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सम्यम्झानाम्द्रका पीठिका । पूर्वस्पर्द्धकनि के अपूर्वस्पर्द्धक अर तिनकी सूक्ष्मकृष्टि करिए है, तिनका स्वरूप, विधान, प्रमाण, समय-समय सम्बन्धी क्रियाविशेष इत्यादिक का अर करी सूक्ष्मकृष्टि, ताकौं भोगवता सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान युक्त हो है, ताका वा तहां संभवते स्थितिअनुभागघात वा गुणश्रेणी प्रादि विशेष का वर्णन है ।
बहुरि प्रयोगकेबली का वर्णन है। तहां ताकी स्थिति का, शैलेश्यपना का, ध्यान का, तहाँ अवशेष सर्व प्रकृति खिपवाने का वर्णन है ।
बहुरि सिद्ध भगवान का वर्णन है । तहां सुखादिक का, महिमा का, स्थान . का, अन्य मतोक्त स्वरूप के निराकरण का इत्यादि वर्णन है । असे लब्धिसार क्षपणासार कथन की सूचनिका जाननी ।
बहुरि अन्त यि अपने किछ समाचार प्रगट करि इस सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की समाप्तता होते कृतकृत्य होइ पानंद दशा को प्राप्त होना होगा । असे सूचनिका करि ग्रंथसमुद्र के अर्थ संक्षेपपने प्रकट किए हैं।
इति सूचनिका ।
परिकर्माष्टक सम्बन्धी प्रकरण बहुरि इस करणानुयोगरूप शास्त्र के अभ्यास करने के अथि गणित का ज्ञान अवश्य चाहिये, जाते अलंकारादिक जानें प्रथमानुयोग का, गणितादिक जानें करणानुयोग का, सुभाषितादिक जानें चरणानुयोग का, न्यायादि जाने द्रव्यानुयोग का विशिष्ट ज्ञान हो है, तातै गरिणत ग्रंथनि का अभ्यास करना । पर न बनें तो परिकर्माष्टक तो अवश्य जान्या चाहिये । जाते याकौं जाणे अन्य गरिणत कर्मनि का भी विधान जानि तिनकौं जाने पर इस शास्त्र विष प्रवेश पावै । तातै इस शास्त्र का अभ्यास करने को प्रयोजनमात्र परिकर्याष्टक का वर्णन इहां करिए है
तहां परिकर्माष्टक विर्षे संकलन, व्यबकलन, गुरगकार, भागहार, वर्ग, घन, वर्गमूल, घनमूल ए पाठ नाम जानने । ए लौकिक गणित विर्षे भी संभव हैं, पर अलौकिक गरिणत विर्ष भी संभव हैं । सो लौकिक गणित तो प्रवृत्ति विर्षे प्रसिद्ध ही है । पर अलौकिक गणित जघन्य संख्यातादिक या पल्यादिक का व्याख्यान आगे जीवसमासाधिकार पूर्ण भए पीछे होइगा, तहां जानना । अब संकलनादिक का स्वरूप