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सम्पशानचन्द्रिका भाषाटोका । मिथ्यादृष्टी हो है। जाते सूत्र का अश्रद्धान करि जिन श्राशा का उल्लंघन का सुप्रसिद्धपना है, तीहि कारण तें मिथ्यादृष्टी हो है ।
भाग असंयतपना अर सम्यग्दृष्टीपना के सामानाधिकरथ्य को दिखाने हैं -
खो इंदियेसु विरदो, यो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्बहदि जिणुत्तं, सम्माइठ्ठी अविरदोसो ॥२६॥
मो इंद्रियेषु विरतो, नो जीवे स्थावरे असे वापि।
यः श्रद्दधाति जिनोक्त, सम्यग्दृष्टिरविरतः सः ॥२९॥ ____टोका - जो जीव इंद्रियविषयनि विर्ष नोविरत - विरति रहित है, बहरि तसे हो स्थावर, अस जोव की हिंसा विर्षे मीही विस्त है - त्याग रहित है । बहुरि जिन करि उपदेश्या प्रवचन कौं श्रद्धान कर है, सो जीव अविरत सम्यादृष्टी हो है । या करि असंयत, सोई सम्यग्दृष्टी, सो असंयतसम्यग्दृष्टी है ऐसे समानाधिकरणपना दृढ कीया । बहुत विशेषणनि का एक वस्तु आधार होइ, तहां कर्मधारेय समास विर्षे समानाधिरणपना जानना । बहुरि अपि शब्द करि ताकै संवेगादिक सम्यक्त्व के गुण भी याकै पाइए है, ऐसा सूचे है। बहुरि इहां जो अविरत विशेषण हैं, सो अत्यदीपक समान जानना । जैसे छहडें धरथा हुवा दीपक, पिछले सर्वपदार्थनि कौ प्रकाशै, तैसैं इहां अविरत विशेपण नीचे के मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थाननि विर्षे अविरतपना कौं प्रकाश है, ऐसा संबंध जानना। बहुरि अपि शब्द करि अनुकंपा भी है।
भावार्थ-कोऊ जानेगा कि विषयनि विर्षे अविरती है, तातै विषयानुरागी बहुत होगा, सो नाहीं है, संवेगादि गुणसंयुक्त है । बहुरि हिंसादि विर्षे अविरति है, तातै निर्दयी होगा, सो नाहीं है; दया भाव संयुक्त है, ऐसा अविरतसम्यग्दृष्टि है।
प्रागै देशसंयत गुणस्थान कौं गाथा दोय करि निर्देश करै हैं --
पच्चक्खाणुदयादो, संजमभावो रण होदि पवार तु। . थोवववो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमो ॥३०॥
१. बर्खागम - पचला पुस्तक १, पृष्ठ १७४, गाथा १११. २. षट्खंडागम - धवला पुस्तक, पृष्ठ १७६, गाथा ११२.