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[सम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४४६-४४७-४४८
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मनःपर्ययश्च ज्ञान, सप्तसु विरतेषु सप्तीनाम् ।
एकादियुतेषु भवेद्वर्धमानविशिष्टाचरणेषु ।।४४५॥
रीका - प्रमत्त प्रादि सात गुणस्थान विर्षे १. बुद्धि, २. तप, ३. वैक्रियिक, ४. औषध, ५. रस, ६... बल, ७. अक्षीण इनि सात रिद्धिनि विर्षे एक, दोय आदि रिद्धिनि करि संयुक्त, बहुरि वर्षमान विशेष रूप चारित्र के धारी जे महामुनि, तिनिके मनःपर्यय ज्ञान हो है; अन्यत्र नाहीं।।
इंदियरणोइंदियजोगादि, पेक्खिस्तु उजुमदी होदि । हिरवेक्खिय विउलमधी. ओहि वा होहि शिमरे ॥१४॥
इंद्रियलोइंद्रिययोगादिमपेक्ष्य ऋजुमतिर्भवति ।
निरपेक्ष्य विपुलमतिः, अवधिर्वा भवति नियमेन ॥४४६॥ टीका - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है। सो अपने वा अन्य जीव के स्पर्शनादिक इंद्री भर नोइंद्रिय मन पर मन, वचन, काय योग तिनिकी सापेक्ष तें उपज है । बहुरि विपुलमति मन:पर्यय है; सो अवधिज्ञान की सी नाई, तिनकी अपेक्षा बिना ही नियम करि उपजै है ।
पडिवादी पुण पढमा, अप्पडिवादी हु होदि बिदिया हूँ । सुद्धो पढमो बोहो, सुद्धतरो विदियबोहो दु ॥४४७॥
प्रतिपाती पुनः प्रथमः, अप्रतिपाती हि भवति द्वितीयो हि।
शुद्धः प्रथमो बोधः, शुद्धत्तरो द्वितीयबोधस्तु ।।४४७।। टीका - पहिला ऋजुमति मन:पर्यय है, सो प्रतिपाती है । बहुरि दूसरा विपुलमति मनःपर्यय है, सो अप्रतिपाती है । जाके विशुद्ध परिणामनि की घटवारी होइ, सो प्रतिपाती कहिये । जाकै विशुद्ध परिणामनि की घटवारी न होइ, सो अप्रतिपाती कहिये । बहुरि ऋजुमति मनःपर्यय तौ विशुद्ध है; जाते प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम से निर्मल भया है । बहुरि विपुलमति मनःपर्यय विशुद्धतर है; जात अतिशय करि निर्मल भया है।
परमणसि टिव्यमळं, ईहामदिरा उजुटिव्य लहिय । पच्छा पच्चक्खण य, उजुमविरणा जाणदे रिणयमा ॥४४॥
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