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सम्यानचन्द्रिका भावाटीका
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जापदि कज्जाकज्ज, सेयमसेयं च सध्व-सम-पासी। दय-दाण-रदो य मिदू, लक्खणमेयं तु वेउस्स ॥५१॥
जानाति कार्याकार्य, सेव्यमसेव्यं च सर्वसमदर्शी ।
दयादानरतश्च मृदुः, लक्षणमेतत्तु तेजसः ।।५१५॥ टीका - कार्य - प्रकार्य को जाने, सेवनेयोग्य न सेवनेयोग्य कौं जानें, सर्व विष समदर्शी होइ, दया - दान वि प्रीतिवंत होइ; मन, वचन, काय विर्षे कोमल होइ, असे लक्षण पीतलेश्यावाले के हैं।
चागी भद्दो चोक्लो, लज्जव-कम्मो य खमदि बहुग पि । साहु-गुरु-यूजण-रदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स ॥५१६॥
त्यागी भद्रः सुकरः, ज्युक्तकर्मा न क्षमते बहुकमपि ।
साधुगुरुपूजनरतो, लक्षरसमेतस्तु पह्मस्य ।।५१६॥ टोका - त्यागी होइ, भद्र परिणामी होइ, सुकार्यरूप जाका स्वभाव होइ, शुभभाव विर्षे उद्यमी रूप जाके कर्म होइ, कष्ट या अनिष्ट उपद्रव तिनको सहै, मुनि जन पर गुरुजन तिनकी पूजा विर्ष प्रीतिवंत होइ, असे लक्षण पद्मलेश्याकाले के हैं।
ण य कुणवि पक्खवायं, ण वि य रिगदाणं समो य सन्वेसि । णस्थि य राय-द्दोसा रणेहो वि य सुक्क-लेस्सस्स ॥५१७॥३
न च करोति पक्षपातं, नापि च निदानं समश्च सर्वेषाम् ।
नास्ति च रागद्वेषः स्नेहोऽपि च शुक्ललेश्यस्य ॥५१७॥ टीका --- पक्षपात न कर, निंदा न करें, सर्व जीवनि विर्षे समान होइ, इष्ट अनिष्ट विर्षे राम - दुष रहित होइ, पुत्र कलत्रादिक विर्षे स्नेह रहित होइ; जैसे लक्षरण शुक्ल लेश्यावाले के हैं। इति लक्षणाधिकार ।
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१. षखंडागम - बबला पुस्तक १, पृष्ठ ३६१, गाथा सं. २०६ । २. पखंडागम - अवना पुस्तक १, पृष्ठ ३९२, माथा सं. २०७ । ३. षट्खंडागम - अपना पुस्तक १, पृष् ३९२, गाथा से २०८