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सम्यमानचन्तिका भाषाटोका ]
। ४० शरीर का धारक जीब, सो पर्याय का प्रथम समय से लगाइ अंत समय पर्यंत द्रव्य स्त्री होइ है।
बहुरि निर्माण नामा नामकर्म का उदय तें संयुक्त नपुंसक वेदरूप आकार का विशेष लीएं अंगोपांग नामा नामप्रकृति के उदय तें मछ, डाढी इत्यादि वा स्तन, योनि इत्यादिक दोऊ चिह्न रहित शरीर का धारक जीव, सो पर्याय का प्रथम समय से लगाइ अंत समय पर्यंत द्रव्य नपुंसक हो है ।
सो प्रायेण कहिए बहुलता करि तौ समान वेद हो है । जैसा द्रव्यवेद होइ तैसा ही भाव वेद होइ बहुरि कहीं समान वेद न हो है, द्रव्यवेद अन्य होइ, भाव वेद अन्य होइ । तहां देव अर नारकी अर भोग भूमियां तिर्यच, मनुष्य इनिकै तो जैसा द्रव्य वेद है, तैसा ही भाव वेद है । बहुरि कर्मभूमियां तिर्यच अर मनुष्य विर्षे कोई जीवनि के लौ जैसा द्रव्य वेद हो है, तैसा ही भाव वेद है, बहुरि केई जीवनि के द्रव्य वेद अन्य हो है अर भाव वेद अन्य हो है । द्रव्य तें पुरुष है पर भाव से पुरुष का अभिलाषरूप स्त्री वेदी है । वा स्त्री पर पुरुष दोऊनि का अभिलाषरूप नपुंसकवेदी है। जैसे ही । द्रव्य तें स्त्रीवेदी है अर भाव स्त्रीका अभिलाषरूप पुरुषवेदी है । वा दोऊनि का अभिलाषरूप नपुंसक वेदी है । बहुरि द्रव्य तें नपुंसक बेदी है ! भाव ते स्त्री का अभिलाषरूप पुरुष वेदी है । वा पुरुष का अभिलाषरूप स्त्री देदी है। जैसा विशेष जानना, जातै प्रागम विर्षे नवमा गुणस्थान का सवेद भाग पर्यंत भाव ते तीन वेद हैं । अर द्रव्य ते एक पुरुष वेद ही है, असा कथन कह्या है ।
बेबस्सुदीररणाए, परिणामस्स य हवेज्ज संमोहो। संमोहेण ण जाणदि, जीवो हि गुणं व दोषं वा ॥२७२॥
घेदस्योदोरणायां, परिणामस्य च भवेत्संमोहः ।
संमोहेन न जानाति, जीवो हि गुणं वा दोषं वा ।।२७२॥ टीका - मोहनीय कर्म की नोकषायरूप घेद नामा प्रकृति, ताका उदीरणा बा उदय, तीहि करि प्रात्मा के परिणामनि कौं रागादिरूप मैथुन है नाम जाका असा सम्मोह कहिए चित्त विक्षेप, सो उपज है । तहां बिना ही काल पाएं कर्म का फल निपजै, सो उदीरणा कहिए । काल पाएं फल निपड्रै, सो उदय कहिए । बहुरि उस सम्मोह के उपजने से जीव मुरण कौं वा दोष कौं न जान, असा अविवेक रूप