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[ गोमतसार जीवकाण्ड गाया ५२८.५२६
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तेजो लेश्या का मध्यम अंश करि मरे, असे भोगभूमिया मिथ्यादृष्टी तिर्यच वा मनुष्य ते भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवनि विर्षे उपजें हैं । बहुरि कृष्ण - नील - कपोत - पीत इन च्यारि लेश्यानि के मध्यम अंशनि करि मरे, असे तिर्यच वा मनुष्य भवनवासी, ध्यंतर, ज्योतिषी बा सौधर्म - ईशान स्वर्ग के वासी देव, मिथ्यादृष्टी, ते बादर पर्याप्तक पृथ्वीकायिक, अप्कायिक वनस्पती कायिक विर्षे उपजें हैं। भवनत्रयादिक की अपेक्षा इहां पीत लेश्या जाननी । तियंच मनुष्य अपेक्षा कृष्णादि तीन लेश्या जाननी।
किण्ह-तियाणं मज्झिम-अंस-सुदा सेउ-वाउ-वियलेसु । सुर-णिरया सग-लेस्सहि, पर-तिरियं जांति सग-जोगं ॥५२॥
कृष्णप्रयाणां मध्यमांशमृताः सेजोवायुविकलेषु ।
सुरनिरयाः स्यकलेश्याभिः नरतियचं यान्ति स्वकयोग्यम् ॥५२८।। टीका - कृष्ण, नील, कपोत के मध्यम अंश करि मरे, असे तिर्यच वा मनुष्य ते तेजःकायिक वा बातकायिक विकलत्रय असनी पंचेंद्री साधारण वनस्पती, इनिविर्षे उपर्ज है । बहुरि भवनय आदि सर्वार्थसिद्धि पर्यंत देव अर धम्मादि सात पृथ्वी संबंधी नारकी ते अपनी-अपनी लेश्या के अनुसारि यथायोग्य मनुष्यगति वा तिर्यंचगति कौं प्राप्त हो हैं । इहां इतना जानना - जिस गति संबंधी पूर्व प्रायु बंध्या होइ, तिस ही मति विर्षे जो मरण होते जो लेश्या होइ, ताके अनुसारि उपजे है । जैसे मनुष्य के पूर्व देवायु का बंध भया, बहुरि मरण होते कृष्णादि अशुभ लेश्या होइ तौं भवनत्रिक विषै ही उपज है; असे ही अन्यत्र जानना । इति गत्यधिकारः ।
प्रागें स्वामी अधिकार सात गाथानि करि कहैं हैंकाऊ काऊ काऊ, गीला णीला य णोल-किण्हा य । किण्हा य परमकिण्हा, लेस्सा पढमादि पुढवीरणं ॥५२६॥
कपोता कपोता कपोता, नीला नीला च नीलकृष्णे च ।
कृष्णा च परमकृष्णा, लेश्या प्रथमादिपृथिवीनाम् ॥५२६॥ टीका - इहां भावलेश्या की अपेक्षा कथन है। तहां तारकी जीवनि के कहिए हैं – तहां धम्मा नामा पहिली पृथ्वी विर्षे कपोत लेश्या का जघन्य अंश है । वंशा दूसरी पृथ्वी विर्षे कपोत का मध्यम अंश है । मेधा तीसरी पृथ्वी विर्षे कपोत