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सम्पाद्रिका माटोका ]
टीका - याप्रकार अक्षरात्मक जो पर्यासमास ज्ञान के भेद, तिनि वि षट्स्थान ( पतित ) वृद्धि प्रसंख्यात लोकमात्र बिरियां हो है । सो ही कहिए है - जो एक अधिक सूच्यंगुल का प्रसंख्यात भाम का वर्ग करि तिस ही के धन को गुरौं, जो प्रमाण होइ, तितने भेदनि विषै एक बार षट्स्थान होइ, तौ असंख्यात लोक प्रमाण पर्यायसमास ज्ञान के भेदनि विषै केती बार षट्स्थान होइ; असें त्रैराशिक करना । तहां प्रमाणराशि एक अधिक सूच्यंगुल के प्रसंख्यातवां भाग का वर्ग करि गुणित, ताहीका घनप्रमाण भर फलराशि एक, इच्छाराशि श्रसंख्यात लोक पर्यायमारा के स्थान का कौं गुणि, प्रमाण का भाग दीएं, जेवा लब्धराशि का प्रमाण भावे, तितनी बार सर्व भेदनि विषै षट्स्थान पतित वृद्धि हो है । सो भी असंख्यात लोक मात्र हो है । जातं असंख्यात के भेद घने हैं । तातें हीनाfur होते भी असंख्यात लोक ही कहिए। याप्रकार असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान वृद्धि कर वर्धमान जघन्य ज्ञान से अनंत भागवृद्धि लीएं प्रथम स्थान तें लगाइ, अंत का स्थान विष अंत का अनंत भागवृद्धि लीएं, स्थान पर्यंत जेते ज्ञान के भेद, ते ते सर्व पर्यायसमास ज्ञान के भेद जानने ।
अब इहांते मार्गे अक्षरात्मक श्रुतज्ञान को कहै हैं -
चरिमुव्वंकेण वहिद अत्थक्खरगुरिगदचरिममुष्वंकं । अत्थक्खरं तु गाणं, होदि ति जिहि मिहिद्धं ॥ ३३३॥१
चरमोकेर | वहितार्थाक्षरमुखितचर मोर्वकम् ।
प्रर्याक्षरं तु ज्ञानं भवतोति जिननिदिष्टम् ।।३३३॥
टीका - पर्याय समास ज्ञान विषै असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान कहे । तिनिविषे वृद्धि को कारण संख्यात, श्रसंख्यात, अनंत ते प्रवस्थित हैं; नियमरूप प्रमाण धरें हैं । संख्यात का प्रमाण उत्कृष्ट संख्यात मात्र असंख्यात का असंख्यात लोक मात्र, अनंत का प्रमाण जीवराशि मात्र जानना । बहुरि अंत का षट्स्थान विधे अंत का उर्वक जो अनंतभागवृद्धि, ताक लीएं पर्याय समास ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट भेद, तातें
rain कहिए, अनंत गुणवृद्धि संयुक्त जो ज्ञान का स्थान, सो श्रर्थाक्षर श्रुतज्ञान है । पूर्वे भ्रष्टांक का प्रमाण नियमरूप जीवराशि मात्र गुणा था, इहां अष्टांक का
१. षट्खंडागम - पवला पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की टीका ।