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सम्याशानसन्द्रिका भाषाढीका ]
[ २५६ टोका - १. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति ३. इंद्रिय पर्याप्ति, ४. प्रानपान कहिए श्वासोश्वास पर्याप्ति, ५. भाषा पर्याप्ति, ६. मनः पर्याप्ति असें छह पर्याप्ति हैं। इनिविर्षे एकेद्रिय के तौ भाषा पर मन विना पहिली च्यारि पर्याप्ति पाइये हैं । बेंद्री, तेंद्री, चौइंद्री, असैनी पंचेंद्री इनि विकल चतुष्क के मन विना पांच पर्याप्ति पाइए हैं। सैनी पंचेंद्रिय के छहों पर्याप्ति पाइए हैं ।
तहां औदारिक, वैक्नियिक, आहारक इनिविर्षे किस ही शरीररूप नाम कर्म की प्रकृति का उदय होने का प्रथम समय सौं लगाइ करि जो तीन शरीर वा छह पर्याप्तिरूप पर्याय परिणमने योग्य जे पुद्गलस्कंध, तिनिकौं खल-रस भागरूप परिरणमायने की पर्याप्ति नामा नामकर्म के उदय ते भई जैसी जो आत्मा के शक्ति निपजे, जैसे तिल कौं पेलि करि खलि अर तेलरूप परिणमा है, तैसें केई पुद्गल नै तो खलरूप परिणमावै, केई पुद्गल नै रसरूप परिणमावै हैं - असी शक्ति होने कौं आहार पर्याप्ति कहिए।
बहुरि खल-रस भागरूप परिणए पुद्गल, तिनिविर्षे जिनकौं खलरूप परिएमाए थे, तिनिकौं तौ हाड-चर्म इत्यादि स्थिर अवयवरूप परिणमा पर जिनिकौं रसरूप परिणमाए थे, तिनिकों रुधिर-शुक्र इत्यादिक द्रव अवयवरूप परिणमा - जैसी जो शक्ति होइ, ताकौं शरीर पर्याप्ति कहिए हैं।
बहुरि इंद्रियरूप मति, श्रुतज्ञान अर चक्षु, अचक्षु दर्शन का आवरण अर वीर्यातराय, इनिकै क्षयोपशम करि निपजी जो प्रात्मा के यथायोग्य द्रव्येंद्रिय का स्थानरूप प्रदेशनि ते वर्णादिक ग्रहणरूप उपयोग की शक्ति जाति नामा नामकर्म के उदय से निपज, सो इंद्रिय पर्याप्ति कहिए हैं ।
बहुरि तेवीस जाति का वर्गरणानि विर्षे आहार वर्गणारूप पुद्गल स्कंधनि को श्वासोश्वासरूप परिणमावने की शक्ति, श्वासोश्वास नामकर्म के उदय ते निपजे, सो श्वासोश्वास पर्याप्ति कहिए।
बहुरि स्वर नामा नाम कर्म के उदय लैं भाषा वर्गणारूप पुद्गल स्कंधान कौं सत्य, असत्य, उभय, अनुभय भाषारूप परिणमावने की शक्ति होइ, सो भाषा पर्याप्ति कहिए ।
बहुरि मनोवर्गणारूप जे पुद्गल स्कंध, तिनिकौं अंगोपांग नामा नामकर्म का बल तै द्रव्यमनरूप परिणमावने की शक्ति होय, तीहि द्रव्यमन का प्राधार ते मन