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[ गोम्मटसार जीवकाम माया ५०१-५०२-५०३ एक में अनन्तभागादिक षट्स्थान संभव हैं। तहां अशुभ रूप तीन भेदनि विषं तो उत्कृष्ट से लगाई जघन्य पर्यंत असंख्यात लोक मात्र बार षट् स्थानपतित संक्लेश हानि संभव है। बहुरि शुभरूप तीन भेदनि विर्षे जघन्य तें लगाइ, उत्कृष्ट पर्यंत असंख्यात लोकमात्र बार षट्स्थान पतित विशुद्ध परिणामनि की वृद्धि संभव है । परिणामनि की अपेक्षा संक्लेश विशुद्धि के अनंतानन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं; तिनकी अपेक्षा षट्स्थानपतित वृद्धि - हानि जानना।
असहारणं वर-मज्झिम-प्रवरंसे किण्ह-शील काउलिए। परिणमदि कमेणप्पा, परिहाणोदो किलेसस्स ॥५०१॥
प्रशुभानां वरमध्यमावरांशे कृष्णनीलकापोतत्रिकानाम् ।
परिणमति क्रमेरमात्मा परिहानितः क्लेशस्य ।।५०१॥ टीका -- जो संक्लेश परिणामनि की हानिरूप परिणमै , तौ अनुक्रम ते कृष्ण के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंशः; नील के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश; कपोत के उत्कृष्ट, मध्यम, अघन्य अंश रूप परिणब है।
काऊ पीलं किण्हं, परिणमदि किलेसवढिदो अप्पा । एवं किलेसहाणी-वड्ढीयो होदि असुहतियं ॥५०२॥
कापोतं नीलं कृष्णं, परिणमति क्लेशद्धित आत्मा ।
एवं क्लेशहानि-वृद्धितो भवति अशुभत्रिकम् ॥५०२३॥ टीका - बहुरि जो संक्लेश परिणामनि को वृद्धिरूप परिणमैं तो अनुक्रम तें कपोतरूप, नीलरूप, कृष्णरूप परिणवै है । जैसे संक्लेश की हानि - वृद्धि करि तीन . अशुभ स्थान हो हैं।
तेऊ पडमे सुक्के, सुहाणमवरादि सगे अप्पा। सुद्धिस्स य वड्ढीदो, हारणीदो अण्णहा होदि ॥५०३।।
तेजसि पी शुक्ले, शुभानामवराधेशगे आत्मा । शुद्धश्च वृद्धितो, हानितः अन्यथा भवति ॥५०३॥
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