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सम्पानचदिका भाषाटीका )
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बहुरि तिसही के प्रचक्षुदर्शनावरण के क्षयोपशम से उपज्या जघन्य अचक्षुदर्शन भी हो है । सो इहां बहुत क्षुद्रभवरूप पर्याय के धरने से उत्पन्न भया बहुत संक्लेश, ताके बधने करि आवरण का अति तीव्र अनुभाग का उदय हो है । तातै भद्रभवनि का अंत क्षुद्रभवनि विर्षे पर्यायज्ञान कह्या है। बहुरि द्वितीयादि समयनि विष ज्ञान बधता संभव हैं; तातै तीनि वक्र विर्षे प्रथम बक्र का समय ही विर्षे पर्यायज्ञान कह्या है ।
सहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि । फासिदियगदिपुव्वं, सुदणाणं लद्धिमक्खरयं ॥३२२॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये ।
स्पर्शनेंद्रियमतिपूर्व श्रुतज्ञानं लब्ध्यक्षरकं ।।३२२१॥ टोका -- सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक जीव के उपजने का पहिला समय विर्षे सर्व तें जघन्य स्पर्शन इंद्रिय संबंधी मतिज्ञानपूर्वक लब्धि अक्षर है, दूसरा नाम जाका, असा पर्याय ज्ञान हो है । लब्धि कहिए श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम, वा जानन शक्ति, ताकरि अक्षरं कहिए अविनाशी, सो असा पर्यायज्ञान ही है; जातें इतना क्षयोपशम सदाकाल विद्यमान रहै है।
प्रागै दश गाथानि करि पर्यायसमास ज्ञान की प्ररूपं हैं । अबरुवरिम्मि अरणंतमसंखं संखं च भागवड्ढोए । संखमसंखमणतं, गुणवढी होति हु कमेण ॥३२३॥
अवरोपरि अनंतमसंख्य संख्यं च भागवृद्धयः ।
संख्यमसंख्यमनंतं, गुणवृद्धयो भवंति हि कमेण ।।३२३॥ टीका -- सर्व तें जघन्य पर्याय नामा ज्ञान, ताके ऊपरि आगें अनुक्रम ते मार्ग कहिए है । तिस परिपाटी करि १. अनंत भागवृद्धि, २. असंख्यात भागवृद्धि, ३. संख्यात. भागवृद्धि, ४. संख्यात गुणवृद्धि, ५. असंख्यात गुणवृद्धि, ६. अनंतगुण वृद्धि, ७. ए षट्स्थान पतित वृद्धि हो हैं ।
१ पखंअगम - धमला पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की टीका । २. पखंडापम - धघला पुस्तक ६, पृष्ठ २२ को टीका।