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सम्यग्ज्ञानन्द्रिका भावाटीका ]
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प्राप्त भया अर्थ, ताकी पर्येति कहिए जानें, सो मन:पर्यय है, औसा कहिए है । सो इस ज्ञान की उत्पत्ति मनुष्य क्षेत्र ही विषं हैं, बाह्य नाहीं है ।
पराया मन विषै तिष्ठता जो अर्थ, सो मन कहिए । ताकौ पर्येति, कहिए जानें, सो मन:पर्यय जानना ।
मणपज्जवं च दुविहं, उजुविउलमदित्ति उजुमदी तिविहा । उज्जुमणवणे काए, गवत्थविसया त्ति नियमेण ॥ ४३६ ॥
मन:पर्ययश्च द्विविधः, ऋजुविपुलमतीति ऋजुमतिस्त्रिविधा । ऋजुमनोचने काये, गतार्थविषया इति नियमेन ॥ ४३९||
टीका - सो यहु मन:पर्यय - ज्ञान सामान्यपने एक प्रकार है, तथापि भै दो प्रकार है - ऋजुमति मन:पर्यय, विपुलमति मन:पर्यय ।
वहां सरलपने मन, वचन, काय करि कीया जो अर्थ अन्य जीव का मन विषै चितवनरूप प्राप्त भया ताके जानने तें निष्पन भई, असी ऋन्धी कहिए सरल हैं मति जाकी, सो ऋजुमति कहिए ।
बहुरि सरल वा वक्र मन, वचन, काय करि कीया जो अर्थ अन्य जीव का मन विषै चितवनरूप प्राप्त भया, ताके जानने ते निष्पन्न भई वा नाही नाई निष्पन्न भई असी fayer कहिए कुटिल है मति जाकी, सो विपुलमति कहिए। जैसे ऋजुमति श्रर विपुलमति के भैद तैं मन:पर्ययज्ञान दोष प्रकार है ।
तहां ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान नियम करि तीन प्रकार है । ऋजु मन विष प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा बहुरि ऋजु वचन विषै प्राप्त भया श्रर्थ का जानत हारा, बहुरि ऋजुका विषै प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा से ए तीन भेद हैं ।
विउमदी वि य छद्धा, उजुगाणुजुवयणकायचित्तमय' । अत्थं जाणदि जम्हा, सद्दत्थगया हु ताणत्था ॥ ४४० ॥
बिपुलमतिरपि च षोढा, ऋजुगानृजुवचनकायचित्तंगतम् । प्रथं जानाति यस्मात् शब्दार्थगता हि तेषामर्थाः ॥ ४४० ॥