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सम्माजाचन्द्रिका भाषा टीका ]
परमनसि स्थितमर्थमीहामत्या ऋजुस्थितं लक्ष्याः ।
पश्चात् प्रत्यक्षेण च, ऋजुमतिना जानोते. नियमात् ।।४४८॥ ... टीका -- पर जीव के मन विष सरलपर्ने चितवन रूप तिष्ठता जो पदार्थ, ताकौं पहले तो ईहा नामा मतिज्ञान करि प्राप्त होइ, असा विचार कि याका मन विर्षे कहा है, । पीछे ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान करि तिस अर्थ की प्रत्यक्षपने करि ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी जाने है, यह नियम है।
चितियचितियं वा, अद्ध चितियमणेयभेयगयं । अोहिं वा विउलमबी, लाहिऊण विजाणए पच्छा ॥४४॥
वितिसमचितितं का, अर्ध चितितमनेक भेवगतम् । __ अवधि; विपुलमतिः, लखवा विजानाति पश्चात् ।।४४९।।
टीका - प्रतीत काल विर्षे चिंतया वा अनागत काल विष जाका चितवन होगा, असा दिना चितया वा वर्तमान काल विष किछ एक आधासा. चितया असा अन्य जीव का मन विर्षे तिष्ठता अनेक भेद लीएं अर्थ, वाकौं पहिलै प्राप्त होई; वाका मन विर्षे यह है, जैसा जानि । पीछे अवधिज्ञान की नाईं विपुलमति मनःपर्ययज्ञान तिस अर्थ कौं प्रत्यक्ष जान है ।
दव्वं खेत्तं कालं, भावं पडि जीवलक्खियं रूवि । उजविउलमदी जारपदि, अवरवरं मझिमं च तहा ॥४५०॥
द्रव्यं क्षेत्रं कालं, भावं प्रति जीवलक्षितं रूपि ।
ऋजुविपुलमती जानीतः प्रवरवरं मध्यमं च तथा १४५०।। - टीका - द्रव्य प्रति वा क्षेत्र प्रति वा काल प्रति का भाव प्रति जीव करि लक्षित कहिये चितवन कीया हूवा जो रूपी पुद्गल द्रव्य वा पुद्गल के संबंध कौं धरै संसारी जीव द्रव्य, ताकी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद करि ऋजुमति या विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान जाने है।
अवरं दध्वमुरालियसरीरणिज्जिएणसमयबद्ध तु । चक्विवियरिणज्जरपणं, उक्कस्सं उजुमदिस्स हवे ॥४५१॥