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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका मावासीका 1
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मैं जे आपसे टूटि करि जे पड़े फल, तिनको खास्यौं । असे मनपूर्वक जो वचन होइ सो तिन लेश्यानि का कर्म जानना । इहां एक उदाहरण कहा है, इस ही प्रकार अन्य जानने । इति कर्माधिकार ।
आगें लक्षणाधिकार नव गाथानि करि कहै हैं- : चंडो रण मुचदि वेर, भंडण-सोलो य धम्म-दय-रहिओ। दुको रग य एदि वसं, लक्खणमेयं तु किण्हस्स ॥५०॥
चण्डो न मुञ्चति वैरं, भण्डनशीलश्च धर्मदयारहितः ।
दुष्टो न च एति वशं, लक्षरणमेततु कृष्णस्य ।।५०६॥ टीका - प्रचंड तीव्र क्रोधी होइ, वैर न छोडै । भांडने का - युद्ध करने का जाका सहज स्वभाव होइ । दया धर्म करि रहित होइ । दुष्ट होइ । किसी गुरुजनादिक के वश्य न होइ, असे लक्षण कृष्ण लेश्यावाले के हैं।
मंदो बद्धि-विहीणो णिचिण्णारणी य विसय-लोलो य। माणी मायी य तहा, प्रालस्सो चेव भेज्जो य ॥५१०॥
मन्दो बुद्धिविहीनो, निविज्ञानी च विषयलोलश्च ।
मानी मायी च तथा, प्रालस्यः चैव भेद्यश्च ॥५१०॥ . टीका - स्वछंद होइ अथवा क्रिया विष मंद होइ, वर्तमान कार्य को न जानैं; असा बुद्धिहीन होइ, विज्ञान चातुर्य करि होन होइ, स्पर्शादिक विषयनि विर्षे अतिलपटी होइ, मानी होइ, मायावी, कुटिल होइ । क्रिया विष कुंठ होइ, जिसके अभिप्राय कौं और कोई न जाने, आलसी होइ, यहु सर्व कृष्ण लेण्यावाले के लक्षण हैं।
रिणद्दा-वचण-बहुलो, धण-धणे होदि तिव्व-सण्णा य । लक्खणमयं भणियं, समासदों णील-लेस्सस्स ॥५११॥३
निद्रावञ्चनबहुलो, धनधान्ये भवति तीवसंज्ञश्च । लक्षरसमेतद्धणितं, समासतो नीललेश्यस्य ॥५११॥
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१. पटखंडायम -पवता पुस्तक १, पृष्ठ ३९०, गाथा से...२००1 २. षट्खण्डागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६०, गांधा सं. २०१। ३. पट्खण्डागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६१, गाथा संख्या २०२१