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सम्पमानवधिका भाषाटीफा ]
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बहुरि अगर कोठा लि संजी, जहां संत्री प्राज्ञी की जैसी सं । । सहनानी है।
बहुरि उगणीसवां कोठा विर्षे आहार, तहां पाहार-अनाहार की असी प्रा। अन । सहलानी है।
बहुरि बीसवां कोठा विर्षे उपयोग, तहां ज्ञानोपयोग - दर्शनोपयोग की असी ज्ञा। द । सहनानी है। असैं इन सहनानीनि करि यंत्रनि विर्षे कहिए है अर्थ सो नीक जानना ।
___ बहुरि जहां गुणस्थानवत् वा मूलाधवत् असा कह्या होइ, गुरणस्थान वा सिद्ध रचना विर्षे जैसे प्ररूपणा होइ, सैंसे यथसंभव जानना । बहुरि और भी जहां जिसवत् कह्या होइ, तहां ताके समान प्ररूपणा जानि लेना । तहां जो किछू जिस कोठा विर्षे विशेष कह्या होइ, सो विशेष जानि लेना । बहुरि जहां स्वकीय असा कया होइ, तहां जिसका पालाप होइ, तहां तिस विर्षे संभवती प्ररूपणा वा जिसका पालाप कीजिए, सो ही प्ररूपणा जानि लेना । बहुरि इतना कथन जानि लेना -
सम्वेसि सुहमाणं, काऊदा सम्बविग्महे सुक्का । सम्वो मिस्सो वेहो, कोदवसो हवे णियमा ॥१॥
इस सूत्र करि सर्व पृथ्वीकायादिक सूक्ष्म जीवनि के द्रव्यलेश्या कपोत है। 'विग्रहगति संबंधी कार्माण विषं शुक्ल है । मिश्र शरीर विर्षे कपोत है । असे अपर्याप्त आलापनि विर्षे द्रव्यलेश्या कपोत पर शुक्ल ही जानि लेना।
बहुरि द्वितीयादि पृथ्वी का रचना विषं लेश्या अपनी अपनी पृथ्वी वि संभवती स्वकीय जाननी ।
बहुरि मनुष्य रचना विर्षे प्रमत्तादिक विर्षे तीन भेद भाव अपेक्षा हैं । द्रव्य अपेक्षा 'एक पुरुषवेद ही है । बहुरि सप्तमादि गुणस्थाननि विर्षे आहार संज्ञा का प्रभाव, साता‘असाता वेदनीय की उदीरणा का अभाव तें जानना । बहुरि स्त्री, नपुंसक वेद का उदय होते आहारकयोग, मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम न होइ, असा जानना । बहुरि श्रेणी ते उतरि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी चतुर्थादि गुणस्थानकनि तें मरि देव होइ, तोहि अपेक्षा वैमानिक देवनि के अपर्याप्तकाल विर्षे उपशम सम्यक्त्व कहा है।
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