________________
सम्यामचन्द्रिका भावाटीका ]
[ ૬ ૦૭
का उत्कृष्ट अंश श्रर नील का जघन्य अंश है । अंजना चौथी पृथ्वी विषै नील का मध्यम अंश है। अरिष्टा पांचवी पृथ्वी विषे नील का उत्कृष्ट अंश हैं, श्रर कृष्ण का जघन्य अंश है । मघवी पृथ्वी विषै कृष्ण का मध्यम अंश है । माघवी सातवीं पृथ्वी विषे कृष्ण का उत्कृष्ट अंश है ।
पर- तिरियाणं श्रोघो, इगि-विगले तिष्णि चत्र असणिस्स । सणि-प्रपुण्णग-मिच्छे, सासणसम्मे विप्रसुह-तियं ॥। ५.३० ॥
नरतिरश्वामोघः एकविकले तिस्रः चतस्र प्रसंज्ञिनः । संत्यपूर्णक मिथ्यात्वे सासादनसम्यक्त्वेऽपि प्रशुभत्रिकम् ||५३०||
टीका मनुष्य पर तियंचनि के 'ओघ' कहिए सामान्यपने कहीं ते सर्व लेश्या पाड़ए हैं। यहां एकेंद्री पर विकलत्रय इनके कृष्णादिक तीन अशुभ लेश्या हि पाइए हैं । बहुरि असैनी पवेंद्री पर्याप्तक के कृष्णादि च्यारि लेश्या पाइए हैं, जाते सैनी पंचेंद्री कपोत लेश्या सहित मरें, तौ पहिले नरक उपजें । तेजोलेश्या सहित मरें, तो भवनवासी र व्यंतर देवनि विषै उपवें । कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या सहित मरें, तो यथायोग्य मनुष्य तिर्यंच विषे उपजे तातें ताके व्यारि लेश्या हैं । बहुरि सैनी लब्धि अपर्याप्तक तियंत्र वा मनुष्य मिथ्यादृष्टी बहुरि श्रपि शब्द तें सनी लब्धि पर्याप्त तिथंच मनुष्य मिथ्यादृष्टी, बहुरि सासादन सुरणस्थानवती निर्वृति पर्याप्त तिर्यंच वा मनुष्य वा भवनत्रिक देव इनिविषे कृष्णादिक तीन अशुभ लेश्या ही हैं। तिर्यच भर मनुष्य जो उपशम सम्यग्दृष्टी होइ, ताके प्रति संक्लेश परिणाम होइ, तो भी देशसंयमीवत् कृष्णादिक तीन लेश्या न होंइ । तथापि जो उपशम सम्यक्त्व की विराधना करि सासादन होइ, ताक अपर्याप्त अवस्था विष तीन अशुभ लेश्या ही पाइए हैं ।
-
भोगापुण्णगसम्मे, काउस्स जहण्णियं हवे नियमा । सम्मे वा मिच्छे वा, पज्जते तिणि सुहलेस्सा ॥ ५३१ ॥
भters पूर्णसम्यक्त्वे, कापोतस्य जघन्यकं भवेन्नियमात् । erred मिथ्यात्वे वा पर्याप्ते तिस्रः शुभलेश्याः ॥५३१॥
टीका भोग भूमि विषे निर्वृति अपर्याप्तक सम्यग्दृष्टी जीव विषै कपोत लेश्या का जधन्य अंश पाइए है। जातें कर्मभूमिया मनुष्य वा तिर्यच पहिले मनुष्य