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| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १३०
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अंसी मनःपर्याप्ति है । बहुरि अनुभया पदार्थ का ग्रहण करना अर अनुभया पदार्थ का ग्रहण करने का योग्यपना का होना, सो मनःप्रारण है।
बहुरि नोकर्मरूप शरीर का संचयरूप शक्ति की जो संपूर्णता, सो जीव के योग्य काल विर्षे प्राप्त भई जो भाषा वर्गणा, तिनिकौं विशेष परिणमन को करणहारी, सो भाषा पर्याप्ति है।
बहुरि स्वर नामा नामकर्म का उदय है सहकारी जाकर, अंसी भाषा पर्याप्ति पूर्ण भए पीछे वचन का विशेषरूप उपयोगादिक का परिरामावना, तीहि स्वरूप वचन प्राण है।
___ बहुरि कायवर्गणा का अवलंबन करि निपजी जो प्रात्मा के प्रदेशनि का समुच्चयरूप होने की शक्ति, सो कायबल प्राण है।
बहुरि खल भाग, रस भागरूप परिणए नोकर्मरूप पुद्गलनि कौं हाड प्रादि स्थिररूप पर रुधिर आदि अस्थिररूप अवयव करि परिणमावने की शक्ति का संपूर्ण होना, सो जीव के शरीर पर्याप्ति है।
बहुरि उस्वास-निस्वास के निकसने की शक्ति का निपजना, सो आनपान पर्याप्ति है । बहुरि सासोरवास का परिणमन, सो सासोस्वास प्रारण है । अँसें कारणकार्यादि का विशेष करि पर्याप्ति पर प्राणनि विर्षे भेद जानना ।
प्रागें प्राण के भेदनि कौं कहै हैं - पंचवि इंदियपारणा, मरणवचकायेसु तिषिरण बलपाणा। आणापाणप्पाणा, आउगपारण होति दह पाणा ॥१३०॥ पंचापि इंद्रियप्राणाः, मनोवचःकायेषु त्रयो बलप्राणाः ।
आनपानप्राणा, प्रायुषकप्राणेन भवंति दश प्राणाः ।।१३०।।
टीका- पांच इंद्रिय प्राण हैं -- १. स्पर्शन, २. रसन, ३. वारण, ४. चक्षु, ५. श्रोत्र । बहुरि तीन बलप्राण हैं - १. मनोबल, २. वचनबल ३. कायबल । बहुरि एक पानपान कहिए सासोस्वास प्रारण है । बहुरि एक आयु प्रारण है। ऐसे प्राण दश . हैं, अधिक नाहीं है।
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