३
प्रवरं द्रव्यमौरासिकशरीरनिओर्णसमयप्रबद्धं तु ।
चक्षुरिंद्रियनि|र्णमुत्कृष्ट मजुमतेर्भवेत् ।।४५१॥ टोका - ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान जघन्यपने करि औदारिक शरीर का निर्जरारूप समय प्रबद्ध कौं जाने है । औदारिक शरीर विर्षे समय समय निर्जरा हो है, सो एक समय विष औदारिक शरीर के जितने परमाणू निर्जर, तितने परमाणूनि का स्कंध की जघन्य ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान जाने हैं। बहुरि उत्कृष्टपने नेत्र इंद्रिय की निर्जरा मात्र द्रव्य कौं जाने हैं । सो कितना है ? औदारिक शरीर को अवगाहना संख्यात धनांयुल प्रमाण है । तिस विषं विस्रसोपचय सहित औदारिक शरीर का समय प्रबद्ध प्रमाण परमाणू निर्जरा रूप भये, तो नेत्र इंद्रिय की अभ्यंतर निर्वृति अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है। तिस विर्षे कितने परमाणू निर्जरारूप भए, असा त्रैराशिक करि जितना परमाणू पाया, तितने परमाणूनि का स्कंध कौं उत्कृष्ट ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान जाने हैं।
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मणध्ववम्गणाणमणंतिमभागेण उजुगउक्कस्सं । खंडिदमेतं होदि हु, विउलमदिस्साबरं दव्वं ॥४५२॥
मनोद्रव्यवर्गरगामनंतिमभागेन ऋजुगोत्कृष्टम् ।
खंडितमात्रं भवति हि, विपुलमतेरवरं द्रव्यम् ॥४५२।। टीका - बहुरि तेईस जाति की पुद्गल वर्गणानि विर्षं मनोवर्गणा का जघन्य ते लगाई, उत्कृष्ट पर्यंत जितने भेद हैं, तिनिकौं अनंत का भाग दीजिए, तहां जो एक भाग विर्षे प्रमाण होइ, सो मनःपर्यय ज्ञान का कथन विर्षे ध्रुवहार का परिमारण जानना । सो ऋजुमति का उत्कृष्ट विषयभूत द्रव्य विर्षे जो परिमाण कहा था, ताकी इस ध्रुवहार का भाग दीएं, जो परिमाण आवै, तितने परमाणूनि का स्कंध की जघन्य विपुलमति मन:पर्ययज्ञान जाने हैं।
अटण्हं कम्माणं, समयपबद्ध विविस्ससोवचयं ।। ध्रुवहारेणिगिवारं, भजिदे बिदियं हवे दव्वं ॥४५३॥
अष्टानां कर्मणां, समयप्रबद्धं विविनसोपचयम् । ध्रुवहारेणकदारं, भजिते द्वितीयं भवेत् द्रव्यम् ॥४५३॥
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सभ्यम्जामचन्तिका भाषादीका
टोका - प्राट कमंनि का समुदायरूप जो समय प्रबद्ध का प्रमाण तीहिं विर्षे बिनसोपचय के परमाण न मिलाइए, तिन ही की एक बार मन:पर्ययज्ञान संबंधी ध्रुवहार का भाग दीएं, जो प्रमाण प्रावै, तितने परमाणु नि का स्कंध कौं विपुलमति मनःपर्यय का दूसरा भेदरूप ज्ञान जान है।
सन्विदियं कप्पारणमसंखेज्जाणं च समयसंखसमं । धुवहारेणवहरिदे, होवि हु उक्कस्सयं दध्वं ॥४५४॥
तद्वितीयं कल्पानामसंख्येयानां च समयसंख्यासमम् ।
ध्रुवहारेगावहूते, भवति हि उस्कृष्टक द्रव्यम् ॥४५४॥ टीका - तिस विपुलमति के दूसरे भेद संबंधी द्रव्य करें तिस ही ध्रुवहार का भाग दीजिए, जो प्रमाण प्रावै, ताकी फेरि ध्रुवहार का भाग दीजिए । असे असंख्यात कल्पकाल के जेते समय हैं; तितनी बार ध्रुवहार का भाग दीजिए, देते देते अंत विष जो परिमाण रहै, तितने परिमाणूनि का स्कंध कौं उत्कृष्ट विपुलमतिज्ञान जाने हैं; असें द्रव्य प्रति जघन्य - उत्कृष्ट भेद कहे हैं ।
गाउयपुधसमवरं, उक्कस्सं होदि जोयणपुधत्तं । विउलमदिस्स य अवरं, तस्स पुधत्तं वरं खु परलोयं ॥४५॥
गम्यूतिपृथक्त्वमवरमुत्कृष्टं भवति योजन पृथक्स्यम् ।
विपुलमतेश्च अवरं, तस्य पृथक्त्वं वरं खलु नरलोकः ।।४५५।। टीका - ऋजुमति का विषयभूत जघन्य क्षेत्र पृथक्त्व कोश प्रमाण है, सो दोय, तीन, कोश प्रमाण जानना । बहुरि उत्कृष्ट क्षेत्र पृथक्त्व योजन प्रमाण है, सो सात वा पाठ योजन प्रमाण जानना । बहुरि विपुलमति का विषयभूत जघन्य क्षेत्र पृथक्त्व योजन प्रमाण है, सो आठ का नव योजन प्रमाण जानना । बहुरि उत्कृष्ट . क्षेत्र मनुष्य लोक प्रमाण है।
परलोए ति य वयणं, विक्खंभणियामयं ण वस्स । । जह्मा तम्घणपदरं, मणपज्जवखेतमुद्दिठं ॥४५६।।
नरलोक इति च वचनं, विष्कभनियामक न वृत्तस्य । यस्मातद्धनप्रतरं, मनःपर्ययक्षेत्रमुद्दिष्टम् ॥४५६॥ .
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[ गोम्मटसार मीषकाण्ड गाया ४५७-४५८-४५६
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टोका-नरलोक यहां अँसा नसा कहा है, सो महामण लोक का निष्कंभ का जेता परिमाण है, सो लेना । पर मनुष्य लोक तो मोल है । अर यहु विपुलमति का विषयभूत क्षेत्र समचतुरस्त्र धन प्रतर कहिए, समान चौकोर घन रूप,प्रतर क्षेत्र कहा है; सो पैंतालीस लाख योजन लंबा, तितना ही चौड़ा असा परिमाण जानना । इहां ऊंचाई थोड़ी है, तातै धन प्रतर का है । जाते मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य च्यारों कोणानि विर्षे तिष्ठते देव, तिर्यंच चितए हुवे तिनिकौं भी उत्कृष्ट विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जान हैं, असें क्षेत्र प्रति जघन्य - उत्कृष्ट भेद कहे ।
दुग-तिग-भवा हु अवरं, सत्तभवा हवंति उफ्कस्सं । अड-रणवभवा हू अवरमसखेज्ज विउलउक्कस्सं ॥४५७॥
द्विक-त्रिक-भवा हि अवरं, सप्ताष्टभया भवंति उत्कृष्टम् ।
अष्ट-नव-भवा हि अवरमसंख्येयं विपुलोत्कृष्टम् ।।४५७॥ : टोका -- काल करि ऋजुमति का विषय, जेधन्यपने अतीत - 'अनागत रूपः दोय, तीन भव है ; उत्कृष्टतें सात, आठ भंध है । बहुरि विषुलमति का विषय जघन्य पाठ नव भव हैं; उत्कृष्ट पल्य का असंख्यातवां भाग मात्र है । जैसे अतीत, अनागत अपेक्षा काल प्रति जघन्य उत्कृष्ट भेद कहे।
प्रावलिमसंखभागं, अवरंच वरं च धरमसंखगणं । तत्तो असंखगुणिवं, असंखलोगं तु विउलमदी ॥४५८।।
आवल्यसंख्यभागमवरं च बरं च वरमसंख्यगुणम् ।
ततोऽसंख्यातगुरिगतमसंख्यलोकं च विपुलमतिः ।।४५८।। टोका - ऋजुमति का विषयभूत भाव जघन्यपन प्रावली के असंख्यातवे भाग प्रमाण है । उत्कृष्टपने भी प्रावली के असंख्यातवा भाग प्रमाण ही कहिए; तथापि जघन्य से असंख्यात गुणा है । बहुरि विपुलमति का विषय भूत भवि जघन्य पन अजुमति का उत्कृष्ट सैं असंख्यात गुणा है। बहुरि उत्कृष्ट पनै असंख्यात लोक प्रमाण है । जैसे भाव प्रति जघन्य - उत्कृष्ट भेद कहे ।
मझिम दवं खेत्तं, काल भावं च मज्झिम गाणं । जाणदि इदि मणपज्जवणाएं कहि समासेण ॥४५६॥
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सम्यग्ज्ञानचद्रिका भाषाटीका |
मध्यमद्रव्यं क्षेत्र, कालं भावं च मध्यमं ज्ञानम् 'जानातीति मन:पर्ययज्ञानं कथितं समासेन ॥ ४५९॥
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टोका ऋजुमति पर विपुलमति का जघन्य भेद घर उत्कृष्ट भेद तो जघन्य वा उत्कृष्ट द्रव्य के क्षेत्र, काल, भावनि को जाने है । अर जे जधन्य अर उत्कृष्ट के मध्यवती जे द्रव्यं, क्षेत्र, काल, भाव, तिनकों ऋजुमति पर विपुलमति के जे मध्य भेद हैं, तैं जानें हैं । से मन:पर्ययज्ञान संक्षेप करि का है ।
संपुरणं तु समग्गं, केवलम सवत्तसंस्वभावगयं । aturatefaतिमिरं केवलरणाणं मुणेवव्वं ॥४६०॥ संपूर्ण तु समग्रं संपन्नं सर्वभावगतम् । तिमि केवलम् ॥४
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टीका - जीव द्रव्य के शक्तिरूप जे सर्व ज्ञान के विभाग प्रतिच्छेद थे, ते सर्व व्यक्त रूप भए, तातें संपूर्ण हैं । बहुरि ज्ञानावरणीय परवीराय नामा कर्म के सर्वथा नाशतें जिसकी शक्ति रुकं नाहीं है वा निश्चल है, ताते समय है । बहुरि इंद्रियनि कर सहाय करि रहित है, तातें केवल है । बहुरि प्रतिपक्षी च्यारि घाति कर्म के नाश अनुक्रम रहित सकल पदार्थनि विषै प्राप्त भया है, ताते असंपन्न है । बहुरि लोकालोक विषे अज्ञान अंधकार रहित प्रकाशमान है । जैसा प्रभेदरूप केवलज्ञान जानना ।
मागे ज्ञानमार्गला विषै जीवनि की संख्या कहै हैं
चदुर्गादिमविदबोहा, पल्लासंखेज्जया हु मणयज्जा । संखेज्जा के लिो, सिद्धादो होंति अविरित्ता ॥४६१॥
तुर्गतिमतिश्रुतबोधाः, पल्यासंख्येया हि मनः पर्यायाः । संख्याः केवलिनः सिद्धात् भवंति अतिरिक्ताः ॥ ४६१||
टीका - व्या मति विषै मतिज्ञानी पल्य के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । बहुरि श्रुतज्ञानी भी पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । बहुरि मनः पर्यय ज्ञानी मनुष्य संख्याते हैं । बहुरि केवल ज्ञानी सिद्धराशि विषै तेरह्नां चौदह्नां गुणस्थानवर्ती tafter का परिमाण मिलाएं, जो होइ वीहि प्रमाण हैं ।
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५७० ।
[ गोम्मटसार औषका माथा ४६२-४६३-४६४
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ओहिरहिदा तिरिक्खा, मदिरणाणिअसंखभागगा मणुगा। संखेज्जा हु तदूणा, मविणाणी ओहिपरिमाणं ॥४६२॥
अवधिरहिताः तिर्यंचः, मतिज्ञान्यसंख्यभागका मनुजाः ।
संख्येया हि तवूनाः, मतिज्ञानिनः अवधिपरमारणम् ॥४६२॥ टीका - अवधिज्ञान रहित तिर्यंच, मतिज्ञानी जीवनि की संख्या कही । तीहि के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । बहुरि अवधिज्ञान रहित मनुष्य संख्यात हैं, ए दोऊ राशि मतिज्ञानी जीवनि की जो संख्या कही थी; तिसमें स्यों घटाइ दीएं जो अवशेष प्रमाण रहै, तितने च्यार्यो गति संबंधी अवधिज्ञानी जीव जानने ।
पल्लासंखघणंगल-हव-सेढि-तिरिक्ख-गदि-विभंगजुदा । गर-सहिदा किंचूणा, चदुगदि-वेभंगपरिमारणं ॥४६३॥
पल्यासंख्यधनांगुलहतश्रेरिणतिर्यग्गतिविभंगयुताः ।
नरसहिताः किचिनाः, चतुर्गतिभंगपरिमारणम् ।।४६३॥ टोका - पल्य का असंख्यातवां भाग गुरिणत घनांगल करि जगन्छे रणी कों गुरिणए, जो प्रमाण होइ, तितने ती तिर्यंच । बहुरि संख्याते मनुष्य । बहुरि धनांमुल का द्वितीय मूल करि जगच्छ पो कौं गुरिगए, तितना नारकीनि का प्रमाण है । तामै सम्यग्दृष्टी नारकी जीवनि का परिमाण घटाएं, जो अवशेष रहै, तितना नारकी । बहरि ज्योतिषी देवनि का परिमाण विर्षे भवनवासी, व्यंतर, वैमानिक देवनि का परिमाण मिलाए, सामान्य देवराशि होइ । तामै सम्यग्दृष्टी देवनि का परिमाए घटाएं, जो अवशेष रहै, तितने देव, इनि सबनि का जोड दीए, जो प्रमाण होइ, तितने च्यार्यो गति संबंधी विभंगज्ञानी जानने ।
सण्णाण-रासि-पंचय-परिहोणो सन्वजीवरासी हु। मदिसुद-अण्णाणीणं, पसेयं होदि परिमाणं ॥४६४॥
सज्ज्ञानरशिपंचकपरिहीनः सर्वजीवराशिहि । मतिश्रुताज्ञानिना, प्रत्येकं भवति परिमाणम् ॥४६४॥
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सम्यशामचन्द्रिका भाषाटीका
[ ५७ टीका - सम्यग्ज्ञान पांच, तिनिकार सयुक्त जीवनि का परिमाण किछ अधिक केवलज्ञानी जीवनि का परिमाण मात्र, सो सर्व जीवराशि का परिमारण विर्षे घटाएं, जो अवशेष परिमाण रहै, तितने कुमतिज्ञानी जीव जानने । बहुरि तितने ही कुश्रुतज्ञानी जीव जानने ।
इति प्राचार्य श्रीनेमिचंद्र विरचित मोम्मटसार वित्तीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीक्तस्वादीपिका नाम संस्कृतटीका के अनुसारि सभ्यरज्ञानमंद्रिका नामा इस भाषा टीका विष जीवकांड विर्ष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा, तिनि विष ज्ञानमार्गणा प्ररूपमा नामा
वारह्वां अधिकार संपूर्ण भया ।।१२॥
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तेरहवां अधिकार : संयममार्गणा विमल करत निज मुरणनि तें, सब कौं विमल जिनेश ।
विमल हौंन को मैं नमौं, अतिशय जुत तीर्थेश । अथ ज्ञानमार्गणा का प्ररूपण करि, अब संयममार्गणा कहै हैं -~-- वन-समिति-कसायाणं, दंडाणं तहिथियारण पंचण्हं । धारण-पालण- रिणग्गह-चाग-जयो संजमो भणियो ॥४६॥
व्रतसमितिकषायारणां, दंडानां सथेंद्रियाणां पंचानाम् ।
धारणपालननिग्रहत्यागजयः संयमो भरिणतः ॥४६५।। टीका - अहिंसा आदि व्रतनि का धारना, ईर्या आदि समितिनि का पालना, क्रोध आदि कषायनि का निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप दंड का त्याग करना, स्पर्शन आदि पांच इंद्रियानि का जीतना असे व्रतादिक पंचनि का जो धारणादिक, सोई पंच प्रकार संयम जाना । सं - कहिए सम्यक् प्रकार, जो यम कहिए नियम, सो संयम है।
बादरसंजलणुदये, सहमुदये समखये य मोहस्स। संजमभावो णियमा, होदि ति जिणेहि णिहिटंट ॥४६६॥
बावरसंज्वलनोदये, सूक्ष्मोदये शमशययोश्च मोहस्य ।
संयमभावो नियमात् भवतीति जिननिर्दिष्टम् ॥४६६।। टीका - बादर संज्वलन का उदय होत संत, बहुरि सूक्ष्म लोभ का उदय होत सतें, बहुरि मोहनीय का उपशम होत संत वा मोहनीय का क्षय होत सतें निश्चय करि संयम भाव हो है । असें जिनदेवने कहा है।
तहां प्रमत्त - अप्रमत्त गुरणस्थाननि विर्षे संज्वलन कषायनि के जे सर्वधाती स्पर्धक हैं; तिनिका उदय नाहीं; सो तो क्षय है । बहुरि उदय निषेकनि तें ऊपरवर्ती
१. पखंडागम -- थक्ला पुस्तक १, पृष्ठ १४६, माथा सं, ६२।
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सम्यग्ज्ञानवधिका भाषाटीका ] .
[ ५७३
जे निषेक, तिनिका उदय नाहीं, सोई उपशम । बहुरि बादर संज्वलन के जे देश घातिया स्पर्धक संयम के अविरोधी तिनिका उदय, जैसे क्षयोपशम होते सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि ए तीन संयम हो हैं ।
बहुरि सूक्ष्मकृष्टि करनेरूप जो अनिवृत्ति करण, तोहि पर्यंत बादरं संज्वलन के उदय करि अपूर्वकरण अर अनिवृत्ति करण गुणस्थाननि विर्षे सामायिक अर छेदोपस्थापना दोय ही संयम हो हैं । बहुरि सूक्ष्मकृष्टि कौं प्राप्त हवा, असा जो संज्वलन लोभ, ताके उदय करि दशवें गुरणस्थान सूक्ष्मसापराय संयम हो है।
बहरि सर्व चारित्र मोहनीय कर्म के उपशमते वा क्षय ते यथाख्यात संयम. हो है। तहां ग्यारहवें गुणस्थान उपशम यथाख्यात हो है । बारहवें, तेरहवें, चौदहवें क्षायिक यथाख्यात हो है ।
इस ही अर्थ कौं दोय गाथानि करि कहैं हैं -- बादरसंजलणुक्ये, बादरसंजमतियं व परिहारो। पमदिदरे सुहमुदये, सुहुमो संजमगुणो होदि १४६७।।
बावरसंज्वलनोदथे, बादरसंगमत्रिक खलु परिहारः ।
प्रमत्तेतरस्मिन् सूक्ष्मोदये सूक्ष्मः संयमगुणो भवति ॥४६७।। टीका - बादर संज्वलन का देशकाती स्पर्धक ते संयम के विरोधी नाही, तिनके उदय करि सामायिक, छेदोषस्थापना, परिहारविशुद्धि ए तीन संघम हो हैं । तहां परिहारविशुद्धि तौ प्रमत्त - अप्रमत्त दोय .गुणस्थाननि विर्षे हो हो है । पर सामायिक छेदोपस्थापना प्रमत्तादि अनिवृत्तिकरण पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि. विर्षे हो है । बहुरि सूक्ष्मकुष्टि कौं प्राप्त हुवा संज्वलन लोभ, ताके उदय करि सूक्ष्मसापराय मामा संयम गुरण हो है।
जहखादसंजमो पुरण, उवसमदो होदि मोहणीयस्स। खयदो वि य सो णियमा, होदि ति जिरणेहिं णिपिढें ॥४६॥
यथाख्यातसंयमः पुनः, उपशमतो भवति मोहनीयस्य । क्षयतोऽपि च स नियमाल, भवलोति जिननिदिष्टम् १५४६८॥
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[ गोम्मटसार जोधकाण्ड पाया ४६६-४७०२४७१ टोका - बहुरि यथाख्यात संयम है; सो निश्चय करि मोहनीयकर्म के सर्वथा उपशम ते वा क्षय से हो है। जैसे जिनदेवनि करि कह्या है ।
तदियकसायुदयेण य विरदाविरदो गुणो हवे जुगवं । . बिदियकसायुदयेण य, असंजमो होदि णियमेण ॥४६॥
सृप्तीयकषायोदयेन च, विरताविरतो गुणो भवेयुगपत् ।
द्वितीयकषायोदयेन च, असंयमो भवति नियमेन ॥४६९॥ टोका - तीसरा प्रत्याख्यान कषाय का उदय करि युगपत् विरत • अविरतंरूप संयमासंयम हो है । जैसें तीसरे गुणस्थान सम्यक्त्व - मिथ्यात्व मिले ही हो है। तैसें पंचमगुणास्थान विर्षे संयम - असंयम दोऊ मिश्ररूप हो हैं । ताते यहु मिश्र संयमी है । बहुरि दूसरा अप्रत्याख्यान कषाय के उदय करि असंयम हो है । असे संयम सार्गणा के साल भेद कहे।
संगहिय सयलसंजमभेषजममणुतरं दुरवगम्म। जीवो समुष्पहतो, सामाइयसंजनो होदि ॥४७०॥
संगृह्य सकलसंयममेकयममनुत्तरं दुरवगम्यम् ।
जीवः समुदहन, सामायिकसंयमो भवति ।।४७०॥ दीका - समस्त ही व्रतधारणादिक पंच प्रकार संयम कौं संग्रह करि एकयम कहिए में सर्व सावध का त्यागी हौं; असा एकयमं कहिए सकल सायड का त्यागरूप अभेद संयम; सोई सामायिक जानना। : कैसा है सामायिक ? अनुत्तरं कहिए जाके समान और नाही, संपूर्ण है । बहुरि दुरवगम्यं कहिए दुर्लभपर्ने पाइए है, सो असें सामायिक कौं पालता जीव सामयिक संयमी हो है।
छेत्तण य परियायं, पोरारणं जो ठवेइ अप्पाणं । पंचजमे धम्मे सो, छेदोवदवावगो जीवो ॥४७१॥२
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१. षट्खंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७४, गाथा सं. १८७ : २. षटूखंडागम-घवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७४, गाथा सं. १८६ ।
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सम्यम्झानचन्द्रिका भाषाटीका ।
[ ५७५
छित्वा च पर्यायं, पुराणं यः स्थापयति प्रारमानम् ।
पंजायमे धर्म स. छेदोपस्थापको जोवः ॥४७॥ ___टीका -- सामायिक चारित्र कौं धारि, बहुरि प्रमाद ते स्खलित होइ, सावध क्रिया को प्राप्त हूवा असा जो जीव, पहिले भया जो सावध रूप पर्याय ताका प्रायश्चित्त विधि से छेदन करि अपने प्रात्मा कौं व्रतधारणादि पंच प्रकार संयमरूप धर्म विर्षे स्थापन कर; सोई छेदोपस्थापन संयमी जानना।
छेद कहिए प्रायश्चित्त तीहिकरि उपस्थापन कहिए धर्म विर्षे प्रात्मा कौं स्थापना; सो जाके होइ, अथवा छेद कहिए अपने दोष दूर करने के निमित्त पूर्व कीया था तप, तिसका उस दोष के अनुसारि विच्छेद करना, तिसकरि उपस्थापन कहिए निर्दोष संयम विर्षे आत्मा की स्थापना; सो जाके होइ, सो छेदोपस्थापन संयमी है ।
अपना तप का छेद हो हैं, उपस्थापन जाकै; सो छेदोपस्थापन है, अंसी निरुक्ति जानना ।
पंच-समिदो ति-गुत्तो परिहरइ सदा वि जो हु सावज्जं । पंचेक्कजमो युरिसो, परिहारयसंजदो सो हु ॥४७२॥
पंचसमितः त्रिगुप्तः, परिहरति सदापि यो हि सायद्यम् ।
पंचकयमः पुरुषः, परिहारकसंयतः स हि ॥४७२॥ टीका - पंच समिति, तीन गुप्ति करि संयुक्त जो जीव, सदा काल हिसारूप सावध का परिहार करै; सो पुरुष सामायिकादि पंच संयमनि विर्षे परिहारविशुद्धि नामा संयम का धारी प्रकट जानना ।
तीसं वासो जम्मे, वासपुधत्तं खु तित्थयरमूले। पंचक्खाणं पढिदो, संझणद्गाउयविहारो ॥४७३॥
त्रिंशद्वार्षो जन्मनि, वर्षपृथक्त्वं खलु तीर्थकरमूले । प्रत्याख्यानं पठितः, संध्योनद्विगव्यूतिविहारः ॥४७३॥
१. षट्खंडागम - पवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७४, गाथा सं. १८१ २. पाठभेद -पंच-जमेर-जमो था।
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५७६ ]
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[गोम्मटसार जीवकामह गाया ४७४
टीका - जो जन्म ते तीस वर्ष का भाया होद ! नहरि सर्वदा खानपानादि से सुखी होइ; असा पुरुष दीक्षा कौं अंगीकार करि पृथक्त्व वर्ष पर्यंत तीर्थंकर के पाद मूल प्रत्याख्यान नामा नवमा पूर्व का पाठी होइ; सो परिहारविशुद्धि संयम कौं अंगीकार करि, ती संध्या काल विना सर्व काल विर्षे दोय कोस विहार करें । अर रात्रि विर्षे बिहार न करें। वर्षा काल विषै किछ नियम नाही, ममन करै वा न करे; असा परिहारविशुद्धि संयमी हो है । .
परिहार कहिए प्राणीनि की हिंसा का त्याग, ताकरि विशेषरूप जो शुद्धिः कहिए शुद्धता, जाविर्षे होइ; सो परिहारविशुद्धि संयम जानना ।
इस संयम का जघन्य काल तौ अंतर्मुहूर्त है, जातें कोई जीव अंतर्मुहर्तमात्र तिस संयम की धारि अन्य गुणस्थान को प्राप्त होइ, तहाँ सो संयम रहै नाही; तातें जघन्य काल अंतर्मुहूर्त कहा ।
बहरि उत्कृष्ट काल अडतीस वर्ष घाटि कोडि पूर्व है । जाते कोई जीव कोडि पूर्व का धारी तीस वर्ष का दीक्षा ग्रहि, आठ वर्ष पर्यंत तीर्थकर के निकटि पढे, तहां पीछ परिहारविशुद्धि संयम कौं अंगीकार कर; तातै उत्कृष्टकाल अडतीस वर्ष पाटि कोडि पूर्व कहा। उक्तं च
परिहारधिसमेतो जीवः षटकायसंकुले विहरन् ।
पयसेव पनपत्रं, न लिप्यते पापनिवहेन ।। याका अर्थ - परिहार विशुद्धि ऋद्धि करि संयुक्त जीव, छह कायरूप जीवनि का समूह विर्षे विहार करता जल करि कमल पत्र की ताई पाप करि लिप्त न होइ ।
अणुलोहं वेदंतो, जीवो उवसामगो व खवगो था। सो सुहमसंपराओ, जइखादेणूणो किंचि ॥४७४॥
अणुलोभं विवन् जीवः उपशामको वा क्षपको वा । स सूक्ष्मसापरायः यथाख्यातेनोनः किंचित् ।।४७४।।
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१. षट्खंडागम-घधला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५ गाथा सं. १६० ।
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सम्यक नचन्द्रिका भाषादीका ]
[ ५७७
दीका - सूक्ष्मकृष्टि कौं प्राप्त भया लोभ कषाय का अनुभाग, ताके उदय कौं भोगवता उपशमी वा क्षायिकी जीक, सो सूक्ष्म है, सापराय कहिए कषाय जाके, असा सूक्ष्मसापराय संयमी जानना । सो यहु यथाख्यात संयमी जे महामुनि, तिनितें किछु एक घाटि जानना, स्तोकसा हो अंतर है ।
उवसंते खोरणे वा, असुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि । छमट्टो वा जिरणो वा, जहखादो संजदो सो दु ॥४७५॥
उपशांत क्षीणे या प्रशुभे कर्मणि मोहनीये ।
छमस्थो वा जिनो का, यथाख्यातः संयतः स तु १४७५३॥ टीका - अशुभरूप मोहनीय नामा कर्म, सो उपशम होते वा क्षयरूप होते उपशांत कषाय गुणस्थानवर्ती वा क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती छमस्थ होइ अथवा सयोगी अयोगी जिन होइ; सोई यथाख्यात संयमी जानना । मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम ते वा नाशते जो यथावस्थित प्रात्मस्वभाव की अवस्थाः; सोई है लक्षण जाका, असा यथाख्याल चारित्र कहिए है।
पंच-तिहि-घउ-विहेहिं य, अणु-गुण-सिक्खा-वएहि संजुत्ता । उच्चंति देस-विरया सम्माइट्ठी झलिय-कम्मा ॥४७६॥
पंचत्रिचतुविधश्च, अणुगुणशिक्षाप्रतैः संयुक्ताः।
उच्यते देशविरसाः सम्यष्टयः झरितकरिणः ।।४७६॥ टीका - पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, च्यारि शिक्षावत असे बारह व्रतनि करि संयुक्त जे सम्यादृष्टी, कर्म निर्जरा के धारक, ते देश विरती संयमासंयम के धारक परमागम विर्षे कहिए है।
वंसण-वय-सामाइय, पोसह-सच्चित्त-रायपत्ते य । बह्मारंभ-परिग्गह, अणुमणसुद्दि-देसविरदेव ॥४७७॥
दर्शनप्रतसामायिकाः प्रोषधसधिसरात्रिभताश्च । । ब्रह्मारंभपरिग्रहानुमतोष्टिदेशधिरता एते ॥४७७॥
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१. पर्खष्टागम बबला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा सं. १६१।। २.पखंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा सं. १९२ । ३. पटोडागम--धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा सं. १६३६
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होम्मसार जीवकाण्ड गाया ४७०-४७६
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टीका - नाम के एक देश ते सर्व नाम का ग्रहण करना, इस न्याय करि इस गाथा का अर्थ कीजिए है । १ दर्शनिक, २ अतिक, ३ सामायिक, ४ प्रोषधोपवास, ५ सचित्तविरत, ६ रात्रिभोजनविरत, ७ ब्रह्मचारी, ८ आरंभविरत, परिग्रह विरत, १० अनुमति विरत, ११ उद्दिष्ट विरत असै ग्यारह प्रतिमा की अपेक्षा देशविरत के ग्यारह भेद जानने । तहां पांच उदुंबरादिक अर सप्त व्यसननि कौं त्याग पर शुद्ध सम्यक्त्वी होइ; सो दर्शनिक कहिए। पंच अणुव्रतादिक कौं धारै, सो बतिक कहिए । नित्य सामायिक क्रिया जाकै होइ; सो सामायिक कहिए । अवश्य पनि विर्षे उपवास जाकै होइ; सो प्रोषधोपवास कहिए । जीव सहित वस्तु सेवन का त्यागी होइ; सो सचित्त विरत कहिए । रात्रि विर्षे भोजन न करें सो रात्रिभक्त विरत कहिए । सदा काल शील पालैं; सो ब्रह्मचारी कहिए । पाप आरंभ कौं त्यागै; सो प्रारंभ विरत कहिए । परिग्रह के कार्य को त्यागें; सो परिग्रह विरत कहिए । पाप की अनुमोदना की त्याग; सो अनुमति विरत कहिए । अपने निमित्त भया आहारादिक कौं त्याग; सो उद्दिष्ट विरत कहिए । इनिका विशेष वर्णन ग्रंथांतर से जानना ।
जीवा चोद्दस-भेया, इंदिय-विसया तहट्ठवीसं तु । जे तेसु णेव विरया, असंजदा ते मुणेदब्बा ॥४७८॥
जीवाश्चतुर्दशभेदा, इंद्रियविषयास्तथाष्टवितिस्तु ।
ये तेषु नैव विरता, असंयताः ते मंतव्याः ॥४७८।। टीका - चौदह जीवसमास रूप भेद, बहुरि तैसे ही अट्ठाईस इंद्रियनि के विषय, तिनिविष जे विरत न होंई, जीवनि की दया न करें, विषयनि विर्षे रागी होइ, ते असंयमी जानने ।
पंच-रस-पंच-वण्णा, दो गंधा अट्ठ-फास-सत्त-सरा। मणसहिवठ्ठावीसा, इंदीयविसया मुरणेदव्वा ॥४७६॥
पंचरसपंचवर्णाः, द्वौ गंधौ प्रष्टस्पर्शसप्तस्वराः । मनःसहिताः अष्टविशतिः इंद्रियविषयाः मंतव्याः ॥४७॥
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१पखंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा सं. १६४१
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
टीका - तीखा, कडया, कसायला, खाटा, मीठा ए पांच रस । बहुरि सुफेद, पीला, हरथा, लाल, काला ए पांच वर्ण । बहुरि सुगंध, दुर्गध, ए दोय गंध । बहुरि कोमल, कठोर, भारचा, हलका, सौला (ठंडा), ताता, रूखा, चिकना ए पाठ स्पर्श । बहुरि षडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद ए सात स्वर असे इद्रियनि के सत्ताईस विषय पर अनेक विकल्परूप एक मन का विषय, असे विषय के भेद अट्ठाईस जानने ।
प्रागै संयम मार्गणा विर्षे जीवनि की संख्या कहै हैंपमदादि-चउण्हं जुदी, सामयिय-दुगं कमेण सेस-तियं । सत्त-सहस्सा णव-सय, णव-लक्खा तोहि परिहीणा ॥४८०॥
प्रमत्तादिचतां युतिः, सामायिकतिक क्रमेण शेषत्रिकम् ।
सप्तसहस्राणि नवशतानि, नबलक्षाणि त्रिभिः परिहानानि ।।४८०॥ दीका -- प्रमत्तादि च्यारि गुणस्थानवी जीवनि का जोड़ दीएं, जो प्रमाण होइ; तितना जीव सामायिक अर छेदोपस्थापना संयम के धारक जानने । तहां प्रमतवाले पांच कोडि, तिराणवै लाख प्रयाणवै हजार दोय से छह (५६३६८२०६), अप्रमत्तवाले दोय कोडि छिन लाख निन्याणवै हजार एक से तीन (२६६६६१०३) अपूर्व करण वाले उपशमी दोय से निन्याणवै (२६६), पांच सौ प्रयाणवै क्षायिकी, अनिवृत्ति करणवाले उपशमी २६६, क्षायिकी पांच सो अठयारावै (५९८) इनि सबनिका जोड दीएं, आठ कोडि निब्बे लाख निन्यारणवै हजार एक सै तीन भया (८९०६६१०३) सो इतने जीव सामायिक संयमी जानने । अर इतने ही जीव छेदहे. पस्थापना संयमी जानने । बहुरि अवशेष तीन संयमी रहे, तहां परिहारविशुद्धि संयमी तीन घाटि सात हजार (६६६७) जानने । सूक्ष्म सांपराय संयमी तीन घाटि नवसे (८६७) जानने । यथाख्यात संयमी तीन घाटि नव लाख (८६६६६७) जानने ।
पल्लासंखेज्जदिम, विरवाविरदाण दवपरिभाणं । पुवुत्तरासिहीणा, संसारी अविरवाण पमा ॥४८१॥
पल्यासंख्येयं, विरताविरतानां द्रव्यपरिमारणम् । पूर्वोक्तराशिहीनाः, संसारिणः अबिरसानां प्रमा ॥४८१।।
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माया
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५८. ]
। गोम्नहसार जोधका गाया ४५१ टीका - पल्यं के असंख्यात भाग करिए, तामें एक भाग प्रमाण संयमासंयम का धारक जीव द्रव्यानि का प्रमाण हैं । बहुरि ए कहे जे छही संयम के धारक जीव, तिनका संसारी जीवनि का प्रमाण में स्यो घटाए, जो अवशेष प्रमाण रहै; सोई असंयमी जीवनि का प्रमाण जाननी ।
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इति श्री प्राचार्य नेमिचद्रं विरचित गोम्मटसार द्वितीयमाम पंचसंग्रह मेंथ की जीवतत्वदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चंद्रिका नामा भाषाटीका विर्षे जीदकाण्ड विष प्ररूपित बीस प्ररूपस्या लिनिविर्षे संयममार्गणा प्ररूपणा है नाम जाका असा
तेरा अधिकार संपूर्ण भया ॥१३॥
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चौदहवां अधिकार : दर्शनमार्गणा ...
इस अनन्त भव उदधित, पार. करनकौं सेतु ।
श्री अनंत जिनपति नमो,, सुख अनन्त के हंतु ।। प्राग दशनमागणा का कहह.. आगें दर्शनमार्गणा कौं कहै हैं
.. ..... . जं सामण्णं गहणं, भावाणं णेव कटुमायारं । अबिसेसिदूरण अद्वै, सणमिति भण्णदे समये ॥४८२॥
यत्सामान्य ग्रहणं, भावानां नैव कृत्वाकारम् ।
अविशेष्यार्थान, दर्शनमिति भण्यते समये ।।४८२।। टीका - भाव जे सामान्य विशेषात्मक पदार्थ, तिनिका प्राकार कहिए भेद ग्रहण, ताहि नैव कृत्वा कहिए न करिक यत् सामान्य ग्रंहरण काहिए जो सत्तामात्र स्वरूप का प्रतिभासना तत् दर्शनं कहिए सोई दर्शन परमागम विर्षे कहा है । कैसे ग्रहण करें हैं ? अर्थान् अविशेष्य अर्थ जे बाह्य पदार्थ, तिनिकौं अविशेष्य कहिए जाति, क्रिया, गुण, प्रकार इत्यादि विशेष न करिके अपना वा अन्य का केवल सामान्य रूप सत्तामात्र ग्रहण करै है।
इस ही अर्थ कौं स्पष्ट करें हैंभावाणं सामण्णविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं। वण्णणहीणग्गहणं, जीवेण य वंसणं होदि ॥४८३॥
भावानां सामान्यविशेषकानां स्वरूपमात्रं यत् ।
वर्णनहीनग्रहणं, जीवेन च दर्शनं भवति ॥४८३॥ टीका - सामान्य विशेषात्मक जे पदार्थ, लिनिका' स्वरूप मात्र भेद रहित, जैसे हैं तैसें जीव करि सहित स्वपर सत्ता का प्रकाशना, सो दर्शन है। जो देख वा जा गरि देखिए वा देखने मात्र, सो दर्शन जानना ।
१. षट्खडागम-धवला पुस्तक २, पृष्ठ १५०, गाथा सं १३, द्रव्यसंग्रह माथा सं. ४३ । २. वर्धन संबंधी विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखो-धला पुस्तक १, पृष्ठ १.४६ से. १४६ दफ।
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५८२]
गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४८४-४८५-४८६
प्रागें चक्षु - अचक्षु दर्शन के लक्षण कहें हैं--- चक्खूण जं पयासइ, दिस्सइ तं चक्खु-दसणं बेति । सेसिदिय-प्पयासो, णायव्वी सी अचक्खू त्ति ॥४८४॥
चक्षुषोः यत्प्रकाशते, पश्यति सत् चक्षुर्दर्शनं ब्रुवंति ।
शेषेत्रियप्रकाशो, ज्ञातव्यः स प्रचक्षुरिति ।।४८४॥ टीका - नेवनि का संबंधी जो सामान्य ग्रहण, सो जो प्रकाशिए, देखिए याकरि वा तिस नेत्र के विषय का प्रकाशन, सो चक्षुदर्शन गराधरादिक कहैं हैं । बहुरि नेत्र बिना च्यारि इंद्रिय पर मन का जो विषय का प्रकाशन, सो अचक्षुदर्शन है, अंसा जानना।
परमाणु-प्रादियाई, अंतिम-खंधं ति मुत्ति-दवाई। तं. ओहि-दसणं पुण, जं पस्सइ ताइ पच्चक्खर ॥४८॥
परमाण्यादीनि, अंतिमस्कंधमिति मूर्तद्रव्यारिण।
तबधिदर्शनं पुनः, यत् पश्यति तानि प्रत्यक्षम् ॥४८५॥ दीका - परमाणु प्रादि महास्कंध पर्यंत जे मूर्तीक द्रव्य, तिनिकौं जो प्रत्यक्ष देखे, सो अवधिदर्शन है।
बहुविह बहुप्पयारा, उज्जोवा परिमियम्मि खेत्तम्मि । लोगालोग वितिमिरो, जो केवलदसणुज्जोप्रो ॥४८६॥
बहुविधबहुप्रकारो, उद्योताः परिमिते क्षेत्रे ।
लोकालोकवितिमिरो, यः केवलदर्शनोद्योतः ।।४४६॥ टोका - बहुत भेद कौं लौए बहुत प्रकार के चंद्रमा, सूर्य, रत्नादिक संबंधी उद्योत जगत विर्ष हैं । ते परिमित जो मर्यादा लीएं क्षेत्र, तिस विर्षे ही अपने प्रकाश
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१. षखंडागम-धवला पुस्तक १, पृ. ३८४, मा. सं. १९५, १९६ तथा देखो पृ. ३०० से ३०२ तक । २. षट्खंडापम-धवला पुस्तक १, माथा सं. १६६, भृगठ ३८४॥ . १. षट्खंडागम-धवला पुस्तक १, मा. सं. १६७, पृ. ३०४। '
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संम्पालामचन्द्रिका भाषाप्टोकर )
करते की समर्श है । तातें लिनि प्रकाणानि की उपमा देने योग्य नाही, असा समस्त लोक पर अलोक विर्षे अंधकार रहित केवल प्रकाश रूप केवलदर्शन नामा उद्योत जानना।
आग दर्शनमार्गणा विषं जीवनि की संख्या दोय गाथानि करि कहैं हैंजोगे चउरक्खाणं, पंचक्खाणं च खीणचरिमाणं । चक्खूणमोहिकेवलपरिमाणं ताण जाणं च ॥४८७ ॥
योगे धतुरक्षाणा, पंचाक्षाणां च क्षीणचरमारपाम् ।
चक्षुषामवधिकेवलपरिमाणं तेषां ज्ञानं च ॥४७॥ टीका - मिथ्यादृष्टि श्रादि क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यंत चक्षुदर्शन ही है । तिनके दोय भेद हैं-एक शक्तिरूप चक्ष दर्शनी, एक व्यक्तिरूप चक्षुदर्शनी । तहां लब्धि अपर्याप्तक चौइंद्री अर पंचेंद्री तौ, शक्तिरूप चक्षुदर्शनी हैं, जातें नेत्र इंद्रिय पर्याप्ति की पूर्णता अपर्याप्त अवस्था विर्षे नाहीं है । तातें तहां प्रगटरूप चक्षुदर्शन न प्रवत है । बहुरि पर्याप्तक चौइंद्री पर पंचेंद्री व्यक्तरूप पक्षुदर्शनी है; जात तहां प्रकटरूप बक्षु. दर्शन हैं । तहां बेंद्री, तेंद्री, चौइंद्री, पंचेंद्री प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रतरांगुल कौं दीएं, जो प्रमाण आवै, ताका भाग जगत्प्रतर कौं दीए, जो प्रमाण होइ, तितने हैं, तो चौइंद्री, पंचेंद्री कितने हैं ? असे प्रमाण राशि च्यारि, फलराशि त्रसनि का प्रमाण, इच्छाराशि दोय; तहां इच्छा कौं कलराशि करि मुणि, प्रमाण का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितना चौइंद्री, पंचेंद्री राशि है । तहां बेंद्री प्रादि क्रम ते घटते हैं। तात किंचिदून करि बहुरि तिस विर्षे पर्याप्त जीवनि का प्रमाण घटावना । ताते तिस प्रमाण में स्यों भी किछु घटाये जो प्रमाण होइ, तितना शक्तिगत चक्षुदर्शनी जानने। बहुरि असे ही बस पर्याप्त जीवनि का प्रमाण कौं च्यारि का भाग देइ, दो मुणा करि, तामै किचिदून कीए जो प्रमाण होइ, तितना व्यक्तिरूप चक्षुदर्शनी है। इंद्रियमार्गणा विर्षे जो चौइंद्री, पंचेंद्रिय जीवनि का प्रमाण कहा है, तिनकौं मिलाए चक्षुदर्शनी जीवनि का प्रमाण हो है।
बहुरि अवविदर्शनी जीवनि का प्रमाण अवधिज्ञानी जीवनि का परिमाण के समान जानना।
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। गोम्मटसार औचकाण्ड गत्या ४८ बहुरि केवलदर्शनी जीवनि का परिमाण केवलज्ञानी जीवनि का परिमाण के समान जानना । सो इनिका प्रमाण ज्ञानमार्गणा विर्षे कहा है ।
एइंदियपहुक्षीणं, खीणकसायंतणंतरासीणं । जोगो अंचक्खुदंसणजीवाणं होदि परिमाणं ॥४८८॥
एकेंद्रियप्रभुतीनां, क्षोणकषायांतानंतराशीनाम् ।
योगः प्रचक्षुर्शनजीवाना भवति परिमारणम् ॥४॥ टीका - एकेंद्रिय प्रादि क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती पर्यंत अनंत जीवनि का जोड दीए, जो परिमाण होइ तिलना चक्षुदर्शनी जीवनि का प्रमाण जानना ।
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इति प्राचार्य श्रीगेमिवन्द्र विरचित मोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह 'ग्रंथ की जीवतत्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नामा भाषाटीका विर्षे जीवको विर्षे : प्ररूपित जे प्रौस प्ररूपणा तिनि विर्षे दर्शनमार्गरणा प्रहपसार है नाम जाका असा ।
चौदहवां वधिकार संपूर्ण भया ।।१४।।
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पंद्रहवां अधिकार : लेश्या - मार्गणा
सुधाधार सम धर्म तें, पोधे भव्य सुधान्य । प्राप्त कीए निज इष्ट को, भर्जो धर्म छन मान्य ||
आगे लेश्या मार्गा कह्या चाहें हैं। तहां प्रथम ही निरुक्ति लीएं लेश्या का लक्षण कहें हैं-
fies अप्पीकीरs, एदीए नियत्रपुण्णपुण्णं च ।
जोयो त्ति होदि लेस्सा, लेस्सागुणजाणयत्वादा' ॥४८६ ॥
लिपत्यात्मीकरोति, एतया निजापुण्यपुष्यं च ।
जीव इति भवति लेश्या, लेश्यागुणाधकाख्याता ॥४८९ ।।
टोका - लेश्या दोय प्रकार एक द्रव्य लेण्या, एक भाव लेश्या । तहां इस सूत्र विषै भाव लेश्या का लक्षरण का है । लिपति एतया इति लेश्या, पाप र पुण्य कौं जीव नामा पदार्थ, इस करि लिप्त करें है, "अपने करें है, निज संबंधी करें है; सो सो लेश्या, लेश्या लक्षरण के जाननहारेरादिकनि करि कहा है । इस करि आत्मा कर्म करि आत्मा को लिप्त करें हैं, सो लेश्या अथवा कषायनि का उदय करि अनुरंजित जो योगनि की प्रवृति, सो लेश्या कहिए । इस ही अर्थ कौं स्पष्ट करें हैं
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जोगपत्ती लेस्सा, कसायउदयानुरंजिया होई । arat क्षेपणं कज्जं, बंधचउक्कं समुद्दिट्ठ ॥४०॥
योगप्रवृत्तिश्या कषायोदयानुरंजिता भवति ।
ततो द्वयोः कार्य, बंधचतुष्कं समुद्दिष्टम् ॥ ४९० ॥
टीका मन, वचन, कायरूप योगति की प्रवृत्ति सो लेश्या है । सो योगनि की प्रवृत्ति कषायनि का उदय करि अनुरंजित हो है । तिसतें योग और कषाय इनि
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१. खंडागम - घयला पुस्तक -१, पृष्ठ १७१, भाषा सं. ६४ । २. पाठभेद विषय पुण्यं च'
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{ गोम्मसार जयकाण्ट गाया ४६१-४१२-४६३
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दोऊनि का कार्य च्यारि प्रकार बन्ध कहा है। योगनि तै प्रकृत्ति बन्ध पर प्रदेश बन्ध कह्या है । कषायनि त स्थिति बन्ध भर अनुभाग बंध कया है । तिसही कारण कषायनि का उदय करि अनुरंजित योगनि की प्रवृत्ति, सोई है लक्षण जाका जैसे लेण्या करि च्यारि प्रकार बंध युक्त दी है।
आगे दोय गाथानि करि लेश्या का प्ररूपण विर्षे सोलह अधिकार कहै हैंणिदेसवण्णपरिणामसंकमो कम्मलक्खणगदी य । सामी साहणसंखा, खेत्तं फासं तदो कालो ॥४६॥ अंतरभावप्पबहु, अहियारा सोलसा हवंति त्ति । लेस्साण साहणठं, जहाकम तेहि वोच्छामि ॥४६२॥ जुम्मम् ।
निर्देशवर्णपरिणामसंक्रमाः कर्म लक्षणमत्तयश्च । स्वामी साधनसंख्ये, क्षेत्र स्पर्शस्ततः कालः ॥४९॥ . अंतरभावारुपबहुत्वमधिकाराः षोडश भवतीति । ... लेश्यानां साधनार्थ, यथाक्रम तैर्वक्ष्यामि ।।४९२॥युग्मम्।।
टीका - १ निर्देश, २ वर्ण, ३ परिणाम, ४ संक्रम, ५ कर्म, ६ लक्षण, ७ मति, ८ स्वामी, ६ साधन, १० संख्या, ११ क्षेत्र, १२ स्पर्शन, १३ काल, १४ अंतर, १५ भाव, १६ अल्प बहुत्व ए सोलह अधिकार लेश्या के भेदसाधन के निमित्त हैं । तिन करि अनुक्रम ते लेश्यामार्गरणा को कहै हैं ।
किण्हा णीला काऊ, तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य । . लेस्साणं गिद्देसा छच्चेव हवंति णियमेण ॥४६३॥
कृष्णा नीला कापोता तेजः पद्मा च शुक्ललेश्या च ।
लेश्यानां निर्देशाः, षट् चैव भवंति नियमेन ॥४९३।। टीका - नाम मात्र कथन का नाम निर्देश है । सो लेश्या के ए छह नाम हैं - कृष्ण, नोल, कपोत, पीत, पद्म शुक्ल असे छह ही हैं । इहां एक शब्द करि तो नियम आया ही, बहुरि नियमेन अंसा कह्या, सो नैगमनय करि छह प्रकार लेश्या है । पर्यायाथिक नय करि असंख्यात लोकमात्र भेद हैं, जैसा अभिप्राय नियम' शब्द करि जानना । इति निर्देशाधिकारः ।
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सम्पन्हानतिका भावाटीका ]
[ ५७ वण्णोदयेण जणिदो, सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । सा सोढा किण्हादी, अणेयभेया सभेयेण ॥४६४॥
वर्णोदयेन जनितः, शरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या ।
सा षोढा कृष्णादिः, अनेकभेदा स्वभेदेन ।।४६४।। टीका - बहुरि वर्ण नामा नामकर्म के उदय ते भया जो शरीर का वर्ण, सो द्रव्य लेश्या कहिए । सो कृष्णादिक छह प्रकार है । तहां एक - एक भेद अपने - अपने भेदनि करि अनेकरूप जानने ।
सोई कहिए हैंछप्पय-णील-कवोद-सुहेमंबुज-संखसण्णिहा वण्णे । संखेज्जासंखेज्जाणंतवियप्पा य पत्तेयं ॥४६॥
षट्पदमोलकपोतसुहेमाम्बुजशंखसन्निभा वर्णे ।
संख्येयासंख्येयानन्तविकल्पाच प्रत्येकम् ॥४९५॥ टीका - कृष्ण लेश्या षट्पद जो भ्रमर, ताके समान है। जिसके शरीर का भ्रमर समान काला वर्ण होइ, ताके द्रव्य लेश्या कृष्ण जानना । अंसें ही नील लेश्या, नीलमणि समान है। कपोत लेश्या, कपोत समान है। तेजो लेश्या, सुवर्ण समान है । पद्म लेश्या, कमल समान है। शुक्ल लेश्या शंख समान है। बहुरि इन ही एक - एक लेश्यानि के नेत्र इद्रिय के मोचर अपेक्षा संख्याते भेद हैं । जैसे कृष्णवर्ण हीन • अधिक रूप संख्याते भेद की लीए नेत्र इद्रिय करि देखिये हैं । बहुरि स्कंध भेद करि एक - एक के असंख्यात असंख्याते भेद हैं । जैसे द्रव्य कृष्ण लेश्यावाले शरीर संबंधी स्कंध असंख्याते हैं । बहुरि परमाणू भेद करि एक - एक के अनन्त भेद हैं । जैसे द्रव्य कृष्ण लेश्यावाले शरीर सम्बन्धी स्कंधनि विर्षे अनंते परमाणु पाईए . है । असे सर्व लेश्यानि के भेद जानना ।
णिरया किण्हा कप्पा, भावाणुगया हू ति-सुर-गर-तिरिये । उत्तरदेहे छक्क, भोगे रवि-चंद-हरिदंगा ॥४६६ ॥
निरयाः कृष्णाः कल्पा, भावानुगता हि त्रिसुरनरतिरश्चि । उत्तरदेहे षट्क, भोगे रविचन्द्रहरितांगाः ॥४६६॥
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५८८ }
गोम्मटसार जीवफाड गाया ४६७.४६:-YEE टीका - मारकी सर्व कृष्ण वर्ण ही हैं। बहरि कल्पवासी देव जैसी उनके भावलेश्या है, तैसा ही वर्ण के धारक हैं। बहुरि भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देव अर मनुष्य पर तिर्यंच पर देवनि का विक्रिया ते भया शरीर, ते छहौं वर्ण के धारक हैं । बहुरि उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमि संबंधी मनुष्य, तिर्यंच, अनुक्रम ते सूर्य सारिखे पर चंद्रमा सारिखे अर हरित वणं के धारक हैं।
बावराऊतक, सबकाताय वाङकायाणं । मोमुत्तमम्गवण्णा, कमसो अव्वत्तवण्णोय ॥४६७ . .
बाथराप्तैजसौ, शुक्लतेजसौ च वायुकायानाम् । ..
गोमूत्रमुद्गवर्णाः क्रमशः अव्यक्तवाश्च ॥४६७॥ टोका - बादर अकायिक शुनल गया है । वादार तेज कायिक पीतवर्ण है । बादर वात कायिकनि विर्षे धनोदधि वात तो गऊ का मूत्र के समान वर्ण को धरै है। घनवात मूगा सारिखा वर्ण धरै हैं । तनुवात का वर्ण प्रकट नाहीं, अव्यक्त वर्ण है ।
सम्वेसि सुहमाणं, कावोदा सव्य विग्गहे सुक्का । सब्दो मिस्सो बेहो, कबोदधाणो हवेणियमा ॥४६॥
सर्वेषां सूक्ष्माना, कापोताः सर्वे विग्रहे शुक्लाः ।
सर्वो मिश्रो बेहः, कपोतवों भवेनियमात् ॥४९।। टीका - सर्व ही सूक्ष्म जीवनि का शरीर कपोत वर्ण है । बहुरि सर्व जीव विग्रहगति विर्षे शुक्ल वर्ण ही हैं। बहुरि सर्व जीव अपने पर्याप्ति के प्रारम्भ का प्रथम समय से लगाय शरीर पर्याप्ति की पूर्णता पर्यंत जी अपर्याप्त अवस्था है, तहां कपोत वर्ण ही है, असा नियम है। जैसे शरीरनि का वर्ण कह्या, सो जिसका जो शरीर का वर्ण होइ, तिसके सोई द्रव्य लेश्या जाननी । इति वर्णाधिकार।
प्रागै परिणामाधिकार पंच गाथानि करि कहैं हैं
लोगाणमसंखेजा, अवयाणा कसायगा होति । तत्य किलिट्टा असुहा, सुहाविसुद्धा तदालावा ४६६॥
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यामनिका भाषाटीका ।
| ५६ लोकानामसंख्येयान्युक्ष्यस्थानानि धायगररिण भवति ।
तत्र क्लिष्टानि अशुभानि, शुभानि विशुद्धानि तदालापात् ।।४६६॥ टोका -- कषाय संबंधी अनुभागरूप उदयस्थान असंख्यात लोक प्रमाण है। तिनिकौं यथायोग्य असंख्यात लोक का भाग दीजिए । तहां एक भाग बिना अवशेष बहुभाग मात्र तौं संक्लेश स्थान हैं। ते परिण असंख्यात लोक प्रमाण हैं । बहुरि एक भाग मात्र विशुद्धि स्थान हैं । ते परिण असंख्यात लोक प्रमाण हैं; जाते असंख्यात के भेद बहुत हैं । तहां संक्लेश स्थान तो अशुभलेश्या संबंधी जानने, अर विशुद्धिस्थान शुभलेश्या संबंधी जानने ।
तिव्वतमा तिव्वतरा, तिम्वा असहा सुहा तदा मंदा। मंदतरा मंदतमा, छारणगया हु पत्तेयं ॥५०॥
तीव्रतमारतीव्रतरास्तीत्रा अचुभाः शुभास्तथा मंकाः।
मंवतरा मंदतमाः, षट्रस्थानगता हि प्रत्येकम् ।।५.००। टीका - पूर्व जे असंख्यात लोक के बहभागमात्र अशुभ लेश्या संबंधी संक्लेश स्थान कहे; ते कृष्ण, नील, कपोत भेद करि तीन प्रकार हैं ।. तहां पूर्व संक्लेशस्थाननि का जो प्रमाण कहा, ताकौं यथायोग्य असंख्यात लोक का भाग दीएं, तहां एक भाग बिना अवशेष बहुभाग मात्र कृष्णलेश्या संबंधी तीव्रतम कषायरूप संश्लेशस्थान जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग कौं असंख्यात लोक का भाग दीजिए, तहां एक भाग बिना अवशेष बहभाग. मात्र नील: लेश्या संबंधी तीव्रतार कपाकप संल्केश स्थान जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग मात्र कपोत लेश्या संबंधी तीव्र कषायल्प संक्लेशस्थान जानने । बहुरि असंख्यात लोक का एक भाग मात्र शुभ लेश्या संबंधी विशुद्धि स्थान कहे; ते तेज, पद्म, सुक्ल भेद करि तीन प्रकार हैं। तहां पूर्व जो विशुद्धिस्थाननि का प्रमाण कह्या, ताकौं यथायोग्य असंख्यात लोक का भाग दीजिए, तहां एक भाग बिना अवशेष बहुभाग सान तेज़ो लोश्या सम्बन्धी मंदकषाय रूप विशुद्धि स्थान जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग कौं असंख्यात लोक का भाग.दीजिए, तहां एक भाग बिना अवशेष भाग मात्र पद्मलेश्या संबंधी मंदतर कषायरूप विशुद्धिस्थान जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग मात्र शुक्सलेण्या संबंधी मंदतम कषायरूप विशुद्धि स्थान जानने में तहां इलि कृष्णलेश्या अादि छह स्थाननि विर्षे एक -
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५६० }
[ गोम्मटसार जीवकाम माया ५०१-५०२-५०३ एक में अनन्तभागादिक षट्स्थान संभव हैं। तहां अशुभ रूप तीन भेदनि विषं तो उत्कृष्ट से लगाई जघन्य पर्यंत असंख्यात लोक मात्र बार षट् स्थानपतित संक्लेश हानि संभव है। बहुरि शुभरूप तीन भेदनि विर्षे जघन्य तें लगाइ, उत्कृष्ट पर्यंत असंख्यात लोकमात्र बार षट्स्थान पतित विशुद्ध परिणामनि की वृद्धि संभव है । परिणामनि की अपेक्षा संक्लेश विशुद्धि के अनंतानन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं; तिनकी अपेक्षा षट्स्थानपतित वृद्धि - हानि जानना।
असहारणं वर-मज्झिम-प्रवरंसे किण्ह-शील काउलिए। परिणमदि कमेणप्पा, परिहाणोदो किलेसस्स ॥५०१॥
प्रशुभानां वरमध्यमावरांशे कृष्णनीलकापोतत्रिकानाम् ।
परिणमति क्रमेरमात्मा परिहानितः क्लेशस्य ।।५०१॥ टीका -- जो संक्लेश परिणामनि की हानिरूप परिणमै , तौ अनुक्रम ते कृष्ण के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंशः; नील के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश; कपोत के उत्कृष्ट, मध्यम, अघन्य अंश रूप परिणब है।
काऊ पीलं किण्हं, परिणमदि किलेसवढिदो अप्पा । एवं किलेसहाणी-वड्ढीयो होदि असुहतियं ॥५०२॥
कापोतं नीलं कृष्णं, परिणमति क्लेशद्धित आत्मा ।
एवं क्लेशहानि-वृद्धितो भवति अशुभत्रिकम् ॥५०२३॥ टीका - बहुरि जो संक्लेश परिणामनि को वृद्धिरूप परिणमैं तो अनुक्रम तें कपोतरूप, नीलरूप, कृष्णरूप परिणवै है । जैसे संक्लेश की हानि - वृद्धि करि तीन . अशुभ स्थान हो हैं।
तेऊ पडमे सुक्के, सुहाणमवरादि सगे अप्पा। सुद्धिस्स य वड्ढीदो, हारणीदो अण्णहा होदि ॥५०३।।
तेजसि पी शुक्ले, शुभानामवराधेशगे आत्मा । शुद्धश्च वृद्धितो, हानितः अन्यथा भवति ॥५०३॥
EHindia
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका
टीका - बहुरि जो विशुद्धपरिणामनि की वृद्धि होइ, तो अनुक्रम से पीत, पद्म, शुल्क के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंशरूप परिणव है । बहुरि जो विशुद्ध परिणामनि की हानि होइ, तो अन्यथा कहिए शुक्ल, पद्म, पीत के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश रूप अनुक्रम तें परिणवै है । इति परिणामाधिकारः ।
प्रागै संक्रमणाधिकार तीन गाथानि करि कहैं है -- संकमरणं सट्ठाण-परट्ठाणं होदि किण्ह-सुक्काणं । बड्डीसु हि सट्ठाणं, उभयं हाणिम्मि सेसउभये वि ॥५०४॥
संक्रमणं स्वस्थान-परस्थानं भवतीति कृष्णशुक्लयोः ।
वृद्धिषु हि स्वस्थानमुभयं हानौ शेषस्योभयेऽपि ॥५०४॥ टीका - संक्रमण नाम परिणामनि की पलटनि का है; सो संक्रमण दोय प्रकार है - स्वस्थानसंक्रमण, परस्थानसंक्रमण ।
तहां जो परिणाम जिस लेश्यारूप था, सो परिणाम पलटि करि तिसही सेश्यारूप रहै, सो तो स्वस्थान संक्रमण है।
बहुरि जो परिणाम पलटि करि अन्य लेश्या को प्राप्त होइ, सो परस्थान संक्रमण है।
तहां कृष्ण लेश्या अर शुक्ललेश्या की वृद्धि विर्षे तौ स्वस्थानसंक्रमण ही है; जाते संक्लेश की वृद्धि कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट अंश पर्यंत ही है । पर विशुद्धता की वृद्धि शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंश पर्यंत ही है । बहुरि कृष्णलेश्या पर शुक्ल लेश्या के हानि विर्षे स्वस्थानसंक्रमण परस्थानसंक्रमण दोऊ पाइए हैं। जो उत्कृष्ट कृष्णलेश्या ते संक्लेश की हानि होइ, तौ कृष्ण लेश्या के मध्यम, जघन्य अंशरूप प्रवते, तहां स्वस्थान संक्रमण भया, पर जो नीलादिक अन्य लेश्यारूप प्रवर्ते, तहां परस्थान संक्रमण भया । जैसे कृष्ण लेश्या के हानि विर्षे दोऊ संक्रमण हैं । बहुरि उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या ते जो विशुद्धता की हानि होइ, तौ शुक्ल लेश्या के मध्यम, जघन्य अंशरूप . प्रवते । तहां स्वस्थान संक्रमण भया । बहुरि पनादिक अन्य लेश्यारूप प्रवर्ते, तहां परस्थान संक्रमण भया । असे शुल्क लेश्या के हानि विर्षे दोऊ संक्रमण हैं ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५०५-५०६
बहुरि अवशेष नील, कपोत, तेज, पद्म, लेश्यानि विषै दोऊ जाति के संक्रमण होनि विषें भी पर वृद्धि विषै भी पाइए । वृद्धि हानि होतें जो जिस लेश्यारूप था, उस ही लेश्यारूप रहै, तहां स्वस्थानं संक्रमण होइ । बहुरि वृद्धि हानि होतें, जिस श्यारूप था, तिस ग्रन्य लेश्यारूप प्रवर्ते, वहाँ परस्थान संक्रमण होइ । जैसे च्यारौं लेश्यानि के हानि विषै वा वृद्धि विषे उभय संक्रमण है ।
५६२
लेस्साकस्सादोवरहाणी अवरगादवरड्ढी । सट्टा प्रवरादी, हाणी नियमा परट्ठा ॥ ५०५ ॥
श्यानामुत्कृष्टादवरहानिः अवरकाववर वृद्धिः । स्वस्थाने प्रवरात्, हानिनियमात् परस्थाने ॥२०५॥
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टीका - कृष्णादि सर्व लेश्यानि का उत्कृष्ट स्थान विषे जेते परिणाम हैं, तिनते उत्कृष्ट स्थानक का समीपवर्ती जो तिस ही लेश्या का स्थान, तिस विषै अवर भन हानि लीएं परिणाम हैं । जातें उत्कृष्ट के अनंतर जो परिणाम, ताक ऊर्वक कला है, सो अनंतभाग की संदृष्टि ऊर्वक है । बहुरि स्वस्थान विषे कृष्णादि सर्व लेश्यानि का जघन्य स्थान के समीपवर्ती जी स्थान है, तिस विषै जघन्य स्थान के परिणामनि तें अवर वृद्धि कहिए । अनंतभागवृद्धि लीए परिणाम पाइए हैं; जाते जो जघन्यभाव अष्टकरूप कह्या है; सो अनंतगुरण वृद्धि की सहनानी आठ का अंक है; ताके अनन्तर ऊर्वक ही है । बहुरि सर्व लेश्यानि के जघन्यस्थान तैं जो परस्थान संक्रमण होइ तो उस जघन्य स्थानक के परिणमनि ते अनन्त गुणहानि कौं लीएं, अनन्तर स्थान विषं परिणाम हो है, सो शुक्ल लेश्या का जघन्य स्थानक के अनन्तर तो पद्म लेश्या का उत्कृष्ट स्थान है। पर कृष्ण लेश्या के जधन्य स्थान के अनन्तर नील लेश्या का उत्कृष्ट स्थान है । तहां अनंत गुणहानि पाइए है। जैसे ही सर्वं लेश्यानि विषै जानना । कृष्ण, नील, कपोत विषै तो हानि - वृद्धि संक्लेश परिणामनि की जाननी । वीत, पद्म, शुक्ल विषै हानि वृद्धि विशुद्ध परि
मनि की जाननी ।
इस गाथा विषै कला अर्थ का कारण आगे प्रकट करि कहिए है
.
संकमरणे उट्ठाणा, हाणिस बड्ढीस होंति तष्णामा । परिमाणं च व पुच्वं, उत्तकमं होदि सुदणाणे ॥५०६ ॥
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संज्ञानका भाषादीका ]
संक्रमणे षट्स्थानानि हानिषु बुद्धिषु भवन्ति नामानि । परिचर्या भवति श्रुतज्ञाने ॥५०६॥
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टीका • इस संक्रमण विषै हानि विषै अनन्त भागादिक छह स्थान हैं । बहुरि वृद्धि विषे अनन्त गुणादिके भागोर्दिक वह स्थान हैं । तिनके नाम वो प्रमाण जो पूर्व श्रुतज्ञान मार्गेणा विष पर्याय समास श्रुतज्ञान का वर्णन करते अनुक्रम कया हैं; सोई ही जानती । सो अनन्त भाग असंख्यात भाग, संख्यात भाग, संख्यात गुणा, असख्यात गुणी, अनन्त गुणा एं तो षट् स्थाननि के नाम हैं । इनि अनन्त भोगादिक की सहनानी क्रम तैं ऊर्वक च्यारि, पाँच, छह, सात, आठ का अंक हैं । बहुरि अनंत का प्रमाण जीवाराशि मात्र, असंख्यात का प्रमाण असंख्यात लोक मात्र, संख्यात का प्रमाण उत्कृष्ट संख्यात मात्र भैंसा प्रमाण गुणकार वा भागहार विषै जानना । बहुरि यंत्र द्वार करि जो तहां धनुक्रम का है, सोई यहां अनुक्रम जानना । वृद्धि विषै तो तह का है, सोई अनुक्रम जानना ।
बहुरि हानि विषे उलटा अनुक्रम जाननां । कैसे ? सो कहिये है - कपोत लेश्या का जघन्ये तें लगाइ, कृष्ण लेक्ष्या का उत्कृष्ट पर्यंत विवक्षा होई, तो क्रम तें संक्लेश की वृद्धि संभव है । बहुरि कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट तें लगाइ, कपोत लेश्या का जघन्य पर्यंत विवक्षा होइ, तो क्रम तैं संक्लेश की हानि संभव है । बहुरि पीत का जघन्य तैं लगाइ शुक्ल का उत्कृष्टपर्यंत विवक्षा होइ तो क्रम तें विशुद्धि की वृद्धि संभ है । बहुरि शुक्ल का उत्कृष्ट ते लगाइ पीत का जघन्यपर्यंत विवक्षा होइ तो क्रम से विशुद्धि की हानि संभव है । तहां वृद्धि विषे यथासंभव षट्स्थानपतित वृद्धि जाननी हानि विष हानि जानी । तहां पूर्वे कला जो वृद्धि विषे अनुक्रम, तहां पीछे ही पीछे सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग मात्र बार अनन्त भाग वृद्धि होइ, एक बार अनन्त वृद्धि हो है। तहां अनन्त गुण वृद्धिरूप जो स्थान, सो नवीन षट्स्थान पतितवृद्धि का प्रारंभ रूप प्रथम स्थान है । र याके पहिले जो अनंत भागवृद्धिरूप स्थान भया सो विवक्षित षट्स्थान पतित वृद्धि का अंत स्थान है । बहुरि नवीन पदस्थान पतितवृद्धि का अनन्त गुणवृद्धिरूप प्रथम स्थान के मार्गे सूच्यंगुल का प्रसंख्यातवां भागमात्र अनंतभाग वृद्धिरूपस्थान हो है । प्रांगे पूर्वोक्त अनुक्रम जानो । अब हा कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट स्थान है; सो पदस्थान पति को अन्तस्थानरूप है, ताते पूर्वस्थान अनन्तभाग वृद्धिरूप है । बहुरि कृष्ण लेश्या का जघन्य स्थान है, सो षट्स्थानपतित का प्रारभरूप प्रथम स्थान है । ताते याके पूर्व नीललेश्या का उत्कृष्ट
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मोम्मटसार जीवकाश गाथा ५०७-५०५
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स्थान, तातें अनंत गुणवृद्धिरूप यह स्थान जानना । बहुरि कृष्ण लेश्या का जघन्य के समीपवर्ती स्थान, तिस जघन्य स्थान ते अनन्त भाग वृद्धिरूप जानना । जैसे ही अन्य स्थाननि विर्षे वा अन्य लेश्यानि विर्षे वृद्धि का अनुक्रम जानना ।
बहुरि जो हानि अपेक्षा कथन कीजिए तो कृष्णलेश्या का उत्कृष्ट स्थान ते ताके समीपवर्ती स्थान अनन्त भाग हानि लीए, जानना । बहुरि कृष्ण लेश्या का जघन्य स्थान ते नील लेश्या का उत्कृष्ट स्थान अनन्त मुणहानि लीएं जानना । बहुरि कृष्ण लेश्या का जघन्य के समीपवर्ती स्थान तें जघन्य स्थान अनन्त भाग लीए जानना । असे ही अन्य स्थाननि वि अन्य लेश्यानि विर्षे यंत्र द्वार करि कह्या; अनुक्रम हैं उलटा अनुक्रम लीए हानि का अनुक्रम जानना । असे संक्रमण विर्षे वृद्धि - हानि है । इति संक्रमणाधिकारः।
प्रागै कर्माधिकार दोय गाया करि कहै हैंपहिया जे छप्पुरिसा, परिभट्टारणमझदेम्मि । फलभरियरुक्खमेगं, पेक्खित्ता ते विचितंति ॥५०७॥ णि मूलखंधसाहुवसाहं छित्तुं चिणित्तु पडिदाई। खाउं फलाइं इदि जं, मणेण वयणं हवे कम्मं ॥५०८॥जुम्मम्॥
पथिका ये षट्पुरुषाः, परिभ्रष्टा अरण्यमध्यदेशे । फलभरितवृक्षमेक, हष्टवा ते विचिन्तयन्ति ।।५०७॥ निर्मलस्कन्धशाखोपशाखं छित्त्वा चित्वा पतितानि ।
खादितुं फलानि इति, यन्मनसा वचनं भवेत् कर्म ॥५०८॥ युग्मम् । टीका - कष्णादिक एक - एक लेश्यावाले छह पथिक पुरुष मार्म ते भ्रष्ट भए, तहां वन विर्षे एक फलनि करि भरथा हुवा वृक्ष. कौं देखि, असे चितवै हैं -- कृरण लेश्यावाला तो चितवे हैं, जो मैं इस वृक्ष कौं मूल ते उपाडि, फल खास्यौं । बहुरि नील लेश्यावाला चितवै है, मैं इस वृक्ष के पेड कौं काटि फल खास्यौं । बहुरि कपोत वाला चिंत है, मैं इस वृक्ष की बड़ी शाखानि छेदि फल खास्यौं । बहुरि पीतवाला चितवें है, मैं इस वृक्ष की छोटी शाखानि को छेदि फल खास्यौं । बहरि पद्मवाला चितवं है मैं इस वृक्ष के फलनि हो कौं छेद फल खायौं । शुक्लवाला चितवं हैं कि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका मावासीका 1
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मैं जे आपसे टूटि करि जे पड़े फल, तिनको खास्यौं । असे मनपूर्वक जो वचन होइ सो तिन लेश्यानि का कर्म जानना । इहां एक उदाहरण कहा है, इस ही प्रकार अन्य जानने । इति कर्माधिकार ।
आगें लक्षणाधिकार नव गाथानि करि कहै हैं- : चंडो रण मुचदि वेर, भंडण-सोलो य धम्म-दय-रहिओ। दुको रग य एदि वसं, लक्खणमेयं तु किण्हस्स ॥५०॥
चण्डो न मुञ्चति वैरं, भण्डनशीलश्च धर्मदयारहितः ।
दुष्टो न च एति वशं, लक्षरणमेततु कृष्णस्य ।।५०६॥ टीका - प्रचंड तीव्र क्रोधी होइ, वैर न छोडै । भांडने का - युद्ध करने का जाका सहज स्वभाव होइ । दया धर्म करि रहित होइ । दुष्ट होइ । किसी गुरुजनादिक के वश्य न होइ, असे लक्षण कृष्ण लेश्यावाले के हैं।
मंदो बद्धि-विहीणो णिचिण्णारणी य विसय-लोलो य। माणी मायी य तहा, प्रालस्सो चेव भेज्जो य ॥५१०॥
मन्दो बुद्धिविहीनो, निविज्ञानी च विषयलोलश्च ।
मानी मायी च तथा, प्रालस्यः चैव भेद्यश्च ॥५१०॥ . टीका - स्वछंद होइ अथवा क्रिया विष मंद होइ, वर्तमान कार्य को न जानैं; असा बुद्धिहीन होइ, विज्ञान चातुर्य करि होन होइ, स्पर्शादिक विषयनि विर्षे अतिलपटी होइ, मानी होइ, मायावी, कुटिल होइ । क्रिया विष कुंठ होइ, जिसके अभिप्राय कौं और कोई न जाने, आलसी होइ, यहु सर्व कृष्ण लेण्यावाले के लक्षण हैं।
रिणद्दा-वचण-बहुलो, धण-धणे होदि तिव्व-सण्णा य । लक्खणमयं भणियं, समासदों णील-लेस्सस्स ॥५११॥३
निद्रावञ्चनबहुलो, धनधान्ये भवति तीवसंज्ञश्च । लक्षरसमेतद्धणितं, समासतो नीललेश्यस्य ॥५११॥
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१. पटखंडायम -पवता पुस्तक १, पृष्ठ ३९०, गाथा से...२००1 २. षट्खण्डागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६०, गांधा सं. २०१। ३. पट्खण्डागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६१, गाथा संख्या २०२१
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५६६ ]
[ गोम्मटसार जीवका गाया ५१२-५१३-५१४
टीका - निद्रा जाके बहुत होइ, और को ठिगना जाके बहुत होइ, धन-धान्याfar fat तीव्र वांछा जाके होइ, असा संक्षेप तें नील लेश्यावाले का लक्षण है ।
रूसदि fरंगददि अण्णे, दूसवि बहुसो य सोय-भय- बहुलो । असूयदि परिभवदि पर, पसंसदि य अप्पयं बहुलो ॥५१२॥
रुष्यति निन्दति श्रन्यं दुष्यंति बहुशश्च शोकभयबहुलः । असूयति परिभवति परं प्रशंसति आत्मानं बहुश: ।। ५१२||
-
टीका पर के ऊपरि क्रोध करें, बहुत प्रकार और कौं निंदै, बहुत प्रकार और कौं दुखावें, फोक जाके बहुत होइ, भय जाके बहुत होइ, और कौं नीकै देखि सकै नाहीं ; और का अपमान करें, आपकी बहुत प्रकार बढाई करें ।
ण य पत्तियवि परं, सो अप्पारण यिव परं पि मण्णंतो । तुसवि अभित्थुवतो, ण य जाणदि हाणिवढि वा ॥५.१३॥२
न च प्रत्येति परं स श्रात्मानमिव परमपि मन्यमानः । तुष्यति अभिष्टुतो न च जानाति हानिवृद्धी वा ।। ५१३।।
टीका आप सारिखा पापी कपटी और कौं मानता संता और का विश्वास न करें, जो श्रापकी स्तुति करें, ताके ऊपर बहुत संतुष्ट होइ, अपनी, अर पर की हानि वृद्धि कीं न जानें।
-
·
मरणं पत्थेदि रगे, देहि सुबहगं हि युग्वमाणो वु । ण गणइ कज्जाकज्ज लक्खरणमेयं तू काउस्स ॥५१४।।
मर प्रार्थयते रणे, ददाति सुबहुकमपि स्तूयमानस्तु । न गणयति कायाकार्यं, लक्षणमेतत्तु कपोतस्य ॥३५१४ ॥
ठीका दे, कार्य कार्य को गिण नाहीं, असे लक्षण कपोत लेश्यावाले के हैं ।
युद्ध विषै मरण कौं चाहै, जो आपकी बढाई करै, ताकी बहुत धन
१. खंडामधला पुस्तक १, पृष्ठ ३११, गाया सं. २०३ । २. खंडा-बदला पुस्तर्क १, पृष्ठ ३२१, गांधा पं. २०४ । ३. षटुखंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३९१, गांया सं. २०५१
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सम्यानचन्द्रिका भावाटीका
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जापदि कज्जाकज्ज, सेयमसेयं च सध्व-सम-पासी। दय-दाण-रदो य मिदू, लक्खणमेयं तु वेउस्स ॥५१॥
जानाति कार्याकार्य, सेव्यमसेव्यं च सर्वसमदर्शी ।
दयादानरतश्च मृदुः, लक्षणमेतत्तु तेजसः ।।५१५॥ टीका - कार्य - प्रकार्य को जाने, सेवनेयोग्य न सेवनेयोग्य कौं जानें, सर्व विष समदर्शी होइ, दया - दान वि प्रीतिवंत होइ; मन, वचन, काय विर्षे कोमल होइ, असे लक्षण पीतलेश्यावाले के हैं।
चागी भद्दो चोक्लो, लज्जव-कम्मो य खमदि बहुग पि । साहु-गुरु-यूजण-रदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स ॥५१६॥
त्यागी भद्रः सुकरः, ज्युक्तकर्मा न क्षमते बहुकमपि ।
साधुगुरुपूजनरतो, लक्षरसमेतस्तु पह्मस्य ।।५१६॥ टोका - त्यागी होइ, भद्र परिणामी होइ, सुकार्यरूप जाका स्वभाव होइ, शुभभाव विर्षे उद्यमी रूप जाके कर्म होइ, कष्ट या अनिष्ट उपद्रव तिनको सहै, मुनि जन पर गुरुजन तिनकी पूजा विर्ष प्रीतिवंत होइ, असे लक्षण पद्मलेश्याकाले के हैं।
ण य कुणवि पक्खवायं, ण वि य रिगदाणं समो य सन्वेसि । णस्थि य राय-द्दोसा रणेहो वि य सुक्क-लेस्सस्स ॥५१७॥३
न च करोति पक्षपातं, नापि च निदानं समश्च सर्वेषाम् ।
नास्ति च रागद्वेषः स्नेहोऽपि च शुक्ललेश्यस्य ॥५१७॥ टीका --- पक्षपात न कर, निंदा न करें, सर्व जीवनि विर्षे समान होइ, इष्ट अनिष्ट विर्षे राम - दुष रहित होइ, पुत्र कलत्रादिक विर्षे स्नेह रहित होइ; जैसे लक्षरण शुक्ल लेश्यावाले के हैं। इति लक्षणाधिकार ।
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१. षखंडागम - बबला पुस्तक १, पृष्ठ ३६१, गाथा सं. २०६ । २. पखंडागम - अवना पुस्तक १, पृष्ठ ३९२, माथा सं. २०७ । ३. षट्खंडागम - अपना पुस्तक १, पृष् ३९२, गाथा से २०८
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वोमरसार बीवका गाथा ५१%
आगे गति अधिकार ग्यारह सूत्रनि करि कहैं है - लेस्सारणं खलु अंसा, छन्वीसा होति तत्थ मज्झिमया । आउगबंधरणजोग्गा, अठ्ठठ्ठवगरिसकालभवा ॥५१८॥
लेश्यानां खलु अंशाः, षड्विंशतिः भवन्ति तत्र मध्यमकाः । भागयोग्या, त्या अष्टापकर्षकालभवाः ॥५१॥
टीका - लेश्यानि के छब्बीस अंश हैं ! तहां छहौं लेश्यानि के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद करि अठारह अंश हैं। बहुरि कपोतलेश्या के उत्कृष्ट अंश ते आग पर तेजो लेश्या के उत्कृष्ट अंश ते पहिले कषायनि का उदय स्थानकनि विर्षे पाठ मध्यम अंश हैं, जैसे छब्बीस अंश भए। तहां आयुकर्म के बंध की योग्य आठ मध्यम अंश जानने । तिनिका स्वरूप प्रागें स्थानसमुत्कीर्तन अधिकार विर्षे भी कहेंगे । ते पाठ मध्यम अंश, अपकर्ष काल आठ, तिनि विर्षे संभव है। वर्तमान जो भुज्यमान प्रायु, ताको अपकर्ष, अपकर्ष कहिए । घटाइ घटाइ आगामी पर भव की आयु कौं बांधैं ; सो अपकर्ष कहिए।
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.. अपकर्षनि का स्वरूप दिखाइए हैं-- तहां उदाहरण कहिए हैं - किसी कर्म भूमिया मनुष्य वा तिथंच की भुज्यमान प्रायु पैसठि से इकसठि (६५६१) वर्ष की है। तहां तिस आयु का दोय भाग गएं, इकईस सै सित्तासी वर्ष रहै। तहां तीसरा भाग कौं लागते ही प्रथम समय स्यों लगाइ अंतर्मुहुर्त पर्यंत कालमात्र प्रथम अपकर्ष है । तहाँ परभव संबंधी आयु का बंध होई । बहुरि जो तहां न बंधे तौ, तिस तीसरा भाग का दोय भाग गएं, सात से गणतीस वर्ष आयु के अवशेष रहै, तहां अंतर्महर्त काल पर्यंत दुसरा अपकर्ष, तहां परभव की आयु बांध । बहुरि तहां भी न बंधै तो तिसका भी दोय भाग गएं दोय से तियालीस वर्ष प्रायु के अवशेष रहैं, अंतर्मुहूर्त काल मात्र तीसरा अपकर्ष विर्षे परभव का प्रायु बांध । बहुरि तहां भी २ बंधे तौ, तिसका भी दोय भाग गएं इक्यासी वर्ष रहैं, अंतर्मुहर्त पर्यंत चौथा अपकर्ष विर्षे पर भव का आयु बांधै । जैसे ही दोय दोय भाग गएं, सत्ताईस वर्ष रहैं वा नव वर्ष रह वा तीन वर्ष रहैं वा एक वर्ष रहैं अंतर्मुहुर्तमात्र काल पर्यंत पांचवां वा छठा वा सातवां वा
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१. पखंडागम - अवता पुस्तक १, पृष्ठ ३६२, गाथा सं. २०६३
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म्यजानचन्तिका भाषाटीका
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आठवां अपकर्ष विषं पर भव की प्रायुः को बंधने की योग्यपना जानना । अंस ही जो भुज्यमान प्रायु का प्रमाण होय, ताके त्रिभाग त्रिभाग विर्षे पाठ अपकर्ष जानने ।
बहुरि जो आठौ अपकर्षनि विर्षे आयु न बंधैं अर नवमां आदि अपकर्ष है नाही, तौ आयु का बंध कैसे होइ ?
सो कहै हैं - असंक्षेपाद्वा जो प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाग काल' भुज्यमान अायु का अवशेष रहै ताके पहिले अंतर्मुहूर्त काल मात्र समय प्रबद्धनि करि परभव की आयु कौं बांधि पूर्ण कर है, असा नियम है । इहां विशेष निर्णय कीजिए है - विषादिक का निमित्तरूप कदलीधात करि जिनका मरण होइ, ते सोपक्रमायुःक . कहिए । तात देव, नारकी, भोगभूमियां अनुपक्रमायुष्क हैं । सो सोपक्रमायुष्क हैं, ते पूर्वोक्त रीति करि पर भव का आयु को बांधे हैं । तहां पूर्वोक्त आठ अपकर्षनि विर्षे .. आयु के बंध होने कौं योग्य जो परिणाम तिनकरि केई जीव पाठ वार, केई जोव सात वार, केई छह वार, केई पांच वार, केई च्यारि वार, केई तीन वार, केई दो वार, केई एक वार परिणमैं हैं।
प्रायु के बंध योग्य परिणाम अपकर्षणनि विर्षे हो होइ, सो असा कोई स्व- . । भाव सहज ही है । अन्य कोई कारण नाहीं ।
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तहां तीसरा भाग का प्रथम समय विर्षे जिन जीवनि करि परभव के आयु का बंध प्रारंभ किया, ते अंतर्मुहूर्त ही विर्षे निष्ठापन करें। अथवा दूसरी बार आयु का नवमा भाग अवशेष रहैं, तहां तिस बंध होने की योग्य होइ । अथवा तीसरी बार प्रायु का सत्ताईसवां भाग अवशेष रहै, तहां तिस बंध होने को योग्य होइ, असे पाठवां अपकर्ष पर्यंत जानना । जैसा किछु नियम है नाही -- जो इनि अपकर्षनि विर्ष आयु का बंध होइ ही होइ । इनि विर्षे आयु के बंध होने की योग्य होइ । जो बंध होइ तो होइ न होइ तौ न होइ । असैं आयु के बंध का विधान करा । .
__ जैसे अन्यकाल विर्षे समय समय प्रति समयप्रबद्ध बंध हैं, सो प्रायुकर्म विना सात कर्मरूप होइ परिगम है । तैसें आयुकर्म का बंध जेता काल में होइ, तिसने काल वि जे समय समय प्रति समयप्रबद्ध बंध ते आठों ही कर्मरूप होइ परिण में हैं जैसे जानना।
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गोमटसार जीवेकाड माथा ५१५
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बहुरि जिस समय विर्षे पहिले हो जिसका बंध होइ, तहां तिसका प्रारंभ कहिए । बहुरि समय समय प्रति तिस प्रकृति का बंध हूवा करें, तहां बंध होइ निवरे, तहां निष्ठापक कहिए।
बहुरि देव नारकीनि के छह महीना आयु का अवशेष रहै, तब आयु के बंध करने की योग्य होइ, पहिल नहोइ । हांयह हींगा ही बिलिनाग त्रिभाग करि पाठ अपकर्ष हो हैं, तिन विर्षे आयु के बंध करने योग्य हो है ।
बहुरि एक समय अधिक कोटि पूर्व वर्ष ते लगाइ तीन पल्य पर्यंत असंख्यात. वर्षमात्र प्रायु के धारी भोगभूमियां तिथंच वा मनुष्य, ते भी निरुपक्रमायुष्क हैं। इन के आयु का नव मास अवशेष रहैं आठ अपकर्षनि करि पर भव के आयु का बंध होने का योग्यपना हो है । बहुरि इतना जानना - जिस गति संबंधी आयु का बंध प्रथम अपकर्ष विर्षे होइ पीछे जो दुतियादि अपकर्षनि विर्षे आयु का बंध होइ, तौ तिस ही गति संबंधी प्रायु का बंध होइ । बहुरि जो प्रथम अपकर्ष विर्षे प्रायु का बंध न होइ, तो पर दूसरे अपकर्ष विर्षे जिस किसी प्रायु का बंध होइ तौं तृतीयादि अपकर्षति विर्षे प्रायु का जो बंध होइ, तौ तिस ही गति सम्बन्धी आयु का बन्ध होइ, असैं ही
आगें जानना । जैसे कई एक जीवनि के तौ आयु का बंध एक अपकर्ष ही विर्षे होइ, केई जोवनि के दोय अपकर्षनि करि होइ, केई जीवनि के तीन वा च्यारि वा पांच वा छह वा सात वा पाठ अपकर्षनि करि हो है ।
तहां पाठ अपकर्षनि करि परभव की आयु के बन्ध करनहारे जीव स्तोक हैं । तिनत संख्यात गुणे सात अपकर्षनि करि बन्ध करने वाले हैं । तिनत संख्यात गुणे छह अपकर्षनि करि बन्ध करने वाले हैं। जैसे संख्यात गुणे संख्यात गुरणे पांच, च्यारि, तीन, दोय, एक अपकर्षनि करि बंध करने वाले जीव जानने ।
बहुरि पाठ अपकर्षनि करि आयु. कौं बांधता जीव, तिसमें आठवां अपकर्ष विष प्रायु बंधने का जघन्य काल स्तोक है । तिसतं विशेष अधिक ताका उत्कृष्ट काल है । बहुरि आठ अपकर्षनि करि प्रायु को बांधता जीव के सातवां अपकर्ष विर्षे जघन्य काल तिसत संख्यात गुरखा है, उत्कृष्ट तिसते विशेष अधिक है। बहरि सात अपकर्षनि करि प्रायु को बांधता जीव के सातवां अपकर्ष विर्षे प्रायु बंधने का जघन्य काल तिसत संख्यात गुणा है, उत्कृष्ट तिसतै विशेष अधिक है । बहुरि पाठ अपकर्षनि करि आयु बांधता जीव के छठा अपकर्ष विष आयु बंधने का जघन्य काल तिसतै
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आठ अपकर्षनि करि आयु बंधने की रचना
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जघन्य उत्कृष्ट
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। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाबा ५१९
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संख्यात गुणा है, उत्कृष्ट विशेष अधिक है । बहुरि सात अपकर्षनि करि श्रायु कौं बांधता जीव के छठा अपकर्ष विष प्रायु का बंधने काजधन्य काल तिसत संख्यातगुणा है, उत्कृष्ट विशेष अधिक है । बहुरि छह अपकर्षनि करि प्रायु कौं बांधता जीव के छठा अपकर्ष विषं मायु बंधने का जघन्य काल तिसत संख्यातगुणा है; उत्कृष्ट किछु अधिक है । जैसे एक अपकर्ष करि आयु की बांधता जीव के तीहि अपकर्ष के उत्कृष्ट काल पर्यंत बहतरि (७२) भेद हो हैं। तहां जघन्य तें उत्कृष्ट तो अधिक जानना । सो तिस विवक्षित जघन्य की संख्यात का भाग दौएं, जो पावै, सो विशेष का प्रमाण जानना । ताकौं जघन्य में जोड़ें उत्कृष्ट का प्रमाण हो है । बहुरि उत्कृष्ट ते पागला जघन्य, संख्यात गणां जानना। अॅसं यद्यपि सामान्यपने सबनि विर्षे काल अंतहत मात्र है। तथापि हीनाधिकपना जानने की अनुक्रम कहा है, जो अपकर्षनि विर्षे प्रायु का बंध होइ, तौ इतने इतने काल मात्र समयप्रबद्धनि करि बंध हो है । .
__यह बहत्तरी भेदनि की रचना है । तहां पाठ अपकर्षनि करि अायु बंधने की रचना विर्षे पहिली पंक्ति के कोठानि विष जो आठ - आठ का अंक है, ताका तो यह अर्थ जानना - जो आठ अपकर्षनि करि श्रायु बांधने वाले का इहां ग्रहण है । बहुरि दूसरी, तीसरी पंक्तिनि विर्षे प्रा०, सात प्रादि अंक है, तिनिका यह अर्थ - जो तिनि आठ अपकर्षनि करि बंध करने वाले जीव के पाठवां, सातवां आदि अपकर्षनि का ग्रहण है । तहां दूसरी पंक्ति विष जघन्य काल अपेक्षा ग्रहण जानना । तीसरी पंक्ति विषं उत्कृष्ट काल अपेक्षा ग्रहण जानना । जैसे ही सात, छह, पांच, च्यारि, तीन, दोय, एक अपकर्षनि करि आयु बंधने की रचना विषं अर्थ जानना। आठौं रचनानि की दूसरी, तीसरी पंक्तिनि के सर्व कोठे बहतरि हो है । इनि बहत्तरि स्थाननि विर्षे प्रायु बंधने के काल का अल्प -- बहुत्व जानना । मध्य भेदनि के ग्रहण निमित्त जघन्य उत्कृष्ट के बीचि बिदी की सहनानी जाननी ।
___ असे आयु कौं बंधने के योग्य लेश्यानि का मध्यम आठ अंश, तिनकी आठ अपकर्षनि करि उत्पत्ति का अनुक्रम कहा।
सेसहारससा, चउगइ-गमणस्स कारणा होति । सुक्कुक्कस्संसमुदा, सम्वद्धं जांति खलु जीवा ॥५१६॥
शेषाष्टादशांशाश्चतुर्गतिगमनस्य कारणानि भवन्ति । शुक्लोत्कृष्टांशमृताः, सर्वार्थ यान्ति खलु जीवाः ॥५१६।।
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গুঞ্জঙ্গি আবা।।
टीका - तिन मध्यम अंशनि ते अयशेष रहैं, जे लेश्यानि के अठारह अंश, ते च्यारि गति विर्षे गमन को कारण हैं। मरण इनि अठारह अंशनि करि सहित होइ, सो मरण करि यथायोग्य गति की जीव प्राप्त हो है। तहां शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट अंश करि सहित मरे, ते जीव सर्वार्थसिद्धि नामा इद्र के विमान को प्राप्त हो हैं ।
अवरंसमुदा होंति, सदारदुर्ग मज्झिमंसगेण मुथा । आरपदकप्पादुरि, सव्वट्ठाइल्लगे होंति ॥५२०॥
अवरांशमृता भवन्ति, शतारहिके मध्यमांशकेन मृताः ।
मानतकरूपादुपरि, सर्वार्थादिमे भवन्ति ॥५२०॥ टीका- शुक्ल लेश्या का जघन्य अंश करि मरें, ते जीव शतार --सहस्रार स्वर्ग विर्षे उपज हैं । बहुरि शुक्ल लेश्या का मध्यम अंश करि मरे, ते जीव मानत स्वर्ग के ऊपरि सर्वार्थसिद्धि इद्रक का विजयादिक विमान पर्यंत यथासंभव उपजें हैं ।
पम्मुक्कस्संसमुदा, जीवा उवजांति खलु सहस्सारं । अवरंसमुदा जीवा, सणक्कुमारं च माहिवं ॥५२१॥
पद्मोत्कृष्टांशमृता, जीवा उपयान्ति खलु सहस्रारम् ।
अवरांशमृता जीवाः, सनत्कुमारं च माहेन्द्रम् ।।५२१॥ टीका -- पद्म लेश्या का उत्कृष्ट अंश करि मरे, जे जीव सहस्रार स्वर्ग कौं प्राप्त हो हैं । बहुरि पद्म लेश्या का जघन्य अंश करि मरें, ते जीव सनत्कुमार - माहेंद्र स्वर्ग कौं प्राप्त हो हैं।
मज्झिमश्र सेरण सुदा, तम्मझ जांति तेउजेठमुदा । साणक्कुमारमाहियंतिमचक्किदसेदिम्मि ॥५२२॥
मध्यमांशेन मृताः, तम्मध्यं याति तेजोज्येष्ठमृताः ।
सानत्कुमारमाहेन्द्रान्तिमचक्रेन्द्रधेष्याम् ।।५२२॥ टीका ---- पन लेश्या का मध्यम अंश करि मरे, ते जीव सहस्रार स्वर्ग के नीचें पर सनत्कुमार -- माहेन्द्र के ऊपरि यथासंभव उपजै हैं । बहुरि तेजो लेश्या का
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। गोम्मटसार जोषात पाथा ५२३-५२५
उत्कृष्ट अंश करि मरं, ते सनत्कुमार - माहेन्द्र स्वर्ग का अंत का पटल विर्षे चक्र नामा इद्रक संबंधी श्रेणीबद्ध विमान, तिनि विौं उपजें हैं।
अवरंसमुदा सोहम्मोसाणादिमउडम्मि सेढिम्मि । मज्झिमसेरण मुबा, विमलविमाणादिबलभद्दे ॥२३॥
अवशिमताः सौधर्मशानाविमौ श्रेण्याम् ।
मध्यमांशेन मृता, विमलविमानादिबलभद्रे ॥५२३॥ टीका - तेजो लेश्या का जघन्य अंश करि मरें, ते जीव सीधर्म ईशान का पहिला रितु (जु) नामा इद्रक वा श्रेणीबद्ध विमान, तिनिविर्षे उपजें हैं । बहुरि तेजो लेश्याः का मध्यमः अंश. करि मरे, ते जीव सौधर्म - ईशान का दूसरा पटल का विमल नामाइंद्रक ते लगाइसनत्कुमार - माहेन्द्र का द्विचरम पटल का बलभद्र नामा इंद्रक पर्यंत विमान विर्षे उपजे हैं ।
किण्हवलोच जुदा, प्राधिकाश्मि प्रवरसमुदा। पंचमचरिमतिमिस्से, मज्झे मझग जायन्ते ॥५२४॥
कृष्णवरांशेन मता, अयधिस्थाने प्रवरांशमृताः ।
पञ्चभचरमतिमिस्र, मध्ये मध्येन जायन्ते ।।५२४।। टीका -- कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट अंश करि मरें, ते जीव सातवीं नरक पृथ्वी का एक ही पटल है, ताका अवधि स्थानक नामा इद्रक बिल विौं उपजें हैं । बहुरि कृष्ण लेश्या का जघन्य अंश करि मरै, ते जीव पंचम पृथ्वी का अंत पटल का तिमिस्र नामा इद्रक विष उपज हैं। बहुरि कृष्ण लेश्या का मध्यम अंश करि मरे, ते जीव अवधिस्थान इंद्रक का च्यारि श्रेणीबद्ध बिल तिनि विर्षे वा छठा पृथ्वी का तीनों पटलनि विर्षे वा पांचवी पृथ्वी का चरम पटल विष यथायोग्य उपजै हैं ।
नीलुक्कस्संसमुदा, पंचमधिदम्मि अवरमुदा। वालुकसंपज्जलिवे, मज्झे मज्झरण जायते ॥५२५॥
तोलोकृष्टांशमृताः, पञ्चमांधेन्द्रके प्रवरभूसाः । वालुकासंप्रज्वलित, मध्ये मध्येन जायन्ते ॥५२॥
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सम्यहानचन्द्रिका सावाटीका
टोका -- नील लेश्या का उत्कृष्ट अंश करि मरे, ते जीव पंचम पृथ्वी का विचरम पटल का अंध्र नामा इंद्रक विर्षे उपजे हैं ।। केई पांचवां पटल विर्षे भी उपज हैं। अरिष्ट पृथ्वी का अंत का पटल विर्षे कृष्ण लेश्या का जघन्य अंश करि मरे हुए ही कई जी गई हैं। पसना विशेष जानना । बहुरि नीलः लेश्या का जघन्य अंश करि मरे, ते जीव. वालुका पृथ्वी का अंत का पटलः वि संप्रज्वलित नामा इंद्रका विर्षे उपजें हैं । बहुरि नील लेश्या का मध्यम अंश करि मरे, ते जीयः बालुका प्रभा पृथ्वी के संप्रज्वलित इद्रक तैं नीचें पर चौथी पृथ्वी का सातौं पटल पर पंचमी पृथ्वी का अंध्र इद्रक के ऊपरि यथायोग्य उपज हैं ।।
वर-काश्रोदसमुदा, संजलिदं जांति तदिय-रिपरयस्स । सीमंत अवरमुदा, मझे. सज्झेरण जायते ॥५२६॥
घरकापोतांशमताः, संज्वलितं यान्ति तृतीयनिरयस्य ।
सोमन्तमवरमृता, मध्ये मध्येन जायन्ते ॥५२६।। टीका - कापोत लेश्या का उत्कृष्ट अंश करि मरे, हे जीव तीसरी पृथ्वी का पाठवां द्विचरम पटल ताके संज्वलित नामा इंद्रक विषै उपज हैं । केई अंत का पटल संबंधी संप्रज्वलित नाभा इद्रक विर्षे भी उपजे है। इतना विशेष जानना । बहुरि कापोत लेश्या का जघन्य अंश करि मरें, ते जीव पहिली धर्मा पृथ्वी का पहिला सीमतक नामा इंद्रक, तिस विौं उपज हैं । बहुरि कापोत लेश्या का मध्यम अंश करि मरे, ते जीव पहिला पृथ्वी का सीमंत इद्रक ते नीचं बारह पटलनि विर्षे, बहुरि मेघा तीसरी पृथ्वी का द्वि चरम संज्वलित इद्रक तें ऊपरि सात पटलनि विर्षे, बहुरि दूसरी पृथ्वी का ग्यारह पटल, तिन विर्षे यथायोग्य उपजै हैं ।
किण्ह-चउक्काणं पुण, मभंस-मुवा हु भवणगादि-तिये । पुढवी-माज-वणफवि-जीवेसु हवंति खलु जीवा ॥५२७॥
कृष्णचतुष्काणां पुनः, मध्यांशमृता हि भयानकादित्रये । पृथिव्यवनस्पतिजीवेषु भवन्ति खलु जोवाः ॥५२७॥
टोका --- पुनः कहिये यह विशेष है - कृष्ण - नील - कपोत नील लेश्या, तिनके मध्यम अंश करि मरे असे कर्म भूमियां मिथ्यादृष्टी तिर्यच वा मनुष्य अर
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[ गोमतसार जीवकाण्ड गाया ५२८.५२६
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तेजो लेश्या का मध्यम अंश करि मरे, असे भोगभूमिया मिथ्यादृष्टी तिर्यच वा मनुष्य ते भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवनि विर्षे उपजें हैं । बहुरि कृष्ण - नील - कपोत - पीत इन च्यारि लेश्यानि के मध्यम अंशनि करि मरे, असे तिर्यच वा मनुष्य भवनवासी, ध्यंतर, ज्योतिषी बा सौधर्म - ईशान स्वर्ग के वासी देव, मिथ्यादृष्टी, ते बादर पर्याप्तक पृथ्वीकायिक, अप्कायिक वनस्पती कायिक विर्षे उपजें हैं। भवनत्रयादिक की अपेक्षा इहां पीत लेश्या जाननी । तियंच मनुष्य अपेक्षा कृष्णादि तीन लेश्या जाननी।
किण्ह-तियाणं मज्झिम-अंस-सुदा सेउ-वाउ-वियलेसु । सुर-णिरया सग-लेस्सहि, पर-तिरियं जांति सग-जोगं ॥५२॥
कृष्णप्रयाणां मध्यमांशमृताः सेजोवायुविकलेषु ।
सुरनिरयाः स्यकलेश्याभिः नरतियचं यान्ति स्वकयोग्यम् ॥५२८।। टीका - कृष्ण, नील, कपोत के मध्यम अंश करि मरे, असे तिर्यच वा मनुष्य ते तेजःकायिक वा बातकायिक विकलत्रय असनी पंचेंद्री साधारण वनस्पती, इनिविर्षे उपर्ज है । बहुरि भवनय आदि सर्वार्थसिद्धि पर्यंत देव अर धम्मादि सात पृथ्वी संबंधी नारकी ते अपनी-अपनी लेश्या के अनुसारि यथायोग्य मनुष्यगति वा तिर्यंचगति कौं प्राप्त हो हैं । इहां इतना जानना - जिस गति संबंधी पूर्व प्रायु बंध्या होइ, तिस ही मति विर्षे जो मरण होते जो लेश्या होइ, ताके अनुसारि उपजे है । जैसे मनुष्य के पूर्व देवायु का बंध भया, बहुरि मरण होते कृष्णादि अशुभ लेश्या होइ तौं भवनत्रिक विषै ही उपज है; असे ही अन्यत्र जानना । इति गत्यधिकारः ।
प्रागें स्वामी अधिकार सात गाथानि करि कहैं हैंकाऊ काऊ काऊ, गीला णीला य णोल-किण्हा य । किण्हा य परमकिण्हा, लेस्सा पढमादि पुढवीरणं ॥५२६॥
कपोता कपोता कपोता, नीला नीला च नीलकृष्णे च ।
कृष्णा च परमकृष्णा, लेश्या प्रथमादिपृथिवीनाम् ॥५२६॥ टीका - इहां भावलेश्या की अपेक्षा कथन है। तहां तारकी जीवनि के कहिए हैं – तहां धम्मा नामा पहिली पृथ्वी विर्षे कपोत लेश्या का जघन्य अंश है । वंशा दूसरी पृथ्वी विर्षे कपोत का मध्यम अंश है । मेधा तीसरी पृथ्वी विर्षे कपोत
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सम्यामचन्द्रिका भावाटीका ]
[ ૬ ૦૭
का उत्कृष्ट अंश श्रर नील का जघन्य अंश है । अंजना चौथी पृथ्वी विषै नील का मध्यम अंश है। अरिष्टा पांचवी पृथ्वी विषे नील का उत्कृष्ट अंश हैं, श्रर कृष्ण का जघन्य अंश है । मघवी पृथ्वी विषै कृष्ण का मध्यम अंश है । माघवी सातवीं पृथ्वी विषे कृष्ण का उत्कृष्ट अंश है ।
पर- तिरियाणं श्रोघो, इगि-विगले तिष्णि चत्र असणिस्स । सणि-प्रपुण्णग-मिच्छे, सासणसम्मे विप्रसुह-तियं ॥। ५.३० ॥
नरतिरश्वामोघः एकविकले तिस्रः चतस्र प्रसंज्ञिनः । संत्यपूर्णक मिथ्यात्वे सासादनसम्यक्त्वेऽपि प्रशुभत्रिकम् ||५३०||
टीका मनुष्य पर तियंचनि के 'ओघ' कहिए सामान्यपने कहीं ते सर्व लेश्या पाड़ए हैं। यहां एकेंद्री पर विकलत्रय इनके कृष्णादिक तीन अशुभ लेश्या हि पाइए हैं । बहुरि असैनी पवेंद्री पर्याप्तक के कृष्णादि च्यारि लेश्या पाइए हैं, जाते सैनी पंचेंद्री कपोत लेश्या सहित मरें, तौ पहिले नरक उपजें । तेजोलेश्या सहित मरें, तो भवनवासी र व्यंतर देवनि विषै उपवें । कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या सहित मरें, तो यथायोग्य मनुष्य तिर्यंच विषे उपजे तातें ताके व्यारि लेश्या हैं । बहुरि सैनी लब्धि अपर्याप्तक तियंत्र वा मनुष्य मिथ्यादृष्टी बहुरि श्रपि शब्द तें सनी लब्धि पर्याप्त तिथंच मनुष्य मिथ्यादृष्टी, बहुरि सासादन सुरणस्थानवती निर्वृति पर्याप्त तिर्यंच वा मनुष्य वा भवनत्रिक देव इनिविषे कृष्णादिक तीन अशुभ लेश्या ही हैं। तिर्यच भर मनुष्य जो उपशम सम्यग्दृष्टी होइ, ताके प्रति संक्लेश परिणाम होइ, तो भी देशसंयमीवत् कृष्णादिक तीन लेश्या न होंइ । तथापि जो उपशम सम्यक्त्व की विराधना करि सासादन होइ, ताक अपर्याप्त अवस्था विष तीन अशुभ लेश्या ही पाइए हैं ।
-
भोगापुण्णगसम्मे, काउस्स जहण्णियं हवे नियमा । सम्मे वा मिच्छे वा, पज्जते तिणि सुहलेस्सा ॥ ५३१ ॥
भters पूर्णसम्यक्त्वे, कापोतस्य जघन्यकं भवेन्नियमात् । erred मिथ्यात्वे वा पर्याप्ते तिस्रः शुभलेश्याः ॥५३१॥
टीका भोग भूमि विषे निर्वृति अपर्याप्तक सम्यग्दृष्टी जीव विषै कपोत लेश्या का जधन्य अंश पाइए है। जातें कर्मभूमिया मनुष्य वा तिर्यच पहिले मनुष्य
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६०० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५३२-५३५
ar तिचा का कीया, पीछे क्षार्थिक ar are ear को अंगीकार करि मरे, तिस सहित ही तहां भोगभूमि विषै उपजै । वहाँ तिस योग्य संक्लेश परिणाम कपोत का जघन्य अंश, तिसरूप परिणमें है। बहुरि भोगभूमि विषं पर्याप्त अवस्था विषं सम्यदृष्टी वा मिथ्यादृष्टी जीव के पीतार्दिक तीन शुभलेश्या ही पाइए हैं ।
अयोति छ लस्साओ, सुह-तिय-लेस्सा हु वेसविरद-तिये । तत्तो सुक्का लेस्सा, जोगिठाणं अलस्सं तु ॥ ५३२॥
संयत इति षड् लेश्याः, शुभवयलेश्या हि देशविरतत्रये । ततः शुक्ला लेश्या, अयोगिस्थानमलेश्यं तु ॥ ५३२॥
eter श्रसंयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विषै छौ लेश्या हैं । देशविरत श्रादि तीन गुणस्थाननि विषे पोतादिक तीन शुभलेश्या ही हैं। तातें ऊपर अपूर्वकरण तैं लगाइ सयोगी पर्यंत छह गुणस्थाननि विषै एक शुक्ल लेश्या ही है । अयोगी गुणस्थान लेश्या रहित है जाते, तहां योग कषाय का प्रभाव है ।
णट्ठ-कसाये लेस्सा, उच्चदि सा भूद-पुव्व-गविणाया । ग्रहवा जोग-पउत्ती, मुक्खो ति तहि हवे लस्सा ॥ ५३३ ॥
नष्टकषाये लेश्या, उच्यते सा भूतपूर्वगतिन्यायात् ।
अथवा योगप्रवृत्तिः, मुख्येति तत्र भवेल्लेश्या ।। ५३३ ।।
टीका - उपशांत कषायादिक जहां कषाय नष्ट होइ गए, जैसे तीन गुणस्थाननि विषै कषाय का प्रभाव होतें भी लेश्या कहिए हैं, सो भूतपूर्वगति न्याय हैं कहिए हैं । पूर्वे योनि की प्रवृत्ति कषाय सहित होती थी, तहां लेश्या का सद्भाव था, इहां योग पाइए है; तातें उपचार करि इहां भी लेश्या का सद्भाव कहा । अथवा योनि की प्रवृत्ति, सोई लेश्या, असा भी कथन है, सो योग इहां है ही, ताकी प्रधानता करि तहां लेश्या है |
तिन्हं दोपह दोह, छण्हं दोपहं च तेरसहं च । एतोय चोट्सह, लोस्सा श्रवणादि देवाणं ॥ ५३४॥
तेऊ तेऊ तेऊ, पम्मा पम्मा ये सम्म सुक्काय । सुक्का य परमसुक्का, भवणतिया पुण्णगे सुहा ॥ ५३५॥
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सम्यग्ज्ञानचरित्रका माटोका
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प्रारणां द्वयोर्द्वयोः षण्णां द्वयोश्च त्रयोदशानां च । एतस्माच्च चतुर्दशानां लेश्या भवनादिदेवानाम् ॥५३४।। तेजस्तेजस्तेजः पद्मा पद्मा च पद्यशुक्ले च । शुक्ला च परमशुक्ला, भवनत्रिकाः प्रपूर्णके शुभाः ॥ ५३५ ॥
टीका - देवनि के लेश्या कहिए हैं - तहां पर्याप्त भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी इनि भवत्रिक के तेजो लेश्या का जघन्य अंश है । सौधर्म - ईशान, दोय स्वर्गवालों के तेजोलेश्या का मध्यम अंश है । सनत्कुमार माहेंद्र स्वर्गवालों के तेजो लेश्या का उत्कृष्ट अंश पर पद्म लेश्या का जघन्य अंश है । ब्रह्म आदि छह स्वर्गवालों के पद्म लेश्या का मध्यम अंश है | पातार सहस्रार दोय स्वर्गवालों के पद्म लेश्या का उत्कृष्ट अंश घर शुक्ल लेश्या का जधन्य अंश है । आनत श्रादि च्यारि स्वर्ग र नव ग्रैवेयक इनि तेरह वालों के शुक्ल लेश्या का मध्यम अंश है । ताके ऊपर नव अनुदिश पर पंच अनुत्तर इति चौदह विमान वालों के शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट भ्रंश है । बहुरि भवनत्रिक देवनि के अपर्याप्त अवस्था विषे कृष्णादि तीन
शुभ लेश्या ही पाइए हैं। याही तैं यह जानिए है, जो वैमानिक देवनि के पर्याप्त वा अपर्याप्त अवस्था विषे लेश्या समान ही है । जैसे जिस जीव के जो लेश्या पाइए, सो जीव तिस लेश्या का स्वामी जानना । इति स्वाम्यधिकारः ।
af area अधिकार कहै हैं
वष्णोदय- संपादिद-सरवण्णो दु वव्वदी लेस्सा | मोहृदय खओवसमोवसम खयज- जीवफंदणं भावो ॥५३६॥
-
वर्षोदयसंपादित - शरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या ।
मोहोदय क्षयोपशमोपशमक्षयजजीवस्पन्दो भावः ॥ ५३६ ॥
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टीका वर्ण नामा नामकर्म के उदय ते उत्पन्न भया जो शरीर का वर्ण, सो
द्रव्य लेश्या है । तातें द्रव्य लेश्या का साधन नामा नामकर्म का उदय है । बहुरि असंयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विषै मोहनीय कर्म का उदय तें देश विरतादिक तीन गुणस्थाननि विषै मोहनीय कर्म का क्षयोपशम तें उपशम श्रेणी विषै मोहनीय कर्म का उपशम तैं क्षपक श्रेणी विषै मोहनीय कर्म का क्षय तें उत्पन्न भया जो जीव का स्पंद, सो भाव लेश्या है । स्पंद कहिए जीव के परिणामनि का चंचल होना वा
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[ गोम्मटसारं औषका गारा ५३७
जीव के प्रदेशनि का चंचल होना, सो भाव लेश्या है। तहां परिणाम का चंचल होना कषाय है। प्रदेशनि का चंचल होना योग है। तीहिं कारण करि योग कपायनि करि भाव लेश्या कहिए है। तातै भाव लेश्या का साधन मोहनीय कर्म का उदय था क्षयोपशम वा उपशम वा क्षय जानना । इति साधनाधिकारः ।
प्रागें संख्याधिकार छह गायानि करि कहैं हैंकिण्हादि-रासिमावलि-असंखभागेण भजिय पविभत्ते। हीणकमा कालं या, अस्सिय दवा दु भजिदया ॥५३७॥
कृष्णाविराशिमावल्पसंख्यभागेन भवस्या प्रविभक्त ।
होनक्रमाः कालं वा, प्राश्रित्य द्रव्यारिण तु भक्तव्यानि ॥५३७॥ टीका - कृष्णादिक अशुभ तीन लेश्यावाले जीवनि का प्रमाण है, सो तीन शुभ लेश्यावालों का प्रमाण कौं संसारी जीवनि का प्रमाण मैं स्यों घटाए, जितना रहे तितना जानना; सो किंचिदून संसारी राशिमात्र भया । ताकौं प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाय दीजिए, तहां एक भाग बिना अयशेष बहुभाग रहे, तिनके तीन भाग करिए, सो एक-एक भाग एक-एक लेश्यावालों का समान रूप जानना । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताकौं पावली का असंख्यातवां भाग का भाग देइ, तहां एक भाग जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहें, सो पूर्व समान भागनि विर्षे जो कृष्णा लेश्यावालों का वट (हिस्सा) था, तिसविर्षे जोडि दीए, जो प्रमाण होइ, तितने कृष्ण लेश्यावाले जीव जानने । बहरि जो वह एक भाग रहा था, ताकौं प्रावली का असंख्यातवा भाग का भाग देइ, तहां एक भाग कौं जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहै, ते पूर्व समान भाग विर्षे नील लेश्यावालों का बट था, तिसविर्षे जोडि दीए, जो प्रमाण होइ, तितने नील लेश्यावाले जीव जानने । बहरि जो वह एक भाग रहा था, सो पूर्वे समान भाग विर्षे कपोत लेश्यावालों का वट था; तिसविर्षे जोडे, जो प्रमाण होइ, तितने कपोत लेश्यावाले जीव जानने । जैसें कृष्णलेश्यादिक तीन लेश्यावालों का द्रव्य करि प्रमाण कह्या, सो क्रमतें किछू किछू घटता जानना ।
अथवा काल अपेक्षा द्रव्य करि परिमाण कीजिए हैं । कृष्ण, नील, कपोत तीनों लेश्यानि का काल मिलाए, जो कोई अंतर्मुहुर्त मात्र होइ, ताकौं प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग कौं जुदा राखि, अवशेष बहुभाग
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सम्यग्ज्ञानवधिका भाषाटीका ]
रहै, तिनिका तीन भाग कीजिए, तहां एक एक समान भाग एक एक लेश्या कौं दोजिए । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताकौं प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिये, तहां एक भाग को जुदा राखि अवशेष बहुभाग रहे, सो पूर्वोक्त करण लेश्या का समान भाग विर्षे मिलाइए, बहुरि अवशेष जो एक भाग रह्या, ताकौं प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग कौ जुदा राखि, अवशेष बहुभाग पूर्वोक्त नीललेश्या का समान भाग विष मिलाइए । बहुरि जो एक भाग रह्या, सो पूर्वोक्त कपोत लेश्या का समान भाग विषं मिलाइए, असे मिलाए, जो जो प्रमाण भया, सो सो कृष्णादि लेश्यानि का काल जानना ।
अब इहां राशिक करना । तहां तीनू लेश्यानि का काल जोडै, जो प्रमाण भया, सो तौ प्रमाणराशि, बहुरि अणुभ लेश्यावाले जीवनि का जो किंचित् ऊन संसारी जीव मात्र प्रमाण सो फलराशि । बहुरि कृष्णलेश्या का काल का जो प्रमाण सोई इच्छाराशि, तहां फल करि इच्छा कौं गुणे, प्रमाण का भाग दीए, लब्धराशि किंचित् ऊन तीन का भाग अशुभ लेश्यावाले जीवनि का प्रमाण कौं दीए, जो प्रमाण भया, तितने कृष्णलेश्यावाले जीव जानने । जैसे ही प्रमाणराशि, फलराशि, पूर्वोक्त इच्छाराशि अपना - अपना काल करि नील वा कपोत लेश्या विषं भी जीवनि का प्रमाण जानना । प्रैस काल अपेक्षा द्रव्य करि अशुभलेश्यावाले जीवनि का प्रमाण कह्या है ।
खेत्तादो असहतिया, अणंतलोगा कमेण परिहीणा। कालादोतोदावो, अणंतगुणिदा कमा हीणा ॥५३॥
क्षेत्रतः अशुभत्रिका, अनंतलोकाः क्रमेण परिहीनाः ।
कालादतीतादनंतमुरिणताः क्रमादीनाः ।।५३८॥ टोका - क्षेत्र प्रमाण करि अशुभ तीन लेश्यावाले जीव अनंत लोक मात्र जानने । लोकाकाश के प्रदेशनि से अनंत गुण हैं; तहां क्रमते हीनकम जानने । कृष्णलेश्यावालों से कि घाटि नील लेश्यावालों का प्रमाण है । नील लेश्यावालौं से किछु घाटि कोत लेश्यावालों का प्रमाण है । बहुरि इहां प्रमाणराशि लोक, फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि अपने - अपने जीवनि का प्रमाण कीएं, लब्धिराशिमात्र अनंत शलाका भई । बहुरि प्रमाण एक शलाका, फल एक लोक, इच्छा अनंत शलाका कीएं, लब्धराशि अनंत लोक मात्र कृष्णादि लेश्यावाले जीवनि का
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६१२ ]
योगमटसार जीवकाष्ठ गाया ५३९.५४०
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प्रमाण हो है। बहुरि काल प्रमाण करि अशुभ तीन लेण्यावाले जीव, अतीत काल के समयनिका प्रमाण से अनंत गुपे हैं । इहां भी पूर्वोक्त हीन क्रम जानना । बहुरि इहां प्रमाणराशि अतीत काल, फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि अपने - अपने जीवनि का प्रमाण कोए, लब्धराशिमात्र अनंत शलाका भई । बहुरि प्रमाण एक शलाका, फल एक अतीत काल, इच्छा अनंत शलाका करि, 'लब्ध राशि अनंत अतीत कालमात्र कृष्णादि लेश्यावाले जीवनि का प्रमाण हो है ।
केवलणाणाणंतिमभागा भावाद किण्ह-तिय-जीवा । तेउतिया संखेज्जा, संखासंखेज्जभागकमा ॥५३॥
केवलज्ञानानंतिमभागा भावात्तु कृष्णत्रिकजीवाः ।
तेजस्त्रिका असंख्येयाः संख्यासंख्येयभागक्रमाः ॥५३९।। टीका - बहुरि भाव मान करि अशुभ तीन लेश्यावाले जीव, केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण के अनंतवें भाग प्रमाण हैं । इहां भी पूर्ववत् हीन क्रम जानना । बहुरि इहां प्रमाण राशि अपने - अपने लेपयावाले जीवनि का प्रमाण, फल एक शलाका, इच्छा केवलज्ञान कीए, लब्ध राशिमात्र अनन्त प्रमाण भया, इसकौं प्रमागराशि करि फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि केवलज्ञान कीए केवलज्ञान के अनन्त भाग मात्र कृष्णादि लेश्यावाले जीवनि का प्रमाण हो है। बहुरि तेजोलेश्या प्रादि तीन शुभलेश्यावालों का प्रमाण असंख्यात है, तथापि तेजोलेश्यावालों के संख्यातवें भाग पद्मलेश्या वाले हैं, पालेश्या बालों के असंख्यातवें भाम शुक्ल लेश्यावाले हैं । अॅसे द्रव्य करि शुक्ललेश्यावालों का प्रमाण कह्या ।
जोइसियादो अहिया, तिरक्खसण्णिस्स संखभागोदु । सूइस्स अंगुलस्स य, असंखभागं तु तेउतियं ॥५४०।।
ज्योतिष्कतोऽधिकाः, तिर्यक्संजिनः संख्यभागस्तु ।
सूचेरंगुलस्य. च, असंख्यभामं तु तेजस्त्रिकम् ।।५४०॥ टीका - तेजो लेश्यावाले जीव ज्योतिष्क राशि तें कि अधिक हैं । कैसे ? सो कहिए हैं - पैसठि हजार पाचसै छत्तीस प्रतरांगुल का भाग, जगत्प्रतर कौं दीए, 'जो प्रमाण होइ, तितने तो ज्योतिषी देव । बहुरि धनांगुल का प्रथम वर्गमूल करि
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सम्याज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ६१३
जगच्छेशी को गुरौं, जो प्रमाण होइ, तितने भवनवासो । बहुरि तीन से योजन के वर्ग का भाग जगत्प्रतर को दोए जो प्रमाण होइ, तितने व्यंतरः । बहुरि घनांगल का तृतीय वर्गमूल करि जगच्छे जो की गुण, जो प्रमाण होइ, तितने सौधर्म ईशान स्वर्ग के वासी देव बहुरि पांच बार संख्यात करि गुणित पणट्टी प्रमाण प्रतसंगुल का भाग, जगत्प्रतर की दीए, जो प्रनाम होइ, तिने तेजोलेश्याले बहुरि संख्यातः तेजोलेश्यावाले मनुष्य, इति सबनि का जोड़ दीए, जो प्रमाण होइ, तितने जीव तेजोलेश्याचाल जानने । बहुरि पालेश्यावाले जीव, तेजोलेश्यावाले जीवनि तें संख्यात गुणे घाटि हैं। तथापि तेजोलेश्यावाले संज्ञी तियंचति तें भी संख्यात गुणे घाटि हैं; जाते पद्मलेश्यावाले पंचेंद्री सैनी तिर्यंचनि का प्रमाण विषे पलेश्यावर ले कल्पवासी देव र मनुष्य, तिनिका प्रमाण मिलाए, जो जगत्प्रतर का प्रसंख्यातवें भागमात्र प्रमाण भया तितने पथलेश्यावाले जीव हैं । बहुरि शुक्ललेश्यावाले जीव सूच्यंगुल के श्रसंख्यातवें भाग प्रभाग हैं । असे क्षेत्र प्रमाण करि तीन शुभ लेश्यावाले जीवनि का प्रमाण कहा ।
बेसदछप्पण्णंगुल-कंदि-हिद- पदरं तु जोइसियमाणं ।
दस् य संखेज्जदिमं तिरिकखसीण परिमाणं ॥५४१॥
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द्विशतषट्पंचाशदंगुलक लिहितप्रतरं तु ज्योतिष्कमानम् । तस्य च संख्येयतमं तिर्यक्संज्ञिनां परिमाणं ॥ ५४१
टीका - पूर्वे जो तेजोलेश्यावालों का प्रमाण ज्योतिषी देवराशि तें साधिक कला, अर पद्मलेश्या का प्रमाण संज्ञी तियंचनि के संख्यातवें भागमात्र का, सो दोय से छप्पन का वर्ग पणट्टी, तीहि प्रसाराः प्रतरांगुल का भाग जगत्प्रतर कौं दीएं, जो प्रमाण होइ, लितने ज्योतिषी जानने । बहुरि इनके संख्यातवें भाग प्रमाण सैनी तिर्यत्वनि का प्रमाण जानता।
are असंखnter, पल्लासंखेज्जभागया सुक्का ।
ओहि प्रसंखेज्जदिमा, तेउतिया भावदो होति ॥५४२ ॥
aster : असंख्यकल्पाः मॅल्या संख्येयभागकाः शुषलाः । अवध्यसंख्येयाः तेजस्त्रिका भावतो भयंतिः ॥ ५४२ ॥ ३
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६१४ ]
गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३४३
टीका -- तेजोलेश्या, पयलेश्यावाले जीव प्रत्येक असंख्यात कल्प प्रमाण है। तथापि तेजोटेश्यावालों में संस्थातवें भागमात्र पालेश्यावाले हैं। कल्पकाल का प्रमाण जितने बोस कोडाकोडि सागर के समय होंहि, तितना जानना । बहुरि शुक्ललेण्यावाले पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । असे काल प्रमाण करि तीन शुभलेश्यादाले जीवनि का प्रमाण कह्या । बहुरि अवधिज्ञान के जितने भेद हैं, तिनके असंख्यातवें भागप्रमारण प्रत्येक तीन शुभलेश्यावाले जीव हैं । तथापि तेजोलेश्यावालों के संख्यातवें भागमात्र पधलेश्यावाले हैं । पद्मलेश्यावालों के असंख्यातवें भाग मात्र शुक्ललेश्यावाले हैं । असे भाव प्रमाण करि तेज, पद्म, शुक्ल लेश्यावालों का प्रमाण कह्या । इति संख्याधिकारः ---
आगे क्षेत्राधिकार कहै हैं --- सट्ठाणसमुग्धादेउववादे सव्वलोयमसहाणं । लोयस्सासंखेज्जविभागं खेत्तं तु तेउतिये ॥५४३॥
स्वस्थानसमुद्घासे, उपपादे सर्वलोकमशुभानाम् ।
लोकस्यासंख्येयभागं क्षेत्रं तु तेजस्त्रिके ।।५४३॥ टीका - विवक्षित लेश्यावाले जीव वर्तमान काल विर्षे विधक्षित स्वस्थानादि विशेष लीएं जितने आकाश विर्षे पाइए, ताका नाम क्षेत्र है । सो कृष्ण प्रादि तीन अशुभ लेश्यानि का क्षेत्र स्वस्थान विर्षे वा समुद्घात विर्षे वा उपपाद विर्षे सर्वलोक है । बहुरि तेजोलेश्या प्रादि तीन शुभलेश्यानि का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, जैसे संक्षेप करि क्षेत्र कह्या ।
बहरि विशेष करि दश स्थानकनि विर्षे कहिए हैं । तहां स्वस्थानकनि के तौ दोय भेद-एक स्वस्थानस्वस्थान, एक बिहारवत् स्वस्थान । तहां विवक्षित लेश्यावाले जीव, जिस नरक, स्वर्ग, नगर, ग्रामादि क्षेत्र विष उपजे होंहि, सो तौ स्वस्थानस्वस्थान है । बहुरि विवक्षित लेश्यावाले जीवनि को विहार करने के योग्य जो क्षेत्र होइ, सो विहारक्तस्वस्थान है।
बहुरि अपने शरीर से केते इक प्रात्मप्रदेशनि का बाह्य निकसि यथायोग्य फैलना, सो समुद्घात कहिए। ताके सात भेद - वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणां. तिक, तंजस, आहारक, केवल ।
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का भाषादीका 1
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तहां जो बहुत पीडा के निमित्त तें प्रदेशनि का निकसना, सो वेदना समुद्घात है । बहुरि क्रोधादि कषाय के निमित्त तें प्रदेशनि का निकसना; सो कषायसमुदुधात है । विक्रिया के निमित्त लें प्रदेशनि का निकसना; सो वैक्रियिक समुद्घात है । मरण होते पहिले जो नवीन पर्याय के धरने का क्षेत्र पर्यंत प्रदेशनि का निकसना; सो मारणांतिक समुद्घात है । अशुभरूप वा शुभरूप तेजस शरीरनि करि नगरादिक को जलावै वा भला करें, ताकी साथि जो प्रदेशनि का निकसना, सो तेजस्र समुद्घात है । प्रमत्त गुणस्थानवाले के ग्राहारक शरीर की साथि प्रदेशनि का निक्सना सो आहारक समुद्घात है । केवलज्ञानी के दंड कपाटादि क्रिया होतें प्रदेशनि का निकसना; सो केवली समुद्घात है । जैसे समुद्घात के सात भेद हैं ।
बहुरि पहले जो पर्याय धरता था, ताकों छोडि, पहिले समय अन्य पर्याय रूप होइ, अंतराल विषै जो प्रवर्तना; सो उपवाद कहिए। याका एक भेद हो है । जैसे ए दश स्थान भए । तहां कृष्णले लावाले जीवणि काया रेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात, उपपाद इनि पंच पदनि विषै क्षेत्र सर्व लोक जानता । अब इनि जीवनि का प्रमाण कहिए हैं
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कृष्ण श्यावालों का जो पूर्वे परिमाण कला, तार्कों संख्या का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण तो स्वस्थानस्वस्थानवाले जीव हैं । भाग देइकरि तहां एक भाग को तो जुदा राखिए, अवशेष जो रहै, ताक बहुभाग कहिए, यहू सर्वत्र जानना । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताकी संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण वेदनासमुद्घातवाले जीव हैं । बहुरि जो एक भाग रह्या, तार्कों संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमारण कषाय समुद्घातवाले जीव हैं । बहुरि एक भाग रह्या, ताक फलराशि करिए, बहुरि एक निगोदिया का आयु सांस के अठारह भाग तिस प्रमाण अंतर्मुहूर्त के जेते समय होंइ, सो प्रमाण राशि करिए । बहुरि एक समय की इच्छा राशि करिए। तहां फल की इच्छाराशि करि गुणि, प्रमाण का भाग दीएं, जेता प्रमाण आवं, तितना जीव उपपादवाले हैं । बहुरि इस उपपादवाले जीवनि के प्रमाण को मारणांतिक समुद्घात काल अंतर्मुहूर्त, ताके जेते समय होंहि, तिनकरि गुणे, जो प्रमाण होइ, तितने जीव मूलराशि के संख्यातवें भागमात्र मारणांतिक समुवातवाले जानते, असे ए जीव सर्वलोक विषै पाइए । ताते इनिका क्षेत्र सर्वलोक है । बहुरि विहारवत्स्वस्थान विषे क्षेत्र संख्यात सूच्यंगुलनि करि जगत्प्रतर की गुरौं, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । कैसे ? सो कहिए हैं
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गोकरसार जीवकर गाथा ५४३
कृष्ण लेण्यावाले पर्याप्त त्रस जीवनि का जो प्रमाण, पर्याप्त त्रस राशि के किचिदून विभाग मात्र है । ताकौं संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण
वस्थानना थान त्रि हैं। गणेष एक भाग रह्या, ताकी संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण विहारवत्स्वस्थान विर्षे जीव जानने । अवशेष एक भाग रह्या, सो अवशेष यथायोग्य स्थान विर्षे जानना ! अब इहां अस पर्याप्त जीवनि की जघन्य, मध्यम अवगाहना अनेक प्रकार है; सो हीनाधिक बरोबरि करि संख्यात घनांगुल प्रमाण मध्यम अवगाहना मात्र एक जीव की अवगाहना का ग्रहण कीया, सो इस अवगाहना का प्रमाण की फलरशि करिए, पूर्व जो विहारवत्स्वस्थान जीवनि का प्रमाण कह्या, ताकी इच्छाराशि करिए, एक जीव की प्रमाण राशि करिए । तहां फलकरि इच्छा कौं गुणि, प्रमाण का भाग दीए, जो संख्यात सूच्यंगुलकरि गुण्या हूबा, जगत्तर प्रमाण भया, सो विहारचत् स्वस्थान विष क्षेत्र जानना । बहुरि वैक्रियिक समुद्धात विर्षे क्षेत्र धनांगुल का वर्ग करि असंख्यात जगच्छ रणी कौं गुण, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । कैसे ! सो कहिए हैं -:...... .. .
कृष्ण लेश्यावाले वैक्रियिक शक्ति करि 'युक्त जीवनि का जो प्रमाण वैक्रियिक योगी जीवनि का किंचिदन विभाग मात्र है। ताकी संख्यातः का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण स्वस्थानस्वस्थान विर्षे जीव हैं। अवशेष एक भाग रद्या, ताकौं संख्यात का भाग दोजिये, तहां बहुभाग प्रमाण विहारवत् स्वस्थान. विषे जोव हैं। अवशेष एक भाग रहया, ताकौं संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाम प्रमाण वेदना समुद्घात विषं जीव हैं । अवशेष एक भाग रह्या, तरको संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण कवाय समुद्धात विर्षे जीव हैं । अवशेष एक भाग प्रमाण बंक्रियिक समुद्घात विष जीव प्रवत हैं । असैं जो वैक्रियिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमागा कह्या, ताकौं होनाधिक बरोबरि करि एक जीव संबंधी बैंक्रियिक समुद्घात का क्षेत्र संख्यात धनांगुल प्रमाण है: तिसकरि गुणें, जो धनांगुल का वर्ग करि गुण्या हूवा असंख्यात श्रेणीमात्र प्रमाण भया; सो वैक्रियिक समुद्धात का क्षेत्र जानना । बहुरि इन ही का सामान्यलोक, अधोलोक, ऊर्ध्वलोक, तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक इनि पंच लोकनि की अपेक्षा व्याख्यान कीजिए है --
समस्त जो लोक, सो सामान्यलोक है। मध्यलोक तें नीचे, सो अधोलोक है। मध्यलोक के ऊपरि अवलोक है। मध्यलोक विर्षे एक राजू चौडा, लाख योजन ऊंचा तिर्यक्लोक है। गैंतालीस लान योजन चौडा, लाख योजन ऊंचा मनुष्यलोक है।
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सम्यक्षामन्द्रिका भाषाटीका !
प्रश्न-तहां कृष्ण लेश्यावाले स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसभुद्धात, मारणांतिकसमुद्घात, उपपाद इनि विर्षे प्रवर्तते जीव कितने क्षेत्रवि तिष्ठे हैं ?
तहां उत्तर - जो सामान्यादिक पांच प्रकार सर्वलोक विष तिष्ठे हैं । बहरि विहारवत् स्वस्थान विर्षे प्रवर्तते जीव, सामान्य लोक - अधोलोक • ऊर्ध्वलोक का तौ असंख्यातवां भाग प्रमारण क्षेत्र विय तिष्ठं हैं। पर तिर्यक्लोक ऊंचा लाख योजन प्रमाण है । पर एक जीव की उंचाई, बांके संख्यातवें भाग प्रमाण है । तातै तिर्यक लोक के संख्यातवें भाग प्रमारा क्षेत्र विष तिष्ठे हैं । अर मानुषोत्तर पर्वत के मध्यवर्ती जो मनुष्य लोक तातै प्रसंख्यात गुणा क्षेत्र विर्षे तिष्ठ हैं । बहुरि वैक्रियिक समुद्धात विर्षे प्रवर्तते जीय, सामान्यादिक ख्यारि लोक, तिनके असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र विर्षे तिष्ठे हैं । पर मनुष्य लोक ते असंख्यात गुणा क्षेत्र विर्षे तिष्ठ हैं; जात वैक्रियिक समुद्धातवालों का क्षेत्र असंख्यात मुरणा धनागुल का वर्ग करि मुंणित जगच्छगीमात्र हैं । असे सात स्थान दिने व्यापक होगा।
बहुरि तैजस समुद्घात, आहारक समुद्घात, केवली समुद्घात इन लेश्यावाल जोवनि के होता नाही, तात, इंनिका कथन न कीया ।
इसप्रकार जैसे कृष्णलेश्या का व्याख्यान कीया; तैसे ही नीललेश्या, कपोतलेश्या का व्याख्यान जानना । विशेष इतनां जहां कृष्णलेश्या का नाम कह्या है; तहां नीललेश्या वा कपोतलेश्या का नाम लेना । अब तेजो लेश्या का क्षेत्र कहिए हैं
तहां प्रथम ही जीवनि का प्रमाण कहिए हैं - तेजोलेश्याबाले जीवनि का संख्या अधिकार विर्षे जो प्रमाण कह्या, ताकौं संख्यात का भाग दीजिए, तहाँ बहुभाग स्वस्थानस्वस्थान विर्षे जानना । एक भाग रह्या, ताकौं संख्यात का भाग दीजिए. तहां बहुभाग विहारवत् स्वस्थान विर्षे जानना । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताकौं संख्यात का भरग दीजिए, तहां बहुभाग वेदना समुद्घात विर्षे जानना । बहुरि जो एक भाग रहा, ताकौं संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग वेदना समुद्धात विर्षे जानना । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताको संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग कषाय समुद्घात विर्षे जानना । बहुरि एक भाग बैंक्रियिक समुद्घात विष जानना। असे जीवनि का परिमारा कह्या है अब तेजो लेश्या मुख्यपर्न अवनत्रिक प्रादि देवति के पाइए है; तिमिविषै एक देव का शरीर का अवगाहना का प्रमाण मुख्यता
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करि सात धनुष ऊंचा पर सात धनुष के दशवें भाग मुख की चौड़ाई है, प्रमाण जाका असा है, सो याका क्षेत्रफल कीजिए है।
वासोति गुणो परिही, वास चउस्थाहदो वु खेत्तफलं ।
खेतफलं वेहिगुणं, खारफलं होदि सम्वत्थ ।। इस करणसूत्र करि क्षेत्रफल करना । गोल क्षेत्र विष चौडाई के प्रमाण से तिगुणा तौ परिधि होइ । इस परिधि कौं चौडाई का चौथा भाग ते गुणे, क्षेत्रफल होइ । इस क्षेत्रफल की ऊंचाई रूप जो बेध, ताके प्रमाण करि गुणे, धनरूप क्षेत्र. फल हो है । सो इहां सात धनुष का दशवां भागमात्र चौडाई, ताकौं तिगुणी कीए, परिधि होइ । याकौ चौंडाई का चौथा भाग करि गुणे, क्षेत्रफल हो है । याकौं बेध सात धनुष करि गुणे, धनरूप क्षेत्रफल हो है ! बहुरि जो धनराशि होइ, ताके गुणकार भागहार घनरूप ही होइ । तातें इहां अंगुल करने के निमित्त एक धनुष का छिन अंगुल होइ, सो जो धनुषरूप क्षेत्रफल भया, ताकी छिनवे का धन करि गुरिणए । बहुरि इहां तो कथन प्रमाणांगुल तें हैं । श्रर देवनि के शरीर का प्रमाण उत्सेधांगुल से है । तातें पांच से का धन का भाग दीजिए; असे करते प्रमाणरूप घनांगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण एक देव का शरीर की अवगाहना भई । इसकरि पूर्व जो स्वस्थानस्वस्थान वि. जीवनि का प्रमाण कहा था, ताकौं गुण, जो प्रमाण होइ, तितना क्षेत्र स्वस्थानस्वस्थान विर्षे जानना ।
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बहुरि वेदनासमुद्घात विर्षे धा कषायसमुद्धात विर्षे प्रदेश मूल शरीर ते बाह्य निकसै, सो एक प्रदेश क्षेत्रकौं रोक वा दोय प्रदेश मात्र क्षेत्र कौं रोक, असे एक-एक प्रदेश बधता जो उत्कृष्ट क्षत्र रोके, तो मूल शरीर तें चौडाई विर्षे तिगुणा क्षेत्र रोके अर उचाई मूल शरीर प्रमाण ही है । सो याका घनरूप क्षेत्रफल कीएं, मूल शरीर के क्षेत्रफल तें नव गुणा क्षेत्र भया, सो जघन्य एक प्रदेश अर उत्कृष्ट मूल शरीर तें नव गुणा क्षेत्र भया; सो होनाधिक कौं बरोबरि कोएं एक जीव के मूल शरीर ते साढा च्यारि गुणा क्षेत्र भया; सो शरीर का प्रमाण पूर्वं धनागुल के संख्यातवें भाग प्रमारण कया था, ताकौं साढा चारि गुणा कीजिए, तब एक जीव संबंधी क्षेत्र भया । इसकरि वेदना समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुरिणए, तब वेदना समुद्धात विर्षे क्षेत्र होइ । बहुरि कषायसमुद्धातवाले जीवनि का प्रमाण कौं मुरिगए तब कषाय समुद्घात विर्ष क्षेत्र होइ । बहुरि विहार करते देवनि के मूल शरीर से
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सम्यक्षानचन्द्रिका भाषाटीका ] बाह्य प्रात्मा के प्रदेश फैले, ते प्रदेश एक जीव की अपेक्षा संख्यात योजन प्रमाण तौ लंबा, भर सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण चौडा वा ऊंचा क्षेत्र कौं रोक, सो इसका क्षेत्रफल संख्यात धनांगुल प्रमाण भया । इसकरि जो पूर्व बिहारवत्स्वस्थान विष जीवनि का प्रमाण कहा था, ताको मुगिए, तब सर्व जीव संबंधी विहारवत् स्वस्थान विर्षे क्षेत्र का परिमारण होइ । इहां असा अर्थ जानना-जो देवति के मूल शरीर तौ अन्य क्षेत्र विर्षे तिष्ठ है पर विहार करि विक्रियारूप शरीर अन्य क्षेत्र विर्ष तिष्ठं है । तहां दोऊनिके बोधि प्रात्मा के प्रदेश सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग मात्र प्रदेश ऊंचे, चौडे, फैले हैं । अर इहां मुख्यता की अपेक्षा संख्यात योजन लंबे कहे हैं । बहुरि देव अपनी - अपनी इच्छा से हस्ती, घोटक इत्यादिक रूप विक्रिया करें, ताकी अवगाहना एक जीव की अपेक्षा संख्यात धनांगुल प्रमाण है । इसकरि पूर्वं जो वैक्रियिक समुद्घात विर्षे जीवनि का प्रमाण कह्या, ताकौं गुणिए, तब सर्व जीव संबंधी क्रियिक समुद्धात विष क्षेत्र का परिमारण होइ।।
बहरि पीतलेश्यावालेनि विर्षे व्यंतरदेव घने मरे हैं, तातें इहां व्यंतरनि की मुख्यता करि मारणातिक समुद्धात कहिए है । जितना व्यंतर देवनि का प्रमाण है, ताकौं व्यंतरनि की मुख्यपने दश हजार वर्ष आदि संख्यात वर्ष प्रमाण स्थिति के जेते समय होइ, तिनिका भाग दीएं, जेता प्रमाण प्रावै, तितना जीव एक समय विर्षे मरण को प्राप्त हो हैं। बहुरि इनि मरनेवाले जीवनि के पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिये, तहां एक भाग प्रमारण जीवनि के ऋजु गति कहिये, समरूप सूधी गति हो है । बहुरि बहुभाग प्रमाण जीवनि के विग्रह गति कहिये, वक्रता लीए परलोक कौं गति हो है । बहुरि विग्रहगति जीवनि के प्रमाण कौं पल्य के असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण जीवनि के मारगतिक समुद्घात न हो है ।
__बहुरि बहभाग प्रमाण जीवनि के मारणांतिक समुद्धात हो है । बहुरि इस मारणांतिक समुद्घातवाले जीवनि के प्रमाण कौं पल्य का असंख्यातवां भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण समीप थोरेसे क्षेत्रवर्ती मारणांतिक समुद्घातवाले जीव हैं। एक भाग प्रमाण दूर बहुत क्षेत्रवर्ती मारणांतिक समुद्घातवाले जीव हैं । सो एक. समय विर्षे दूर मारणांतिक समुद्घात करनेवाले जीवनि का यह प्रमाण कहा, अर मारणांतिक समुद्घात का काल अंतर्मुहूर्तमात्र है । तातें अंतर्मुहूर्स के जेते समय होंहि, तिनकरि तिस प्रमाण कौं गुणें, जो प्रमाण होइ, तितने एकळे भए, दूर मारणांतिक समुद्घातबाले जीव जानने । तहां एक जीव के दूरि मारणांतिक समुद्घात विर्षे
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[ पोन्मवसार गौवकाण्ड गाथा ५४४ शरीर से बाह्य प्रदेश फैले ते मुख्यपर्ने एक राजू के संख्यातवें भाग प्रमाण लंबे पर सूच्यंगुल के संख्यातभाग प्रमाण चौडे वा ऊंचे क्षेत्र कौं रोके । याका घनरूप क्षेत्रफल कीजिए, तब प्रतरांगुल का संख्यातवां भाग करि जगच्छे रणी का संख्यातवां भाग कौं गुरणे, जो प्रमाण होइ, तितना क्षेव भया । इसकरि दुरि मारणांतिक जीवनि का प्रमाण कौं गुणिये, तब सर्व जीव संबंधी दूर मारणांतिक समुद्घात का क्षेत्र हो है । अन्य मारणांतिक समुद्धात का क्षेत्र स्लोक है, लातें मुख्य ग्रहण तिस ही का कीया । बहुरि तेजस समुद्धात विः, शहीर तें बाह्यप्रदेश. निकस, ते बारा योजन लंबा, नव योजन चौडा, सूच्यंगुल का-संख्याल वां भाग प्रमाण ऊंचा क्षेत्र की रोक, सो याका धनरूप क्षेत्रफल संख्यात धनांगुल:प्रमाण भया । इसकरि तंजस समुद्धात करनेवालों का प्रमाण संख्यात है । तिसकौं गुणे -जो प्रमाण होइ, तितना तैजस समुद्धात विर्षे क्षेत्र जानना । बहुरि आहारक समुद्धात विर्षे एक जाव के शरीर से बाह्य निकसे प्रदेश, ते संख्यात योजन प्रमाण लंबा, पार सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण चौडा ऊंचा क्षेत्र कौं रोके, याका धनरूप क्षेत्रफल संख्यात घनांगुल प्रमाण भया । इसकरि आहारक समुद्धातवाले जीवनि को संख्यीत प्रमाण है; ताकौं गुणे जो प्रमाण होइ, तितना आहारक समुद्घात विष क्षेत्र जानना । मूल शरीर तें निकसि आहारक शरीर जहां जाय, तहां पर्यंत लंबी प्रोत्मा के प्रदेशनि की श्रेणी सूच्यगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण चौडी पर ऊंची आकाश विष हो है; "अंसा भावार्थ जानना । जैसे ही मारणांतिक समुद्घातादिक विर्षे भी भावार्थ जानि लेना।
मरदि असंखेजदिम, तस्सासंखा:य विगहे होति । तस्सासंखं दूरे, उववाद तस्स खु-असंखं ।।५४४॥
म्रियते प्रसंख्येयं, तस्यासंख्याश्च विग्रहे भवति ।
तस्यासंख्य दूरे, उपपावे तस्य खलु प्रसंख्यम् ३५४४॥ टीका - इस सूत्र का अंभिप्राय उपपाद क्षेत्र ल्यावने का है, सो पीत लेश्यावाले सौधर्म - ईशानवर्ती जीव मध्यलोक ते दूर क्षेत्रवती हैं; सो तिनके कथन में क्षेत्र का परिमाण बहुत पावै । बहुत प्रमाण में स्तोक प्रमाण गभित करिए है । तातै तिनकी मुख्यता करि उपपाद क्षेत्र का कथन कीजिए हैं।
सौधर्म - ईशान स्वर्ग के वासी देव घातांगुल का तृतीय वर्गमूल करि जगच्छणी कौं गुरिगए, तितने प्रमाण हैं । इस प्रमाण को पल्य का असंख्यातवां भाग
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सम्यग्मानचन्द्रिका भाषा टोका | का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण एक एक समय विर्षे मरनेवाले जीवनि का प्रमाण हो है । इस प्रमाण की पल्य का असंख्यातवा भाग का- भाग दीजिए, तहाँ बहुभाग प्रमाण विग्रहगति करनेवालों का प्रमाण हो हैं । याकौं पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण मारणांतिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण हो है । याकौं पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण दूर मारणांतिक समुद्धातवाले जीवनि का प्रेमाल हो है । थाकौं द्वितीय दीर्घ दंड विर्षे स्थित मारणांतिक समुद्घात, ताके पूर्व भया जैसा उपपादता करि युज जीवन के प्रमाण स्वायने का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाग उपपाद जीवनि का प्रमाण है । तहां तिर्यंच उपजने की 'मुख्यता करि एक जीव संबंधी प्रदेश फैलने की अपेक्षा डेढ राजू 'लेबर, संख्यात सूच्यंगुल प्रमाण चौडा वा ऊंचा क्षेत्र है । याकी धन क्षेत्रफल" संख्यात प्रतरामुल 'करि 'डैठे राजू कौं गुण, जो प्रमाण भया, तितना जानना । इसकरि उपपाद जीवनि के प्रमाण कौं गुणों, जो प्रमाण होइ, तितना उपपाद विर्षे क्षेत्र जानना बहुरि केवलि समुद्घात 'इंस लेश्या विर्षे है नाहीं; ताते कथन 'न कीया। अंस पीत लेश्या विर्षे क्षेत्र है । प्रागै पद्मलेश्या विर्षे क्षेत्र कहिए है -
संख्याधिकार वि पद्मलेश्या वाले जीवनि को जो प्रमाण कह्या, ताकौं संख्यात का भाग दोजिये, तहां बहुभाग स्वस्थान स्वस्थान विर्षे जानना । अवशेष एक भाग रह्या, ताकौं संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग विहारवत् स्वस्थान विर्षे जानना । अवशेष एक भाग रह्या, ताकी संख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग वेदना समुद्घात विर्षे जानना । अवशेष. एक भाग रह्या, सो कषाय समुद्घात विर्षे जानना । असें जीवनि का प्रमाण कहा। अब यहां पद्मलेश्यावाले विर्यच जीवनि का अवमाहना प्रमाण बहुत है; तातें तिनकी मुख्यता करि कथन कीजिए है ।
‘तहां स्वस्थानस्वस्थान विष पर विहारवत्स्वस्थान विर्षे एक तिथंच जीव की अव. गाहना मुख्यपने कोंस लंबी पर ताके नव मे भाग मुंख का विस्तार, सो याका क्षेत्रफल वासो ति मुरषो परिहो' इत्यादि सूत्र करि करिए, तब संख्यात धनांगुल प्रमाण होई। इसकरि स्वस्थान स्वस्थानवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुणें, स्वस्थान स्वस्थान विर्षे क्षेत्र होइ । पर विहारवत्स्वस्थानवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुणे, विहारवत्स्वस्थान विर्षे क्षेत्र हो है । बहुरि पूर्वोक्त तिथंच शरीर की अवगाहना से पूर्वोक्त प्रकार सादा च्यारि गुणा वेदना अर कषाय समुद्धात विर्षे एक जीव की अपेक्षा क्षेत्र है । इसकरि
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श्रे
गोम्पा काण्ड गाया ५४४
पूर्वोक्त वेदना समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण की गुणिए, तब वेदना समुद्धात विषै क्षेत्र होइ, कषाय समुद्घातवाले जीवनि के प्रमाण कौं गुणें, कषाय समुद्धात विष क्षेत्र का परिमाण हो । बहुरि वैक्रियिक समुद्घांत विषै पद्मलेश्यावाले जीव सनकुमार - माहेंद्र विषै बहुत हैं । तातें तिनकी अपेक्षा कथन करें हैं।
सनत्कुमार महेंद्रविषै देव जगच्छे गी का ग्यारहवां वर्गमूल भाग जगच्छे गी कौं दीए, जो प्रमाण होइ, तिलने हैं। इस राशि को संख्यात का भाग दीजिए, तब बहुभाग स्वस्थानस्वस्थान विषै जीव जानने । अवशेष एक भाग रह्या, ताक संख्यात का भाग दीचिए, वहां बहुत प्रकाविहारयत् स्वस्थान विषे जीव जानने । अवशेष एक भाग रह्या, ता संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण वेदना समुद्घात विष जीव जानने । अवशेष एक भाग रह्या, साकों संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण कषाय समुद्धात विषै जीव जानने । अवशेष एक भाग रह्या, तीहिं प्रमाण वैकियिक समुद्घात विषै जीव जानने । इस वैक्रियिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण को एक जीव संबंधी विक्रियारूप हस्तिघोटकादिकनि की संख्यात धनांगुल श्रमण श्रवगाहना, तिसकरि गुणें, जो प्रमाण होइ, सोई वैक्रियिक समुद्घात विष क्षेत्र जानना | बहुरि मारणांतिक समुद्घात वा उपपाद विषै भी क्षेत्र सनत्कुमार - माहेंद्र अपेक्षा बहुत है । तातै सनत्कुमार महेंद्र की अपेक्षा कथन कीजिए है -
मरदि असंखेज्जदिमं, तस्सासंखा य विग्गहे होंति । तस्तासंखं दूरे, उववादे तस्स खु असंखं ॥
जो सनत्कुमार महेंद्रवासी जीवनि का प्रमाण कह्या, ताक असंख्य कहिए पल्य का असंख्यातवां भाग, ताका भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण समय समय जीव मरण कौं प्राप्त हो हैं । बहुरि इस राशि कौं पल्य का श्रसंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमारण विग्रह गतिवालों का प्रमाण है । बहुरि इस राशि कौं पल्य का श्रसंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण मारणांतिक समुद्घातवाले जीव हैं । बहुरि इसकी पत्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण दूर मारणांतिक समुद्घात वाले जीव हैं । बहुरि इसकों पल्ये का श्रसंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण उपपाद का दंड विषे स्थित जीव हैं । तहां एक जीव अपेक्षा मारणांतिक समुद्धात विषै क्षेत्र तीन राजू लंबा सूच्यंगुल का संख्यातवां भागमात्र चौडा वा ऊंचा क्षेत्र है। इन सनत्कुमार माहें
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HEARTनयन्त्रिका भावादी
प्रवासी देवनि करि कीया मारणांतिक दंड का घनरूप क्षेत्रफल प्रतरांगुल का संख्यातवां भाग करि तीन राजू की गुणें जो प्रमाण होइ, तितना है। इसकरि दूर मारगांतिक समुद्घातवरले जीवनि का प्रमाण कह्या था, ताकौं गुरिगए, तब मारणांतिक समुद्धात विर्षे क्षत्र का प्रमरण होइ, बहुरि उपपाद वि तिर्यच जीवनि करि कीया सनत्कुमार माहेंद्र प्रति उपपाद रूप दंड, सो तीन राजू लंबा, संख्यात सूच्यंगुल प्रमाण चौडा वा ऊंचा है । ताका क्षेत्र फल संख्यात प्रतरांगुल करि गुण्या हूवा तीन राजू प्रमाण एक जीव अपेक्षा क्षेत्र हो है । इसकरि उपपाद वालों के प्रमाण कौं गुण, उपपाद विर्षे क्षेत्र का प्रमाण हो है । बहरि तैजस अरु पाहारक समुदयात विर्षे क्षेत्र जैसे तेजोलेश्या के कथान विर्षे कहा है, तैसे इहां भी संख्यात धनांगुल करि संख्यात जीवनि की गुण, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । बहुरि केवल समुद्घात इस लेश्या विर्षे होता ही नाहीं; असे पद्मलेश्या का क्षेत्र कह्या । आमें शुक्ललेश्या विर्षे क्षेत्र कहिए हैं।
संख्या अधिकार विषं जो सुक्ललेश्यावालों का प्रमाण कद्या, ताको पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण स्वस्थान स्वस्थान विर्षे जीव हैं । अवशेष एक भाग रह्या, ताकी पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए तहाँ बहुभाग प्रमाण विहारवत्स्वस्थान विर्षे जीव हैं । अवशेष एक भाग रह्या, ताकौं पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहाँ बहुभाग प्रमाण वेदनासमुद्घात विर्षे जीव हैं। अवशेष एक भाग रह्या, ताकौं पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण कषाय समुद्धात विषं जीव हैं । अवशेष एक भाग रह्या, तिस प्रमाण वैक्रियिक समुद्धात विर्षे जीव हैं । तहां शुक्ललेश्यावाले देवनि की मुख्यता करि एक जीव का शरीर की अवगाहना तीन हाथ ऊंची इसके दशवें भाग मुख की चौडाई याका वासो ति गुणो परिही इत्यादि सूत्र करि क्षेत्रफल कीजिए, सब संख्यात धनांगुल प्रमाण होइ, इसकरि स्वस्थान स्वस्थानवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुरिगए, तब स्वस्थान स्वस्थान विर्षे क्षेत्र का परिमारा होइ । बहुरि मूल शरीर की अवगाहना तें साढा च्यारि गुणा एक जीव के वेदना पर कषाय समुद्धात विर्षे क्षेत्र है । इस साढा च्यारि गुणा धनांगुल का संख्यातवां भाग करि वेदना समुंद्धातयाले जीवनि का प्रमाण कौं गुणिये, सब वेदना समुद्धात विष क्षेत्र हो है। पर कषाय समुद्धातवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुण, कषायसमुद्घार वि क्षेत्र हो है । बहुरि एक देव के विहार करतें अपने मूल शरीर से बाह्य निकसि उत्तर विक्रिया करि
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[ गोम्मटसार जोधका गाया ५४४
marwaiteatmenाम्य
निपजाया शरीर पर्यंत आत्मा के प्रदेश संख्यात योजना लंबा पर सूच्य मुल के संख्यात भाग चौडा का ऊंचा क्षेत्र कौं रोके, याका धनरूपा क्षेत्रफल संख्यात धनांगुल प्रमाण भया । इसकरि पूर्वोक्त विहारवत्स्वस्थानावाले जीवनि का प्रमाण की गुणे, विहारवत्स्वस्थान वि क्षेत्र हो है । बहुरि अपने अपने योग्य विक्रियारूप बनाया गजादिक शरीरनि की अवगाहना संख्या धनांगुल प्रमाण; तिसकरि वैक्रियिक समुदाघातवाले जीचनि का प्रमाण की गुरणे, वैकिंयिक समुद्घात विर्षे क्षेत्र हो है । बहुरि शुक्ललेल्या मानतादिक देवलोकनि विष पाइए, सो तहां ते मुख्यपने पारण म अच्युत अपेक्षा मध्यलोक छह राजू है । तातें मारणांतिक समुद्घात विर्षे एक जीव के प्रदेश छही राजू लंबे पर सूच्यंगुल के संख्यात भाग चौडे, ऊंचे होइ, सो याका जो क्षेत्रफल एक जीव संबंधी भन्या, ताकौं संख्यात करि गुरिगए, जात पानतादिक ते मरिकरि मनुष्य ही होइ । तातैःमारणांतिक समुद्घातवाले संख्यातवें ही जीव हैं, ताः संख्यात करि गुणिए, असे मुरणे, गो होइ, सो मारणांसिक समुद्घात विर्षे क्षेत्र जानना ।
... . बहुरि तैजस आहारक समुद्घात विर्ष जैसे पद्मलेश्या विर्षे क्षेत्र कहा था, तैसे इहां. भी..जानना । अब केवलसमुद्घात विष क्षेत्र कहिए हैं । .. केवल समुद्घात च्यारि प्रकार दंड, कपाट, प्रतर, लोक पूरयः । तहां दंड दोया प्रकार - एक स्थिति दंङ, एक उपविष्ट दंड । बहुरि कपाट च्यारि प्रकार पूर्वा भिमुख स्थित कपाट, उत्तराभिमुखस्थित कपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट, उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट । बहुरि प्रतर पर लोक पूरण एक एक ही प्रकार है । तहां स्थिति - दंड समुद्धात विर्षे एका जीवः के प्रदेश वातवलय बिना लोक की ऊंचाई, किंचित् ऊन' चौदह राजू प्रमाण है। सो इस प्रमाण ते लंबे, बहुरि बारह अंगुल प्रमाण चौडे, गोल आकार प्रदेश हो है । सो – वासो त्ति गुणोः परिही' इत्यादि सूत्र करियाका क्षेत्रफल दोय. से सोला प्रतरांगुलनि करि जगच्छ पी कौं गुण, जो प्रमाण होइ, तितना हो है; जाते. बारहा अंगल गोल क्षेत्र का क्षेत्रफल एक सौ ग्राम प्रतसंगुल होइ, ताकौं उबाई दोय श्रेणी करि गुणन करें इतना ही हो है। बहुरि एक समय विर्ष इस समुद्घातबाले जीव चालीस होइ, लाल तिसकौं चालीस करि गुहिए, तब आठ हजार छ से चालीसः प्रतसंग्गुलनि करि जगच्छणी कौं गुण, जो प्रमाण होइ, तितना स्थिति दंड कि क्षेत्र हो है। । बहुरि इस स्थिति दंड के क्षेत्र को नव गुणा कीजिए, तया उपविष्ट दंङ विषाक्षेत्र हो है, जातें स्थितिदंड विर्षे बारह अंगुलप्रमाण चौडाई कही, इहां तिसते ति। गुणी छत्तीस अंगुला चौडाई है; सो क्षेत्रफल विर्षे नव
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सम्यग्ज्ञानका भाषाटीका
गुणा क्षेत्र भया, , तातें नत्र गुरणा कीया। जैसे करते सतहत्तर हजार सात से साठि प्रतरांगुलनि करि जगच्छ्रेणी को गु, जो प्रमाण भया, तितना उपविष्ट दंड विषे
क्षेत्र जानना ।
बहुरि पूर्वाभिमुख स्थित कपाट समुद्घात विषे एक जीव के प्रदेश वातवलय faar लोक प्रमाण तो लंबे हो हैं, सो किचित् ऊन चौदह राजू प्रमारा तो लंबे हो हैं. बहुरि उत्तर दक्षिण दिशा विषै लोक की चौडाई: प्रमाण चौड़े हो हैं । सो उत्तरदक्षिण दिशा विषे लोक सर्वत्र सात राजू चौडा है । तातें सात राजू प्रमाण चौडे हो हैं । बहुरि बारह अंगुल प्रमाण पूर्व पश्चिम विषै ऊंचे हो हैं, सो याका क्षेत्रफल भुज कोटि वेध का परस्पर गुणन करि चोईस अंगुल गुणा जगत्प्रतर प्रमाणः भयाः arat एक समय विषै इस समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण चालीस है । तातें चालीस करि गुणिए, तब नव से साठि सूच्यंगुलनि कहि जगत्प्रतर को गुरौं, जो प्रमाण होइ, frant पूर्वाभिमुख स्थित कपाट विषे क्षेत्र हो है बहु स्थित कंपाट विषै बारह अंगुल की ऊचाई कही, उपविष्ट कपाट विषे ति गुणाः छत्तीस अंसुल की ऊंचाई हो है । पूर्वाभिमुख स्थित कपाट के क्षेत्र के तिगुणा मंठाइस से सी सूच्यंगुलनि करि जगत्प्रतर गुणे, जो प्रेमाण होश, तिलना:- पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट वि क्षेत्र जानना ।
बहुरि उत्तराभिमुख स्थित कपाट विषै एक जीव के प्रदेश वातवलय वित्ता लोक प्रमाण लंबे हो हैं, सो किचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण तो लंबे हो हैं । बहुरि पूर्व पश्चिम दिशा विषै लोक की चौड़ाई के प्रमाण चौड़े हो हैं । सो लोक अधोलोक के तो नीचे सात राजू चौडा : है तुक्रम से घटता घवता मध्य लोक विषै एक राजू चौडा है । याका क्षेत्रफल निमित्त सूत्र कहिए है - मुंहभूमी जोग दले पद गुणिदे veer हो । मुख कहिए अंत, अर भूमि कहिए आदि, इतिका जोग कहिए जोड, . faeका दल कहिये आधा, तिसका पद कहिए. गच्छ का प्रभारण तिसक गुण पदधन कहिये, सर्व गच्छ का जोड्या हुआ प्रमाण; सो हो- है । सो इहां मुख तो एक राजू अर भूमि सात राजू जोडिए, तब ग्राऊ /भये, इनिका आधा च्यारि 'भया, इसका लोक की ऊंचाई सात राजू सो गच्छ का प्रमाण सात राजूनि करि गुणै, जो अठाईस राजू प्रमाण भया, तिसना अघो लोक संबंधी प्रतररूप क्षेत्रफल
जानना ।
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Fivideronमामmami
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। गोम्मसार जीवका गाया ५४४ बहुरि मध्य विर्षे लोक एक राजू चौडा, सो बघता बघता ब्रह्मास्वर्ग के निकट पांच राज भया । सो इहां मख एक राज, भूमि पांच राज मिलाए छह हवा, ताका प्राधा तीन, बहुरि ब्रह्मस्वर्ग साढा तीन राजू ऊंथा, सो गच्छ का प्रमाण साढा तीन करि गुणिये, तब आधा ऊर्ध्व लोक का क्षेत्रफल साढा दश राजू हुआ । बहुरि ब्रह्मस्वर्ग के निकट पांच राजू सो घटता घटता अपरि एक राजू का रह्या, सो इहां भी मुख एक राजू, भूमि पांच राजू, मिलाए छह हुआ, प्राधा तीन, सो ब्रह्मस्वर्ग के ऊपरि लोक साढा तीन राजू है, सो गच्छ भया, ताफरि गुण, प्राधा उर्ध्व लोक का क्षेत्रफल साढा दश राज हो है। जैसे उर्ध्वलोक पर अधोलोक का सर्व क्षेत्रफल जोडै, जगत्पतर भया, सो असें लंबाई चौडाई करि तो जगत्प्रतर प्रमाण प्रदेश हो हैं । बहुरि बारह अंगुल प्रमाण उत्तर - दक्षिण दिशा विर्षे ऊंचे हो हैं; सो जगत्प्रतर कौ बारह सभ्यंगलनि करि गरग. एक जीव संबंधी क्षेत्र बारह अंगल गणा जगत्प्रतर प्रमाण हो हैं । बहुरि इस समुद्घातवाले जीव चालीस हो हैं । ताते चालीस करि सिस क्षेत्र को गुरणे, च्यारि से अस्सी सूच्यमुलनि करि गुण्या हा जगत्प्रतर प्रमाण उत्तराभिमुख स्थित कपाट विर्षे क्षेत्र हो है। बहुरि स्थिति.विर्षे बारह अंगुल की ऊंचाई कही । उपविष्ट विर्षे तातै तिगुणी छत्तीस अंगुल की ऊँचाई है । तातें पूर्वोक्त प्रभारण तें तिगुणा चौदा से चालीस सूच्यंगुलनि करि गुण्या हवा अगत्प्रतर प्रमाण उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट विष क्षेत्र जानना । बहुरि प्रतर समुद्धातविर्षे तीन वातवलय बिना सर्व लोक विर्षे प्रदेश व्याप्त हो हैं । तातें तीन वातवलय का क्षेत्रफल लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सो यह प्रमाण लोक का प्रमाण विर्षे घटाएं, अवशेष रहे, तितना एक जीव संबंधी प्रतर समुद्धात विर्षे क्षेत्र जानना ।
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बहुरि लोक पूरण विर्षे सर्व लोकाकाश विर्षे प्रदेश व्याप्त हो हैं। ताते लोक प्रमाण एक जीव संबंधी लोक पूरण विर्षे क्षेत्र जानना । सो प्रतर अर लोक पुरण के बीस जोक तौ करनेवाले पर बोस जीव समेटनेबाले असे एक समय विर्षे चालीस पाइए । परन्तु पूर्वोक्त क्षेत्र ही विर्षे एक क्षेत्रावमाहरूप सर्व पाइए; तातै क्षेत्र तितना ही जानना । बहुरि दंड अर कपाट विष भी बीस जीव करनेवाले बीस समेटनेवालेनि की अपेक्षा चालीस जीव हैं; सो ए जीव जुदे जुदे क्षेत्र की भी रोके; तातें दण्ड पर कपाट विर्षे चालीस का गुणकार का । यह जीवनि का प्रमाण उत्कृष्टता की अपेक्षा है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका 1.
सुक्फस्स समुग्धादे, असंखभागा य सवलोगो य । ___ शुक्लायाः समुद्धाते, असंख्यभागाश्च सर्वलोकश्च । ।
टीका - इस प्राधा सूत्र करि शुक्ल लेश्या का क्षेत्र लोक के असंख्यात भागनि विर्षे एक भाग विना अवशेष बहुभाग प्रमाण वा सर्वलोक प्रमाण कहा है, सो केवल समुद्धात अपेक्षा जानना । बहुरि उपपाद विर्षे मुख्यपने अच्युत स्वर्ग अपेक्षा एक जीव के प्रदेश छह राज लंबे अर. संख्यात सूच्यंगुल प्रमाण चौड़े बा ऊचे प्रदेश हो है । सो इस क्षेत्रफल कौं अच्युत स्वर्ग विर्षे एक समय विर्षे संख्यात ही मरे, ताते तहां संख्यात ही उपजै, तातै संख्यात करि मुणे, जो प्रमाण भया, तितना उपपाद विर्षे क्षेत्र जानना । इहां भी पूर्वोक्त प्रकार पांच प्रकार लोक की अपेक्षा जैसा भागहार गुणकार संभवे तैसें जानि लेना; असे शुक्ललेश्या विर्षे क्षेत्र कहा । इहां छह लेश्यानि का क्षेत्र का वर्णन दश स्थान विर्षे कीया; तहां असा जानना । जो जिस अपेक्षा क्षेत्र का प्रयाइछुत प्रादें लिए गोशा मुख्यपर्ने क्षेत्र वर्णन कीया है । तहां संभवता अन्य स्तोक क्षेत्र अधिक जानि लेना, असे ही आगें स्पर्शन विर्षे भी अर्थ समझना । इति क्षेत्राधिकार ।
पार्टी स्पर्शनाधिकार साढा छह गाथानि करि कहैं हैं--- फासं सव्वं लोयं, तिहारणे असुहले स्साणं ॥५४५॥
स्पर्शः सर्वो लोकस्त्रिस्थाने अशुभलेश्यानाम् ।।५४५॥ टोका --- क्षेत्र विषं तो वर्तमानकाल विर्षे जेता क्षेत्र रोक, तिस ही का ग्रहण कीया । बहुरि इहां वर्तमान काल विर्षे जेता क्षेत्र रोक, तीहिं सहित जो अतीत काल विष स्वस्थानादिक विशेषण कौं धरे जीव जेता क्षेत्र रोकि पाया होइ, तिस क्षेत्र ही का नाम स्पर्श जामना । सो कृष्णादिक तीन अशुभ लेश्या का स्पर्श स्वस्थान विर्षे वा समुद्धात विर्षे वा उपपाद विर्षे सामान्यपने सर्व लोक जानना । विशेष करि दश स्थानकनि विर्षे काहिए हैं । वहां कृष्णलेश्या वाले जीवनि के स्वस्थान स्वस्थान विर्षे वा वेदना पर कषाय पर मरणांतिक समुद्घात विष वा उपपाद विर्षे सर्व लोक प्रमाण स्पर्श जानना । बहुरि विहारवत्स्वस्थान विर्षे एक राजू लंबा वा चौडा पर संख्यात सूच्यंगुल प्रमाण ऊंचा तिर्यग् लोक क्षेत्र है । याका क्षेत्रफल संख्यात सूच्यंगुलनि करि
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६२५ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५४६-५४७
गुण्या हुवा जगत्तर प्रमाण भया, सोई विहारवत्स्वस्थान विषै स्पर्श जानना । जाते कृष्णलेश्या वाले गमन क्रिया युक्त त्रस जीव तिर्यग् लोके ही विषै पाइए हैं ।
बहुरि वैयिक समुद्घात विषै मेरुगिरि के मूल तें लगाइ, सहस्रार नामा स्वर्ग पर्यंत ऊंचा साली प्रमाण' लंबा चौडा क्षेत्र विषै पवन कायरूप पुद्गल सर्वत्र आच्छादित रूप भरि रहे हैं । बहुरि पवन कायिक जीवक के विक्रिया पाइए है, सो
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ती काल अपेक्षा तहां सर्वत्र विक्रिया का सद्भाव है। अंसा कोऊ क्षेत्र तिस विषै रह्या नाहीं, जहां विक्रिया रूप न प्रवर्ते तातें एक राजू लंबा वा चोडा और पांच राजू ऊचा क्षेत्र भया ताका क्षेत्रफल लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण भया, सोई वैकि यकं समुद्धात विषे स्पर्श जानना ।
बहरि तैजस पर श्राहारक अर केवल समुद्घात इस लेश्या विषै होता हो नाहीं । इहां भी पंच प्रकार लोक का स्थापन करि, यथासंभव गुरणकार भागहार. जानना । बहुरि जैसे कृष्णलेण्यानि विषं कथन कीया, तैसे ही नीललेश्या कपोत लेश्या विषे भी. कथन जानना
तेजोलेश्या विषै कहे हैं-
तेस्स य सट्ठाणे, लोगस्स श्रसंखभागमेत्तं तु । अडचो सभागा वा, देसूणा होंति नियमेण ।। ५४६॥
तेजसच स्वस्थाने, लोकस्य असंख्यभागमात्रं तु ।
अष्ट चतुर्दशभागा वा देशोना भयंति नियमेन ॥ ५४६ ॥
टीका
तेजोलेश्या का स्वस्थान विषै स्पर्श स्वस्थान स्वस्थान अपेक्षा तौ लोक का असंख्यातवां भागमात्र जानना । बहुरि बिहारवत्स्वस्थान अपेक्षा त्रसनाली: के चौदह भागनि विषै आठ भाग किछू घाटि प्रमाण स्पर्श जानना ।
C.
एवं तु समुग्धावे, व चोहसभागयं च किंचूण | वादे पढमपदं दिवडचोट्स य किचूर्ण ॥५४७॥
एवं तु समुद्घाते, नवचतुर्दशभागश्च किचिदूनः । उपपादे प्रथमपदं व्यर्धचतुर्दश च किचिनम् ॥५४७॥
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सम्यग्नानचन्द्रिका भाषाटोका 1
[ ६२६ टीका..... बहुरि समुद्घात विर्षे असे स्वस्थानयत् किछ घाटि असनाली के चौदह भागनि विर्ष आठ भाग प्रमाण स्पर्श जानना. वा मारणांतिक समुद्धात अपेक्षा किछ बाटि असनाली के चौदह भागनि वि नव भाग प्रमाण स्पर्श जानना । बहुरि उपपाद विर्षे त्रसनाली के चौदह भागनि विर्षे किछु घाटि डचोढ भाग प्रमाण स्पर्श जानना । जैसे सामान्यपन तेजोले श्या का तीनों स्थानकनि विर्षे स्पर्श कह्या ।
___ बहुरि विशेष करि दश स्थानानि विर्ष पर्श कहिए है । तिर्यग्लोक एक राजू का लम्बा, चौडा है; तिसविर्षे लवणोद, कालोदक, स्वयंभूरमण इनि तीनि समुद्रनि विर्षे जलचर जीव पाइए हैं । अन्य समुद्रनि विर्षे जलचर जीव नाहीं; सो जिनि विर्षे जलचर जीव नाहीं, तिनि सर्व समुद्रनि का जेता क्षेत्रफल होइ, सो तिस तिर्यग्लोकरूप क्षेत्र विषं घटाए, अपशेषता क्षेत्र रहे, तिलग पील, पद्म, शुक्ललेश्यानि का स्वस्थान स्वस्थान विर्षे स्पर्श जानना । जाते एकेंद्रियादिक के शुभल श्यानि का अभाव है । सो कहिए हैं
जंबूद्वीप तें लगाइ स्वयंभूरमण. समुद्र पर्यंत. सर्व द्वीप - समुद्र दुरणां दुणां विस्तार कौं धरै हैं। तहां जंबूद्वीप लाख योजन विस्तार कौं धरै हैं; याका सूक्ष्म तारतम्य रूप क्षेत्रफल कहिए हैं
सत्त रणय सुण्ण पंच य, छष्णव चउरेक पंच सुरणं च । ___ याका अर्थ - सात, नव, बिंदी, पंच, छह, नव, च्यारि, एक, पांच, विदी इतने अंकनि करि जो प्रमाण भया, तितना जंबूद्वीप का सूक्ष्म क्षेत्रफल है (७९०५६६४१५०) सो एतावन्मात्र एक खण्ड कल्पना कीया । बहुरि असे असे लवण समुद्र विष खण्ड कल्पिए, तब चौईस (२४) होइ । धातकीखड विर्षे एक सौ चवालीस (१४४) होछ । कालोद समुद्र विर्षे छ से बहत्तरि (६७२) होइ । पुष्कर द्वीप विर्ष अठाइस से असी (२८८०) होइ । पुष्कर समुद्र विष ग्यारह हजार नब से च्यारि (११९०४) होइ । वारुणो द्वीप विर्षे अड़तालीस हजार तीन से चौरासी (४८३८४) होइ । वारुणी समुद्र विषं एक लाख पिचारावे हजार बहत्तरि (१६५०७२) होइ । क्षीरवर द्वीप विर्षे सात लाख तियासी हजार तीन से साठि (७८३३६०) होइ । क्षीरवर समुद्र विषै इकतीस लाख गुणतालीस हजार पांच से चउरासी (३१३६५८४). होइ । असें स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत विर्षे खंड साधन करना इनि खंडनि के प्रमाण का ज्ञान होने के निमित्त सूत्र कहिए हैं
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६३० ]
I गोम्मटसार जीवकामय गाथा ५४७
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बाहिर सूईयग्गं, अभंतर सूइधग्ग परिहीणं ।
जंबूबासविहत्ते, तेसियमेसारिण खंडारिंग ।। बाह्य सूची का वर्ग विषे अभ्यंतर सूची का प्रमाण घटाए, जो प्रमाण रहै, ताकी जंबूद्वीप का व्यास के वर्ग. का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितने जंबूद्वीप समान खंड जानने । अंत तें लगाई, वाके सन्मुख अंत पर्यंत जेता सूधा क्षेत्र होइ, ताको बाह्य सूची कहिए। बहुरि प्रादि ते लगाइ, वाके सन्मुख आदि पर्यंत जेता सूधा क्षेत्र होइ, ताकौं अभ्यंतर सूची कहिये । सो यहां लवण समुद्र विर्षे उदाहरण करि
लवण समुद्र की बाह्य सूची पांच लाख योजन, ताका वर्ग कीजिये तब लाख गुणां पचीस लाख भया । बहुरि तिस ही की अभ्यंतर सूची एक लाख योजन, ताका वर्ग लाख गुरणा लाख योजन, सो घटाये अवशेष लाख गुणा चौईस लाख, ताका जंबूद्वीप का व्यास लाख योजन, ताका वर्ग लाल मुरणां लाख योजन, ताका भाग दीजिए तब चौईस रहे, सो जंबूद्वीप समान चौबीस खंड लवण समुद्र विर्षे जानने । असे ही सर्व द्वीप समुद्रनि विर्षे साधने । इस साधन के प्रथि और भी प्रकार कहै हैं---
रूऊण सला बारस, सलागगुरिगवे दु वलयखंडाणि ।
बाहिरसूइ सलामा, कदी तदंताखिला खंडा ।। इहां व्यास विर्षे जितना लाख कह्या होइ, तितने प्रमाण शलाका जानना । सो एक घाटि शलाका कौ बारह शलाका करि गुणों, जंबूद्वीप प्रमाण वलयखंड हो हैं। जैसे लवण समुद्रनि विर्षे व्यास दोय लाख योजन है, तातें शलाका का प्रमाण दोय, तामै एक घटाएं एक, ताका बारह शलाका का प्रमाण चोईस करि गुरणे, चौईस खंड हो हैं । बहुरि बाह्य सूची संबंधी शलाका का वर्ग प्रमाण तीहि पर्यंत खंड हो है । जैसे लवण समुद्र विर्षे बाह्य सूची पांच लरख योजन है । सातै शलाका का प्रमाण पाचं ताका वर्ग पचीस, सोई लवण समुद्र पर्यंत सर्व खंडनि का प्रमाण हो है । जंबूद्वीप विर्षे एक खंड पर लक्षण समुद्र विर्षे चौवीस खंड, मिलि करि पचीस खंड हो है। बहुरि और भी विधान कहै हैं
बाहिरसूईवलयन्यासूखा चउगुरिणावासहदा । इकलक्खवग्गभजिदा, जंबूसमवलयखंडाणि ॥१॥
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सम्यम्मानन्तिका भाषाटीका )
बाह्य सूची विर्षे वलय का व्यास. घटाएं, जो रहै, ताका चौगुणा व्यास तें गुणिये, एक लाख के वर्ग का भाग दौजिए, तब जंबूद्वीप के समान गोलाकार खंडनि का प्रमारण हो है।
उदाहरण - जैसे लवणसमुद्र की बाह्य सूची पांच लाख योजन, तिसमें व्यास दोय लाख योजन घटाइए, तब तीन लाख योजन भये, याकौं चौगुणा व्यास पाठ लाख योजन करि गुरिणये, तब लाख गुणा चौईस लाख भये । याक एक लाख का वर्गका भाग दीजिए, तब चौईस पाये, तितने ही जंबूद्वीप समान लवण समुद्र विर्षे खंड हैं, जैसे सूत्रनि ते साधन करि खंड ज्ञान करना । बहुरि इहांद्वीप संबंधी खंडनि की छोडि, सर्व समुद्र संबंधी खंडनि का ही ग्रहण कीजिये, तब अंबूद्वीप समान चौईस खंडनि का भाग समुद्रखंडनि कौं दीएं, जो प्रमाण प्रायै; तितना सर्व समुद्रनि विष लबरण समुद्र समान खंड जानने । सो लवण समुद्र के खंडनि को चौईस भाग दीए, एक पाया, सो लवण समुद्र समान एक खंड भया। कालोद समुद्र के छ सै बहत्तरि खंडनि कौं चौबीस का भाग दीये, अट्ठाईस पाये, सो कालोद समुद्र विर्षे लबणसमुद्र समान अठाईस खंड हो हैं । जैसे ही पुष्कर समुद्र के खंडनि को भाग दीये च्यारि से छिन खंड हो हैं । वारुणी समुद्र के खंडनि कौं भाग दीये, आठ हजार एक सै अठाइस खंड हो हैं । क्षीरसमुद्र के खंडन कौं भाग दीये, एक लाख तीस हजार आठ से सोलह खंड हो हैं । जैसे ही स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत जानना । सो जानने का उपाय
यह लवरणसमुद्रसमान खंडनि को प्रमाण ल्यावने की रचना है ।
धनराशि
ऋणाराशि
समुद्र
औरवर
२ | १६
वारुपीवर
isodelwaitnisaninionlines...
पुष्कर
कालोद
लवणोद
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६३३ j
| गोम्मटसार जीवा गाथा ५४७
दोय आदि सोलह सोलह गुरगा तो धन जानना । पर एक आदि चौगुणा चौगुणा ऋण जानना | सो धन विषै ऋण घटाएं, जो प्रमाण रहे, तितने लवणसमुद्र समान खंड जानने ।
उदाहरण कहिये हैं - प्रथमस्थान विषै धन दोय, अर ऋण एक, सो दोय में एक घटाए - एक रह्या, सो लवण समुद्र विषै एक खंड भया । बहुरि दूसरे स्थान के दोय क सोलह गुणा कीजिए, तब बत्तीस तो धन होइ, अर एक की व्यारि गुरणा कीजिए, तब च्यारि ऋण भया, सो बत्तीस में च्यारि घटाएं, अठाइस रह्या, सो दूसरा कालोदक समुद्र विषे लवण समुद्र समान अठाईस खंड हैं । बहुरि तीसरे स्थानक af सोला गुणा कीएं, पांच से बास तो घन होइ, पर च्यारि कौ चौगुणा कीएं सोला ऋण होइ, सो पांच से बारा मैं स्यों सोला घटाएं, च्यारि से छिनव रह्या; सो इतना हो तीसरा पुष्कर समुद्र विषै लवण समुद्र समान खंड जानने । असे स्वयंभू- रमण समुद्र पर्यंत जानना | सो अब वहां जलचर रहित समुद्रनि का क्षेत्रफल कहिए हैं
तहां जो द्वीप समुद्रनि का प्रमाण है, ताकों इहां समुदनि ही का ग्रहण है, तातें आधा कीजिये, तामै जलचर सहित तीन समुद्र घटाएं, जलचर रहित समुद्रनि का प्रमाण हो है, सो इहां गच्छ जानना । सो दोष आदि सोला - सोला गुणां धन का i सोधन का जलचर रहित समुद्रनि का घन विषे कितना क्षेत्रफल भया ? सो कहिये हैं
था,
पदमेसे गुणयारे, योष्णं गुरिणयत्वपरिहीणे । गुणेाहिये, मुणगुणियम्म गुरुगलियं ॥
इस सूत्र करि गुणकार रूपराशि का जोड हो, हैं । थाका अर्थ- गच्छप्रमाण जो गुणकार, ताक परस्पर गुणि करि एक घटाइये, बहुरि एक घाटि गुणकार के प्रमाण का भाग दीजिए, बहुरि मुख जो आदिस्थान, ताकरि गुणिये, तब गुरणकाररूप राशि विषे सर्व जोड होइ ।
-
सो प्रथम अन्य उदाहरण दिखाइए हैं जैसे प्रादिस्थान विषै दश पर पीछे चौगुणा - चौगुणा बघता जैसे पंच स्थानकनि विषं जो जो प्रमाण भया, तिस सर्व का जोड दीएं कितना भया ?
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सम्यग्जामचन्द्रिका भाषाटोका ।
[ ६३३
सो कहिये हैं - इहां गच्छ का प्रमारए पांच, अर गुरगकार का प्रमाण च्यारि सो पांच जायगा च्यारि च्यारि माडि, परस्पर गुथिए, तब एक हजार चौईस हूवा, यामैं एक घटाएं, एक हजार तेईस हूवा । बहुरि याको एक घाटि गुणकार का प्रमाण लीन का भाग दीजिये, तब तीन से इकतालीस हवा । बहुरि आदिस्थान का प्रमाण दश, तिसकरि याकौं गणे, चौतीस से दश (३४१०) भया, सोई सर्व का.जोड जानना कैसे ? पंचस्थानकवि विर्षे असा प्रमाण है-१०४०११६०१६४०।२५.६० । सो इनिका जोड चौतीस से दश ही हो है । असें अन्यत्र भी जानना । सो इस ही सूत्र करि इहां गच्छ का प्रमाण तीन पाटि द्वीपसागर के प्रमाण ते आधा. प्रमाण लीये हैं । सो सर्व द्वीप - समुद्रनि का प्रमाण कितना है ? सो कहिए हैं - एक राज के जेते अर्धच्छेदं हैं, -तिनि में लाख योजन के अर्धच्छेद पर एक योजन के सात लाख अडसठि हजार अंगुल तिनिके अर्धच्छेद अर सूच्यंगुल के अर्धच्छेद पर मेरु के मस्तक प्राप्त, भया एक अर्धच्छेद, इतने अर्धच्छेद घटाएं, जेता अवशेष प्रमाण रह्या, तितने सर्व द्वीप - समुद्र हैं। अब इहां गुणोत्तर का प्रमाण सोलह सौ गच्छप्रमाण गुणोत्तरनि की परस्पर गुणना । तहां प्रथम एक राजू का अर्धच्छेद राशि ते प्राधा प्रमाण मात्र जायगा सोलह -सोलह मांडि, परस्पर गुणन कीए, 'राजू का वर्ग हो है । सो कैसे ? सो कहिये हैं
विवक्षित मच्छ का प्राधा प्रमाण मात्र विवक्षित गुणकार (का वर्गमूल) १ मांडि परस्पर गुणन कीएं, जो प्रमाण होइ, सोई संपूर्ण विवक्षित गच्छ प्रमाण मात्र विवक्षित गुणकार का वर्गमूल मांडि, परस्पर गुणन कोएं, प्रमाण हो है। जैसे विवक्षित गच्छ पाठ, ताका आधा प्रभारण च्यारि, सो च्यारि जायगा विवक्षित गुणकार नव, नव मांडि परस्पर गुणे, पैसठि से इकसठि होइ, सोई विवक्षित गच्छ मात्र आठ जायगा विवक्षित गुणकार नब का वर्गमूल तीन - तीन मांडि परस्पर गुरुगन कीएं, पेंसठि से इकसठि हो हैं। असे ही इहां विवक्षित गच्छ एक राजू के अर्धच्छेद, ताका अर्धच्छेद प्रमाण मात्र जायगा सोलह - सोलह मांडि परस्पर गुण, जो प्रमाण होइ, सोई राजू के अर्धच्छेद मात्र सोलह का वर्गमूल च्यारि च्यारि मांडि परस्पर गणे, प्रमाण होइ, सो राजू के अर्धच्छेद मात्र जायगा दूबा मांडि, गुण, तौ राजू होइ । पर तितनी ही जायगा दोय - दोय वार दुवा मांडि, परस्पर गुण, राजू का वर्ग हो है । सो जगत्प्रतर कौं दोय वार सात का भाग दीजिए इतना हो है. । बहुरि यामें एक
१. 'का वर्गमूल' यह छपी प्रति में मिलता है। छहों हस्तलिखित प्रतियों में नहीं मिलता।
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। गोम्मटसार जीवकास आया ५४७
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घटाइये, जो प्रमाण होइ, तानी एक नाति मामार प्रजाप पंद्रह, ताका भाग दीजिए । बहुरि इहां आदि विषं पुष्कर समुद्र है । तिस विर्षे लवण समुद्र समान खंडनि का प्रमाण दोय की दोय बार सोलह करि गुणिए, इतना प्रमाण है, सोई मुख भया, ताकरि गुणिए, असें करते एक घाटि जगत्प्रतर कौं दोय सोलह सोलह का गुणकार पर सात - सात पंद्रह का भागहार भया । बहुरि इस राशि का एक लवण समुद्र विर्षे जंबूद्वीप समान चौईस खंड हो है । तात चौईसका गुणकार करना । बहुरि जम्बूद्वीप विर्षे सूक्ष्म क्षेत्रफल सात नव प्रादि अंकमात्र हैं । तातै ताका गुणकार करना बहुरि एक योजन के सात लाख अडसठि हजार अंगुल हो हैं । सो इहां वर्गराशि का ग्रहण है, अर वर्गराशि का गुणकार भागहार वर्गरूप ही हो है । ताते दोय बार सात लाख असठि हजार का गुणकार जानना । बहुरि एक सूच्यंगुल का वर्ग प्रतरांगुल हो है । तातें इतने प्रतरांगुलनि का गुणकार जानना । बहुरि---
विरलिदरासीदो पुरण, जैत्तियमेत्तासि हीलरूवारिण ।
तेसि अण्णोणहदी, हारो उप्पण्णरासिस्स ॥ इस करणसूत्र के अभिप्राय करि द्वीप समुद्रनि के प्रमाण विषं राजू के अर्धच्छेदनि तें जेते अर्धच्छेद घटाए हैं, तिनिका प्राधा प्रमाण मात्र गुणकार सोलह कौं परस्पर गुण, जो प्रमाण होइ, तितने का पूर्वोक्त राशि विष भागहार जानना । सो इहां जाका आधा ग्रहण कीया, तिस संपूर्ण राशि मात्र सोलह का वर्गमल च्यारि, तिनिकौं परस्पर गुण, सोई राशि हो है । सो अपने अर्धच्छेद मात्र दूवानि कौं परस्पर गुण तो विवक्षित राशि होइ, पर इहां च्यारि कहै हैं, ताते तितने ही मात्र दोय बार, दूवानि कों परस्पर गुणें, विवक्षित राशि का वर्ग हो है । तातें इहां लाख योजन का अर्धच्छेद प्रमाण दोय दूवानि का परस्पर गुण, तो लाख का वर्ग भया । एक योजन का अंगुलनि के प्रमाण का अर्धच्छेदमात्र दोय दूवानि कों परस्पर गुरणें, एक योजन के अंगुल सात लाख अडसठि हजार (तीन का) वर्ग भया । बहुरि मेरुमध्य संबंधी एक अर्धच्छेदमात्र दोय दूवानि कों परस्पर गुणे, च्यारि भया, बहुरि सूच्यंगुल का अर्धच्छेदमात्र दोय दूवानि कौं परस्पर गुणे, च्यारि भया । बहुरि सूच्यंगुल का अर्थच्छेद मात्र दोय दुवानि कौँ परस्पर गुरणे प्रतरांगुल भया । अॅसें ए भागहार जानने । बहुरि जलचर सहित तीन समुद्र मच्छ विर्षे घटाए हैं । तातें तीन बार गुणोत्तर जो सोलह, ताका भी.भागहार जानना । जैसे जगत्प्रतर की प्रतरांगुल पर दोय पर सोलह अर सोलह पर चौवीस पर सात से निवे कोडि छप्पन लाख चौराणब हजार
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सध्यतामतिका भाषाका
एक सौ पचास पर सात लाख अडसठि हजार, अर सात लाख अडसहि हजार का तो गुणकार भया । बहुरि प्रतरांगुल पर सात अर सात पर पंद्रह पर एक लाख पर एक लाख पर सात लाख अडसठि हजार पर सात लाख अडसठि हजार अर च्यारि पर सोलह पर सोलह पर सोलह का नागहार भया । इहां प्रतरांगुल अर दोय वार सोलह पर दोय वार सात लाख अडसठि हजार गुणकार भागहार विर्षे समान देखि अपवर्तन कीएं पर गुणकार विषं दोय चौईस की परस्पर गुण, अडतालीस अर भायहार विर्षे पंद्रह सोलह, इनिकौं परस्पर गुणें, दोय से चालीस, तहां अडतालीस करि अपवर्तन कीएं, भागहार विर्षे पांच रहे, जैसे अपवर्तन कीएं, जो अवशेष प्रमाण रह्या ७६०५६६४१५० तहां सर्व भागहारनि को परस्पर गुणि, ताकौं गुणकारनि के
७। ७ । १ ल।१ल। ४ । ५ । अंकनि का भाग दीएं किछु अधिक बारह से गुगतालीस भए । असे धनराशि विर्षे सर्व क्षेत्रफल साधिक 'धगरय' जो बारह से गुरणतालीस, ताकरि भाजित जगत्प्रतर प्रमाण क्षेत्रफल भया । इहां कटपयपुरस्थवर्णः इत्यादि सूत्र के अनुसारि अक्षर संशा करि धारय शब्द से नव तीन, दोय, एक जनित प्रमाण ग्रहण करना । अब इहां एक प्रादि पौगुणा • चौगुणा ऋण कहा था, सो जलचर रहित समुद्रनि विर्षे ऋणरूप क्षेत्रफल ल्याइए है । 'परमेप्से गुरणयारे इत्यादि करणसूत्र करि प्रथम गच्छमात्र गुणकार च्यारि का परस्पर गुणन करना । तहां राज के अर्धच्छेद प्रमाण का अर्धप्रमाण मात्र च्यारि कौं परस्पर गुण, एक राजू हो है । कैसे ? सो कहिये हैं
सर्व द्वीप समुद्र का प्रमाण मात्र गच्छ कल्पं, इहां आधा प्रमाण है, तातै गुणकार च्यारि का वर्गभूल दोय ग्रहण करना । सो संपूर्ण गच्छ विर्षे एक राजू के अर्धच्छेद कहैं हैं, तातै एक राज के अर्थच्छेद प्रमाण वानि कौं परस्पर गुणे, एक राजू प्रमाण भया, सो जगच्छणी का सातवां भाग प्रमाण है । यामें एक घटाइए, जो प्रमाण होइ, ताकौं एक पाटि गुणकार तीन का भाग दीजिए। बहुरि पुष्कर समुद्र अपेक्षा आदि स्थान विर्षे प्रमाण सोलह, ताकरि गुरिणये, असे एक घाटि जगच्छणी कौं सोलह का गुण कार बहुरि सात अर तीन का भागहार भया । याकौं पूर्वोक्त प्रकार चौबीस खंड अर जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल रूप योजननि का प्रमाण पर एक योजन के अंगुलनि का वर्गमात्र बहुरि सूच्यंगुल का इही वर्ग है; तातें इतनौं प्रतरांगुलंनि करि मुणन करना । बहुरि
विरलिदरासीदो पुण, जेत्तियमेसाणि होणत्यारिण। तेसि अण्णोण्णहदी, हारो उप्पण्णरासिस्स ॥१॥
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MukaateLISHVAAS
| गोम्मडसार जोषकापड गाया ५४७
AL
इस सूत्र अनुसारि जितने गच्छ विर्षे राजू का अर्धच्छेद प्रमाण घटाइए है, ताका जो आधा प्रमाण है, तितने च्यारि के अंकनि की परस्पर गुण, जो प्रमाण होइ, तितने का भागहार जानना । सो जिस राशि कर आधा प्रमाण लिया, तिस राशिमात्र च्यारि का वर्गमूल दोय कौ परस्पर गुगिये, तहां लक्ष योजन के अर्धच्छेद प्रमाण दूदानि क्रौं परस्पर गुण, एक लाख भए । एक योजन के अंगुलनि का अर्धच्छेद प्रमाण दूवानि कौं परस्पर गुणे, सात लाख अडसठि हजार अंगुल भये । बहुरि मेरुमध्य के अर्धच्छेद मात्र दूवा का दोय भए । बहुरि सूच्यंगुल का अर्धच्छेदमात्र दूवानि कों परस्पर गुण, सूच्यापुल भया, असे भागहार भए । बहुरि तीन समुद्र घटाएं, ताते तीन वार गुणोत्तर जो च्यारि, ताका भी भागहार जानना । असे एक धाटि जगत्छे रणी कौं सोलह अर च्यारि पर चौईस पर सात से निवे कोडि छप्पन लाख चौरागवं हजार एक से पचास पर सात लाख अडसठि हजार पर सात लाख अष्टसठि हजार का तो गुणकार भया । बहुरि सात अर तीन पर सूच्यंगुल पर एक लाख अर सात लाख अडसठि हजार अर दोय अर च्यारि अर च्यारि अर च्यारि का भागहार भया । तहां • यथायोग्य अपवर्तन कीएं, संख्यात सूच्यंगुल करि मुण्या हवा जगच्छे णी मात्र क्षेत्रफल भयो । सो इतने पूर्वोक्त धन राशिरूप क्षेत्रफल विष क्टावना, सो तिस महत् राशिविर्षे किंचित् मात्र घटया सो घटाएं, किंचित् ऊन साधिक बारह से गुणातालीस करि भाजित जगत्प्रतर प्रमाण सर्व जलचर रहित समुद्रनि का क्षेत्रफल ऋणरूप सिद्ध भया ! याकौं एक राजू लंबा, चौडा असा जो जगत्प्रतर का गुणचासवां भाग मात्र रज्ज प्रतर क्षेत्र, तामें समच्छेद करि घटाइए, तब जगत्प्रतर को ग्यारह सं निवे का गुणकार अर गुणचास गुणा बारह से गुगतालीस का भागहार भया । तहां अपवर्तन करने के अथि भाज्य के गुण कार का भागहार कौं भाग दीएं किछ, अधिक इक्यावन "पाए । अस साधिक काम जो अक्षर संज्ञा करि इक्यावन, ताकरि भाजित जगत्प्रतर प्रमाण विवक्षित क्षेत्र का प्रतररूप तन का स्पर्श भया । याकौं ऊचाई का स्पर्श ग्रहण के अथि जीवनि की ऊचाई का प्रमाण संख्यात सूच्यंगुल, तिन करि गुणे, साधिक 'इक्यावन करि भाजित संख्यात सूच्यंगुल गुणा जगत्प्रतर मात्र शुभलेश्यानि का स्वस्थान स्वस्थान विर्षे स्पर्श हो हैं ! याकौं देखि तेजो लेश्या का स्वस्थान स्वस्थान की अपेक्षा स्वर्श लोक का असंख्यातवां भाग मात्र कह्या, जाते यह क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग मात्र है । बहुरि तेजोलेश्या का विहारवत्स्वस्थान पर वेदना समुद्घात अर कषाय समुद्घात अर वैकिंयिक समुद्घात विर्षे स्पर्श किछ घाटि चौदह भाग में आठ भाग प्रमाण है । काहे हैं ? सो कहिये हैं
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सम्पाजामचन्द्रिका भाषाटीका
। ६३७ - लोक चौदह राजू ऊंचा है । असनाली अपेक्षा एक राजू लंबा • चौडा है । सो तहां चौदह राजू विर्षे सनत्कुमार-माहेंद्र के वासी उत्कृष्ट तेजोलेश्यावाले देव, ऊपरि अच्युत सोलहवां स्वर्ग पर्यंत गमन करें हैं । अर नीचें तीसरी नरक पृथ्वी पर्यंत गमन करें हैं । सो अच्युत स्वर्ग तें तीसरा नरक पाठ राजू है । तातें चौदह भाग में आठ भाग कहे पर तिसमें तिस तीसरा नरक की पृथ्वी की मोटाई विर्षे जहां पटस न पाइए अंसा हजार योजन घटावने, तातें किंचित् ऊन कहे हैं । इहां जो चौदह धनरूप राजूनि की एक शलाका होइ, तौ पाठ धनरूप राजूनि की केती शलाका होइ ? असें त्रैराशिक कीएं पाठ चौदहवां भाग पाव है । अथवा भवन त्रिक देव उपरि वा नीचें स्वयमेव तौ सौधर्म · ईशान स्वर्ग पर्यंत था तीसरा नरक पर्यंत गमन कर है। पर अन्य देव के ले गये सोलहवां स्वर्ग पर्यंत विहार करें हैं । सातें भी पूर्वोक्त प्रमाण स्पर्श संभव है । बहुरि तेजोलेश्या का मारणांतिक समुद्धात विर्षे स्पर्श धौदह भाग में नव भाम किछ घाटि संभव है । काहे ते ? भवनत्रिक देव वा सौधर्मादिक च्यारि स्वर्गनि के वासी देव तीसरे नरक गएं, अर तहां ही मरण समुद्घात कीया, बहुरि ते जीव पाठवीं मुक्ति पृथ्वी विर्षे बादर पृथ्वी काय के जीव उपजते हैं। तात तहाँ पर्यंत मरण समुद्घातरूप प्रदेशनि का विस्तार करि दंड कीया । तिन आठवीं पृथ्वी तें तीसरा नरक नव राजू है । पर तहां पटल रहित पृथ्वी की मोटाई घटावनी, ताते किंचित् ऊन नव चौदहवां भाग संभव है।
बहुरि तैजस समुद्धात अर आहारक समुद्घात विर्षे संख्यात धनांगुल प्रमाण स्पर्श जानना, जात ए मनुष्य लोक विर्षे ही हो है । बहुरि केवल समुद्घात इस लेश्या बालों के होता ही नाहीं । बहुरि उपपाद विर्षे स्पर्श चौदह भागनि विर्षे किछ घाटि डेढ राजू भाग मात्र जानना । सो मध्यलोक तें तेजोलेश्या से मरिकरि सौधर्म ईशान का अंत पटल विर्षे उपजे, तीहिं. अपेक्षा संभव है।
___ इहां कोऊ कहै कि तेजोलेश्या के उपपाद विर्षे सनत्कुमार माहेंद्र पर्यंत क्षेत्र देव का स्पर्श पाइए है, सो तीन राजू ऊंचा है, सात चौदह भागनि विर्षे किषित् ऊन तीन भाग क्यों न कहिये ?
साका समाधान - सौधर्म - ईशान ले अपरि संख्यात योजन जाइ, सनत्कुमार माहेंद्र का प्रारंभ हो है । तहां प्रथम पटल है, अर डेढ राजू जाइ; अंतिम पटल है, सो अंत पटल विर्षे तेजोलेश्या नाहीं है, अंसा केई आचार्यनि का उपदेश है। ताते अथवा
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। मोम्मदसार श्रीबहाण्ड गाथा ५४८-५४६
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PLORERNADRASTRAMER
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चित्रा भूमि विष तिष्ठता तिर्यंच मनुष्यनि का उपपाद ईशान पर्यंत ही संभव है, ताते किंचित् ऊन डेढ भागमात्र ही स्पर्श कहा है । बहुरि गाथा विषं चकार का ह्या है, ताते तेजोलेश्या का उत्कृष्ट अंश करि मर, तिनकै सनत्कुमार - माहेंद्र स्वर्ग का अंत का चन नामा इंद्रक संबंधी श्रेणीबद्ध विमाननि विर्षे उत्पत्ति केई प्राचार्य कहै हैं । तिनि का अभिप्राय करि यथा संभव तीन भागमात्र भी स्पर्श संभव है । किछ नियम नाहीं। इस ही वास्ते सूत्र विर्षे चकार कह्या । जैसे पीतलेश्या विर्षे स्पर्श कहा।
पम्मस्सय सवारणसमुग्धावदुर्गसु होदि पढमपदं । . अडचोदसभागा वा, देसूरणा होति णियमेण ॥५४८॥
पद्मायाश्च स्वस्थानसमुद्घातद्विकयोर्भवति प्रथमपदम् । - अष्ट चतुर्दशभागा वा; 'देशोना भवंति नियमेन ॥५४८१॥
टीका - पालेश्या के स्वस्थान स्वस्थान विर्षे पूर्वोक्तप्रकार लोक के असंख्यातवें भाग मात्र स्पर्श जानना । बहुरि बिहारवत्स्वस्थान अर वेदना • कषाय - बैंक्रियिकसमुद्धात इनिविर्ष किंचित् ऊन चौदह भाग विर्षे पाठमात्र स्पर्श जानना । बहुरि मारणांतिक समुद्घात विष भी. तैसें ही किचित् ऊन आठ चौदहवां भागमात्र स्पर्श जानना; जातें पद्म लेश्यावाले भी देव पृथ्वी, अप्, वनस्पति विर्षे उपजै हैं । बहुरि तेजस पाहारक समुद्धात विर्षे संख्यात धनांगुल प्रमाणस्पर्श जानना । बहूरि केवल समुद्घात इस लेश्या विर्षे है नाहीं।।
उववादे पढमपवं, पणचोद्दसभागयं च देसूरणं ।
___ उपपाचे प्रथमपदं, पंचचतुर्दशभागकश्च देशोनः ।
टीका - यह आधा सूत्र है । उपपाद विर्षे स्पर्श चौदह भाग विर्षे पंच भाग किछू घाटि जानना, ज़ातें पद्मलेश्या शतार - सहस्रार पर्यंत संभव है। सो शतारसहस्रार मध्यलोक ते पांच राजू उंचा है । असे पद्मलेश्या विर्षे स्पर्श कहा।
सुक्कस्स य तिठाणे, पढमो छच्चोदसा होणा ॥५४६॥
शुक्लायाश्च त्रिस्थाने, प्रथमः षट्चतुर्दशाहीनाः ॥५४॥ टीका - शुक्ललेश्यावाले जीवनि के स्वस्थानस्वस्थान विर्षे तेजोलेश्यावत् लोक का असंख्यातवां भाग प्रमाण स्पर्श है । बहुरि बिहारवत्स्वस्थान विर्षे अर वेदना,
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सम्यमानञ्चन्द्रिका भाषाटोका ।
[ ६३६ कषाय, वैक्नियिक, मरणांतिक समुद्घातनि विषं स्पर्श चौदह भागनि विर्षे छह भाग किछ एक धाटि स्पर्श जानना । जातें अच्युतस्वर्ग के ऊपरि देवनि के स्वस्थान छोडि. अन्यत्र गमन नाहीं है । तातै अच्युत पर्यंत ही ग्रहण कीया । बहुरि तेजस, आहारक समुद्घात विर्षे संख्यात धनांमुल प्रमाण स्पर्श जानना है ।
णयरि समुग्धादम्मि य, संखातीदा हवंति भागा वा । सन्वो वा खलु लोगो, फासो होदि ति णिहिटहो ।।५५०॥
नवरि समुद्घाते च, संख्यातीला भवंति भागा वा ।
सर्वो वा खलु लोकः, स्पर्शो भवतीति निदिष्टः ॥५५०॥ टीका -- केवल समुद्धात विर्षे विशेष है, सो कहा ? ..
दण्ड विर्षे तो स्पर्श क्षेत्र की नाई संख्यात प्रतरांगुलनि करि गुण्या हुवा जगन्छे णी प्रमाण, सो करणे पर समेटने की अपेक्षा दूरणा जानना । बहुरि पूर्वाभिमुखं स्थित वा उपविष्ट कपाट विष संख्यात सूच्यंगुलमात्र जगत्प्रतरं प्रमाण हैं, सो करणे, समेटने की अपेक्षा गुणा स्पर्श जानना । बहुरि तैसे ही उत्तराभिमुख स्थित वा उपविष्ट कपाट विर्षे स्पर्श जानना । बहुरि प्रतर समुद्धात विर्षे लोक कौं असंख्यात का भाग दीजिए, तामैं एक भाग विना अवशेष बहुभाग मात्र स्पर्श है । जातें बात बलय का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, तहां व्याप्त न हो है । बहुरि लोकपूरण विर्षे स्पर्श सर्व लोक जानना, असा नियम है ।
___ बहुरि उपपाद विर्षे चौदह भाग विर्षे छह भाग किंचित् ऊन स्पर्श जानना । जातें इहां पारण - अच्युत पर्यंत ही की विवक्षा है । इति स्पर्शाधिकार : '!
आमैं काल अधिकार दोय गाथानि करि कहैं हैंकालो छल्लेस्साणं, णाणाजीवं पडुच सव्वद्धा। अंतोमुत्तमवरं, एग जीवं पडुच्च हवे ॥५५॥
कालः षड्लेश्यानां, नानाजीवं प्रतीत्य सर्वाद्धा.... अंतर्मुहूर्तोऽवरं एक, जीवं प्रतीत्य भवेत् ।।५५॥
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| गोम्मटसार भौखकाण्ड बाया ५५२-५५,३ टीका - कृष्ण प्रादि छहाँ ले यानि का काल नाना जीवनि की अपेक्षा सर्वाद्धा कहिये सर्व काल है । बहुरि एक जीव अपेक्षा छहाँ लेश्यानि का जघन्यकाल तो अंतमुंहूर्त प्रमाण जानना।
उवहीणं तेत्तीसं, सत्तरसत्तेव होंति दो चेव । अट्ठारस तेत्तीसा, उक्कस्सा होति अदिरेया ५५२॥
उवधीनां त्रयस्त्रिशत, सप्तदश सप्तव भवंति द्वौ चैत्र ।
अष्टादश अर्यास्त्रशत, उत्कृष्टाः भवंति अतिरेकाः ॥५५२॥ टीका - बहुरि उत्कृष्ट काल कृष्णलेश्या का तेतीस सागर, नीललेश्या का सतरह सागर, कपोतलेश्या का सात सागर, तेजोलेश्या का दोय सागर, पालेश्या का अठारह सागर, शुक्ललेश्या का तेतीस सागर किछ किछ अधिक जानना । सो अधिक का प्रमाण कितना ? सो कहैं हैं - यह उत्कृष्ट काल नारक वा देवनि की अपेक्षा कया है। सो नारकी पर देव जिस पर्याय ते आनि उपजै, तिस पर्याय का अंत का अंतर्मुहूर्त काल बहुरि देव नारक पर्याय छोडि जहां उपजे, तहां आदि विर्षे अंतर्मुहूर्त काल मात्र सोई लेश्या हो हैं । तातै पूर्वोक्त काल से छहौं लेश्यानि का काल विर्षे दोय दोय अंतर्मुहूतं अधिक जानना । बहुरि तेजोलेश्या अर पालेश्या का काल विर्षे किंचित् ऊन प्राधा सागर भी अधिक जानना; जातें जाके आयु का अपवर्तन घात भया असा जो घातायुष्क सम्यग्दृष्टी, ताके अंतर्मुहूर्त घाटि आधा सागर प्रायु बधता हो है जैसे सौधर्म-ईशान विर्षे दोय सागर का प्रायु कह्या है; ताहां धातायुष्क सम्यग्दृष्टी के अंतर्मुहूर्त पाटि अढाई सागर भी प्रायु हो है; असे ऊपर भी जानना । बहुरि असें ही मिथ्यादृष्टि धातायुष्क के पल्य का असंख्यातवां. भाग प्रमाला प्रायु बधता हो है; सो यह अधिकपना सौधर्म ते लगाइ सहस्रार स्वर्ग पर्यंत जानना । ऊपर घातायुष्क का उपजना नाही, तातै तहां जो आयु का प्रसारण कया है, तितना ही हो है; असे अधिक काल का प्रमाण जानना । इति कालाधिकार:
आगें अंतर अधिकार दोय गाथानि करि कहै हैंअंतरमवरुक्कस्सं, किण्हतियाणं महत्तअंतं तु । उवहीणं तेत्तीसं, अहियं होदि त्ति रिणदिदळें ॥५५३॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका
उतियाणं एवं, गवरि य उक्कस्स विरहकालो दु । पोग्गलपरिट्टा हु, असंखेज्जा होंति नियमेण ॥ ५५४॥
अंतरभवरोत्कृष्टं, कृष्ण त्रयाणां मुहूर्तालिस्तु । उatri भगती निमि
तेजस्त्राणामे, नरि च उत्कृष्टविरह कालस्तु ।
पुद्गलपरिवर्ता हिं, असंख्येया भवति नियमेन ॥ ५५४॥
[ ६४१
टीका - अंतर नाम विरह काल का है। जैसे कोई जीय कृष्णलेश्या विषै प्रवर्ते था, पोछें कृष्ण को छोडि अन्य लेश्यानि को प्राप्तं भया । सो जितने काल पर्यंत फिर तिस कृष्णलेश्या की प्राप्त न होइ तीहि काल का नाम कृष्णलेश्या का अंतर कहिये | सें ही सर्वत्र जानना । सो कृष्णादिक तीन लेश्यानि विषे जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त प्रमाणहै । बहुरि उत्कृष्ट छ अधिक तेतीस सागर प्रमाण है ।
तहां कृष्णलेश्या विषै अंतर कहे हैं
कोई जीव कोडि पूर्व वर्षमात्र प्रायु का धारी मनुष्य गर्भ ते लगाय आठ वर्षे होने विषे छह अंतर्मुहूर्त श्रवशेष रहें, तहां कृष्णलिश्या की प्राप्त भया, तहां अंतर्मुहूर्त तिष्ठि करि नील लेश्या कौं प्राप्त भया । तब कृष्णलेश्या के अंतर का प्रारंभ कीया । तहां एक - एक अंतर्मुहूर्त मात्र अनुक्रम से नील, कपोत, पीत, पद्म, शुक्ललेश्या को प्राप्त होइ, बाठ वर्ष का अंत के समय दीक्षा घरी, तहां शुक्ललेश्या सहित कि घाट कोडि पूर्व पर्यंत संयम को पालि, सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त भया । तहां तेतीस सागर पूर्ण करि मनुष्य होइ, अंतर्मुहूर्त पर्यंत शुक्ललेश्या रूप रह्या । पीछे अनुक्रम तें एक-एक अंतर्मुहूर्त मात्र पद्म पीत, कपोत, नील लेश्या की प्राप्त होइ, कृष्ण लेश्या को प्राप्त भया; असे जीव के कृष्ण लेश्या का दश अंतर्मुहूर्त श्रर आठ वर्ष घाटि कोटि पूर्व इन करि अधिक तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट अंतर जानना । पैसे ही नील लेश्या र कपोत 'श्या विष उत्कृष्ट अंतर जानना । विशेष इतना जो तहां दश अंतर्मूहूर्त कहे हैं. नील विषै भाठ कपोत विषे छह अंतर्मुहूर्त ही अधिक जानने ।
2.
अब तेजोलेश्या का उत्कृष्ट अंतर कहैं हैं
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कोई जीव मनुष्य वा तिर्यच तेजोलेश्या विषै तिष्ठे था, तहां स्यों कंपोत लेण्या कौं प्राप्त भया, तब तेजोलेश्या के अंतर का प्रारंभ कीया । तहां एक एक अंतर्मुहूर्त
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६४२ ]
[ गोम्मटसार जोशकावड माथा ५५४
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पर्यंत कपोत, नील, कृष्ण लेश्या कौं प्राप्त होइ, एकेंद्री भया । तहां उत्कृष्टपर्ने पावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण जे पुद्गल द्रव्य परिवर्तन, तिनिका जितना काल होइ, तितने काल भ्रमण कीया; पीछे विकलैंद्री भया । तहां उत्कृष्टपर्ने संख्यात हजार वर्ष प्रमाण काल भ्रमण कीया; पीछे पंचेंद्री भया। तहां प्रथम समय ते लगाइ एक - एक अंत मुहूर्त काल विर्षे अनुक्रम ते कृष्ण, नील, कपोत कौं प्राप्त होइ, तेजो लेश्या की प्राप्त भया । जैसे जीव के तेजोलेश्या का छह अंतर्मुहूर्त सहित अर संख्यात सहस्र वर्ष करि अधिक प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पुद्गल परावर्तन मात्र उत्कृष्ट अंतर जानना।
अब पद्म लेश्या का अंतर कहैं हैं... कोई जीव पद्मलेश्या विर्षे तिष्ठता था, ताकी छोडि तेजोलेश्या कौं प्राप्त भया, तब पद्म के अंतर का प्रारंभ कोया । तहां संजालेश्या चि अंतमुह सिष्ठि करि सौधर्म • ईशान विषै उपज्या, तहां पल्य का असंख्यातवां भाग करि अधिक दोय सागर पर्यंत रह्या । तहां स्यों चय करि एकेंद्री भया । तहां प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पुद्गल परावर्तन काल मात्र भ्रमण करि पीछे विकलेंद्री भया। तहां संख्यात सहस्र वर्ष कालमात्र भ्रमण करि पंचेंद्री भया । तहां प्रथमसमय से लगाइ, एक - एक अंतर्मुहर्त कृष्ण, नील, कपोत, तेजोलेश्या कौं प्राप्त होइ, पद्मलेश्या की प्राप्त भया । असे जीव के पद्मलेश्या का पंच अंतर्महर्त पर पल्य का असंख्यालवां भाग करि अधिक दोय सागर अर संख्यात हजार वर्षनि करि अधिक प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पुद्गल परावर्तन मात्र उत्कृष्ट अंतर जानना ।
प्रागै शुक्ल लेश्या का अंतर कहै हैं
कोई जीव शुक्ललेश्या विष तिष्ठे था, तहांस्यों पदमलेश्या कौं प्राप्त भया । तब शुक्ललेश्या का अंतर का प्रारंभ भया । तहां कम से एक-एक अंतमहूर्त काल मात्र पद्म - तेजोलेश्या की प्राप्त होइ सौधर्म - ईशान विर्षे उपजि, तहां पूर्वोत्त प्रमाण काल रहि, तहां पीछे एकेंद्री होइ, तहां भी पूर्वोक्त प्रमाण काल भान भ्रमण करि, पीछे विकलेंद्री होइ, तहा भी पूर्वोक्त प्रमाण कालमात्र भ्रमण करि, पंचेंद्री होइ, प्रथम समय से एक-एक अंतर्मुहूर्त काल मात्र क्रम ते कृष्ण, नील, कपोत, तेज, पद्मलेश्या की प्राप्त होइ, शुक्ललेश्या कौं प्राप्त भया । असे जीव के सात अंतर्मुहूर्त अर संख्यात सहस्र वर्ष अर पल्य का असंख्यातवां भाग करि अधिक दोय सागर करि अधिक
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सम्यानचन्तिका भाषाटीका ] पावली का असंख्यातवा भाग प्रमाण पुद्गल परावर्तन मात्र शुक्ललेश्या का उत्कृष्ट अंतर जानना । इति अंतराधिकारः ।
भागें भाव अर अल्पबहुत्व अधिकारनि की कहैं हैंभावादो छल्ले स्सा, प्रोदयिया होति अप्पबहुगं तु । बच्वपमारणे सिद्ध, इदि ले स्सा वष्णिदा होति ॥५५५॥
भावतः बड़ लेश्या, औयिका भवंति अल्पबहुकं तु ।
द्रव्यप्रमाणे सिद्धमिति, लेश्या वरिणता भवंति ॥५५५॥ टोका - भाव करि छही लेश्या मौदयिक भावरूप जाननी; जातें कषाय संयुक्त योगनि की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है । सो ते दोऊ कर्मनि के उदय हैं हो है । इति भावाधिकारः ।
बहरि तिनि लेश्यानि का अल्प बहुत्व पूर्व संख्या अधिकार विर्षे द्रव्य प्रमाण करि ही सिद्ध है । जिनका प्रमाण थोडा सो मल्प, ज़िनिका प्रमाण घणा सो बहुप्त । सहां सबतै थोरे शुक्लेश्यावाले जीव हैं; ते परिण असंख्यात है । तिनि ते असंख्यातगुणे पालेश्यावाले जीव हैं। तिनि से संख्यातगुणे. .तेजोलेश्यावाले जीव हैं । तिनि तें अनंतानंत गुणे कपोतलेश्यावाले जीव हैं । तिनि तें किछु अधिक नीललेश्यावाले जीव हैं ! तिनि ते किछु कृष्णलेश्यावाले जीव हैं। इति अल्पबहुत्वाधिकारः ।
असें छही लेश्या सोलह अधिकारनि करि वर्णन करी हुई जाननी । प्रागें लेश्या रहित जीवनि का कहैं हैं-. .. किण्हादिलेस्सरहिया, संसारविणग्गया अणंतसुहा। सिद्धिपुरं संपत्ता, अलेस्सिया ते मुणेयध्वा ॥५५६॥ कृष्णारिलेश्यारहिताः, संसारविनिर्गता अनन्तसुखाः ।
सिद्धिपुरं संप्राप्ता, अलेश्यास्ते ज्ञातव्याः ।।५५६॥
टीका - जे जीव कषायनि के उदय स्थान लिएं योगनि की प्रवृत्ति के प्रभाव से कृष्णादि लेश्यानि करि रहित हैं, तिस ही ते पंच प्रकार संसार समुद्र से निकसि
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गोम्मदवार जीवकाण्ड गाथा ५५६
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पार भए हैं । बहुरि अतींद्रिय - अनंत सुख करि तृप्त हैं । बहुरि प्रात्मा की उपलब्धि है लक्षण जाका, जैसी सिद्धिपुरी कौं सम्यक् पर्ने प्राप्त भए हैं, ते अयोगकेवली वा सिद्ध भगवान लेश्या रहित अलेश्य जानने ।
इति श्री प्राचार्य नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीयनाम पंचसंग्रह ग्रंथ की
जीवतत्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चंद्रिका नामा भाषाटोका विर्षे जीवकाण्ड विर्षे प्ररूपित बीस प्ररूपणा तिलिविर्षे लेश्यामार्गरणा प्ररूपणा है नाम
जाका असा पंद्रहां अधिकार संपूर्ण भया ।।१५।।
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जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर इस करणानुयोग का अभ्यास करते हैं, उन्हें यह उसके विशेषरणरूप भासित होता है । जो जीवादिक तत्वों को आप जानता है, उन्हीं के विशेष करणानुयोग में किये हैं, वहाँ कितने ही विशेषण तो यथावत निश्चयरूप हैं, कितने ही उपचार सहित व्यवहाररूप हैं, कितने ही द्रव्य-क्षेत्र-काल भावादिक के स्वरूप प्रमाणादिरूप हैं, कितने ही निमित आश्रयादि अपेक्षा सहित हैं,-इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषण निरूपित किये हैं, उन्हें त्यों का त्यों मानता हुआ उस करणानुयोग का अभ्यास करता
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इस अभ्यास से तत्वज्ञान निर्मल होता है । जैसे-कोई यह तो जानता था कि यह रत्न है, परंतु उस रत्न के बहुत से विशेष जानने पर निर्मल रत्न का पारखी होता है, उसी प्रकार तत्वों को जानता था कि यह जीवादिक हैं, परन्तु उन तत्त्वों के बहुत विशेष माने तो निर्मल तत्वज्ञान होता है। तत्त्वज्ञान निर्मल होने पर आप ही विशेष धर्मात्मा होता है।
.. पण्डिस टोडरमलः मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ०-२७०
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सोलहवां अधिकार : भव्य-मार्गणा . इष्ट फलत सब होत कुनि, नष्ट अनिष्ट समाज ।"
जास नामनै सो भलो, शांति नाथ जिमराज ॥... .. प्रागं भव्य मार्गणा का अधिकार च्यारि माथानि करि कहै हैं
भविया सिद्धी जेसि, जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा। तविवरीयाऽभव्वा, संसारादो ण सिझति ॥५५७॥
भव्या सिद्धिर्येषां, जीवामाई ते भवन्तिः भवसिद्धाः । : तद्विपरीसर अभव्याः, संसाराग्न सिद्धयन्तिः ॥५५॥
टोका - भव्याः कहिए होनेफोग्य का होनहार है: सिद्धि कहिये अनंत चतुष्टय रूप स्वरूप की प्राप्ति जिनके, ते भव्य सिद्ध जानने । याकरि सिद्धि की प्राप्ति पर योग्यता गरि भाषांग के द्विनिगरा कहा है। .. .... - . भावार्थ - भव्य दोय प्रकार हैं । केई तो भव्य असें हैं जे मुक्ति होने को केवल योग्य ही हैं; परि कबहूँ सामग्री कौंपाइ मुक्त न होंइ । बहुरि केई भव्य असे हैं, जे काल पाइ मुक्त होहिंगे । बहुरि तद्विपरीताः कहिए. पूर्वोक्त दोऊ लक्षण रहित जे जीव मुक्त होने योग्य भी नहीं पर मुक्त भी होते नाही, ते अभव्य जानने । तात ते वे अभव्य जीव संसार से निकसि कदाचित मुक्ति को प्राप्त न हो हैं; असा ही केई द्रव्यत्व भाव है।
.. ___ इहां कोऊ भ्रम करगा जो अभव्य मुक्त न होइ तो दोऊ प्रकार के भव्यनि के तौ मुक्त होना ठहर्धा तौ जे मुक्त होने की योग्य कहे थे, तिन भव्यनि के भी कबहूं तो मुक्ति प्राप्ति होसी सो असे भ्रम की दूर करें हैं
. भव्वत्तणस्त जोगा, जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा। ' ण हु मलविगमे णियमा, ताणं कणभोवलाणमिव ॥५५॥ .: . . . . भव्यत्वस्य योग्या, ये जीवास्ते भवन्ति भवसिद्धाः । ....... नहि. मलविगमे नियमात, तेषां कनकोपलानामिव ।।५५८॥
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[ शोम्मटसार जीवका गाय: ५५६-५६० टीका -- जे भव्य जीव भव्यत्व जो सम्यग्दर्शनादि सामग्री कौ पाइ, अनंत चतुष्टय रूप होना, ताको केवल योग्य ही हैं, तद्रूप होने के नाही, ते :भव्य सिद्ध हैं । सदा काल संसार को प्राप्त रहैं हैं । काहे हैं ? सो कहिये हैं -- जैसे केई सुवर्ण सहित पाषाण असे है, तिनके कदाचित् मैल के नाश करने की सामग्री न मिले, नसें केई भव्य असे हैं जिनके कर्म मल नाश करने की कदाचित् सामग्री नियम करि न संभव है।
भावार्थ - जैसे अहमिंद्र देवनि के नरकादि विर्षे गमन करने की शक्ति है, परंतु कदाचित् ग़मन न करें, सैसें केई भव्य असें हैं, जे मुक्त होने की योग्य हैं, परन्तु कदाचित् मुक्त न होइ। .... .
ण य जे भव्वाभवा मुत्तिसहातीवणंतसंसारा। ते जीवा णायव्वा, रणेव य भन्वा प्रभवा य ॥५५६॥
न च ये भव्या अभव्या, मुक्तिसुखा प्रतीतानंतसंसाराः। ।. . ते जीवा ज्ञातव्या, नैव च भव्या अभव्याश्च ॥५५९॥
टीका -- जे जीव केई नवीन ज्ञानादिक अवस्था को प्राप्त होने के नाही; तातें भव्य भी नाहीं । अर अनंत चतुष्टय रूप भए, तातै प्रभव्य भी नाही, असे मुक्ति सुख के भोक्ता अनंत संसार रहित भए; ते जीव भव्य भी नाहीं पर अभव्य भी. नाहीं; जीवत्व पारिणामिक को धर है; असे जानने। ... .. इहां जीवनि की संख्या कहैं हैं
अवरो जुताएंतो, अभव्यरासिस्स होदि परिमारणं । तेण विहीणो सम्वो, संसारी भवरासिस्स ॥५६०॥
अवरो युक्तानन्तः, अभयराशे भवति परिमारणम् ।
तेन विहीनः सर्वः, संसारी भव्यराशेः ॥५६०।। : टोका - जघन्य युक्तानंत प्रमाण अभध्य राशि का प्रमाण है । बहुरि संसारी जीवनि के परिमाण में अभव्य राशि का परिमाण घटाएं, अवशेष रहे, तितना भव्य राशि का प्रमाणं है । इहाँ संसारी जीवनि के परिवर्तन कहिए हैं - परिवर्तन पर परिभ्रमण, संसार ए एकार्थ हैं। सो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावं, भेद ते परिवर्तन
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पंच प्रकार है । तहां द्रव्य परिवर्तन दोय प्रकार है - एक कर्म द्रव्य परिवर्तन, एक नोकर्म द्रव्य परिवर्तन 1.
तहां नोकर्म द्रव्य परिवर्तन कहिए हैं
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किसी जीव दारिकादिक तीन शरीरनि विषे किसी ही शरीर संबंधी छह पर्याप्ति रूप परिणमने करें योग्य पुद्गल किसी एक समय में ग्रहे, ते स्निग्ध, रूक्ष, वर्ण, गंधादिक करि तीव्र, मंद, मध्य भाव लीए, यथा संभय ग्रहे, बहुरि ते द्वितीयादि समयनि विषे निर्जरा रूप कीए । बहुरि अनंत बार अगृहीतनि को ग्रहि करि छोडे, अनंत बार मिश्रति की ग्रहि करि छोड़ वीषि ग्रहीतानि कौं अनंत बार नहि करि छोड़, जैसे भए पीछे जे पहिले समय पुद् गल ग्रहे, ते पुद् गल तसे ही स्निग्ध, रूक्ष, गंधादि करि तिस ही जीव के नोकर्म भाव को प्राप्त होइ, तितना समुदायरूप काल मात्र नोकर्स द्रव्य परिवर्तन है । जीव करि पूर्वे हे असे परमाणु जिन समयबद्ध रूप स्कंधनि विषे होंइ, ते गृहीत कहिए। बहरि जीव करि पूर्व न ग्रहे जैसे परमाणू face होंइ, ते अगृहीत कहिये । गृहीत अर अगृहीत दोऊ जाति के परमाणू जिनि विष हों, ते मिश्र कहिए ।
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इहां कोऊ कहै अगृहीत परमाणू कैसे हैं ?
ताका सामाधान - सर्व जीवराशि के प्रभास को समय प्रबद्ध के परमाणुनिका -परिमाण करि गुरिणए । बहुरि जो प्रमाण झावें, ताक अतीत काल के समय नि का परिमाण करि गुणिए, जो प्रमाण होइ, तिसतें भी पुद्गल द्रव्य का प्रमाण अनंत गुरंगा ..है, जाते जीव राशि तें अनंत वर्गस्थान गए पुद्गलराशि हो हैं । ताते अनादिकाल नाना जीवन की अपेक्षा भी अगृहीत परमाणू लोक विष बहुत पाइए है। बहुरि एक जीव का परिवर्तन काल की अपेक्षा नवीन परिवर्तन प्रारंभ भया; तब सर्व ही अगहीत भए । पीछे ग्रहे तेई ग्रहीत हो हैं । सो इहां जिस अपेक्षा गृहीत, मगहीत, मिश्र .- कहे हैं; सो यथासंभव जानना । अब विशेष दिखाइए हैं
पुद्गल परिवर्तन का काल तीन प्रकार है । तहां प्रगृहीतके ग्रहण का काल, सो अगृहीत ग्रहण काल है । गृहील के ग्रहण का काल, सो गृहीत ग्रहण काल है। मिश्र के ग्रहण का काल, सो मिश्र ग्रहण काल है । सो इनिका परिवर्तन जो पलटना सो कैसे हो है ? सो अनुक्रम यंत्र करि दिखाइए हैं
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गोम्मटसार जीवकाम गाथा ५६० ___यंत्र विर्षे अगृहीत की सहनानी तो विदी ॥॥ जाननी अरु मिश्र की सहनानी हंसपद +|| जाननी । अर गृहीत की सहनानी एक को अंक ॥१॥ जाननी ।। पर दोय बार लिखने ते अनंत बार जानि लेना।
... द्रश्य परिवर्तन का यंत्र
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तहां विवक्षित नोकम पुद्गल परिवर्तन का पहिले समय से लगाइ, प्रथम बार समयबद्ध विषं अगृहीत का ग्रहण करै, दूसरी बार अगृहीत ही का ग्रहण कर, तीसरी बार अंग्रहीत ही की ग्रहण कर असे निरंतर अनंत बार अग्रहीत का ग्रहण होइ निवरै तब एक बार मिश्र का ग्रहण कर । याहीत यंत्र विर्ष पहिले कोठा विर्षे दोय बार विधी एक बार हसप मिस्या
बहुरि तहां पीछे तसे ही निरंतर अनंत बार अगृहीत का ग्रहण करि एक बार मिश्र का ग्रहण कर, असे ही अनुक्रमत अनंत अनंत · बार अगृहीत का ग्रहण करि करि एक - एक बार मिश्र का ग्रहण करैः; प्रैसें ही मिश्र का भी ग्रहण अनंत बार हो है । याहीत अनंत बार को सहनालो के निमित्त यंत्र विर्षे जैसा पहिला कोठा था, संसाही दूसरा कोठा लिख्या । .......
बहुरि तहां पीछे तैसे ही निरंतर अनंत बार अंगृहीत का ग्रहण करि एक बार गृहीत का ग्रहण करें, याहीते तीसरा कोठा विर्षे दोय बिदी पर एक का अंक लिख्या । बहुरि अगृहीत ग्रहण आदि अनुक्रम से जसे यह एक बार गृहीत ग्रहण भया, तैसे ही अनुक्रम ते एक - एक बार गृहीत 'ब्रहण करि 'अनंत बार गृहीत ग्रहण हो है । याहीत जसे तीन कोठे पहिले लिखे थे, तैसे ही अनंत की सहनानी के निमित्त दूसरा तीन कोठे लिखे, सो असे होते प्रथम परिवर्तन भया । तातै इतना प्रथमपंक्ति विर्षे लिखा। ..
अब दूसरी पंक्ति का अर्थ दिखाइए है - पूर्वोक्त अनुक्रम भए पीछे निरंतर अनंत कार मिश्र ग्रहण करे, तब एक बार अगृहीत ग्रहण करै । यात प्रथम कोठा विर्षे
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दोय हंसपद पर एक बिंदी लिखी । बहुरि निरंतर अनंत बार मिश्र ग्रहण करि, एक बार अगृहीत ग्रहण करे, सो इस ही क्रम से अनंत बार अगृहीत ग्रहण करैः याते पहला कोठा सारिखा दूसरा कोठा लिख्या। .
बहुरि सहां पीछे निरंतर अनंत बार मिश्र ग्रहण करि एक बार गृहीत ग्रहण करै। यात तीसरा कोठा विर्षे दोय हंसपद पर एक एक का अंक लिख्या । सो. मिश्व ग्रहण आदि पूर्वोक्त सर्व अनुक्रम लीए, एक - एक बार गृहीत ग्रहण होइ, सो, असे गृहीत ग्रहण भी अनंत बार हो है । यातें जैसे पहिले तीन कोठे लिखे थे, तैसे ही दूसरा तीन कोठे लिखे; असे होत संतै दूसरा परिवर्तन भया।
अब तीसरी पंक्ति का अर्थ दिखाइए है - पूर्वोक्त क्रम भए पीछे निरंतर अनंत बार मिश्र का ग्रहण करि एक बार गृहीत का ग्रहण करै; यात प्रथम कोठा विर्षे दोय हंसपद पर एक-एक का अंक लिख्या, सो अनंत अनंत बार मिश्र ग्रहण करि करि एक एक बार गृहीत ग्रहण करि अनंत बार गृहीतं ग्रहण हो है । यातै पहिला कोठा सारिखा दूसरा कोठा लिख्या । बहुरि अनंस बार मिश्रका ग्रहण करि एक बार अगहीत का ग्रहण कर । यातें तीसरा कोठा विर्षे दोय हंसपद पर एक बिंदी लिखी; सो जं से मिश्र ग्रहणादि अनुक्रम तें एक बार. अगृहीत का ग्रहण भया, तसे ही एक एक बार करि अनंत बार अग्रहीत का ग्रहण हो है । तातै पहिले तोन कोठे थे, तैसे ही दूसरा तीन कोठे लिखे; असे होत संतें तीसरा परिवर्तन भया।
प्राग चौथी पंक्ति का अर्थ दिखाइए हैं - पूर्वोक्त क्रम भए पीछे निरंतर अनंत बार गृहीत का ग्रहण करि एक बार मिश्र का ग्रहण कर, यात प्रथम कोठा विर्षे दोय एका पर एक हंसपद लिख्या है । सो अंनंत अनंत बार गृहीत का ग्रहण करि-करि एक एक बार मिश्र ग्रहण करि अनंत बार मिश्च का ग्रहण हो है । यात प्रथम कोठा सारिखा दूसरा कोठा कीया । बहुरि तहां पीछे अनंत बार गृहीत का ग्रहण करि एक बार अगृहीत का ग्रहण कर; यात तीसरा कोठा विर्षे दोय एका अर एक बिंदी लिखी । बहुरि चतुर्थ परिवर्तन की प्रादि तैं जैसा अनुक्रम करि यहु एक बार अंगहीत ग्रहण भया । तैसे ही अनुक्रम ते अनंत बार अगृहीत ग्रहण होइ, याते पहिले तीन कोठे कीए थे, तसे ही प्रागै अनंत बार की सहनानी के अथि दूसरा तीन कोठे कीए । असे होते संते चतुर्थ परिवर्तन भया । बहुरि तीहिं चतुर्थ परिवर्तन का अनंतर समय विर्षे विवक्षित नोकर्म द्रव्य परिवर्तन के पहिले समय विषं जे पुद्गल जिस
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[ गोमटसार भोकाड गाथा ५६. स्निग्ध, रूक्ष, वर्ण, गंधादि भाव कौं लीए ग्रहण कीए थे: तेई पुद्गल तिस ही स्निग्ध, रूक्ष, वर्ण गंधादि भाव कौं लीए शुद्ध गृहीतरूप ग्रहण कीजिए है ; सो यह सब मिल्या हुवा संपूर्ण नोकर्म द्रव्य परिवर्तन जानना ।
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आगे कर्म पुद्गल परिवर्तन कहिए हैं-किसी जीवने एक समय विर्षे आठ प्रकार कर्मरूप जे पुद्गल ग्रहे, ते एक समय अधिक आवली प्रमाण आबापा काल कों गए पीछे द्वितीयादि समयनि विर्षे निर्जरारूप कीए, पीछे जैसा अनुक्रम आदि तें लगाइ, अंत पर्यंत नोकर्म द्रव्य परिवर्तन विर्षे कहाः तैसा ही अनुक्रम सर्व चारयो परिवर्तन संबंधी इस कर्म द्रव्य परिवर्तन विर्षे जाननाः। ... .
. .. विशेष. इतना तहां नोकर्म संबंधी पुद्गल थे,इहां कर्म संबंधी पुद्गल जानने । अनुक्रम विर्षे किछू विशेष नाहीं । पीछे पहिले समय जैसे पुद्गल ग्रहे थे, तेई पुद्गल तिस ही भाव कौं लीए, चतुर्थ परिवर्तन के अनंतर समय विर्षे ग्रहण होइ; सो यहु सर्व मिल्या हुवा संपूर्ण कर्म परिवर्तन जानना । इस द्रव्य परिवर्तन कौं पुद्गल परिवर्तन भी कहिए है । सो नोकर्म पुद्गल परिवर्तन का अर कर्मपुद्गल परिवर्तन का काल समान है । बहुरि इहां इतनां जानना - पूर्वं जो क्रम कह्या, तहां जैसे पहिले अनंत बार अगृहीत. का ग्रहण कार, तहां वीचि वीचि में गृहीत ग्रहण का मिश्र ग्रहण भी होइ, सो अनुक्रम वि तो पहिली बार पर दूसरी बार आदि जो अगहीत ग्रहण होइ; सोई गिणने में आये है । अर काल परिमाण विर्षे गृहीत, मिश्र ग्रहण का समय सहित सर्व काल गिणने में प्राव है । जिनि समयनि विर्षे गृहीत का ग्रहण है, ते समय गृहीत ग्रहण के काल विषं गिणने में आवे हैं । जिनि समयनि विर्षे मिश्र का ग्रहण हो है, ते समय मिश्र ग्रहण के काल विर्षे गिणने में प्राव है। जिन समयनि विर्षे अगृहीत ग्रहण हो है, ते समय अगृहीत ग्रहण काल विर्षे गिरणने में प्रार्दै हैं; सो यह उदाहरण कया है। अस ही सर्वत्र जानना । क्रम विर्षे तो जैसा अनुक्रम कह्मा होइ, तेसै होइ, तब ही गिणने में प्रावै । अर तिस अनुक्रम के बीच कोई अत्य. रूप प्रवत, सो अनुकम विषं गिणने में नाहीं । पर जिनि समयनि विर्षे अन्यरूप भी प्रवर्ते है, तिनि समयनिरूप जो काल, सो परिवर्तन का काल विर्षे गिणने में पावै ही है । जैसे ही क्षेत्रादि परिवर्तन विर्ष भी जानना ।
जैसे क्षेत्र परिवर्तन विर्षे किसी जीवने जघन्य अवगाहना पाई, परिवर्तन प्रारंभ कोया, पीछे केते एक काल अनुक्रम रहित अवमाहना पाई, पीछे अनुक्रमरूप अवगा
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सन्थग्नानचन्धिका भाषाहीका 1
। ६५६ हना कौं प्राप्त भया, तहां क्षेत्र परिवर्तन का अनुक्रम विर्षे तौ पहिले जघन्य अगाहना पाई थी, अर पीछे दूसरी बार अनुक्रमरूप अवगाहना पाई; सो गिणने में प्रावै है । अर क्षेत्र परिवर्तन का काल विर्ष बीचि में अनुक्रम रहित अवगाहना पावने का काल सहित सर्व काल गिणने में प्राव है । जैसे ही सर्व विर्षे जानि लेना।
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अब इहां द्रव्य परिवर्तन विर्षे काल का परिमाण कहैं हैं । तहां अगहीत ग्रहण का काल अनंत है ; तथापि यहु सर्व से स्तोक है । जाते जिनि पुद्गलनि स्यौं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनि का संस्कार नष्ट है, ते पुद्गल बहुत बार ग्रहण में प्रावते नाही, याही ते विवक्षित पुद्गल परिवर्तन के मध्य गृहीत पुद्गलनि का ही बहुत बार ग्रहण संभव है । सोई कह्या है -
सुहमटिदिसंजुत्तं, आसण्णं कम्मरणज्जरामुक्कं । ।
पाएग एदि गहणं, दज्वमरिणद्दिसंठाणं ॥ जे पुद्गल कर्मरूप परिणए थे, पर जिनकी स्थिति थोरी थी, पर निर्जरा होते कम अवस्था करि रहित भए हैं पर जीव के प्रेदशनि स्यों एक क्षेत्रावगाही तिष्ठं हैं, पर संस्थान आकार जिनिका कह्या न जाय पर विवक्षित पुद्गल परिवर्तन का पहिला समय विर्षे जिस स्वरूप ग्रहण में प्राए, तिसकरि रहित होइ, असे पुद्गल, जीव करि बाहुल्य पर्न समयप्रबद्धनि विर्षे ग्रहण कीजिए है । असा नियम नाहीं, जो जैसे ही पुद्गलनि का ग्रहण करें, परंतु बहुत बार असे ही पुद्गल नि 'का ग्रहण हो है, जाते ए पुद्गल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का संस्कार करि संयुक्त हैं ।
. 'बहुरि अगृहीत ग्रहण के काल तें मिश्र ग्रहण का काल अनंत गुणा है । बहुरि तिस मिश्र ग्रहण के काल ते गृहीत ग्रहण का जघन्यकाल अनंत गुणा है । बहुरि तिस तं सर्व पुद्गल परिवर्तन का जघन्य काल किछ अधिक है । जघन्य गृहीत ग्रहण काल को अनंत का भाग दीएं, जो प्रमाण प्रावै, तितना जधन्य गृहीत ग्रहण काल विर्ष मिलाइए, तब अधन्य पुद्गल परिवर्तन का काल हो है । बहुरि तिसतै गृहीत ग्रहण का उत्कृष्ट काल भनत गुणा है, बहुरि तातें संपूर्ण पुदगल परिवर्तन का उत्कृष्ट काल किछ, अधिक है । उत्कृष्ट गृहीत ग्रहण काल की अनंत का भाग दीए, जो प्रमाण प्रादे, तितना उत्कृष्ट गृहीत ग्रहण काल विर्षे मिलाइए, तब उत्कृष्ट पुद्गल परिवर्सम का काल हो है । इहां अगृहीत ग्रहण काल अर मिश्न ग्रहण काल विर्षे जघन्य उत्कृ
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mean
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६५२ ]
| गोडसार गोषकाण्ड गाथा ५६० ष्टपना नाहीं है । जाते परंपरा सिद्धांत विष तिनके जवन्य उत्कृष्टपने का उपदेश का अभाव है। इहां प्रासंमिक (उक्त च) माथा कहैं हैं---
अगहिदमिस्सं गहिवं, मिस्समगहिदं तहेव गहिवं छ ।
मिस्सं गहिदमगहिदं, गहिदं मिस्सं अगहिदं च ।। पहिला - अगृहीत, मिश्र, गृहीतरूप; दूसरा - मिश्र, अगृहीत, गृहीतरूप; तीसरा - मिश्र, गृहीत, अगृहीतरूप; चौथा - गृहीत, मिश्र, प्रगृहीतरूप परिवर्तन भए द्रव्य परिवर्तन हो है । सो विशदरूप पूर्वं कहा ही है। उक्तंच (प्रार्या छंद)
सर्वेऽपि पुद्गलाः, खल्वेकेनात्तोज्झिता जोवेन ।
ह्यसकृत्वसंतकृत्वः, पुनलपरिवर्तसंसारे ॥ एक जीव पुद्गल परिवर्तनरूप संसार विषं यथा योग्य सर्व पुद्गल वारंवार अनंत वार नहि छाडै है ।। · · श्रागें क्षेत्र परिवर्तन कहिए हैं - सो क्षेत्रपरिवर्तन दोय प्रकार - एक स्वक्षेत्र परिवर्तन, एक परक्षेत्र परिवर्तन ।
-तहां स्वक्षेत्र परिवर्तन कहिए हैं - कोई जीव सूक्ष्म निगोदिया की जघन्य अवगाहना कौं धारि उपज्या, अपना सांस का अठारहवां भाग प्रमाण श्रायु कौं भोगि मुवा, बहुरि तिस ते एक प्रदेश बधती अवगाहना कौं धरै, पीछे दोय प्रदेश बधती अवगाहना कौं घरै, असे एक - एक प्रदेश अनुक्रम ते बधती - बघती महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत संख्यात धनांगुल प्रमाण अवगाहना के भेदनि की सोई जीव प्राप्त होइ । जे अवगाहना के भेद हैं, ते सर्व एक जीव अनुक्रम ते यावत्काल विर्षे धारै, सो यह सर्व समुदायरूप स्वक्षेत्र परिवर्तन जानना ।
अब परक्षेत्र परिवर्तन कहिये हैं....... सूक्ष्म निगोंदिया लब्धि अपर्याप्तक जघन्य अवगाहनारूप शरीर का धारक
सो लोकाकाश के मध्य जे पाठ आकाश के प्रदेश हैं, तिनकौं अपने शरीर की प्रवगा हना के मध्यवर्ती पाठ प्रदेश करि अवशेष, उनके निकटवर्ती अन्य प्रदेश, तितकी रोक · करि उपज्या, सांस का पठारहवां भाग मात्र क्षुद्र भव काल जीय करि मूवा । बहुरि सोई जीव तैसे ही अवगाहना की धारि, तिस ही क्षेत्र विर्षे दूसरा उपज्या, सो जैसे
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सम्पनामचन्द्रिका माथा टीका ]
। ६५३ धनांगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण जघन्य अवगाहना के जेते प्रदेश हैं, तितनी बार तौ तसे ही उपज्या, पीछे तहां स्यों एक प्रदेश आकाश का उसके निकटवर्ती, ताकौं रोकि करि उपज्या, असे अनुक्रम ते एक - एक प्रदेश करि सर्व लोकाकाश के प्रदेशनि कौं अपना जन्मक्षेत्र कर, सो यह सर्व परक्षेत्र परिवर्तन है। उक्त च
सर्वत्र जगरक्षेत्रे, देशो न झस्ति जंतुनाऽक्षण्णः । . .. अवगाहनानि बहुशो बंभ्रमता क्षेत्रसंसारे ॥ : . क्षेत्र संसार विर्षे भ्रमण करता जीव करि जाका अपने शरीर की अवगाहना करि स्पर्श न कीया असा सर्व जगछ णो का घन प्रमाण लोक विर्षे कोई प्रदेश नाहीं है । बहुरि जाकी बहुत बार अंगीकार ने कीया, असा कोई अवगाहना का भेद भी
। प्राग काल परिवर्तन कहिये हैं- .. ... कोई जीव उत्सर्पिणी काल का पहिला. समय विर्षे उपज़्या, अपना प्रायु कौं पूर्ण करि मूवा । बहुरि दूसरा उत्सपिणी काल का दूसरा समय विष उपज्या, अपना प्रायु कौं पूर्णकरि मूवा । बहुरि तीसरी उत्सपिरणी काल का तीसरा समय विर्षे उपज्या, तसे ही मुवा । असे दश कोडाकोडि सागर प्रमाण उत्सपिणी काल के जेते समय हैं, तिनको पूर्ण करै। बहुरि पीछे इस ही अनुक्रम ते दश कोडाकोडि प्रमाण अवसर्पिणी काल के जेते समय हैं, तिनको पूर्ण करै । बहुरि जैसे जन्म की अपेक्षा कह्या, अनुक्रम तैसे ही मरण की अपेक्षा अनुक्रम जानना । पहिले समय विष मूवा, दूसरे समय विर्षे मूवा, असें कल्पकाल समयनि कौं पूर्ण करै, सो यह सर्व मिल्या हूआ काल परिवर्तन जानना । उक्तं च--
उत्सपिण्यवसपिरिणसमयावलिकासु निरबशेषासु ।
जातो मृतश्च बहुशः, परिभ्रमन् कालसंसारे ।
काल संसार वि भ्रमण करता जीव, उत्सर्पिणी अवसर्पिणीरूप कल्प काल * का समस्त समय, तिनकी पंकति विर्षे कम ते बहुत बार जन्म धऱ्या है, अर मरण कीया है।
प्रागै भव परिवर्त कहे हैं-- ___कोऊ जीव नरक गति विर्षे जघन्य प्रायु दशहजार वर्ष की धारि उपज्या, • पीछे मरण करि संसार विर्षे भ्रमण करि तहां ही जघन्य दश हजार वर्ष की आयु कौं
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教育
[ गोम्मटार का गाया ५६०
धारि उपज्या, जैसे दश हजार वर्ष के जेते समय होंहि, तितनी बार तौ जघन्य श्रायु क ही धारि धारि उप कर मरे पीछे का हजार वर्ग अर एक समय का आयुक धारि उपजै, पीछे दश हजार दोय समय के प्रायु को धारि उपजै, जैसे एक - एक समय बघता अनुक्रम तें उत्कृष्ट श्रायुमात्र तेतीस सागर पूरण करें, पीछे तियंच गति विषं अंतर्मुहूर्तमात्र जघन्य श्रायु को धारि उपजै, सो पूर्ववत् अंतर्मुहूर्त के जेते समय होहि, तितनी बार तो तिस अंतर्मुहूर्त प्रमाण ही आयु को धारि धारि उपजै । पीछे एक समय अधिक अंतर्मुहूर्त प्रायु को धारि उपजे, पीछे दोय समय अधिक अंतर्मुहूर्त आयु की धारि उपजे से एक एक समय अनुक्रम ते बघते बघते उत्कृष्ट आयु का तीन पल्य पूर्ण करें । बहुरि मनुष्य गति विषै तिर्यंच गति की ज्यों अंतर्मुहूर्त लगाइ तीन पल्य को पूर्ण करें । बहुरि देवगति विषै नरक गति की ज्यों दश हजार वर्ष तें लगाइ, इकतीस सागर पूर्ण करें, जातें मिथ्यादृष्टी जीव अनुत्तर अनुदिश fara far उप नाहीं, ऊपरि के वैयक पर्यंत ही उपज, तातें इकतीस सागर ही कहे, असे भ्रमण करि बहुरि नरक विषै दश हजार वर्ष प्रमाण जघन्य श्रायु को धारि उपज, तब यह सर्व संपूर्ण भव परिवर्तन हो है ।
उक्त च
नरक जघन्यायुष्यादुपरिम ग्रैवेय कावसानेषु । मिथ्यात्वसंश्रितेन हि भवस्थितिर्भाविता बहुशः ॥
मिथ्यात्व करि श्राश्रित जीव, तीहि नरक का जघन्य आयु आदि उपरिभ गंदेयक पर्यंत या विषै संसार की स्थिति बहुत बार भोगई है ।
आगे भाव परिवर्तन कहिये हैं
सो भाव परिवर्तन योग स्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान, कषायाध्यवसाय स्थान, स्थिति स्थान इनि व्यारिनि के परिवर्तन तें हो हैं; सो प्रथम इनका स्वरूप कहिये हैं-
प्रकृति बंध, प्रदेश बंघ की कारण से प्रदेश परिस्पंद लक्षण योग, तिनिके जे जघन्यादि स्थान, ते योगस्थान हैं : बहुरि जिनि कषाय युक्त परिणामनि तैं कर्मनि का अनुभाग बंध हो है, तिनिके जघन्यादि स्थान ते अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान हैं । बहुरि जिनि कषाय परिणामनि ते स्थिति बंध हो है, तिनिके जघन्यादि स्थान के इहां
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[ ६५५
सम्यग्ज्ञानका भाषाका
कायाध्यवसाय स्थान कहे हैं । या स्थिति बंधाध्यवसाय स्थान भी इनको कहिये । बहुरि बंधनेरूप जो कर्मनि की स्थिति, तिनिके जघन्यादिक स्थान, ते स्थिति स्थान कहिए | इनिका विशेष स्वरूप आगे कहेंगे, सो जानना ।
Jagt इहां एक-एक स्थिति भेद के बंध के कारण अपने योग्य प्रसंख्यात लोक Start ferfar auratसायं स्थान पाइये है । बहुरि एक-एक स्थिति बंधाध्यवसाय स्थान विषै यथायोग्य श्रसंख्यात लोक प्रमाण अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान पाइयें । बहुरि एक एक अनुभाग बँधाध्यवसाय स्थान विषे जगछु णी के असंख्यातवें भागमात्र पोग स्थान गये हैं ।
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अब इनके परिवर्तन का अनुक्रम ज्ञानावरण कर्म का उदाहरण करि कहिये हैं - कोऊ जीव पंचेंद्री सैनी पर्याप्त मिथ्यादृष्टी सो अपने योग्य जघन्य ज्ञानावरण नामा कर्म की स्थिति अंतः कोटाकोटी सागर प्रमाण बांध हैं, इस जीव के यात घाटि स्थिति बंध होता नाहीं, तातें या यह हो जघन्य स्थिति स्थान है, सो कोडि के ऊपरि घर कोडाकोडि के नीचे ओ होइ, ताकों अंतः कोटाकोटी कहिये । तहां तिस tara स्थिति बंध करनेवाले जीव के तिस जघन्य स्थितिबंध की योग्य असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसाय स्थान पाइये है, ते परिणामनि की अपेक्षा अनंत भागादिक षट् Fort of fr हैं । बहुरि तिनिविषे भी जघन्य कषायाध्यवसाय स्थान की निमित्तभूत अनुभाग बंधाव्यवसाय स्थान प्रसंख्यात लोकप्रमाण पाइये है । सो पूर्वोक्त कोऊ जीव के अंतः कोटाकोटी सागर प्रमाण जघन्य हो तो स्थिति स्थान हैं । अर ताके जघन्य ही tetorध्यवसाय स्थान है, अर जघन्य ही अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान हैं । अर तिस जीव के जसा योग्य होइ, तैसा जघन्य ही योग स्थान पाइये है, तहां भाव परिवर्तन का प्रारंभ हुवा । बहुरि तिसही जीव के स्थिति स्थान कषायाध्यवसाय स्थान, अनुHeartयवसाय स्थान ए तो तीनों जघन्य ही रहे घर जघन्य ते असंख्यात भागवृद्धि "कौं लीए योग स्थान दूसरा भया, पीछे स्थिति स्थानादिक तीनों तो जघन्य ही रहे, योग स्थान तीसरा भया । असें अनुक्रम तें अविभाग प्रतिच्छेदनि को अपेक्षा अस ख्यात भागवृद्धि, संख्यात भाग बृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धिरूप चतु स्थान पतित वृद्धि लीएं श्रेणी के प्रसंख्यातवे भाग प्रमाण योग स्थान भए । बहुरि स्थिति स्थान अर कषायाध्यवसाय स्थान तो जघन्य ही रहे, घर अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान का दूसरा स्थान भया । तहाँ योग स्थान जघन्य तें लगाइ, पूर्वोक्त प्रकार क्रम तें सर्व भए । बहुरि स्थिति स्थान पर कषायाध्यवसाय स्थान तो जघन्य हीं रहे,
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६५६ ]
[ गोम्मटसार जीवकण्ड गाथा ५६०
श्रर अनुभाग बंधाध्यवसायस्थान का तीसरा स्थान भया । तहां भी योगस्थान पूर्वोक्त प्रकार भए, से क्रमतें अपने योग. असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थाव भए । बहुरि स्थिति स्थान तो जघन्य ही रह्या, अर कषायाध्यवसाय स्थान का दूसरा स्थान भया तहां पूर्वोक्त प्रकार योगस्थाननि को लीए जघन्य से लगाइ, अनुभागाव्यवसाय स्थान भए । बहुरि स्थिति स्थान तौ जघन्य ही रह्या, अर कषायाध्यवसाय स्थान का तीसरा स्थान भया । तहां भी पूर्वोक्त प्रकार योग स्थाननि को लीए, क्रम
अनुभागाध्यवसायस्थान भए, जैसे ही क्रम तें अपने योग्य कषायाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोक प्रमाण भए । बहुरि ज से यह अंतः कोटाकोटी प्रमाण जघन्य स्थिति स्थान विषै अनुक्रम कह्या, तैसे ही जघन्य तें एक समय अधिक दूसरा स्थिति स्थान विष अपने योग्य योग स्थान अनुभागध्यवसाय स्थान के परिवर्तन कौं लीए पूर्वोक्त प्रकार क्रम तें अपने योग्य सर्व कषायाध्यवसाय स्थान भए । बहुरि अँसे ही जपन्य तें दोय 'समय अधिक तीसरा स्थिति स्थान विषै भए । असे एक-एक समय बघता स्थिति स्थान का अनुक्रम करि तीस कोडाकोडी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति पर्यंत जानना । बहुरि 'जे से यह ज्ञानावरण अपेक्षा कथन कीया, तैसे ही कर्मनि की सर्व मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृतिनि विषै परिवर्तन का अनुक्रम जानना । जैसे यह सर्व मिल्या हुवा भाव परि 'वर्तन जानना । इहां जघन्य स्थिति आदि विषै सर्व ही कषायाच्यसाय स्थानादिकनि का पलटना न हो है । जघन्य स्थिति श्रादि विषै जे संभव तिन ही का पलटना हो है, असा जानना |
उक्त च प्रार्या छंद ---
सर्वप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेश बंधयोग्यानि ।
स्थानान्तुभूतानि भ्रमता भुवि भावसंसारे ॥ १॥
लोक विषै भाव संसार विषै भ्रमण करता जीव करि प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग बंध की योग्य; जे योगनि के, कषायनि के, स्थिति के, स्थान ते सब ही भोगिए है । इहां परिवर्तन का अनुक्रम विषै जघन्य स्थिति स्थान संबंधी स्थिति बंधाtaare स्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान, योग स्थान जघन्य ते लगाइ उत्कृष्ट पर्यंत हो है । तिनिकों आदि दे कर सर्वोत्कृष्ट स्थिति पर्यंत अपने-अपने संबंधी जघन्य ते उत्कृष्ट ,पर्यंत स्थिति बंधाव्यवसायादिक कौं स्थापि, यथासंभव जैसे गुणस्थान प्ररूपणा विष प्रमादभेदन के निमित्ति अक्षसंचार करि परिवर्तन का विधान कहा था, जैसे इहां भी अक्षसंचार करि परिवर्तन का विधान जानता । ए पंच परिवर्तन कहे ।
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सम्माजामपन्द्रिका भावारीका
अब इनिका काल कहिए हैं
सर्व से स्तोक एक पुद्गलपरिवर्तन का काल हैं, सो अनंत है । बहुरि ताते अनंत गुणा क्षेत्र परिवर्तन का काल है। बहरि तातें अनंत गुणा काल परिवर्तन का काल है । बहुरि तातें अनंत गुणा भव परिवर्तन का काल है । बहुरि तात् अनंत गुणा भाव परिवर्तन का काल है। याहीं तें एक जीव के अनादि से लगाइ, 'अतीत काल विर्षे भाव परिवर्तन थोरे भए; ते परिण अनंत भए । बहुरि तिनित अनंतगुण भव परिवर्तन भए । बहुरि तिनित अनंत मुरणे काल परिवर्तन भए । बहुरि तिनितें अनंत गुणे क्षेत्र परिवर्तन भए, बहुरि तिनित अनंत गुणे द्रव्य परिवर्तन भए, असे जानना।
बहुरि जैसे स्वर्गादि विष दिन-रात्रि का अभाव है, तहां मनुष्य क्षेत्र अपेक्षा वर्ष आदि का प्रमाण कीजिए हैं, तैसें निगोदादि विर्षे जीवनि के जैसे जहां परिवर्तन का अनुक्रम न हो है । तहां अन्य जीव अपेक्षा परिवर्तन का काल ग्रहण कीजिए है । - उक्तं व आर्याछंद-. .....
पंचविधे संसारे, कर्मवशाजनदर्शित मुक्तः
मार्गमपश्यन् प्राणी, नानदुःखकुले भ्रमति ।। जिनमत करि दिखाया जो मुक्ति का मार्ग, ताकौं न श्रद्धान करता प्राणी जीव नाना प्रकार दुःखनि करि पाकुलित जो पंच प्रकार संसार, तीहिविर्षे भ्रमण करे है ।
इति प्राचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवति विरचित गोम्मट सार वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीवतत्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका के अनसारि सम्यग्ज्ञानचंद्रिकानामा भाषाटीका विर्षे जीवकाण्ड विर्षे प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा तिनि विर्षे भव्यमार्यरा प्ररूपमा है
नाम जाका प्रैसा सोलहवां अधिकार संपूर्ण भया ॥१६॥
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सतरहतां अधिकार : सम्यक्त्व-मार्गणा
शान उदधि शशि कुंथु जिन, बंदौ अमितविकास ।
कुश्वादिक कीए सुखी, जनम मरण करि नाश ॥ प्रागें सम्यक्त्व मार्गणा कौं कहैं हैं:--.: - छ-प्पंच-पव-विहाणं, प्रत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं। . प्राणाए अहिगमेण य, सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥५६॥
षट्पञ्चनवविधानामर्थानां जिनघरोपदिष्टानाम् ।
प्राशाया अधिगमेन च, श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ।।५६१॥ टीका - द्रव्य भेद करि छह प्रकार, मस्तिकाय भेद करि पांच प्रकार पदार्थ भेद करि नौ प्रकार से जो सर्वज्ञ देव करि कहे जीवादिक बस्तु तिनका श्रद्धानरुचि-यथावत प्रतीति; सो सम्यक्त्व जानना । सो सर्वदेवने जैसें कहा है, तेसे ही है। कैसे प्राप्तवचन करि सामान्य निर्णयरूप है लक्षण जाका असी जो आज्ञा, तीहिकरि बिना ही प्रमाण नयादिक का विशेष जाने, श्रद्धान हो है । अथवा प्रत्यक्ष - परोक्ष प्रमाण अर द्रव्याथिक - पर्यायाथिक नय अर नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, निक्षेप पर व्याकरणादि करि साधित निरुक्ति पर निर्देश, स्वामित्व भादि अनुयोग इत्यादि करि विशेष निर्णयरूप है लक्षण जाका, असा जो अधिगम, तीहिकरि श्रद्धान हों है ।
सरागवीतरागात्म-विषयत्वान् द्विधा स्मृतम् ।
प्रशमादिगुणं पूर्व, परं चात्मविशुद्धिजम् ॥१॥ सम्यक्त्व दोय प्रकार है, एक सराग, एक वीतराम । तहां उपशम, संवेग, मास्तिक्यादिक गुणनिरूप राग सहित श्रद्धान होइ, सो सराग सम्यक्त्व है । बहुरि केवल चैतन्य मात्र प्रात्मस्वरूप की विशुद्धता मात्र वीतराग सम्यक्त्व है ।
१. षाडागम -- पवजा पुस्तक १, पृष्ठ सं. १५३ गाथा सं. १६. पृष्ठ ३६७, गाथा सं. २१२
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सम्यग्शनचयिका भाषाटोका |
उक्त च -
प्राप्ते व्रते ते तस्ये, चित्तमस्तित्वसंयुतम् । surferent fear तं सम्यक्त्वेन युते नरे ।
सो सम्यदृष्टी जीव के सर्वज्ञ देव विषै, व्रत विषे, शास्त्र विषै, तत्त्व विषै जैसे ही है असा अस्तित्वभाव करि संयुक्त चिस हो है, सो सम्यक्त्व सहित जीव विष आस्तिक्य गुण है । असें अस्तित्ववादीनि करि कहिए हैं अथवा 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' असा कया है अथवा 'तस्वरुचिः सम्यक्त्वम्' २ असा कया है, सो ए सर्व विशेषण एकार्थ हैं । इति सबनि का अर्थ यह जानना - जो यथार्थ स्वरूप लीएं, पदार्थनि का श्रान, सो सम्यक्त्व है ।
उक्त च -
प्रदेशयात्कायाः प्रका परिच्छेद्यत्तस्तेऽर्थाः तत्त्वं वस्तुस्वरूपतः ॥१॥
अर्थ - सम्यक्त्व के श्रद्धान विषै धावने योग्य जे जीवादिक, ते बहुत प्रदेशनि का प्रचध - समूह को घरें हैं, तातें काय कहिए । बहुरि अपने गुण पर्यायनिक द्रवें हैं, व्यायें हैं, तातें द्रव्य नाम कहिए । बहुरि जीव करि जानने योग्य हैं, तात ग्रंथ कहिए | बहुरि वस्तुस्वरूपपना को घरें हैं, तातें तत्त्व कहिए । असे इनिका सामान्य
लक्षण जानना ।
पति के अधिकार कहैं हैं -
छद्दथ्येसु य णामं, उवलक्खरवाय अत्थरणे कालो । अत्थतं संखा, ठारपसरूवं फलं च हवे १५६२।।
षद्रव्येषु च नाम, उपलक्षणानुवादः प्रस्तित्वकालः । प्रस्तित्वक्षेत्र संख्या, स्थानस्वरूपं फलं च भवेत् ।। ५६२ ॥
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टीका - षट् द्रव्यनि के वर्णन विषै १ नाम, २. उपलक्षणानुवाद, ३. स्थिति,
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४. क्षेत्र, ५. संख्या, ६ स्थानस्वरूप, ७. फल ए सात अधिकार जानते ।
१. तत्त्वार्थसूत्र : श्रध्याय १, सूत्र २ । २. धष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा ३८ ।
1
I
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THEचात
६६०
[ गोम्मटसार जोक्षकारुड गाया ५६३-५६४ तहां प्रथम कहा जो नाम अधिकार, ताहि कहैं हैं -- जीवाजीयं दध्वं, रूवारूवि ति होदि पत्तेयं । संसारत्या रूवा, कम्मविमुहका अरूवगया ॥५६३॥
जीवजीवं द्रव्य, रूप्यरूपीति भवति प्रत्येकम् ।
संसारस्था रूपिरणः, कर्मविमुक्ता अरूपगताः ।।५६३।। टीका - सामान्य संग्रह नय अपेक्षा द्रव्य एक प्रकार है । बहुरि सोई द्रव्य भेद विवक्षा करि दोय प्रकार है । एक जीव द्रव्य, एक अजीवद्रव्य, तहाँ जीव द्रव्य दोय प्रकार है – एक रूपी, अर एक अरूपी, तहां जे जीव संसार अवस्था विर्षे. तिष्ठे हैं । तिनिके मूर्तीक पुद्गल का संबंध पाइए है । तातै तिनकौं रूपी कहिए । बहुरि सिद्ध भगवान पुद्गलीक कर्म करि मुक्त भए हैं । तातें तिनको अरूपी कहिए । बहुरि अजीय द्रव्य भी रूपी, अरूपी के भेद हैं दोय प्रकार है।
सो कहिए हैं -- प्रज्जीवेस य रूवी, पम्गलदवाणि धम्म इदरो वि। आगासं कालो वि य, चत्तारि अरूविणो होति ॥५६४॥
अजीवेषु रूपोरिण, पुद्गलद्रध्याणि धर्म इतरोऽपि ।
शाकाशं कालोऽपि च, चत्वारि अरूपाणि भवति ।।५६४॥ टोका -- अजीव द्रव्यनि विर्षे पुद्गल द्रव्य तौ रूपी है । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुरण संयुक्त मूर्तीक है। बहरि धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य ए च्यारि अरूपी हैं । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण रहित अमूर्तीक हैं। इहाँ उक्त च---
वर्णगंधरसस्पर्शः, पूरणं गलनं च यत् ।
कुर्वति स्कंधवस्तस्मात्पुद्गलाः परमारंगवः ।। अर्थ - पूरण अर गलन कौं जो करै, सो पुद्गल कहिए । युक्त होने का नाम पूरण है, पर दिछुडने का नाम गलन है, जात वर्ण, गंध, रस, स्पर्श मुणनि करि पूरण गलन कौं स्कंधवत् करै है । जैसें स्कंध विर्षे कोऊ परमाणू मिले हैं, कोऊ बिछुरें हैं । तैसें परमाणु विर्षे कोऊ वर्णादिक का भेद उत्पन्न हो है, सो मिले है । कोऊ नष्ट हो है, सो बिछुरै है । तातें परमाणु हैं, ते पुद्गल कहे हैं ।
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सम्यशामचम्किा भाषाटीका 1
बहुरि असे परमाणूनि के पुद्गलपना होते वणुक आदि स्कंधनि के कैसे पुद्गलपना है ?
सो कहिए हैं - कोऊ परमाणू मिले है, कोऊ बिछुरै है, सो असा प्रदेशनि का पूरण गलन करि करि जे द्रवें हैं. द्रवंगे 5ए, तातें तिनकों पुद्गल कहिए है । अपने स्वभाव रूप परिणमने का नाम बना है। इस ट्रवत्व गुण तें द्रव्य नाम पावै है।
इहां प्रश्न - जो परमाणू की अविभाग निरंश कहिए है, सो परमाणू तो छह कौण की लीएं गोल आकार है; सो जहां छह कोण भए, तहां छह अंश सहज ही आए, तो निरंश कैसे कहिए ?
उक्त च -
षट्कोरणयुगपद्योगात्परमारणोः षडशता ।
षण्णां समानदेशित्वे, पिडं स्यादणुमात्रकम् ॥१॥ अर्थ -- युगपत् छह कौण का समुदाय है; तातें परमाणू के छह अंशपना संभव है । छहौ कौं समानरूप कहते सतें परमाणू मात्र पिंड हो है।
ताका उत्तर - परमाणू के द्रव्यार्थिक नय करि निरंशपणा है; परंतु पर्यायार्थिक नय करि छह अंश कहने में किछु दोष नाहीं। उक्त च -
आद्यंतरहितं तथ्य, विश्लेषरहितांशकम् ।। स्कंधोपादानमत्यरं, परमाणु प्रचक्षते ॥१॥
जो द्रव्य आदि अंत रहित है । बहुरि जिस विषं छह अंश पाइए है। ते कबहूं भिन्न भिन्न न हो हैं, तातै भिन्न भाव रहित अंश की धरै हैं । बहुरि स्कंध ग्रहण की शक्ति का धारक है । बहुरि इंद्रिय गम्य नाहीं है । असे द्रव्य को परमाणू कहिए है । परमाणू विर्षे कोणानि की अपेक्षा छह अंश हैं । ते अंश कहूं भिन्न भिन्न न होई । अथका परमाणू ते छोटा जगत विष कोऊ और पदार्थ भी नाहीं है । जिसकी अपेक्षा करि भाग कल्पना कीजिए; तातें परमाणू कौं अंबिभाग कहिए है । बहुरि कोणनि. की अपेक्षा छह अंश कहिए; ती भी किछु दोष नाहीं । बहुरि आदिपुराणादि विषं
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६६२ !
। गोगटार श्रीवकाण्ड गाया ५६५-५६६ परमाणू गोल कला है; सो यह षट्कोण को लीए आकार गोल क्षेत्र ही का भेद है, तात गोल कहा है । असे अणू वा स्कंधरूप पुद्गल द्रव्य तो रूपी अजीव द्रव्य जानना । बहुरि धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य ए चार्यों अरूपी अजीव द्रव्य जातले इति । सारिका
· उवजोगो दण्णचऊ, लक्खणमिह जीवपोग्गलाणं तु । .: गदिठाणोग्गहवत्तणकिरियुवयारो दु धम्मचक ॥५६॥
उपयोगो वर्णचतुष्क, लक्षरणमिह जीवपुद्गलानां तु। .. ..
गतिस्थानावगाहवर्तनक्रियोपकारस्तु धर्मचतुर्णाम् ॥५६५॥ टीका -- द्रव्यनि के लक्षण कहै हैं। तहाँ जीव अर पुग़लनि के लक्षण (क्रमशः) उपयोग पर वर्ण चतुष्क जाननी । तहाँ दर्शन-ज्ञान उपयोग जीवनि का लक्षरण है । वर्ण, गंध, रस, स्पर्श पुद्गलनि का लक्षण है । बहुरि गति, स्थान, अवगाह, वर्तनारूप क्रिया का उपकार ते धर्मादिक च्यारि द्रव्यनि के लक्षण हैं ! तहां गतिहेतुत्व धर्म द्रव्य का लक्षण है,। स्थितिहेतुत्व अधर्म द्रव्य का लक्षण है। अवगाह हेतुत्व प्राकाश. द्रव्य का लक्षण है । वर्तनाहेतुत्व काल द्रव्य का लक्षण है।
गदिठाणोग्गहकिरिया, जीवाणं पुग्गलाणमेव हवे । धम्मतिये ण हि किरिया, मुक्खा पुण साधगा होति ॥५६६॥
गतिस्थानावगाहक्रिया, लीवानां पुद्गलानामेज भवेत् ।
धर्मनिफे न हि किया, मुख्याः पुनः साधका भवंति ॥५६६॥ टीका -- गति, स्थिति, अदगाह ए तीन क्रिया जीन पर पद्गल ही के पाइए है।.। तहाँ प्रदेश तें प्रदेशांतर विर्ष प्राप्त होना, सो. गति क्रिया है। गमन करि कहीं - तिष्ठना, सो स्थिति क्रिया है। गति-स्थिति लीए. वास. करना. सो अवगाह क्रिया. जानना । बहुरि धर्म, अधर्म, आकाश विर्षे ए क्रिया नाहीं है; जाते इनके स्थानचलन प्रदेशचलन का अभाव है। तहां अपने स्थान को छोडि अन्य स्थान होना, सो स्थानचलन कहिए । प्रदेशनि का चंचलरूप होना सो प्रदेशचलन कहिए । बहुरि धर्मादिक द्रव्य गति, स्थिति, अवगाह क्रिया के मुख्य साधक हैं। :: . ., . .
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सम्यानचन्द्रिका भाषाटोफर
जोव पुद्गलनि के जो गति, स्थिति, अवगाह क्रिया हो है; ताकौं निमित्त मात्र ही हैं; सो कहिए हैं -
जत्तस्स पहं उत्तस्स, आसणं णिवसमस्स वसदी वा। गदिठाणोरगहकरणे, धम्मतियं साधगं होदि ॥५६७॥
यातस्य पंथाः तिष्ठतः, प्रासनं निवसकस्य वसतिर्धा !,
गतिस्थानावगाहकरणे, धर्मअयं साधकं भवति ।।५६७॥ . टीक - जैसे गमन करनेवालों की पंथा जो मार्ग, सो कारण है । तिष्ठनेवालौं कौं आसन जो स्थान, सो कारण है | निवास करनेवालों की वसतिका जो बसने का क्षेत्र, सो कारण है । तैसे गति, स्थिति अवगाह के कारण धर्मादिक द्रव्य हैं। जैसे ते पंथादिक श्राप गमनादि नाहीं करें है; जीवनि कौं प्रेरक होइ गमनादि नाई करावं है । स्वयमेव जे गमनादि करें, तिनको कारणभूत हो हैं । सो कारण इतना ही, जो जहां पंथादिक होंइ, तहां ही वे गमनादिरूप प्रवत । तैसे धर्मादिक द्रव्य आप ममनादि नाहीं करै है; पुद्गलनि कौं प्रेरक होइ गमनादिक क्रिया नाहीं करावं हैं; स्वयमेव ही ममनादिक क्रियारूप प्रवर्तते जे जोद पुद्गल, तिनको सहकारी कारण हो हैं। सो कारण इतना ही जो धर्मादिक द्रव्य जहां होइ, वहां ही गमनादि क्रियारूप जीव पुद्गल प्रवतें हैं । . . .
वत्तणहेदू कालो, वत्तणगुणमविय बव्वणिचयेसु । . . कालाधारेणेव य, बदति हु सव्वदयवाणि ॥५६८॥
वर्तनाहेतुः कालः, थर्तनागुणमबेहि द्रव्यनिचयेषु । ..
कालाधारेणैव च, वर्तते हि सर्वद्रव्यारिख ।।५६८॥ . टीका - णिच् प्रत्य संयुक्त जो वृतञ् धातु, ताका कर्म विर्षे वा भाव विर्षे वर्तना शब्द निपजै है, सो याका अर्थ यह जो वर्त वा वर्तन मात्र होइ, ताकी वर्तना कहिए । सो धर्मादिक द्रव्य अपने अपने पर्यायनि की निष्पत्ति विर्षे स्वयमेव वर्तमान हैं । तिनकै बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति संभवे नाही ; तातै तिनके, तिस प्रवृत्ति करावने कौं कारण काल द्रव्य है; असें वर्तना काल का उपकार जानना । इहां णिच् प्रत्यय का अर्थ यहु - जो द्रव्यनि का पर्याय वर्ते हैं, ताका वर्तावनेवाला काल है ।
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गोम्पाट सार जीवकाय गाया ५६८
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तहां प्रश्न - जी जैसे शिष्य पढ़े है। भर उपाध्याय पढावै है । तहां दोऊनिकै पठनक्रिया देखिए है । तैसें धर्मादिक द्रव्य प्रवते हैं पर काल प्रबर्ताव है; तौ धर्मादिक द्रव्य की ज्यों काल के भी तिनि पर्यायनि का प्रवर्तनरूप क्रिया का सद्भाव प्राया।
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तहां उत्तर - जो असे नाहीं है । इहां निमित्तमात्र वस्तु को हेतु का कर्ता कहिए है । जैसे शीतकाल विधं शीत करि शिष्य पढ़ने कौं समर्थ न भए; तहां कारीषा के अग्नि का निमित्त भैया । तब वै पढने लग गए । तहां निमित्त मात्र देखि अंसा कहिए जो कारीषा की अग्नि शिष्यनि कौं पढाये है; सो कारीषा की अग्नि "पाप पढ़नेरूप क्रियावान न हो है । तिनिके पढ़ने को निमित्तमात्र है । तैसें काल आप क्रियावान न ही है । काल के निमित्तल व स्वंय मव परिणवै हैं .। तातें अंसा कहिए हि । जो तिनिक काल प्रवाद है। . बहुरि तिस काल का निश्चय कैस होई ?
सो केहिए हैं : समय, घडी इत्यादिक क्रियाविशेष, तिनिकी लोक विषं संमयादिक कहिए है । बहरि समय, घडी इत्यादि करि जे पचनादि क्रिया होइ, तिनिकौं लोक विर्षे पाकादिक कहिए है। तहां तिनि विर्षे काल अंसा जो शब्द आरोपरय कीजिए है । समय काल, घडी काल, पाक काल इत्यादि कहिए है, सो यहु व्यवहार काल मुख्य काल का अस्तित्व की कहै है । जाते गौण है, सो मुख्य की सापेक्षा की धरै है। जैसे किसी पुरुष का सिंह कहा, तौ तहां जानिए है, जो कोई सिंह नामा पदार्थ जगत विर्षे पाइए है । अँसें काल का निश्चय कीजिए है। प्रत्यक्ष केवली जाने है।
बहुरि षट् द्रव्य की वर्तना कौं कारण मुख्य काल है । वर्तना गुण द्रव्यसमूह विर्षे ही पाइए है; असे होते काल का आधार करि सर्व द्रव्य प्रवत हैं । अपने अपने पर्यायरूप परिणमैं है; यात परिणमनरूप जो क्रिया, ताकों परत्व पर अपरत्व जो प्रामें पीछेपना, सो काल का उपकार है। - इहां प्रश्न जो क्रिया का परत्व - अपरत्व तौ जीव पुद्गल विर्षे है, धर्मादिक अमूर्तीक द्रव्यनि विर्षे कैसे संभवै ? सो कहै हैं ।
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१. प्तस्वार्थसूत्र में-वर्तनापरिणाम क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' अ. ५ मूत्र २२।।
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सन्याशानन्द्रका भाषाटीका ] .
धम्माधम्मादीणं, अगरुगलहूगं तु छहिं वि वड्ढोहिं। हाणीहि वि बड्ढंतो, हायंतो वट्टदे जम्हा ॥५६॥
धर्म धर्मादीनामगुरुकलधुकं तु षभिरपि वृद्धिभिः ।
हानिभिरपि वर्धमानं हीयमानं वर्तते यस्मात् ।।५६९॥ टोका-जाते धर्म अधर्मादिक द्रव्यनि के अपने द्रव्यत्व कौं कारणभूत शक्ति के विशेष रूप जे अगुरुलघु नामा गुण के अविभाग अतिच्छेद, ते अनंत भागवृद्धि प्रादि षट्स्थान पतित वृद्धि करि तौ बधे हैं । पर अनंतभागहानि आदि षट्स्थान पतित हानि करि घटें हैं, तातें तहां असें परिणमन विर्षे भी मुख्य काल ही कौं कारण जानना। ''
ण य परिणमदि सयं सो, पाय परिणामेइ अण्णमण्णेहि । विविहपरिणामिया, हवावि हु कालो सयं हेदू ॥५७०॥ ।
न च परिणमति स्वयं स, न च परिणमयति अन्यवन्यैः ।
विविधपरिणामिकामां, भवति हि कालः स्वयं हेतुः ।।५७०॥ टीका - सो कालसंक्रम जो पलटना, ताका विधान करि अपने गुरणनि करि परद्रव्यरूप होइ नाहीं परिणवै है । बहुरि परद्रव्य के गुणनि कौं अपने विर्षे नाहीं परिमाय है । बहुरि हेतुकर्ता प्रेरक होइकरि भी अन्य द्रव्य कौं अन्य गुणनि करि सहित नाहीं परिणमा है । तो नानाप्रकार परिणमनि वौं पर जे द्रव्य स्वयमेव परिणमें है, तिनकौं उदासीन सहज निमित्त मात्र हो है। जैसे मनुष्य के प्रभात संबंधी क्रिया को प्रभातकाल कारण है। क्रियारूप तौ स्वमेव मनुष्य ही प्रवर्ते हैं, परन्तु तिनिको निमित्त मात्र प्रभात का काल. हो है, तैसें जानना ।
कालं अस्सिय बब्वं, सगसगपज्जायपरिणद होदि । प्रज्जायावाणं, सुद्धगयो होदि खणमत्तं ॥५७१॥
कालमाश्रित्य द्रव्यं, स्वकस्वकपर्यायपरिणतं भवति ।
पर्यायावस्थानं, शुद्धनयेन भवति क्षणमात्रम् ॥५७१॥ । टीका - काल का निमित्तरूप आश्रय पाइ, जीवादिक सर्व द्रव्य स्वकीय स्वकीय पर्यायरूप परिणए हैं। तिस पर्याय का जो अवस्थान, जो रहने का काल,सो ऋजुसूत्रनय करि अर्थ पर्याय अपेक्षा एक समय मात्र जानना।
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{ गोम्मटसार औदका गाथा ५७२-५७३ ववहारो या वियप्पो, फोहो तह जनो लि एगो । ववहार-अवट्ठाण-दिदी हु ववहारकालो दु ॥५७२॥
व्यवहारश्च विकल्पो, भेदस्तया पर्याय इत्येकार्थः।
व्यवहारावस्थानस्थितिहि व्यवहारकालस्तु ॥५७२॥ 2.!: टोका --- व्यवहार पर विकल्प पर भेद पर पर्याय ए सर्व एकार्थ हैं। इनि शब्दनि का एक अर्थ है । तहां व्यंजन पर्याय का प्रवस्थान जो वर्तमानपना, ताकरि स्थिति जो काल का परिमाण, सोई व्यवहार काल है ।
अवरा पज्जायठिदी, खणमेत्तं होदि तं च समनो ति । दोन्हमणूणमदिक्कमकालपमाणं हवे सो दु॥५७३॥
अबरा पर्यायस्थितिः, क्षरणमात्रं भवति सा च समय इति । द्वयोरण्वोरतिकमकालप्रमाणं भवेत् स तु ॥५७३॥
HODA
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टीका -- द्रव्यनि के जघन्य पर्याय की स्थिति क्षण मात्र है । सो क्षरण नाम समय का है । समीप तिष्ठती दोय परमाणू मंद गमनरूप परिणई, जेता काल विर्षे परस्पर उल्लंघन करें, तिस काल प्रमाग का नाम समय है।
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इहां प्रसंग पाइ दोय गाथा कहै हैं---
गभ एय पयेसत्थो, परमाणू मंदगइपबीतो । बीयमणंतरखेतं, जावदियं जाति तं समयकालो॥१॥
आकाश का एक प्रदेश विर्षे तिष्ठता परमाणू मंदगतिरूप परिणई, सो तिस प्रदेश के अनंतरि दूसरा प्रदेश, ताकी जेता काल करि प्राप्त होइ, सो समय नामा काल है।
सो प्रदेश कितना है ? सो कहै हैं
जेत्ती वि खेत्तमेतं, अणुरणा रुवं खु गयणदध्वं च । तंच पदेसं भरिपयं, प्रवरावरकारणं जस्स ॥२२॥
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माप 1
* ૨૦
जिस परमाणू के आगे पीछे कौं कारण असा आकाश द्रव्य श्राकाश विषें अंसा कहिए है, जो यह प्रकाश इस परमाणू के आगे हैं, यह पीछे है, सो श्राकाश द्रव्य, तिस परमाणू करि जितना रुके, व्याप्त होइ, तिस क्षेत्र का नाम प्रदेश कहा है ।
व्यवहार काल को कहैं हैं --
श्रावलिअसंखसमया संखेज्जावलिसमूहमुस्सासो । सतुस्सासा थोवो, सत्तत्थोवा लवो भणियो ॥ ५७४ ॥
श्रावलिरसंख्यया संख्येयायलिसमूह उच्छ्वासः । सप्तोच्छ् वासाः स्तोकः, सप्तस्तोका लवो भक्षितः ||५७४ ||
टीका - जघन्ययुक्तासंख्यात प्रमाण समय, तिनिका समूह, सो भवली है । बहुरि संख्यात श्रावली का समूह सो उश्वास है । सो उपवास कैसा है ?
उक्त च-
अड्डस्त असलसस्स व स्रिवहवस् य हवेज्ञ्ज जीवस्स । उसासारिखासो, एगो पाणी त्ति आहीदो ||१
जो कोई मनुष्य श्राढय - सुखी होइ, बालस्य रोगादि करि रहित होइ, स्वाधीन होइ, ताका सासोश्वास नामा एक प्रारण कया है बहुरि सात उस्वास का समूह, सो स्तोक नामा काल है का समूह, तो लव नामा काल है ।
।
ताका काल जानना ।
बहुरि सात स्तोक का
अट्ठत्तीसद्धलवा, नाली बेनालियो महत्तं तु । एगसमयेण होणं, भिण्णमुहत्तं लदो सेसं ॥ ५७५।।
शिवर्धा, नाली द्विनालिको मुहूर्तस्तु । एकसमयेन होनो, भिन्नमुहूर्तस्ततः शेषः ।।५७५॥
टीका
साढा अडतीस लaft का समूह, सोनाली है। नाली नाम घटिका का है । बहुरि दोय घटिका समूह, सो मुहूर्त है । इस मुहूर्त में एक समय घटाइये तब
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[ गोम्मटसार जीवकाण गाथा ५७६-५७७
भिन्न मुहूर्त हो है वा याकौं उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त कहिए । यात प्रागें दोय समय पाटि मुहूर्त आदि अंतर्मुहूर्त के विशेष जानने । इहां प्रासांभिक गाथा कहै हैं---
ससमयमावलिप्रवरं, समकरसमुहत्तयं तु उक्कस्सं ।
मज्झासंखवियप्पं, वियारण अंतोमुहुत्तमिणं ॥
एक समय अधिक प्रावली मात्र जघन्य अंतर्मुहूर्त है । बहुरि एक समय धाटि मुहूर्त मात्र उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है । मध्य समय विर्षे दोय समय सहित पावली से लगाइ, दोय समय बाटि मुहूर्त पर्यंत असंख्यात भेद लीए, मध्य अंतर्मुहूर्त है । असें जानहु ।
दिवसो पक्खो मासो, उडु अयणं वस्समेवमादी हु। संखेज्जासंखेज्जागताओ होदि ववहारो ॥५७६॥
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विषसः पक्षो मासः, ऋतुरयनं वर्षमेवमादिहि ।
संख्येयासंख्येयानंता भवंति व्यवहाराः ॥५७६॥ टीका - तीस मुहूर्त मात्र अहोरात्र है । मुख्यपने पंचदश अहोरात्र मात्र पक्ष है । दोय पक्ष मात्र एक मास है । दोय मास मात्र एक ऋतु हो है । तीन ऋतु मात्र एक अयन हो है । दोय अयन मात्र एक वर्ष हो है । इत्यादि प्रावली तें लगाई संख्यात, असंख्यात, अनंत पर्यंत अनुक्रम ते श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, केवलज्ञान का विषय भूत व्यवहार काल जानना ।
ववहारो पुण कालो, माणुसखेत्तम्हि जाणिदव्वो दु । जोइसियारणं धारे, ववहारो खलु समाणो ति ॥५७७॥
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....
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व्यवहारः पुनः कालः, मानुषक्षेत्रे ज्ञातव्यस्तु ।
ज्योतिडकारणां धारे, व्यवहारः खलु समान इति ॥५७७॥ टीका - बहुरि व्यवहार काल मनुष्य क्षेत्र विर्षे प्रगटरूप जानने योग्य हैं। जाते मनुष्यक्षेत्र विषं ज्योतिषी देवनि का चलने का काल अर व्यवहार काल समान है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका 1
{ ६६ ववहारो पुण तिविहो, तोदो वीतगो भविस्सो दु । तीदो संखेज्जावलिहवसिद्धाणं पमाणो दु॥५७८॥
व्यवहारः पुनस्त्रिविधोऽतीतो वर्तमानो भविष्यंस्तु। .
अतीतः संख्येयावलिहतसिखानां प्रमाणं तु ॥५७८॥ टोका --- बहुरि व्यवहार काल तीन प्रकार है अतीत, अनागत, वर्तमान । तहां अतीत काल सिद्ध राशि क्रौं संख्यात प्रावली करि गुण, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । कैसे ? सो कहिए हैं - छह महीना अर आठ समय माहीं छ सँ पाठ जीव सिद्ध ही हैं। तो जीव राशि के अनंतवें भाग प्रमाण सर्व सिद्ध केते काल में भये ? असे त्रैराशिक करना । तहां प्रमाण राशि छ सै आठ, फल राशि छह महीना पाठ समय, इच्छा राशि सिद्धनि का प्रमाण, सो फल राशि की इच्छाराशि करि गुण, प्रमारणराशि का भाग दीए, लन्त्रराशि संख्यात प्रावली करि तिद्वनि कौं गुणें जो प्रमाण होइ, तितना पाया। सोई अनादि तें लगाइ अतीत काल का परिमाण जानना।
समथो हु बट्टमारन, सीधाको सयपुग्गलाबो वि। भावी प्रपंतगुरिणदो, इंदि ववहारी हवे कालो ॥५७६॥
समयो हि वर्तमानो, जीवात् सर्वपुद्गलादपि ।
भावी अनन्तमुरिणत, इति व्यवहारो भवेत्कालः ॥५७६॥ टीका - वर्तमान काल एक समय मात्र जानना । बहुरि भावी जो अनामत काल, सो सर्व जीवराशि तें वा सर्व पुद्गलराशि तें भी अनंतगुणा जानना । असे व्यवहार काल तीन प्रकार कह्या ।
कालो वि य ववएसो, समारूवओ हदि णिच्चो। उप्पण्णपद्धंसी, अवरो दोहंतरट्ठाई ॥५८०॥
काल इति च व्यपदेशः, सद्भावप्ररूपको भवति मित्यः ।
उत्पन्नप्रध्वंसी अपरो दीर्घान्सरस्थायी ॥५८०॥ टीका - काल असा जो लोक विष कहना है, सो मुख्य काल का अस्तित्व का कहनहारा है। मुख्य बिना गौरा भी न होइ । जो सिंह पदार्थ ही न हो तो यह पुरुष सिंह असा कैसे कहने में भायै सो मुख्य काल द्रव्य करि नित्य है, तथाषि-पर्याय
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६७. ]
[ गोम्मटसार औधकाण्ड गाथा ५०१-५८२
करि ऊत्पाद व्यय कौं धरै है । ताते उत्पन्न-प्रध्वंसी कहिए है । बहुरि व्यवहार काल है, सो वर्तमान काल अपेक्षा उत्पाद - व्यय रूप है । तातें उत्पन्न-प्रध्वंसी है । बहुरि अतीत, अनागत, अपेक्षा बहुत काल स्थिति कौं धरै है । तात दीर्घातर स्थायी है । इहां प्रासांगिक श्लोक कहिये हैं-~
निभिसमांतरं तत्र, योग्यता वस्तुनि स्थिता ।
बहिनिश्चयकालस्तु, निश्चितं तस्वशिभिः ।। तीहि वस्तु विषं तिष्ठती परिणमनरूप जो योग्यता, सो अंतरंग निमित्त है। बहुरि तिस परिणमन का निश्चय काल बाह्य निमित्त है । अझै तत्त्वदर्शीनि करि निश्चय कीया है । इत्युपलक्षणानुवादाधिकारः ।
छहव्वावठाणं, सरिसं सियकालमत्थपज्जाये। वेंजणपज्जाये वा, मिलिदे ताणं ठिदितादो ॥५८१॥
षड्द्रव्यावस्थानं, सदृशं त्रिकालार्थपर्याये ।
व्यंजनपर्याये वा, मिलिते तेषां स्थितिस्थात् ॥५८१॥ टीका - अवस्थान नाम स्थिति का है। सो षट् द्रव्यनि का अवस्थान समान है । काहे ते ? सो कहिए हैं - सूक्ष्म वचन अगोचर क्षणस्थायी प्रैसें तौ अर्थपर्याय अर स्थूल, वचन गोचर चिरस्थायी असे व्यंजन पर्याय, सो त्रिकाल संबंधी अर्थ पर्याय वा व्यंजन पर्याय मिल, तिनि सर्व ही द्रव्यानि की स्थिति हो है । तात सर्व द्रव्यनि का अवस्थान समान कहा । सर्व द्रव्य अनादिनिधन हैं।
आगें इस ही अर्थ कौं दृढ करें हैंएय-ववियम्मि जे, अत्थ-पज्जया वियण-पज्जया चा वि । तीवाणागव-भूदा; तावदियं तं हवदि बच्वं ॥५८२॥
एकद्रव्ये घे, अर्थपर्याया व्यंजनपर्यायाश्चापि । अतीतानागतभूताः सावत्तद् भवति द्रव्यम् ॥५२॥
१ षटूखंडागम-बला पुस्तक १, पृष्ठ ३८८ चाया सं० १६६.
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सम्पाज्ञानमन्द्रिका भाषाटोका
। ६७१
टोका
एक द्रव्य विषे जे गुणनि के परिणमनरूप षट्स्थानपतित वृद्धिहानि लीए अर्थ पर्याय बहुरि द्रव्य के आकारादि परिणमनरूप व्यंजन पर्याय, ते अतीत श्रनागत श्रपि शब्द ते वर्तमान संबंधी यावन्मात्र हैं। तावन्मात्र द्रव्य जानना । जाते द्रव्य तिनतें जुदा है नाहीं ; सर्व पर्यायनि का समूह सोई द्रव्य है । इति स्थित्य धिकारः ।
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यागासं वज्जित्ता, सव्वे लोगम्मि चेव णत्थि बहिं । वावी धम्माधम्मा, वट्ठिदा प्रचलिदा णिच्चा ॥ ५८३ ॥
आकाशं वर्जयित्वा सर्वाणि लोके चैव न संति बहिः ।
arrfeat anant ग्रवस्थितावचलितौ नित्य ॥१५८३||
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टीका अब क्षेत्र कहै है; सो आकाश बिना अवशेष सर्वद्रव्य लोक विषै ही हैं, बाह्य लोक विषं नाहीं हैं । तिन विषे धर्म द्रव्य, धर्मद्रव्य तिल विषै तेल की ज्यों सर्व लोक विषं व्याप्त है। तातें व्यापी कहिए । बहुरि निजस्थान तें स्थानांतर विषे चले नाहीं है; तातें अवस्थित हैं । बहुरि एक स्थान विषे भी प्रदेशनि का चंचलपना, तिनके नाहीं है; ताते श्रचलित हैं । बहुरि त्रिकाल विषे विनाश नाहीं है; ता नित्य है । स धर्म, अधर्म द्रव्य जानते । इहां प्रासंगिक श्लोक ---
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श्रपश्लेषिक कार्यभिव्यापक इत्यपि । आधारस्त्रिविधः प्रोक्तः, कटाकाशतिलेषु च ॥
आधार तीन प्रकार हैं - श्रपश्लेषिक, वैषयिक, श्रभिव्यापक । तहां चटाई विषे कुमार सो है, जैसा कहिए, तहां श्रपश्लेषिक आधार जानना | बहुरि ग्राकाश विषे घटादिक द्रव्य तिष्ठे हैं, जैसा कहिए। तहां वैषयिक प्राधार जानना | बहुरि तिल विषै तेल है, जैसा कहिए; तहां अभिव्यापक आधार जानना । सो इहां तिलनि विषै तेल की ज्यों लोकाकाश के सर्व प्रदेशनि विषे धर्म, अधर्म द्रव्य अपने प्रदेशनि करि व्याप्त हैं । ताते इहां अभिव्यापक आधार है । याहीं तें प्राचार्यने धर्म अधर्म द्रव्य कौं व्यापी कहा है ।
लोगस्स असंखेज्जविभागप्पहृदि तु सव्वलोगो हि । अप्पपसविप्पणसंहारे वावडो जीवो ॥ ५८४ ॥
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६७२]
मटसार जीवकाण्ड माया ५८५
लोकस्यासंख्येयभागप्रतिस्तु सर्वलोक इति ।
प्रात्मप्रदेशविसर्परपसंहारे व्यापृतो जीयः ॥५८४॥ - टीका - जीव का क्षेत्र कहै हैं, सो शरीरमात्र अपेक्षा लो सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना तै लगाइ, एक एक प्रदेश बधता उत्कृष्ट महामत्स्य को अवगाहना पर्यंत क्षेत्र जानना । बहुरि ताके परि समुद्धात अपेक्षा वेदना समुद्घातवाले का एक एक प्रदेश क्षेत्र विर्षे बघता बघता महामत्स्य की अवगाहना ते तिगुरणा लंबा, चौड़ा क्षेत्र पर्यंत क्षेत्र जानना । बहुरि ताके ऊपर एक एक प्रदेश बधता बधता मारणांतिक समुद्घातबाले का स्वयंभू रमण समुद्र का बाह्य स्थंडिल क्षेत्र विर्षे तिष्ठता जो महामत्स्य, सो सप्तमनरक विषं महारौरव नामा श्रेणीबद्ध बिला प्रति कीया जो मारणांतिक समुद्यात तीहिं विर्षे पांच से योजन चौडा, अढाई से योजन ऊंचा, प्रथम वक्रगति विष एक राजू, द्वितीय वक्र विर्षे प्राधा राजू, तृतीय वक्र विर्षे छह राज, लंबाई लीएं जो उत्कृष्ट क्षेत्र हो है; तहां पर्यंत क्षेत्र जानना । बहुरि ताके ऊपरि केवलिसमुद्धात विर्षे लोकपूरण पर्यत क्षेत्र जानना । सो असे सर्व भेदरूप क्षेत्र विर्षे प्राने प्रदेशनि का विस्तार - संकोच होते जीवद्रव्य व्यावृतं कहिए व्यापक हो है । संकोच होतें स्तोक क्षेत्र विर्षे आत्मा के प्रदेश अवगाहरूप तिष्ठं हैं। विस्तार होते ते फैलिकरि घने क्षेत्र विर्षे तिष्ठे हैं। जात जीव के अवगाहना का भेद का उपपाद वा समुद्धात भेद सर्व ही संभव है । तातै पूर्वोक्त जीव का क्षेत्र जानना ।
पोग्गलदवारणं पुण, एयपदेसादि होंति भजणिज्जा। एक्कक्को दु पदेसो, कालापूर्ण धुदो होदि ॥५८५॥
पुद्गलद्रव्यारणां पुनरेकप्रदेशादयो भवन्ति भजनीयाः ।
एकैकस्तु प्रदेशः, कालाणूनां ध्रुवो भवति ।।५८५॥ टोका - पुद्गलद्रव्यनि का एक प्रदेशादिक यथासंभव भजनीय कहिए भेद करने योग्य क्षेत्र जानना, सो कहिए हैं - दोय अणू का स्कंध एक प्रदेश विष तिष्ठ वा दोय प्रदेशनि विर्षे तिष्ठ, बहुरि तीन परमाणूनि का स्कंध एक प्रदेश का दोय प्रदेश वा तीन प्रदेश विर्ष तिष्ठ, असे जानना । बहुरि कालाणू एक एक लोकाकाश का प्रदेश विष एक एक पाइए है, सो ध्र वरूप है, भिन्न भिन्न सत्त्व धरै है; तातै तिनिका क्षेत्र एक एक प्रदेशी है
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सभ्यतानचन्द्रिका भाषाटोका )
। ६७३ संखेज्जासंखेज्जाणता वा होति पोग्गलपदेसा । लोगागासेव ठिदी, एगपवेसो अणुस्स हवे ॥५८६॥
संख्येयासंख्येयानंता वा भवंति पुद्गलप्रदेशाः ।।
लोकाकाशे एव, स्थितिरेकप्रवेशोऽयोर्भवेत् ॥५८६॥ टीका- दोय अणू का स्कंध तें लगाई, पुद्गल स्कंध संख्यात, असंख्यात, अनंत परमाणुरूप है । तथापि ते वे सर्व लोकाकाश ही विषै तिष्ठे हैं। जैसे संपूर्ण जल करि भर्या हूवा पात्र विर्षे क्रम ते गेरे हुवे लवण, मस्मी, सूई आदि एक क्षेत्रावगाहरूप तिष्ठे हैं; तैसें जानना । बहुरि अविभागी परमाणू का क्षेत्र एक ही प्रदेशमात्र हो है
लोगागासपदेसा, छहब्वेहिः फडा सदा होति । सव्वमलोगागासं, अण्णेहिं विवज्जियं होदि ॥५८७॥
लोकाकाशप्रदेशाः, षद्रव्यैः स्फुटाः सदा भवति ।
सर्वमलोभाकाशमन्यविजितं भवति ॥५८७।। टोकर -- लोकाकाश के प्रदेश सर्व ही षद्रव्यनि करि सदाकाल प्रगट व्याप्त हैं । बहुरि प्रलोकाकाश सर्व ही अन्य द्रव्यनि करि रहित है। इंति क्षेत्राधिकारः ।
जीवा अणंतसंखाणंतगुणा पुग्गला हु ततो दु । धम्मतियं एक्केवक, लोगपदेसप्पमा कालो ॥५८८॥
जीवा अनंतसंख्या, अनंतगुणाः पुद्गला हि ततस्तु ।
धर्मत्रिकमेकक, लोकप्रदेशप्रमः कालः ॥५८।। टीका - संख्या कहै हैं - तहां द्रव्य परिमारण करि जीव द्रव्य अनंत हैं। बहुरि तिनि ते अनंत गुरणे पुद्गल के परमाणू हैं । बहुरि धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य आकाश द्रव्य एक-एक ही हैं; जाते ए तीनौं प्रखंड द्रव्य हैं । बहुरि जेते लोकाकाश के प्रदेश हैं, तितने कालाणू हैं--
लोगागासपदेसे, एक्केक्के जे ठ्यिा हु एक्केक्का। रयणाणं रासी इव, ते कालाणू मुरणेयत्वा ॥५८६॥
१-प्रध्यसंग्रह मांचा सं. २२
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| गोम्मटसार जोवकाण्ड वाया ५६०-५६१
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interest, एकैके ये स्थिता हि एककाः । रत्नानां राशिरिव ते कालारगवो मंतव्याः ।।५८९ ।।
टीका - लोकाकाश का एक-एक प्रदेश विषै जे एक-एक तिष्ठे हैं। जैसें रत्ननि की राशि भिन्न-भिन्न तिष्ठे तैसे जे भिन्न-भिन्न तिष्ठे हैं, ते कालाणू जानने ।
बबहारी पुण कालो, पोग्गलदश्वादणंतगुणमेत्तो । तत्तो अरांतगुणिवा, आगासपदेसपरिसंखा ॥५६०॥
व्यवहारः पुनः कालः, पुद् गलद्रव्यादनंतगुरणमात्रः । सततगुणिता, प्राकाशप्रदेशपरिसंख्या ॥५९०॥
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टीका • बहुरि व्यवहार काल पुद्गल द्रव्य तैं अनंत गुणा समयरूप जानना । बहुरि तिनि तैं अनंतगुणी सर्व प्रकाश के प्रदेशनि की संख्या जाननी ।
लोगागासपसा, धम्माधम्मेगजीवगपदेसा ।
सरिसा हु पदेसो पुण, परमाणु-श्रवट्ठिदं खेत्तं ॥५६१॥
लोकाकाशप्रदेशा, धर्माधर्मकजीवगप्रदेशाः ।
eet हि प्रदेशः पुनः परमाण्ववस्थितं क्षेत्रम् ॥। ५११॥
टीका - लोकाकाश के प्रदेश पर धर्मेद्रव्य के प्रदेश पर अधर्मद्रव्य के प्रदेश
जातें ए सर्व जगच्छ्रे रेगी का रोकै, सो प्रदेश का प्रमाण है;
अर एक जीवद्रव्य के प्रदेश सर्व संख्याकरि समान हैं; घनप्रमाण हैं । बहुरि पुद्गल परमाणू जेता क्षेत्र को तातें जघन्य क्षेत्र र जघन्य द्रव्य श्रविभागी है ।
क्षेत्र प्रमाण करि छह द्रव्यति का प्रमाण कीजिए है । तहां जीव द्रव्य लोक प्रमाण है । लोकाकाश के प्रदेशनि तें अनंत गुणा है। कैसे ? सो राशिक करि कहिए है - प्रभाग राशि लोक, थर फलराशि एक शलाका, घर इच्छाराशि जीवद्रव्य का प्रमाण । सो फल करि इच्छा कौं गुरौं, प्रमाण का भाग दीए, लब्धराशि जीवराशि कौं लोक का भाग दोजिए, इतना आया, सो यहु शलाको का परिमाण भया । बहुरि प्रमाण राशि एक शलाका, फलराशि लोक, श्रर इच्छाराशि पूर्वोक्त शलाका का प्रमाण, सो पूर्वोक्त शलाका का प्रमाण जीवराशि कौं लोक का भाग दीए, अनंत पाए सो जानना । इस अनंत को फलराशि लोक करि गुणिए
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सम्मानका भावाटीका 1
अर प्रमाण राशि एक का भाग दीजिए, तब लब्धराशि अनंतलोक प्रमाण भया: सातै जीव द्रव्य अनंतलोक प्रमाण कहे । असें ही प्रत्यत्र काल प्रमाणादिक विषै त्रैराशिक करि साधन करि लेना | बहरि जीवनि से पुदगल अनंत सुखे हैं । बहरि धर्म, धर्म, लोकाकाश भर काल द्रव्य ए लोकमात्र प्रदेशनि को घरे हैं । बहुरि व्यवहार काल पुद्गल द्रव्य तें अनंत गुणा है । बहुरि अलोकाकाश का प्रदेश काल तें अनंत गुणा है ।
बहुरि काल प्रमाण करि जीवद्रव्य का प्रमाण कहिए हैं - प्रमाणराशि अतीतकाल, फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि जीवनि का परिमाण, इहां लब्धराशिप्रमाण शलाका अनंत भई । बहुरि प्रमाणराशि एक शलाका, फलराशि अतीतकाल, इच्छाराशि पूर्वोक्त शलाका प्रमाण, सो पूर्वोक्त प्रकार फल करि इच्छा काँ गुर, प्रमाण का भाग दीएं, लब्धराशि प्रमाण प्रतीत काल तैं अनंत गुणा जीवनि का प्रमाण जानना । इनि से पुद्गल द्रव्य भर व्यवहार काल के समय पर लोकाकाश के प्रदेश अनंत गुणे अनंत गुणे क्रम तें अनंत अतीत काल मात्र जानने ।
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बहुरि धर्मादिक का प्रमारण कहिए हैं प्रमाण कल्पकाल, फल एक शलाका, इच्छा लोक प्रमाण, तहां लब्धप्रमाण शलाका प्रख्यात भई । बहुरि प्रमाण एक शलाका, फल कल्पकाल, इच्छा पूर्वोक्त शलाका प्रमाण, सो यथोक्त करतां लब्धराशि श्रसंख्यात कल्पप्रमाण, धर्म, अधर्म, लोकाकाश, काल ए च्यार्थी जानने । बीस कोडाकोडी सागर के संख्याते पल्य भए, तीहि प्रमारण कल्पकाल है । इसते असंख्यात गुणे धर्म, धर्म, लोकाकाश, काल के प्रदेश हैं ।
बहुरि भाव प्रमाण करि जीवद्रव्य का प्रमाण विषे प्रमाणराशि जीवद्रव्य का प्रमाण, फल एक शलाका, इच्छा केवलज्ञान लब्धप्रमाण शलाका अनंत, बहुरि प्रमाण राशि शलाका का प्रमाण फलराशि केवलज्ञान, इच्छाराशि एक शलाका, सो यथोक्त करतां लब्धराशि प्रमाण केवलज्ञान के श्रनंतवे भागमात्र जीवद्रव्य जानने । 'पुद्गल, काल, अलोकाकाश की अपेक्षा च्यारि बार अनंत का भाग केवलज्ञान के विभाग प्रतिच्छेदन का प्रमाण को दीएं, जो प्रमाण प्राव, तितने जीवद्रव्य हैं । तिमि ते अनंत गुणे पुद्गल हैं । तिनि तें अनंत गुणे काल के समय हैं । तिनि तें
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त गुणे लोकाकाश के प्रदेश हैं । तेऊ केवलज्ञान के अनंतवें भाग ही हैं । बहुरि धर्मादिक का प्रमाण विषे प्रमाण लोक, फल एक शलाका, इच्छा अवधिज्ञान के भेद,
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[ गोम्मटसार ओवकाण्ड गाया ५६२-५६३ लब्धप्रमाण शलाका असंख्यात भई । बहुरि प्रमाणराशि शलाका का प्रमाण, पाल राशि अवधिज्ञान के भेद, इच्छाराशि एक शलाका, सो यथोक्त करतां अवधिज्ञान के जैते भेद हैं, तिनि के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण धर्म, अधर्म, लोकाकाश, काल इनि च्यायों के एक-एक प्रदेशनि का प्रमाण भया । इति संख्याधिकारः ।
सव्वमरूवी दवं, प्रवद्विदं अचलिया पदेसा वि । रूबी जीवा लिया, ति-वियप्पा होति हु पदेसा ॥५६२॥
सर्वमरूपि द्रध्यमवस्थितमलिताः प्रदेशा अपि ।
रूपिरलो जीवाश्नलितास्त्रिविकल्पा भवंति हि प्रदेशाः ।।५६२॥ ___टीका - सर्व अरूपी द्रव्य जो मुक्त जीव अर धर्म अर अधर्म पर प्रकाश पर काल सो अवस्थित है, अपने स्थान से चलते नाहीं । बहुरि इनिके प्रदेश भी प्रचलित ही हैं; एक स्थान विर्षे भी चलित नाहीं हैं। बहुरि रूपी जीव, जे संसारी जीव ते चलित हैं; स्थान से स्थानांतर विर्षे गमनादि करें हैं । बहुरि संसारी जीवनि के प्रदेश तीन प्रकार हैं। विग्रह गति विर्षे सो सर्व चलित ही हैं। बहुरि अयोगकेबली गुरास्थान विर्षे प्रचलित ही हैं । बहुरि अबिशेष जीव रहे, तिनिके पाठ प्रदेश तो प्रचलित हैं । अरशेष प्रदेश चलित हैं। (योगरूप परिणमन तें) इस प्रात्मा के अन्य प्रदेश तौ चलित हो हैं अर पाठ प्रदेश अकंप ही रहैं हैं ।
पोग्गल-दवम्हि अणू, संखेज्जादी हवंति चलिदा हु। .. चरिम-महक्खंधम्मि य, चलाचला होति पदेसा ॥५६३॥
पुद्गलद्रव्ये अगषः, संख्याताध्यो भवन्ति घालता हि ।
घरममहास्कम्धे च, चलाचला भवंति हि प्रदेशाः ।।५९३॥ टीका - पुद्गल द्रव्य विर्षे परमाणू अर घणुक प्रादि संख्यात, असंख्यात, अनंत परमाणू के स्कंध, ते चलित हैं। बहुरि अंत का महास्कंध विर्षे केई परमाणू प्रचलित हैं; अपने स्थान ते त्रिकाल विर्षे स्थानांतर को प्राप्त न होंइ । बहुरि केई परमाणू चलित हैं; ते यथायोग्य चंचल हो हैं।
१. ब, घ प्रति में 'योगरूप परिणमग ते' इतना ज्यादा है।
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mainmedia
सम्यग्ज्ञानन्द्रिका भावाटीका }
[ ६७७ अणुसंखासंखेज्जारता य अगेज्जणेहि अंतरिया। आहार-तेज-भासा-मरण-कम्मइया धुवक्खंधा ॥५६४॥ सांतरणिरंतरेण य, सुण्णा पत्तेयवेहधुवसुण्णा। . बादरणिगोवसुण्णा, सुहमणिगोदा णभो महक्खंधा ॥५६॥ जुम्म ।
अणुसंख्यातासंख्यातानन्तास अग्राहकाभिरन्तरिताः । माहारतेजोभाषामनःकार्माण ध्रुषस्कन्धाः ।।५९४॥
सान्तरनिरन्तरया छ, शुन्या प्रत्येकदेह-ध्रुवशून्याः ।: १ बादरनिगोदशून्याः, सूक्ष्मनिगोवा नभो महास्कन्धाः ॥५६॥ युग्मम्
टीका --- पुदगल द्रव्य के भेदरूप जे वर्गणा, ते तेईस भेद लीएं हैं - १ अणुवर्पणा, २ संख्याताणुवर्गरणा, ३ असंख्याताशुवर्गणा, ४ अनंताणुवर्मणा, ५ आहारवरिणा, ६ अग्राह्यवर्गरणा, ७ तैजस शरीरवर्गरणा, ८ अग्राह्यवर्गरणा, ६ भाषावर्गरणा, १० अग्राह्य धर्गणा, ११ मनोवर्गरणा, १२ अग्राह्य वर्गणा, १३ काणि वर्गणा, १४ ध्रुव वर्गणा, १५ सांतरनिरंतर वर्गरणा, १६ शून्य वर्गणा, १७ प्रत्येक शरीरवर्गणा, १८ ध्रुवशून्य वर्गणा, १६ बादरनिगोद वर्गणा, २० शून्यवर्गणा, २६ सूक्ष्मनिगोद वर्गरणा, २२ नभो वर्गर, २३ महास्कंधवर्गणा ए तेईस भेद जानने।। इहां प्रासंगिक श्लोक कहिये हैं
मूतिमत्सु पदार्थेषु, संसारिण्यपि पुद्गलः। ..
अकर्मकमनोकर्मजातिभेदेषु वर्गणा ।।१॥ . . . . . . : मूर्तीक पदार्थनि विर्षे पर संसारी जीव विर्षे पुद्गल शब्द प्रवत है । बहुरि अकर्म जाति के कर्म जाति के नोकर्म जाति के जे पुद्गल, तिनि विर्षे वर्गरणा शब्द प्रवर्ते है.। सो अव इहां तेईस. जाति की वर्गणनि विर्षे केले के परमाणू पाइये ? सो प्रमाण कहिये हैं- ....
.. . , तहां अणुवर्गणा तो एक एक परमाणू रूप है। इस विर्षे जघन्य, उत्कृष्ट, मध्य भेद भी नाहीं है।
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६७५ ]
[ गोम्मटसार जोधकाण्ड माया ५६५
बहुरि अन्य बाईस वर्गणानि विषे भेद हैं। वहां जघन्य श्रर उत्कृष्ट भेद, सो कहिये हैं - जधन्य के ऊपर एक एक परमाणू उत्कृष्ट का नीचा पर्यत बधावने तें जैते भेद होहि, तितनें मध्य के भेद जानने ।
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बहुरि संख्याताणुवर्गेणा विषै जथत्य दोय अणूनि का स्कंध है । पर उत्कृष्ट उत्कृष्ट संख्या अणूनि का स्कंध है ।
बहुरि प्रसंख्याता वा विषे? जधन्य परीतासंस्थात परमाणूनि का स्कंध है, उत्कृष्ट उत्कृष्ट असंख्याता संख्यात परमाणूनि का स्कंध है । इहां विवक्षित वर्गणा carat के निमित्त गुणकार का ज्ञान करना होइ तो विवक्षित वर्गरणा को ताके नीचे की वर्मा का भाग दीए, जो प्रमाण श्रावै, सोई गुणकार का प्रमाण जानना । तिस गुणकार करि नीचे की वर्गणा की मुणे, विवक्षित वर्गला हो है । जैसें विवक्षित तीन अणूं का स्कंध पर नीचे दोय परमाणू का स्कंध, तहां तीन को दोय का भाग दीए ड्योढ पाया; सोई गुणकार है । दोय कौं घोढ करि गुंगिए, तब तीन होइ; असे सर्वत्र जानना | बहुरि इहां संख्याताणु संख्याताणु वर्मणा विषै जघन्य का भाग उस्कुष्ट को दोएं, जो प्रमाण भावे, सोई जघन्य को गुणकार जानना । इस गुणकार करि जघन्य की गुरौं, उत्कृष्ट भेद हो है ।
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बहूरि ताके ऊपर अनंताणुवर्गणा विषे उत्कृष्ट असंख्याताणु वर्गणा तें एक परमाणू अधिक भये जघन्य भेद हो है । भर जघन्य को सिद्ध राशि का अनंतवां भाग मात्र जो अनंत, ताकरि गुण, उत्कृष्ट भेद हो है ।
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बहुरि ताके ऊपर आहार वर्गणा विषै उत्कृष्ट अनंताणुवर्गेणा तें एक परमाणू fee भए जघन्य भेद हो है । बहुरि इस जघन्य को सिद्धराशि का अनंतवां भाग मात्र जो अनंत, ताका भाग दीये, जो प्रमाण आर्य, तितने जघन्य तें अधिक भये उत्कृष्ट भेद हो है ।
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बहुरि ताके ऊपर ग्राह्यवर्गणा है। तीहि विषै उत्कृष्ट ग्राहारवर्गणा तें एक परमाणू अधिक भए, जघन्य भेद हो है । बहुरि जधन्य भेद को सिद्धराशि का अनं तव भागमात्र जो अनंत करि गुणै उत्कृष्ट भेद हो है ।
१. प्रति में यहां 'जघन्य' शब्द अधिक मिलता है ।
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सभ्यशानचन्तिका भाषाटका ]
[६७e .. बहुरि ताके ऊपरि तैजसशरीरवर्गणा है । ताहि विर्षे उत्कृष्ट अग्राह्य वर्गणा ते एक परमाणू अधिक भए, जघन्य भेद हो है । इस जघन्य भेद कौं सिद्धराशि का अनंतवां भाग मात्र अनंत का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितने जघन्य से अधिक भए उत्कृष्ट भेद हो है। . .. .बहुरि ताके ऊपरि अग्राह्य वर्गणा. है; तीहिं विर्षे उत्कृष्ट तैजस वर्गणा ते एक परमाणू अधिक झए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य. कौं सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र अनंत करि गुण उत्कृष्ट भेद. हो हैं...... .. ... .
बहुरि ताके ऊपरि भाषा वर्गणा है; तीहि विर्षे उत्कृष्ट अग्राह्यवर्गणा ते एक परमाण अधिक भए जघन्य भेद हो है.। इस जघन्य की सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र अनंत का भाग दीए, जो प्रमाण प्राव, तितने जघन्य ते अधिक भए उत्कृष्ट भेद
बहुरि ताके ऊपरि अग्राह्य वर्गणा है । तीहि विर्षे उत्कृष्ट भाषावर्गणा ते एक परमाण अधिक भये जघन्यभेद हो है । इस जघन्य को सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र अनंत करि गुणं उत्कृष्ट भेद हो है।
बहुरि ताके ऊपरि मनोवर्गरणा है, तीहि विर्षे उत्कृष्ट अग्राह्य वर्गणा ते एक परमाण अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य कौं सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र अनंत का भाग दीएं, जो प्रमाण पावै, तितने जघन्य तें अधिक भएं उत्कृष्ट भेद हो है।
बहुरि ताके ऊपरि अग्राह्य वर्गणा है । तोहिं विर्षे उत्कृष्ट मनोवगरणा ते एक परमाणू अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को सिद्धराशि का अनंतवां भाग प्रमाण अनंत करि गुण, उत्कृष्ट भेद हो है ।
- बहुरि ताके ऊपरि कार्माणवर्गणा है; तोहिं विर्षे उत्कृष्ट अग्राह्य वर्गणा ते एक परमाणु अधिक भएं जघन्य भेद हो है । इस जघत्य की सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र अनंत का भाग दीएं, जो प्रमाण प्राव, तितने जघन्य ते अधिक भएं उत्कृष्ट भेद हो है।
बहरि ताके ऊपरि ध्रुवदर्गणा है, तहां उत्कृष्ट कार्मारण वर्णा ते एक परमाणू अधिक भएं जघन्य भेद हो है। इस जघन्य कौं अनंतमुरण जीव राशिमात्र अनंत करि गुणों, उत्कृष्ट भेद हो है। .
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[ गोम्मटसार जीवको गाथा २६६
बहुरि ताके ऊपर सांतर निरंतर वरणा है। तहाँ उत्कृष्ट ध्रुववर्गणा ते एक infi fr भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को अनंतगुणा जीवराशि का प्रमाण करि गुणे, उत्कृष्ट भेद हो है ।
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असे जो ए अणुवरणातें लगाइ पंद्रह वर्गणा कहीं, ते सदृश परिमाण को लीए, एक एक वर्गेणा लोक विधै अनंत पुद्गल राशि का वर्गमूल प्रमाण पाइए है । परि किछु घाटि वाटि क्रम तँ पाइए है । तहां प्रतिभागहार सिद्ध अनंत भागमात्र है । सो इस कथन कौं विशेष करि आगे कहिएगा ।
बहुरि ताके ऊपर शून्य वर्गणा है, तहां उत्कृष्ट सांतर निरन्तर वगेरा ते एक एक परमाणू अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को अनंतगुणा जीवराशि का प्रमाण करि गुण, उत्कृष्ट भेद हो है । जैसे सोलह वर्गेणा सिद्ध भई ।
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बहुरि ताके ऊपर प्रत्येक शरीर वर्गणा है; सो एक शरीर एक जीव का pts, arat प्रत्येक शरीर कहिए। तहां जो विस्रसोपचय सहित कर्म वा नोक तिनिका एक स्कंध ताक प्रत्येक शरीर वर्गेणा कहिये । तहां शून्यवर्गसा का उत्कृष्ट तें एक परमाणू करि अधिक जधन्य भेद हो है; सो यहु जघन्य भेद कहाँ पाइये है ? सो कहिए हैं---
जाका कर्म के अंश दक्षयरूप भए है, अंसा कोई क्षपितकर्मा जीव, सो कोटि पूर्व वर्ष प्रमाण आयु का धारी मनुष्य होइ, अंतमुहूर्त अधिक आठ वर्ष के ऊपरि सम्यक्त्व पर संयम दोऊ एक काल अंगीकार करि संयोग केवली भया, सो किछ घाटि कोटि पूर्व पर्यंत श्रदारिकं शरीर पर तेजस शरीर की तो जो प्रकार का है, वैसे निर्जरा करत संता और कार्मारण शरीर को गुण श्रेणी निर्जरा करत संता, अयोगकेवली का अंत समय कौं प्राप्त भया, तार्के आयु कर्म, प्रदारिक, तेजस शरीर अधिक नाम, गोत्र, वेदनीय कर्म के परिमाणूनि का समूह रूप जो श्रदारिक, तैजस, कार्मारण, इनि तौनि शरीरनि का स्कंध, सो जघन्य प्रत्येक शरीर वर्गणा हैं । बहुरि इस जघन्य को पल्य का असंख्यातवां भागकरि गुणे, उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर वर्गणा हो है । 'सरे कहां पाइए ? सो कहिए हैं
'नंदीश्वर नाभा द्वीप विषे प्रकृत्रिम चैत्यालय है। तहां धूप के घड़ हैं । तिनि विषं वा स्वयंभूरमण द्वीप विषे उपजे दावानल, तिनि विषे जे बादर पर्याप्त अग्नि
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सम्याहानवनिका भाषायीका 1 काय के जीव हैं, तहां असंख्यात श्रावली का वर्ग प्रमाण जीवनि के शरीरनि का एक स्कंध है। वहां गुणितकर्माश कहिए, जिनके कर्म का संचय बहुत हैं, असे जीव बहुत भी होंह तो पाबली का असंख्याता भागमात्र होइ, तिनिका विस्रसोपचय सहित औदारिक, तैजस, कारण इनि तीनि शरीरनि का जो एक स्कंध, सो उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर वर्गणा है । बहुरि ताके ऊपरि ध्रुव शून्य वर्गणा है। तहां उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर वर्गणा ते एक परमाणू अधिक भएं जघन्य भेद हो है । इस जघन्य कौं सब मिथ्यादृष्टी जीवनि का.जो प्रमाण, ताकी असंख्यात लोक का भाग दीएं, जो प्रमाण आय, तीहिं करि गुण, उत्कृष्ट भेद हो है। बहुरि ताके अपरि बादर निगोद वर्गणा है, सो बादर निगोदिया जीवनि का विनसोपचय सहित कर्म नोकर्म परिमाणूनि का जो एक स्कंध, ताकों बादर-निगोद वर्गरणा कहिए है । सो ध्रुवशून्य वर्गणा ते एक परमाणू अधिक जघन्य बादरनिगोदवर्गणा है । सो कहां पाइए है ? सो कहैं हैं
क्षय कीएं हैं कर्म अंश जानें, असा कोई क्षपितकर्माश जीव, सो कोडि पूर्व वर्ष प्रमाण आयु का धारी मनुष्य होइ, मर्भ ते अंतर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष के ऊपरि सम्यक्त्व पर संयम कौं युगपत अंगीकार करि, किळू घाटि कोडि पूर्ववर्ष पर्यंत कर्मवि की गुणश्रेणी निर्जराकौं करत संता जब अंतर्मुहर्त सिद्धपद पावने का रहा, तब क्षपक श्रेणी चढि उत्कृष्ट कर्मनिर्जरा कौं करत. संता क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती भया, तिसके शरीर विर्षे जघन्य वा उत्कृष्ट आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पुलवी एक बंधनरूप बंधे पाइए हैं, जातें सर्व स्कंधनि विर्षे पुलवी असंख्यात लोक प्रमाण कहे हैं। बहुरि एक एक पुलवी विर्षे असंख्यात लोक प्रमारण शरीर पाइए हैं । बहुरि एक एक शरीर विर्षे सिद्धनि ते अनंतगुणे संसारी राशि के असंख्यात भागमात्र जीव पाइए है । सो प्रावली का असंख्यातवां भाग कौं असंख्यात लोक करि गुण, तहाँ शरीरनि का प्रमाण भया । ताकी एक शरीर विषै निगोद जीवनि का जो प्रमाण, ताकरि मुरणे, जो प्रमाण भया, तितना तहां एक स्कंध विर्ष बादर निगोद जीवनि का प्रमाण जानना । तिनि जीवनि के क्षीण कषाय गुणस्थान का पहिला समय विर्षे अनन्त जीव स्वयमेव अपना प्रायु का नाश से मरे है। बहुरि दूसरे समय जेते पहिले समय मरे, तिनिकी पावली का असंख्यातवां भाग का भाग-दीएं, जो प्रमाण पावै, तितमे पहिले समय मरे जीवनि से अधिक मरे हैं । इस ही अनुक्रम ते क्षीणकषाय का प्रथम समय से लगाइ, पृथक्त्व प्रावली का प्रमाण काल पर्यंत मरै हैं । पीछे पूर्ष पूर्व समय संबंधी मरे जीवनि के प्रमाण कौं प्रावली का संख्यातवां भाग का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ
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[ गौमसार बीमकाय गाथा ५६५ तितने तितने पहिले पहिले समय ते अधिक समय समय तें मरे हैं । सो क्षीणकषाय मुरणस्थान का काल प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण अवशेष रहे तहां ताई इस ही अनुक्कम ते मर है। ताके अनन्तर समय विर्षे पल्य का असंख्यातवां भाग करि पहिले पहिले समय संबंधी जीवनि कौं गुरग, जितने होंहि तितने तितने मरै हैं । तहां पीछे संख्यात पल्य करि पूर्व पूर्व समय सम्बन्धी मरे जीवनि कौं गुण, जो जो प्रमाण होइ, तितने तितने मरे हैं। सो असे क्षीणकषाय गुणस्थान का अंत समय पर्यंत जानता । तहां अंत के समय विर्षे जे जुने जुदे असंख्यात लोक प्रसारण शरीरनि करि संयुक्त असे पावली का असंख्यातवा भाग प्रमाण पुलवी, तिनिविर्षे जे गुरिणतकांश जीव मरे; तिनकरि हीन अवशेष जे अनंतानन्त जीव शुणित कर्माश रहे । तिनिका बिनसोपचयसाहित औदारिक, तैजस, कारण तीन शरीरान के परमाणूनि का जो एक स्कंध,सोई जघन्य बादर निगोद वर्गणा है । बहुरि इस जघन्य को जगच्छे णी का असंख्यातवां भाग करि गुण, उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणा हो है । सो कैसे पाइए ? सो कहिए हैं' . स्वयंभूरमण नामा द्वीप विष जे मूला ने आदि देकरि सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती हैं. तिनके शरीरनि विर्षे एक बंधन विर्षे बंधे जगच्छणी का असंख्यातवां भागमात्र पुल बी हैं । तिनिः विष तिष्ठते जे गुरिणतकर्माश जीव अनंतानंत पाइये हैं । तिनिका विस्रसोपचयसहित औदारिक, तेजस, कारण तीन शरीरनि के परमाणूनि का एक स्कंध, सोई उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणा है । बहुरि ताके परि तृतीय शून्यवर्गणा है । तहां उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा ते एक प्रदेश अधिक भए, जघन्य भेद हो है। इस जघन्य कौं सूच्वंगुल का असंख्यातवां भाग करि गुरणे, उत्कृष्ट भेद हो है । बहुरि ताके अपरि सूक्ष्मनिगोद वर्गणा है, मो सूक्ष्मनिगोदिया जीवनि का बिनसोपचय सहित कर्म नोकर्म परमाणूनि का एक स्कंधरूप जानना । तहां उत्कृष्ट शून्यवर्गणात एक परमाणू अधिक भए' जघन्य भेद हों है। सो जघन्य भेद कैसे पाइए है ? सो कहिए हैं - . जल विषं या स्थल विर्षे वा आकाश विर्षे जहां तहां एक बंधन विषं बधे, असे जे प्रावली का असंन्यातवां भाग प्रमारण पुलवी, तिनिविर्षे क्षपितकर्माश अनंतानन्त सूक्ष्म निगोदिया जीव हैं । तिनिका विनसोपचय सहित औदारिक, तेजस, कार्माण तीन शरीरनि का परमाणूनि का जो एक स्कंध, सोई जघन्य सूक्ष्मनिगोद वर्गरणा है।
इहां प्रश्न - जो बादरनिगोद उत्कृष्ट वर्गणा विर्षे पुलबी श्रेणी के असंख्यातवे भाग प्रमाण कहे पर जघन्य सूक्ष्मनिगोद वर्गरणा विर्षे पुलवी प्रावली का असं
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चन्द्रका भाषाटीका ]
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ख्यातर्वा भाग प्रमाण कहे, तातं बादरनिगोद वर्मणा के पहिले या कहना युक्त था । जातें पुलयोनि का बहुत प्रमाण तें परमाणुनि का भी बहुत प्रमाण संभव हैं ?
तथापि बादरनिगोद
ari समाधान - जो यद्यपि पुलवी इहां घाटि कहे हैं; वर्गेणा सम्बन्धी निगोद शरीरनि तें सूक्ष्मनिगोद वर्मणा संबन्धी शरीरनि का प्रमाण सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग गुणा है । तातें तहां जीव भी बहुत हैं । तिनि जीवनि के तीन शरीर संबंधी परमाणु भी बहुत हैं । तातें बादरनिगोद वर्मणा के पीछे सूक्ष्म fruit after कही है । बहुरि जघन्य सूक्ष्मनिगोद वर्गणा कौं पल्य का श्रसंख्यातवां भाग करि गुणे, उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोद वर्गरणा हो है, सो कैसे पाइये है ? सो कहिए हैं
यहां महामत्स्य का शरीर विषे एक स्वरूप श्रावली का प्रसंख्यातवां भाग प्रमाण पुलवी पाइयें है । तहां गुणितकर्मश अनंतानंत जीवनि का विस्रसोपचय सहित श्रीदारिक, तैजस, कार्माण तीन शरीरनि के परमाणूनि का एक स्कंध, सोई उत्कुष्ट सूक्ष्मfroोद वर्गणा हो हैं ।
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. बहुरि ताके ऊपरि नभोवणा है । तहां उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा ते एक अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य भेद को जगत्प्रतर का श्रसंख्यातवां भाग करि गुणे, उत्कृष्ट भेद हो है । बहुरि ताके ऊपर महास्कंध है । तहां उत्कृष्ट नभोवर्गणा तें एक परमाणू अधिक भए, जघन्यभेद हो है । बहुरि इस जघन्य की पत्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीए, जो प्रमाण आवे, तार्कों जघन्य विषै मिलाये, उत्कृष्ट महास्कंध के परमाणूनि का प्रमाण हो है । जैसे एक पंक्ति करि तेईस वर्मा कहीं ।
आगे जो अर्थ कला, तिस ही कौं संकोचन करि तिन वर्गलानि ही का उत्कृष्ट, जघन्य, मध्य भेदन को वा अल्प - बहुत्व को छह मायानि करि कहें हैं
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परमाणुवग्गणम्भि ण, श्रवरुक्कस्तं च सेसने श्रत्थि । गेज् महखधारणं वरमहियं सेसगं गुणियं ॥ ५६६ ॥
परमाणुवर्गमायां न प्रवरोत्कृष्टं च शेषके श्रस्ति । ग्राह्यमहास्कंधानां वरमधिकं शेषकं गुणितम् ।।५६६ ।।
टीका - परमाणु वर्गरणा विधे जघन्य उत्कृष्ट भेद नाहीं है; जाते है । बहुरि अवशेष बाईस वर्गरणानि विषे जघन्य उत्कृष्ट भेद पाइए हैं।
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श्रण
श्रभेद
तहां ग्राह्य
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[ गोम्मटसर का गाया २२७-२६८
कहिए जीव के ग्रहण करने के योग्य असी जे ग्राहार, तैजस, भाषा, मनः, कार्मारणवर्गरणा । इहां श्राहार वर्गरणा ते आहार, शरीर, इन्द्रो, सासोस्वास ए च्यारि पर्याप्ति हो हैं । तैजस वर्गगा तं तेजस शरीर हो है । भाषा वर्गणा तें वचन हो है | मनो वर्गात मन निपजे है । कार्मारण वर्मणा तें ज्ञानावरणादिक कर्म हो हैं । तातें इनि पंच वर्गात कौं ग्राह्य वर्गगा कही है। अर एक महास्कंध, इनि छहौ वर्गणानि का उत्कृष्ट तौ अपने-अपने जघन्य तें कि अधिक प्रमाण लीएं है । अर अवशेष सोलह वर्गणानि का उत्कृष्ट भेद अपने-अपने जघन्य को गुणकार करि गुखिए, तब हो है ।
सिद्धातिमभागो, पडिभागो गाण जेट्ठट्ठे । 'पल्लासंखेज्जदिमं, अंतिमखंधस्स जेट्ठट्ठ ॥५७॥
सिद्धानंतिम भागः, प्रतिभागो ब्राह्माणां ज्येष्ठार्थम् । पल्या संख्येयमंतिम स्कंधस्य ज्येष्ठार्यम् ॥५९७१
टीका ग्राह्य पंच वर्गरणा, तिनका उत्कृष्ट के निमित्त सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र प्रतिभाग है । अपने-अपने जघन्य की सिद्धराशि का अनंतवां भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितने जघन्य विषै मिलाएं, श्रपना-अपना उत्कृष्ट भेद हो है । बहुरि अंत का महास्कंध का उत्कृष्ट का निमित्त पल्य का असंख्यातवां भागमात्र प्रतिभाग है | महांस्कंध के जघन्य की पत्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितना जघन्य विषै मिलें, उत्कृष्ट महास्कंध हो है ।
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संखेज्जासंखेज्जे, गुणगारो सो दु होदि हु प्रणते । चत्तारि प्रगेज्जेसु वि, सिद्धाणमणंतिमो भागो ॥६८॥ संख्याता संख्यालायां गुणकारः स तु भवति हि अनंतायाम् । चतसृषु ग्राह्यास्वषि, सिद्धानामनंतिमो भागः ५
टोका संख्यातावणा पर असंख्याताणुवर्गणा विषै अपने-अपने उत्कृष्ट को अपना-अपना जघन्य का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, सोई गुणकार जानना । इस गुणकार करि जघन्य की गुरु, उत्कृष्ट भेद हो है । बहुरि अनंताणुवर्गरणा विषै पर जीव करि ग्रहण योग्य नाहीं । असी च्यारि अग्राह्य वर्गरणा विषै गुणकार सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र है । इसकरि जघन्य कों गुरौं, उत्कृष्ट भेद हो है ।
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सम्यानामन्द्रिका भावाटीका 1
[ ६८५ जीवादोणतगुणो,'धुवादितिण्हं असंखभागो दु । फलस्स तयो तत्तो, 'असंखलोगवहिदो मिच्छी ॥५६६॥ जीपादनंतगुणो, ध्रुवादितिसृणामसंख्यभागस्तु ।
पस्पस्य ततस्ततः, असंख्यलोकावहिता मिथ्या ।।५९९॥ .. टीका - बहुरि ध्रुवादिक तीन वर्गणानि विर्षे जीवसशि तें अनंतगुणा गुरणकार है । याकरि जघन्य कौं गुणे, उत्कृष्ट हो है । बहुरि प्रत्येक शरीर वर्गणा विर्षे पल्स का असंख्यातवां भागमात्र गुणकार है । याकरि जघन्य कौं गुण, उत्कृष्ट हो है। काहे से ? सो कहिए हैं। प्रत्येक शरीर वर्गणा विर्षे जो कार्मारण शरीर है । तातै समय प्रबद्ध गुरिणतकर्माश जीव संबंधी है । तातें जघन्य समय प्रबद्ध के परमाणू का प्रसारण ते याका प्रमाण पल्य का अर्धच्छेदति का असंख्यातवां भाग गुणा है । ताकी सहनानी -बत्तीस का अंक है । ताते इहां पल्य का प्रसंख्यातवां भाग का गुणकार कह्या है । बहार ध्रुव, शन्य वगरमा वि असंस्थालोक का भाग मिथ्यादृष्टी जीवनि कौं दीए, जो प्रमाण होइ, तितना गुणकार है । याकरि.जघन्य की गुणें उत्कृष्ट हो है।
सेढी-सूई-पल्ला-जगपारासंखभागगुणगारा। .. अपप्पणनवरायो, उक्कस्से होंति णियमेण ॥६००॥
श्रेणी-सूची-पल्य, जगत्प्रतरासंख्यभागगुणकाराः ।
प्रात्मात्मनोवरावृत्कृष्टे. भवंति नियमेन ॥६.००॥ ... टीका - जगच्छे शी का असंख्यातवा भाग, बहुरि सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग, बहुरि पल्य का असंख्यातवां भाग; बहुरि जगत्प्रलर का असंख्यातवां भाग ए अनुक्रम से कादरनिगोदवर्णरणा अरु शून्यवर्गमा पर सूक्ष्मविगोद धरणार नभोवर्गणा नि विर्ष गुणकार है। इनिकरि-अपने अपने जघन्य की गुण, उत्कृष्ट भेद हो है। इहां शून्यवर्गरणा विः सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग:गुणकार कहा है सो सूक्ष्मनिगोद वर्गणा का जघन्य एक धाटि भये उत्कृष्टा शून्यवर्गरणा हो है; तातें कहा है । बहुरि सूक्ष्मनिगोद वगरणा विर्षे पल्याला असंख्यातवां भाग गुणाकार कह्या है; सो साके उत्कृष्ट का कार्माण संबंधी समयप्रबद्ध मुरिगतकर्मीश जीव संबंधी है । ताते कहा है । असे ए तेईस वर्गरणा एक पंक्ति अपेक्षा कहीं । अब नानापंक्ति अपेक्षा कहिए
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( শশা লীগুখে গ ০৬ है । नाना पंक्ति कहा ? जो ए वर्गणा कहीं, ते वर्गणा लोक विष वर्तमान कोई एक काल में केती-केती पाइए है ? अंसी अपेक्षा करि कहै हैं -
परमाणु वर्गरणा नै लगाइ, सांतरनिरंतरवर्गणा पर्यंत पन्द्रह वर्गणा समान परमाणूनि का स्कंधरूप लोक विर्षे पुद्गलद्रव्य का जो प्रमाण, ताकर जो वर्गमूल, ताका अनंत मुणा कीए, जो प्रमाण होइ, तितनी-तितनी पाइए है। तहाँ इतना विशेष है जो ऊपरि किछू घाटि-धाटि पाइए है. तहां प्रतिभागहार सिद्धराशि का अनंतवां भाग (मात्र) है । सो कहिए हैं -
- अणुवर्गणा लोक विजेती पाइए हैं, तिस प्रमाण कौं सिद्धराशि का अनंतवां भाग का भाग दीए, जो प्रमाण आयें, तितना अणुवर्गरणा का परिमाण में घटाए, जो प्रमाण रहे, तितनी दाय परमाणू का स्कंधरूप संख्याताणुवर्गणा जगत विर्षे पाइए है। इसकौं सिद्धराशि का अनंतवा भाग का भाग दीएं, जो प्रमाण पावै, तितना तिस ही मैं घंटाइए, जो प्रमाण रहै, तितनी तीन परमाणू का स्कंध रूप संख्याताणु वर्गरणा लोक विर्षे पाइए है । इस ही अनुक्रम ते एक-एक अधिक परमाणू का स्कंध का प्रमारण करते जहां उस्कृष्ट संख्याताणुवर्मणा भई, तहां जो प्रमाण भया, 'ताको सिद्ध राशि का अनंतवां भाग का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, सितना तिस ही मैं घटाए, जो अवशेष रहै, तितना जघन्य असंख्यासाणु वर्गणा लोक विर्षे पाइए हैं। याकौं तैसें ही भाग देइ घटाए, जो प्रमाण रहै, तितनी मध्य प्रसंख्याताणु वर्गणा का प्रथम भेद रूप वर्गणा लोक विषं पाइए है। सो असे ही एक-एक अधिक परमाणूनि का स्कंध का प्रमाण अनुक्रम ते सांतरनिरंतर वर्गणा का उत्कृष्ट पर्यंत जानना । सामान्यपने सर्व जुदी-जुदी वर्गणानि का प्रमाण अनंत पुद्गल राशि का वर्ग मूल मात्र जानना । बहुरि प्रत्येक शरीर वर्गणा का जघन्य तौ पूर्वोक्त प्रयोग केवली का अन्त समय विर्षे पाइए; सो उत्कृष्ट पनै च्यारि पाइए हैं। बहुरि उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर वर्गणा स्वयंभूरमण द्वीप का दावानलादिफ विर्षे पाइए; सो उत्कृष्ट पर्ने प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पाइए है। बहुरि बादर निगोद वर्गणा का जघन्य तो पूर्वोक्त क्षीरए कषाय गुणस्थान का अंत समय विर्षे पाइए; सो उत्कृष्ट पर्ने च्यारि पाइए है । पर बादर निगोद वर्गणा का उत्कृष्ट महामत्स्यादिक विर्षे पाइए; सो उत्कृष्ट पर्ने प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पाइए है। बहुरि सूक्ष्मनिगोद वर्गणा जघन्य तौ वर्तमान काल विर्षे जल में वा. स्थल में वा आकाश में आवली का असंख्यातवां भाग. प्रमाण पाइए है, पर सूक्ष्मनिगोद वर्गणा उत्कृष्ट भी प्रावली कर
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संज्ञानवद्रिका भाषाटोका ]
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प्रसंख्यातवां भाग प्रमाण पाइए है । इहां प्रत्येक शरीर, बादरनिगोद, सूक्ष्मनिगोद, इन तीन वित्तवर्गखानि का मध्य भेद वर्तमान काल विषै असंख्यात लोक प्रमाण पाइए है। बहुरि महास्कंध वर्गणा वर्तमान काल में जगत विषै एक ही है। सो भवनवासीनि के भवन देवनि के विमान आठ पृथ्वी, मेरु गिरि, कुलाचल इत्यादिकनि का एक स्कंध रूप है ।
इन्हीं प्रश्न जो जिनि के प्रसंख्यात, असंख्यात योजननि का, अन्तर पाइए; fafter एक स्कंध कैसे संभव है ?
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साक ं उत्तर -- जो मध्य विषै सूक्ष्म परमाणू है, सो वे विमानादिक पर सूक्ष्म परमाणू, तिनि सबनि का एक बंधान है । तातें अंतर नाहीं, एक स्कंध हैं । सो अंसा ओ एक स्कंध है, ताही का नाम महास्कंध है ॥
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हेमिक्करसं पुण, रूवहियं उवरिमं जहणं खु । sia तेवीसवियप्पा, पुग्गलवा है जिगदिट्ठा ॥ ६०१ ॥
श्रधस्तनोत्कृष्टं पुनः रूपाधिकमुपरिमं जघन्यं खलु
इति त्रयोविंशतिविकल्पानि पुद्गलव्यापि हि जिनदिष्टानि ॥ ६०१ ॥
टीका - तेईस वर्गेणानि विषै अणुवा बिना अवशेष वर्गेणानि के जो नोचे का उत्कृष्ट भेद होइ, तामैं एक अधिक ताके ऊपर जो वर्गरणा, ताका जघन्य भेद हो है । अँसे तेईस वर्गणा भेद को लीए पुद्गल द्रव्य, जिनदेवने कहे हैं । इनि विषे प्रत्येक वर्गरणा र बादरनिगोद वर्गमा अर सूक्ष्मनियोंद वर्गगा ए' तीन सचित्त हैं; जीव सहित हैं, सो इनिका विशेष कहिए हैं
भए,
प्रयोग केवली का अंतसमय विषे पाइये असी जघन्य प्रत्येक वर्गरणा, सो लोक विषे होइ भी वा न भी होइ, जो होइ तो एक ही होइ वा दोय होइ वा तीन होइ उत्कृष्ट होइ तौ च्यारि होइ । बहुरि जघन्य तें एक परमाणू अधिक जैसी मध्य प्रत्येक वर्ग, सो लोक विष होइ वा न होइ; जो होइ तो एक वा दोय वा तीन वा उत्कृष्ट पर्ने व्यारि होइ, भैंसें ही एक एक परमाणु का बधाव तें इस ही अनुक्रम, तें. जब अनंत aणा होइ, तब ताके अनंतर जो एक परमाणू अधिक वर्गणा, सो लोक विषै होइ वा मैं होइ, जो होइ तो एक वा दोय वा तीन वा च्यारि वा उत्कृष्टपने पांच होंइ । जैसे एक एक परमाणू बघतें अनंतवर्मणा पर्यंत. पंच ही उत्कृष्ट हैं । ताके अनन्तरि जो
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६८८ ]
| गोम्मटसार जीवका गाया ६०१ वर्गणा सो होइ वा न होइ, जो होइ ती एका वा दोय वा तीन वा उत्कृष्ट छह होइ । असे अनंतवर्गणा पर्यंत उत्कृष्ट छह ही होइ । बहुरि इस ही अनुक्रम ते अनंत अनंत वर्गणा पर्यंत उत्कृष्ट सात, पाठ, सांत, छह, पांच, च्यारि, तीन, दोय वर्गणा जगत विर्षे समान परमाणूनि का प्रमाण लीएं हो हैं । यह यवमध्य प्ररूपणा है, जैसे यव नामा अन्न का मध्य मोटा हो है, तसे इहां मध्य वि वर्गणा आठ कहीं । पहिले वा पीछे थोड़ी थोड़ी कहीं । ताते याकौं यवमाध्या फरूपाणा कहिए है । सो यहु, प्ररूपणा मुक्तिगामी भव्य जीवनि की अपेक्षा है ? असे प्रत्येक वर्गणा सम्हान संसारी जीवनि के न. पाइए है। . इहां से प्रागै संसारी जीवनि के पाइए असी प्रत्येक वर्गणा कहिये हैं
सो पूर्व कथन कीया, ताके अनंतरि पूर्व प्रत्येक वर्गणा ते एक परमाण अधिकता लीएं, जो प्रत्येक वर्गरणा सो जगत विर्षे होइ, वान होइ. जो होइ तो एक का दोय वा तीन इत्यादि उत्कृष्ट श्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण होइ । असें ही अनन्तवर्गणा भए, अनंतरि जो प्रत्येक वर्गणा, सो लोक विर्षे होइ वा न होई,जो होइ तौ एक या दोय वा तीन उत्कृष्ट श्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पूर्व प्रमाण ते एक अधिक होह । असे अनंत अनंत वर्गणा भए, एक एक अधिक प्रमाण उत्कृष्ट विर्षे होता जाय, जहां यवमध्य होइ, तहां ताई असें जानना । यवमध्य विर्षे जेता परमाणू का स्कंधरूप प्रत्येक वर्गणा भई, तितने तितने परमाणनि का स्कंध रूप प्रत्येक वर्गणा जगत विर्षे होइ वा न होइ, जो होइ, तो एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण होई । यहु प्रमाण इस ते जो पूर्वप्रमाण ताते एक अधिक जानना । जैसे अनंत वर्गणा भएं, अनंतरि जो वर्गरणा भई, सो जगत विर्षे होइ वा न होइ, जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट पावली का असंख्यातवां भागप्रमाण होई । सो यहु प्रमाण यवमध्य संबंधी पूर्वप्रमाण ते एक धोटि जानना । अँसे एक एक परमाणू के बंधने से एक एक वर्गणा होइ । सो अनंत अनंता वर्गणा भए. उत्कृष्ट विर्षे एक एक घटाइये जहां ताई उत्कृष्ट प्रत्येक वर्गमा होइ, तहाँ ताई अस करना । उत्कृष्ट प्रत्येकवर्गणा लोक विर्षे होइ वा न होइ, जो होइ ती एक वा दोय वा तीनः उत्कृष्ट प्रावली. का असंख्यातवा भाग प्रमाण होइ । जैसे प्रत्येक वर्गण भव्य सिद्ध, अभव्य सिद्धनि की अपेक्षा कही । बहुरि बादरनिगोद वर्गणा का भी कथन प्रत्येक वर्गणावत जानना, किंछु विशेष नाहीं जैसे प्रत्येक वर्गणा विर्षे प्रयोगी का अंतसमय विर्षे संभवती जघन्य वर्गणा, ताकी आदि देकरि भव्य सिद्ध अपेक्षा कथना कीया है । तैसे इहां क्षीणकषायी का अंत समय विर्षे संभवती तिसका शरीर के आश्रित जघन्य बादरनिगोदवर्गणा ताकौं
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सम्परामानका भावाटीका ]
[ ६६ आदि देकरि भव्य सिद्ध अपेक्षा कथन जानना । बहुरि सामान्य संसारी अपेक्षा दोऊ जायगे समानता संभव है । बहुरि सूक्ष्मनिमोद वर्गरणा का कथन कहिए हैं-" .
सो इहां भव्य सिद्ध अपेक्षा तो कथन है नाहीं । तातै जघन्य सूक्ष्मनिगोदवर्गणा लोक विर्षे होइ वा न होइ, जो होइ तो एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण होइ । आगै जैसे संसारीनि की अपेक्षा प्रत्येक वर्गणा का कथन कीया, तैसे ही यवमध्य ताई अनंतानन्त. वर्मणा भए, उत्कृष्ट विर्षे एक एक बधावना । पीछे उत्कृष्ट सूक्ष्मवर्गणा पर्यंत एक एक घंटावना । सामान्यपर्ने सर्वत्र उत्कृष्ट का प्रमाण पावली का असंख्यातवां भाग कहिये । इहां सर्वत्र संसारी सिद्ध कौं योग्य असी जो प्रत्येक बादर निगोद, सूक्ष्मनिगोद वर्गरणा तिनिका यव प्राकार प्ररूपमा वि गुण्डहानि का नीलामिल हैं अनन्त गुणा जानना। नाना गुण हानिशलाका का प्रमाण यवमध्य ते ऊपरि या नीचे पावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण जानना।
भावार्थ-संसारी अपेक्षा प्रत्येकवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा विर्षे जो यवमध्य प्ररूपरणा कही, तहां लोक विर्षे पावने की अपेक्षा जेते एक एक परमाणू बधने रूप जे वर्गणा भेद तिनि भेदनि का जो प्रमाण सो तो द्रव्य है । पर जिनि वर्गगानि विर्षे उत्कृष्ट पाचने की अपेक्षा समानता पाइये, तिनिका समूह सो निक, तिनिका जो प्रमाण, सो स्थिति है । बहुरि एक गुणहानि विर्षे निधेकनि का जो प्रमाण सो गरगहानि का गच्छ है । ताका प्रमाण जीवराशि से अनन्त गुणा है । बहुरि यवमध्य के ऊपरि वा नीचे गुणहानि का प्रमाण, सो नानागुणहानि है । सो प्रत्येक प्रावली का असंख्यातवां भागमात्र है। असे द्रव्यादिक का प्रमाण जानि, जैसें निषेकनि विर्षे द्रव्य प्रमाण ल्यावने का विधान है । तैसे उत्कृष्ट पावने की अपेक्षा समान रूप जे वर्गरणा, तिनिका प्रमाण यवमध्य तें ऊपरि वा नीचे वय घटता क्रम लीए जानना। " इहां प्रश्न - जो इहां तो प्रत्येकादिक तीन संचित वर्गरणानि के अनंतें भेद कहे, एक एक भेदरूप वर्गणा लोक विर्षे प्राबली का असंख्यातवा भाग प्रमाण सामान्य पर्ने कही । बहुरि पूर्व मध्यभेदरूप सचित्तवर्गणा सर्व असंख्यात लोक प्रमाण ही कही सो उत्कृष्ट जघन्य बिना सर्व भेद मध्यभेद विर्षे माय गए; तहाँ असा प्रमाण कैसें संभवै ?
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६६.
गोम्मटहार जीवकाण्ड मावा ६०२.६०३. साको समाधान -- इहां सर्वभेदनि विषं जैसा कह्या है, जो होइ.भी न भी होइ, होइ तो एक वा दोय इत्यादि उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण होइ । सो नानाकाल अपेक्षा यह कथन हैं। बहुरि तहां एक कोई विवक्षित वर्तमान काल अपेक्षा वर्तमान काल विषं सर्व मध्यभेदरूप प्रत्येकादि वर्गणा असंख्यात लोक प्रमाण ही पाइये है । अधिक न पाइए हैं। तिनि विर्षे किसी भेदरूप "वर्गणानि की नास्ति ही है । किसी भेदरूप वर्गरणा एक प्रादि प्रमाण लीएं पाइए हैं। किसी भेदरूप वर्गणा उत्कृष्टपर्ने प्रमाण लीएं पाइये है ! असा समझना । इस प्रकार तेईस वर्गणा का वर्णन कीया। . पुढवी जलं च छाया, चरिदियविसय-कम्म-परमाणू। .. ..
छ-विह-भेयं भरिणयं, पोग्गलदव्वं जिणवहि ॥६०२॥ :::
पृथ्वी जलं च छाया, चतुरिद्रियविषयकर्मपरमाणवः ।
भनियो भरगतं. पुद्गलद्रव्यं जिनवरैः ॥६०२३॥ ___टीका - पृथ्वी पर जल पर, छाया भर नेत्र बिना च्यारि इन्द्रियनि का विषय अर कारण स्कंध पर परमाणू असे पुद्गल द्रव्यं छह प्रकार जिनेश्वर देवनि करि कह्या है।
बाबरबादर बादर, बादरसुहुमं च सुहुमथूलं च । सुहुमं च सुहुमसुहुमं, धरादियं होदि छन्भेयं ॥६०३॥
बादरबादरं बादरं, बादरसूक्ष्मं च सूक्ष्मस्थूलं च ।
___ सूक्ष्म च सूक्ष्मसूक्ष्म, घरादिक, भवति षड्भेदम् ॥६०३॥ .. - टीका - पृथ्वीरूप पुद्गल द्रव्य बांदरबादर है । जो पुद्गल स्कंध छेदने कौं भेदने कौ और जायगे ले जाने कौं समर्थ हूज, तिस स्कंध कौं बादरबादर कहिए । बहुरि जल है, सो बादर है, जो छेदने कौं भेदने कौं समर्थ न हजै पर और जायगे ले जाने कौं समर्थ हजे, सो स्कंध, बादर जानने । बहुरि छाया बादर सूक्ष्म हैं, जे छेदनेभेदने और आयगे ले जाने कौं समर्थ न हूज, सो बादरसूक्ष्म है । बहुरि नेत्र बिना च्यारि इन्द्रियनि का विषय सूक्ष्म स्थूल है । बहुरि कार्माण के स्कंधः सूक्ष्म हैं। जो द्रव्य देशावधि परमावधि के गोचर होइ, सो सूक्ष्म है । बहुरि परमाणू सूक्ष्मसूक्ष्म है। जो सर्वावधि के गोचर होइ, सो सूक्ष्म सूक्ष्म हैं ।
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सम्यग्ज्ञानविका भाषाका
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इहां एक एक वस्तु का उदाहरण कहा है। सो पृथ्वी, काष्ठ, पाषाण इत्यादि बादरबादर हैं । जल, तैल, दुग्ध इत्यादि बादर है । छाया, श्रातप, चांदनी इत्यादि बादरसूक्ष्म है । शब्द गन्धादिक सूक्ष्मबादर है । इन्द्रियगम्य नाहीं, देशावधि परमादधिगम्य होहि ते स्कंध सूक्ष्य हैं । परमाणू सूक्ष्मसूक्ष्म हैं, जैसे जानने ।
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धं सयलसमत्थं, तस्स व श्रद्ध भरणंति देसो ति अद्धद्ध व पदेसो, श्रविभागी वेव परमाणू ॥ ६०४॥
स्कंध सकलसमर्थ, तस्य चार्धं भवंति देशमिति । प्रदेशम विभागिनं चैव परमाणुम् ॥ ६०४ ॥
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टीका - जो सर्व अंश करि संपूर्ण होइ, तार्कों स्कंध कहिए । ताका श्राषा की देश कहिये । तिस श्राधा के आधा की प्रदेश कहिए । जाका भाग न होइ, ताक परमाणू कहिये ।
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भावार्थ - विवक्षित स्कंध विषे संपूर्ण ते एकः परमाणू अधिक प्रर्थं पर्यंत तो स्कंध संज्ञा है । अर्थ तें लगा एक परमाणू अधिक चौथाई पर्यंत देश संज्ञा है । चौथाई ते लगाय दो परमाणू का स्कंध पर्यंत प्रदेश संज्ञा है । प्रविभागी को परमाणु संज्ञा है । इति स्थानस्वरूपाधिकारः ।
गठाणोग्गहकिरियासाधणभूदं ख़ु होदि धम्म-तियं । areefरया साहरणभूदो नियमेण कालो दु ॥ ६०५॥ ॥
गतिस्थानावाकियासाधनभूतं खलु भवति धर्मत्रयम् वर्तन क्रियासाधनभूत नियमेन फालस्तु ||६०५१
टोका - क्षेत्र ते क्षेत्रांतर प्राप्त होने कौं कारण सो गति कहिये । गति का श्रभाव रूप स्थान कहिये । अवकाश विषै रहने को अवगाह कहिए। तहां तेस मत्स्यनि के गमन करने का साधनभूत जल द्रव्य है । तैसें गति क्रियावान जे जीव पुद्गल, fare गतिक्रिया का साधनभूत सो धर्मद्रव्य है । बहुरि जैसे पंथी जननि के स्थान करने का साधन भूत छाया है । तैसे स्थान क्रियावान जे जीव: पुद्गल, तिनके स्थान क्रिया का साधन भूत धर्म द्रव्य है । बहुरि जैसे बास करनेवालों के साधन भूत..
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१६२ ]
गोम्मटसार जोक गाथा ६४
सा है | से अवगाह क्रियावान जे जीव - पुद्गलादिक द्रव्य तिनिकै अवगाह क्रिया का साधनभूत प्रकाश द्रव्य है ।
इहां प्रश्न - जो भयमाह क्रियावान तो जीव - पुद्गल हैं । तिविक्र ter युक्त का है । बहुरि धर्मादिक द्रव्य तो निष्क्रिय हैं, नित्य सम्बन्ध को धरे हैं, नवीन नाहीं आए, जिनिक अवकाश देना संभव जैसे इहां कैसे कहिये ? सो कहीं
अवकाश
ताका समाधान - जो उपचार करि कहिए हैं, जैसे गमन का प्रभाव होते संतें भी सर्व सद्भावको अपेक्षा आकाश को सर्वगत कहिए हैं। तैसें धर्मादिक द्रव्यनि के अवगाह क्रिया का प्रभाव होते संते भी लोक विषं सर्वत्र सद्भाव की अपेक्षा अवगाह का उपचार कीजिए हैं ।
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D... P वहां प्रश्न - जो भवकाश देना आकाश का स्वभाव है, तो जादिक क पाषादि का भर भीति इत्यादिक करि गऊ इत्यादिकनि का रोकना कैसे हो है ! सो रोकना तौ देखि रहे हैं । तातै आकाश तो तहां भी था, पाषाणादिक को अव काशन दीया, तब प्रकाश का श्रवगाह देता स्वभावन रह्या
"
53
"तहां उत्तर – जो प्राकाश तो अवगाह देइ, परन्तु पूर्वं तहां अवगाह करि तिष्ठ है, वज्रादिक स्थूल हैं, ताते परस्पर रोक हैं । यामै श्राकाश का श्रवगाह देने का स्वभाव गया नाहीं; जातें वहां ही अनंत सूक्ष्म पुद्गल हैं, ते परस्पर श्रवगाह देते हैं ।
बहुरि प्रश्न - जो जैसे हैं तो सूक्ष्म वुद्गलादिकनि के भी अवगाहहेतुत्व स्वभाव आया । आकाश ही का असाधारण लक्षरण कैसे कहिए है ?
तहां उत्तर - जो सर्व पदार्थनि को साधारण प्रवगाहहेतुत्वः इस श्राकाश ही का असाधारण लक्षण हैं। और द्रव्य सर्व द्रव्यनि को अवगाह देने की समर्थ नाहीं । इहां प्रश्न जो लोकाकाश तो सर्व द्रव्यनि को प्रवाह देता नाहीं, तहां भैसा लक्षण कैसे संभव ?
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ताकां समाधान जो स्वभाव का परित्याग होइ नाहीं । तहां कोई द्रव्य होता तो माह देता, कोई द्रव्य तहां गमनांदि न करें, तो श्रवमाह कौन को देने तिसका तो माह देने का स्वभाव पाइए है। बहुरि सर्व द्रव्यनि को वर्तना क्रिया starat भूत free fर काल हव्य है ।
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सम्बन्त्रिक भाषाका ]
अण्णोष्णवयारेण य, जीवा वट्टति पुग्गलाणि पुणो । बेहादी - रिव्वत्तण-कारणभूदा हु नियमेण ॥ ६० ६ ॥
अन्योन्योपकारे व जीवा वर्तन्ते पुद्गलाः पुनः बेहादिनिर्यर्तनकारणभूता हि नियमेन ॥६६॥
[ ६३
टीका - बहुरि जीव द्रव्य हैं, ते परस्पर उपकार करि प्रवर्ती हैं। जैसे स्वामी तौ चाकर की धनादिक देवें है, श्ररचाकर स्वामी का जैसे हित होइ अरु अहित का निषेध होइ तैसे कर है; सो भैंसें परस्पर उपकार है । बहुरि आचार्य तो शिष्य को इहलोक परलोक विषे फल को देनेहारा उपदेश, क्रिया का आचरण करावना से उपकार करें है । शिष्य उन प्राचार्यनि को अनुकूलवृत्ति करि सेवा कर है । जैसे परस्पर उपकार है; जैसे ही अन्यत्र भी जानना । बहुरि चकार तैं जीव परस्पर अनुपकार, जो बुरा करना, तिसरूप भी प्रवर्ते हैं वा उपकार - श्रनुपकार दीऊ रूप नाहीं प्रवर्ते हैं । बहुरि पुद्गल हैं, सो देहादिक जे कर्म, नोकर्म, वचन, मन, स्वासोस्वास इनिके freeread का नियम करि कारणभूत है । सो ए पुद्गल के उपकार हैं ।
इहाँ प्रश्न - जो जिनिका आकार देखिये से श्रदारिकादि शरीर, तिनिकों पुद्गल कहो, कर्म तो निराकार है। पुद्गलीक नाहीं ।
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तहां उत्तर - जैसे गोधूमादिक, अन्न जलादिक मूर्तीक द्रव्य के संबंध से पच तें गोधूमादिक पुद्गलीक हैं । तेसे कर्म भी लगुड़, कटकादिक मूर्तीक द्रव्य के संबंध तैं उदय अवस्थारूप होई पचे हैं, तातें पुद्गलीक ही हैं ।
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वचन दोय प्रकार है - एक द्रव्यवचन २, एक भाववचन २ । तहाँ भाववचन तौ वीर्या राय, मति, श्रुत प्रावरण का क्षयोपशम पर अंगोपांग नामा नामकर्म का उदय के निमित्त तैं हो है । तातें पुद्गलीक है। पुद्गल के निमित्त बिना भाववचन होता नाहीं । बहुरि भावक्खन की सामर्थ्य को धरे, असा त्रियावान जो श्रात्मा, ताकरि प्रेरित हुवा पुद्गल बचनरूप परिरण हैं, सो द्रव्यवचन कहिए है । सो भी पुद्गलीक ही है, जातै सो द्रव्यवचन कर्ण इंद्रिय का विषय है, जो इन्द्रियनि का विषय है, सो पुद्गल हो है ।
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वहां प्रश्न जो कर बिना अन्य इंद्रियनि का विषय क्यों न होइ ?
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तहां उत्तरी - जो जैसे गंध नासिका ही का विषय है, सो रसनादिक करि ह्या न जाये । तैसे शब्द कर ही का विषय है, अन्य इंद्रियनि करि योग्य नाहीं
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६६४
[ गोम्मटसार शोधका गाया ६०६ इहां तर्क - जो वखन अमूर्तीक है, तहां कहिए है, असा कहना भी प्रयुक्त है, जाते वचन मूर्तीक करि ग्रह्मा जाय हैं । या मूर्तीक द्रव्य करि रुक है वा नष्ट हो है; तातें भूर्तीक ही है । बहुरि द्रव्य भाव के भेद ते मन भी दोय प्रकार है। तहां भावमन तौ लब्धि उपयोग रूप है, सो क्षयोपशमादिक पुद्गलीक निमित्त तैं हो है । ताते पुद्गलीक ही है । बहुरि ज्ञानावरण, वीर्यातराय का क्षयोपशम पर अंगोपांग नामा नामकर्म का उदय, इनिके निमित्त ते गुण - दोष का विचार, स्मरण, इत्यादिकरूप सन्मुख भया, जो आत्मा, ताकौं उपकारी जे पुद्गल, सो मनरूप होइ परिणवै हैं। तातें द्रव्यमन भी पुद्गलीक है। .
...इहां कोऊ कहै कि मन तौ एक जुदा ही द्रव्य है, रूपादिकरूप न परिण हैं। अणूमात्र है । तहां प्राचार्य कहैं हैं -'तीहि मन स्यौं प्रात्मा का संबंध है कि नाहीं है? जो संबंध नाहीं है तो आत्मा कौं उपकारी न होइ, इन्द्रियनि विर्षे प्रधानता कौं ने धर और जो संबंध है तो, वह तो अणूमात्र है, सो एकदेश विर्षे उपकार करेगा अन्य प्रदेशनि विर्षे कैसे उपकार कर है ? .. .
तहाँ तार्किक कहैं है -- अमूर्तीक, निष्क्रिय प्रात्मा का एक प्रदृष्टनामा गुण है। सो अदृष्ट जो कर्म ताका वश करि तिस मन का कुमार का चक्रवत परि: भ्रमण करै है, सो असा कहना भी प्रयुक्त है । अणूमात्र जो होइ ताके भ्रमण की समर्थता. नाहीं । बहुरि अमूर्तीक निष्क्रिय का अदृष्ट गुण कहा, सो औरनि के क्रिया का प्रारंभ करावने की समर्थ न होई । जैसे पवन आप क्रियावान है, सो स्पर्श करि वनस्पती कौं चंचल कर है, सो यह तो अणूमात्र निष्क्रिय का गुण सो पाप क्रियावान नाहीं, अन्य कौं कैसे क्रियावान प्रवर्ताव है ? तातें मन पुद्गलीक ही है। : बहुरि वीर्यातराय पर ज्ञानावरण का क्षयोपशम अर अंगोपांगनामा नामकर्म के उदय, तीहि करि संयुक्त जो आत्मा, ताके निकसतो जो कंठ संबंधी उस्वासरूप पवन, सो प्रारण कहिए । बहुरि तोहि पवन करि बाह्य पवन की अभ्यंतर करता निस्वासरूप पवन, सो अपान कहिए । ते प्राण-अपान जीवितव्य कौं कारण हैं । ताते उपकारी हैं; सो मन अर प्राणापान ए मूर्तीक हैं । जातें भय के कारण बज्रपातादिक मूर्तीक, तिनितें मन का रुकना देखिए है। बहुरि भय के कारण दुर्गंकादिक, तीहिं करि वा हस्तादिक ते मुख के पाच्छादन करि वा श्लेष्मादिक करि प्राण-अपान का रुकना देखिये है, ताते, दोऊ मूर्तीक ही हैं। अमूर्तीक होइ तौ मूर्तीक करि, रुकना न
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सम्बन्झामनिका भाषाटीका संभव है । बहुरि ताही ते प्रात्मा का अस्तित्व की सिद्धि हो है । जैसे कोई काष्ठादिक करि निपज्या प्रतिबिम्ब, सो चेष्टा करै तौ तहां जानिए यामैं तौ स्वयं शक्ति नाही, वेष्टा करानेवाला कोई पुरुष है । तैसे अचेतन जड शरीर विर्षे जो प्राणापानादिक चेष्टा हो है, तिस चेष्टा का प्रेरक कोई प्रात्मद्रव्य अवश्य हैं । अस प्रारमा का अस्तित्व की सिद्धि हो है । बहुरि सुख, दुःख, जीवित, मरण ए भी पुदगल द्रव्य ही के उपकार हैं तहां साता - असाता वेदनीय का उदय तो अंतरंग कारण र बाह्य इष्ट अनिष्ट वस्तु का संयोग इनिके निमित्त ते जो प्रीतिरूप वा आतापरूफ होला, सो सुख दुःख है । बहुरि आयुकर्म के उदय तें पर्याय की स्थिति को धारता जीव के प्रारणापान क्रिया विशेष का नाश न होना, सो जीवित कहिए। प्राणापान क्रियाविशेष का उच्छेद होना, सो मरण कहिए । सो ए सुख, दुःख, जीवित, मरण मूर्तीक द्रव्ये का निमित्त निकट होत संतै हो हो है ; ताते पुद्गलीक ही है । बहुरि पुद्गल है, सो केवल जीव ही कौं उपकारी नाहीं, पुद्गल को भी पुद्गल उपकारी है। जैसें कांसी इत्यादिक कों भस्मी इत्यादिक पर जलादि कौं कतक फलादिक अर लोहादिक को जलादिक उपकारी देखिए है । जैसे और भी जानिए हे । बहुरि प्रौदारिक, वैक्रियिक, आहारक नामा नामकर्म के उदय से तैजस आहार वर्गणां करि निपले तीन शरीर हैं, पर सासोस्वास है । बहुरि तेजस नामा नामकर्म के उदय से तैजस वर्गणा तें निपज्या तैजस शरीर है। बहुरि कारण नामा नामकर्म के उदय ते कारण वर्गणा करि निपज्या कार्माण शरीर है । बहुरि स्वर नामा नामकर्म के उदय ते भाषावर्गणा से निपज्या वचन है । बहुरि नोइंद्रियावरण का क्षयोपशम करि संयुक्त संनी जीव के अंगोपांग .नामा नामकर्म के उदय से मन वर्गणा ते निपज्या द्रव्य मन है, असे ए पुद्गल के उपकार हैं।
इस ही अर्थ की दोय सूत्रनि करि कहैं हैं ..
आहारवग्गणारी, तिण्णि सरीराणि होति उस्सासो। ...णिस्सासो विय तेजोवग्गणखंधादु तेजंग ॥६०७॥
पाहारवरणात् त्रीणि शरीराणि भवन्ति उच्छवासः ।
निश्वासोऽपि च तेजोवरणास्कन्धात्तुतेजोऽङ्गम् ॥६०७॥ टोका - तेईस जाति की वर्गणानि विर्षे आहारक वर्गरणा से औदारिक, वैक्रियिक, पाहारक तीन शरीर हो हैं । पर उस्वास निश्वास हो है । बहुरि तैजस वर्गणा का स्कंधनि करि तैजस शरीर हो है । . .
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[ गोम्मटसार विकास गाषा ६.८.६१० भास-मण-वग्गणाको, कमेण भाषा मणं च कम्माको । ' अट्ठ-विह-कम्मदवं, होदि ति जिणेहि रिणद्दिठं ॥६०८॥ .
___ भाषामनोवर्गरणातः क्रममा भाषा मनश्च कार्मणतः । . . . . . अष्टविधद्रव्यं भवतीति निर्गनिविष्यम् ।।६।८। ..
टोका -- भाषावर्गणा का स्कंधनि करि च्यारि प्रकार: भाषा हो है । मनोवर्गरणा का स्कंधान करिः द्रव्यमन हो है। कारिग वर्गस्या का स्कंपनि करि पाठ प्रकार कर्म हो हैं, असें जिनदेवने कहा है।
गिद्धतं लुक्खतं, बंधस्स य कारणं तु एयादी। संखेज्जासंखेज्जाणंतविहा णि लुक्खगुणा ॥६०६॥
स्निग्धत्वं रूक्षस्वं, बन्धस्य छ कारणं तु एकादयः ।
संख्येयासंख्येयानन्तविधा स्निग्धरक्षगुणाः ॥६०९॥ ।' टोका ---, बाह्य अभ्यंतर कारण के वश तें जो स्निग्ध पर्याय का प्रगटपना करि चिकणास्वरूप. होइ, सो. स्निग्ध है। ताका भावं, सो स्निग्धत्व कहिये । बहुरि रूखारूप होई,सो रूक्ष है; ताका भाव, सो रूक्षत्व कहिए । सो जलं वा छेली को दूध का गाय का दूध, वा भैसि का दूध वा ऊटणी का दूध वा घृत इनि विर्षे स्निग्धगुण की अधिकता वा हीनता देखिए है । पर धूलि, वाल, रेत वा तुच्छ पाषाणादिक इनिविर्षे रुक्षगुण की अधिकता वा हीनता देखिए हैं । तैसे ही परमाणू विर्षे भी स्निग्ध रूक्षगुंण को अधिकता हीनता पाइए है ! ते स्निग्ध - रूक्षगुण धणुकादि स्कंधपर्याय का परि गमन का कारण हो हैं। बहुरि चकार तै. स्कंध ते बिछुरने के भी कारण हो हैं । स्निग्धरूप दोष परिमाणनि का वा रूक्षरूप दोय. परमाणू का एक रूक्ष वा एक स्निग्ध परमाणू का परस्पर जुडने रूप बंध होते द्वयणुक स्कंध हो है। जैसे संख्यात, असंख्यात, अनंते परिमाणनि का स्कंध भी जानना । तहाँ स्निग्ध गण वो रूक्षगणं अंशनि की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात, अनंत भेद कौं लीए है।
एयगरणं तु जहरणं, णिद्धत्तं बिगुण-तिगुण-संखेज्जाs- । - संखेज्जाणतगुणं, होंदि तहा रुक्खभावं' च ॥६१०॥ १. स्निग्धमत्वाचः' तत्त्वार्थसूत्र : अध्याय-४, सूत्र-३३ ।
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सारिका भाषादीका j
ऐकणं तु धन्य, स्निग्धत्वं द्विगुरात्रिगुणसंख्येयाऽ-1 संख्येयानन्तगुणं भवति तथा रूक्षभावं च ॥१६१०॥
टीका -- स्निग्ध गुण जो एक गुण है; सौ जघन्य हैं, जाके एक अंश होइ, ताक एक गुण कहिए। ताकों आदि देकरि द्विगुण, त्रिगुण, संख्यातगुण, असंख्यातगुण अनंतगुणरूप स्निग्ध गुण जानना । तेसे ही रूक्षगुण भी जानना । केवलज्ञानगम्य सब तें थोरा जो स्निग्धत्व रूक्षत्व, ताक एक अंश कल्पि, तिस अपेक्षा स्निग्व रूक्ष गुरण के अंशनि का हा प्रमाण जानना ।'
एवं गुणसंजुत्ता, परमाणू आदिवग्गणम्मिठिया । जोग्गदुगाणं बंधे, दोण्हं बंधी हवे नियमा ॥ ६११॥
एवं संयुक्ताः, परमारराव प्रादिवर्गलायां स्थिताः योग्यaratः बन्थे, द्वयोर्बन्धो भवेत्रियमात् ॥ ६१॥
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टीका - असें स्निग्ध - रूक्ष गुण करि संयुक्त परमाणू ते प्रथम अणु वर्गरगा विषं तिष्ठे हैं । सो यथायोग्य दोय का बंध स्थान विषे, तिनही दोय परमाणूनि का बंध हो है ।
नियमकरि स्निग्ध- रूक्ष गुरण के निमित्त तें सर्वत्र बंध हो है । किछू विशेष नाहीं । जैसे कोऊ जानैगा, तातें जहां बंध होने योग्य नाहीं भैंसा निषेध पूर्वक जहां बंध होने योग्य है, तिस विधि को कहे हैं
गिद्धणिद्धा ण बज्मंति, रुक्खरुक्खा य पोम्गला । णिलुक्खा य बति रूवारूवी य पोग्गला ॥६१२॥
ferrefeनग्धा न बध्यन्ते, रूक्षरूक्षाश्च पुद्गलाः । ferrerna arora, रूप्यरूपिणच पुद्गलाः ॥६१२॥
टीका - स्निग्ध गुण युक्तं पुद्गलनि करि स्निग्ध गुण युक्त पुद्गल बंधै नाहीं । बहुरि रूक्षगुणयुक्त पुद्गलनि करि रूक्ष गुण युक्त पुद्गल बंधे नाहीं, सो यह कथन सामान्य है । बंध भी हो है । सो विशेष आगे कहेंगे । बहुरि स्निग्ध गुण युक्त
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६६८ j
[ गोम्मतार पोवार गापा ६१३.६१५ पुद्गलनि करि रूक्ष गुण युक्त पुद्गल बंधे हैं। बहुरि तिनि पुद्गलनि की दोय संज्ञा है - एक रूपी, एक अरूपी :
तिनि संज्ञानि की कहैं हैं। .:: 'रिणद्धिदरोलीमझे, विसरिसजादिस्स समगुणं एक्क। .
रूवि ति होदि सण्णा, सेसाणं ता अरूवि सि ॥६१३॥
स्निग्धेतरावलीमध्ये, विसरशजातेः समगुण एकः ।"
रूपीति भवति संज्ञा, शेषाणां ते अरूपिरग इति ॥६१३॥ टीका - स्निग्ध-रुक्ष गुरगनि की पंकति, तिनके विष विसदश जाति कहिए । स्निग्ध के अर रूक्ष के परस्पर विसदृश जाति है, ताके जो कोई एक समान गुण होइ ताको रूपी अंसी संज्ञा करि कहिए है । पर समान गुरए बिना अवशेष रहे, तिनिकों प्ररूपी असी संज्ञा करि कहिए है। : : ताहो कौं उदाहरण करि कहैं हैं... . “ दोगुणणिद्धाणुस्स य, वोगुणलुक्खाणुग हवे रुयो।
इगि-तिगुणादि अरूवी, रुक्खस्स वि तं व इदि जाणे ॥६१४॥
विगुणस्निग्धारणोश्च द्विगुरगरूक्षाणको भवेत् रूपी । ... एकत्रिगुणादिः अरूपो, रूक्षस्यापि तद व इति जानीहि ॥६१४॥
टीका - दूसरा है गुण जाकै वा दोय हैं गुण जाके असा जो द्विगुण स्निग्ध परमाणू, ताकै द्वि गुण रूक्ष परमाणू रूपी कहिए, अवशेष एक, तीन, च्यारि इत्यादि गुण धारक परमाणू अरूपी कहिए । असे ही द्वि गुण रूक्षाणु के द्वि गुण स्निग्धाण रूपी कहिए; अवशेष एक, तीन इत्यादिक गुणधारक परमाणू अरूपी कहिए।
णिद्धस्स गिद्धेण बुराहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिए । रिणद्धस्स लुक्खेण हवेज्ज बंधो, जहण्णवज्जे विसमे समे वा।६१५३
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१. 'गुणसाम्ये सदशाणाम्' तत्त्वार्थभूत्र : अध्याय-४, सूत्र-३५ । .... .. २. 'यधिकादिगुरणानांतु' तत्त्वार्यसूत्र : प्रध्याय-४, सूत्र-३६ २ न जघन्यगुणानाम् ||३४||
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समत्रिका भाषाटोका 1
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ferreer ferrer द्वधिकेन रूक्षस्य रूक्षेण द्वद्यधिकेन । ferreta क्षेण भवेद्बन्धो, जघन्यवज्ये विषमे समे या ॥६१५॥३
टोका - स्निग्ध अणु का श्राप लें दोय गुण अधिक स्निग्ध अणू सहित बंध हो । बहुरि रूक्ष अणू का प्रापते दोय गुण अधिक रूक्ष प्रणू सहित बंध होइ । बहुरि free का श्राप दोय गुरण अधिक रूक्ष प्रणू सहित बंध होइ । तहां एक गुण संहित जघन्य स्निग्ध अणू वा रूक्ष अणू तार्के तीन गुण युक्त परमाणू सहित बंध नाहीं यद्यपि यहां दो अंश अधिक है, तथापि एक अंश युक्त परमाणू बंधने योग्य नाहीं; तातें बंध नाहीं हो है । स्निग्ध या रूक्ष परमाणूनि का समधारा विषे वा विषमधारा far ale for अंश होते बंध हो है । तहां दोय, व्यारि, छह, आठ इत्यादिक दोय दोय बघता अंश जहां होइ, वहां समधारा विषै कहिये । बहुरि तीन, पांच, सात, नव इत्यादिक दोय दोय बघता अंश जहां होइ, तहां विषमधारा विषै कहिए । सो समधारा विष दोय अंश परमाणु कर व्यारि अंश परमाप्पू का बंध होइ । च्यारि अंश परमाणू र छह अंश परमाणू का बंघ होइ, इत्यादिक दोय अंश अधिक होतें बंध हो है । बहुरि fornare विष तीन अंश परमाणु का पंच अंश परमाणू सहित बंध होइ, पंचा अंश परमाणु का सप्त अंश परमाणू सहित बंध हो है । असें दोय अंश अधिक होतें बंध हो है । बंध होने का अर्थ यह जो एक स्कंधरूप हो है । बहुरि समान गुण घरें जैसे जे रूपी परमाणू तिनिकै परस्पर बंध नाहीं है । जैसे दोय अंश एक के भी होइ, दोय अंश दूसरे के भी हो, तो बंध न होइ । बहुरि सम गुरुधारक परमाणू अर विषम गुल धारक परमाणू बंध नाहीं । जैसें दोय अंश युक्त परमाणू का पंच अंश युक्त परमाणू सहित बंध न होइ । जाते इहां दोय अधिक अंश का अभाव है।
णिद्धिदरे समविसमा दोत्तिगश्रादो दुउत्तरा होंति । उभये विय समविसमा सरिसिदरा होंति पसेयं ॥६१६॥
स्निग्धेतरयोः समविषमा, द्वित्र्यादयः द्वयुत्तरा भवन्ति । उभये पि च समविषमा, सहशेतरे भवन्ति प्रत्येकम् २६१६||
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टीका - स्निग्ध रूक्ष विषे दोय यादि दोय बघता तौ सम पंक्ति विषै गुण जानवा | दोय, च्यारि, छह, म्राठ इत्यादिक जानने । श्रादि दोय दोय बघता जानना । तीन, पांच, सात, नव
श्रर विषम पंक्ति विषे तीन इत्यादिक जानना । ते सम
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[गोम्मटसार मीना गाय ६१७ अर विषम रूपी भी हो है । पर अरूपी भी हो है। जहां दोनों के समान गुण होई सो रूपी, जहां समान गुण न होंइ, सो अरूपी कहिए । जैसे स्निग्ध - रूक्ष की सम पंक्ति विषं दोय गुरण के दोय गुण रूपी हैं, च्यारि गुण के च्यारि गुरग रूपी है । छह गुण के छह मुरण रूपी हैं । इत्यादि संख्यात, असंख्यात, अनंतगुणा पर्यंत जानने । बहुरि दोय गुणं के दोय गुण बिना अर एक, तीन, च्यारि, पांच इत्यादिक अरूपी हैं।
___ भावार्थ -- एक परमाणू दोय गुण धारक है । अर दूसरा परमाणू भी दोय गुणधारक है । तो तहां तिनलों परहार, पाझरे । गौर होनाषिक गुण धारक परमाणू कौं प्ररूपी जैसी संज्ञा कहिए । अस ही च्यारि, छह इत्यादिक विर्षे जानना। बहुरि विषम पंक्ति विर्षे तीनः गुण के तीन गुण, पंच गुरणं के पंच गुण इत्यादिक :संख्यात, असंख्यात, अनंत पर्यंत संमा . गुरगधारक परमाणू परस्पर रूपी हैं । अवशेष होनाषिक गुण धारक हैं। ते परस्पर अलंपी हैं, जैसी संज्ञा करि कहिये है । सो सम पर विषम दोऊ पंक्तिनि विर्षे ही समान गुण धारक रूपी परमाण, तिनकै परस्पर बंधन हो है । तत्त्वार्थसूत्र विष भी कहा है - 'गुणसाम्ये सरशाना याका अर्थ यहु हीगुणनि की समानता होते सदृश पारमाणनि के परस्पर बंध न हो हैं । बहुरि अरूपी परमाणूनि के यथोचित स्वस्थान या परस्थान विर्ष बैंघ हो हैं। स्निग्धे अर स्निग्ध . का, बहुरि रूक्ष अर रूक्ष का बंध, सो स्वस्थान बंध कहिए । स्निग्ध पर रूक्ष का बंध होइ सो परस्थान बंध कहिए ।
प्रागै इस' ही अर्थ कौं और - प्रकार करि कहैं हैं-- दो-त्तिग-पभवउत्तरगवेसरणंतरदुगाण बंधो दु: गिद्धे लुक्खे वि तहा वि जहण्णुभये वि सम्वत्थ ॥६१७॥
वित्रिप्रभषधु सरगतेष्वनन्तरविकयोः बन्धस्तु ।
स्निग्धे रुक्षेऽपि तथापि जघन्योभयेऽपि सर्वत्र ॥६१७॥ टोका - स्निग्ध विर्षे वा रूक्ष वि समपंक्ति विर्षे दोय मादि दोय दोय बघता पर विषम पंक्ति विर्षे तीन प्रादि दोय दोय बधता अंश क्रम करि पाइए है । तहां अनंतर द्विनि का बंध होई । कैसे ? स्निग्ध का च्यारि अंशबा रूक्ष को च्यारि अंश
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१. सरदासूत्र : अध्याय-५, सूत्र-३५ ।
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पत्रिका माटोका ] T
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सहित पुद्गल के दो अंश सहित रूक्ष पुल सहित बंध होई । वा पंच अंश स्निग्ध का का रूक्ष का सहित पुदगल के स्निग्ध तीन अंश युक्त पुद्गल सहित बंध होइ । असें दोय अधिक भएं बंध जानना । परंतु एक अंशरूप जघन्य गुण युक्त विषे बंध न हो । अन्यत्र स्निग्ध रूक्षं विष सर्वत्र बंध जानना ।
णिद्धिदरवरगाण, संपरट्ठाणे वि वि बंध | बहिरंतरंग - बुहि, गुणतर सगदे एदि ॥६१८॥
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स्निग्धेतरावरगुरणाणुः स्वपरस्थानेऽपि न वधार्थम् । बहिरंतरंग हेतुभिर्गु पातर संगते एसि ।।६१८।।
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टीer - स्निग्ध वा रूक्ष तौ जघन्य एक गुण युक्त परमाणू होइ, सो स्वस्थान या परस्थान विषै बंध के अर्थि योग्य नाहीं है । बहुरि सो परमाणु, जो बाह्य अभ्यंतर कारण तें दोय आदि और अंशनि को प्राप्त होइ जाइ, तो बंध योग्य होइ । तत्त्वार्थ सूत्र विषे भी कहा है, 'न जघन्यगुणानां' याका अर्थ यह ही जो जघन्य गुरंग वारक पुद्गलनि के परस्पर बंध न हो है ।
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णिद्धिदरगुरणा श्रहिया, होणं परिणामयति बंधम्मि संखेज्जासंखेज्जा तपसाण खंधारणं ॥६१६ ॥
ferrer अधिका, होनं परिणामयति बंधे । संख्येया संख्येयाप्रवेशानां स्कंधानाम् ।।६१९ ॥
टीका संख्यात, असंख्यात, अनंत प्रदेशनि के स्कंध) तिनिविषै स्निग्ध गुण क्ष गुणस्कंधा जे दोया गुरुण अधिक होंइ, ते बंध कौं होत संत हीन स्कंध कौं परिणमा हैं । जैसे दोय स्कंध हैं एक स्कंध विषै स्निग्धका या रूक्ष का पचास अंश है । अर एक में बावन अंश है अर तिनिः दोऊ स्कंधनि का एक स्कंध भया तौ । जैसें सर्वत्र जानना । तहां पचास अंशवाले कौं बावन अंश रूप परिणामावै तत्वार्थ सूत्र विषै भो कला है - 'वधिको पारिणामिका व याको अर्थ यह ही जो बंध होते अधिक अशे हैं, सो हीन अशनि की अपरूप परिणामावनहारे हैं । इति फलाधिकारः ।
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१. परिणामि च । तस्थासूत्र : अध्याय सूत्र- ३७ ॥
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मासस्य
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पिम्मसार जीवका गाया ६२०-६२२ ....... असे सात अधिकारनि करि षट् द्रव्य कहे ।
प्रागें पंचस्तिकायनि की कहैं हैं--- सव्वं छक्कमकालं, पंचत्थीकायसण्णिदं होदि। :...:. काले पवेसपचयो, जम्हा पत्थि ति णिद्दिढें ॥६२०॥
द्रव्यं षटकमकालं, पंचास्तिकायसंशितं भवति । . . " .
काले प्रदेशप्रचयो, यस्मात् नास्तीति निर्दिष्टम् ॥२०॥ टोका – पूर्व जे षट् द्रव्य कहे, ते प्रकालं कहिए काल. द्रव्य रहित पंचास्तिकाय नाम पाये हैं ! जाते काल के प्रदेश प्रचय नाहीं है । काल एक प्रदेश मात्र ही है । अर पुद्गलवत् परस्पर मिल नाहीं; तातै काल के कायपणां नाहीं है। जे प्रदेशनि का प्रचय जो समूह ताकरि युक्त हौहि, ते अस्तिकाय हैं; जैसा परमागर्म विर्षे
कया है।
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प्रा नव पदार्थनि की कहैं हैं - . . . . . णव य पदस्था जीवाजीवा ताणं च पुण्णपायदुर्ग । पासव-संवर-णिज्जर-बंधा मोक्खो य होंति ति ॥६२१॥
नव च पदार्था जीयाजीवाः तेषां च पुण्यपापद्विकम् ।
प्रास्त्रवसंवरनिर्जराबंधा मोक्षश्च भवतीति ॥६२१॥ १. .. टोका - जीव पर अजीव ए तो दोय मूल पदार्थ प्रर तिनही के पुण्य पर
पॉप दो ए पदार्थ हैं । अर पुण्य • पाप ही का भानव, बंध, संवर; निर्जरा, मोक्षः ए "पांच पदार्थ; असे सर्व मिले हुए ए नव पदार्थ हैं । पदार्थ शब्द सर्वत्र लगावना । जीव पदार्थ, अजीव पदार्थ इत्यादि जानना । . जीवदुगं उसळं, जीवा पुण्णा हु सम्मगुणसहिदा ।
वदसहिदा वि य पावा, तन्विदरीया हवंति ति ॥६२२॥
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१. उत्तं कालविजुतं गायछा पम अत्यिकाया दु । द्रव्यसंग्रह माया सं. २३ ।। २. संवर, निर्जरा और मोक्ष इनके द्रव्य भोर भाव की अपेक्षा हो-दो भेद हैं। देखो द्रव्यसंग्रह गाचा सं.
३४, ३६, ३७, लथा समयसार गाथा १३ को टीका आदि।
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सम्याज्ञानधतिका भावाठीका ]
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i. जोयद्विकमुक्तार्थ, जीवाः पुज्या हि सम्यक्त्वगुणसहिताः। .:. -TOP। . व्रतसहिता अपि च, पापास्तद्विपरीता भवंति ॥६२२॥ ...
टीका -- जीव पदार्थ अर अजीव पदार्थ तो पूर्वे जीवसमास अधिकार विर्षे वा इहा षट द्रव्य अधिकार विषं कहैं हैं । बहुरि जे सम्यक्त्व मुरणयुक्त होइ अर व्रत वक्त होई, ते पुण्य जीवं कहिए । बहरि इनिस्यों विपरीत सम्यक्त्व व्रत रहित जै जीवं २ पाप जीव नियमादि शादने । .. -rrr . तहां गुणस्थाननि विषं जीवनि की संख्या कहिए हैं- तिनि विर्षे मिथ्यादृष्टी अर सासादन ए तौ पाप जीव हैं; असा कहें हैं। .
मिच्छाइट्टी पावा, णंताणता य सासणगुणा वि। .. "; पल्लासखेज्जदिमा, अणअण्णवरुवयमिच्छगुणा ॥६२३॥
मिथ्यादृष्टयः पापा, अनतानंतान सासनगुरणा अपि . पल्यासंख्येया,मनन्यतरोदयमिथ्यात्वगुणाः ॥६२३॥
टोका - मिथ्यादृष्टी पापी जीव हैं, ते अनंतानंत हैं । जाते संसारी राशि मैं प्रत्य गुणस्थानवालों का प्रमाण घटाए, मिथ्यादृष्टी जीवनि का प्रमाण हो।है। बहुरि सासादन गुणस्थानवाले भी पाप जीव है; जाते अनंतानुबंधी की. चौकड़ी विर्षे किसी एक प्रकृति का उदय करि मिथ्यात्व सदृश गुरण कौं प्राप्त हो है । ते. सासादन वाले जीव पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।
मिच्छा साक्यसासणमिस्साविरदा दुवारणंता य। . पल्लासंखेज्जदिममसंखगुणं संखसंखगुणं ॥६२४॥
मिथ्याः श्रावकसासनमिश्राविरता द्विवारानंताश्च ।
पल्यासंख्येयमसंख्यगुणं संख्यासंख्यगुणम् ।।६२४॥ टीका - मिथ्यादृष्टी किंचित् ऊन संसार राशि प्रमाण है; तात अनंतानंत हैं। बहुरि देशसंयत गुणस्थानवाले जीव तेरह कोडि मनुष्यनि करि अधिक, तिर्यंच
१.षदखण्डागम धवला : पुस्तक-३, पृष्ठ १०। २. षट्खण्डागम घवला : पुस्तक- पृष्ठ ६३ ।
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७०४]
[ होम्मटसार जीत्रकाण्ड सपा ६२५-६.२.६
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पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इहां अन्य' गुणस्थान कथन की अपेक्षा पल्य को तीन बार प्रसंख्यात पर एक बार संख्यात का भाग जानना । बहुरि सासादन गुणस्थानवी जीय बावन कोडि मनुष्यनि करि अधिक इतर तीन गति के जीव देशसंयमी तिर्यचनि स्यों असंख्यात गुणे जानने । इहां पल्य को दोय बार असंख्यात पर एक बार संख्यात का भाग जानना । बहुरि मिश्र मुणस्थानवी जीव एक सौ च्यारि कोडि मनुष्यनि करि सहित इतर तीन गति के जीव सासादन वाली ते संख्यातगुणे जानने। इहां पल्य को दोय बार असंख्यात का भाम जानना । बहुरि अविरत गुणस्थानवर्ती जीव सावं 'सी कोडि मनुष्यनि करि सहित इतर तीन गति के जीव मिश्रवालों में प्रसंख्यात गुणे जानने । इहां पल्य को एक बार प्रसंख्यातं का भाग जानना ।
तिरधिय-सय-णय-णउदी, छण्णउदी अप्पमत्त हे कोडी। पंचवं य तेणउदी णव-ठ्ठ-बिसय-च्छउत्तर पमदेः ।।६२५॥
यधिकशतवनवतिः परावतिः अप्रमत्ते कोटी।
पंचव च विनवतिः, नवाष्टद्विशतषडुत्तरं प्रमो॥६२५॥ टोका - प्रमत्तगुणस्थान विर्षे जीव पांच कोडि तिराणवै लाख अठयाणवे हजार दोय से छह (५६३९८२०६) हैं । बहुरि अप्रमत्त गुणस्थान विर्षे जीव तीन अधिक एक सौ अर निन्यानव हजार अरै छिन लाखा पर दोय कोडी (२६६६६१.०३) इतने हैं। गाथा विर्षे पहिले अप्रमत्त की संख्या कही प्रमत्त की संख्या छंद मिलने के अर्थी कही है।
ति-सयं भणंति केई, चउरुत्तरमत्थपंचयं केई। उवसामग-परिमाणं, खवगाणं जारण तद्दुगुणरे ॥६२६॥
त्रिशतं भणंति केचित चतुरुतमस्तचक केचित् ।
उपशामकपरिमाण क्षपकारणों जानीहि तद्धिगुरगम् ।।६२६॥ । टीका - आठवे, नवै; दशवे, ग्यारवें 'गुणस्थान उपशम श्रेणीवाले जीवनि का प्रमाण केई प्राचार्य तीन से कह हैं । केई तीन से च्यारि कहैं है । केई पांच घाटि
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१. षटपण्डागम-पवला : पुस्तक-३, पृष्ठ १० गाथा सं.४१. " २.पटसण्ठागम-घवला: पूस्तक-३, पृष्ठ १४, गाथासं.४५
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सम्माननिका भाषाहीका ]
[७०५
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पर च्यारि अधिक तीन से कहैं है। ताके एक घाटि तीन सै भए । बहुरि पाठदै, नवे, दर्शव, बारहवें गुणस्थानी क्षपक जीवनि का प्रमाण उपशमकवालौं हैं दूरणा हे शिष्य! सूजानि ।
, इहां तीन से च्यारि उपशम श्रेणीवाले जीवनि की संख्या का निरंतर पाठ समयनि विर्षे विभाग कर हैं
सोलसयं, चउवासं, तीसं छत्तीस तह य बादालं । अडदाल चवणं, चउवाएं होति उवसमर्गः ॥६२७॥
षोडशकं चविंशतिः, त्रिंशत् पत्रिशत् तथा च द्वाचत्वारिंशत्।
अष्टचत्वारिंशत् अतःपंचाशत् चतुःपंचाशत् भवति उपशमके ॥६२७॥ टीका -बोधि में अंतराल न पडे अर उपशम श्रेणी कौं जीध माडे तो पाठ समयनि विर्षे, उत्कृष्टपर्ने एते जीव उपशुम श्रेणी मांड, पहिला समय तें लगाइ आठवां समय पर्यंत अनुक्रम ते सोलह, चौईस, तीस, छत्तीस, चियालीस, अडतालीस, चौवन, चौवन जीव निरन्तर अष्ट समयनि विर्षे होंहि (१६, २४, ३०, ३६, ४२, ४८, ५४, ५४) । .... बत्तीसं अडवालं, सट्ठी बावत्लरी य चुलसीदो । . . . छण्णउदी अछुत्तर-सयमठुत्तर-सयं च खवगेसु२ ॥६२८॥ .
द्वात्रिंशदष्टचस्वारिंशत, षष्टिः द्वासप्ततिश्च चतरशीतिः । . षण्णवतिः अष्टोत्तरशतमष्टोत्तरशतं च क्षपकेषु ॥६२८॥ ..टोका - बहुरि निरन्तर प्रष्ट समयनि विर्षे क्षपक श्रेणी को मांडे असे जीव उपशम श्रेणीवालों से दूणे जानने । तहां पहिला समय में लगाइ अनुक्रम से बत्तीस, अडतालीस, साठि, बहत्तरि, चउरासी, छिनदै, एक सौ आठ, एक सौ पाठ (३२, ४८, ६०, ७२, ८४, ६६, १०८, १०८) जोष निरंतर प्रष्ट समयनि विर्षे हो हैं । इस ही संख्या को पाटि बाधि को बरोबरि करि पहिले चौंतीस मांडे, पीछे पाठ समय साई बारह-२ अधिक मांडे, तहां आदि चौंतीस (३४) उत्तर बारह (१२) गच्छ पाठ ८,
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२. पटवण्डायम - पवला : पुस्तक ३, पृष्ठ ११, गाथा . ४२. १.पवण्डागम - भषला : 'पुस्तक ३, पृष्ठ ६२, गाथा-सं० ४३,
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गोम्मटसार सीमकाण्ड गाया है
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७०६ ] पाका 'पदभेगेण विहीणं' इत्यादिक सूत्र करि जोड़ दीजिए : तहां गच्छ पाठ, तामें एक घटाएं सात रहे, दोय का भाग दीएं, साढातीन रहे, उत्तर करि गुणें रियालीस भए, प्रादि करि युक्त कीएं, छिहतरि भए, गच्छ करि गुण, छह से आठ भए, सो निरन्तर पाठ समयनि तिर लपक श्रेणी मांडि करि जीव एकठे होहिं, तिनिका प्रमाण छह से आठ जानना । बहुरि उपशमकनि विष आदि सतरह (१७) उत्तर छह (६) गच्छ पाठ (८) जोड दीए, तीन सै च्यारि भए, सो प्रमाण जानना ।
अद्वैव सय-सहस्सा, अछा-उंची तहा संहस्सारणं । संखा जोगिजिणाणं, पंच सय बि-उत्तरं वदे ॥२६॥
अष्टव शतसहस्राणि, अष्टानतिस्तथा सहस्राणाम् ।
संख्या योगिजिनाना, पञ्चशतयुसरं वन्दे ॥६२९॥ टीका --- सयोग केवली जिननि की संख्या आठ लाख अठमाण हजार पांच से दोय (८९८५०२) है । तिनिकों में सदाकाल बंदी हं। इहां निरन्तर पाठ समयनि विर्षे एकठे भए सयोगी जिन अन्य प्राचार्य अपेक्षा सिद्धांत विर्षे असे कहैं हैछसु सुखसमयेसु तिरिय तिष्णि जीवा केवलमुपाययंति दोसु समयेसु दो दो जीवा केवलमुपाययंति एवमट्ठसमयेसु संचिदजीवा बावीसा हवति ॥१॥
याका अर्थ - छह शुद्ध समयनि विर्ष तीन तीन जीव केवलज्ञान की उपजावे हैं । दोय समयनि विर्षे दोय दोय जीव केवलज्ञान कौं उपजावै है । जैसे आठ समयनि विर्षे एकठे भए जीव बावीस हो हैं। ...
भावार्थ --- केवलज्ञान उपजने का छह महिने का अंतराल होइ, तब बीचि में अन्तराल न पडै, असें निरंतर आठ समयनि विर्ष बाईस जीव केवलज्ञान उपजा है। ... सो इहां विशेष कथन विषं छह राशिक हो है।
१. पटखण्डायम - धवला पुस्तक ३, पृष्ठ, ६६ गाथा सं:४६ ३ पाठभेद-पंचपदवित्तर जाण।
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सम्यानातिका भावाटीका 1
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छह राशिक का यंत्र
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प्रमारणराशि
फलराशि
इच्छाराशि
लब्धप्रमाण
केवली
केवली
२२
मास ६, समय
काल ४०८४१छह मास आठ
समय गुणा
काल
समय
काल मास ६, समय
४०८४१ छह मास पाठ
समय गुरगा
समय ३२६७२०
समय
केवली २२
केवली ६८५०२
३२६७२८
समय
केवली
समय ३२६७२८/२ आषा
केवली ९८५०२
समय
केवली
समय ३२६७२८/४ चौथाई
केबली ८९८५०२
समय
केवली
समय ३२६७२८ म (आठवां) भाग
केवली ८९८५०२
तहां बाईस केवलज्ञानी पाठ समय अधिक 'छह मास मात्र काल विर्षे होइ, तो आठ लाख अठ्याणवै हजार पांच से दोय केवलज्ञानी केते काल विर्षे होइ ? असे
राशिक कीएं चालीस हजार पाठ से इकतालीस कौं छह मास आठ समयनि करि गण, जो प्रमारण होइ, तितना काल का प्रमाण प्राव है । बहरि पाठ समय अधिक छह मास काल विर्षे निरंतर केवल उपजने के आठ समय हैं; तौ पूर्वोक्त काल प्रमाण विर्षे केते समय हैं ? असें त्रैराशिक कीए तीन लाख छब्बीस हजार सात से अठाईस समय प्राव हैं । बहुरि आठ समयनि विर्षे प्राचार्यनि के मतनि की अपेक्षा बाईस बा चवालीस वा अध्यासी वा एक सौ छिहतरि केबलशान उपजावे, तो पूर्वोक्त समयनि का प्रमाण विर्षे वा तिसत आधा विर्षे का चौथाई विर्षे वा आठवां भाग विर्षे केते केवलज्ञान उपजावै जैसे चारि प्रकार राशिक कीए केवलानि का प्रमाण आठ लाख अठ्याणवै हजार पाच से दोय प्राव है, जैसें जानना । . ..
भाग एक समय विर्षे युगपत् संभवती असी क्षपक का उपशमक जीवनि की विशेष संख्या गाया तीनि करि कहैं हैं
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[ गोम्मटसार मोक्का गाथा ६३०-६३२
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होंति खवा इगिसमये, बोहियबुद्धा य पुरिसवेदा य । उक्कस्सेणझुत्तरसयप्पमा सग्गदो य धुदा ॥६३०॥ पत्तेयबुद्ध-तित्थयर-स्थि-णउंसय-मणोहिणारगजुदा । वस-छपक-वीस-दस-वीसहावासं जहाकमसो ॥६३१॥ जेट्ठावरबहुमज्झिम-प्रोगाहणगा दु चारि अद्वैव । जुगवं हवंति खवगा, उवसमगा अद्धमेदेसि ॥६३२॥ विसेसयं ।
भवन्ति क्षपका एकसमये, बोधितबुद्धाश्च पुरुषवेवाश्च । उत्कृष्टेनाष्टोत्तरशतप्रमाः, स्वर्गतश्च च्युताः ॥६३०॥ प्रत्येकबुद्धतीर्थकरस्त्रीपुनपुंसकमनोऽवधिज्ञानयुताः । दशषटकविंशतिवविंशत्यष्टाविंशो यथाक्रमशः ।।६३१॥ . ज्येष्ठावरबहुमध्यामावगाहा द्वौ चत्वारः अष्टव । युगपद् भवन्ति क्षपका, उपशमका अर्द्धभेतेषाम् ।।६३२॥ विशेषकम् ।
टीका - युगपत् एक समय विष क्षपक श्रेणी वाले जीव असे उत्कृष्टता करि पाइये हैं । बोधित-बुद्ध तौं एक सौ आठ, पुरुषवेदी एक सौ पाठ, स्वर्ग से चय करि मनुष्य होइ क्षपक भए असे एक सौ आठ, प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि के धारक दश, तीर्थकर छह, स्त्री वेदी बीस, नपुंसक वेदी दश, मनःपर्ययज्ञानी बीस, अवधिज्ञानी अठाईस मुक्त होने योग्य शरीर की उत्कृष्ट 'अवगाहना के धारक दोय, जघन्य अवगाहना के धारक च्यारि, सर्व अवगाहना के मध्यवर्ती असी प्रवगाहना के धारक पाठ असे ए सर्व मिले हुवे च्यारि से बत्तीस भए । बहुरि उपशमक इंनि ते आधे सर्व पाइए । तातें सर्व मिले हुवे दोय से सोलह भए पूर्व गुणस्थाननि विर्षे एकठे भए जीवनि की संख्या कही थी, इहां जैसा कहा है - जो श्रेणी विष युगपत् उत्कृष्ट होंइ तौ पूर्वोक्त जीव पूर्वोक्त प्रमाण होंइ, अधिक न हों।
१. गाथा सं.६३०, ६३१ के लिए षट्खण्डाग-पवला पुस्तक के पृष्ठ क्रम से ३०४, ३११,३२१
और ३०७, ३२०, २३ देखें।
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भाषाका ]
या सर्वसंयमी जीवन की संख्या कहैं हैं
सत्तावी अता छण्णवमज्झा य संजदा सदवे | 'जलि - मौलिय- हत्थो तियरणसुद्धे णमंसामि ॥६३३॥
मध्यान संयताः सर्वे ।
सप्तादय श्रष्टान्ताः अंजलिमौलिकहस्तुस्त्रिकरणशुद्धचा नमस्यामि || ६३३ ॥
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टीका - सात का अंक आदि का अंक अंतर मध्य विषे छह नव के अंक ८CCCCCS७ अँसे लिखें भई तीन वाटि नव कोडि संख्या तीहि प्रमाण जे संग्रमी छठे गुणस्थान तें लगाइ चौदहवां गुणस्थान पर्यंत हैं । तिनिकों अंजुली करि मुस्तक हस्त लगावत संतौ मन, वचन, कायरूप त्रिकरण शुद्धता करि नमस्कार मैं करों हौ । तहां प्रमत्तवाले ५६३६८२०६, अप्रमत्तवाले २९६६६१०३, च्यार्यो गुणस्थानवर्ती उपशम श्रीवाले ११६६, प्यारघों गुणस्थानवर्ती क्षपक श्र ेणीवाले २३६२, सयोगी जिन ८६८५०२, मिले हुवे जे (८६९६९३६६) भए ते नव कोडि तीन घाटि विष घटाएं अवशेष पांच से प्रयासगर्व रहे, ते योगी जिन जानने ।
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आगे च्यारि गतिनि का मिथ्यादृष्टी, सासादन, मिश्र, अविरत गुणस्थानवर्ती faast संख्या का साधक पत्य के भागहार का विशेष कहे हैं जाका भाग दीजिए arat भागहार कहिए सो श्रागे जो जो भागहार का प्रमाण कहैं हैं; तिस तिसका पल्य को भाग दीजिए, जो जो प्रमाण यावे, तितना तितना तहां जीवनि का प्रमाण जानना | जहां भागहार का प्रमाण थोरा होइ, तहां जीवनि का प्रमाण बहुत जानना । जहां भागहार का प्रसारण बहुत होइ, तहां जीवनि का प्रमाण थोरा जानना । असें एक हजार को पांच का भाग दीए द्रोय से पावें, दोय से का भाग दीए पांच ही पाव असे
जानना ।
सो अब भांगहार कहैं हैं --
ओघा- संजय मिस्स सासण- सस्मारण भागहारा जे । रूऊणावलियासंखेज्जेणिह भजिय तत्थ णिक्खिते ॥ ६३४ ॥
१. घटखण्डागम - धवला पुस्तक ३, पृष्ठ २८, निर्जर्माजिदा समगुरिगदापमत्तरासी प्रमता ! २. खण्डागम - घवला पुस्तक ने पुष्ठ १६०-१६४
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| गोम्मटसार मौवकाण्ड गाया ६३ देवाणं अवहारा, होति असंखेण ताणि अवहरिय । तत्थेव य पक्खित्ते, सोहम्मीसारणवहारा' ॥६३५॥ जुम्मं ।
प्रोधा असंयतमिश्रकसासनसभीचा भागहारा ये। रूपोनालिकासंख्यातेनेह भक्त्वा तत्र मिक्षिप्ते ॥६३४॥ देवानामवहारा, भयंति असंख्येन सानवाहृत्य ।
.' तत्रैव च प्रक्षिप्ते, सौधर्मेशानावहारा-६३५।। - टीका - गुणस्थान संख्या विर्षे पूर्व जो असंयत, मिश्र, सासादन की संख्या विर्षे जो पल्य की भागहार का है, तिनको एक घाटि प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीए, जो प्रमाण पाये, तितना तितना तिन भागहारनि में मिलाए देवगति विर्षे भागहार हो हैं । लहां पूर्वे असंयत गणस्थान विर्षे भागहार का प्रमाण एक बार असंख्यात कह्या था, ताकौं एक घाटि आवली का असंख्यातवां भाग का भाग. दीजिये, जो प्रमाण आवै, तितने तिस भागहार में मिलाइए, जो प्रमाण होई, तितना देवंगति सम्बन्धी असंयत गुणस्थान विर्षे भागहार जानना। इस भागहार का भाग पल्य कौं दीए, जो प्रमाण होइ, तितने देवगतिथिः असंयत्त गुणस्थानवी जीव हैं। जैसे ही प्रागें भी पल्य के भागहार जानने । बहुरि मिश्च विर्षे दोय बार असंख्यात रूपार सासादन वि दोय बार असंख्यात पर एक बार संख्यात रूप पूर्व जो भागहार का प्रमाण कह्या था, तिसका एक घाटि प्रावली का प्रसंख्यांतवां भाग का भाग दीएं, जो जो प्रमाण आदे, तितना तितना तहां मिलाए, देवयति संबंधी मिश्र वि वा सासादन विर्षे भागहार का प्रमाण हो है। बहुरि देवगति. संबंधी असंयत का मिश्र वा सासादन विषं जो जो भागहार का प्रमाण कह्या, तिस तिसकौं एक घाटि प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीएं, जो जो प्रमाण आवं, तितना तितना तिस तिस भागहार में मिलाये, जो जो प्रमाण होइ, सो सो सौधर्म-ईशान संबंधी अविरत का मिश्र - वा सासादन विर्षे भागहार जानना । जो देवगति संबंधी अविरत विर्षे भागहार का
था, ताकी एक घाटि प्रावली का प्रसंख्यातवां भाग का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ, तितनां तिस भागहार विर्षे मिलाए, सौधर्म - ईशान स्वर्ग संबंधी असंयत विर्षे भागहार हो है । इस ही प्रकार मिश्र विष वा सासादन विर्षे भागहार जानना ।
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गालामामाकारमाना
कामा समस्यामा
- १. पदमण्डायम -- एक्ला : पुस्तक-३, पृष्ठ १६०-१८४
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मध्यानाधिका भाषाटोका }
सोहम्मेसारणहारमसंखेरण य संखरूवसंगुणिदे । उवार असजद-भस्सथ-सासणसम्माण अवहारा ॥६३६॥
सौधर्मशानहारमसंख्येन च संख्यरूपसंगुरियते ।
उपरि असंयतमिश्रकसासनसमीचामवहाराः ॥६३६।। टोका - बहुरि ताके ऊपरि सनत्कुमार - माहेंद्र स्वर्ग है । तहां असंयत विर्षे सौधर्म - ईशान संबंधी सासादन का भागहार ते असंख्यात मुरणा भागहार जानना । इस असंयत का भागहार ते चकार करि असंख्यात गुणा मिथ विर्षे भागहार जानना। यात संख्यात गुणा सासादन विर्षे भागहार जानना।
अागें इस गुणने का अनुक्रम की व्याप्ति दिखावै हैं-- . . सोहम्मादासारं, जोइसि-वण-भवण-तिरिय-पुढवीसु। अविरद-मिस्सेऽसंखं, संखासंखगुण सासरणे देसे ॥६३७॥
सौधर्मादासहस्रारं, ज्योतिषिवनभवनतिर्यकपृथ्वीषु। .
अविरतमिश्रेऽसंख्य संख्यासंख्यगुणं सासने देशे ॥६३७॥ टोका - सौधर्म - ईशान के ऊपरि सानत्कृमार • माहेन्द्र तै लगाइ शतारसहस्रार पर्यंत पंच युगल पर ज्योतिषो पर व्यंतर पर भवनवासी अर तिर्यंच पर सात नरक की पृथ्वी इनि सोलह स्थान संबंधी अविरत विर्षे. अर मिश्र विषं असंख्यात गुणा अनुक्रम जानना । पर सासादन विर्षे संख्यात गुणा अनुक्रम जानना । पर तिर्यंच संबंधी देशसंयत विर्षे असंख्यात गुणा अनुक्रम जानना, सो इस कथन को दिखाइए हैं
सानत्कुमार - माहेंद्र विषं जो सासादन का भागहार कह्या, तीहिस्यों ब्रह्मब्रह्मोत्तर विर्षे असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है । यातें मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । याते सासादन का भागहार संख्यात गुणा है। संख्यात की सहनानी च्यारि ।४ का अंक है । बहुरि यात लांतर कापिष्ठ विर्षे असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है । यात मिथ का भागहार असंख्यात गुणा है । यात सासादन का भाग
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१. पट्खण्डागम - धवला : पुस्तक ३, पृष्ठ संख्या २१२ से २८५ तक । २. षट्खपडागम - धवला : पुस्तक ३, पृष्ठ संख्या २८२ से २८५ तक ।
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। योम्मटसार नौवकाण्ड गाया ६३७ हार संख्यात मुरणा है । बहुरि यति शुक्र - महाशुक्र विर्षे असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है । यात मिश्र का भागहीर असख्यात गुरणा है । यातै सासादन का भागहार संख्यात गुखा है । बहुरि यात शतार-सहस्रार विष प्रसंयत का भागहार असंख्यात गुणा है । यात मिश्र का भागहार असंख्यात गुणी है । यात सासादन का भाग हार संख्यात गुणा है । बहुरि यात ज्योतिषीनि विर्षे असंयत का भागहार असंख्यात गुरणा है । यात मिश्र का असंख्यात गुणा है । यति सासादन का भागहार संख्यात गुणा है। बहुरि यात व्यतरनि विर्षे असयत का भोगहार असंख्यात गुणा है। यात मिश्र को भागहार असंख्यात गुणा है । यात सासादन का भागहार संख्यात गुणी है। बहुरि यात भवनवासीनि विर्षे असंयत की भागहार असंख्यात गुणा है। यति मिश्र का भागहार असंख्यात मुला है। यात सासादन का भागहार संख्यात गुणा है।
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बहरि यति तिर्यंचनि विर्षे असयत का भागहीर असंख्यात गुणा है। यातें मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । याते सासादन का भागहार संख्यात गुणा है। याते तिर्यंच विर्षे ही देशसंयत का भागहार प्रसंख्यात गुणा है । सो जो देशसंयत विर्षे जो भागहार का प्रमाण है, सोई प्रथम नरक पृथ्वी विर्षे असंयत का भागहार है । यातें मिश्र का भागहार प्रसंख्यात गुरगी है । याते सोसादन का भागहार संख्यात गुणा है । बहुरि यात दूसरी नरैक पृथ्वी विर्षे असयत का भागहार असंख्यात गुणी हैं। यात मिश्र को भागहार असंख्यात गुणा है । यात सासादन का भागहार संख्यात गुणी है । बहुरि यात तीसरी नरक पृथ्वी विर्षे असयत का भागहार असंख्यात गुरंगा है। 'याते मिश्र का भांगहार अंसख्यात मुरगर है । यात सासादन का भागहार संस्थात गुणा है । याते चौथी नरक पृथ्वी विर्षे असंयत का भागहार प्रसंख्यात गुरगा है। यात मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । यातें सासादन का भागहार संख्यात गुणा है। बहुरि याते पंचम नरक पृथ्वी विषं असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है । याते मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । यातै सासादन का भागहार संख्यात गुणा है। बहुरि यात षष्ठम पृथ्वी विर्षे असंयत का भागहार असंख्यात गुरणा है । यात मिश्र का भागहार असंख्यात गुस्सा है। याते सासादन का भागहार संख्यात गणा है। बहुरि यातें सप्तम नरक पृथ्वी विर्षे प्रसंयत का भागहार असंख्यात गुणा है। यात मिश्र का भागहार असंख्याल गुरगा है । यात सासादन का भागहार संख्यात गुणा है।
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सम्यम्झामपन्द्रिका भाषाटीका
आगें पानतादि विर्षे तीनि माथानि करि कहैं हैं--. चरम-धरासण-हारा आणवसम्माण आरणप्पहदि । अंतिम-गवेज्जतं, सम्माणमसंखसंखगुणहारा॥६३८॥
चरमधरासनहारादानतसमीचामारणप्रभृति ।
अंतिमवेयकांतं, समीचामसंख्यसंख्यगरणहाराः ॥६३८॥ टीका - तीहि-सप्तम पृथ्वी संबंधी सासादन के भागहार ते पानत-प्राणत संबंधी अविरत का भागहार असंख्यात गुणा है । बहुरि यात मारण-अच्युत तें लगाइ तवमां ग्रंयक पर्यंत दश स्थानकनि विर्षे असंयत का भागहार अनुक्रम ते संख्यात गुणा संख्यात गुणा जानना । इहा संख्यात को सहनानी पांच का अंक है ।
तत्तो ताणुतारणं, वामारणमणुद्दिसारण विजयादी। सम्माणं संखगुणो, आणमिस्से असंखगुणो ॥६३६।।
ततस्तेषामुक्तानो, वामानामनुदिशानां विजयादि ।
समोचो संख्यगुणा, आनतमिश्रे असंख्यगुणः ।।६३६।। टीका - तीहि अंतिम वेयक संबंधो असंयत का भागहार ते पानत-प्रारणत युगल ते लगाइ, नवमां अवेयक पर्यंत ग्यारहस्यानकनि विष वामे जे मिथ्यादृष्टी जीव, "तिनिका संख्यात गुणा, संख्यात गुणा भागहार अनुक्रम तें जानना । इहां संख्यात की सहनानी छह का अंक है । बहुरि तीहिं अंतिम अवेयक सम्बन्धी मिथ्यादृष्टी का 'भागहार से नवानुदिश विमान वा विजयादिक च्यारि विमान, इनि दोऊ स्थानकनि विर्षे असंयत का भागहार संख्यात मुरणा, संख्यात गुणा क्रमतें जानना । इहां संख्यात को सहनानी सात का अंक है । बहुरि विजयादिक सम्बन्धी असंयत का भागहार ते अानतप्राणत सम्बन्धी मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है ।
सत्तो संखेज्जगुरणो, सासाणसम्माण होदि संखगुणो। . उत्ताट्ठाणे कमसो, पणछस्सत्तठ्ठचदुरसंविट्ठी ॥६४०॥
१.पखंडांगम घवला : पुस्तक-३, पृष्ठं सं. २८५ । २. षट्खण्डागम धवला: पुस्तक-३, पृष्ठ सं. २०५।
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। मोम्मदसार मोरकाण्ड पापा ६४१
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सतः संख्येयगुणः, सासनसमीचा भवति संख्यगुणः ।
उत्तस्थाने क्रमशः पंचषट्सप्ताष्टचतुःसंहष्टिः ॥६४०।। टीका - तीहि आनत-प्राणत सम्बन्धी मिश्र का भागहार ते पारण-अच्युत ते लगाइ नवमा ग्रेवेयक पर्यंत दश स्थानकनि विर्षे मिश्र गुणस्थान संबंधी भागहार अनुक्रम ते संख्यात गुणा, संख्यात गुरगा जानना । इहां संख्यात की सहनानी पाठ का अंक है। बहुरि अंतिम अवेयक के मिश्र का भागहार से प्रानत • प्रारगत तें लगाइ नवमां ग्रंवेयक पर्यंत ग्यारह स्थानकनि विषं सासादन का भागहार अनुक्रम ते संख्यात गुणा संख्यात गुणा जानना । इहां संख्यात को सहनानी च्यारि ।।। का अंक है। ए कहे पंच स्थानक, तिनिविर्षे संख्यात की सहनानी कमतें पांच, छह, सात, पाठ, च्यारि का अंक जानना; सो कहते ही आए हैं।
सग-सग-अवहारेहि, पल्ले भजिदे हवंति सगरासी। सग-सग-गुरणपडिवण्णे सग सग-रासीसु अवणिवे वामा ॥६४१॥
स्वफस्वकाबहारैः, पल्ये भक्त भयंति स्वकराशयः ।
स्वकस्वकमुगप्रतिपन्नेषु, स्वकस्थकराशिषु अपनीलेषु वामाः ।।६४१॥ टीका --- पूर्व कहा जो अपना-अपना भागहार, तिनिका भाग पख्य कौं दोएं, जो जो प्रमाण आवे, तितने-तित्तने जीव तहां जानने । बहुरि अपना-अपना सासादन, मिश्र, असंयत पर देशसंयत गुण स्थाननि विर्षे जो-जो प्रमाण भया, तिनिका जोड दीएं, जो-जो प्रमाण होइ, तितना-लितना प्रमाण अपना-अपना राशि का प्रमाण में घटाएं, जो-जो अवशेष प्रमाण रहैं, तितने-तितने जीव, तहां मिथ्यादृष्टी जानने । तहां सामान्यपने मिथ्यादृष्टी किंचित् ऊन संसारी-राशि प्रमाण हैं। सामान्यपने देवगति विर्षे ऊन किंचित् देवराशि प्रमाण मिथ्यादृष्टी जानने । सौधर्मादिक विर्षे जो-जो जीवनि का प्रसारण कहा है, तहां द्वितीयादि गुरण स्थान संबंधी प्रमाण घटावने के निमित्त किन्चित् ऊनता कीएं, जो-जो प्रमाण रहै, तितने-तितने मिथ्यादृष्टी हैं । सो सौधर्मादिक विर्षे जीवनि का प्रमाण कितना-कितना है ? सो गति मार्गणा विर्षे कह्या हो है । इहां भी किछू कहिए हैं
सौधर्म - ईशानवाले घनांमुल का तृतीय वर्गमूल करि जगचछरणी की गुणें, जो प्रमाण होइ, तितने हैं । सनत्कुमार युगल आदिक पंच युगलनि विर्षे क्रम ते जग
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सम्यग्जामचन्तिका भाषाका ] च्छणी का न्यारवां, नवमी, सातवां, पांचवां, चौथा वर्गमूल का भाग जगच्छे णी कौं दीएं, जो-जो प्रमाण आवै, तितने-तितने हैं। ज्योतिषी पण्णट्ठि प्रमाण प्रतरांगुल का भाग जगत्प्रतर को दीए, जो प्रमाण आवै, तितने हैं। व्यंतर संख्यात प्रतरांगुल का भाग जगत्प्रतर की दीएं, जो प्रमाण आवै, तितने हैं । भवनवासी धनांगुल के प्रथम वर्गमूल करि जगच्छ्रेणी की गुण, जो प्रमाण प्रादे, तितने हैं । तिथंच किंचित् ऊन संसारीराशि प्रमाण हैं। प्रथम पृथ्वी विर्षे नारकी पनांगुल का द्वितीय वर्गमल करि साधिक बारहा भाग करि हीन जो जगच्छणी, ताकौ गुणें, जो प्रमाण होइ, तितने हैं । द्वितीयादिक पृथ्वी विर्षे क्रमतें जगच्छ णो का बारह्वां, दशवां, आठवां, छठा, तीसरा, दूसरा वर्गमूल का भाग जगच्छणी कौं दीए, जो जो प्रमाण होइ, तितचे-तिलने जानने । इनि सबनि विर्षे अन्य मुणस्थानवालों का प्रमाण घटाक्ने के अर्थी किंचित् ऊन कीएं, मिथ्यादृष्टी जीवनि का प्रमाण हो है । बहुरि पानतादिक विर्षे मिथ्यादृष्टी जीवनि का प्रमाण इहां ही पूर्व कहा है । बहुरि सर्वार्थसिद्धि विर्षे अहमिंद्र सर्व असंयत ही है । ते द्रव्य स्री मनुष्यणी तिनित तिगुणे वा कोई प्राचार्य के मत करि सात गुणे कहे हैं।
प्रागें मनुष्य गति विर्षे संख्या कहे हैं-- तेरसकोडी देसे, बावणं सासणे मुरणेदध्वा । मिस्सा वि य तदुगुणा, असंजदा सत्त-कोडि-सयं ॥६४२॥
त्रयोदशकोटयो देशे, द्वापंचाशत् सासने मंतव्याः ।
मिश्रा अपि च तद्वि गुणा असंयताः सप्तकोटिशतम् ॥६४२॥ . टीका - मनुष्य जीव देशसंयत विषं तेरह कोडि है । बावन कोडि सासादन विर्षे जानने । मिश्र विर्षे तिनते दुगुणे एक सौ च्यारि कोडि जानने । असंयत विष सातसै कोडि जानने और प्रमत्तादिक की संख्या पूर्व कही है; सोई जाननी । अॅसें गुणस्थाननि विर्षे जीवनि का प्रमाण कह्या है।
जीविदरे कम्मचये, पुण्णं पावो ति होदि पुण्णं तु। सुहपयडीणं दवं, पावं असुहाण दव्वं तु ॥६४३॥
१षट्स्तुण्डागम भवला: पुस्तक-३, पृष्ठ-२५२, भाथा सं. ६८ तथा पृष्ठ-२५४, माया सं. ७०सक
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। पोम्मट सार मौवकाश गाथा ६४४.६४५ जीवेतरस्मिन् कर्मचये, पुण्यं पापमिति भवंति पुण्यं तु ।
शुभप्रकृतीनां अध्यं, पापं अशुभप्रकृतीनां द्रव्यं तु ॥६४३॥ टीका - जीव पदार्थ संबंधी प्रतिपादन विर्षे सामान्यपर्ने गुणस्थाननि विर्षे मिथ्यादृष्टी पर सासादन ए तो पापजीव हैं । बहुरि मिश्र हैं ते पुण्य-पापरूप मिश्र जीव हैं; जाते युगपत् सम्यक्त्व अर मिथ्यात्वरूप परिणए हैं। बहुरि असंयत तौ सम्यक्त्व करि संयुक्त हैं । पर देशसंयत सम्यक्त्व अर देशवत करि संयुक्त हैं । अर प्रमत्ता'दिक सम्यक्त्व पर सकलव्रत करि संयुक्त है। ताते ए पुण्यजीव हैं । असे कहि, याके 'अनंतरि अजीव पदार्थ संबंधी प्ररूपणा कर हैं।
तहां कर्मचय कहिए कार्माणस्कंध, तिसविर्ष पुण्यपापरूप दोय भेद हैं । ताते अजीव दोय प्रकार है । तहां साता वेदनी नरक बिना तीन आयु, शुभ नाम, उच्चगोत्र ए शुभ प्रकृति हैं। तिनिकौं द्रव्यपुण्य कहिए । बहुरि घातिया कर्मनि की सर्व प्रकृति, असाता वेदनी, नरक पायु, अशुभ नाम, नीच गोत्र ए अशुभ प्रकृति हैं । तिनिकों द्रव्यपाप कहिए ।
आसव-संवरवक्वं, समयपबद्धं तु णिज्जरादध्वं । तत्तो असंखगुणिदं, उक्कस्स होदि णियमेण ॥६४४॥
प्रास्त्रवसंवरद्रव्यम्, समयप्रबद्धं तु निर्जराद्रव्यम् ।
ततोऽसंख्यगुणितमुत्कृष्टं भवति नियमेन ॥६४४।। टीका - बहुरि प्रास्रव द्रव्य अर संवर द्रव्य समयप्रबद्ध प्रमाण है; जाते एक समय विष प्रास्त्रव समयप्रबद्ध प्रमाण पुद्गल परमाणु नि ही का हो है । बहुरि संबर होइ तो तितने ही कर्मनि का प्रास्रव न होइ, ताते द्रव्य संवर भी तितना ही कार। बहुरि उत्कृष्ट निर्जरा द्रव्य समयप्रबद्ध तें असंख्यात गुणा नियम करि जानना; जातें गुरणश्रेणी निर्जरा विर्षे उत्कृष्टपर्ने एक समय विर्षं असंख्यात समयप्रबद्धनि की निर्जरा करै है।
बंधो समयपबद्धो, किंचूरणदिवड्ढमेसगुणहाणी । मोक्खो य होदि एवं, सदहिव्वा दु तच्चट्ठा ॥६४५॥
बंधः समयप्रबद्धः, किंचिदूनद्वयर्धमात्रगुणहानिः । मोक्षश्च भवत्येवं, श्रद्धातव्यास्तु तत्त्वार्थाः ॥६४५।।
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स्थानाभावाटीका ]
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टीका बहुरि बंध द्रव्य भी समयप्रबद्ध प्रमाण है; जातें एक समय विषै स्याबळ माण काही का बंध हो हैं । बहुरि मोक्ष द्रव्य किंचिदून द्वगुणहानि करि गुणित समयप्रवेद्ध प्रमाण है; जाते प्रयोगी के चरम समय विषै गुहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण संता पाइए । तिस ही का मोक्ष हो है; इस प्रकार तत्वार्थ हैं, ते श्रद्धान करणे, इस तस्वार्थ श्रद्धान ही का नाम सम्यक्त्व है ।
श्रा सम्यक्त्व के भेद कहें है
खोणे दंसणमोहे, जं सद्दहणं सुणिम्मल होई । खाइय-सम्मत्त, णिच्च कम्म क्खवण हेतु ॥ ६४६ ॥
क्षीणे दर्शनमोहे, वडानं सुनिर्मल भवति । ताकिसम्यक्त्वं नित्ये कर्मक्षपसहेतुः ||६४६॥
टीक - मिथ्यात्व मोहनी, सम्यग्मिथ्यात्व मोहनी, सम्यक् मोहनी पर अनंताबंधी की चौकड़ी इन सात प्रकृतिनि का करणलब्धिरूप परिणामनि का बल से नाश होत संत जो अति निर्मल श्रद्धान होइ, सो क्षायिक सम्यक्त्व है । सो प्रतिपक्षी कर्म का नाश करि आत्मा का गुण प्रगट भया है; तातें नित्य है । बहुरि समय समय प्रति गुणश्रेणी निर्जरा कौं कारण है; तातें कर्मक्षय का हेतु है ।
173
उक्तं च
deerat are forभदि एक्केय तबियतुरियभवे । रंगादि तुरियभवं रग विस्सदि सेस सम्मं च ॥
दर्शन मोह का क्षय होते, तीहि भव विषे वा देवायु का बंघ भए तीसरा भव विषे वा पहिले मिथ्यावदशा विषे मनुष्य तिर्यंच प्रायु का बंध भया होइ तो चौथा भव व सिद्ध पद को प्राप्त होइ, चौथा भव को उलंबे नाहीं । बहुरि अन्य सम्यक्त्ववत् यह क्षायिक सम्यक्त्व विनशे भी नाहीं ; तोहिस्यों नित्य का है । सादि अक्षयानंत है | आदि सहित अविनाशी अंत रहित है; यह अर्थ जानना ।
1. पटखण्डागम चबला पुस्तक-१, पृष्ठ ३६७, याचा सं. २१३ ।
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७१८ ]
[ मेमसार जीवकाण्ड गाथा ६४७e
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इस ही अर्थ कौं कहैं हैं
वयररोहिं वि हेदूहि बि, इंदियभयआणएहिं रूवेहिं । .. .:. बीभच्छजुगंछाहिं य, तेलोक्केण वि रण चालेज्जो' ॥६४७॥
बचनैरपि हेतुभिरपि इंद्रियभयानीतः रूपः । .....: :
बीभत्स्यजुगुप्साभिश्च त्रैलोक्येनापि न चाल्यः ३६४७॥ टोका - श्रद्धान नष्ट होने कौं कारण असे कुत्सित वचननि करिः वा कुत्सिल हेतु दृष्टांतनि करि का इंद्रियनि कौं भयकारी असे विकाररूप अनेक भेष आकारनि करि वा ग्लानि कौं कारण असी वस्तु से निपज्या जुगुप्सा, तिन करि क्षायिक सम्यक्त्व चले नाहीं । बहुत कहा कहिए तीन लोक मिलि करि क्षायिक सम्यक्त्व को चलाया चाहें तो क्षायिक सम्यक्त्व चलावने कौं समर्थन होइ।
सो क्षायिक सम्यक्त्व कौन के हो है ? सो कहैं हैं- ... दसणमोहक्खवणापट ठवगो कम्मभूमिजादो हु। मणुसो केवलिमूले, पिट्ठवगो होदि सब्वत्थ ॥६४८॥ . वर्शनमोलक्षपणाप्रस्थायकः कर्मभूमिजातो
हिसार मनुष्यः केवलिपुले, निष्ठापको भवति सर्वत्र ॥६४८॥ .. " टोका - दर्शन मोह की क्षपणा का प्रारंभ तो कर्मभूमि का उपज्या मनुष्य ही का केवली के पामूल विर्षे ही हो है । पर निष्ठापक सर्वत्र च्यारचों गति विर्षे हो है ।
भावार्थ -- जो दर्शन मोह का क्षय होने का विधान है, तिसका प्रारंभ तौ केवली वा श्रुतकेवली के निकट कर्मभूमियां मनुष्य ही करै है । बहुरि सो विधान होते मरण हो जाय तो जहां संपूर्ण दर्शन मोह के नाश का कार्य होइ निवर, तहां ताको निष्ठापक कहिए; सो च्यार्यों मति विर्षे हो है। . . .
आमैं वेदक सम्यक्त्व का स्वरूप कहै हैंदसणमोहुवयादो, उपज्जइ जं पयत्थसहहणं ।
चलमलिणमगादं तं, बेदयसम्मत्तमिदि जाणे ॥६४६॥ १.षदखण्डारम धबला : पुस्तक-१ पृष्ठ ३६७, गाथा सं. २१४ । २. षट्खण्डागम धवचा : पुस्तक-१ पृष्ठ ३१८, गाथा सं. २१५ ।
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सम्बशामवालिका मावाटीका
। ७१६ 1. : .. दर्शनमोहोदयादुत्पद्यते यत्पदार्थश्रद्धानम् ।
चलमलिनमगाढं तद् वेदकसम्यक्त्वमिति जानीहि ॥६४९॥ ......टीका ल. दर्शनमोह का. भेद सम्यक्त्वमोहनी, ताका उदय करि जो तत्त्वार्थ श्रद्धान चल का मल वा अगाढ होइ, सो वेदक सम्यक्त्व है; असा तू जानि । चल, मलिन, अगार्ड का लक्षण पूर्वं गुणस्थानप्ररूपणा विर्षे कहा है ।।
मागें उपशम सम्यक्त्व का स्वरूप पर तिस ही की सामग्नी का विशेष तीन गाथानि करि कहैं हैं ... ... . .
सणमोहवसमदो, उपपज्जा जं पयत्थसद्दहणं ।
.उवसमसम्मत्तमिणं, पसण्णमलपंकतोयसमं ॥६५०॥ F : दर्शनमोहोपशमादुत्पद्यते यत्पदार्थश्रद्धानम् । .
। उपशमसम्यक्त्वमिवं प्रसन्नमलपंकतोयसमम् ॥६५०॥ '. - टोको -- अदंतानुबंधी की चौकड़ी पर दर्शनमोह का त्रिक, इनि सात प्रकृतिनि के उदय का अभाव है लक्षण जामा मेला प्रयास जाम होने से कतक फलादिक ते मल कर्दम के नीचे बैठने करि जल प्रसन्न हो है; तेसै जो तस्वार्थ श्रद्धान उपजै, सो यहु उपशम नामा सम्यक्त्व है।
खयउवसमिय-विसोही, देसण-पाउग्ग-करणलद्धीय । चत्तारि दि सामण्णा, करणं पुरण होदि सम्मन्ते ॥६५१॥
क्षायोपशमिकविशुद्धी, देशना प्रायोग्यकरणलब्धी च ।
चतस्त्रोऽपि सामान्याः करणं पुनर्भवति सम्यक्त्वे ॥६५१॥ टीका - सम्यक्त्व के पूर्व जैसा कर्म का क्षयोपशम चाहिए तैसा होना, सो क्षयोपशामिकलब्धि । बहुरि जैसी विशुद्धता चाहिए तैसी होनी, सरे विशुद्धिलब्धि । बहुरि जैसा उपदेश चाहिए तैसा पावना, सो देशनालब्धि । बहुरि पंचेंद्रियादिक रूप योग्यता जैसी चाहिए तैसी होनी, सो प्रायोग्यलब्धि । बहुरि अधः, अपूर्व, अनिवृत्तिकरणरूप परिणामनि का होना, सो करणलब्धि माननीं ।
___ तहाँ च्यारि लब्धि लौ सामान्य हैं; भव्य-अभव्य सर्व के हो हैं । बहुरि करणलब्धि है, सो भव्य केही हो है । सो भी सम्यक्त्व अर चारित्र का ग्रहण विर्षे ही
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[ गोम्मटसार ओकाण्ड वाचा ३५६२-६
भावार्थ प्यारि लब्धि तो संसार विषे श्रनेक बार हो हैं । बहुरि करललब्धि की प्राप्ति भएं सम्यक्त्व वा चारित्र अवश्य हो है ।
:
आगे उपशमसम्यक् के ग्रहणे को योग्य जो जीव ताका स्वरूप कहै हैंचदुर्गादिभवो सरणी, पज्जत्तो सुभगो य सागारो ! जागा सल्लेस्सो सलद्विगो सम्मुगम ॥ ६५२ ॥
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चतुर्गतिभव्यः संज्ञी पर्याप्तश्च शुद्धकश्च साकारः । जागरूक : सहलेश्यः, सलब्धिकः सम्यक्त्वमुपगच्छति ॥ ६५२ ॥
टीका - जो जीव च्यारि गति में कोई एक गति विषे प्राप्त जैसा भव्य होइ, सैनी होइ, पर्याप्त होइ, मंदकषायरूप परिणामता विशुद्ध होइ, स्त्यानगृचघादिक तीन निद्रा ते रहित होने तैं जागता होइ, भावित शुभ तीन लेश्यानि विषे कोई एक aar का धारक होइ, करपलब्धिरूप रशिया होश, बैठकीत बत्व को प्राप्त हो है ।
सम्य
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चत्तारि वि खेत्ताई, श्रउगबंधेरण होइ सम्मत्तं । अणुवदमहम्वदाई, ण लहइ देवाउगं मोत्तुं ॥६५३॥
arati क्षेत्राणि आयुष्कबंधेन भवति सम्यक्त्वम् । अणुव्रत महाव्रतानि न लभते देवायुष्कं सुक्त्वा ॥६५३॥
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टीका च्यारि श्रायु विषै किसी ही परभव का आयु बंध कीया होइ, तिस बद्धा जीव के सम्यक्त्व उपजै, इहां किछु दोष नाहीं । बहुरि अणुव्रत पर महा
जिसके देवायु का बंध भया होइ, तिसहों के होइ । जो पहिलं नारक, तिर्यंच, मनुष्यायु का बंध मिथ्यात्व में भया होइ, तौ पीछे अणुव्रत, महाव्रत होइ नाहीं यह नियम है ।
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ANTA
en य free पत्तो, सम्मत्तादो य जो य परिवडिदो । सो सासणी त्ति यो, पंचमभावेण संजुतो ॥६५४॥
न च मिध्यात्वं प्राप्तः सम्यक्त्वतश्च यश्व परिपतितः । स सासन इति ज्ञेयः, पंचमभावेन संयुक्तः ।। ६५४ ॥
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सम्बशामनिका भाषाटीका ]
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टीका -- जो जीव सम्यक्त्व से पडया अर मिथ्यात्व कौं यावत् प्राप्त न भया, तावत् काल सासादन है; जैसा जानना । सो दर्शन मोह ही की अपेक्षा पांचवां पारणामिक भाव करि संयुक्त है, जात चारित्र मोह की अपेक्षा अनंतातुबंधी के उदय ते सासादन हो है, तातै इहां औदविक भाव है । यहु सासादन जुदी ही जाति का श्रद्धान रूप सम्यक्त्व मार्गरणा का भेद जानना ।
सहहणासहहणं, जस्सय जीवस्स होइ तच्चेस। बिरयाविरयेण समो, सम्मामिच्छो ति पायव्यो ॥६५॥ .
श्रद्धानाश्रद्धानं, यस्य च जीवस्य भवति तत्त्वेषु ।
विरताविरतेन समः, सम्यग्मिथ्या इति ज्ञातन्यः ॥६५५।। टीका -जिस जीव के जीवादि पदार्थनि विर्षे श्रद्धान वा प्रश्रद्धान एक काल विर्षे होइ, जैसे देशसंयत के संयम वा असंयम एक काल हो है; तैसे होइ, सो जीव समानियाष्टी है, अंग्रा लानना । यह सम्यक्त्व मार्गणा का मिथ नामा भेद कहा है।
मिच्छाइट्ठी जीवो, उबइठं पवयंणं ण सद्दहदि । सद्दहदि सम्भावं, उदइठं वा अणुवइलैं॥६५६॥
मिथ्याष्टिीवः उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्दधाति ।
श्रद्दधाति प्रसद्भाव, उपदिष्टं वा अनुपदिष्टम् ॥६५६॥ टोका - मिथ्यादृष्टी जीव जिन करि उपदेशित असे प्राप्त, पागम, पदार्थ, तिनिका श्रद्धान करै नाहीं। बहुरि कुदेवादिक करि उपदेश्या वा अनुपदेश्या झूठा
आप्त, आगम, पदार्थ, तिनिका श्रद्धान कर है। यह सम्यक्त्व मार्गणा का मिथ्यात्व नामा भेद कह्या । असे सम्यक्त्व मार्गणा के छह भेद कहे । उपशम, क्षायिक, सम्यक्त्व का विशेष विधान लब्धिसार नामा ग्रंथ विर्षे कहा है । ताके अनुसारि इहां भाषा टीका विर्षे प्रागें किछू लिखेंगे, तहां जानना ।
आगें सम्यक्त्व मार्गणा विर्षे. जीवनि की संख्या तीन गाथानि करि कहै हैंवासपुधत्ते खइया, संखेज्जा जइ हवंति सोहम्मे । तो संखपल्लठिविये, केवडिया एवमणुपादे ॥६५७॥
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७१२ }
वर्षyear क्षायिकाः, संख्येया यदि भवंति सौधर्मे । तहि संख्ययस्थितिके, कति एवमनुपाते ||६५७॥
गोम्मटसर बीकाण्ड गाथा ६५८-६५९
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टीका afre सम्यक्त्व बहुत कल्पवासी देव हो हैं । बहुरि कल्पवासी देव बहुत सौधर्म - ईशान विष हैं, तातें कहें। जो पृथक्त्व वर्ष विषं क्षायिक सम्यक्वी सौधर्म ईशान विषै संख्यात प्रमाण उपजे तो संख्यात पल्य की स्थिति विषै कितने उपजें ? अंसा त्रैराशिक करना । इहां प्रमाण राशि पृथक्त्व व प्रमाण काल, फलराशि संख्यात जीव, इच्छा राशि संख्या पल्य प्रमाण, कालसो फलत इच्छा क गुरौं, प्रमाण का भाग दीएं जो लब्धि राशि भयर सो कहैं हैं
संखावलिहिदपल्ला, खइया तत्तो य वेवमुवसमया । आमणिजसंगुलिया, असंखगुणहोणया कमसो ||६५८ ॥
संख्यावलिहितपत्याः क्षायिकास्ततश्च वेदमुपशमकाः । आवल्यसंख्यगुणिता, असंख्यगुणहीनकाः क्रमशः १६५८ ।।
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टीका सो लब्ध राशि का प्रमाण संख्यात बावली का भाग पत्य की दीएं, जो प्रमाण होइ, तिसना आया, सो तितने ही क्षायिक सम्यग्दृष्टी जानने । बहुरि इन प्रावली का असंख्यातवां भाग करि गुणै, जो प्रमाण होइ, तितने वेदक सभ्य दृष्टी जानने । बहुरि क्षायिक जीवां का परिमाण ही तें असंख्यात गुणा घाटि उपशाम सम्यग्दृष्टी जीव जानने ।
पल्लासंखेज्जदिमा, सासाणमिच्छा य संखगुणिदा हु । मिस्सा तहिं विहोणो, संसारी वामपरिमाणं ॥ ६५६ ॥
पत्याख्याताः, सासन मिथ्याश्च संख्यगुखिता हि । मिश्रास्तविहीनः संसारी वामपरिमाणम् ||६५६॥
टीका - पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण सासादन, तेई मिथ्याती सामान्य हैं, तिनका परिमाण है, तिनतें संख्यात गुणे सम्यग्मिथ्यादृष्टी जीव है । बहुरि इन पंच सम्यक्त्व संयुक्त जीवनि का मिलाया हूवा परिमाण की संसारी राशि में घटाएं, जो प्रमाण अवशेष रहे, तितने वाम कहिए मिध्यादृष्टी, तिनिका परिमाण है ।
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साना भाषाटोका ]
अब इहां नव पदार्थनि का परिमाण कहिए हैं
जीव द्रव्य ती द्विरूपधारा विषं कहे अपने प्रमाण लीए हैं । वहुरि अजीवविषै पुद्गल द्रव्य जीवराशि ते अनंत गुणे हैं । धर्मद्रव्य एक है । अधमंद्रव्य एक है । चाकाश द्रव्य एक है । कालद्रव्य जगच्छे गी का धन, जो लोक, तीहिं प्रमाण है । सो पुद्गल का परिमाण विषै धर्म, अधर्म, आकाश, काल का परिमाण मिलाएं, अजीव पदार्थ का परिमाण हो हैं ।
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बहुरि असंयत र देशसंयत का परिमाण मिलाए, तिन विषै प्रमत्तादिकनि का प्रमाण संख्यात मिलाए जो प्रमाण होइ, तितने पुण्य जीव हैं । बहुरि किंचि दून दूधगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण कर्म परमाणूनि की सत्ता है ताके संख्यातवें भागमात्र शुभ प्रकृतिरूप प्रजीव पुण्य हैं । बहुरि मिश्र अपेक्षा किछू अधिक जो पुण्य जीवनि का प्रमाण, तार्कों संसारी राशि में घटाएं, जो प्रमाण रहे, तितने पाप जीव हैं । बहुरि यर्धगुणहानि करि गुणित समयबद्ध की संख्यात का भाग दीजिए, तहां एक बिना भार गण गुर पट्टतिरूप भजीव पाप हैं । बहुरि प्रात्रव पदार्थ समयप्रबद्ध प्रमाण है। संवर पदार्थ समयबद्ध प्रमाण है । निर्जराद्रव्य गुणश्रेणी निर्जरा विष उत्कृष्टपने जितनी निर्जरा होइ तीहि प्रमाण है । बंध पदार्थ समयबद्ध प्रमाण है । मोक्षद्रव्य द्वय गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण है ।
इति आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीवतस्वप्रदीपिका नाम संस्कृत की टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नामा भाषाटीका विषे जोवकाण्ड विर्ष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा तिनवि सम्यक्त्वमार्गा प्ररूपणा नाम सतरहवाः अधिकार संपूर्ण भया ॥ १७॥
जो उपदेश सुनकर पुरुषार्थ करते हैं, वे मोक्ष का उपाय कर सकते हैं और जो पुरुषार्थ नहीं करते वे मोक्ष का उपाय नहीं कर सकते। उपदेश तो शिक्षामात्र है, फल जैसा पुरुषार्थ करे, जैसा लगता है ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक- प्रध्याय ६-पृष्ठ- ३१०
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अठारहवां अधिकार : संज्ञीमार्गणा
अरि रजविघ्न विनाशकर, अमित चतुष्टय थान । शत इंद्रन करि पूज्य पद, द्यो श्री और भगवान ॥१८॥
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आगे संशी मार्गणा हैं हैं
जोइंदियश्रावरणख श्रोक्समं तज्जबोहणं सपणा । सा जस्स सो दुगी, इदसे सेसि दिअवबोहो ॥ ६६०॥
नोइंद्रियावरण क्षयोपशमस्तज्जबोधनं संज्ञा ।
साथस्य स तु संजी, इतरः शेषेत्रियावनोधः ॥ ६६० ॥
टोका - नो इन्द्रिय जो मत, ताके आवरण का जो क्षयोपशम तीहिकरि
उत्पन्न भयो जो बोधन, ज्ञान, ताकी संज्ञा कहिए । सो संज्ञा जाके पाइए ताकी संशो कहिए है । मन-ज्ञान करि रहित अवशेष यथासंभव इन्द्रियनि का ज्ञान करि संयुक्त जो जीव, सो प्रसज्ञी है ।
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सिक्खा करिव देसालावगाही मनोवलंबरण ।
जो जोवो सो सम्पणी, तव्विवरोश्रो असण्णी दु ॥६६१ ॥
शिक्षायोपदेशालाग्राही मनोवलंबेन ।
यो जीवः स संज्ञी, तद्विपरीतोऽसंज्ञी तु ।।६६१॥
टीका - हित-अहित का करने त्यजनेरूप शिक्षा, हाथ-पम का इच्छा करि चलाने श्रादिरूप क्रिया, चामठी ( बेंत ) इत्यादि करि उपदेश्या वधविधानादिक सो उपदेश, श्लोकादिक का पाठ सो आलाप, इनिका ग्रहण करणारा जो मन ताका अवलंबन करि क्रम तें मनुष्य वा बलध वा हाथी वा सूवा इत्यादि जीव, सो संज्ञी नाम हैं । बहुरि इस लक्षण ते उलटा लक्षण का जो जीव, सो प्रसंज्ञी नाम
जानगा ।
मोमंसदि जो पुवं, कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च ।
farala णामेणेदि य, समणो श्रमणो य विवरीदो ||६६२ ॥
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सध्याजानचन्द्रिका प्रसाटीका
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मीमांसति यः पूर्व, कामकार्य च तत्त्वमितरच्च ।
शिक्षले नाम्ना एति च, सभनाः श्रमनाश्व विपरीतः ॥६६२॥ टीका - जो पहिल कार्य - अकार्य की विचारे, तत्व - प्रतत्त्व कौं सीखे, नाम करि बुलाया हुवा पावै, सो जीव मन सहित समनस्क, संज्ञी जानना । इस लक्षण ते उलटा लक्षण की जो धरै होइ, सो जीव मन रहित अमनस्क असंज्ञी जानना ।
इहां जीवनि की संख्या कहैं हैं - ..... देवेहि सादिरेगो, रासी सण्णीण होदि परिमाणं । तेणूणो संसारी, सव्वेसिमसण्णिाजीवाणं ॥६६३॥
देवैः सातिरेको, राशिः संजिनां भवति परिमाणम् । .. तेनोनः संसारी सर्वेषामसंशिजीवानाम् ।।६६३॥
टीका - च्यारि प्रकार के देवनि का जो प्रमाण, तिनित किछ अधिक संशी जीवनि का प्रमाण है । संज्ञी जीवनि विर्षे देव बहुत हैं । 'तिनिविर्षे नारक, मनुष्य, पंचेंद्री सैनी तिर्यंच मिलाए संज्ञी जीवनि का प्रमाण हो है । इस प्रमाण कौं संसारी जीवनि का प्रमाण में घटाएं, अवशेष सर्व असंजी जीवनि का प्रमाण हो है । इति प्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय माम पंचसंग्रह प्रथ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यम्झान चन्द्रिका राम भाषा टीका
विर्ष जीवकाण्ड विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा, तिनिविर्षे संज्ञी मार्गणा -
प्ररूपणा नामा अठारहवां अधिकार संपूर्ण मया ॥१८।।
तस्वनिर्णय करने में उपयोग न लगावे यह तो इसी का दोष है। तथा | पुरुषार्थ से तस्वनिर्णय में उपयोग लगादे तब स्वयमेव ही मोह का प्रभाव होने पर सस्यत्वादि रूप मोक्ष के उपाय का पुरुषार्थ बनता है। .
- मोक्षमार्ग प्रकाशक : अध्याय ६, पृष्ठ-३११
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उन्नीसवां अधिकार : आहार-मार्गणा मल्लिकुसुम समगंधजुत मोह शवहर मल्ल ।
बहिरंतर श्रीसहित जिन, मल्लि हरहु मम शल्ल ।।१९।। प्रागै प्राहार-मार्गणा कहैं हैंउदयावण्णसरीरोदयंण तद्देहवयणचित्ताणं ।। णोकम्भवग्गणाणं, गहणं आहारयं णाम ॥६६४॥
उदयापनशरीरोदयेन तदेहवचनचित्तानाम् ।
नोकर्मवर्गणानां, ग्रहरणमाहारकं नाम ॥६६४॥ टोका - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन तीन शरीर नामा नामकर्म विष किसी हो का उदय करि जो तिस शरीररूप वा वचनरूप का द्रव्य मनरूप होने योग्य जो नोकर्म वर्गणा, तिनिका जो ग्रहण करना, सो आहार असा नाम है। ..
प्राहरदि सरीराणं, तिण्हं एयदरवग्गणाम्रो य । भासामणाण णियवं, तम्हा आहारयो भणियो॥६६॥
आहारति शरीराणां त्रयाणामेकतरवर्गणाश्च ।
भासामनसोनित्यं तस्मादाहारको भरिणतः ॥६६५॥ टोका - औदारिकादिक शरीरनि विषं जो उदय आया कोई शरीर, तीहि रूप पाहारवर्गणा, बहुरि भाषावर्गणा, बहुरि मनोवर्गणा इन वर्गरणानि कौं यथायोग्य जीवसमास विर्षे यथायोग्य काल विर्षे यथायोग्यपर्ने नियमरूप प्राहरति कहिए ग्रहण कर, सो आहार कसा है।
विग्गहगदिमावण्णा, कवलिणो समुग्धदो अयोगी य। । सिद्धा य अगाहारा, सेसा पाहारया जीवा ॥६६६॥
विग्रहगतिमापन्नाः, केलिनः समुद्घाता अयोगिनश्च । सिद्धाश्च अनाहाराः, शेषा पाहारका जीयाः ॥६६६।।
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सानपत्रिका भाषाटोका
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टोका - विग्रहगति कौं जे प्राप्त भए, जैसे च्यारघों गतिवाले जीव, बहुरि प्रतर अर लोकपुरणरूप केवल समुद्घात को प्राप्त भए असे सयोगी- जिन, बहुरि सर्व अयोगी- जिन, बहुरि सर्व सिद्ध भगवान ए सर्व अनाहारक हैं । अवशेष सर्व जीव श्राहारक ही हैं ।
सो समुद्घात के प्रकार है ? सो कहैं हैं
arrearraगुव्वियो य मरणंतियो समुग्धावो । जाहारो छट्ठो, सत्तमझो केवलीणं तु ॥ ६६७॥
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deareerrafoners, मारणांतिकः समुद्घातः । तेजआहारः षष्ठः सप्तमः केवलिनां तु ॥२६६७॥
टीका - वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणांतिक तैजस, छठा श्राहारक, सातवां केवल ए सात समुद्घात जानने । इनिका स्वरूप लेश्या मार्गणा विषे क्षेत्राधिकार में कहा था, सो जानना ।
समुद्घात का स्वरूप कहा, सो कहैं हैं
मूलसरीरमछंडिय, उत्तरदेहस्स जीवपडस्स ।
णिग्गमणं देहावो, होदि समुग्धादणामं तु ॥ ६६८।।
मूलशरीरमत्यक्त्वा उत्तरबेहस्य जीवस्य ।
निर्गमनं देहाद्भवति समुद्धतिनाम तु ||६६८॥
टीका - मूल शरीर की तो छोड़े नाहीं, बहुरि कार्माण, तेजसरूप उतर शरीर सहित जीव के प्रदेश समूह का मूल शरीर तें बाह्य निकसना, सो समुद्घात जैसा नाम जानना ।
श्राहारमारतिय दुगं पि नियमेरा एगदिसिगं तु ।
दस-दिसि गदा हु सेला, पंच समुग्धादया होंति ।।६६६ ॥
आहारमारणांतिक द्विकमपि नियमेन एकविशिकं तु ।
दर्शादिशि गताहि शेषाः पंच समुद्घातका भवति ||६६९ ॥
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। योग्भटसार पौवकाळ माया ६७०.६७६ टोका - पाहारक अर मारणांतिक ए दोऊ समुद्धात तो नियम करि एक दिशा कौं हो प्राप्त हो हैं; जाते इन विषं सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण ही उंचाई, चौड़ाई होइ । पर लंबाई बहुत होइ । तातें एक दिशा कौं प्राप्त कहिए । बहुरि अवशेष पंच समुद्घात रहे, ते दशों दिशा कौं प्राप्त हैं, जाते इनि विर्षे यथायोग्य लंबाई, चौड़ाई, उंचाई सर्य हो पाइए है।
आमैं आहार अनाहार का काल कहैं हैंअंगलअसंखभागो, कालो आहारयस्स उक्कस्सो। कम्मम्मि प्रणाहारों, उक्कस्सं तिणि समया ह॥६७०॥
अंगुलासंख्यभागः, कालः माहारकस्योत्कृष्टः ।
कार्मणे अनाहारः, उत्कृष्टः अयः समया हि ।।६७०।। . . . टोका - माहार का उत्कृष्ट काल सूच्यंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है। सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग के जेते प्रदेश होंहि तितने समय प्रमाण आहारक का काल है।
इहा प्रश्न - जो मरण तो आयु पूरी भएं पीछे होइ ही होइ,, तहां अनाहार होइ इहां श्राहार का काल इतना कैसे कहा ? ।
ताका समाधान - जो मरण भए भी जिस जीव के वक्ररूप विंग्रह गति न होइ, सूधी एक समय रूप गति होइ, ताकै अनाहारकपणा न हो है । ग्राहारकपणा ही रहै है, तातै प्राहारक का पूर्वोक्तकाल उत्कृष्टपने करि कहा है । बहुरि पाहारक का जघन्य काल तीन समय घाटि सांस का अठारहवां भाग जानना; जाते क्षुद्रभव विर्षे विग्रहगति के समय घटाए इतना काल हो है । बहुरि अनाहारक का काल कार्मारा शरीर विर्षे उत्कृष्ट तीन समय जघन्य एक समय जानना; जाते विग्रह गति विष इतने काल पर्यंत ही नोकर्म वर्गरणानि का ग्रहण न ही है।
प्रागै इहां जीवनि की संख्या कहैं हैकम्मइयकायजोगी, होदि अणाहारयाण परिमाणं । ' तस्विरहिदसंसारी, सव्वो आहारपरिमाणं ॥६७१॥
कामसकाययोगी, भवति अनाहारकाणां परिमाणम् । तद्विरहितसंसारी, सर्व आहारंपरिमारणम् ॥६७१॥..
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सम्यशमतिका भाषामा ]
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टीका- कार्मारण काययोगवाले जीवनि का जो प्रमाण योगमार्गणा विर्षे कहा, सोई अनाहारक जीवनि का प्रमाण जालना । इसकौं संसारी जीवनि का प्रमाण में घटाएं, अवशेष रहै, तितना आहारक जीवनि का प्रमाण जानना । सोई कहैं हैं - प्रथम योगनि का काल कहिए है - कार्माण का तो तीन समय, औदारिक मिश्र का अंतर्मुहूर्त प्रमाण, औदारिक का तीहिस्यों संख्यात गुणा काल, तहां सर्वकाल मिलाएं तीन समय अधिक संख्यात अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल भया । याका किंचित् ऊन संसारी राशि का भाग दीएं, जो प्रमाण पावै, ताकी तीन करि गुण, जो प्रमाण आव तितने अनाहारक जीव हैं; अवशेष सर्व संसारी आहारक जीव हैं । वैक्रियिक, आहारकवाले थोरे हैं, तिन की मुख्यता नाहीं है ।
इहा प्रक्षेप योगोद्धतमिश्रपिंड प्रक्षेपकाणा गुणको भवेदिति, असा यह करणसूत्र जानना । याका अर्थ - प्रक्षेपको मिलाय करि मिश्र पिड का भाग देइ, जो प्रमाण होइ ताकौं प्रक्षेपक करि गुणें, अपना अपना प्रमाण होइ । जैसे कोई एक हजार प्रमाण वस्तु है, ताते किसी का पर्व बट है, किसी का सात बट है, किसी का पाठ बट है । सब की मिलाएं प्रक्षेपक का प्रमाण बीस. भए । तिस बीस का भाग हज़ार कौं दीएं पचास पाए, तिनको पंच करि गुण, अढाई सै भए, सो पंच बटवाले फैं पाए । सात करि गुणे, साढा तीन सौ भए, सो सात बटवाले के पाए । पाठ करि गुणे, च्यारि सै भए, सो आठ बंटवाले के पाए । असे मिश्वक व्यबहार विर्षे अन्यत्र भी जानना । इति प्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंधसंग्रह प्रथ को जीवतत्त्व प्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यंग्शानचंद्रिका नामा भाषाटीका विर्षे जोवकाण्ड विर्षे प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा तिनिविर्षे पाहार-मार्गणा प्ररूपणा
नाम उगनीसवां अधिकार संपूर्ण भया ।।१६॥ .
सच्चे उपदेश से निर्णय करने पर भ्रम दूर होता है, परंतु ऐसा पुरुषार्थ नहीं करता, इसी से भ्रम रहता है। निर्णय करने का पुरुषार्थ करे-तो भ्रम का कारण जो मोह-कर्म, उसके भी उपशमादि हो, तब श्रम दूर हो जाने, ... क्योंकि निर्णय करते हुए परिणामों की विशुद्धता होती है, उससे मोह के स्थिति अनुभाग घटते हैं।
- मोक्षमार्ग प्रकाशक : अधिकार ६, पृष्ठ--३१०
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बीसवां अधिकार : उपयोगाधिकार सुवत पावन कौं भनें, जाहि भक्त व्रतवंत ।
निज सुव्रत श्री बेहु मम, सो सुव्रप्त अरहंत ॥२०॥ आगें उपयोगाधिकार कहैं हैं--- वत्थुणिमित्तं भावो, जादो जीवस्स जो दु उवजोगो। सो दुविहो गायब्बो, सायारो चेव गायारो ॥६७२॥
वस्तुनिमित्तं भावो, जातो जीवस्य यस्तूपयोगः ।
___स द्विविधो ज्ञातव्यः साफारश्चेवानाकारः॥६७२॥ ..', टीका --- बसे हैं, एकीभाव रूप निवर्स हैं; गुण, पर्याय जा विर्षे, सो वस्तु, ज्ञेय पदार्थ जानना । ताके ग्रहण के अर्थि जो जीव का परिणाम विशेष रूप भाव प्रयतें, सो उपयोग है। बहुरि सो उपयोग साकार - अनाकार भेद से दोय प्रकार 'जानना।
प्रागै साकार उपयोग आठ प्रकार हैं, अनाकार उपयोग च्यारि प्रकार हैं, असा कहै हैं---
णारणं पंचविहं पि य, अण्णाण-तियं च सागरुवजोगो। चयु-दंसरगमणगारो, सव्वे तल्लक्खरणा जीधा ॥६७३॥
ज्ञानं पंचविधमपि च, अज्ञानत्रिकं च साकारोपयोगः ।
चतुर्दशनमनाकारः, सर्व तल्लक्षणा जीवाः ॥६७३॥ टीका - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल ए पंच प्रकार ज्ञान, बहुरि कुमति, कुश्रुत, विभंग ए तीन अज्ञान, ए आठौं साकार उपयोग हैं । बहुरि चक्ष, अपक्ष अवधि, केवल ए च्यारचों दर्शन अनाकार उपयोग हैं । सो सर्व ही जीव ज्ञान - दर्शन रूप उपयोग लक्षण कौं धरै हैं।
इस लक्षरण विर्षे अतिव्याप्ति, अव्याप्ति, असंभवी दोष न संभव हैं। जहां लक्ष्य विर्षे वा अलक्ष्य विर्षे लक्षण पाइए. तहां अतिव्याप्ति दोष हैं । जैसे जीव का
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सम्यक भाटीका 1
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लक्षण प्रमूर्तिक कहिए तो अमूर्तिकपना जीव विषे भी है अर धर्मादिक विषे भी है । बहुरि जहां लक्षण का एकदेश विषे लक्षण पाइए, तहां श्रव्याप्ति दोष है । जैसे जीव का लक्षण रागादिक कहिए तौ रागादिक संसारी विषै तो संभव, परि सिद्ध जीवft विषे संभवे नाहीं । बहुरि जो लक्ष्य लें विरोधी लक्षण होइ, सो असंभवी कहिए | जैसे जीव का लक्षण जड़त्व कहिए. सो संभव ही नाहीं । जैसे त्रिदोष रहित उपयोग ही जीव का लक्षण जानना ।
-मदि-सुद-ओहि मणेहिं य सग-सग - विसये विसेसविण्णा । अंतमहत्तकालो, उचजोगो सो दु सायारो ॥६७४॥
faranavra Fasraकविषये विशेषविज्ञानं । अंतर्मुहूर्तकाल, उपयोगः स तु साकारः ॥६७४॥
टीका - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ज्ञाननि करि अपने अपने विषय विष जो विशेष ज्ञान हो, अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण पदार्थ का ग्रहण रूप लक्षरण घरें, जो उप योग होइ, सो साकार उपयोग है । इहां वस्तु का ग्रहण रूप जो चैतन्य का परिमन, ताका नाम उपयोग है । मुख्यपने उपयोग है, सो छमस्थ के एक वस्तु का ग्रहण रूप चैतन्य का परिणमन अंतर्मुहूर्त मात्र ही रहे है । तातें अंतर्मुहूर्त ही कहा है ।
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sifarमणोहिणा वा प्रत्थे अविसेसिवरण जं गहणं । अंतोमुहुत्तकालो, उबजोगो सो अणायारो ॥ ६७५॥
streetsafter वा अर्थे श्रविशेष्य यद्ग्रहणम् । अंतर्मुहूर्त कालः उपयोगः स अनाकारः ॥६७५ ॥
टोका - नेत्र इन्द्रियरूप वक्षुदर्शन वा अवशेष इन्द्रिय श्रर मनरूप प्रचक्षु दर्शन वा अवधि दर्शन, इनकरि जो जीयादि पदार्थनि का विशेष न करिके निविकल्पपनें ग्रहण होइ, सो अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण सामान्य अर्थ का ग्रहण रूप निराकार उपयोग है ।
भावार्थ - वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । तहां सामान्य का ग्रहण कौं निराकार उपयोग कहिए, विशेष का ग्रहण की साकार उपयोग कहिए । जातै सामान्य विषे वस्तु का आकार प्रतिभासे नाही; विशेष विषै आकार प्रतिभास है ।
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गोम्मटसार मीका गाभर ६७६
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७३२ ] ... आगे इहां जीवनि की संख्या कहैं हैं -
णाणुवजोगजुदाणं, परिमाणं णाणमग्गणं व हवे। दसणुवजोगियारणं, दसणमग्गण व उत्तकमो ॥६७६॥
ज्ञानोपयोगयुक्तानां दरिमा शायरया ।
दर्शनोपयोगिनां दर्शनमार्गणावदुक्तक्रमः ॥६७६॥ : टीका - ज्ञानोपयोगी जीवनि का परिमाण ज्ञानमार्गणावत् है । बहुरि दर्शनोपयोगी जीवनि का परिमाण दर्शनमार्गणावत् है । सो कुमतिज्ञानी, कुश्रुतज्ञानी, विभंगशानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, बहुरि तिर्यच-विभंगज्ञानी, मनुष्य-विभंगज्ञानी, नारक-विभंगज्ञानी, इनिका प्रमाण जैसे ज्ञानमार्गरणा विर्षे कहा है । तैसे ही ज्ञानोपयोग विर्षे प्रमाण जानना । किछू विशेष नाहीं। बहुरि शक्तिगत चक्षुर्दर्शनी, व्यक्तगत चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्देर्शनी, अवधिदर्शनी केवल दर्शनी, इनिका प्रमाण जैसे दर्शन-मार्गरणा विर्षे कहा है ; तैसे इहां निराकार उपयोग विर्षे प्रमाण जानना । किछू विशेष नाहीं। इति श्री प्राचार्य नेमिचंद्र विरचित गोम्मटसार द्वितीयनाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीवतत्व : प्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नामा भाषाटीका विर्षे जीवकाण्ड विष प्ररूपित बीस प्ररूपरणा तिनि विष उपयोग-मार्गणाप्ररूपणा
नामा बीसवां अधिकार संपूर्ण भया ॥२०॥
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तत्त्वनिर्णय न करने में किसी कर्म का दोष नहीं है, तेरा ही दोष है, परंतु तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति संभव नहीं है। तुझे विषय कषाय रूप ही रहना है इसलिए झूठ बोलता है। मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो
ऐसी युक्ति किसलिए बनाए ? सांसारिक कार्यों में अपने पुरुषार्थ से सिद्धिन । होती जाने तथापि पुरुषार्थ उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो बैठा है,
इसलिए जानते हैं कि मोक्ष को देखा-देखो उत्कृष्ट कहता है, उसका स्वरूप पहिचान कर उसे हितरूप नहीं जानता। हित जानकर उसका उद्यम बने सो न करे यह असंभव है। .
. - मोशमार्य प्रकाशक अधिकार , पृष्ठ-३११
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इक्कीसवां अधिकार : अंतरभावाधिकार
fare श्रमित ज्ञानादि जुत, सुरपति नुत नमिनाथ । जय मम ध्रुवपद बेहु बिहि, हत्यो धातियां साथ ॥२१॥ आगे बीस प्ररूपणा का अर्थ कहि व उत्तर अर्थ को कहै हैंगुणजीवा पज्जत्ती, पाणा सणा य मग्गणुवजोगो । जोग्गा परुविदaar, ग्रोधादे से पत्तेयं ॥६७७॥
रणजीवाः पर्याप्तियः प्राखाः संज्ञान मार्गरणोपयोगी । योग्याः प्ररूपितव्या, प्रोधादेशयोः प्रत्येकम् ॥६७७॥
च परण चोस चरो, णिरयादिसु चोद्दसं तु पंचकखे । deer सेसिका मिच्छं गुणठाणं ॥ ६७८ ॥
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टीका - कही जे बीस प्ररूपणा, तिनिविषै गुणस्थान पर मार्गणास्थान, इचि विषे गुणस्थान र जीवसमास पर पर्याप्ति पर प्राण पर संज्ञा पर चौदह मार्गा श्रर उपयोग ए बीस प्ररूपणा जैसे संभव, तैसे निरूपण करनी । सोई कहें है
चत्वारि पंच चतुर्दश, चत्वारि निरयादिषु चतुर्दश तु पंचाक्षे । Teeta शेषेत्रिकाये मिथ्यात्वं गुणस्थानम् ॥६७८ ॥
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टीका - गति-मार्गणा विषै क्रम तें गुरणस्थान मिथ्यादृष्ट्यादि नरक विर्षे
च्यारि तिर्यच विषे पांच, मनुष्य विषे चौदह, देव विषे च्यारि जानने । बहुरि इन्द्रियमार्गणा व अर काय मार्गणा विषे पंचद्रिय में अर सकाय में तौ चौदह गुणस्थान हैं । अवशेष इंद्रिय श्रर काय में एक मिथ्यादृष्टी गुणस्थान है । बहुरि जीवसमास नरकगति पर देवगति विषे सेती पर्याप्त, निर्वृत्ति पर्याप्त ए दोष हैं; पर तिच विषे सर्व चौदह ही हैं। मनुष्य विषे सेवी पर्याप्त, अपर्याप्त ए दोय हैं। वहां नरक देवगति विषै लब्धि अपर्याप्तक नाहीं; तातै निर्वृत्ति-अपर्याप्त कह्या । मनुष्य विषै निर्वृति-अपर्याप्त, लब्धि पर्याप्त दोऊ पाइए ताते सामान्यपने पर्याप्त ही कह्या है । बहुरि इंद्रिय -मार्गला विषे एकेंद्रिय में बादर, सूक्ष्म, एकेंद्री तो पर्याप्त र अपयति जैसे च्यारि जीवसमास हैं। बेंद्री इन्द्री में पता अपना पर्याप्त अपर्याप्त रूप दोय जीवसमास हैं। पंचेंद्रिय में सैवी, असैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए च्यारि
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[ गोम्मटसार जोक्षकाण माथा ६७६-६८१ जीवसमास हैं। बहुरि कायमार्गणा विर्षे पृथ्वी आदि पंच स्थावरनि में एकेंद्रियवत् च्यारि च्यारि जीवसमास हैं। अस विर्षे अवशेष दश जीवसमास हैं।
मज्झिम-चउ-मण-वयरणे, सण्णिप्पयि दु जाव खीणो ति। सेसारणं जोगि त्ति य, अणुभयक्यणं तु वियलादो ॥६७६॥
मध्यमचतुर्मनवमनयोः, संज्ञिप्रतिस्तु यावत् क्षीण इति ।
शेषाणां योगीति च, अनुभयवचनं तु विकलतः ।।६७९।। टोका - मध्यम जो असत्य पर उभय मन वा वचन इनि च्यारि योगनि विष सैनी मिथ्यादृष्टी ते लगाइ क्षीणकषाय पर्यंत बारह गुणस्थान हैं। बहुरि सत्य पर अनुभव मनोयोग विर्षे अर सत्य वचन योग विर्षे सैनी पर्याप्त मिथ्यादृष्टी ते लगाइ सयोगी पर्यंत तेरह गुणस्थान हैं । बहुरि इनि सबनि विर्षे जीवसमास एक सैनी पर्याप्त है । बहुरि अनुभय वचनयोग विर्षे विकलत्रय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ तेरह गुणस्थान हैं । बहुरि बेइद्री, तेइंद्री, चौइद्री, सैनी पंचेंद्री, असनी पंचेंद्री इनका पर्याप्तरूप पांच जीवसमास हैं ।
ओरालं पज्जत्ते, थावरकायादि जाव जोयो ति। तम्मिस्समपज्जते, चदुगुणठाणेसु णियमेण ॥६८०॥
औराल पर्याप्ते, स्थावरकायादि यावत् योगीति ।
तन्मिश्रमपर्याप्ते, चतुर्गुणस्थानेषु नियमेन ॥६८०॥ टीका - औदारिक काययोग एकेंद्री स्थावर पर्याप्त मिथ्यादृष्टी ते लगाइ, संयोगी पर्यंत तेरह मुणस्थाननि विर्षे है। बहुरि औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्त च्यारि गुणस्थाननि विषं ही है नियमकरि । किनविर्षे ? सो कहैं हैं--
मिच्छे सासरणसम्मे, पुवेदयदे कवाडजोगिम्मि । . . णर-तिरिये वि य दोणि वि, होति ति जिणेहिं णिद्दिळं ॥६०१॥
मिथ्यात्वे सासनसम्यक्त्वे, पुंयेदायते कपाटयोगिनि ।
नरतिरश्चोरपि घ द्वावपि भवंतीति जिननिर्दिष्टम् ॥६८१॥ . टोका - मिथ्यादृष्टी, सासादन पुरुषवेद का उदय करि संयुक्त असंयत, कपाट समुद्धात सहित सयोगी इनि अपर्याप्तरूप च्यारि गुणस्थाननि विर्षे, सो औदा
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सम्यमानन्धिका मावाटोका ]
[ ७३५ रिक मिश्रयोग पाइए है । बहुरि औदारिक वा औदारिक-मिथ ए दोऊ योग मनुष्य अर तिर्यचनि ही के हैं; असा जिनदेवने कह्या है । बहुरि औदारिक विर्षे तो पर्याप्त सात जीवसमास हैं, अर श्रीदारिक मिश्र विर्षे अपर्याप्त सात जीवसमास पर सयोगी के एक पर्याप्त जीवसमास असे आठ जीवसमास हैं।
वेगुव्वं पज्जत्ते, इदरे खलु होदि तस्स मिस्सं तु । ... सुर-णिरय-चउठाणे, मिस्से ण हि मिस्सजोगो हु॥६८२॥
वैगूर्व पर्याप्ते, इतरे खलु भवति तस्य मिश्रं तु ।
सुरनिरयचतुःस्थाने, मिश्रे नहि मिश्रयोगो हि ।।६८२॥ टोका - वैक्रियिक योग पर्याप्त देव, नारकीनि के मिथ्यादृष्टी नै लगाइ च्यारि गुरगस्थाननि विर्षे हैं । बहुरि वैक्रियिक-मित्र योग मिश्रगुणस्थान विर्षे नाही; ताते देवनारकी संबंधी मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत इनही विर्षे हैं । बहुरि जीवसमास वैक्रियिक विषै एक सैनी पर्याप्त है। अर वैक्रियिक मिश्र विर्षे एक सैनी नित्ति-- अपर्याप्त है।
आहारो पज्जत्ते, इदरे खलु होदि तस्स मिस्सो दु । अंतोमुत्तकाले, छठ्ठगुरणे होदि आहारो॥६८३॥
आहारः पर्याप्ते, इतरे खलु भवति तस्य मिश्रस्तु ।
अंतर्मुहूर्तकाले, षष्ठगुणे भवति अाहारः ॥६८३॥ टोका - आहारक योग सैनी पर्याप्तक छट्ठा गुणस्थान विर्षे जघन्यपर्ने वा उत्कृष्टपने अंतर्मुहूर्त काल विर्षे ही है । बहुरि श्राहारक-मिश्र योग है, सो इतर जो संज्ञी अपर्याप्तरूप छट्ठा गुणस्थान विर्षे जघन्यपर्ने वा उत्कृष्टपने अंतर्मुहूर्त काल विर्षे हो हो है । ताते तिन दोऊनि के गुणस्थान एक प्रमत्त अर जीवसमास सोई एक एक जानना।
ओरालियमिस्सं वा, चउगुणठाणेसु होदि कम्मइयं । चदुगदिविग्गहकाले, जोगिस्स य पदरलोगपूरणगे ॥६८४॥
पौरालिकमिश्रो वा, चतुर्गुरणस्थानेषु भवति कार्मणम् । चतुर्गतिविग्रहकाले, योगिनश्च प्रतरलोकपूरपके ।।६८४॥
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[ मोटसार जीयका गाया ६५५-६८७
. टीका - कामरिणयोग औदारिक मिश्नवत् च्यारि गुरणस्थाननि विर्षे हैं । सो फार्मागयोगः च्यार्यो गति संबंधी विग्रहगति विर्षे बा सयोगी के प्रतर लोक पूरण कोल विष पाइए हैं । तातें 'गुणस्थान च्यारि अर जीवसमास पाठ औदारिक मिश्रवत् इहां जानने।
थावरकायप्पहुदी, संढो सेसा असंण्णिादी य । अणियटिस्स य पढमो; भागो त्ति जिणेहि णिद्दिठं ॥६८५॥
स्थावर कायाभूतिः, पं. शेषा प्रशस्योदयश्च । ।
अनिवृतेश्च प्रथमो, भागः इति जिनिर्दिष्टम् ॥६८५॥ टीका - वेदमार्गणा विर्षे नपुंसकवेद है, सो स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी तें लगाइ अनिवृत्तिकरण का पहिला सवेद भागपर्यंत हो है; तातै गुणस्थान नव, जीवसमास सर्व चौदह हैं । बहुरि शेष स्त्रीवेद अंर पुरुषवेद सैनी, असैनी पंचेंद्रिय मिथ्यादृष्टी तें लगाइ, अनिवृत्तिकरण का अपना-अपना संबेद भागंपर्यंत हैं । तातें गुरास्थान नव, जीवसमास सैनी, प्रसनी, पर्याप्त वा अपर्याप्तरूप च्यारि जिनदेवनि करि कहे हैं। :
थावरकायप्पहुदी, प्रणियट्टीबितिचउत्थभागो ति । कोहतियं लोहो पुण, सुहमसरागो ति विष्णेयो ॥६८६॥
स्थावरकायप्रभृति, अनिवृत्तिद्वित्रिचतुर्थभाग इति ।
क्रोधत्रिकं लोभः पुनः, सूक्ष्भंसराग इति विज्ञेयः ॥६८६।। टोका - कषायमार्गणा विष स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ क्रोध, मान, माया तौ क्रमते अनिवृत्तिकरण का दूसरा, तीसरा, चौथा भागपर्यंत हैं । पर लोभ सूक्ष्मसापराय पर्यंत. है; सात क्रोध, मान, माया विर्षे गुणस्थान नव, लोभविष दश; पर जीवसमास सर्वत्र चौदह जानने ।
थावरकाय पहुदी, मदिसुदनण्णाणयं विभंगो दु। . .. सण्णीपुण्णप्पहुयो, सासरणसम्मो त्ति गायब्वो ॥६८७॥
स्थावरकायप्रभृति, मतिश्रुनाज्ञानकं विभंगस्तु । संज्ञिपूर्णप्रभृति, सासनसम्यगिति ज्ञातव्यः ॥६८७॥
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संग्यकामपन्द्रिका भाषाका
..": : टीका - ज्ञानमार्गमा विष कुमति, कुश्रुत अज्ञान दोऊ स्थावर काय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ सासादनपर्यत हैं। तातें तहां गुणस्थान दोय, अर जीवसमास चौदह हैं । बहुरि विभंगज्ञान संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टी आदि सासादन पर्यंत जानना; तातें गुणस्थान दोय अर जीवसमास एक सैनी पर्याप्त ही है।
: सण्णाणतिगं अविरदसम्मादी छठगादि मरणपज्जो। ... खोणकसायं जाव दु, केवलणाणं जिणे सिद्धे ॥६॥ . .
- सद्ज्ञानंत्रिकमविरतसम्यमादि षष्ठकादिमनःपर्ययः ।
क्षीरणकषायं यावत्तु, केवलज्ञान जिने सिद्धे ॥६८८॥ टीका - मति, श्रुत, अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान असंयतादि क्षीणकषाय पर्यंत हैं; ताने गास्थान नब अर, जीटसमास सनी पर्याप्त अपर्याप्त ए दोय जानने । बहुरि मनःपर्ययज्ञान छट्ठा ते क्षीणकषाय पर्यंत है। ..तात. गुणस्थान सात अर जीवसमास एक सैनी पर्याप्त ही है । मनःपर्यवज्ञानी के प्राहारक ऋद्धि न होइ; तात आहारक मिथ अपेक्षा भी अपर्याप्तपना न संभव है। बहुरि केवलज्ञान सयोगी, अयोगी अर सिद्ध विष हैं; तातै गुणस्थान दोय, जीवसमास सैनी पर्याप्त अर सयोगी की अपेक्षा अपर्याप्त ए दोय जानने ।
अययो त्ति हु अविरमणं, देसे देसो पमत्त इदरे य । परिहारो सामाइयछेदो छादि थूलो ति ॥६६॥ . सहमो सहमकसाय, संते खोरणे जिणे जहक्खादं । संजममग्गणभेदा, सिद्धे गस्थिति णिजिंठं ॥६६०॥ जुम्भ ।।
प्रयत इति अविरमणं, पेशे बेशः प्रमत्तेतरस्मिन च । परिहारः सामायिकश्छेदः षष्ठादिः स्थूल इति १६८९॥ . सूक्ष्मः सूक्षमकवाये, शांत क्षीणे जिने यथास्यालम् ।
संयममार्गणा भेदाः, सिद्धेन संतीति निदिष्टम् ।।६१०॥ टीका - संयममार्गणा विर्षे असंयम है; सों मिथ्यादृष्टयादिक असंयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विर्षे है । तहां जीवसमास चौदह हैं । बहुरि देशसंयम एकदेश
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. [ मशार जीपकापट पापा ६६१.१२
संयत गुणस्थान विर्षे ही है । तहां जीवसमास एक संनी पर्याप्त है। बहुरि सामायिक छेदोपस्थापना संयम प्रमत्तादिक अनिवृत्तिकरण पर्यंत च्यारि गुणस्थानन विर्षे है । वहां जीवसमास संज्ञी पर्याप्त अर आहारक मिश्र अपेक्षा अपर्याप्त ए दोय हैं । बहुरि परिहारविशुद्धि संयम प्रमत्त अप्रमत दोय गुणस्थाननि विर्षे ही है । तहां जीवसमास एक बैनी पर्याप्त हैं। बाद इन राहिहारक होइ नाहीं । बहुरि सूक्ष्मसांपराय संयम सूक्ष्मसापराय गुणस्थान विर्षे ही है । तहां जीवसमास एक सैनी पर्याप्त है । बहुरि यथाख्यात संयम उपशांतकषायादिक च्यारि गुणस्थाननि विर्षे है। तहां जीवसमास एक संनी पर्याप्त अर समुद्घात केवली की अपेक्षा अपर्याप्त ए दोय हैं। बहुरि सिद्ध विर्षे संयम नाहीं है, जाते चारित्र है, सो मोक्ष का मार्ग है, मोक्षरूप नाहीं है, असे परमागम विर्षे कहा है। । चउरक्खथावराविरबसम्माविट्ठी दु खोणमोहो स्ति। . .... चक्खु-अचक्खू-ओहो, जिणसिद्ध केवलं होदि ॥६६॥
चतुरक्षस्थावराविरतसम्यग्दृष्टिस्त क्षीरसमोह इति ।
चक्षुरचक्षुरवधिः, जिनसिद्ध केवलं भवति ॥६९१॥ टीका - दर्शनमार्गणा विर्षे चक्षुदर्शन है। सो चौइंद्री मिथ्यादृष्टी आदि क्षीणकषाय पर्यंत बारह गुणस्थान विर्षे है । तहां जीवसमास चौइंद्री, सैनी पंचेद्री असैनी पंचेंद्री पर्याप्त वा अपर्याप्त ए छह हैं । बहुरि प्रचक्षु दर्शन स्थावरकाय मिथ्या दृष्टी आदि क्षीणकषाय पर्यंत बारह गुणस्थान विर्षे हैं । तहां जीवसमास चौदह हैं । बहुरि अवधि दर्शन प्रसंयतादि क्षीणकषाय पर्यंत नव मुरणस्थान विर्षे है । तहां जीवसमास सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त दोय हैं। बहुरि केवलदर्शन सयोग - प्रयोग दोय गुणस्थान विर्षे है । तहां जीवसमास केवलज्ञानवत् दोय हैं और सिद्ध विर्षे भी केवल दर्शन है।
थावरकायप्पहुदी, अविरदसम्मो त्ति असुह-तिय-लेस्सा । सण्णीदो अपमत्तो, जाव दु सुहतिणिलेस्साओ ॥६६२॥
स्थावरकायप्रभृति, अविरतसम्यगिति अशुभत्रिकलेश्याः । ...... संशितोऽप्रमत्तो यावत्तु शुभास्तिस्रो लेश्याः ।।६९२॥
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सम्यग्भानचन्द्रिका पावारीका
[ ७३२
टीका - लेश्यामार्गणा विषे कृष्णादिक अशुभ तीन लेश्याएं हैं । ते स्थावर मिथ्यादृष्टी आदि संयत पर्यंत हैं । तहां जीवसमास चौदह हैं । बहुरि तेजोलेश्या अर पद्मलेश्या सैनी मिथ्यादृष्टी आदि श्रप्रमत्त पर्यंत है। तहां जीवसमास सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोष हैं ।
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वरिय सुक्का लेस्सा, सजोगिचरिमो त्ति होवि नियमे । tयोगिम्मि वि. सिद्धे, लेस्सा णत्थि त्ति जिद्दि ॥ ६६३॥
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नवरि च शुक्ला लेश्या, सयोगिचरम इति भवति नियमेन । गरासेपि न लिखे या व्यस्तीति निर्दिष्टम् ॥६६३॥
टीका - शुक्ललेश्या विषै विशेष है, सो कहा ? शुक्ललेश्या सैनी मिथ्यादृष्टी यदि सयोगी पर्यंत है । तहां जीवसमास सैनी पर्याप्त या पर्याप्त ए दोष हैं नियम eft; जाते केवलसमुद्घात का अपर्याप्तवता इहां अपर्याप्त जीवसमास विषै गर्भित है । बहुरि प्रयोगी जिन विषै वा सिद्ध विषे लेश्या नाहीं, असा परमागम विष कहा है ।
थावर काय पहूदी, अजोगिचरिमो त्ति होंति भवसिद्धा । मिच्छाइदिट्ठट्ठाणे, अभव्वसिद्धा हवंति त्ति ॥ ६६४ ॥
स्थावरका प्रभृति, प्रयोगिचरम इति भवंति भवसिद्धाः । मिथ्याsष्टिस्थाने, श्रभव्यसिद्धा भवतीति ॥ ६६४||
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टीका - भव्यमाणा विषे भव्यसिद्ध हैं, ते स्थावर काय मिथ्यादृष्टी प्रादि अयोगी पर्यंत हैं । अर श्रभव्यसिद्ध एक मिथ्यादृष्टी गुणस्थान विषे ही हैं । इनि दोऊनि विषे जीवसमास चौदह चौदह हैं ।
freछो सास मिस्सो सग-सग ठाम्मि होंदि श्रथदादो ।' पढमुवसमवेदगसम्मत्त दुगं अप्पमत्तोति ॥ ६६५॥
मिथ्यात्वं सासनमिश्री, स्वकस्वकस्थाने भवति प्रयतात् । प्रथमोपशमवेदकसम्यक्त्वद्विकमप्रमस इति ॥६६५॥
टीका - Tearfuा विषे मिथ्यादृष्टी, सासादन, मिश्र ए तीन तौ अपने-अपने एक-एक गुणस्थान विषे हैं । बहुरि जीवसमास मिथ्यादृष्टी विषे तौ
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१६४० ]
{ पोम्मटसार ओवकाण्ड गरया ६६६-६९७ चौदह हैं । सासादन विर्ष बादर एकेंद्री, बेंद्री, तेंद्री, चौइन्द्री, सैनी, असैनी अपर्याप्त अर सैनी, पर्याप्त ए सात पाइए ! द्वितीयोपशम सम्यक्त्व तै पड़ि. जो सासादन कों प्राप्त भया होइ, ताकी अपेक्षा तहां सैनी पर्याप्त पर देव अपर्याप्त ए दोय ही जीवसमास हैं । मिश्र विर्षे सैनी पर्याप्त एक ही जीवसमास है। बहुरि प्रथमोपशम. सम्यस्त्य अर वेदक सम्यक्त्व ए दोऊ असंयतादि अप्रमत्त पर्यंत हैं। तहां जीवसमास प्रथमोपशम सम्यक्त्व विः तो मरण नाहीं है, तातें एक संशी पर्याप्त ही है । अर बेदक सम्यक्त्व विर्षे सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय हैं; जाते धम्मानरक, भवनत्रिक बिना देव, भोगभूमिया मनुष्य वा तिर्यंच, इनिक अपर्याप्त विर्षे भी वेदक सम्यक्त्व संभव हैं। .. ' .. १. . .. . द्वितीयोपशम सम्यक्त्व को कहैं हैं..: बिदियवसमसम्मत्तं, अविरबसम्मादि संतमोहो ति।। - खइयं सम्मं च तहा, सिद्धो रित निहिं णिद्दिळं ॥६६६॥.
द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमविरससम्यगादिशांतमोह इति ।
क्षायिकं सम्यक्त्वं च तथा, सिख इति जिननिदिष्टम् ॥६९६॥ टीका- द्वितीयोपशम सम्यक्त्व असंयतादि उपशांत कषाय पर्यंत है; जाते इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कौं अप्रमत्त विष उपजाय ऊपरि उपशांतकषाय पर्यंत जाइ, नीचे पड़े, तहां असंयत पर्यंत द्वितीयोपशम सम्क्त्व सहित आवै, तात असंयत आदि विर्षे भी कह्या । तहां जीवसमास संजी पर्याप्त प्रर देव असंयत अपर्याप्त ए दोय पाइए हैं, जातै द्वितीयोपशम सम्यक्त्व विर्षे मरण है, सो मरि देव ही हो है । बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व असंयतादि अयोगी पर्यंत ही है। तहाँ जीवसमास संज्ञी पर्याप्त है । अर जाके आयु बंध हुवा होइ, ताके धम्ना नरक, भोगभूमिया मनुष्य, तियंच, बैमानिक देव, इनिका अपर्याप्त भी है, ताते दोय जीवसमास हैं । बहुरि सिद्ध विर्षे भी क्षायिक सम्यक्त्व है; असा जिनदेवने कहा है।
सणी सण्णिप्पहुवी, खीणकसाओ हित होदि रिणयमेण । .
थावरकायप्पहुदी, असण्णि रित हवे असण्णी हु ॥६६७॥ FF.. . संज्ञी संज्ञिप्रभूतिः क्षीणकषाय इति भवति नियमेन ।
3. स्थावरकायप्रभूतिः, असंशोति भवेदसंज्ञी हि ॥६६॥ ..
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सम्यग्ज्ञासतिका मावाटीका ।
[ ७४१ टोका - संज्ञी मार्गणा विर्षे संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टी आदि क्षीणकषाय पर्यंत है। तहां जीवसमास संजी पर्याप्त अपर्याप्त ए दोय हैं । बहुरि असंज्ञी जीव स्थावर कायादिक असनी पंचेंद्री पर्यंत मिथ्यादृष्टी गुणस्थान विर्षे ही है नियमकरि । तहां जीवसमास सैनी संबंधी दोय बिना बारह जानने ।।
थावरकायप्पहुदी, सजोगिचरिमो ति होधिः प्राहारी।। " कम्मइय अणाहारी, अजोगिसिद्धे वि णायन्वो ॥६६॥
स्थावरकायप्रभृतिः, सयोगिचरम इति भवति आहारी।.
कार्मण अनाहारी, अयोगिसिद्धेऽपि ज्ञातव्यः ॥६९८॥.. टीका - पाहारमार्गणा विर्षे स्थावर काय मिथ्यादृष्टी आदि सयोगी पर्यंत आहारी हैं । तहां जीवसमास चौदह हैं। बहुरि मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत, सयोगी इनिक कार्माण अवस्था विर्षे पर अयोगी जिन पर सिद्ध भगवान इनि विर्षे अनाहार है। तहां जीवसमास अपर्याप्त सात, अयोगी की अपेक्षा एक पर्याप्त ए
आठ हैं। ... प्रामें गुणस्थाननि विर्षे जीवसमासनि की कहैं हैं--- ...... मिच्छे चोद्दसजीवा, सासण अयदे पमत्तविरदे य। । सम्णिदुर्ग सेसगुणे, सण्णीपुण्णो दु खीणो त्ति ॥६६॥ म. मिथ्यात्वे चतुर्दश जीवाः, सासानायते प्रमत्तविरते च । ...:
संझिद्विकं शेषगुणे, संज़िपूर्णस्तु क्षीरण इति ॥६९९॥ ___टीका - मिथ्यादृष्टी विर्षे जीवसमास' चौदह हैं । सासादन विर्षे, अविरत विर्षे, प्रमत विर्षे चकार ते सयोगी विर्षे संशो पर्याप्त, अपर्याप्त ए दोय जीवसमांस हैं । इहां प्रमत्त विर्षे आहारक मिश्र अपेक्षा अर सयोगी विषैः केवल समुद्घात अपेक्षा अपर्याप्तपनां जानना । बहुरि अवशेष पाठ गुणस्थाननि विर्षे अपि शब्द तें अयोगी विर्षे भी एक संज्ञीपर्याप्त जीवसमास है। .. .......... .
आगें मार्गणास्थाननि विर्षे जीवसमासंनि कौं दिखावै हैं - तिरिय-गवीए चोइस, हवंति सेसेसु जाण दो दो दु। मम्गणठाणस्सेवं, यारिण समासठाणागि ॥७००॥
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मटसार जीकाण्ड गाथा ७०१७०२
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७४२ ]
तिर्यग्गतौ चतुर्दश, भदंति शेषेषु जानीहि द्वौ द्वौ तु ।
मार्गणास्थानस्यैवं, ज्ञेयानि समासस्थानानि ॥७००। ' टीका - तिर्यंचगति विर्षे जीवसमास चौदह हैं । अवशेष गतिनि विर्षे संशी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय दोय जीवसमास जानने । असे मार्गणास्थानकनि विर्षे यथायोग्य पूर्वोक्त अनुक्रम करि जीवसमास जानने । ...
प्रागै गुणस्थाननि विर्षे पर्याप्ति वा प्रारण कहैं हैंपज्जत्ती पाणा वि य, सुगमा भाविदियं ण जोगिम्हि । तहिं वाधुस्सासाउगकायत्तिगद्गमजोगिणो प्राऊ ॥७०१॥
. पर्याप्तयः प्रारणा अपि च, सुगमा भायेंद्रियं न योगिनि । : सस्मिन् वागुच्छ्वासायुष्ककायत्रिकतिकमयोगिन प्रायुः ॥७०१॥
टीका - चौदह गुणस्थाननि विर्षे पर्याप्ति अर प्राण जुदे न कहिए है; जातें सुगम है । तहां क्षीणकषाय पर्यंत तो छहाँ पर्याप्ति हैं, दशौ प्राण हैं । बहुरि सयोगी जिन विर्षे भावेंद्रिय तो है नाही, द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा छह पर्याप्ति हैं। बहुरि सयोगी के प्राण च्यारि हैं - १ वचनबल, २ सासोस्वास, ३ आयु, ४ कायबल ए च्यारि हैं। अवशेष पंचेंद्रिय पर मन ए छह प्राण नाहीं हैं ! तहां वचनबल का अभाव होते तीन ही प्राण रहैं हैं । उस्वास निश्वास का प्रभाव होते दोय ही रहे हैं। बहुरि अयोगी वि एक आयु प्राण ही रहे है । तहां पूर्व संचित भया था, जो कमनोकर्म का स्कंध, सो समय समय प्रति एक एक निषेक गलतै अवशेष द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्व रह्या, सो द्रव्याथिक नय करि तो अयोगी का अंतसमय विर्षे नष्ट हो है। पर्यायाथिक नय करि ताके अस्तर समय विर्षे नष्ट हो है -- यह तात्पर्य है ।
प्रागै गुणस्थाननि विर्ष संज्ञा कहैं हैंछट्टो ति पढमसण्णा, सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा ।' पुवो पढमरिणयट्टो, सहुमो त्ति कमेण सेसाप्रो ॥७०२॥
षष्ठ इति प्रथमसंज्ञा, सकार्या शेषाश्च कारणापेक्षाः । अपूर्वः प्रथमानिवृत्तिः, सूक्ष्म इति क्रमेस शेषाः ।।७०२॥
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सम्मशानचन्द्रिका भाषाटोका ।
[७४३ . टीका - मिथ्यादृष्टी प्रादि प्रमत्तपर्यत अपना कार्यसहित च्यार्यों संज्ञा हैं। तहां छठे गुणस्थानि पाहार संज्ञा का विच्छेद हूवा, अवशेष तीन संज्ञा अप्रमत्तादि विर्षे हैं; सो तिनिका निमित्तभूत कर्म पाइए है। तहां ताकी अपेक्षा है। कार्य रहित है, सो अपूर्वकरण पर्यंत तीन संज्ञा है । तहां भय संज्ञा का विच्छेद भया । अनिवृत्ति करण का प्रथम सवेदभाग पर्यंत मैथुन, परिग्रह दोय संज्ञा हैं । तहाँ मैथुन संज्ञा का विच्छेद भया । सूक्ष्मसापराय विर्षे एक परिग्रह संज्ञा रही। ताका तहां ही विच्छेद भया । ऊपरि उपशांत कषायादिक. विषं कारण का अभाव ते कार्य का भी प्रभाव है । तातें कार्य रहित भी सर्व संज्ञा नाहीं हैं। . .: मग्गण उवजोगा वि य, सुगमा पुत्वं परूविदत्तादो। .
गदिनादिसुमिच्छादी, परूविदे रूविदा होति ॥७०३॥ :
माग उपयोगा अपि च, सुगमाः पूर्व प्ररूपितत्यात् । . .. मत्यादिषु मिथ्यात्वाद्वी, प्ररूपिते रूपिता भवंति १७०३॥ ___टीका - गुणस्थानकनि विर्षे चौदह मार्गणा पर उपयोग लगाना सुगम है, जातें पूर्व प्ररूपण करि पाए हैं ! मार्गणानि विषं गुणस्थान या जीवसमास कहे । लहां ही कथन आय गया, तथापि मंदबुद्धिनि के समझने के निमित्त बहरि कहिए हैं। नरकादि गतिनामा नामकर्म के उदय ते उत्पन्न भई पर्याय, ते गति कहिए, सो मिथ्यादृष्टी विर्षे च्यार्यो नारकादि गति, पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं। सासादन विर्षे नारक अपर्याप्त नाही, अवशेष सर्व हैं। मिश्र विर्षे च्यार्यो गति पर्याप्त ही हैं । असंयत विर्षे धम्मानारक तौ पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ हैं । अवशेष नारक पर्याप्त ही हैं ! बहुरि भोगभूमियां तिर्यंच वा मनुष्य अर कर्मभूमियां मनुष्य अर वैमानिक देव तो पर्याप्त वा अपर्याप्त दोऊ हैं । अर कर्मभूमिया तिर्यंच अर भवनत्रिक देव ए पर्याप्त ही चतुर्थ गुणस्थान विर्षे पाइए हैं । बहुरि देशसंयत विर्षे कर्मभूमियां तिथंच बा मनुष्य पर्याप्त ही हैं । बहुरि प्रमत्त विर्षे मनुष्य पर्याप्त ही है, आहारक सहित पर्याप्त, अपर्याप्त दोऊ हैं । बहुरि प्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत मनुष्य' पर्याप्त ही हैं, सयोगी विर्षे पर्याप्त . वा समुद्धात अपेक्षा अपर्याप्त हैं । अयोगी पर्याप्त ही हैं।
. बहुरि एकेद्रियादिक जातिनामा नामकर्म के उदय तें निपज्या जीव के पर्याय सो इन्द्रिय है । तिनकी मार्गणा एकेंद्रियादिक पंच हैं । ते मिथ्यादृष्टी विर्षे तो पांचों
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[ मोम्मासार जीबकापड गाथा ७०३.
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पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं । सासादन विधे अपर्याप्त तो पांचौं पाइए पर पर्याप्त एक पंचेंद्रिय पाइए है । मिश्र विर्षे पर्याप्त पंचेंद्रिय ही है। प्रसंयत विर्षे पर्याप्त वा अपर्याप्त-पंचेंद्री है । देशसंयत विष पर्याप्त पचेंद्री ही है । प्रमत्त विष प्राहारक अपेक्षा दोऊ हैं । अप्रमत्तादि क्षीराकषाय. पर्यंत एक पंचेंद्रिय पर्याप्त ही है । सयोगी विर्षे पर्याप्त है, समुद्घात अपेक्षा दोल हैं । अयोगी विर्षे पर्याप्त ही पंचेंद्रिय हैं। .. ... .
६. पृथ्वीकायादिक विशेष कौं लीए एकद्रिय जाति पर स्थावर नामा नामकर्म का उदय अर असं नामा नामकर्म का उदय ते निप जीध पयाय ते काय काहिए, ते छह प्रकार हैं। तहां मिथ्यादृष्टी विर्षे तो छहौं पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं । सासादन विर्ष बादर पृथ्वी, अप, वनस्पती ए स्थावर अर स विर्षे बेंद्री, तेंद्री, चौंद्री, असैनी पंचेंद्री ए तो अपर्याप्त ही है । पर सैनी अस काय पर्याप्त, अपर्याप्त दोऊ हैं । प्रागै संज्ञी पंचेंद्रिय अस काय ही हैं, तहां मिश्र विर्षे पर्याप्त ही हैं । अविरत विर्षे दोऊ हैं। देशसंयस विर्षे पर्याप्त ही हैं । प्रमत्त विर्षे पर्याप्त हैं। आंहारक सहित दोऊ हैं। अप्रमत्तादि क्षीणकीय पर्यंत पर्याप्त ही हैं, सयोगी विष पर्याप्त ही है। समुद्धात सहित दोऊ हैं । अयोगी विर्षे पर्याप्त ही है। : । - पुद्गल विपाकी शरीर पर अंगोपांग नाम नामकर्म के उदय ते मन, वचन, काय करि संयुक्त जो जीव, ताके कम नोकर्म प्रावने कौं कारण जो शक्ति वा ताकरि उत्पन्न भया जो जीव के प्रदेशनि का चंचलपना, सो योग है 1 सो मन-वचन-काय भेद ते तीन प्रकार हैं । तहां वीर्यातराय अर नोइन्द्रियावरण कर्म, तिनके क्षयोपशम' करि अंगोपांग नामकर्म के उदय करि मनःपर्याप्ति संयुक्त जीव के मनोवर्गणारूप जे पुद्गल आए, तिनिका माठ पांखड़ी का कमल के श्राकार हृदय स्थानक विधे जो निर्माण नामा नामकर्म से निपज्या, सो द्रव्य मन है । तहां जो कमल की पांखड़ीनि का अंग्रभागनि विर्षे नोइन्द्रियावरण का क्षयोपशमयुक्त जीव का प्रदेश समूह है, तिनिविर्षे लब्धि उपयोग लक्षण को धरै, भाव मन है। ताका जो परिणमन, सो मनोयोग है । सो सत्य, असत्य, उभय, अंनुभय रूप विषय के भेद से च्यारि प्रकार है। बहुरि भाषापर्याप्ति करि संयुक्त जो जीव, ताक शरीर नामा नामकर्म के उदय करि अर स्वरनामा नामकर्म का उदय का सहकारी कारण करि भाषावर्गणारूप पाए जे. पुद्गल स्कंध तिनिका च्यारि प्रकार भाषारूप होइ परिणमन, सो वचन योग है। सो वचन योग भी सत्यादिक पदार्थनि का कहनहारा है, तासै च्यारि प्रकार है।
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একলঙ্কিা মায়াখা ? बहुरि औदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर नामा नामकर्म के उदय करि आहार वर्गणारूप पाए जे पुद्गल एकंध, नितिका दिए नामा दागकर्म के उदय करि निपज्या जो शरीर, ताके परिणामन के निमित्त ते जीव का प्रदेशनि का जो चंचल होना, सो औदारिक आदि काय योग हैं। बहुरि शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् एक समय घाटि अंतर्मुहर्त पर्यंत, तिनके मिश्र योग है। इहां मिश्रपना कहा है, सो औदारिकादिक नोकर्म की वर्गरणानि का आहरण आप ही ते न हो है, कार्माण वर्गणाः का सापेक्ष लीए है; तातें कहा है । बहुरि .. विग्रह गति विर्षे औदारिकादिक नोकर्म : की वर्गणानि का तौ ग्रहण है नाही, कामणि शरीर नामा नामकर्म का उदय करि. कार्मारा वर्गणारूप आए जे पुद्गल स्कंध, तिनिका ज्ञानावरणादिक कर्म पर्याय करि जीद के प्रदेशनि विर्षे बंध होते भया जो जीव के प्रदेशनि का चंचलपना, सो कारण काययोग है । जैसै ए पंद्रह योग हैं। ...
:::: तिसु तेरं दस मिस्से, सत्तसु णव छठ्ठयम्मि एगारा। :. । . जोगिम्मि सत्त जोगा, अजोगिठारणं हवे सुण्णं ॥७०४॥
त्रिषु त्रयोदश दश मिश्र, सप्तसु नव षष्ठे एकादश। ... ....
योगिनि सप्त योगा, अयोगिस्थानं भवेत् शून्यम् ॥७०४॥ ...टीका - कहे पंद्रह योग, तिनि विर्षे मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत इन तीनों विर्षे तेरह तेरह योग हैं, जानै घाहारक, आहारकंमिश्र, प्रमत्त बिंना अत्यंत्र नाहीं हैं। बहुरि मिश्र विष प्रौदारिक मिश्र, वैऋियिकमिश्न, कार्माण ए तीनों भी नाही; ताते दश ही हैं । बहुरि ऊपरि सात गुणस्थानकनि विर्षे वैक्रियिक योग भी नाहीं है; तात प्रमत्त विर्षे तो आहारकद्विक के मिलने ते ग्यारह योग हैं, औरनि विर्ष नव नव योग हैं । बहुरि सयोगी विर्षे सत्य-अनुभय मनोयोग, सत्य-अनुभय वचनयोग, औदारिक,
औदारिकमिश्र, कार्माण ए सात योग हैं । अयोगी गुरणस्थान विर्षे योग नाहीं तातें . शून्य है । बहुरि स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदनि करि उदय करि वेद हो है, ते तीनों .. अनिवृत्तिकरण के सयेदभाग पर्यत हैं: अपरि नाहीं ।
___ बहुरि क्रोधादिक व्यारि कषायनि का यथायोग्य अनंतानुबंधी इत्यादि रूप उदय होत संतै क्रोध, मान, माया, लोभ हो हैं। तहां मिथ्यादृष्टी सासादन विर्षे तौं अनंतानुबंधी आदि च्यारि च्यारि प्रकार है । 'मिन असंयत विर्षे अनंतानुबंधी बिना'
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। गोम्मटसार मौवकाण्ड गाथा ७०४
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तीनतीन प्रकार हैं । देशसंयत विर्षे अप्रत्याख्यान बिना दोय दोय प्रकार हैं । प्रमत्तादि. अनिवृत्तिकरण का दूसरा भागपर्यंत संज्वलन क्रोध है। तीसरा भाग पर्यंत मान है। चौथा भाग पर्यंत माया है। पंचम भाग पर्यंत बादर लोम है । सूक्ष्मसांपराय विर्षे सूक्ष्म लोभ है । ऊपर सर्व कषाय रहित हैं।
. मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञानावरस के क्षयोपशम त मति आदि ज्ञान हो हैं । केवल ज्ञानायरण के समस्त क्षय ते केवलज्ञान हो है। मिथ्यात्व का उदय करि सहवर्ती असें मति, श्रुत, अवधि ज्ञानावरण के क्षयोपशम से कुमति, कुश्रुत, विभंग झान हो हैं; सो सबै मिलि पाठ ज्ञान भए । तहां मिथ्यादृष्टी सासादन विर्षे तो तीन कुज्ञान हैं। मिश्र विर्षे तीन कुज्ञान वा सुज्ञान मिश्ररूप है ! अविरत पर देशसंयत विष मति, श्रुत, अवधि ए आदि के तीन सुज्ञान हैं। प्रमत्तादि क्षीणकषायपर्यंत विर्षे मनःपर्यय सहित आदिक के च्यारि सुज्ञान हैं । सयोगी, अयोगी विर्षे एक केवल
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बहुरि संज्वलन की चौकड़ी पर नव नोकषाय इनके मंद उदय करि व्रत का थारना, समिति का पालना, कथाय का निग्रह, दंड का त्याग, इंद्रियनि का जय असें भावरूप संयम हो है । सो संयम सामान्यपने एक सामायिक स्वरूप है; जातै सर्वसावद्यायोगविरतोऽस्मि' मैं सर्व पापं सहित योग का त्यागी हूं; असे भाव विर्षे सर्व गर्भित भए । विशेषपर्ने असंयम, देशसंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय, यथाख्यात भेद से सात प्रकार है। तहां असंयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विर्षे असंयम ही है । देशसंयत विर्षे देशसंयम है । प्रमत्तादिक अनिवृत्तिकरण पर्यंत सामायिक, छेदोपस्थापना है। प्रमत्त अप्रमत्त विर्षे परिहार विशुद्धि भी है। मुक्मसापराय विर्षे सूक्ष्मसापराय है । उपशांत कषायादिक विर्षे यथाख्यात संयम है ।
• बहुरि चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शनावरण के क्षयोपशम तें अर केवलदर्शनावरण के समस्त क्षय ते चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल दर्शन हो हैं । तहां मिश्रगुणस्थान पर्यंत तो चक्षु, अचक्षु, दोय दर्शन हैं। असंयतादि क्षीणकषाय पर्यंत वि चक्षु, अचक्षु, अवधि तीन दर्शन हैं । सयोग, अयोग पर सिद्ध विष केवल दर्शन है।
__ कषाय के उदय करि अनुरंजित जैसी मन, वचन, कायरूप योगनि की प्रवृत्ति सो लेश्या है । सो शुभ-अशुभ के भेद ते दोय. प्रकार है। तहां अशुभलेश्या कृष्ण, नील, कपोत भेद से तीन प्रकार है । शुभ लेश्या तेज, पद्म, शुक्लभेद ते तीन प्रकार
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समसामनिका भाषाढीका
[ ७४७ है । तहां असंयत पर्यंत तो छही लेश्या हैं। देशसंयतादि अप्रमत्त पर्यत विष तीन शुभलेश्या ही हैं। अपूर्वकरणादि सयोगी पर्यंत विर्षे शुक्ललेश्या ही है। अयोगी, योग के अभाव तें लेश्या रहित हैं ।
सामग्रीविशेष करि रत्नत्रय वा अनंत चतुष्टयरूप परिणमने की योग्य, सो भंध्य कहिए । परिणमनें को योग्य नाहीं, सो अभव्य कहिए । इहां अभव्य राशि जघन्य युक्तानन्त प्रमाण है । संसारी राशि में इतना घटाएं, अवशेष हैं, तितने भव्य सिद्ध हैं । सो भव्य तीन प्रकार - १ आसत्तभव्य, २ दूरभव्य, ३ अभव्यसमभव्य । जे थोरे काल में मुक्त होने योग्य होइ, ते प्रासन्नभव्य हैं । जे बहुत काल में मुक्त होने होंइ, ते दूर भव्य हैं । जे त्रिकाल विर्षे मुक्त होने के नाहीं, केवल मुक्त होने की योग्यता ही कौं धरै हैं, ते अभव्यसम भव्य हैं । सो इहां मिथ्यादृष्टी विष भव्य-अभव्य दोऊ हैं । सासादनादि क्षीणकषायपर्यंत विर्षे एक भव्य ही है । सयोग-प्रयोग विर्षे भव्य अभव्य का उपदेश माह। हैं।
. बहुरि अनादि मिथ्यादृष्टी जीव क्षयोपशमादिक पंचलब्धि का परिणामरूप परिणया। तहां मिथ्यादृष्टी ही विर्षे करण! कोए, तहां अनिवृत्ति करण का अंतः समय विर्षे अनंतानुबंत्री अर मिथ्यात्व इनि पंचनि का उपशम करि ताके अनंतर समय विर्षे मिथ्यात्व का ऊपरि के वा नीचे के निषेक छोडि, बीचि के निषेकनि का. प्रभाव करना; सो अंतर कहिए, सो अंतर्मुहत के जेते समय तितने विषेकनि का प्रभाव पनिवृत्ति करण विषं ही कीया था, सो तिनि निषेकनिरूप जो अंतरायाम संबंधी अंतर्मुहर्त काल, ताका प्रथम समय विर्षे प्रथमोपशम सम्यक्त्व को पाइ असंयत हो है।. या प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर देशवत, इनि दोऊनि की युगपत् पाइ करि देशसंयत हो है । अथवा प्रथमोपशम सम्यक्त्व पर महाव्रत, इनि दोऊनि की युगपत् पाइ करि अप्रमतसंयत हो है । तहां तिस पावने के प्रथम समय तें लगाइ, अंतर्मुहूर्त ताई गुण संक्रमण विधान करि मिथ्यात्वरूप द्रव्यकर्म कौं गुणसंक्रमण भागहार करि घटाइ घटाइ तीन प्रकार कर है । गुरग संक्रमरंग विधान अर गुणसंक्रमण भागहार का कथन प्रागे करेंगे, तहां जानना । सो मिथ्यात्व प्रकृति रूप अर सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृतिरूप था सम्यक्त्व प्रकृतिरूप असे एक मिथ्यात्व तीन प्रकार तहां कीजिए है; सो इनि तीनों का द्रव्य जो परमाणूनि का प्रमाण, सो असंख्यात गुणा, असंख्यात गुणा पाटि अनुक्रम तें जानता।
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७४८ 1.
[ होम्मटसार नौवकाग्छ गाथा ७०४ . इहां प्रण ... जो मिथ्यात्व को मिथ्या प्रवाह कहा कीया? . .:
ताका समाधान - पूर्व जो उस मिथ्यात्व की स्थिति थी, तामै प्रतिस्थापना वली मात्र घटाव है, सो अतिस्थापनावली का भी स्वरूप प्राग कहेंगे । जो अप्रमत्त गुरणस्थान को प्राप्त हो हैं, सो अप्रमत्तस्यों-प्रमत्त में अर प्रमतस्यों-अप्रमत्त में संख्यात हजार बार आवै जाय है । तातें प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रमत्त विर्षे भी कहिए ते ए च्यार्यो गुणस्थानवी प्रथमोपशमसम्यक्त्व का अंतर्मुहूर्त काल विर्षे जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह प्रावली अवशेष रहैं, अर तहां अनंतानुबंधी की किसी प्रकृति का उदय होइ तो सासादन होइ। बहुरि जो भव्यता गुण का विशेष करि सम्यक्त्व गुण का नाश न होइ तो उस उपशम सम्यक्त्व का काल कौं पूर्ण होतें सम्यक्त्व प्रकृति के उदय ते वेदक सम्यग्दृष्टी हो है । बहुरि जो मिश्र प्रकृति का उदय होइ, तौ सम्यग्मिध्यादृष्टी हो है । बहुरि जो मिथ्यात्व ही का उदय आवै तो मिथ्यादृष्टी ही होइ जाइ।
बहुरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व विष विशेष है, सो कहा ? . ...
उपशम श्रेणी चढने के निमित्त कोई सातिशय अप्रमत्त वेदक सम्यग्दृष्टी तहां अप्रमत्त विर्षे तीन करण की सामर्थ्य करि अनंतानुबंधी का प्रशस्तोपशम बिना अप्रशस्तोपशम करि ऊपरि के जे निषेक, जिनिका काल न आया है, ते. तो हैं ही; जे. नीचे के निषेक अनंतानुबंधी के हैं, तिनिकों उत्कर्षरण करि ऊपरि के निषेकनि विर्षे प्राप्त करै है वा विसंयोजन करि अन्य प्रकृतिरूप परिणमावै है, असक्षपाइ दर्शनमोह को तीन प्रकृति, तिनिका बीचि के निषेकनि का प्रभाव करने रूप अंतरकरण करि अंतर कीया । बहुरि उपशमविधात करि दर्शनमोह की प्रकृतिनि कौं उपशमाइ, अंतर कीएं निषेक संबंधी अंतर्मुहूर्त काल का प्रथम समय विषं द्वितीयोपशम सम्यदृष्टी होइ, उपशम श्रेणी कौं चढि, क्रम तै उपशांत कषाय पर्यंत जाइ, तहां अंतर्मु. हूर्त काल तिष्ठि करि, अनुक्रम ते एक एक मुणस्थान उलरि करि, अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त होइ, तहां अप्रमत्त स्यों.प्रमत्त में वा प्रमत्त स्यों अप्रमत्त में हजारों बार आवै जाइ, तहांस्यों नीचे देशसंयत होइ, तहां तिष्ठ; या असंयत होइ तहां सिष्ठ । अथवा जो ग्यारह्वां आदि गुणस्थाननि विर्षे मरण होइ, तौ तहां स्यों अनुक्रम बिना ' देव पर्यायरूप असंयत हो है | वा. मिश्र प्रकृति के उदय ते मिश्र गुणस्थानवर्ती हो है वा अनंतानुबंधी के उदय होते द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कौं विराध है; असी किसी आचार्य की पक्ष की अपेक्षा सासादन हो है। वा मिथ्यात्व का उदयं करि मिथ्या
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दृष्टी हो है..। बहुरि असंयतादिक च्यारि गुणस्थानदर्ती जे मनुष्य, बहुरि असंयत, देशसंयत गुणस्थानवर्ती उपचार महाव्रत जिनके पाइए है, असी प्रार्या स्त्री, ते कर्मभूमि के उपजे असे वेवक सम्यक्त्वी होइ, तिनहीके केवली श्रुतकेवली दोन्यों विर्षे किसी का चरणां के निकटि सात प्रकृति का सर्वथा क्षय होते क्षायिक सम्यक्त्व हो है, सो असें सम्यक्त्व का विधान का।
सो सम्यक्त्व सामान्यपर्ने एक प्रकार है । विशेषपर्ने १ मिथ्यात्व, २ सासादन, ३ मिश्र, ४ उपशम, ५ वेदक, ६ भायिक भेद से छह प्रकार है। तहां मिथ्यादृष्टी विष तो मिथ्यात्व ही है । सासादन विर्षे सासादन है । मिश्र विर्षे मिश्र है। असंयतादिक अप्रमत्त पर्यंत विर्षे उपशम (औपमिक), वेदक, क्षायिक तीन सम्यक्त्व हैं । अपूर्वकरणादि उपशांत कषाय पर्यंत उपशमश्रेणी विष उपशम, क्षायिक दोय सम्यक्त्व हैं। क्षपक श्रेणीरूप अपूर्वकरणादिक सिद्ध पर्यंत एक क्षायिक सम्यक्त्व ही है। ...
वहरि नी इंद्रिय, जो मन, ताके प्रावरण के क्षयोपशम ते भया जो ज्ञान, ताको संज्ञा कहिए । सो जिसके पाइए, सो संज्ञी है। जाके न पाइए अर यथासंभव अन्य इन्द्रियनि का ज्ञान पाइए, सो असेंजी है। तहां संज्ञी मिथ्यादृष्टि आदि क्षीण कषाय पर्यंत हैं । असजी मिय्यादृष्टी विर्षे ही है । सयोग प्रयोग विष मन-इन्द्रिय सम्बन्धी ज्ञान नाहीं है; तात संज्ञी-असंझी न कहिए है।।
बहुरि शरीर पर अंगोपांग नामा नामकर्म के उदय से उत्पन्न भया जो शरीर वचन, मन रूप नोकर्म वर्गरणा का ग्रहण करना, सो पाहार है । विग्रहगति विर्षे का प्रतर लोक पूर्ण सहित सयोगी विर्ष वा प्रयोगा विर्षे बा सिद्ध विर्षे अनाहार है; ताते मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत, सयोगी इनि विष तौ दोऊ हैं। अवशेष नब गुणस्थान विर्षे प्राहार ही है । अयोगी विर्षे वा सिद्ध विर्षे अनाहार ही है।
गुणस्थाननि विर्षे उपयोग कहैं हैं - दोण्हं पंच य छच्चेव, दोसु मिस्सम्मि होंति वामिस्सा। सत्तुवजोगा सत्तसु, दो चेव जिरणे य सिद्धे य ॥७०५॥
द्वयोः पंच च षट्च, बयोमिश्रे भवंति व्यामिश्राः । सप्तोपयोगाः सप्तसु, द्वौ चैव जिने च सिद्धे च ॥७०५।।
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श्री सतिसागर जी महाराज
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| गोम्मटere aante पाथा ७०४
टीका- गुण पर्यायवान् वस्तु है, ताके ग्रहणरूप जो व्यापार प्रवर्तन, सो उप योग है | ज्ञान है, सो जानने योग्य जो वस्तु, तातें नाहीं उपजें हैं । सो का है।
स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिच्छेः स्वतो यथा ।
तथा ज्ञानं स्वहेत्थं, परिच्छेदात्मकं स्वतः ॥ १.
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याका अर्थ - जैसे वस्तु अपने ही उपादान कारण तें निपज्या, श्रापही ते जानने योग्य है । तैसें ज्ञान अपने ही उपादान कारण ते निपज्या, आपही ते जानने
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हारा है । बहुरि ज्ञेय पदार्थ पर प्रकाशादिक ए ज्ञानका कारण नाहीं, जाते ए तो ज्ञेय हैं। जैसे अंधकार ज्ञेय है, जैसे ए भी शेय हैं - जानने योग्य हैं । जानने का कारण नाहीं, असा जानता । बहुरि सो उपयोग ज्ञान दर्शन के भेद तें दोष प्रकार है । तहां कुमति, कुश्रुत, विभंग, मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल भेद ते ज्ञानोपयोग प्रकार है । चक्षु, प्रचक्षु, अवधि, केवल भेद ते दर्शनोपयोग व्यारि प्रकार है। वहां मिथ्यादृष्टी सासादन विषे तो कुमति, कुश्रुत, विभंग ज्ञान, चक्षु, प्रचक्षु, दर्शन ए पांच उपयोग हैं । बहुरि मिश्रविष मिश्ररूप मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, चक्षु, प्रचक्षुः अवधि: दर्शन, ए छह उपयोग हैं । असंयत देशसंयत विषे मति, श्रुत, अवधिज्ञान, चक्षु, श्रचक्षु, अवधिदर्शन ए छह उपयोग हैं। प्रसत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत विषे तेई मन पर्यय सहित सात उपयोग हैं । सयोगी, अयोगी, सिद्ध विषे केवलज्ञान केवलदर्शन ए दोय उपयोग t
इति प्राचार्य चन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीवतत्त्व प्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसार सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामा भाषांटीका विषै प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा, तिनिविषे गुणस्थाननिविषे बीस प्ररूपणा निरूपण नामा इकवीसवां अधिकार सम्पूर्ण भया || २१ ॥
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HARAPES
बाईसवा अधिकार आलापाधिकार
सुरनर गणपति पूज्यपद, बहिरतर श्री धार ।
नेमि धर्मरथनेमिसम, भनौं होहु श्रीसार ॥२२॥ पागं पालाप अधिकार को अपने इष्टदेव को नमस्कार पूर्वक कहनेकौं प्रतिज्ञा
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है। गोयमथेरं पणमिय, श्रोधावेसेसु वीसभेदाणं ।. . ...
जोजणिकाणालावं, वोच्छामि जहाकम सुणह ॥७०६॥ . : ..
गौतमस्थविरं प्रणम्य, प्रोधादेशयोविंशभेदानाम । ...
योजनिकानामालाप, वक्ष्यामि यथाक्रमं शृणुत ॥७०६॥ टीका - विशिष्ट जो सो कहिए भूमि, आठवीं पृथ्वी, सो है स्थविर कहिए सास्वती, जाके असा सिद्धसमूह, अथवा गौतम है स्थविर कहिए गणधर जाके जैसा वर्धमान स्वामी प्रथवा विशिष्ट है गो कहिए वाणी जाकी असा स्थविर कहिए मुनिसमूह, सो असे जु गौतम स्थविर ताहि प्रणम्य नमस्कार करिके प्रोघ जो गुणस्थान अर प्रादेश. जो मार्गणास्थान, इनिविर्षे जोडनेरूप जो गुणस्थानादिक बोस प्ररूपरणा, तिनिका पालाप, ताहि यथाक्रम कहाँगा, सो सुनह । जहां बीस प्ररूपणा प्ररूपिए, असे विवक्षित स्थाननि का कहना ताका नाम आलाप जानना ! सो कहैं हैं -
ओघे चोदसठाणे, सिद्धे वीसदिविहाणमालावा । वेदकसायविभिण्णे, अणियट्टीपंचभागे य ॥७०७॥
श्रोधे चतुर्दशस्थाने, सिद्ध विशतिविधानामालापाः ।
वेदकंधायविभिन्ने, अनिवृत्तिपंचभागे च ।।७०७॥ टोका - अोध जो गुणस्थान पर चौदह मार्गणास्थान ए परमागम विर्षे प्रसिद्ध हैं। सो इनिविर्षे गुरणजोबा पज्जत्ती इत्यादिक बीस प्ररूपणानि का सामान्य पर्याप्त, अपर्याप्त ए तीन आलाप हो है । बहुरि वेदःअर कषाय करि है भेद जिनि विर्षे असे अनिवृतिकरण के पंच भाग तिनिधिर्षे पालाप जुदे-जुदे जानने ।
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७५२ ]
| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७०८०७०१ २७१०
तो गुणस्थाननि विषं कहें हैं --
श्री मिच्छवि य, प्रयवपत्ते सजोगिठाणम्मि । rिoha य आलावा, सेसेसिक्को हवे रिगयमा ॥७०८ ॥
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ओधे मिथ्यात्वद्विकेऽपि च प्रयतप्रमत्तयोः सयोगिस्थाने । य एव चालाः शेषेो भवेत्रियमात् ।। ७०६ ।
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Team Piy
टीका - गुणस्थाननि विषे मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत, प्रमत्तः सयोगी इन विषे तीन तीन आलाप हैं । श्रवशेष गुणस्थाननि विषै एक पर्याप्त श्रालाप है forest |
इस ही अर्थ को प्रकट करें हैं
सामपरणं पज्जत्तमपज्जत्तं चेदि तिष्णि आलावा । दुवियप्पमपज्जत्तं लद्धी सिन्वत्तगं वेदि ॥७०६ ॥
- सामान्यः पर्याप्तः, अपर्याप्तवति श्रय श्रालापा 1. द्विकरूपोऽपर्याप्तो लब्धिनिवृतिका ति ॥७०९ ॥
टीका -- ते श्रालाप तीन हैं, सामान्य, पर्याप्ति, अपर्याप्त। जहां पर्याप्त-पर्याप्त दोऊ का समुदायरूप सामान्यपर्ने ग्रहण कीजिए, सो सामान्य श्रालाप है । बहुरि जहाँ पर्याप्त ही का ग्रहण होइ, सो पर्याप्त श्रालाप है। होइ, तहां अपर्याप्तालाप है । तहां अपर्याप्तालाप दोय यप्त १, एक निवृत्ति अपर्याप्त । जाका क्षुद्रभव प्रमाण पहिले ही मरण को प्राप्त होइ, सो लब्धि अपर्याप्त हैं । बहुरि जाके शरीर पर्याप्ति पूरण होगा यावत् पूर्ण न हुआ होई, तावत् निर्वृति अपर्याप्त है ।
जहां अपर्याप्त ही का ग्रहण प्रकार है एक लब्धि अपप्रायु होइ, पर्याप्ति पूर्ण भए
दुविहं पि अपज्जत्तं, ओोघे मिच्छेव होदि पियमेण । सासरयदपमत्ते, रिगव्यत्ति अपुण्गो होदि ॥ ७१० ॥
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द्विविधोप्यपर्याप्त, प्रोघे मिथ्यारय एवं भवंति नियमेन । सासावनाय प्रमत्तेषु नित्यपूको भवति ॥७१०
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सम्झामचन्द्रिका भावारीका ।
टीका - सो दोऊ. प्रकार अपर्याप्त आलाप सामान्य मिथ्यादृष्टी विर्षे ही पाइए हैं । बहुरि सासादन, असंयत, प्रमत्त विर्षे निवृत्ति अपर्याप्त ही आलाप है ।
जोगं पडि जोगिजिणे, होदि हु रिणयमा प्रपुण्णगत्तं तु । - प्रवसेस-रणव-छारणे, पज्जतालावगो एक्को ॥७११॥ ..
योगं प्रति योगिजिने, भवति हि नियमादपूर्णकत्वं तु ।
अवशेषनवस्थाने पर्याप्सालापक एकः ॥७११॥ .. टीका - सयोगीजिन विर्षे नियमकरि योगनि की अपेक्षा ही अपर्याप्त पालाप है । जैसें अपर्याप्त पालाप विर्षे विशेष है, सो इनि पंच गुणस्थाननि विर्षे तो तीनूं आलाप हैं । बहुरि अवशेषः नब गुणस्थान रहे, तिनिविर्षे एक पर्याप्त आलाप ही है।
आगें चौदह मार्गणा स्थानकनि विर्षे कहै हैंसत्तण्हं पढवीरणं, ओघे मिच्छे य तिष्णि आलावा । पढमाबिरवे वि तहा, सेसारणं पुण्णगालावो ॥७१२॥
सप्तानां पृथिवीना, प्रोघे मिथ्यात्वे च त्रय आलापाः ।
प्रथमाविरतेऽपि तथा, शेषाणां पूर्णकालापाः ॥७१२॥ टीका -- नरकगति विर्षे सामान्यपने सप्तपृथ्वी संबंधी मिथ्यादृष्टी विर्षे तीन आलाप हैं । अर तेसे ही प्रथम पृथ्वी संबंधी असंयत विर्षे तीन बालाप हैं । जो नरकायु पहिले बांध्या होइ, असा वेदक, क्षायिक सम्यग्दृष्टी जीव सो तहां ही प्रथम पृथ्वी विर्षे उपजै है । बहुरि अवशेष पृथ्वी संबंधी अविरत अर सर्व पृथ्वी या सासादन, मिश्र, इनके एक पर्याप्त मालाप ही है।
तिरियचउपकाणोधे, मिच्छवुगे अविरदे य तिण्टगेव । णवरि य जोणिणि अयदे, पुण्णो सेसे वि पुण्णोतु ॥७१३॥
तिर्यकचतुष्कारणामोघे, मिथ्यात्वादि के अविरते च य एव ।
नयरि च योनिश्ययते, पूर्णः शेषेऽपि पूर्णस्तु ॥७१३॥ ___टीका -- तिर्यंच पंच प्रकार । सर्व भेद जाम गर्भित असा सामान्य तिर्यंच । बहुरि जाके पांचों इन्द्रिय पाइए: असा पंचेंद्री तिर्यच । बहुरि जो पर्याप्त अवस्था कों
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७५४ ]
। मोम्सरसार श्रीवकाष्ट माया ७१४ धार सो पर्याप्त तिर्यंच । बहुरि जो स्त्रीवेदरूप है। सो योनिमत तिर्यच' । जो लब्धि अपर्याप्त अवस्था को धारै सो लब्धि अपर्याप्त तिर्यच ।
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तहां सामान्यादिक चारि प्रकार तिर्यचनि के पंच गुणस्थान पाइए । तहां मिथ्यादृष्टी, सासादन, अविरत विर्षे तीन तीन पालाप हैं । तहां इतना विशेष हैयोनिमत लियंच के अविरत विर्ष एक पर्याप्त पालाप ही है; जातें जो पहिले तिर्यच आयु बांध्या होइ तो भी सम्यग्दृष्टी स्त्रीवेद नपुंसकवेद विर्षे न उपजे । बहुरि मिश्र वा देशविरत विर्षे पर्याप्त पालाप ही है।
तेरिच्छियलद्धियपज्जत्ते, एकको अपुण्ण आलावो। मूलोघं मणुसतिए, मणुसिरिणश्रयदम्हि पज्जत्तो ॥७१४॥
तिर्यग्लमध्यपर्याप्ते, एक अपूर्ण पालापः ।।
मूलोधं मनुष्यत्रिके, मानुष्ययते पर्याप्तः ।।७१४॥ टोका - लब्धि अपर्याप्त तिर्यच विर्षे एक अपर्याप्त पालाप ही है ।
बहरि मनुष्य च्यारि प्रकार - तहां सर्वभेद जामें गर्मित होंइ अंसा सामान्य मनुष्य । बहुरि जो पर्याप्त अवस्था को धारे, सो पर्याप्त मनुष्य, बहुरि जो स्त्री वेदरूप सो योनिमत मनुष्य, बहुरि जो लब्धि अपर्याप्तपनां कौं धार, सो लब्धि अपर्याप्त मनुष्य है।
तहां सामान्यादिक तीन प्रकार मनुष्यनि के प्रत्येक चौदह गुणस्थान पाइए । इहां भान बेद अपेक्षा योनिमत मनुष्य के चौदह गुरणस्थान कहे हैं । मुरणस्थानवत् आलाप जानने। विशेष इतना - जो योनिमत मनुष्य के असंयत विर्षे एक पर्याप्त आलाप ही है । कारण पूर्व कह्या ही है ।
बहुरि इतना विशेष है - जो असंयत तिर्यचिणी के प्रथमोपशम, वेदक ए दोय सम्यक्त्व हैं । पर मनुष्यरगी के प्रथमोपशम, वेदक, क्षायिक ए तीन सम्यक्त्व.संभव हैं । तथापि जहां सम्यक्त्व हो है, तहां पर्याप्त आलाप ही है । सम्यक्स्व सहित मर, सो स्त्रीवेदनि विर्षे न उपजै है। बहुरि द्रव्य अपेक्षा योनिमती पंचम गुणस्थान से ऊपरि गमन करे नाही, तातें तिनकै द्वितीयोपशम सम्यक्त्व नाहीं है ।
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सम्पन्झानचन्द्रिका भाषाटीका ! .... मणुसिणि पमत्तविरदे, आहारदुगं तु गतिथ रिणयमेण । ..... अवमवधेधे मणुसिरिण, सण्णा भूदगदिमासेज्ज ॥७१५॥
भानुष्यां प्रमत्तविरते, प्राहारोहिकं तु नास्ति, नियमेन ।
अपगतवेदायां मानुष्या, संज्ञा भूतगतिमासाद्य ।।७१५॥
टीका - द्रव्य पुरुष पर भाव स्त्री असा मनुष्य 'प्रमत्तविरत. गुणस्थान विर्षे होइ, ताके आहारक पर श्राहारक आंगोपांग नामकर्म का उदय नियम करि नाहीं है ।
तु शब्द से स्त्रीयद, नपुंसमवेद का उदय विर्षे मनःपर्ययज्ञान अर परिहार विशुद्धि संयम ए भी न हो है। .......... .: ..
बहुरि भाव मनुष्यणी विर्षे चौदह गुरवस्थान हैं। द्रव्य मनुष्यणी विर्षे पांच ही गुणस्थान हैं ।
......- * : .बहुरि वेद रहित अनिवृत्तिकरण विर्षे मनुष्यणी के मैथुन संज्ञा कही है । सो कार्य रहित भूतपूर्वगति न्याय करि जाननी । जैसे कोऊ राजा था, वाकौं राजभ्रष्ट भए पीछे भी राजा ही कहिए है; तसे जाननी । सो भाव स्त्री भी नववा ताई ही है। इहां चौदह गुरगस्थान कहे, सो भूतपूर्वगति त्यायकरिता ही कहे हैं । बहुरि पाहारक ऋद्धि कौं जो प्राप्त भया, ताक भी वा परिहार विशुद्धि संयम विर्षे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर मन:पर्थय ज्ञान न हो है; जातें तैतीस वर्ष बिना सो परिहार विशुद्धि संयम होइ नाहीं। प्रथमोपशम सम्यक्त्व की इतनी स्थिति नाहीं। पर परिहार विशुद्धि संयम सहित श्रेणी न चढे, तातै द्वितीयोपशम सम्यक्त्व भी बनें नाहीं; तातें तिन दोऊनि का संयोग नाहीं संभव है। . .
. परलद्धिप्रपज्जत्ते, एक्को दु अपुण्णगो दु आलावो। . लेस्साभेदविभिण्णा, सत्तवियप्पा सुरदारणा ॥७१६॥
नरलब्ध्यपर्याप्ते, एकस्तु अपूर्णकस्तु' अरलागः . ... लेश्याविभिन्नानि, सप्तविकतानिासरस्थानानि ७१६॥
टोका - बहुरि लब्धि : अपर्याप्त मनुष्य निदाएकअपर्याप्त पालाप ही है । बहुरि लेश्या भेद करि भिन्न असे देवति के स्थानक सात हैं। ते कहै हैं ।
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। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७१७-७१५-७१६
___ भवनत्रिक देव, बहुरि सौधर्म युगल, बहुरि सनत्कुमार युगल, बहुरि ब्रह्मादिक छह, बहुरि शतारयुगल, बहुरि मानतादिक नवम वेयक पर्यंत तेरह, बहुरि अनुदिश, अनुत्तर दिमान चौदह, इनि सात स्थानानि विर्षे क्रम में तेज का जघन्यांश, बहुरि तेज का मध्यमांश, बहुरि तेज का उत्कृष्ट्रांश, पन का जघन्यांश, बहुरि पद्म का मध्यमांश, बहुरि पद्म का उत्कृष्टांश, शुक्ल का जघन्यांश, बहुरि शुक्ल का मध्यमांश, बहुरि शुक्ल का उत्कृष्टांश ए लेण्या पाइए हैं।
सव्वसुराणं ओघे, मिच्छबुगे अविरदे य तिणेव । णवरि य भवणतिकपित्थीणं च य अंविरदे पुण्णो ॥७१७॥
सर्बसुराणामोघे, मिथ्यात्वतिके अविरसे च य एव ।
नबरि च भयनत्रिकल्पस्त्रीणां च अविरते पूर्णः ।।७१७॥ टोका - सर्व सामान्य देव विर्षे मिथ्यादृष्टी सासादन, असंयत इनिविषं तीन तीन आलाप हैं । बहुरि इतना विशेष - जो भवनत्रिक देव पर कल्पवासिनी स्त्री, इनके असंयत विर्षे एक पर्याप्त पालाप ही है । जाते असंयत तियंच मनुष्य मरि करि तहां उपज नाहीं .
मिस्से पुण्णालाओ, अणुद्दिसाणुत्तरा हु ते सम्मा। अविरव तिण्णालावा, अणुहिस्साणुत्तरे होंति ॥७१६॥ मिश्रे पूर्णालापः, अनुदिशानुत्तरा हि ते सम्यक् ।
अविरते त्रय आलापाः, अनुदिशानुत्तरे भवंति ।।७१८॥ टोका - नव ग्रेवेयक पर्यत सामान्य देव, तिनिकै मिश्र मुणस्थान विर्षे एक पर्याप्त बालाप ही है । बहुरि अनुदिश भर अनुत्तर विमानवासी अहमिंद्र सर्व सम्यग्दृष्टी ही हैं । तातै तिनके असंयत विर्ष तीन पालाप हैं।
आगे इंद्रिव मार्गणा विर्षे कहै हैंबादरसहमेइंदिय-बि-ति-घउ-रिदियअसण्णिजीवारणं । अोघे पुण्णे तिण्ण य, अपुग्णगे पुण्ण अपुण्णो दु ॥७१६॥
बावरसूक्ष्मकेंद्रियद्वित्रिचतुरिट्रियासंशिजीवानाम् । ... प्रोघे पूर्णे त्रयन, अपूर्णके पुनः अपूर्णस्तु ।।७१६॥ . . .
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सम्यानमनिका भाषाटीका
टीका - बादर सूक्ष्म एकेंद्रिय, बहुरि बेंद्री, तेंद्री, चौंद्री, असैनी पंचेंद्री इनकी सामान्य रचना पर्याप्त नामकर्म का उदय संयुक्त, तीहि विर्षे तीन पालाप हैं। निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्था विष भी पर्याप्त नामकर्म ही का उदय जानना ।
सण्णी अोघे मिच्छे, गणपडिवण्णे य मलयालावा । शासिययुणे एककोऽपज्जत्तो होदि आलामो ॥७२०॥
संज्योधे मिथ्यात्वे, गुरगप्रतिपस्ने च भूलालापाः ।
लडध्यपूर्ण एकः, अपर्याप्तो भवति आलाएः ॥७२०॥ टीका - संनी पंचेंद्री तिर्यंच की सामान्य रचना विर्षे पंच गुणस्थान हैं। तिनि विर्षे मिथ्यादृष्टी में तो मूल में कहे थे, तेई तीन पालाप हैं । बहुरि जो विशेष गुण को प्राप्त भया, ताकै सासादन पर संयत विर्षे मूल में कहे ते तीन, तीनों आलाप हैं। मिश्र अर देशसंयत विर्षे एका पर्याप्त मालाप है । बहुरि सैनी लब्धि अपर्याप्त विर्षे एक लब्धि अपर्याप्त पालाप ही है ।
मार्ग कायमार्गरणा विर्षे दोय गाथानि करि कहै हैं - भू-आउ-तेउ-वाऊ-रिणच्चचदुग्गदि-णिगोदगे तिष्णि । तारणं यूलिदरसु वि, पत्तेगे तदुभेदे वि ॥७२१॥ तसजीवाणं अोधे, मिच्छादिगुणे विरोघ पालानो। लद्धिपुण्णे एक्कोऽपज्जत्तो होदि पालाओ ॥७२२॥ जुम्म।
भ्वप्तेजोबानित्यचतुर्गतिनिगोषके त्रयः । तेषां स्थूलेतरयोरपि, प्रत्येके सद्विभेदेऽपि ॥७२१॥ त्रसजीवामामोधे, मिथ्यात्वादिगुणेऽपि मोघ पालापः ।
लन्थ्यपूर्णे एकः, अपर्याप्तो भवत्यालापः ॥७२२।। युग्मम् । । टीका -- पृथ्वी, आप, तेज, वायु, नित्यनिगोद, चतुर्गतिनिगोद इनके बादरसूक्ष्म भेद, बहुरि प्रत्येक वनस्पती याके सप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित भेद, इनि सबनि विर्षे तीन-तीन आलाप हैं। बस जीवनि के सामान्य करि चौदह गुणस्थाननि विष,
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७५५ ]
[ गौम्मसार श्रीवकाम गाथा ७२३-७२४ गुरणस्थाननि विर्षे कहे तैसे ही आलाप हैं; किछ विशेष नाहीं । पृथ्वी प्रादि प्रस पर्यंत जो लब्धि अपर्याप्त है, ताके एक लब्धि अपर्याप्त हो आलाप हैं।
प्रागै योगमार्गणा विर्षे कहै हैंएक्कारसजोगाणं, पुण्णगदारणं सपुण्ण पालाओ। मिस्सचउक्कस्स पुणो, सगएक्कमपुण्ण पालाश्रो ॥७२३॥
एकादशयोगानों, पूर्णगतानों स्वपूर्णलापः ।
मिश्रचतुष्कस्य पुनः, स्वकैकापूरलापः ॥७२३॥ · टीका - पर्याप्त अवस्था- विर्षे होहि असे च्यारि मन, च्यारि वचन, औदारिक, वैक्रियक, आहारका इन ग्यारह योगनि के अपना-अपना एक पर्याप्त पालाप ही है। जैसे सत्य मनोयोग के सत्य मनःपर्याप्त आलाप है । अस सबनि के जानना। बहुरि अवशेष रहे च्यारि, मिश्रा योग, तितिक अपना अपना एक अपर्याप्त पालाप ही है । जैसे औदारिक मिश्र के एक औदारिक मिश्र अपर्याप्त मालाप है । जैसे सबनि के जानना ।
प्रागं अवशेष मार्गणा विर्षे कहै हैं - ' वेदादाहारो ति, य, सगुणाणाणमोध आलायो। णवरि य संढिच्छीण, पत्थि हु आहारगाण दुगं ॥७२४॥
वेदादाहार इति च, स्वगुणस्थानामामोध पालापः । ..
नवरि च षंढस्त्रीरणी, नास्ति हि आहारकानां द्विकम् ॥७२४॥ टीका - वेदमार्गरणा नै लगाइ आहारमार्गणा पर्यंत दश मार्गणानि विर्षे अपना अपना गुणस्थाननि को पालापनि का अनुक्रम गुणस्थान नि विर्षे कहे, तैसे ही जानना । इतना विशेष है जो भावनपुसक वा स्त्री वेद होइ अर द्रव्य पुरुष होइ असे जीव के आहारक, आहारकमिथ आलाप नाहीं है; जातें प्राहारक शरीर विर्षे प्रशस्त प्रकृतिक का ही उदय है। तहां वेदनि के अनिवृत्तिकरण का सवेद भाग पर्यंत गुणस्थान है । क्रोध, मान, माया, बादर लोभ इनिक अनिवृत्तिकरण के वेद रहित च्यारि भाग तहां पर्यंतः कम ते गुणस्थान हैं। सूक्ष्म लोभ के सूक्ष्म सांपराय ही है । कुमति, कुश्रुत, विभंग इनि के दोय गुणस्थान हैं । मति, श्रुत, अवधि के नव हैं।
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सम्ममानका भावाटीका ] . मनःपर्यय के सात हैं। केवलज्ञान के दोया हैं । असंयम के च्यारि हैं। देशसंयम के एक है। सामायिक, छेदोपस्थापना के च्यारि हैं। परिहार विशुद्धि के दोय हैं। . सूखसांपग एक है। यथाख्यात, चारित्र के च्यारि हैं । चक्षु, प्रचक्षु दर्शन के बारह हैं। अवधि दर्शन के नव हैं। केवल दर्शन के दोय हैं । कृष्ण, नील, कपोत लेश्या के च्यारि हैं । पीत पद्म के सात हैं । शुक्ल के तेरह हैं । भव्य के चौदह हैं। अभव्य के एक है । मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र के एक एक हैं । द्वितीयोशम सम्यक्त्व के आठ हैं । प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर वेदक के च्यारि है । क्षायिक के ग्यारह हैं । संज्ञी के बारह हैं । असंझी के एक है । प्राहारक के तेरह हैं । अनाहारक के पांच हैं । असे ए गुणस्थान कहे, तिन गुणस्थाननि विर्षे पालाप मूल में जैसे सामान्य गुणस्थाननि विर्षे अनुक्रमः करि. पालाप कहे थे, सही जानने ::
गुणजीवा पज्जती, पाणा सणा गइंदिया काया। जोगा वेदकसाया, गाणजमा दंसरणा लेस्सा ॥७२॥
भव्वा सम्मत्ता वि य, सम्णी पाहारगा य उवजोगा । . जोंग्गा पविदव्या, ओधावेसेसु समुदाय ॥७२६॥ जुम्म ।
गुणजीवाः पर्याप्तयः, प्राणाः संजाः गतींद्रियाणि कायाः ।.. . योगा देदकषायाः, ज्ञानयमा दर्शनानि लेश्याः ॥७२५॥ .::
भव्याः सम्यक्स्वान्यपि च, संजिनः प्राहोरकाश्योपयोगाः। ...
योग्याः प्ररूपितव्या, ओघादेशयोः समुदायम् ॥७२६।। युग्मम् ।' : टोका - गुरणस्थान चौदह, मूल जीवसमास चौदह, तहां पर्याप्त सात, अपर्याप्त साल, पर्याप्ति छह, तहां संशी पंचेंद्रिय के पर्याप्ति अवस्था विर्षे पर्याप्ति प्रकस्था संबंधी छह पर अंपर्याप्ति अवस्था विर्षे अपर्याप्त संबंधी छह, असंही या विकलत्रय के पर्याप्ति-अपर्याप्ति संबंधी पांच-पांच, एकेंद्री के च्यारि-च्यारि जानने।
प्राण - संजी पंचेंद्रिय के दश, तीहि अपर्याप्त के सात, असंज्ञी पंचेंद्री के नव तीहि अपर्याप्त के सात, चौइन्द्री के पाठ, तीहिं अपर्याप्त के छह, तेइन्द्री के सात, तीहि अपर्याप्त के पांच, बेइन्द्री के छह, ती हिं अपर्याप्त के च्यारि, एकेंद्रिय के च्यारि, तोहिं अपर्याप्त के तीन हैं। सयोग केवलो के वचन, काय, उस्वास, आयु ए व्यरि
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{ गोम्मटसार गोषका गामा ७२७-७२८ प्राण हैं । तिसही के वचन बिना तीन हो हैं । कायबल बिना दोय होय हैं । अयोगी के एक आयु प्रारण है।
बहुरि संज्ञा च्यारि, गति च्यारि, इन्द्रिय पांच, काय छह, योग पंद्रह तिनमें पर्याप्त अवस्था संबंधी ग्यारह, अपर्याप्त अवस्था संबंधी तीन मिश्र पर एक कार्माण ए च्यारि हैं । वेद तीन, कषाय च्यारि, शान आठ, संयम सात, दर्शन च्यारि, लेश्या छह, भव्य दोय, सम्यक्त्व छह, संज्ञी दोय, आहार दोय, उपयोग बारह, ए सर्व समु. च्चय गुणस्थान वा मार्गणा स्थाननि विर्षे यथायोग्य प्ररूपण करने ।
जीवसमास विर्ष विशेष कहैं हैं -
ओघे आदेसो वा सम्णीपज्जतगा हवे जत्थ । तत्य य उणवीसंता, इगि-बि-सि-गुणिदा हवे ठाणा ॥७२७॥
श्रोधे आदेश वा, संक्षिपर्यन्तका भवेयुर्यत्र ।
तमा कोलमिला, एकाद्वित्रिगुरिणता भवेपुः स्थानानि ।।७२७॥ टीका - गुरणस्थान का मार्गणास्थान विष जहां संज्ञी पंचेंद्री पर्यंत भूल चौदह जीवसमास निरूपण करिए, तहां उत्तर जीवसमास एक नै प्रादि देकरि उगणीस पर्यंत सामान्य करि, दोय पर्याप्त अपर्याप्त कार, तीन पर्याप्त, अपर्याप्त, लब्धि अप
प्ति करि गुरणे, एकन आदि देकरि उगरणीस पर्यत या दोय नै प्रादि देकरि अठतीस पर्यंत वा तीन नैं प्रादि देकर सत्तावनः पयंत जीवसमास के भेद हैं । ते सर्व भेद तहां जानने । सामान्य जीवसमास एक, स-स्थावर भेदते दोय, इत्यादि सर्वभेद जीवसमास अधिकार विर्षे कहे हैं; सो जानने । इनिकी एक, दोय, तीन करि गुरणे क्रमतें एक, दोय, तीन आदि उपरणीस, अठतीस सत्तावन पर्यंत भेद हो हैं ।
इहां से आगे गुणस्थानमार्गरणा विर्षे गुणस्थान, जीवसमास इत्यादि बीस भेद जोडिए है; सो कहिए है - :
वीर-मह-कमल-रिणग्गय-सयल-सुय-गहरण-पयउरण-समत्थं । । पमिऊण गोयममहं, सिद्धतालावमणुवोच्छं ॥७२८॥
थोरमुखकमलनिर्गतसकलश्रुतग्रहणप्रकटनसमर्थम् । नत्वा गौतममहं सिद्धांतालापमनुवक्ष्ये ॥७२॥
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सम्पज्ञानमनिका भावाटीको ।
[ ७६१
टीका - वर्धमान स्वामी के मुख कमल ते निकस्या असा सकाल शास्त्र महान गंभीर, ताके प्रकट करने की समर्थ असा सिद्धपर्यंत भालाप, सो श्रीगौतम स्वामी काँ नमस्कार करि मैं कहाँ छौ ।
तहां सामान्य गुणस्थान रचना विर्षे जैसे चौदह गुणस्थानवी जीव हैं । गुणस्थान रहित सिद्ध हैं। चौदह जीवसमास युक्त जीव हैं । तिनकरि रहित जीव हैं। छह-छह, पांच-पांच, च्यारि-च्यारि, पर्याप्ति, अपर्याप्ति युक्त जीव हैं । तिनकरि रहित जीव हैं । दश, सात, नव, सात, पाठ, छह, सात, पांच, छह, च्यार, च्यारि, तीन, च्यारि, दोय, एक प्राण के धारी जीव हैं । तिनकरि रहित जीव हैं। पंद्रह योग युक्त जीव' हैं। प्रयोगी जीव हैं। तीन वेद युक्त जीव हैं। तिनकरि रहित जीव हैं। च्यारि कषाय युक्त जीव हैं । तिनकरि रहित जीव हैं । पाठ ज्ञान युक्त जीव हैं। ज्ञान रहित जीव नाहीं। सप्त संयम युक्त जीव हैं। तिनकरि रहित जीव हैं । च्यारि दर्शन युक्त जीव हैं । दर्शन रहित जीव नाहीं । द्रव्य, भाव छह लेश्या युक्त जीव हैं । लेश्या रहित जीव हैं । भव्य या अभव्य जीव हैं । दोक रहित जीव हैं। छह सम्यक्त्व युक्त जीव हैं । सम्ययत्व रहित माहीं। संशी वा असंही जीव हैं। दोऊ रहित जीव हैं । आहारी जीव हैं। अनाहारी जीव हैं। दोऊ रहित नाहीं । साकारोपयोग वा अनाकारोपयोग वा युगपत् दोऊ उपयोग युक्त जीव हैं। उपयोग रहित जीव नाहीं हैं। अँसें अन्यत्र यथासंभव जानना।
अथ गुणस्थान वा मार्गणास्थाननि विर्षे यथायोग्य बीस प्ररूपणा निरूपणा
कीजिए है।
सो यन्त्रनि करि विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान का पालाप विर्षे जो जो प्ररूपणा पाइए, सो सो लिखिए हैं । तहां यन्त्रनि विर्षे असी सहनानी जाननी । पहिले तो एक बडा कोठा, तिस विष तौ जिस पालाप विर्षे बीस प्ररूपणा लगाई, तिसका नाम लिखिए है । बहुरि तिस कोठे के प्राण प्रागै बरोबरि बीस कोठे, तिनविषं प्रथमादि कोठे लें लगाइ, अनुक्रमात मुरणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञी, मति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संजी, प्राहार, उपयोग ए बीस प्ररूपणा जो जो पाइए, सो सो लिखिए है । तिनविष गुणस्थानार्दिक का नाम नाहीं लिखिए हैं। तथापि पहिला कोठाविषं गुणस्थान दुसरा विर्षे जीवसमास, तीसरा विषं पर्याप्ति इत्यादि बीसवां कोठा विर्षे उपयोग पर्यंत जानने । तहां तिनि कोनि विर्षे जहां जिस प्ररूपया का जितमा प्रमाण होइ, तितके
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पम्मरसार जीवका माथा ७२८
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ही का अंक लिख्या होइ, तहां तौं सो:प्ररूपणा सर्व जाननी । जैसे पहिले कोठे में चौदह का अंक जहां लिख्या होइ, तहां सर्व गुणस्थान जानने । दूसरा कोठे विर्षे जहां चौदह का अंक लिख्या होइ, तहां सर्व जीवसमास जानने से ही तृतीयादि कोठनि, विर्षे जहां छह, दश, च्यारि, च्यारि, छह, पंद्रह, तीन, च्यारि, आठ, सात, च्यारि, छह, दोय, छह, दोय-दोय बारह के अंक लिखे होइ, तहां अपने अपने कोठेनि विष सो सो प्ररूपणा सर्व जाननी । बहुरि जहां प्ररूपणा का अभाव होइ, तहां बिंदी लिखिए है । जैसे पहिले कोठे विषै जहां बिंदी लिखी होइ, तहां गुणस्थान का प्रभाव जानना । दूसरा कोठा विषं जहां हिंदी लिखी होइ, तहां जीवसमास का अभाव जानना । जैसे अन्यत्र जानना । बहुरि जहां प्ररूपणा विर्षे केतेक भेद पाइए, तहां अपने अपने कोठानि विषं जितने भेद पाइए, तितनेका अंक लिखिए है। बहुरि तिन भेदनि के नाम जानने के अथि नाम का पहिला अक्षर वा पहिले दोय आदि अक्षर वा दोय विशेषण, जानने के अथि दोऊ विशेषणनि के आदि के दोय अक्षर वा तिन अक्षरनि के प्रागै अपनी संख्या के अंक लिखिए है, सोई कहिए हैं
जितने गुणस्थान पाइए, तितने का अंक पहिले कोठे में लिखिए है । तिस अंक के नीचे तिन गुणस्थाननि का नाम जानने के अथि तिनके नामनि के प्रादि अक्षर लिखिए है । सो प्रादि अक्षर की सहनानी ते सर्व नाम जानि लेना।
___ तहां मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थाननि के नाम की असी सहनानी । मि । सा। मिश्र । अनि । देश । प्र। अप्र । अपू । अनि ।
सू क्षी । स । । :: . बहरि जहां आदि के असा लिख्या होइ, तहां मिथ्यादष्टि प्रादि जितने लिखे होइ, तितने गुणस्थान जानने । बहुरि जैसे ही दूसरा कोठा विर्षे जीवसमास, सो जीवसमास दोय.प्रकार पर्याप्त वा अपर्याप्त, तहां सहनानी असी । अ । बहुरि तहां सूक्ष्म, बादर, बेंद्री, तेंद्री, चोंद्री, प्रसंज्ञी, . संज्ञी, की सहनानी असी सू । बा । बें। तेचौं । ।सं। तहां सूक्ष्म के पर्याप्त, अपति दोऊ होंइ, तो सहनानी जैसी सूर पर्याप्त ही होइ तो सहनानी सी सूप. १. अपर्याप्त ही होइ तो असी सूत्र १ संज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त कीअसी सं.२. पर्याप्तः को जैसी संप:११ संज्ञी अपर्याप्त की, असी।सं १. सहजाती है। जैसे ही औरनि की जाननी .बहुरि जहां अपर्याप्त ही जीवसमास ! होइ, तहां... अपर्याप्त अंसाः लिखिए है। जहां पर्याप्त ही होइ, तहां 'पर्याप्त' असा लिखिए। है। बहुरि प्रमत्तः विलोपाहारक अपेक्षा, सयोगी विर्षे केवल
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। ७६३ समुद्धात अपेक्षा, पर्याप्त-अपर्याप्त जीवसमास जानने । बहुरि कायमार्गणा की रचना विर्षे जहां सत्तावन, अठ्याररावे, च्यारि से छह जीवसमास कहे हैं, ते यथासंभव पर्याप्त, अपर्याप्त सामान्य प्रालाप विष जानि लेने। बहुरि वनस्पती रचना विर्षे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित प्रत्येक बादर सूक्ष्म, नित्य-इतर निमोद के पर्याप्त अपर्याप्त की अपेक्षा यथासंभव जीवसमास बारह मैं आदि देकरि जानने ।
बहुरि तीसरा कोठा विर्षे पर्याप्ति, सो पर्याप्ति जितनी पाइए, तिनके अंक ही लिखिए है, नाम नाहीं लिखिए है । तहां जैसा जानना छह तौ संज्ञी पंचेंद्री के, पंच प्रसंशी या विकलत्रय के, च्यारि एकेंद्री के जानने । ते पर्याप्त पालाप विर्षे तो पर्याप्त जानने । अपर्याप्त आलाप विर्षे अपर्याप्त जानने । सामान्य श्रालाप विष ते दोय दीय बार जहां लिखे होह, तहां पर्याप्त, अपर्याप्त दोऊ जानने ।
बहरि चौथा कोठा विर्षे प्राण, ते प्राण जितने पाइए हैं तिनके अंक ही लिखिए है, नाम नाहीं लिखिए है। तहां असा जानना ।
पर्याप्त पालाप वि तौ दश संज्ञी के पर नव प्रसंज्ञी के पाट चौंद्रिी के, सात तेंद्री के, छह बद्री के, च्यारि एकेंद्रो के, बहुरि च्यारि सयोगी के, एक अयोगी का यथासंभव जानने । बहुरि अपर्याप्त आलाप विर्षे सात संज्ञी के, सात असंज्ञी के, छह चौद्री के, पांच तेंद्री के, च्यारि बेंद्री के, तीन एकेंद्री के, बहुरि दोय सयोगी के, यथासंभव जानने । बहुरि जहां सामान्य प्रालाप विर्षे ते पूर्वोक्त दोऊ लिखिए, तहां पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ जानने ।
बहुरि पांचवां कोठा विर्षे संज्ञा, तहां श्राहारादिक की असी सहनानी है प्रां । भ। मे। प। .
बहुरि छठा कोठा विर्षे गति, तहां नरकादिक की जैसी सहनानी है न । ति । म । दे।
बहुरि सातवां कोठा विर्षे इन्द्रिय, तहां एकेंद्रियादिक की असी सहनानी है ए।बें । तें। चौं। पं।
बहुरि पाठयां कोठा विर्षे काय, सो पृथ्वी आदि की औसी पृ । अ। ते। था। व। बहुरि पांचों ही स्थावरनि की असी-स्था ५. बहुरि प्रस की औसी त्र । सहनानी हैं।
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बहुरि नवम कोठा विषै
योग, तहां मन के व्यारि, तिनकी सी म ४ । वचन के व्यार, तिनकी अंसी व ४ काय के विषे श्रदारिकादिकनि की असी औ मि । वैमि । श्रा । श्रामि का 1 अथवा श्रदारिक, श्रदारिकमिश्र sfr दोऊनि की जैसी थौ २ । वैकि far को असी २ । श्राहारक द्विक की असी श्री २ | बहुरि सयोगी के सत्य, अनुभय, मन-वचन पाइए । तिनको जैसी म २ । २ । बहुरि बेंद्रियादिक के अनुभव वचन पाइए, साकी जैसी अतु व १ । सहनानी है ।
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बहुरि दशवां कोठा विर्षे वेद, तहां नपुंसकादिक की भैसी न। पु । स्त्री सहनानी है ।
बहुरि ग्यारहवां कोठा विषै कषाय, तहां क्रोधादिक की अँसी क्ररे । मा । माया । लो ! सहनानी है । बहुरि बारह्नां कोठा विषे ज्ञान, तहां कुमति, कु, विभंग की असी कुम । कुश्रु । दि । श्रथवा इन तीनों की सी कुज्ञान ३ । बहुरि मतिज्ञानादिक की म । श्रु । अ । म । के । अथवा मति, श्रुत, अवधि तीनों की जैसी मत्यादि ३ । मति श्रुत, अवधि, मन:पर्यय की असी भत्यादि ४ । सहनानी है।
बहुरि तेरहवां कोठा विषै संयम, तहां संयमादिक की जैसी अ । दे । सा । छे । प । सू । य । सहनानी है ।
afraterni कोठा विषे दर्शन, तहां चक्षु आदि की असी च । श्रव । ग्रवः के । अथवा चक्षु अचक्षु अवधि तीनों की असी चक्षु आदि ३ सहनानी है ।
बहुरि पंद्रह्वां कोठा विषै लेश्या, तहां द्रव्य लेश्या की सहनानी सीद्र । याके आगे जितनी द्रव्य लेश्या पाइए, तितने का अंक जानना । बहुरि भाव लेश्या की सहनानी असी भा । याके आगे जितनी भावलेश्या पाइए तितने का अंक जानना । दोक ही जागे कृष्णादिक नामनि की असी । नी । क । इनि तीनों की असी अशुभ ३ | तेज आदिक की जैसी ते । पशु । इन तीनों की वैसी शुभ ३ । सहनानी जाननी ।
बहुरि सोलहवां कोठाविषं भव्य, सो भव्य अभव्य की जैसी भ । श्र । सहनाती है।
सतरहवां कोठा विषै सम्यक्त्व, तहां मिथ्यादिक की असी मि । सा । मिश्र | उ । वे । क्षा । सहनानी है ।
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बहुरि अगर कोठा लि संजी, जहां संत्री प्राज्ञी की जैसी सं । । सहनानी है।
बहुरि उगणीसवां कोठा विर्षे आहार, तहां पाहार-अनाहार की असी प्रा। अन । सहलानी है।
बहुरि बीसवां कोठा विर्षे उपयोग, तहां ज्ञानोपयोग - दर्शनोपयोग की असी ज्ञा। द । सहनानी है। असैं इन सहनानीनि करि यंत्रनि विर्षे कहिए है अर्थ सो नीक जानना ।
___ बहुरि जहां गुणस्थानवत् वा मूलाधवत् असा कह्या होइ, गुरणस्थान वा सिद्ध रचना विर्षे जैसे प्ररूपणा होइ, सैंसे यथसंभव जानना । बहुरि और भी जहां जिसवत् कह्या होइ, तहां ताके समान प्ररूपणा जानि लेना । तहां जो किछू जिस कोठा विर्षे विशेष कह्या होइ, सो विशेष जानि लेना । बहुरि जहां स्वकीय असा कया होइ, तहां जिसका पालाप होइ, तहां तिस विर्षे संभवती प्ररूपणा वा जिसका पालाप कीजिए, सो ही प्ररूपणा जानि लेना । बहुरि इतना कथन जानि लेना -
सम्वेसि सुहमाणं, काऊदा सम्बविग्महे सुक्का । सम्वो मिस्सो वेहो, कोदवसो हवे णियमा ॥१॥
इस सूत्र करि सर्व पृथ्वीकायादिक सूक्ष्म जीवनि के द्रव्यलेश्या कपोत है। 'विग्रहगति संबंधी कार्माण विषं शुक्ल है । मिश्र शरीर विर्षे कपोत है । असे अपर्याप्त आलापनि विर्षे द्रव्यलेश्या कपोत पर शुक्ल ही जानि लेना।
बहुरि द्वितीयादि पृथ्वी का रचना विषं लेश्या अपनी अपनी पृथ्वी वि संभवती स्वकीय जाननी ।
बहुरि मनुष्य रचना विर्षे प्रमत्तादिक विर्षे तीन भेद भाव अपेक्षा हैं । द्रव्य अपेक्षा 'एक पुरुषवेद ही है । बहुरि सप्तमादि गुणस्थाननि विर्षे आहार संज्ञा का प्रभाव, साता‘असाता वेदनीय की उदीरणा का अभाव तें जानना । बहुरि स्त्री, नपुंसक वेद का उदय होते आहारकयोग, मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम न होइ, असा जानना । बहुरि श्रेणी ते उतरि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी चतुर्थादि गुणस्थानकनि तें मरि देव होइ, तोहि अपेक्षा वैमानिक देवनि के अपर्याप्तकाल विर्षे उपशम सम्यक्त्व कहा है।
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बहुरि एकेंद्री जीवनि के पर्याप्त नामकर्म के उदय तें पर्याप्त, निर्वृत्तिअपर्याप्त अवस्था है। बहुरि अपर्याप्त नामकर्म के उदय तें लब्धि अपर्याप्तक हो है; जैसा जानना । बहुरि कायमार्गणा रचना विथें पर्याप्त, बादर, पृथ्वी, वनस्पती, त्रस के द्रव्यलेश्या छहो है। अप के शुक्ल, तेज के पीत, वायु के हरित वा गोमूत्र वा अव्यक्त वर्णरूप द्रव्य लेश्या स्वकीय जानना। बहुरि साधारण शरीर जानने के अर्थि गाथा
पुढबी आदि चउण्ह, केवलि आहारवेवरिपरयया ।
अपविद्रुिबाहु सब्बे, परिदिंगा हवे सेसा ॥१॥ पृथ्वी प्रादि च्यारि, अर केवली, माहारक, देव, नारक के शरीर निगोद रहित अप्रतिष्ठित हैं । अवशेष सर्व निगद सहित सप्रतिष्ठित हैं; असा साधारण रचना विष स्वरूप जानना।
बहुरि सासादन सम्यग्दृष्टी मरि नरक न जाय, तातें नारकी अपर्याप्त सासादन न होइ। बहुरि पंचमी मावि पृथ्वी के श्राये अपर्याप्त मनुष्यनि के कृष्ण नील लेश्या होते वेदक सम्यक्त्व हो है, जाते कृष्ण -नील लेश्या की रचना विर्ष अपर्याप्त आलाप विषं मनुष्यगति कहिए है । बहुरि पर्याप्त विर्षे कृष्णलेश्या नाहीं । अपर्याप्त में मिश्रगुणस्थान नाहीं, तातें कृलेश्या का मिश्रगुणस्थान विर्षे देव बिना तीन गति हैं । इत्यादिक यथासंभव अर्थ जानि यंत्रनि करि कहिए है अर्थ, सो जानना । अथ यन्त्र रचना
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अनि रचना सायाश्यप मुष्ण सूक्ष्म सांपश्यससवा रचना
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सभ्यताका भाषाटोका ]
मणपज्जय परिहारो, पढमुदसम्मत दोणि श्राहारो । एवेसु एक्कपगदे, णत्थि ति असयं जाते ||७२६॥
मन:पर्ययपरिहारी, प्रथमोपसम्यक्त्वं द्वावाहारों ।
एतेषु एकप्रकृते, नास्तीति अशेषकं जानीहि ।।७२६॥
टीका - मन:पर्यय ज्ञान श्रर परिहारविशुद्धि संयम पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर आहारकद्विक योग, इनि व्यारों विषै एक कोई होत संत श्रवशेष लोन न होंइ, भैसा नियम है ।
रामसर रोडीयोदिषि षिदावीसु । सग-सग-लेस्सा-मरिदे देवअपज्जत्तगेव हवे ||७३०॥
द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं श्रेषितोऽवतीर्णेऽविरतादिषु । स्वकस्वक लेश्यामृते देवापर्याप्तक एव भवेत् ॥७३० ॥
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टीer + उपशम श्रेणी तें संक्लेश परिणामनि के वशर्तें नीचे प्रसंयतादि गुणस्थाननि विषे उतरे । ते असंयतादिक अपनी अपनी लेश्या करि जो मरें, तो अपर्याप्त असंयत देव होंइ नियमकरि जाते देवायु का जाकें बंध भया होइ, तोहि बिना अन्य जीव का उपशम श्रेणी विषं मरण नाहीं । अन्य आयु जाके बंध्या होइ, ताकेँ देशसंयम, सकल संयम भी न होइ । तातें सो जीव अपर्याप्त असंयत देव ही है । तिन विषे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व संभव है; तातें वैमानिक अपर्याप्त देव विष उपशम सम्यक्त्व का है ।
सिद्धाणं सिद्धूगई, केवलरणारणं च दंसणं खयियं । सम्मत्तमणाहार, उवजोगणिय कम उत्ती ॥७३१॥
[ ८५५
सिद्धानां सिद्धगतिः, केवलज्ञानं च दर्शनं क्षायिकं । सम्यक्त्वमनाहारमुपयोगानायमप्रवृत्तिः ॥१७३१।।
टीका - सिद्ध परमेष्ठी, तिनके सिद्धगति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, अनाहार कर ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग की अनुक्रमता करि रहित प्रवृति ए प्ररूपणा पाइए है
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मार्गदर्श
८५६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७३२-३४
गुणजीव ठाणरहिया, सण्णापज्जतिपाणपरिहीणा । सेवगणा, सिद्धा सुद्धा सदा होंति ॥७३२॥
गुणजीवस्थानरहिताः संज्ञापर्याप्तिप्राणपरिहीनाः । शेषनमार्गगोताः सिद्धाः शुद्धाः सदा भवति ॥७३२॥
- गुणस्थान वा चौदह जीवरामासनि करि रहित हैं । बहुरि च्यारि संज्ञा, छह पर्याप्ति, दश प्राणनि करि रहित हैं । बहुरि सिद्ध गति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, अनाहार इनि बिना श्रवशेष नव मार्गणानि करि रहित हैं । असे सिद्ध परमेष्ठी द्रव्यकर्म भावकर्म के प्रभाव तें सदा काल शुद्ध हैं ।
frera एत्थे, यापमाणे निरुत्तिप्रणियोगे । माइ वीसं भेयं, सो जाणइ अप्पसम्भावं ।।७३३ ॥
निक्षेपे एकार्थे, नयप्रमाणे निरुक्तचतुयोगयोः । मार्गयति विशं भेदं स जानाति श्रात्मसद्भावम् ॥७३३॥
टोका नाम, स्थापना, द्रव्य, भावरूप च्यारि निक्षेप बहुरि प्राणी, भूत, जीव, सत्व इनि च्यारयोनि का एक अर्थ है, सो एकार्थ । बहुरि द्रव्याथिक, पर्यायार्थिक नय; बहुरि मतिज्ञानादिरूप प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण, बहुरि जीव है, जीवंगा, जीया अँसा जीव शब्द का निरुक्ति । बहुरि
" कस्स के
कत्यवि केवचिरं कतिविहाय भावा"
कहा ? किसके ? किसकरि ? कहां ? किस काल ? के प्रकार भाव है । असें छह प्रश्न होते निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान इन छहों तें सावना, सो यह नियोग असे निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाण, निरुक्ति, नियोगनि विषै जो भव्य जीव गुरणस्थानादिक बीस प्ररूपणा रूप भेदनि कों जाने हैं, सो भव्य जीव आत्मा के सत-समीचीन भाव को जानें है ।
अज्जज्जसेण - गुरणगणसमूह संधारि प्रजियसेणगुरू । भुवणगुरू जस्स गुरू, सो रायो गोम्मटो जयदु ॥७३४॥
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सम्यग्ज्ञानवनिका भाषरटोका ]
प्रार्यसेनगुणगणसमूहसंधार्यजितसेनगुरुः ।
भुवनगुरुय॑स्य गुरुः स राजा गोम्मटो जयतु ॥७३४॥ टीका - आर्य जो आर्यसेन नामा आचार्य तिनके गुण पर तिनका गण जो संघ, ताका धरनहारा, असा जगत का गुरु, जो अजितसेन नामा गुरु, सो जिसका गुरू है जैसा गोम्मट नो मुंहाय रामा, यो जगलंत प्रवतौं ।
इहां प्रश्न -- जो जयवंत प्रवर्ती असा शब्द ती जिनदेवादिक पूज्य की कहना संभव, इहां अपने सेयक कौं प्राचार्यने असा कैसे कह्या ? .
ताका समाधन - जैसे इहां प्रवृत्ति विर्षे याचक श्रादि होन पुरुषकौं सुखी होहु इत्यादिक वचन कहै, सो इच्छापूर्वक नम्रता लीएं वचन हैं । तेसैं जिन देवादिक की जयवंत प्रवर्ती, असा शब्द कहना जानना । बहुरि जैसे पिता आदि पूज्य पुरुष पुत्रादिक कौं सुखी होहु इत्यादिक वचन कहै; सो आशीर्वाद रूप वचन हैं । तैसे इहां राजा की जयवंत प्रवतो, असा कहना युक्त जानना । इति प्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रयको जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका अनुसारि सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामा भाषाटीका विष जीवकाण्ड विर्षे प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा तिनिविर्षे
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। मोम्मटसार ओवका श्रिया कार्याटिको वृत्ति, चरिणश्रीकेशकैः कतिः ।
कृतेयभन्यथा किंचिद्, विशोध्यं तद्बहुश्रुतः ॥१॥ अथ संस्कृत टीकाकार के वचनदोहा- अभयचन्द्र श्रीमान के हेतु करी जो टोक ।
सोधो बहु श्रुतधर सुधी, सो रचना करि ठीक ॥१॥ चौपाई-केशव वौँ भव्य विचार । कर्णाटक टीका अनुसार ॥
संस्कृत टीका कोनी एहु । जो अशुद्ध सो शुद्ध करेहु ॥१॥ अथ भाषा टीकाकार के वचनदोहा- जीवका कौं जानिक, शानकांउमय होइ। .
निज स्वरूप में रमि रहै, शिवपद पार्य सोइ ।। सोरठा- मंगल श्री अरहंत सिद्ध साधु जिम धर्म नि । ... .मंगल च्यारि महंत एई हैं उत्तम शरण ।।
सवैया प्ररथ के लोभी ह का करिक सहास अति, अगम अपार ग्रंथ पारावार में पर। थाह लौ न आओ तहाँ फेरि कौन पात्रो पार, तात सूधे मारम ब आधे पार उतरै ।।
इहां परजत जीव कांडको है मरजाद, याके अर्थ जाने निज काज सब सुधरं । निजमति अनुसारि अर्थ गहि टोडर हू, भाषा बनवाई यात अर्थ यहाँ सगरे ।
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इनिदुमपंचे इगिपुरिसे बसीसे विषयं इगि इमिचितिवपण इगिवितिचखच इसबीसमोह इच्छिथरासिन्छ इंदियकाये इंदियकायाकरिष इंदियणोइंदिय इंदियममोहिणा इगियो इगिपुरिसे बत्तीस इमिर इगि इमिधिविचपरण इमियि तिचखप इसवीसमोह इच्छिदस सिष्छे इंदिपकाये इंदियकायाणि इंदिषपोइंदिय इंदियमणोहिया इह आदि बाहिया
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तज्जोमो सामनाएं तत्तो उदार ततो एगार तत्तोकामय तेलो लागुत्ताणं तत्तो लांतव तत्तो संखेज्ज नदेशागुलस्स सविषक्खो अंत तदियकसायु उललीनमथुग तव्यहीए परिमो तदिदियं कप्पा तराजुगारा तसजीवाएं तसरासिपूर्वनि तस्सममबद्ध तस्सरि इगि ससहीणो संसारी ताहि सव्वे सुस तहि सेसदेय लं सुद्धसलाया ताएं समयपबखा तारिसपरिणाम सिगुणा उत्तमुखा तिणकारिभिट्ठ तिमिासपोय तिप्खिसया छत्तीसा तिम्सियसछि तियहं दोण्हं दोण्हं सिक्षिपष पुष्ण
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दस सपणी दसणमोह दसरामोद दसणमोहब दंसमवयसामाइय दहिगुडमिय बा दिगम्छेदेणवाहित दिपणामदेरणयहिद दिवसो परखो दीवति जदो दुगलिगभवाहु दुगवारपाडादो पुविहषि प्रप वेवाएं भवहारा देवेहि सादिरेया देसविरदे देसाबहिवर स्सर देसावहिवर वन्वं देसहिप्रवर देसोहिमा देसोहिस्स य चोगुरगसिद्वाणु दोहं पंभ य दोसियभव देवेहिसायिरेको
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सावरकायपहुदो-सढो भावरकायम्पहुदी-परिणय भावरकस्यपदी-मदि पावरकायप्पहदी-अधि यावर कायष्प हुदी, अजोगि पावरकायप्पहदी, सजोगि थावरल पोश सु दम्वेद खेतं कालं दन्वं लेतं काल दग्धं शुषकमका दस पोदसा दस विहसम्धे
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परमावहिस्स परमावहिस्स परमोहिदव्य पालतिय उव पल्लसमकण पल्लासंखधरण पल्लासखेज्ज पल्लासखेज्न पल्लासखेजदिमा पहलासखेज्जा पस्सदि प्रोही पहिया जे छप्यु पुक्तरगहणे पुमालविवाह पुर्व विदगागरिण पुरुषी माऊ तेऊ पुतवी आदि पुबकी जलंप पुण्णजहणं पुरिसिन्छिसंद पुरुगुखभागे पुरुमहदारु पुब्बं जलथल पुवापुकपड्य पुहपुहक्कसाय पोग्गलदहि पोग्गलदल्या पोतजरायुज
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बहुषिहबहुप्प बादरमाक बावरतेकवाऊ बादरमुरगातेक बाबरपावरवादर बावरसुहमे बादरमुहमदयेण घाबर सुहमतेसि बादामहमेइंदिय बारसजलणु बादरसंजला बानीस सत्त भारतरतय बाहिरपारणेहिं वितिसप पुल विनिश्रापमाण मिविपुनसम विहितिहि अहिं बोले ओणीभूदे बेमन छप्पणे
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मरगण उवजोगा मरिझमू-सउ-मम मज्झिमनसेण मझिमदन्वं खेतं. मझिमपदावर मणति जदो मणदग्धवस्मरणा मरादब्यवग्गणा मणपज्जवं प पाएं मणपज्जब्वं व मणपज्जय परिहारो ममधयमाण ममबयणाणं मलसहियाणं मसुसिणिपमत्त मविप्रावरण मदिसुदरोहि मंधों बुद्धिविहीर भरण पत्य मरदिनसंखेज्य मसुरंबुद्धिा मायालोहे मिमरत वेदंतो मिछाइदिड जीदो मिछाही जीवो मिच्छाइदठी पाया मिच्छा साथम मिच्छे खलु मिच्छे चोद्दस जीवा मिच्छे सासरण मिच्छोदयेण मिच्छो सासरा मिष्लो सासरण मिस्सो मिस्सुक्ष्ये सम्मिस्सं मिस्से पुण्णालामो मीमसदि जो पुवं
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________________ 12] गाथा At गामा सं. पृष्ठसं. माया साथा सं० पृष्ठ 414 282 208 344 सो संजम ण गिसोहम्मेसारण सोहम्मादासारं सोहम्मीसारमा 205 711 .766 307 202 737 660 157 443 563 सुहदुरखसुबह सुहमेसु संख सुहौदरगुण सुहमणिपाते सहसो सुहम सेती सूई अंगुस सेढी सुई पल्ला सेनाकिण्हे मदद सेसहारसमा सोलसंसय सोलसर रख मोदक्कमाणुर्वक्कम 685 263 112227 128 :276 154 002 516 336 627 266 602 482 705 402 हेठिमउक्कसं हेवा बेसि हेठिमप्पुढवी हेटिमलप्पुढचीरणं होति अगिर्याटणी होति खरा इगि होदि प्रतिम DAHIGH WWW 630 - 700 जैसाकेवलज्ञान द्वारा जाना वैसा करणानुयोग में व्याख्यान है तथा केवलज्ञान द्वारा तो बहुत जाना परन्तु जीव को कार्यकारी जीव-कर्मादिक का व त्रिलोकादिक का ही निरूपण इसमें होता है / तथा उनका भी स्वरूप सर्व निरूपित नहीं हो सकता, इसलिए जिस प्रकार बचनगोचर होकर छदमस्थ के ज्ञान में उनका भाव भासित हो, उस प्रकार संचित करके मिरुपण करते हैं। यहां उदाहरण---जीव के भावों की अपेक्षा गुरणस्थान कहे हैं, वे भाव अनन्तस्वरूप सहित वचनगोचर'नहीं हैं, वहां बहत भावों की एक जाति करके चौदह गुणस्थान कहे हैं। तथा जीवों को जानने के अनेक प्रकार हैं, वहाँ मुख्य चौवह मार्गपा का निरुपण किया है / तथा कर्म परमाणु असन्त प्रकार शक्ति युक्तं हैं; उनमें बहुतों की एक "जाति करके पाठ व एक सौ अडतालीस प्रकृतिमा कही है। तथा त्रिलोक में अनेक रवनाएं हैं वहाँ कुछ मुख्य रचनाओं का निरूपण करते हैं। तथा प्रमाण के अनन्त भेद हैं, यहाँ "संख्यातादि तीन भेद व इनके इक्कीस भेद निरूपित किये हैं / इसी प्रकार अन्यत्र जानना / पं. टोडरमल : मोसमा प्रकाशक, पृष्ठ सं० 275