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| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७०८०७०१ २७१०
तो गुणस्थाननि विषं कहें हैं --
श्री मिच्छवि य, प्रयवपत्ते सजोगिठाणम्मि । rिoha य आलावा, सेसेसिक्को हवे रिगयमा ॥७०८ ॥
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ओधे मिथ्यात्वद्विकेऽपि च प्रयतप्रमत्तयोः सयोगिस्थाने । य एव चालाः शेषेो भवेत्रियमात् ।। ७०६ ।
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टीका - गुणस्थाननि विषे मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत, प्रमत्तः सयोगी इन विषे तीन तीन आलाप हैं । श्रवशेष गुणस्थाननि विषै एक पर्याप्त श्रालाप है forest |
इस ही अर्थ को प्रकट करें हैं
सामपरणं पज्जत्तमपज्जत्तं चेदि तिष्णि आलावा । दुवियप्पमपज्जत्तं लद्धी सिन्वत्तगं वेदि ॥७०६ ॥
- सामान्यः पर्याप्तः, अपर्याप्तवति श्रय श्रालापा 1. द्विकरूपोऽपर्याप्तो लब्धिनिवृतिका ति ॥७०९ ॥
टीका -- ते श्रालाप तीन हैं, सामान्य, पर्याप्ति, अपर्याप्त। जहां पर्याप्त-पर्याप्त दोऊ का समुदायरूप सामान्यपर्ने ग्रहण कीजिए, सो सामान्य श्रालाप है । बहुरि जहाँ पर्याप्त ही का ग्रहण होइ, सो पर्याप्त श्रालाप है। होइ, तहां अपर्याप्तालाप है । तहां अपर्याप्तालाप दोय यप्त १, एक निवृत्ति अपर्याप्त । जाका क्षुद्रभव प्रमाण पहिले ही मरण को प्राप्त होइ, सो लब्धि अपर्याप्त हैं । बहुरि जाके शरीर पर्याप्ति पूरण होगा यावत् पूर्ण न हुआ होई, तावत् निर्वृति अपर्याप्त है ।
जहां अपर्याप्त ही का ग्रहण प्रकार है एक लब्धि अपप्रायु होइ, पर्याप्ति पूर्ण भए
दुविहं पि अपज्जत्तं, ओोघे मिच्छेव होदि पियमेण । सासरयदपमत्ते, रिगव्यत्ति अपुण्गो होदि ॥ ७१० ॥
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द्विविधोप्यपर्याप्त, प्रोघे मिथ्यारय एवं भवंति नियमेन । सासावनाय प्रमत्तेषु नित्यपूको भवति ॥७१०
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