________________
७६६ ]
[ गोम्मटसार जीनकापड गया ७२८
बहुरि एकेंद्री जीवनि के पर्याप्त नामकर्म के उदय तें पर्याप्त, निर्वृत्तिअपर्याप्त अवस्था है। बहुरि अपर्याप्त नामकर्म के उदय तें लब्धि अपर्याप्तक हो है; जैसा जानना । बहुरि कायमार्गणा रचना विथें पर्याप्त, बादर, पृथ्वी, वनस्पती, त्रस के द्रव्यलेश्या छहो है। अप के शुक्ल, तेज के पीत, वायु के हरित वा गोमूत्र वा अव्यक्त वर्णरूप द्रव्य लेश्या स्वकीय जानना। बहुरि साधारण शरीर जानने के अर्थि गाथा
पुढबी आदि चउण्ह, केवलि आहारवेवरिपरयया ।
अपविद्रुिबाहु सब्बे, परिदिंगा हवे सेसा ॥१॥ पृथ्वी प्रादि च्यारि, अर केवली, माहारक, देव, नारक के शरीर निगोद रहित अप्रतिष्ठित हैं । अवशेष सर्व निगद सहित सप्रतिष्ठित हैं; असा साधारण रचना विष स्वरूप जानना।
बहुरि सासादन सम्यग्दृष्टी मरि नरक न जाय, तातें नारकी अपर्याप्त सासादन न होइ। बहुरि पंचमी मावि पृथ्वी के श्राये अपर्याप्त मनुष्यनि के कृष्ण नील लेश्या होते वेदक सम्यक्त्व हो है, जाते कृष्ण -नील लेश्या की रचना विर्ष अपर्याप्त आलाप विषं मनुष्यगति कहिए है । बहुरि पर्याप्त विर्षे कृष्णलेश्या नाहीं । अपर्याप्त में मिश्रगुणस्थान नाहीं, तातें कृलेश्या का मिश्रगुणस्थान विर्षे देव बिना तीन गति हैं । इत्यादिक यथासंभव अर्थ जानि यंत्रनि करि कहिए है अर्थ, सो जानना । अथ यन्त्र रचना
niraiminine
r
arian
Ruram-vasana