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सम्यग्ज्ञानवनिका भाषाटोका ]
टीका - एक घाटि एकट्ठी प्रमाण समस्त श्रुत के अक्षर कहे तिनिकौं परमागम विर्षे प्रसिद्ध जो मध्यम पद, ताके अक्षरनि का प्रमाण सोला से चौतोस कोडि तियासी लाख सात हजार आठ सै अठ्यासी, ताका भाग दीए, जो पदनि का प्रमाण प्रावै तितने तो अंगपूर्व संबंधी मध्यम पद जानने । बहुरि अवशेष जे अक्षर रहे, ते प्रकीर्णकों के जानने । सो एक सौ बारह कोडि तियासी लाख अठावन हजार पांच इतने तो अंग प्रविष्ट श्रुत का पदनि का प्रमाण पाया । अवशेष पाठ कोडि एक लाख आठ हजार एक सै पिचहत्तरि अक्षर रहे, ते अंगबाह्य प्रकीर्णक के जानने । असे अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य दोय प्रकार श्रुत के पदनि का वा अक्षरनि का प्रमाण हे भव्य ! तू जानि ।
प्रामें श्री माधवचन्द्र विद्यदेव तेरह गाथानि करि अंगपूर्वनि के पदनि की संख्या प्ररूप हैं -
आयारे सुद्दयडे, ठाणे समवायणामगे अंगे। सो लिखापतीए साहारह धम्मकहा ॥३५६॥
प्राचारे सूत्रकृते, स्थाने समवायनामके अंगे।
ततो व्याख्याप्रज्ञप्तौ नाथस्य धर्मकथायाम् ।।३५६।। टीका - द्रव्य श्रुत की अपेक्षा सार्थक निरुक्तिः लीएं, अंगपूर्व के पदनि की संख्या कहिए है । जातै भावश्रुत विषै. निरुक्त्यादिक संभव नाहीं । तहां द्वादश अंगनि विर्षे प्रथम ही आचारांग है । जाते परमागम जो है, सो मोक्ष के निमित्त है । याही ते मोक्षाभिलाषी याकौं प्रादरे हैं । तहाँ मोक्ष का कारण संवर, निर्जरा, तिनिका कारण पंचाचारादि सकल चारित्र है । तातै तिस चारित्र का प्रतिपादक शास्त्र पहिले कहना सिद्ध भया । तीहि कारण ते च्यारि ज्ञान, सप्त ऋद्धि के धारक गणधर देवनि करि तीर्थकर के मुखकमल से उत्पन्न जो सर्व भाषामयः दिव्यध्वनि, ताके सुनने ते जो अर्थ अवधारण किया, तिनिकरि शिष्य प्रति शिष्यनि के अनुग्रह निमित्त द्वादशांगरूप श्रुत रचना करी । .. .......... ... ...
तीहिं विर्षे पहिले प्राचारांग कह्या । सो आचरन्ति कहिए समस्तपन मोक्ष मार्म कौं पाराध हैं, याकरि सो प्राचार; तिहि. प्राचारांग विर्षे असा कथन है - जो कैसें चलिए? कैसे खडे रहिये ? कैसे बैठिये ? कैसे सोइए ? कैसे बोलिए? कैसे