________________
सम्यग्ज्ञानन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४४३ टीका - मतिज्ञान का विषय दोय प्रकार एक व्यंजन, एक अर्थ । तहां जो विषय इंद्रियनि करि प्राप्त होइ, स्पर्शित होइ, सो व्यंजन कहिए । जो प्राप्त न होइ, सो अर्थ कहिए । तिनिका विशेष ग्रहणरूप व्यंजनावग्रह अरु अर्थावग्रह भेद प्रवर्ते हैं ।
इहां प्रश्न - जो तत्त्वार्थ सूत्र की टीका विर्षे ती अर्थ असा कीया है - जो व्यंजन नाम अव्यक्त शब्दादिक का है, इहां प्राप्त अर्थ की व्यंजन कह्या सो कैसे है ?
ताका समाधान - व्यंजन शब्द के दोऊ अर्थ हो हैं । विगतं अंजनं व्यंजन दूरि भया है अंजन कहिए व्यक्त भाव जाकै, सो व्यंजन कहिए । सो तत्त्वार्थ सूत्र की टीका विषं तो इस अर्थ का मुख्य ग्रहण कीया है । पर 'व्यज्यते प्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यंजन' जो प्राप्त होइ ताकौं व्यंजन कहिए । सो इहां यह अर्थ मुख्य ग्रहण कीया है। जातें अंजु धातु गति, व्यक्ति, सक्षण अर्थ विर्षे प्रवर्ते है । तातें व्यक्ति अर्थ का अर पक्षण अर्थ का ग्रहण करने ते कर्णादिक इंद्रियनि करि शब्दादिक अर्थ प्राप्त हूबे भी यावत् व्यक्त न होंइ, तावत् व्यंजनावग्रह है, व्यक्त भएं अर्थावग्रह हो है । जैसे नवा माटी का शरावा, जल की बूंदनि करि सींचिए, तहां एक दोय बार आदि जल की बंद व्यक्त न होड: शोषित होइ जाय%; बहुत बार जल की बंद परें, व्यक्त होइ, तैसे कर्णादिक करि प्राप्त हुवा जो शब्दादिक, तिनिका यावत् व्यक्तरूप ज्ञान न होइ, जो मैंने शब्द सुन्या, असा व्यक्त ज्ञान न होइ, तावत् व्यंजनावरह कहिए । बहुरि बहुत समय पर्यंत इंद्रिय अर विषय का संयोग रहैं; व्यक्तरूप झान भए अर्थावग्रह कहिए। बहुरि नेत्र इंद्रिय अरमन, ए दूरही ते पदार्थ की जान हैं; तात इनि दोऊनि के व्यंजनावग्रह नाहीं; अर्थावग्रह ही है ।
इहां प्रश्न - जैसे कर्णादिक करि दुरि ते शब्दादिक जानिए है, तैसे ही नेत्र करि वर्ण जानिए है, वाकौं प्राप्त कह्या, अर याकौं अप्राप्त कह्या सो कैसे हैं ?
ताका समाधान - दूरि जो शब्द हो है, ताकौं यह नाहीं जाने है। जो दरि भया शब्द, ताके निमित्त ते आकाश विर्षे जे अनेक स्कंध तिष्ठे हैं। ते शब्दरूप परिगए हैं । तहां कर्ण 'इंद्रिय के समीपवर्ती भी स्कंध शब्दरूप परिणए हैं, सो तिनिका करणं इंद्रिय करि स्पर्श भया है; तब शब्द का ज्ञान हो है। जैसे ही दुरि तिष्ठता सुगंध, दुर्गंध वस्तु के निमित्त ते पुद्गल स्कंध तत्काल तद्रूप परिणव हैं। तहां जो नासिका इंद्रिय के समीपवर्ती स्कंध परिणए हैं; तिनिके स्पर्श तें गंध का ज्ञान हो है। असे ही अग्न्यादिक के निमित्त ते पुद्गल स्कंध उष्णादिरूप परिणवै हैं; तहां जो