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उन्नीसा अधिकार : श्राहारमारणा-अरूपरणा
७२६-७२४
साहार का स्वरूप आहारक नाहारक भेद, समुवात के भेद, समुद्घात का स्वरूप माहारक और अनाहारक का काल प्रमाण, आहारमार्गणा में जीवसंख्या ७२८-७२६ बीसवां अधिकार : जपयोग-प्ररूपणा
७३०-७३२ उपयोग का स्वरूप, भेद तथा सत्तर भेद, सातार मनाकार उपयोग की विशेषता उपयोगाधिकार में जीवसंख्या ७३०-७३२ इवकीसवां अधिकार: अन्तर्भावाधिकार
७३३-७५० गुणस्थान और मागंणा में मेष
प्ररूपणाओं का अन्तर्भाव, मार्गणाओं में जीवसमासादि
७२३-७४१ गुरास्थानों में जीवसमासादि मार्गणाओं में जीवसमास
७४१-७५० बाईसवां अधिकार: आरमायाधिकार
७५१-८५८ नमस्कार और मालापाधिकार के कहने की प्रतिज्ञा
७५१ गुणस्थान और भाषाओं के पालापों की संख्या, गुरवस्थानों में पालाप, नीम की विशेषता. बीस भेदों की योजना प्रावश्यक नियम - ७५१-७६५ बंध रचना
७६७-०५५ गुणस्थानातीत सिद्धों का स्वरूप, धीस भेदों के जानने का उपाय, अन्तिम आशीर्वाद
विषयजनित जो सुख है वह दुस्ख ही है क्योंकि विषय-सुख परनिमित्त से होता है, पूर्व और पश्चात् तुरन्त ही याकुलता सहित है और जिसके नाश होने के अनेक कारण मिलते ही हैं, आगामी नरकादि दुर्गगति प्राप्त करानेवाला है""ऐसा होने पर भी वह तेरी चाह अनुसार मिलता ही नहीं, पूर्व पुण्य से होता है, इसलिए विषम है। जैसे खाज से पीड़ित पुरुष अपने अंग को कठोर वस्तु से खुजाते हैं वैसे ही इन्द्रियों से पीड़ित जीव उनको पीड़ा सही न जाय तब किंधितमात्र जिनमें पीडा का प्रतिकार सा भासे ऐसे जो विषयसूख उनमें झपापात करते हैं, वह परमार्थ रूप सुख नहीं, और शास्त्राभ्यास करने से जो सम्बरज्ञान हुआ उससे उत्पन्न प्रानन्द, यह सच्चा सुख है। जिससे वह सुख स्वाधीन है, भाकुलता रहित है, किसी द्वारा नष्ट नहीं होता, मोक्ष का कारण है, विषम नहीं है। जिस प्रकार खाज की पीड़ा नहीं होती तो सहज ही सूखी होता, उसी प्रकार वहाँ इन्द्रिय पीड़ने के लिए समर्थ नहीं होती तब सहज ही सुख को प्राप्त होता है। इसलिए विषयसुख को छोड़कर शास्त्राभ्यास करना, यदि सर्वथा न छूटे तो जितना हो सके उतना छोड़कर शास्त्राभ्यास में तत्पर रहना।
इसी ग्रन्थ से
प्ठ- १३३१४