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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका
टीका - बहुरि जो विशुद्धपरिणामनि की वृद्धि होइ, तो अनुक्रम से पीत, पद्म, शुल्क के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंशरूप परिणव है । बहुरि जो विशुद्ध परिणामनि की हानि होइ, तो अन्यथा कहिए शुक्ल, पद्म, पीत के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश रूप अनुक्रम तें परिणवै है । इति परिणामाधिकारः ।
प्रागै संक्रमणाधिकार तीन गाथानि करि कहैं है -- संकमरणं सट्ठाण-परट्ठाणं होदि किण्ह-सुक्काणं । बड्डीसु हि सट्ठाणं, उभयं हाणिम्मि सेसउभये वि ॥५०४॥
संक्रमणं स्वस्थान-परस्थानं भवतीति कृष्णशुक्लयोः ।
वृद्धिषु हि स्वस्थानमुभयं हानौ शेषस्योभयेऽपि ॥५०४॥ टीका - संक्रमण नाम परिणामनि की पलटनि का है; सो संक्रमण दोय प्रकार है - स्वस्थानसंक्रमण, परस्थानसंक्रमण ।
तहां जो परिणाम जिस लेश्यारूप था, सो परिणाम पलटि करि तिसही सेश्यारूप रहै, सो तो स्वस्थान संक्रमण है।
बहुरि जो परिणाम पलटि करि अन्य लेश्या को प्राप्त होइ, सो परस्थान संक्रमण है।
तहां कृष्ण लेश्या अर शुक्ललेश्या की वृद्धि विर्षे तौ स्वस्थानसंक्रमण ही है; जाते संक्लेश की वृद्धि कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट अंश पर्यंत ही है । पर विशुद्धता की वृद्धि शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंश पर्यंत ही है । बहुरि कृष्णलेश्या पर शुक्ल लेश्या के हानि विर्षे स्वस्थानसंक्रमण परस्थानसंक्रमण दोऊ पाइए हैं। जो उत्कृष्ट कृष्णलेश्या ते संक्लेश की हानि होइ, तौ कृष्ण लेश्या के मध्यम, जघन्य अंशरूप प्रवते, तहां स्वस्थान संक्रमण भया, पर जो नीलादिक अन्य लेश्यारूप प्रवर्ते, तहां परस्थान संक्रमण भया । जैसे कृष्ण लेश्या के हानि विर्षे दोऊ संक्रमण हैं । बहुरि उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या ते जो विशुद्धता की हानि होइ, तौ शुक्ल लेश्या के मध्यम, जघन्य अंशरूप . प्रवते । तहां स्वस्थान संक्रमण भया । बहुरि पनादिक अन्य लेश्यारूप प्रवर्ते, तहां परस्थान संक्रमण भया । असे शुल्क लेश्या के हानि विर्षे दोऊ संक्रमण हैं ।