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। गोम्मसार औषकाम गाथा २६०-२६१
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बहरि बादर पर्याप्त वातकायिक जीव लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण कहे थे । तिनि विर्षे पल्य का असंख्यातवां भार प्रमाण जीव, विक्रिया शक्ति युक्त जानते । जाते 'बादरतेऊवाऊपंचेंदिययुषरणगा विगुब्धति' इस गाथा करि बादर पर्याप्त अग्निकालिक अर पचनकाशिक जीयान के क्रिषिक योग का सद्भाव कहा है ।
पल्लासंखेज्जाहविदंगुलगुणिदसेढिमेत्ता हु । वेगुब्वियपंचक्खा, भोगभुमा पुह बिगुब्बंति ॥२६०॥
पल्यासंख्याताहतवृंदांगुलगुणित श्रेरिणमात्रा हि।
वैविकपंचाक्षा, भोगभुमाः पृथक् विपूर्वति ॥२६॥
टीका - पल्य का असंख्यातवा भाग करि धनांगुल कौं गुणे, जो परिमाण होइ, ताकरि जगच्छे णी गुण, जो परिमाण आये, तितने वैक्रियिक योग के धारक पर्याप्त पंचेंद्री तिर्यंच वा मनुष्य जानने । तहां भोगभूमि विर्षे उपजे तिर्यच वा मनुष्य अर कर्मभूमि विर्षे चक्रवर्ती ए पृथक् विक्रिया की भी कर हैं । इनि विना सर्व कर्मभूमियानि के अपृथक् विक्रिया ही है ।।
जो मूलशरीर से जुदा शरीरादि करना, सो पृथक् विक्रिया जाननी । अपने शरीर ही कौं अनेकरूप करना, सो अपृथक् विक्रिया जाननी । वेहि सादिरेया, तिजोगिणो तेहिं हीण तसपुण्णा । बियजोगिणो तदूणा, संसारी एक्कजोगा हु ॥२६॥
देवः सातिरेकाः, त्रियोगिनस्तैीनाः असपूर्णाः ।
द्वियोगिनस्तदना, संसारिणः एकयोगा हि ।।२६१॥ टीका -- देवनि का जो परिमाण साधिक ज्योतिष्कराशि मात्र कह्या था; तीहि विर्षे धनांगुल का द्वितीय मूल करि मुरिणत जगच्छे,रणी प्रमाण नारकी पर संख्यात पणट्ठी प्रतरांगुल करि भाजित जगत्प्रतर प्रमाण संज्ञी पर्याप्त तिर्यच अर बादाल का धन प्रमाण पर्याप्त मनुष्य इनिकों मिलाएं, जो परिमाण होइ, तितने त्रियोगी जानने । इनिकै मन, बचन, काय तीनों योग पाइए हैं।
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